रूप-वर्णन-वृंदावन लीला Roop Varnan-Varindavan Leela Bhakt Surdas Ji

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Roop Varnan-Varindavan Leela Bhakt Surdas Ji
रूप-वर्णन-वृंदावन लीला - सूरदास

रूप-वर्णन - सूरदास

देखौ माई सुंदरता कौ सागर ।
बुधि-बिबेक बल पार न पावत, मगन होत मन नागर ॥
तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि पट पीत तरंग ।
चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग ॥
नैन-मीन, मकराकृत कुंडल, भुज सरि सुभग भुजंग ।
मुक्ता-माला मिलीं मानौ द्वै सुरसरि एकै संग ॥
कनक खचित मनिमय आभूषण, मुख, भ्रम-कन सुख देत ।
जनु जल-निधि मथि प्रगट कियौ ससि, श्री अरू सुधा समेत ॥
देखि सरूप सकल गोपी जन, रहीं बिचारि-बिचारि ।
तदपि सूर तरि सकीं न सोभा, रहीं प्रेम पचि हारि ॥1॥

स्याम भुजनि की सुंदरताई ।
चंदन खौरि अनुपम राजति, सो छवि कही न जाई ॥
बड़े बिसाल जानु लौं परसत,इक उपमा मन आई ।
मनौ भुजंग गगन तैं उतरत, अधमुख रह्यौ झुलाई ॥
रत्न-जटित पहुँची कर राजति, अँगुरी सुंदर भारी ।
सूर मनौ फनि-सिर मनि सोभित, फन-फन की छबि न्यारी ॥2॥

स्याम-अँग जुवती निखि भुलानीं ।
कोउ निरखति कुंडल की आभा, इतनेहिं माँझ बिकानी ॥
ललित कपोल निरखि कोउ अटकी, सिथिल भई ज्यौं पानी ।
देह-गेह की सुधि नहिं काहूँ, हरषित कोउ पछितानी ॥
कोउ निरखति रही ललित नासिका, यह काहू नहिं जानी ।
कोउ निरखति अधरनि की सोभा, फुरति नहीं मुख बानी ॥
कोउ चकित भई दसन-चमक पर, चकचौंधी अकुलानी ।
कोउ निरखति दुति चिबुक चारू की, सूर तरुनि बिततानी ॥3॥

मैं बलि जाउँ स्याम-मुख-छबि पर ।
बलि-बलि जाउँ कुटिल कच बिथुरे, बलि भृकुटी लिलाट पर ॥
बलि-बलि जाउँ चारु अवलोकनि, बलि-बलि कुंडल-रबि की ।
बलि-बलि जाउँ नासिका सुललित, बलिहारी वा छबि की ॥
बलि-बलि जाउँ अरुन अधरनि की, बिद्रुम-बिंब लजावन ।
मैं बलि जाउँ दसन चमकनि की, बारौं तड़ितनि सावन ॥
मैं बलि जाउँ ललित ठोड़ी पर, बलि मोतिनि की माल ।
सुर निरखि तन-मन बलिहारौं, बलि बलि जसुमति-लाल ॥4॥

नटवर-बेष धरे ब्रज आवत ।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, कुटिल अलक मुख पर छबि पावत ॥
भृकुटी बिकट नैन अति चंचल, इहिं छबि पर उपमा इक धावत ।
धनुष देखि खंजन बिबि डरपत, उड़ि न सकत उड़िबै अकुलावत ॥
अधर अनूप मुरलि-सूर पूरत, गौरी राग अलापि बजावत ।
सुरभी-बृंद गोप-बालक-संग, गावत अति आनंद बढ़ावत ॥
कनक-मेखला कटि पीतांबर, निर्तत मंद-मंद सुर गावत ।
सूर स्याम-प्रति-अंग-माधुरी, निरखत ब्रज-जन कैं मन भावत ॥5॥

आवत मोहन धेनु चराए ।
मोर मुकुट सिर, उर बनमाला, हाथ लकुट गोरज लपटाए ॥
कटि कछनि किंकिन-धुनि बाजति, चरन चलत नुपूर रव लाए ।
ग्वाल-मंडली मध्य स्यामधन, पीत बसन दामिनिहिं लजाए ॥
गोप सखा आवत गुन गावत, मध्य स्याम हलधर छबि छाए ।
सूरदास प्रभु असुर सँहारे, ब्रज आवत मन हरष बढ़ाए ॥6॥

उपमा हरि-तनु देखि लजानी ।
कोऊ जल मैं, कोउ बननि रहीं दुरि, कोउ कोउ गगन समानी ॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं, तड़ित दसन-छबि हेरि ।
मीन कमल, कह चरन, नयन डर जल मैं कियौ बसेरि ॥
भुजा देखि अहिराज लजाने, बिबरनि पैठे धाइ ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ, बन-बन रहै दुराइ ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत, श्री-अँग पटतर देत ।
सूरदास हमकौ सरमावत, नाउँ हमारौ लेत ॥7॥

स्याम सुख-रासि, रस-रासि भारी ।
रूप की रासि, गुन-रासि, जोबन-रासि, थकित भईं निरखि नव तरुन नारी ॥
सील की रासि, जस-रासि, आनँद रासि , नील-जलद छबि बरनकारी ।
दया की रासि, विद्या-रासि, बल-रासि, निर्दयाराति दनुकुल-प्रहारी ॥
चतुराई-रासि, छल-रासि, कल-रासि , हरि भजै जिहिं हेत तिहिं देन हारी ।
सूर-प्रभु स्याम सुख-धाम पूरन काम, बसन कटि-पीत मुख मुरलीधारी ॥8॥

स्याम-कमल-पद-नख की सोभा ।
जे नख-चंद्र इंद्र सर परसे, सिव बिरंचि मन लोभा ॥
जे नख-चंद्र सनक मुनि ध्यावत, नहिं पावत भरमाहीं ।
ते नख-चंद्र प्रगट ब्रज-जुवती, निरखि निरखि हरषाहीं ॥
जै नख-चंद्र फनिंद-हृदय तैं, एकौ निमिष न टारत ।
जे नख-चंद्र महा मुनि नारद, पलक न कहूँ बिसारत ॥
जे नख चंद्र-भजन खल नासत,रमा हृदय जे परसति ।
सूर स्याम-नख-चंद्र बिमल छबि, गोपीजन मिलि दरसति ॥9॥

स्याम-हृदय जल-सुत की माला, अतिहिं अनूपम छाजै (री) ।
मनहुँ बलाकपाँति नवघन पर, यह उपमा कछु भ्राजे (री) ॥
पीत, हरित, सित, अरुन मालबन, राजति हृदय बिसाल (री)।
मानहुँ इंद्रधनुष नभमंडल, प्रगट भयौ तिहिं काल (री) ॥
भृगु पद-चिन्ह उरस्थल प्रगटे, कौस्तभ मनि ढिग दरसत (री) ।
बैठे मानौ षट विधु एक सँग, अर्द्ध निसा मिलि हरषत (री) ॥
भुजा बिलास स्याम सुंदर की, चंदन खीरि चढ़ाये (री) ।
सूर सुभग अँग-अँग की सोभा, ब्रज-ललनौं ललचाए (री) ॥10॥

मुख पर चंद डारौं वारि ।
कुटिल कच पर भौंर वारौं, पर धनु वारि ॥
भाल-केसर-तिलक छबि पर, मदन-सर सत वारि ।
मनु चली बहि-सुधा-धारा, निरखि मन द्यौं वारि ॥
नैन सुरसति-जमुन-गंगा, उपम डारौं वारि ।
झलक ललित कपोल छबि पर, मुकुट सत-सत वारि ॥
नासिका पर कीर वारौं, अधर बिद्रुम वारि ।
दसन पर कन-ब्रज वारौं, बीज-दाड़िम वारि ॥
चिबुक पर चित-बित्त धारौं, प्रान डारौं बारि ।
सूर हरि की अंग-सोभा, को सकै निरवारि ॥11॥

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