Rangbhoomi Munshi Premchand रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद

Hindi Kavita

रंगभूमि अध्याय 39

Rangbhoomi - Munshi Premchand (Chapter 39)

तीसरे दिन यात्रा समाप्त हो गई, तो संधया हो चुकी थी। सोफिया और विनय दोनों डरते हुए गाड़ी से उतरे कि कहीं किसी परिचित आदमी से भेंट न हो जाए। सोफिया ने सेवा-भवन (विनयसिंह के घर) चलने का विचार किया; लेकिन आज वह बहुत कातर हो रही थी। रानीजी न जाने कैसे पेश आएँ। वह पछता रही थी कि नाहक यहाँ आई; न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। अब उसे अपने ग्रामीण जीवन की याद आने लगी। कितनी शांति थी, कितना सरल जीवन था, न कोई विघ्न था, न बाधा; न किसी से द्वेष था, न मत्सर। विनयसिंह उसे तस्कीन देते हुए बोले-दिल मजबूत रखना, जरा भी मत डरना, सच्ची घटनाएँ बयान करना, बिलकुल सच्ची, तनिक भी अतिशयोक्ति न हो, जरा भी खुशामद न हो। दया-प्रार्थना का एक शब्द भी मुख से मत निकालना। मैं बातों को घटा-बढ़ाकर अपनी प्राण-रक्षा नहीं करना चाहता। न्याय और शुध्द न्याय चाहता हूँं यदि वह तुमसे अशिष्टता का व्यवहार करें, कटु वचनों का प्रहार करने लगें, तो तुम क्षण-भर भी मत ठहरना। प्रात:काल आकर मुझसे एक-एक बात कहना। या कहो, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?

Rangbhoomi-Munshi-Premchand

सोफी उन्हें साथ लेकर चलने पर राजी न हुई। विनय तो पाँडेपुर की तरफ चले, वह सेवा-भवन की ओर चली। ताँगेवाले ने कहा-मिस साहब, आप कहीं चली गई थीं क्या? बहुत दिनों बाद दिखलाई दीं। सोफी का कलेजा धक-धक करने लगा। बोली-तुमने मुझे कब देखा? मैं तो इस शहर में पहली बार आई हूँ।
ताँगेवाले ने कहा-आप ही-जैसी एक मिस साहब यहाँ सेवक साहब की बेटी भी थीं। मैंने समझा, आप ही होंगी।
सोफिया-मैं ईसाई नहीं हूँ।
जब वह सेवा-भवन के सामने पहुँची, तो ताँगे से उतर पड़ी। वह रानीजी से मिलने के पहले अपने आने की कानोंकान भी खबर न होने देना चाहती थी। हाथ में अपना बैग लिए हुए डयोढ़ी पर गई और दरबान से बोली-जाकर रानीजी से कहो, मिस सोफिया आपसे मिलना चाहती हैं।
दरबान उसे पहचानता ही था। उठकर सलाम किया और बोला-हुजूर, भीतर चलें, इत्ताला क्या करनी है! बहुत दिनों बाद आपके दरसन हुए।
सोफिया-मैं बहुत अच्छी तरह खड़ी हूँ। तुम जाकर इत्तिाला तो दो।
दरबान-सरकार, उनका मिजाज आप जानती ही हैं। बिगड़ जाएँगी कि उन्हें साथ क्यों न लाया, इत्तिाला क्यों देने आया?
सोफिया-मेरी खातिर से दो-चार बातें सुन लेना।
दरबार अंदर गया, तो सोफिया का दिल इस तरह धड़क रहा था, जैसे कोई पत्ता हिल रहा हो। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। धड़का लगा हुआ था-कहीं रानी साहब गुस्से में भरी वहीं से बिगड़ती हुई न आएँ, यह कहला दें, चली जा, नहीं मिलती! बिना एक बार उनसे मिले तो मैं न जाऊँगी, चाहे वह हजार बार दुतकारें।
एक मिनट भी न गुजरने पाया था कि रानीजी एक शाल ओढ़े हुए द्वार पर आ गईं और उससे टूटकर गले मिली, जैसे माता ससुराल से आनेवाली बेटी को गले लगा ले। उनकी आँखों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। अवरुध्द कंठ से बोली-तुम यहीं क्यों खड़ी हो गईं बेटी, अंदर क्यों न चली आईं? मैं तो नित्यप्रति तुम्हारी बाट जोहती रहती थी। तुमसे मिलने को जी तड़प-तड़पकर रह जाता था। मुझे आशा हो रही थी कि तुम आ रही हो, पर तुम आती न थीं। कई बार यों ही स्टेशन तक गई कि शायद तुम्हें देख पाऊँ। ईश्वर से नित्य मनाती थी कि एक बार तुमसे मिला दे। चलो, भीतर चलो। मैंने तुम्हें जो दुर्वचन कहे थे, उन्हें भूल जाओ! (दरबान से) यह बैग उठा ले। महरी से कह दे, मिस सोफिया का पुराना कमरा साफ कर दे। बेटी, तुम्हारे कमरे की ओर ताकने की हिम्मत नहीं पड़ती, दिल भर-भर आता है।
यह कहते हुए सोफिया का हाथ पकड़े अपने कमरे में आईं और उसे अपनी बगल में मसनद पर बैठाकर बोलीं-आज मेरी मनोकामना पूरी हो गई। तुमसे मिलने के लिए जी बहुत बेचैन था।
सोफिया का चिंता-पीड़ित हृदय इस निरपेक्षित स्नेह-बाहुल्य से विह्नल हो उठा। वह केवल इतना कह सकी-मुझे भी आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। आपसे दया-भिक्षा माँगने आई हूँ।
रानी-बेटी, तुम देवी हो, मेरी बुध्दि पर परदा पड़ा था। मैंने तुम्हें पहचाना न था। मुझे मालूम है बेटी, सब सुन चुकी हूँ। तुम्हारी आत्मा इतनी पवित्र है, यह मुझे न मालूम था। आह! अगर पहले से जानती।

यह कहते-कहते रानीजी फूट-फूटकर रोने लगीं। जब चित्ता शांत हुआ, तो फिर बोलीं-अगर पहले से जान गई होती, तो आज इस घर को देखकर कलेजा ठंडा होता। आह! मैंने विनय के साथ घोर अन्याय किया। तुम्हें न मालूम होगा बेटी, जब तुमने...(सोचकर) वीरपालसिंह ही नाम था? हाँ, जब तुमने उसके घर पर रात के समय विनय का तिरस्कार किया, तो वह लज्जित होकर रियासत के अधिकारियों के पास कैदियो पर दया करने के लिए दौड़ता रहा। दिन-दिन भर निराहार और निर्जल पड़ा रहता, रात-रात भर पड़ा रोया करता, कभी दीवान के पास जाता, कभी एजेंट के पास, कभी पुलिस के प्रधान कर्मचारी के पास, कभी महाराजा के पास। सबसे अनुनय-विनय करके हार गया। किसी ने न सुनी। कैदियों की दशा पर किसी को दया न आई। बेचारा विनय हताश होकर अपने डेरे पर आया। न जाने किस सोच में बैठा था कि मेरा पत्र उसे मिला। हाय! (रोकर) सोफी, वह पत्र नहीं था; विष का प्याला था, जिसे मैंने अपने हाथों उसे पिलाया; कटार थी, जिसे मैंने अपने हाथों उसकी गर्दन पर फेरा। मैंने लिखा था, तुम इस योग्य नहीं हो कि मैं तुम्हें अपना पुत्र समझ्रू, तुम मुझे अपनी सूरत न दिखाना। और भी न जाने कितनी कठोर बातें लिखी थीं। याद करती हूँ, तो छाती फटने लगती है। यह पत्र पाते ही वह बिना किसी से कुछ कहे-सुने नायकराम के साथ यहाँ आने के लिए तैयार हो गया। कई स्टेशनों तक नायकराम उसके साथ आए। पंडाजी को फिर नींद आ गई। और जब आँख खुली, तो विनय का कहीं गाड़ी में पता न था। उन्होंने सारी गाड़ी तलाश की। फिर उदयपुर तक गए। रास्ते में एक-एक स्टेशन पर उतरकर पूछ-ताछ की, पर कुछ पता न चला। बेटी, यह इस अभागिनी की राम-कथा है। मैं हत्यारिन हूँ! मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में और कौन होगी? न जाने विनय का क्या हाल हुआ; कुछ पता नहीं। उसमें बड़ा आत्माभिमान था बेटी, बात का बड़ा धनी था। मेरी बातें उसके दिल पर चोट कर गई। मेरे प्यारे लाल ने कभी सुख न पाया। उसका सारा जीवन तपस्या ही में कटा।

यह कहकर रानी फिर रोने लगीं। सोफी भी रो रही थी। पर दोनों के मनोभावों में कितना अंतर था! रानी के आँसू दु:ख; शोक और विषाद के थे, सोफी के आँसू हर्ष और उल्लास के।
एक कक्ष में रानीजी ने पूछा-क्यों बेटी, तुमने उसे जेल जाते देखा था, तो बहुत दुबला हो गया था?
सोफी-जी हाँ, पहचाने न जाते थे।
रानी-उसने समझा विद्रोहियों ने तुम्हारे साथ न जाने क्या व्यवहार किया हो। बस, इस बात पर उसे जिद पड़ गई। आराम से बैठो बेटी,अब यही तुम्हारा घर है। अब मेरे लिए तुम्हीं विनय की प्रतिच्छाया हो। अब यह बताओ, तुमने इतने दिनों कहाँ थीं? इंद्रदत्ता तो कहता था कि तुम विनय का तिरस्कार करके तीन ही चार दिन बाद वहाँ से चली आई थीं। इतने दिनों कहाँ रहीं? साल-भर से ऊपर तो हो गया होगा।
सोफिया का हृदय आनंद से गद्गद् हो रहा था। जी में तो आया कि इसी वक्त सारा वृत्तांत कह सुनाऊँ, माता को शोकाग्नि शांत कर दूँ। पर भय हुआ कि कहीं इनका धर्माभिमान फिर न जागृत हो जाए। विनय की ओर से तो अब वह निश्ंचित हो गई थी। केवल अपने ही विषय में शंका थी। देवता को न पाकर हम पाषाण-प्रतिष्ठा करते हैं। देवता मिल गया, तो पत्थर को कौन पूजे? बोली-क्या बताऊँ, कहाँ थी? इधर-उधर भटकती फिरती थी। और शरण ही कहाँ थी! अपनी भूल पर पछताती और रोती थी। निराश होकर यहाँ चली आई।

रानी-तुम व्यर्थ इतने दिनों कष्ट उठाती रहीं। क्या यह घर तुम्हारा न था? बुरा न मानना बेटी, तुमने विनय के साथ बड़ा अन्याय किया-उतना ही, जितना मैंने। तुम्हारी बात उसे और भी ज्यादा लगी; क्योंकि उसने जो कुछ किया था, तुम्हारे ही हित के लिए किया था। मैं अपने प्रियतम के साथ इतनी निर्दयता कभी न कर सकती। अब तुम स्वयं अपनी भूल पर पछता रही होगी। हम दोनों ही अभिमानी हैं। आह! बेचारे विनय को कहीं सुख न मिला। तुम्हारा हृदय अत्यंत कठोर है। सोचो, अगर तुम्हें खबर मिलती कि विनय को डाकुओं ने पकड़कर मार डाला है, तो तुम्हारी क्या दशा हो जाती? शायद तुम भी इतनी ही दया-शून्य हो जाती। यह मानवीय स्वभाव है। मगर अब पछताने से क्या होता है। मैं आप ही नित्य पछताया करती हूँ। अब तो वह काम सँभालना है, जो उसे अपने जीवन में सबसे प्यारा था। तुमने उसके लिए बड़े कष्ट उठाए; अपमान, लज्जा, दंड सब कुछ झेला। अब उसका काम सँभालो। इसी को अपने जीवन का उद्देश्य समझो। तुम्हें क्या खबर होगी, कुछ दिनों तक प्रभु सेवक इस संस्था के व्यवस्थापक हो गए थे। काम करनेवाला हो, तो ऐसा हो। थोड़े ही दिनों में उसने सारा मुल्क छान डाला और पूरे पाँच सौ वालेंटियर जमा कर लिए, बड़े-बड़े शहरों में शाखाएँ खोल दीं, बहुत-सा रुपया जमा कर लिया। मुझे इससे बड़ा आनंद मिलता था कि विनय ने जिस संस्था पर अपना जीवन बलिदान कर दिया, वह फल-फूल रही है। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था। प्रभु सेवक और कुँवर साहब में अनबन हो गई। प्रभु सेवक उसे ठीक उसी मार्ग पर ले जा रहा था, जिस पर विनय ले जाना चाहता था। कुँवर साहब और उनके परम मित्र डॉ. गांगुली उसे दूसरे ही रास्ते पर ले जाना चाहते थे। आखिर प्रभु सेवक ने पद-त्याग कर दिया। तभी से संस्था डावाँडोल हो रही है, जाने बचती है या जाती है। कुँवर साहब में एक विचित्र परिवर्तन हो गया है। वह अब अधिकारियों से सशंक रहने लगे हैं। अफवाह थी कि गवर्नमेंट इनकी कुल जाएदाद जब्त करनेवाली है। अधिकारी मंडल के इस संशय को शांत करने के लिए उन्होंने प्रभु सेवक के कार्यक्रम से अपना विरोध प्रकाशित करा दिया। यही अनबन का मुख्य कारण था। अभी दो महीने भी नहीं गुजरे, लेकिन शीराजा बिखर गया। सैकड़ों सेवक निराश होकर अपने काम-धंधो में लग गए। मुश्किल से दो सौ आदमी और होंगे। चलो बेटी, तुम्हारा कमरा साफ हो गया होगा, तुम्हारे भोजन का प्रबंध करके तब इतमीनान से बातें करूँ। (महाराजिन से) इन्हें पहचानती है न? तब यह मेरी मेहमान थीं, अब मेरी बहू हैं। जा, इनके लिए दो-चार नई चीजें बना ला। आह! आज विनय होता तो मैं अपने हाथों से इसे उसके गले लगा देती, ब्याह रचाती। शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है।

सोफिया की प्रबल इच्छा हुई कि रहस्य खोल दूँ। बात ओठों तक आई और रुक गई।
सहसा शोर मचा-लाला साहब आ गए! लाला साहब आ गए! भैया विनयसिंह आ गए! नौकर-चाकर चारों ओर से दौड़े, लौडियाँ-महरियाँ काम छोड़-छोड़कर भागीं। एक क्षण में विनय ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उसे सिर से पैर तक देखा, मानो निश्चय कर रही थीं कि मेरा ही विनय है या कोई और; अथवा देखना चाहती थीं कि उस पर कोई आघात के चिद्द तो नहीं हैं। तब उठीं और बोलीं-बहुत दिनों में आए बेटा! आओ, छाती से लगा लूँ। लेकिन विनय ने तुरंत उनके चरणों पर सिर रख दिया। रानीजी को अश्रु-प्रवाह में न कुछ सूझता था और न प्रेमावेश में कोई बात मुँह से निकलती थी, झुकी हुई विनय का सिर पकड़कर उठाने की चेष्टा कर रही थीं। भक्ति और वात्सल्य का कितना स्वर्गीय संयोग था।
लेकिन विनय को रानी की बातें न भूली थीं। माता को देखकर उसके दिल में जोश उठा कि इनके चरणों पर आत्मसमर्पण कर दूँ। एक विवशकारी उद्गार था प्राण दे देने के लिए, वहीं माता के चरणों पर जीवन का अंत कर देने के लिए, दिखा देने के लिए कि यद्यपि मैंने अपराध किए हैं, पर सर्वथा लज्जाहीन नहीं हूँ, जीना नहीं जानता, लेकिन मरना जानता हूँ। उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। सामने ही दीवार पर तलवार लटक रही थी। वह कौंधकर तलवार उतार लाया और उसे सर से खींचकर बोला-अम्माँ, इस योग्य तो नहीं हूँ कि आपका पुत्र कहलाऊँ; लेकिन आपकी अंतिम आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी सारी अपकीर्ति का प्रायश्चित्ता कर दिए देता हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिए।
सोफिया चिल्लाकर विनय से लिपट गई। जाह्नवी ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-विनय, ईश्वर साक्षी है, मैं तुम्हें कब का क्षमा कर चुकी। तलवार छोड़ दो। सोफी, तू इनके हाथ से तलवार छीन ले, मेरी मदद कर।
विनयसिंह की मुखाकृति तेजोमय हो रही थी, आँखे बीरबहूटी बनी हुई थीं। उसे अनुभव हो रहा था कि गर्दन पर तलवार मार लेना कितना सरल है। सोफिया ने दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़ ली और अश्रुपूरित लोचनों से ताकती हुई बोली-विनय, मुझ पर दया करो!
उसकी दृष्टि इतनी करुण, इतनी दीन थी कि विनय का हृदय पसीज गया। मुट्ठी ढीली पड़ गई। सोफिया ने तलवार लेकर खूँटी पर लटका दी। इतने में कुँवर भरतसिंह आकर खड़े हो गए और विनय को हृदय से लगाते हुए बोले-तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते, मुँछें कितनी बढ़ गई हैं! इतने दुबले क्यों हो? बीमार थे क्या?
विनय-जी नहीं, बीमार तो नहीं था। ऐसा दुबला भी नहीं हूँ। अब माताजी के हाथों के पकवान खाकर मोटा हो जाऊँगा।
कुँवर-तुम दूर क्यों खड़ी हो सोफिया? आओ, तुम्हें प्यार कर लूँ। रोज ही तुम्हारी याद आती थी। विनय बड़ा भाग्यशाली था कि तुम-जैसी रमणी पाई। संसार में तो मिलती नहीं, स्वर्ग की मैं नहीं कहता। अच्छा संयोग है कि तुम दोनों एक ही दिन आए। बेटी, मैं तुमसे विनय की सिफारिश करता हूँ। तुमने इन्हें जो फटकार बताई थी, उसे सुनकर बेचारा नायकराम स्त्रिायों से इतना डर गया कि तय की कराई सगाई से इनकार कर गया। उम्र भर स्त्री के लिए तरसता रहा, पर अब नाम भी नहीं लेता। कहता है-यह बेवफा जात होती है। भैया विनयसिंह ने जिसके लिए बदनामी सही, जान पर खेले, वही उनसे आँखें फेर ले! कान पकड़े, अब तो मर जाऊँगा, पर ब्याह न करूँगा। अपना हाथ बढ़ाओ विनय! सोफी, यह हाथ लो, तो मुझे इतमीनान हो जाए कि तुम्हारे दिल साफ हो गए। जाह्नवी, चलो हम लोग बाहर चलें, इन्हें एक दूसरे को मनाने दो। इन्हें कितनी ही शिकायतें करनी होंगी, बातें करने के लिए विकल हो रहे होंगे। आज बड़ा शुभ दिन है।
जब एकांत हुआ, तो सोफी ने पूछा-तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए?
विनय ने सकुचाते हुए कहा-सोफी, मुझे वहाँ मुँह छिपाकर बैठते हुए शर्म आती थी। प्राण-भय से दबक जाना कायरों का काम है। माताजी की जो इच्छा हो, वही सही। नायकराम कहता रहा, पहले मिस साहब को आने दो; लेकिन मुझसे न रहा गया।
सोफिया-खैर, अच्छा ही हुआ, खूब आ गए। माताजी तुम्हारी चर्चा करके आठ-आठ आँसू रोती थी। उनका दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया है।
विनय-तुम्हें तो कुछ नहीं कहा?
सोफिया-मुझसे तो ऐसा टूटकर गले मिलीं कि मैं चकित हो गई। यह उन्हीं कठोर वचनों का प्रभाव है, जो मैंने तुम्हें कहे थे। माता आप चाहे पुत्र को कितनी ही ताड़ना दे, यह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे। मेरे अन्याय ने उनकी न्याय-भावना को जागृत कर दिया।
विनय-हम लोग बड़े शुभ मुहूर्त में चले थे।
सोफिया-हाँ विनय, अभी तक तो कुशल से बीती। आगे की ईश्वर जाने।
विनय-हम अपना दु:ख का हिस्सा भोग चुके।
सोफिया ने आशंकित स्वर से कहा-ईश्वर करे, ऐसा ही हो।
किंतु सोफिया के अंतस्तल में अनिष्ट-शंका का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था। वह उसे प्रकट न कर सकती थी, पर उसका चित्ता उदास था। सम्भव है कि जन्मगत धार्मिक संस्कारों से विमुख हो जाने का खेद इसका कारण हो अथवा वह इसे वह अतिवृष्टि समझ रही हो, जो अनावृष्टि की सूचना देती है। कह नहीं सकते, पर जब सोफी रात को भोजन करके सोई, तो उसका चित्ता किसी बोझ से दबा हुआ था।

रंगभूमि अध्याय 40

मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थना की गई थी और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। इसलिए निर्माण-कार्य को उस तिथि तक समाप्त करने के लिए बड़े उत्साह से काम किया जा रहा था। उस दिन तक कोई काम बाकी न रहना चाहिए। मजा तो जब आए कि दावत में इसी मिल का बना हुआ सिगार भी रखा जाए। मिस्टर जॉन सेवक सुबह से शाम तक इन्हीं तैयारियों में दत्ताचित्ता रहते थे। यहाँ तक कि रात को दुगुनी मजदूरी देकर काम कराया जा रहा था। मिल के आस-पास पक्के मकान बन चुके थे। सड़क के दोनों किनारों पर और निकट के खेतों में मजदूरों ने झोंपड़ियाँ डाल ली थीं। एक मील तक सड़क के दोनों ओर झोंपड़ियों की श्रेणियों ही नजर आती थीं। यहाँ बड़ी चहल-पहल रहती थी। दूकानदारों ने भी अपने-अपने छप्पर डाल लिए थे। पान,मिठाई, अनाज, गुड़, घी, साग, भाजी और मादक वस्तुओं की दूकानें खुल गई थीं। मालूम होता था, कोई पैठ है।

मिल के परदेसी मजदूर, जिन्हें न बिरदारी का भय था, न सम्बंधियों का लिहाज, दिन-भर तो मिल के काम करते, रात को ताड़ी-शराब पीते। जुआ नित्य होता था। ऐसे स्थानों पर कुलटाएँ भी आ पहुँचती हैं। यहाँ भी एक छोटा-मोटा चकला आबाद हो गया था। पाँड़ेपुर का पुराना बाजार सर्द होता जाता था। मिठुआ, घीसू, विद्याधर तीनों अकसर इधर सैर करने आते और जुआ खेलते। घीसू तो दूध बेचने के बहाने आता,विद्याधर नौकरी खोजने के बहाने और मिठुआ केवल उन दोनों का साथ देने आया करता था। दस-ग्यारह बजे रात तक वहाँ बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा है, कोई तम्बोली की दूकान के सामने खड़ा है, कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास-परिहास, लज्जास्पद नेत्र-कटाक्ष और कुवासनापूर्ण हाव-भाव का अविरल प्रवाह होता रहता था। पाँड़ेपुर में ये दिलचस्पियाँ कहाँ? लड़कों की हिम्मत न पड़ती थी कि ताड़ी की दूकान के सामने खड़े हों, कहीं घर का कोई आदमी देख न ले। युवकों की मजाल न थी कि किसी स्त्री को छेड़े, कहीं मेरे घर जाकर कह न दे। सभी एक दूसरे से सम्बंध रखते थे। यहाँ वे रुकावटें कहाँ? प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था। उसे न किसी का भय था, न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था। तीनों ही युवकों को मना किया जाता था, वहाँ न जाएा करो, जाओ भी तो अपना काम करके चले आया करो; किंतु जवानी दीवानी होती है, कौन किसी की सुनता है। सबसे बुरी दशा बजरंगी की थी। घीसू नित्य रुपये-आठ आने उड़ा लिया करता। पूछने पर बिगड़कर कहता, क्या मैं चोर हूँ?

एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा-सूरे, लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखो, चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।
जगधर सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला-मेरी भी वही दसा है भाई! विद्याधर को कितना पढ़ाया-लिखाया, मिडिल तक खींच-खाँचकर ले गया। आप भूखा रहता था, घर के लोग कपड़ों को तरसते थे, मगर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थी, चार पैसे कमाएगा, मेरा बुढ़ापा कट जाएगा, घर-बार सँभालेगा, बिरादरी में मरजाद बढ़ाएगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँ, किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतलीघर के कई मजदूर उसे खोजते हुए मेरे पास आए थे। उसे पा जाएँ तो मार-पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ-पैरकर पकड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुला, हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर है, चार पैसे की आमदनी है। पहले एक ही खोंचा न बिकता था, अब तीन-तीन बिक जाते हैं, लेकिन ऐसा सोना किस काम का, जिससे कान फटे!
बजरंगी-अजी, जुआ ही खेलता, तब तक गनीमत थी, हमारा घीसू तो आवारा हो गया है। देखते नहीं हो, सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आशा थी कि अब दंगल मारेगा, अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं है, मगर जब से चकले की चाट पड़ गई है, दिन-दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था न? दस-पाँच कोस के इर्द-गिर्द कोई उनसे हाथ न मिला सकता था। चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही था, उस पंजाबी को कैसा मारा था कि पाँच सौ रुपये इनाम पाए और अखबारों में दूर-दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धूल नहीं लगाई। तो बात क्या थी? लँगोटे के सच्चे थे। मोंछें निकल आई थीं, तब तक किसी औरत का मुँह न देखा था। ब्याह हो गया, तब भी मेहनत-कसरत की धुन में औरत का धयान ही न करते थे। उसी के बल पर अब भी दावा है कि दस-पाँच का सामना हो जाए, तो छक्के छुड़ा दूँ, पर इस लौंड़े ने डोंगा डुबा दिया?घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं है, जहाँ दो पकड़ हुए, बस भैंसे की तरह हाँफने लगता है।
सूरदास-मैं अंधा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँ, पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया है, रुपये-आठ आने रोज कमाता है, मुदा कसम ले लो, जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता है; जो कुछ पाता है,नसे-पानी में उड़ा देता है।
जगधर-तुम भी झूठमूठ लाज ढो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देते घर से? अपने सिर पड़ेगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का हो, तो एक बात है; भाई-भतीजे किसके होते हैं?
सूरदास-पाला तो लड़के ही की तरह, दिल ही नहीं मानता।
जगधर-अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जाएगा।
ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधर की बात सुनकर बोला-भगवान् ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा है, किसी का भी भला नहीं देख सकते?
सूरदास-उसके मन में जो आए, करे, पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछँ।
ठाकुरदीन-कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पाला, और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगा, उसे अब छोड़ दें।?
जमुनी-अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें थोड़ा है। अभी दूधा के दाँत नहीं टूटे, सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया है, सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे-बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहो, सुभागी की काठी अच्छी है, नहीं बाल-बच्चे हुए होते, तो घीसू से जेठे होते।
यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँधा रहे थे। घीसू ने कहा-सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती है, सो जान ले लेती है। बड़ी काफर है!
विद्याधर-तुम तो हो घामड़, पढ़े-लिखे तो हो नहीं, बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी आँखों से ताड़ जाना चाहिए। जितना ही बिगड़े, उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।
मिठुआ-पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थी, किसी तरह हत्थे ही न चढ़े, बात तक न सुने; पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ ली, और बोला-अब न छोड़ँईगा, चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है ही, तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँ, तेरे हाथों मरूँगा, तो सिधो सरग जाऊँगा। पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगी, फिर कहने लगी-छोड़ दो, कहीं कोई देख ले, तो गजब हो जाए। मैं तेरी बुआ लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बस, फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।
मिठुआ अपनी प्रेम-विजय की कल्पित कथाएँ गढ़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधर को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्रों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला-क्या करूँ, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता हूँ, कहीं शोर मचा दे, तो आफत आ जाए। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थी?
विद्याधर-तुम्हारा सिर जाहिल-जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आजमाता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती है, जो दिलावर हो, निडर हो, आग में कूद पड़े।
घीसू-तुम तैयार हो?
विद्याधर-हाँ, आज ही।
मिठुआ-मगर देख लेना, दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।
घीसू-इसका क्या डर। एक धाक्का दूँगा, दूर जाके गिरेगा।
तीनों मिस्कौट करते, इस षडयंत्र के दाँव-पेच सोचते हुए, कुली बाजार की तरफ चले गए। वहाँ तीनों ने शराब पी, दस-ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना-बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वरहीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटे, तो घीसू बोला-सलाह पक्की है न? आज वारा-न्यारा हो जाए, चित पड़े या पट।
आधी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्याधर सूरदास के द्वार पर आए।
घीसू-तुम आगे चलो, मैं यहाँ खड़ा हूँ।
विद्याधर-नहीं, तुम जाओ, तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगा, तो बात भी न बना सकोगे।
नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते हो, उतना बोदा नहीं हूँ। झोंपड़ी में घुस ही तो पड़ा, और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली-कौन है? हट।
घीसू-चुप-चुप, मैं हूँ।
सुभागी-चोर-चोर! चोर-चोर!
सूरदास जागा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछा, कौन है? जब कुछ उत्तार न मिला,तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया-चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछा, कहाँ, गया कहाँ? सुभागी बोली, मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहा, एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखा, तो भीतर सुभागी घीसू को पकड़े हुए है, बाहर सूरदास विद्याधर को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पँचलतियाँ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैं, तो न चोर, न चोर का भाई, बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।
एक स्त्री बोली-यह जमाने की खूबी है कि गाँव-घर का विचार उठ गया, किसकी आबरू बचेगी!
ठाकुरदीन-ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।
नायकराम-चुप रहो ठाकुरदीन, यह गुस्सा करने की बात नहीं, रोने की बात है।
जगधर-बजरंगी जमुनी सिर झुकाए चुप खड़े थे, मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि घीसू का गला घोंट दे। यह जमाव और हलचल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुँचे। अच्छा शिकार फँसा, मुट्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लीं। जमुनी ने रोकर कहा-ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगा, छ:-छ: महीने की सजा काट आएँगे, तब इनकी आँखें खुलेंगी। समझाते-समझाते हार गई कि बेटा, कुराह मत चलो, लेकिन कौन सुनता है? अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।
नायकराम-अच्छा, अब अपने-अपने घर जाते जाव। जमादार, लौंड़ें हैं, छोड़ दो, आओ चलें।
जमादार-ऐसा न कहो पंडाजी, कोतवाल साहब को मालूम हो जाएगा, तो समझेंगे, इन सबों ने ले-देकर छोड़ दिया होगा।
नायकराम-क्या कहते हो सूरे, अब ये लोग जाएँ न?
ठाकुरदीन-हाँ, और क्या। लड़कों से भूल-चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ।
सूरदास-मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवाल, डिपटी, हाकिम लोग!
बजरंगी-सूरे, भगवान जानता है, जान का डर न होता, तो इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाता।
सूरदास-अब तो हाकिम लोगों के हाथ में है, छोड़ें चाहे सजा दें।
बजरंगी-तुम कुछ न करो, तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।
सूरदास-तो भैया, साफ-साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट किए न मानूँगा, चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाए।
बजरंगी-क्या यही होगा सूरदास? गाँव-घर, टोले-मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगे? लड़कों से भूल तो हो ही गई, अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगा?
जगधर-सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरों ने छोड़ दिया, सारा मुहल्ला उसका रंग-ढंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ-गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता!
सूरदास-तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाई, सुभागी देवी हो, चाहे हरजाई हो, वह जाने, उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा है, इसकी थाने में जरूर इत्तिाला करूँगा, थानेवाले न सुनेंगे, तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैं; सोहदों की राह चलें, तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींगपूँछ होती है?
बजरंगी-सूरे, कहे देता हूँ, खून हो जाएगा।
सूरदास-तो क्या हो जाएगा? कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ है?
नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करें? चलने लगे, तो जगधर ने कहा-पंडाजी, तुम भी जाते हो, यहाँ क्या होगा?
नायकराम ने जवाब दिया-भाई, सूरदास मानेगा नहीं, चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुका, कहो और हाथ-पैर पड़ईँ, पर होना-हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्या, मिठुआ भी होता, तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।
जगधर-ऐसा कहाँ का धान्नासेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलो, ज़रा डाँटकर कहो तो।
नायकराम लौटकर सूरदास से बोले-सूरे, कभी-कभी गाँव-घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगे?
सूरदास-पंडाजी, तुम भी औरों की-सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहीं? क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहीं? सुभागी गरीब है, अबला है, मजूरी करके अपना पेट पालती है, इसलिए जो कोई चाहे, उसकी आबरू बिगाड़ दे? जो चाहे, उसे हरजाई समझ ले?
सारा मुहल्ला एक हो गया, यहाँ तक दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की-सी कहने लगे। एक बोला-औरत खुद हरजाई है।
दूसरा-मुहल्ले के आदमी चाहें, तो खून पचा लें, यह कौन-सा बड़ा जुर्म है।
पहला-सहादत ही न मिलेगी, तो जुर्म क्या साबित होगा?
सूरदास-सहादत तो जब न मिलेगी, जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई है?
चौकीदार-हरजाई तो है ही। एक बार नहीं, सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।
सूरदास-तो बाजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम है?
चौकीदार-अरे, तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगे?
नायकराम-अच्छी बात है, इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।
सूरदास-हाँ दारोगाजी के मन में जो आए करें, दोस-पास उनके साथ हैं।
नायकराम-कहता हूँ, मुहल्ले में न रहने पाओगे।
सूरदास-जब तक जीता हूँ, तब तक तो रहूँगा, मरने के बाद देखी जाएगी।
कोई सूरदास को धमकाता था, कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रहे गए थे, जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़ाने के पक्ष में थे, वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने-अपने घर चले गए थे। इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था। अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार ही को रोजी कर लेंग। दस-बीस रुपये से गम खाएँगे।
नायकराम-अरे, वही लाला थानेदार है न? उन्हें मैं चुटकी बजाते-बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान-पहचान है।
जगधर-पंडाजी, मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैं, मेरी जान कैसे बचेगी?
नायकराम-मैं भी तो परदेश से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।
जगधर-मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा है, उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरों से दुश्मनी हुई। और, अब भी यह मेरा न हुआ!
नायकराम-यह किसी का नहीं है। जाकर देखो, जहाँ से हो सके, 25 रुपये तो ले ही आओ।
जगधर-भैया, रुपये किससे माँगने जाऊँ? कौन पतियाएगा?
नायकराम-अरे, विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचें, फिर छुड़ा देना।
जगधर बहाने करने लगा-वह छल्ला तक न देगी; मैं मर भी जाऊँ, तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी। यह कहते-कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।
सूरदास प्रात:काल थाने की ओर चला, तो बजरंगी ने कहा-सूरे, तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही है, जाओ।
जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली-सूरे, तुम हमारे बैरी हो जाओगे, यह कभी आसा न थी।
बजरंगी ने कहा-नीच है, और क्या! हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी सोने नहीं दिया। बीमारी-आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूधा माँगने आया, खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा है, अंधों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!
नायकराम पहले ही लपककर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्तांत सुनाकर कहा-पचास का डौल है, कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।
दारोगा ने कहा-पंडाजी, जब तुम बीच में पड़े हुए हो, तो सौ-पचास की कोई बात नहीं; लेकिन अंधो को मालूम हो जाएगा कि रपट नहीं लिखी गई, तो सीधा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जाएगी। निहायत रूखा अफसर है, पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधा यों माननेवाला आसामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिए, तो दूसरों की कौन गिनती है! बस, यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँ, तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जाएगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहीं, गवाहों के बयान में भी कुछ काट-छाँट कर दूँगा।
दूसरे दिन संधया समय दारोगाजी तहकीकात करने आए। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुए; मगर जिससे पूछो, यही कहता है-मुझे कुछ मालूम नहीं है, मैं कुछ नहीं जानता, मैंने रात को किसी की 'चोर-चोर' आवाज नहीं सुनी, मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखा, मैं तो घर में द्वार बंद किए पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदीन ने भी साफ कहा-साहब, मैं कुछ नहीं जानता। दारोगा ने सूरदास पर बिगड़कर कहा-झूठी रपट है बदमाश!
सूरदास-रपट झूठी नहीं है, सच्ची है।
दारोगा-तेरे कहने से सच्ची मान लूँ? कोई गवाह भी है?
सूरदास ने मुहल्लेवालों को सम्बोधित करके कहा-यारो, सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल-मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दी जाए और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाए और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहा, तो समझ लो कि आबरू न बचेगी। भगवान् ने सभी को बेटियाँ दी हैं, कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैं, लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछता, ठाकुरदीन, तुम्हें भगवान का भय है, पहले तुम्हीं आए थे, तुमने यहाँ क्या देखा? क्या मैं और सुभागी दोनों घीसू और विद्याधर का हाथ पकड़े हुए थे? देखो, मुँहदेखी नहीं, साथ कोई न जाएगा। जो कुछ देखा हो,सच कह दो।
ठाकुरदीन धार्मभीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया और बोला-चोरी-डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानता, यही पहले भी कह चुका, बात बदलनी नहीं आती। हाँ, जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।
सूरदास-मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया था?
ठाकुरदीन-यह दैव जाने। हाँ, 'चोर-चोर' की आवाज मेरे कान में आई थी।
सूरदास-अच्छा, अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादार, तुम आए थे न? बोलो, यहाँ जमाव था कि नहीं?
चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखा, तो डरा कि कहीं अंधा दो-चार आदमियों को और फोड़ लेगा, तो हम झूठे पडेंग़े। बोला-हाँ, जमाव क्यों नहीं था!
सूरदास-घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहीं? विद्याधर को मैं पकड़े हुए था कि नहीं?
चौकीदार-चोरी होते हमने नहीं देखी।
सूरदास-हम इन दोनों लड़कों को पक्+ड़े थे कि नहीं?
चौकीदार-हाँ, पकड़े तो थे, पर चोरी होते देखी नहीं?
सूरदास-दारोगाजी, अभी शहादत मिली कि और दूँ? यहाँ नंगे-लुच्चे नहीं बसते, भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिए, बजरंगी से कहला दूँ;कहिए, खुद घीसू से कहला दूँ? कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत मुरौवत की जगह होती है, मुहब्बत मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।
बजरंगी ने देखा, अब लड़के की जान नहीं बचती, तो अपना ईमान क्यों बिगाड़े? दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला-दारोगाजी, सूरे जो बात कहते हैं, वह ठीक है। जिसने जैसी करनी की है, वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ें? लड़का ऐसा नालायक न होता, तो आज मुँह में कालिख क्यों लगती? अब उसका चलन ही बिगड़ गया, तो मैं कहाँ तक बचाऊँगा? सजा भोगेगा, तो आप आँखें खुलेंगी।
हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का ताँता बँधा गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिए गए। मुकदमा चला, तीन-तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधर दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास के गुन गाया करें। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गए। दो बार पहले पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका था, पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आघात न पहुँचा था, अबकी तो उसने घोर अपराध किया था। जमुनी जब सूरदास को देखती, तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी आँखें खोल दीं। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाते। बस, उसके सम्बंधियों में ले-देके एक भैरों रह गया। हाँ, कभी-कभी दूसरों की निगाह बचाकर ठाकुरदीन कुशल-समाचार पूछ जाता। और तो और दयागिरि भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्र समझकर मेरी दक्षिणा-भिक्षा न बंद कर दें। सत्य के मित्र कम होते हैं, शत्रुओं से कहीं कम।

रंगभूमि अध्याय (41-42)

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