जब फागुन रंग झमकते थे...!! - उषा किरण

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जब फागुन रंग झमकते थे...!!
( संस्मरण )

बचपन की मधुर स्मृतियों में  कुछ बहुमूल्य स्मृतियाँ हैं अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।

प्राय: होली पर हमें पापा-मम्मी गाँव में ताऊ जी, ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 

हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता। आहा... गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था ! याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते "आ गई बिट्टो !” ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं। दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 
छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं... ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे... वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी-कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं। परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था।हम भी उनसे लिपटे रहते। पापा अक्सर छेड़ते -"ये उषा अपनी ताई को पटा रही है जिससे पचलड़ी भाभी इसको दे दें !” 

आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते... दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।

रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते... बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते-डरते भाग कर निकल, अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते। चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और सहेलियों से मिलने निकल जाते। 

रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का...? अरे ऊसा-ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो ‘गंठे बबा’ हमें साथ देख जोर से हँसते-हँसते हर बार यही कहते।”

गन्ठे बबा की पीठ पर बड़ा सा कूबड होने के कारण हाइट बहुत कम थी उनकी। इसी से गाँव में सब लोग उनको गन्ठे बबा, गन्ठे लला ही कह कर बुलाते थे। उनको देख कर हम सोचते कि मन्थरा भी ऐसी ही लगती होगी।

गाँव की चाचिएं, ताइएं, दादी लोग खूब प्यार करतीं, आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आतीं, साथ ही पक्के रंग, कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।

पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि 'सन्त’ आ रहे हैं।

पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था। उधर अम्माँ हल्का घूँघट चदरिया हटा जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं, ठिठोली करतीं, हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का भी ये नया रूप होता।

अम्माँ की भी गाँव भर में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी, सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बिटिया और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।

वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको ।
गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर-" हैं काए सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम... लल्ला हमाओ सूख रहो... हैं काए कुछ खबाती  पिबाती नहीं का ?”

"अब का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !” अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 

एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें। हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं -"ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्दर रहीं... जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी... बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं ? और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने... हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुँक जाता, हम रुआँसे हो जाते तो अम्माँ समझातीं `अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं !’

             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह, उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।

गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते। कभी आम, जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर कच्ची मीठी मटर खाते, कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते। चने के खेत से खट्टा कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते, तो कभी तालाब में कूद जाते। कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे नमक, मिर्च या गुड़ के साथ डाल कर या अचार संग खाते।

चूल्हे की धुँआरी अदरक, गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती। चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहतीं में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता। छूतपात के कारण रसोई से दूर खूब बड़े पतीले में ईंटों का चूल्हा बना घंटों भून-भून कर बड़ी ताईजी जिस दिन कलिया बनातीं घर में उस दिन उत्सव का सा ही माहौल रहता।

बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम बच्चों को  देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई, भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने मानती कहाँ थीं !’

गाँव में कई दिनों पहले से होलिका-दहन की तैयारी शुरु हो जाती। पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त, कुर्सी, मेज, मूढ़ा, चौकी सब भेंट चढ़ जाते... बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो। और होली पर भेंट चढ़ी चीज वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 

सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज होता जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते जल देकर परिक्रमा करते और आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए। कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा आधी रात ही होली में लपट दिखा देता बस सारे गाँव में तहलका मच जाता। लोग हाँक लगाते एक दूसरे को, धोती, पजामे संभालते ,आँख मलते जल भरा लोटा लेकर लपड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते ..' अरे ददा ओऽऽ चलियो रेऽऽ काऊ नासपीटे, दाड़ीजार ने रातई में पजार दी होरी... दौड़ियो रे ऽऽ गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास' को फिर।

दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता। घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं। हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं... ' अहाँ कढाई से दूर...’ पर हम दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग, क्या पानी, क्या गोबर, क्या कीचड़... बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते, भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होत। हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई-छपाक् करते फिसल कर धम्म-धम्म गिरते और डाँट खाते जाते "अरे एकाध की हड्डी टूट जाएगी... सिर फूट जाएगा... होश से !”

गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती। गली में ढोल लटका गाते बजाते..." सर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्ररर  होलिया में उड़े रे गुलाल...” गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू-बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था... हाँ क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते-छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।

दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकार  कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी-अपनी टोलियों के साथ... सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले-पीले बेसुध सो जाते।गाँव में कहते थे कि रंग का नशा भाँग से ज़्यादा चढ़ता है।रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।

कभी-कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे। पचपेड़े पर नाना जी की लकदक सफेद विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी जाने का विशेष आकर्षण होती थी, जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं। बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती।घन्टों वहां मंडराते रहते।

मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम। सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे। हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे। ढोल-बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी। हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?

आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं। अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए। कोई बचा ही कहाँ अब... जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते गमकते थे लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं... वो लाड़-चाव, वो डाँट, वो प्यार भरी नसीहतें सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द-पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो, भावनाएँ आहत न हों... सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे। 

आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ !
                                        
                                                  उषा किरण

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