कुमार विश्वास-कोई दीवाना कहता है Kumar Vishwas-Koi Deewana Kehta Hai

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कुमार विश्वास-कोई दीवाना कहता है
Kumar Vishwas-Koi Deewana Kehta Hai

 
पूरा जीवन
बीत गया है,
बस तुमको गा,
भर लेने में
हर पल
कुछ कुछ रीत गया है,
पल जीने में,
पल मरने में,
इसमें
कितना औरों का है,
अब इस गुत्थी को
क्या खोलें,
गीत, भूमिका
सब कुछ तुम हो,
अब इससे आगे
क्या बोलें... ...
यों गाया है हमने तुमको - Kumar Vishwas Poetry

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बाँसुरी चली आओ - Kumar Vishwas Poetry

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है
तुम अगर नहीं आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को याद संग खेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

मन तुम्हारा हो गया - Kumar Vishwas Poetry

मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया ....

एक तुम थे
जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे
जो सदा से धार के विपरीत थे
ग्राम्य-स्वर
कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के
लखकर पराजय कंपकंपाता
क्षीण सा स्वर
खो गया तो, खो गया
मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया....

लाख नाचे
मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने
किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे
तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर
जब सृष्टि के आदिम छलावे
बीज बादल
बो गया तो, बो गया,
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया.......

मै तुम्हे ढूंढने - Kumar Vishwas Poetry

मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा

जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक गई
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर गीत की अल्पना
तुम मिटाती रही मैं बनाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा

एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी
गहरा ठहरा जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का एक दिया
तुम बुझती रही, मैं जलाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा

तुम चली गई तो मन अकेला हुआ
सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ
कब भी लौटी नई खुशबुओं में सजी
मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ
खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर
रूठती तुम रही मैं मानता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज आता रहा, रोज जाता रहा

प्यार नहीं दे पाऊँगा - Kumar Vishwas Poetry

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही,
ओ अमलताश की अमलकली,
धरती के आतप से जलते,
मन पर छाई निर्मल बदली,
मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।

तुम कल्पव्रक्ष का फूल और,
मैं धरती का अदना गायक,
तुम जीवन के उपभोग योग्य,
मैं नहीं स्वयं अपने लायक,
तुम नहीं अधूरी गजल शुभे,
तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी,
बिजुरी सी तुम मनभावन हो,
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।

तुम जिस शय्या पर शयन करो,
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो,
जिस आँगन की हो मौलश्री,
वह आँगन क्या व्रन्दावन हो,
जिन अधरों का चुम्बन पाओ,
वे अधर नहीं गंगातट हों,
जिसकी छाया बन साथ रहो,
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो,
पर मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।

मै तुमको चाँद सितारों का,
सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साँधू,
सुर श्रंगार भला कैसे,
मै जीवन के प्रश्नों से नाता तोड तुम्हारे साथ शुभे,
बारूद बिछी धरती पर कर लूँ,
दो पल प्यार भला कैसे,
इसलिये विवष हर आँसू को सत्कार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।

नुमाइश - Kumar Vishwas Poetry

कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके
और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया,
कल सलीबों पे फिर प्रीत मेरी चढ़ी
मेरी आँखों पे स्वर्णिम धुआँ छा गया।

कल तुम्हारी सुधि में भरी गन्ध फिर
कल तुम्हारे लिए कुछ रचे छन्द फिर,
मेरी रोती सिसकती सी आवाज़ में
लोग पाते रहे मौन आनंद फिर,
कल तुम्हारे लिए आँख फिर नम हुई
कल अनजाने ही महफ़िल में मैं छा गया,
कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके
और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया।

कल सजा रात आँसू का बाज़ार फिर
कल ग़ज़ल-गीत बनकर ढला प्यार फिर,
कल सितारों-सी ऊँचाई पाकर भी मैं
ढूँढता ही रहा एक आधार फिर,
कल मैं दुनिया को पाकर भी रोता रहा
आज खो कर स्वयं को तुम्हें पा गया,
कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके
और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया।

तुम गए क्या - Kumar Vishwas Poetry

तुम गए क्या, शहर सूना कर गये,
दर्द का आकार दूना कर गये।

जानता हूँ फिर सुनाओगे मुझे मौलिक कथाएँ,
शहर भर की सूचनाएँ, उम्र भर की व्यस्तताएँ;
पर जिन्हें अपना बनाकर, भूल जाते हो सदा तुम,
वे तुम्हारे बिन, तुम्हारी वेदना किसको सुनाएँ;
फिर मेरा जीवन, उदासी का नमूना कर गये,
तुम गए क्या, शहर सूना कर गये।

मैं तुम्हारी याद के मीठे तराने बुन रहा था,
वक्त खुद जिनको मगन हो, सांस थामे सुन रहा था;
तुम अगर कुछ देर रूकते तो तुम्हें मालूम होता,
किस तरह बिखरे पलों में मैं बहाने चुन रहा था;
रात भर हाँ-हाँ किया पर प्रात में ना कर गये,
तुम गए क्या, शहर सूना कर गये।

बेशक जमाना पास था - Kumar Vishwas Poetry

खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था
जीवन में जब तुम थे नहीं, पल भर नहीं उल्लास था
खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था

होठों पे मरुथल और दिल में एक मीठी झील थी
आँखों में आँसू से सजी, इक दर्द की कन्दील थी
लेकिन मिलोगे तुम मुझे
मुझको अटल विश्वास था
खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था

तुम मिले जैसे कुँवारी कामना को वर मिला
चाँद की आवारगी को पूनमी-अम्बर मिला
तन की तपन में जल गया
जो दर्द का इतिहास था
खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था।

सफ़ाई मत देना - Kumar Vishwas Poetry

एक शर्त पर मुझे निमन्त्रण है मधुरे स्वीकार
सफ़ाई मत देना!
अगर करो झूठा ही चाहे, करना दो पल प्यार
सफ़ाई मत देना

अगर दिलाऊँ याद पुरानी कोई मीठी बात
दोष मेरा होगा
अगर बताऊँ कैसे झेला प्राणों पर आघात
दोष मेरा होगा
मैं ख़ुद पर क़ाबू पाऊंगा, तुम करना अधिकार
सफ़ाई मत देना

है आवश्यक वस्तु स्वास्थ्य -यह भी मुझको स्वीकार
मगर मजबूरी है
प्रतिभा के यूँ क्षरण हेतु भी मैं ही ज़िम्मेदार
मगर मजबूरी है
तुम फिर कोई बहाना झूठा कर लेना तैयार
सफ़ाई मत देना

बादड़ियो गगरिया भर दे - Kumar Vishwas Poetry

बादड़ियो गगरिया भर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे
प्यासे तन-मन-जीवन को
इस बार तो तू तर कर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे

अंबर से अमृत बरसे
तू बैठ महल मे तरसे
प्यासा ही मर जाएगा
बाहर तो आजा घर से
इस बार समन्दर अपना
बूँदों के हवाले कर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे

सबकी अरदास पता है
रब को सब खास पता है
जो पानी में घुल जाए
बस उसको प्यास पता है
बूँदों की लड़ी बिखरा दे
आँगन मे उजाले कर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे

प्यासे तन-मन-जीवन को
इस बार तू तर कर दे
बादड़ियो गगरिया भर दे

धीरे-धीरे चल री पवन - Kumar Vishwas Poetry

धीरे-धीरे चल री पवन मन आज है अकेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

धीरे चलो री आज नाव ना किनारा है
नयनो के बरखा में याद का सहारा है
धीरे-धीरे निकल मगन-मन, छोड़ सब झमेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

होनी को रोके कौन, वक्त से बंधे हैं सब
राह में बिछुड़ जाए, कौन जाने कैसे कब
पीछे मींचे आँख, संजोये दुनिया का रेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

तेज जो चले हैं माना दुनिया से आगे हैं
किसको पता है किन्तु, कितने अभागे हैं
वो क्या जाने महका कैसे, आधी रात बेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे

क्या समर्पित करूँ - Kumar Vishwas Poetry

बाँध दूँ चाँद, आँचल के इक छोर में
माँग भर दूँ तुम्हारी सितारों से मैं
क्या समर्पित करूँ जन्मदिन पर तुम्हें
पूछता फिर रहा हूँ बहारों से मैं

गूँथ दूँ वेणी में पुष्प मधुमास के
और उनको ह्रदय की अमर गंध दूं,
स्याह भादों भरी, रात जैसी सजल
आँख को मैं अमावस का अनुबंध दूं
पतली भू-रेख की फिर करूँ अर्चना
प्रीति के मद भरे कुछ इशारों से मैं
बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में
मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं

पंखुरी-से अधर-द्वय तनिक चूमकर
रंग दे दूं उन्हें सांध्य आकाश का
फिर सजा दूं अधर के निकट एक तिल
माह ज्यों बर्ष के माश्या मधुमास का
चुम्बनों की प्रवाहित करूँ फिर नदी
करके विद्रोह मन के किनारों से मैं
बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में
मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं

मेरे मन के गाँव में - Kumar Vishwas Poetry

जब भी मुँह ढक लेता हूँ,
तेरे जुल्फों के छाँव में,
कितने गीत उतर आते है,
मेरे मन के गाँव में

एक गीत पलकों पे लिखना,
एक गीत होंठो पे लिखना,
यानि सारी गीत ह्रदय की,
मीठी से चोटों पर लिखना,
जैसे चुभ जाता कोई काँटा नंगे पाँव में,
ऐसे गीत उतर आता, मेरे मन के गाँव में

पलकें बंद हुई तो जैसे,
धरती के उन्माद सो गये,
पलकें अगर उठी तो जैसे,
बिन बोले संवाद हो गये,
जैसे धुप, चुनरिया ओढ़े, आ बैठी हो छाँव में,
ऐसे गीत उतर आता, मेरे मन के गाँव में

मांग की सिंदूर रेखा - Kumar Vishwas Poetry

मांग की सिंदूर रेखा, तुमसे ये पूछेगी कल,
"यूँ मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है ?"
तुम कहोगी "वो समर्पण, बचपना था" तो कहेगी,
"गर वो सब कुछ बचपना था, तो कहो फिर प्यार क्या है ?"

कल कोई अल्हड अयाना, बावरा झोंका पवन का,
जब तुम्हारे इंगितो पर, गंध भर देगा चमन में,
या कोई चंदा धरा का, रूप का मारा बेचारा,
कल्पना के तार से नक्षत्र जड़ देगा गगन पर,
तब किसी आशीष का आँचल मचल कर पूछ लेगा,
"यह नयन-विनिमय अगर है प्यार तो व्यापार क्या है ?"

कल तुम्हरे गंधवाही-केश, जब उड़ कर किसी की,
आखँ को उल्लास का आकाश कर देंगे कहीं पर,
और सांसों के मलयवाही-झकोरे मुझ सरीखे
नव-तरू को सावनी-वातास कर देगे वहीँ पर,
तब यही बिछुए, महावर, चूड़ियाँ, गजरे कहेंगे,
"इस अमर-सौभाग्य के श्रृंगार का आधार क्या है ?"

कल कोई दिनकर विजय का, सेहरा सर पर सजाये,
जब तुम्हारी सप्तवर्णी छाँह में सोने चलेगा,
या कोई हारा-थका व्याकुल सिपाही जब तुम्हारे,
वक्ष पर धर शीश लेकर हिचकियाँ रोने चलेगा,
तब किसी तन पर कसी दो बांह जुड़ कर पूछ लेगी,
"इस प्रणय जीवन समर में जीत क्या है हार क्या है ?"

मांग की सिंदूर रेखा, तुमसे ये पूछेगी कल,
"यूँ मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है ?"

चाँद ने कहा है - Kumar Vishwas Poetry

चाँद ने कहा है, एक बार फिर चकोर से,
'इस जनम में भी जलोगे तुम ही मेरी ओर से।'

हर जनम का अपना चाँद है, चकोर है अलग,
यूँ जनम-जनम का एक ही मछेरा है मगर,
हर जनम की मछलियाँ अलग हैं डोर है अलग,
डोर ने कहा है मछलियों की पोर-पोर से,
'इस जनम में भी बिंधोगी तुम ही मेरी ओर से,'
चाँद ने कहा है, एक बार फिर चकोर से।
'इस जनम में भी जलोगे तुम ही मेरी ओर से।'

है अनंत सर्ग यूँ और कथा ये विचित्र है,
पंक से जनम लिया पर कमल पवित्र है,
यूँ जनम-जनम का एक ही वो चित्रकार है,
हर जनम की तूलिका अलग, अलग ही चित्र है,
ये कहा है तूलिका ने, चित्र के चरित्र से,
'इस जनम में भी सजोगे तुम ही मेरी कोर से,'
चाँद ने कहा है, एक बार फिर चकोर से।
'इस जनम में भी जलोगे तुम ही मेरी ओर से।'

हर जनम के फूल हैं अलग, हैं तितलियाँ अलग,
हर जनम की शोखियाँ अलग, हैं सुर्खियाँ अलग,
ध्वँस और सृजन का एक राग है अमर, मगर
हर जनम का आशियाँ अलग, है बिजलियाँ अलग,
नीड़ से कहा है बिजलियों ने जोर-शोर से,
'इस जनम में भी मिटोगे तुम ही मेरी ओर से,'
चाँद ने कहा है, एक बार फिर चकोर से,
'इस जनम में भी जलोगे तुम ही मेरी ओर से।'

मधुयामिनी - Kumar Vishwas Poetry

क्या अजब रात थी, क्या गज़ब रात थी
दंश सहते रहे, मुस्कुराते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

मन मे अपराध की, एक शंका लिए
कुछ क्रियाये हमें जब हवन सी लगीं
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई
बोलियाँ भी हमें, जब भजन सी लगीं

कोई भी बात हमने न की रात-भर
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन
मेरे आगोश मे यूं पिघलता रहा
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे
सुर्ख होठों से झरना सा झरता रहा

इक नशा सा अजब छा गया था की हम
खुद को खोते रहे तुमको पाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

आहटों से बहुत दूर पीपल तले
वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
साम-गीतों की आरोह – अवरोह में
मौन के चुम्बनी- सूक्त हमने पढ़े

सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम
इक अनोखी दीवाली मनाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

ये वही पुरानी राहें हैं - Kumar Vishwas Poetry

चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों में सपन सुहाने हैं
ये वही पुरानी राहें हैं, ये दिन भी वही पुराने हैं

कुछ तुम भूली कुछ मैं भूला मंज़िल फिर से आसान हुई
हम मिले अचानक जैसे फिर पहली पहली पहचान हुई
आँखों ने पुनः पढी आँखें, न शिकवे हैं न ताने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों में सपन सुहाने हैं

तुमने शाने पर सिर रखकर, जब देखा फिर से एक बार
जुड़ गया पुरानी वीणा का, जो टूट गया था एक तार
फिर वही साज़ धडकन वाला फिर वही मिलन के गाने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं

आओ हम दोनों की सांसों का एक वही आधार रहे
सपने, उम्मीदें, प्यास मिटे, बस प्यार रहे बस प्यार रहे
बस प्यार अमर है दुनिया मे सब रिश्ते आने-जाने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं

लड़कियाँ - Kumar Vishwas Poetry

पल भर में जीवन महकायें
पल भर में संसार जलायें
कभी धूप हैं, कभी छाँव हैं
बर्फ कभी अँगार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार.....

बचपन के जाते ही इनकी
गँध बसे तन-मन में
एक कहानी लिख जाती हैं
ये सबके जीवन में
बचपन की ये विदा-निशानी
यौवन का उपहार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार.....

इनके निर्णय बड़े अजब हैं
बड़ी अजब हैं बातें
दिन की कीमत पर,
गिरवी रख लेती हैं ये रातें
हँसते-गाते कर जाती हैं
आँसू का व्यापार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार.....

जाने कैसे, कब कर बैठें
जान-बूझकर भूलें
किसे प्यास से व्याकुल कर दें
किसे अधर से छू लें
किसका जीवन मरूथल कर दें
किसका मस्त बहार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार.....

इसकी खातिर भूखी-प्यासी
देहें रात भर जागें
उसकी पूजा को ठुकरायें
छाया से भी भागें
इसके सम्मुख छुई-मुई हैं
उसको हैं तलवार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार.....

राजा के सपने मन में हैं
और फकीरें संग हैं
जीवन औरों के हाथों में
खिंची लकीरों संग हैं
सपनों-सी जगमग-जगमग हैं
किस्मत-सी लाचार
लड़कियाँ जैसे पहला प्यार..

होली - Kumar Vishwas Poetry

आज होलिका के अवसर पर जागे भाग गुलाल के
जिसने मृदु चुम्बन ले डाले हर गोरी के गाल के

आज रंगो तन-मन अन्तर-पट, आज रंगो धरती सारी
सागर का जल लेकर रंग दो, काश्मीर केसर-क्यारी
आज न हों मजहब के झगडे, हों न विवादित गुरुवाणी
आज वही स्वर गूँजे, जिसमें रंग भरा हो रसखानी
रंग नही उपहार जानिये, ऋतुपति की ससुराल के
जिसने मृदु चुम्बन ले डाले हर गोरी के गाल के

आज स्वर्ग से इंद्रदेव ने रंग बिखेरा है इतना
गीता में श्रद्धा जितनी और प्यार तिरंगे से जितना
इसी रंग को मन में धारे फाँसी चढ कोई बोला
“देश-धर्म पर मर मिटने को रंगो बसन्ती फिर चोला”
आशा का स्वर्णिम रंग डालो, काले तन पर काल के
जिसने मृदु चुम्बन ले डाले हर गोरी के गाल के

कृष्ण मिले राधा से ज्यों ही रंग उडाती अलियों में
समय स्वयं भी ठहर गया तब गोकुल वाली गलियों में
वस्त्रों की सीमायें टूटीं, हाथों को आकाश मिला
गोरे तन को श्यामल तन से इक मादक विश्वास मिला
हर गंगा-यमुना से लिपटे लम्बे वृक्ष तमाल के
जिसने मृदु चुम्बन ले डाले हर गोरी के गाल के

ओ मेरे पहले प्यार - Kumar Vishwas Poetry

ओ प्रीत भरे संगीत भरे!
ओ मेरे पहले प्यार!
मुझे तू याद न आया कर
ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!
नस-नस के पहले ज्वार!
मुझे तू याद न आया कर।

पावस की प्रथम फुहारों से
जिसने मुझको कुछ बोल दिये
मेरे आँसु मुस्कानों की
कीमत पर जिसने तोल दिये

जिसने अहसास दिया मुझको
मै अम्बर तक उठ सकता हूं
जिसने खुद को बाँधा लेकिन
मेरे सब बंधन खोल दिये

ओ अनजाने आकर्षण से!
ओ पावन मधुर समर्पण से!
मेरे गीतों के सार
मुझे तू याद न आया कर।

मूझको ये पता चला मधुरे
तू भी पागल बन रोती है,
जो पीर मेरे अंतर में है
तेरे मन में भी होती है

लेकिन इन बातों से किंचिंत भी
अपना धैर्य नहीं खोना
मेरे मन की सीपी में अब तक
तेरे मन का मोती है,

ओ सहज सरल पलकों वाले!
ओ कुंचित घन अलकों वाले!
हँसते-गाते स्वीकार
मुझे तू याद न आया कर।
ओ मेरे पहले प्यार !
मुझे तू याद न आया कर

कुछ पल बाद बिछुड़ जाओगे - Kumar Vishwas Poetry

कुछ पल बाद बिछुड़ जाओगे मीत मेरे
किन्तु तुम्हारे साथ रहेंगे गीत मेरे
तुम परिभाषाओं से आगे का, आधार बनाते चलना
तुम साहस से सपनो का, सुंदर संसार बनाते चलना
जीवन की सारी कटुता को, केवल प्यार बनाते चलना
तुम जीवन को, गंगा जल की पावन-धार बनाते चलना
स्वयं उदाहरण बन जाना मनमीत मेरे
किन्तु तुम्हारे साथ रहेंगे गीत मेरे

वो जो पल, संग-संग गुजरे थे, वो सब पल, मधुमास हो गए
हँसने, खेलने, मिलने के सब, घटनाक्रम इतिहास हो गए
जीवन भर सालेगी अब जो, ऐसी मीठी-प्यास हो गए
तुम बिन सपने हैं सारे भयभीत मेरे
किन्तु तुम्हारे साथ रहेंगे गीत मेरे

तुम गये - Kumar Vishwas Poetry

तुम गये तुम्हारे साथ गया,
अल्हड़ अन्तर का भोलापन।
कच्चे-सपनों की नींद और,
आँखों का सहज सलोनापन।

जीवन की कोरों से दहकीं
यौवन की अग्नि शिखाओं में,
तुम अगन रहे, मैं मगन रहा,
घर-बाहर की बाधाओं में,
जो रूप-रूप भटकी होगी,
वह पावन आस तुम्हारी थी।
जो बूंद-बूंद तरसी होगी,
वह आदिम प्यास तुम्हारी थी।
तुम तो मेरी सारी प्यासे
पनघट तक लाकर लौट गये,
अब निपट-अकेलेपन पर हँस देता
निर्मम जल का दर्पण।
तुम गये तुम्हारे साथ गया
अल्हड़ अन्तर का भोलापन
यश -वैभव के ये ठाठ-बाट,
अब सभी झमेले लगते हैं।
पथ कितना भी हो भीड़ भरा
दो पाँव अकेले लगते है
हल करते -करते उलझ गया,
भोली सी एक पहेली को,
चुपचाप देखता रहता हूँ,
सोने से मॅढ़ी हथेली को।
जितना रोता तुम छोड़ गये,
उससे ज्यादा हँसता हूँ अब
पर इन्ही ठहाकों की गूजों में,
बज उठता है खालीपन

तुम गये तुम्हारे साथ गया,
अल्हड़ अन्तर का भोलापन ।
कच्चे-सपनों की नींद और,
आँखों का सहज सलोनापन।
तुम गये तुम्हारे साथ गया...

तुम बिन - Kumar Vishwas Poetry

तुम बिन कितने आज अकेले
तुम बिन कितने आज अकेले
क्या हम तुमको बतलायें?
अम्बर में है चाँद अकेला
तारे उसके साथ तो हैं
तारे भी छुप जाएँ अगर तो
साथ अँधेरी रात तो हैं
पर हम तो दिन रात अकेले
क्या हम तुमको बतलायें..?

जिन राहों पर हम-तुम संग थे
वो राहें ये पूछ रही हैं
कितनी तन्हा बीत चुकी हैं
कितनी तन्हा और रही है
दिल दो हैं, ज़ज्बात अकेले
क्या हम तुमको बतलायें..?

वो लम्हें क्या याद हैं तुमको
जिनमें तुम-हम हमजोली थे
महका-महका घर आँगन था
रात दिवाली, दिन होली थे
अब हैं, सब त्यौहार अकेले
क्या हम तुमको बतलायें..?

कितने दिन बीत गए - Kumar Vishwas Poetry

कितने दिन बीत गए,
देह की नदी में
नहाये हुए
सपने की फिसलन के डर जैसा,
दीप बुझी देहरी के घर जैसा,
जलती लौ नेह चुके दीपक-सा,
दिन डूबा वंशी के स्वर जैसा,

कितने सुर रीत गए,
अंतर का गीत कोई
गाए हुए
कितने दिन बीत गए।

कुछ ऐसा पाना जो जग छूटे
मंथन वो जिससे झरना फूटे
बिन बांधे बंधने का वो कौशल
जो बांधे तो हर बंधन टूटे
कितने सुख जीत गए
पोर पोर पीड़ा
कमाए हुए
कितने दिन बीत गए।

पंछी ने खोल दिए पर - Kumar Vishwas Poetry

पंछी ने खोल दिए पर
अब चाहे लीले अम्बर...

कितने तूफ़ानों की संजीवनी सिमटी है
इन छोटे-छोटे दो पंखों की आड़ में
चन्दा की आंखों में सूरज के सपने हैं
मनवा का हिरना ज्यों किस्मत की बाड़ में
मार्ग में सिरजा है घर
अब चाहे लीले अम्बर...

प्रहरों अंधे तम का अनाचार सहकर जब
कलरव जागा तो सब भ्रम-भय भी भाग गया
जब निरवाणी-तिथि निश्चित है उषा में तो
अरुण-शिखा का विस्मृत-पौरुष भी जाग गया
मुक्त हुआ अंतर से डर
अब चाहे लीले अम्बर...

फिर बसंत आना है - Kumar Vishwas Poetry

तूफ़ानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों
पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

राजवंश रूठे तो
राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्णरथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है

इतनी रंग बिरंगी दुनिया - Kumar Vishwas Poetry

इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये,
हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये।
ऐसे उजले लोग मिले जो, अंदर से बेहद काले थे,
ऐसे चतुर मिले जो मन से सहज सरल भोले-भाले थे।

ऐसे धनी मिले जो, कंगालो से भी ज्यादा रीते थे,
ऐसे मिले फकीर, जो, सोने के घट में पानी पीते थे।
मिले परायेपन से अपने, अपनेपन से मिले पराये,
हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये।
इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये।

जिनको जगत-विजेता समझा, मन के द्वारे हारे निकले,
जो हारे-हारे लगते थे, अंदर से ध्रुव- तारे निकले।
जिनको पतवारे सौंपी थी, वे भँवरो के सूदखोर थे,
जिनको भँवर समझ डरता था, आखिर वही किनारे निकले।
वो मंजिल तक क्या पहुंचे, जिनको रास्ता खुद भटकाए।

हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये,
इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये।

सूरज पर प्रतिबंध अनेकों - Kumar Vishwas Poetry

सूरज पर प्रतिबंध अनेकों
और भरोसा रातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

हमने जीवन की चौसर पर
दाँव लगाए आँसू वाले
कुछ लोगों ने हर पल, हर दिन
मौके देखे बदले पाले
हम शंकित सच पा अपने,
वे मुग्ध स्वयं की घातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

हम तक आकर लौट गई हैं
मौसम की बेशर्म कृपाएँ
हमने सेहरे के संग बाँधी
अपनी सब मासूम खताएँ
हमने कभी न रखा स्वयं को
अवसर के अनुपातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

पिता की याद - Kumar Vishwas Poetry

फिर पुराने नीम के नीचे खड़ा हूँ
फिर पिता कि याद आई है मुझे

नीम सी यादें सहज मन में समेटे,
चारपायी डाल आँगन बीच लेटे,
सोचे हैं हित सदा उन के घरों का,
दूर हैं जो एक बेटी, चार बेटे

फिर कोई रख हाथ काँधे पर,
कहीं यह पूछता है,
"क्यूँ अकेला हूँ भरी इस भीड़ में ?"
मैं रो पड़ा हूँ

फिर पिता कि याद आई है मुझे
फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ

पीर का संदेशा आया - Kumar Vishwas Poetry

पीर का संदेशा आया आँसू के गीत लिखो री।
गीतों को दे मधुरिम स्वर अधरों से प्रीत लिखो री।

हर पल की आँधी को, आँचल में बांधे हो
आँसू की धारा को, पलकों में साधे हो
मुख पर पीलापन हो, तन का उजड़ा वन हो
सँध्या की बेला में, उन्मन-उन्मन मन हो
पीड़ा पहुँचाए जो, औषिध पीड़ा हर री!
तब भी मत आना तुम, ड्यौढ़ी से बाहर री।
रच लेना शब्द चार
आँसू रो-रोकर तुम संयम की रीत लिखो री!
पीर का संदेशा आया आँसू के गीत लिखो री।

जब भी वो अलबेला गुजरे गलियारे से
दो चंचल नयना रोकें मतवारे से
तो अलबेला प्रीतम खींचे जो बाहों में
अधरों को अधरों पर रख दे जो आहों में
वो पल ना छिन जाये, गोरी शरमाना मत
जीकर उस पल को
तुम पूरी मर्यादा से यौवन की प्रीत लिखो री।
पीर का संदेशा आया आँसू के गीत लिखो री।

मै तुम्हे अधिकार दूँगा - Kumar Vishwas Poetry

मैं तुम्हें अधिकार दूँगा
एक अनसूंघे सुमन की गन्ध सा
मैं अपरिमित प्यार दूँगा
मैं तुम्हें अधिकार दूँगा

सत्य मेरे जानने का
गीत अपने मानने का
कुछ सजल भ्रम पालने का
मैं सबल आधार दूँगा
मैं तुम्हे अधिकार दूँगा

ईश को देती चुनौती,
वारती शत-स्वर्ण मोती
अर्चना की शुभ्र ज्योति
मैं तुम्हीं पर वार दूँगा
मैं तुम्हें अधिकार दूँगा

तुम कि ज्यों भागीरथी जल
सार जीवन का कोई पल
क्षीर सागर का कमल दल
क्या अनघ उपहार दूँगा
मै तुम्हें अधिकार दूँगा

मुझको जीना होगा - Kumar Vishwas Poetry

सम्बन्धों को अनुबन्धों को परिभाषाएँ देनी होंगी
होठों के संग नयनों को कुछ भाषाएँ देनी होंगी
हर विवश आँख के आँसू को
यूँ ही हँस हँस पीना होगा
मै कवि हूँ जब तक पीड़ा है
तब तक मुझको जीना होगा

मनमोहन के आकर्षण मे भूली भटकी राधाओं की
हर अभिशापित वैदेही को पथ मे मिलती बाधाओं की
दे प्राण देह का मोह छुड़ाओं वाली हाड़ा रानी की
मीराओं की आँखों से झरते गंगाजल से पानी की
मुझको ही कथा सँजोनी है,
मुझको ही व्यथा पिरोनी है

स्मृतियाँ घाव भले ही दें
मुझको उनको सीना होगा
मै कवि हूँ जब तक पीड़ा है
तब तक मुझको जीना होगा

जो सूरज को पिघलाती है व्याकुल उन साँसों को देखूँ
या सतरंगी परिधानों पर मिटती इन प्यासों को देखूँ
देखूँ आँसू की कीमत पर मुस्कानों के सौदे होते
या फूलों के हित औरों के पथ मे देखूँ काँटे बोते
इन द्रौपदियों के चीरों से
हर क्रौंच-वधिक के तीरों से
सारा जग बच जाएगा पर
छलनी मेरा सीना होगा
मै कवि हूँ जब तक पीड़ा है
तब तक मुझको जीना होगा

कलरव ने सूनापन सौंपा मुझको अभाव से भाव मिले
पीड़ाओं से मुस्कान मिली हँसते फूलों से घाव मिले
सरिताओं की मन्थर गति मे मैंने आशा का गीत सुना
शैलों पर झरते मेघों में मैने जीवन-संगीत सुना
पीड़ा की इस मधुशाला में
आँसू की खारी हाला में
तन-मन जो आज डुबो देगा
वह ही युग का मीना होगा
मै कवि हूँ जब तक पीड़ा है
तब तक मुझको जीना होगा

तन मन महका - Kumar Vishwas Poetry

तन मन महका जीवन महका
महक उठे घर-द्वारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे

खिली रूप की धुप
चटक गयीं कलियाँ, धरती डोली
मस्त पवन से लिपट के पुरवा, हौले-हौले बोली
छीनके मेरी लाज की चुनरी, टाँके नए सितारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे

सजना के अंगना तक पहुंचे
बातें जब कंगना की
धरती तरसे, बादल बरसे, मिटे प्यास मधुबन की
होठों की चोटों से जागे, तन के सुप्त नगारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे

नदिया का सागर से मिलने
धीरे-धीरे बढ़ना
पर्वत के आखरघाटी, वाली आँखों से पढ़ना
सागर सी बाहों मे आकर, टूटे सभी किनारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे

प्यार माँग लेना - Kumar Vishwas Poetry

यदि स्नेह जाग जाए, अधिकार माँग लेना,
मन को उचित लगे तो, तुम प्यार माँग लेना।

दो पल मिले हैं तुमको यूं ही न बीत जाएं,
कुछ यूं करो कि धड़कन आँसू के गीत गाएं,
जो मन को हार देगा उसकी ही जीत होगी,
अक्षर बनेंगे गीता हर लय में प्रीत होगी,
बहुमूल्य है व्यथा का उपहार माँग लेना,
यदि स्नेह जाग जाए अधिकार माँग लेना।

जीवन का वस्त्र बुनना सुख-दुःख के तार लेकर,
कुछ शूल और हँसते कुछ हरसिंगार लेकर,
दुःख की नदी बड़ी है हिम्मत न हार जाना,
आशा की नाव पर चढ़ हँसकर ही पार जाना,
तुम भी किसी से स्वप्निल संसार मांग लेना,
यदि स्नेह जाग जाए अधिकार माँग लेना।

आना तुम - Kumar Vishwas Poetry

आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये
तन-मन की धरती पर
झर-झर-झर-झर-झरना
साँसों मे प्रश्नों का आकुल आकाश लिये

तुमको पथ में कुछ मर्यादाएँ रोकेंगी
जानी-अनजानी सौ बाधाएँ रोकेंगी
लेकिन तुम चन्दन सी, सुरभित कस्तूरी सी
पावस की रिमझिम सी, मादक मजबूरी सी
सारी बाधाएँ तज, बल खाती नदिया बन
मेरे तट आना
एक भीगा उल्लास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

जब तुम आओगी तो घर आँगन नाचेगा
अनुबन्धित तन होगा लेकिन मन नाचेगा
माँ के आशीषों-सी, भाभी की बिंदिया-सी
बापू के चरणों-सी, बहना की निंदिया-सी
कोमल-कोमल, श्यामल-श्यामल, अरूणिम-अरुणिम
पायल की ध्वनियों में
गुंजित मधुमास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

आज तुम मिल गए - Kumar Vishwas Poetry

आज हल हो गए प्रश्न मेरे सभी
अब अन्धेरों में दीपक जलेंगे प्रिये!
आज तुम मिल गए तो जहाँ मिल गया
अब सितारों से आगे चलेंगे प्रिये!

आज तक रोज़ चलता रहा जि़ंदगी
का सफ़र, पर मेरे पाँव चल ना सके
आज तक थे तराने हृदय में बहुत
गीत बन कँठ में किंतु ढल ना सके
आज तुम पास हो, हैं किनारे बहुत
गीत में भाव से हम ढलेंगे प्रिये!

आज अहसास की बाँसुरी पर मुझे
तुम मिलन-गीत कोई सुनाओ ज़रा
ये अमा-कालिमा धुल सकेगी शुभे!
पास आकर मेरे मुस्कराओ ज़रा
प्रेम के ताप से मौन के हिम-शिखर
देखना शीघ्र ही अब गलेंगे प्रिये!

देहरी पर धरा दीप - Kumar Vishwas Poetry

देहरी पर धरा दीप कहता है अब
एक आहट को घर साथ ले आइये
मन-शिवाले में में जो गूँजती ही रहे
गुनगुनाहट को घर साथ ले आइये

कोई हो जो बुहारे मेरा द्वार भी
कोई आंगन की तुलसी को पानी तो दे
शर्ट के टांक कर सारे टूटे बटन
सांस को मेहन्दियों की निशानी तो दे
बस-यही, बस-यही, बस-यही, बस-यही
इस 'त्रिया-हठ' को घर साथ ले आइये

कोई रोके मुझे, कोई टोके मुझे
ताकि रातों में खुद को मिटा ना सकूं
कोई हो जिसकी आंखों के आगे कभी
कुछ कहीं भी, किसी से छुपा ना सकूं
श्रान्ति दे कलांति को जो नयन-नीर से
उस नदी-तट को घर ले आइये।

तुमने जाने क्या पिला दिया - Kumar Vishwas Poetry

कैसे भूलूं वह एक रात
तन हरर्सिंगार मन-पारिजात
छुअनें, सिहरन, पुलकन, कम्पन
अधरो से अंतर हिला दिया
तुमने जाने क्या पिला दिया

तन की सारी खिडकिया खोलकर
मन आया अगवानी मै
चेतना और सन्यम भटके
मन की भोली नादानी में
थी तेज धार, लहरे अपार, भवरे थी
कठिन, मगर फिर भी
डरते-डरते मैं उतर गया
नदिया के गहरे पानी मै
नदिया ने भी जोबन-जीवन
जाकर सागर मैं मिला दिया
तुमने जाने क्या पिला दिया

जिन जख्मो की हो दवा सुलभ
उनके रिसते रहने से क्या
जो बोझ बने जीवन-दर्शन
उसमे पिसते रहने से क्या
हो सिंह्दवार पर अंधकार
तो जगमग महल किसे दीखे
तन पर काई जम जाये तो
मन को रिसते रहने से क्या
मेरी भटकन पी गये स्वयम
मुझसे मुझको क्यो मिला दिया
तुमने जाने क्या पिला दिया

ये गीत तुझे कैसे दे दूं - Kumar Vishwas Poetry

ये गीत तुझे कैसे दे दूं
ये गीत ह्रदय कि प्यास सखे !
ये गीत मेरी परिभाषा हैं
ये गीत मेरा इतिहास सखे !

ये गीत मेरे मन कि खुशबू
ये गीत तेरे तन का चन्दन
तू राधा-सी मैं कान्हा-सा
ये गीत हैं जैसे वृन्दावन
जो एक दिवस पूरा होगा
ये गीत वही, विश्वास सखे !

ये गीत मेरी परिभाषा हैं
ये गीत मेरा इतिहास सखे!

ये गीत बसंती फागुन से
ये गीत मचलते सावन से
ये गीत ग्रीष्म से, पतझर से
हेमंत-शिशिर के आँगन से
ये गीत विरह वर्षा ऋतु हैं
ये गीत मिलन मधुमास सखे !
ये गीत मेरी परिभाषा है
ये गीत मेरा इतिहास सखे !

ये गीत बिकाऊ माल नहीं
ये गीत ह्रदय कि निधियां हैं
ये गीत अधूरे सपने हैं
ये गीत पुरानी सुधियाँ हैं
ये गीत मेरी धरती माँ हैं
ये गीत मेरा आकाश सखे !
ये गीत मेरी परिभाषा हैं
ये गीत मेरा इतिहास सखे!
ये गीत तुझे कैसे दे दूं
ये गीत ह्रदय कि प्यास सखे !
ये गीत मेरी परिभाषा हैं
ये गीत मेरा इतिहास सखे !

तुम बिना मैं - Kumar Vishwas Poetry

तुम बिना मैं स्वर्ग का भी सार लेकर क्या करूँ
शर्त का अनुशासनों का प्यार लेकर क्या करूँ

जब नहीं थे तुम तो जाने मैं कहाँ खोया हुआ था
स्वयं से अनजान, कैसी नींद में सोया हुआ था
नींद से मुझको जगाकर तुमने तब अपना बनाया
दो दिलों की धड़कनों ने एक सुर में गीत गाया
जो अमर उस राग की मधु-लहरियों में खो गई थी
फिर वही अविरल नयन जलधार लेकर क्या करूँ
शर्त का अनुशासनों का प्यार लेकर क्या करूँ
तुम बिना मैं स्वर्ग का भी सार लेकर क्या करूँ

तालियों का शोर मत दो, ये सभी नग़मात ले लो
रोशनी में झिलमिलाती, मद भरी हर रात ले लो
छीन लो, मेरे अधर से रूप के दोनों किनारे
पर मुझे फिर, नेह से छलें नयन पावन तुम्हारे
मैं उन्हीं को दूर से बस देखकर गाता रहूंगा
अन्यथा स्वर्ग का अमर-उपहार लेकर क्या करूँ
शर्त का अनुशासनों का प्यार लेकर क्या करूँ
तुम बिना मैं स्वर्ग का भी सार लेकर क्या करूँ
शर्त का अनुशासनों का प्यार लेकर क्या करूँ

हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें - Kumar Vishwas Poetry

हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें

जिस पल हल्दी लेपी होगी तन पर माँ ने
जिस पल सखियों ने सौंपी होंगीं सौगातें
ढोलक की थापों में, घुँघरू की रुनझुन में
घुल कर फैली होंगीं घर में प्यारी बातें

उस पल मीठी-सी धुन
घर के आँगन में सुन
रोये मन-चैसर पर हार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें

कल तक जो हमको-तुमको मिलवा देती थीं
उन सखियों के प्रश्नों ने टोका तो होगा
साजन की अंजुरि पर, अंजुरि काँपी होगी
मेरी सुधियों ने रस्ता रोका तो होगा

उस पल सोचा मन में
आगे अब जीवन में
जी लेंगे हँसकर, बिसार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें

कल तक मेरे जिन गीतों को तुम अपना कहती थीं
अख़बारों में पढ़कर कैसा लगता होगा
सावन को रातों में, साजन की बाँहों में
तन तो सोता होगा पर मन जगता होगा

उस पल के जीने में
आँसू पी लेने में
मरते हैं, मन ही मन, मार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें

हार गया तन-मन पुकार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें

राई से दिन बीत रहे हैं - Kumar Vishwas Poetry

तुम आयीं चुप खोल साँकलें
मन के मुँदे किवार से
राई से दिन बीत रहे हैं
जो थे कभी पहार से

तुमने धरा, धरा पर ज्यों ही पाँव
समर्पण जाग गया
बिंदिया के सूरज से मन पर घिरा
कुहासा भाग गया
इन अधरों की कलियों से जो फूटा
जग में फैल गया
इसी राग के अनुगामी होकर
मेरा अनुराग गया

तुम आई चुप फूल बटोरे
मन के हरसिंगार के
राई से दिन बीत रहे हैं
जो थे कभी पहार से

तुम स्वयं को सजाती रहो - Kumar Vishwas Poetry

तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ
तुम मुझे देख कर मुड़ के चलती रहो
मैं विरह में मधुर गीत गाता रहूँ

मैं ज़माने की ठोकर ही खाता रहूँ
तुम ज़माने को ठोकर लगाती रहो
जि़ंदगी के कमल पर गिरूँ ओस-सा
रोष की धूप बन तुम सुखाती रहो

कँटकों की सजाती रहो राह तुम
मैं उसी राह पर रोज़ जाता रहूँ
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ

मानता हूँ प्रिये तुम मुझे ना मिलीं
और व्याकुल विरह-भार मुझको दिया
लाख तोड़ा हृदय शब्द-आघात से
पर अमर गीत उपहार मुझको दिया

तुम यूँ ही मुझको पल-पल में तोड़ा करो
मैं बिखर कर तराने बनाता रहूँ
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ

तुम जहाँ भी रहो खिलखिलाती रहो
मैं जहाँ भी रहूँ बस सिसकता रहूँ
तुम नयी मंजि़लों की तरफ़ बढ़ चलो
मैं क़दम-दो-क़दम चल के थकता रहूँ

तुम संभलती रहो मैं बहकता रहूँ
दर्द की ही ग़ज़ल गुनगुनाता रहूँ
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ

कैसे ऋतु बीतेगी - Kumar Vishwas Poetry

कैसे ऋतु बीतेगी अपने अलगाव की
साँसों के पृष्ठों पर, आँसू के रंगों से
कैसे तस्वीरें बन पाएँगी चाव की

मरुथल-सा प्यासा हर पल-सा बीता-बीता
कब तक हम भोगेंगे जीवन रीता-रीता
धरती के उत्सव में, चंदा में, तारों में
गीतों में, ग़ज़लों में, रागों मल्हारों में
गूँजेंगी कब तक धुन बिछुरन के भाव की
कैसे ऋतु बीतेगी अपने अलगाव की

कब फिर पनघट से पायल की धुन आएँगी
कब फिर साजन का सँदेशा ऋतु लाएँगी
कैसे पतझर बीते, जीवन के सावन में
तन की सुर-सरिता में मनवा के आँगन में
उतरेंगीं किन्नरियाँ सपनों के गाँव की
कैसे ऋतु बीतेगी अपने अलगाव की

रात भर तो जलो - Kumar Vishwas Poetry

मैं तुम्हारे लिए, जि़न्दगी भर दहा
तुम भी मेरे लिए रात भर तो जलो
मैं तुम्हारे लिए, उम्र भर तक चला
तुम भी मेरे लिए सात पग तो चलो

दीपकों की तरह रोज़ जब मैं जला
तब तुम्हारे भवन में दिवाली हुई
जगमगाता, तुम्हारे लिए रथ बना
किन्तु मेरी हर एक रात काली हुई

मैंने तुमको नयन-नीर सागर दिया
तुम भी मेरे लिए अंजुरी भर तो दो
मैं तुम्हारे लिए जि़न्दगी भर दहा
तुम भी मेरे लिए रात भर तो जलो

स्मरण गीत - Kumar Vishwas Poetry

नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,

शक्ति के संकल्प बोझिल हो गये होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे चरण मेरी कामनायें हैं,
हर तरफ है भीड़ ध्वनियाँ और चेहरे हैं अनेकों,
तुम अकेले भी नहीं हो, मैं अकेला भी नहीं हूँ
योजनों चल कर सहस्रों मार्ग आतंकित किये पर,
जिस जगह बिछुड़े अभी तक, तुम वहीं हों मैं वहीं हूँ
गीत के स्वर-नाद थक कर सो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे कंठ मेरी वेदनाएँ हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,

यह धरा कितनी बड़ी है एक तुम क्या एक मैं क्या?
दृष्टि का विस्तार है यह अश्रु जो गिरने चला है,
राम से सीता अलग हैं,कृष्ण से राधा अलग हैं,
नियति का हर न्याय सच्चा, हर कलेवर में कला है,
वासना के प्रेत पागल हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हरे माथ मेरी वर्जनाएँ हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,

चल रहे हैं हम पता क्या कब कहाँ कैसे मिलेंगे?
मार्ग का हर पग हमारी वास्तविकता बोलता है,
गति-नियति दोनों पता हैं उस दीवाने के हृदय को,
जो नयन में नीर लेकर पीर गाता डोलता है,
मानसी-मृग मरूथलों में खो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी योजनायें हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं!

जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम - Kumar Vishwas Poetry

जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम
तन के आलोचक रोमों को
कालिदास की उपमा जैसी
ऋतु-मुखरा की कटि पर बजतीं
किरणों की करघनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम

सत्तो-फत्तो, रूमिया -धुमिया
होरी-गोबर, धनिया-झुनिया
सबके द्वारे खुद ही आती
सबसे मिलती सबको भाती
हर दिशि-गोपी के संग रास
रचा लेतीं मधुबनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम

तन्द्रा का आसव बिखेरतीं
गत सुधियों की माल फेरतीं
पशुओं को अपनापन देतीं
चिड़ियों को व्यापक मन देतीं
दिन की तिक्त कुटिल अविरतता
में, रसाल-रस सनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम
बिन गाये भी तुमको गाया

इक पगली लड़की के बिन - Kumar Vishwas Poetry

अमावस की काली रातों में, दिल का दरवाजा खुलता है
जब दर्द की प्याली रातों में, गम आंसू के संग घुलता है
जब पिछवाड़े के कमरें में, हम निपट अकेले होतें हैं
जब घड़ियाँ टिक टिक चलतीं हैं, सब सोतें हैं हम रोतें हैं
जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुक जाती हैं
जब ऊँच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है

जब पोथे खाली होते हैं, जब सिर्फ सवाली होतें हैं
जब ग़जले रास नहीं आतीं, अफसाने गाली होते है
जब बाकी फीकी धूप समेटे, दिन ज़ल्दी ढल जाता है
जब सूरज का लश्कर छत से, गलियों में देर से आता है
जब ज़ल्दी घर जाने की इच्छा, मन ही मन घुट जाती है
जब दफ़्तर से घर लाने वाली, पहली बस छुट जाती है
जब बेमन से खाना खाने पर, माँ गुस्सा हो जाती है
जब लाख मना करने पर भी, कम्मो पढने आ जाती है
जब अपना मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है

जब कमरें में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है
जब दर्पण में आँखों के नीचे झाई दिखाई देती हैं
जब बडकी भाभी कहतीं हैं कुछ सेहत का भी ध्यान करो
क्या लिखते हो लल्ला दिन भर कुछ सपनों का सम्मान करो
जब बाबा वाली बैठक में, कुछ रिश्ते वाले आते हैं
जब बाबा हमें बुलातें हैं, हम जानें में घबरातें हैं
जब साड़ी पहने लड़की का इक फोटो लाया जाता है
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है
जब सारे घर का समझाना, हमको फनकारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है

अम्मा कहती हैं उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं
उसके दिल में भैया तेरे जैसे ज़ज्बात नहीं
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है
चुप चुप सारे व्रत रखती है पर मुझसे कभी न कहती है
जो पगली लड़की कहती है मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत अम्मा बाबा से डरती हूँ
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा
ये कथा कहानी किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा
बस उस पगली लड़की के संग हँसना फुलवारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है

किस्सा रूपारानी - Kumar Vishwas Poetry

रूपा रानी बड़ी सयानी;
मृगनयनी लौनी छवि वाली,
मधुरिम वचना भोली-भाली;
भरी-भरी पर खाली-खाली।

छोटे कस्बे में रहती थी;
जो गुनती थी सो कहती थी,
दिन भर घर के बासन मलती;
रातों मे दर्पण को छलती।

यों तो सब कुछ ठीक-ठाक था;
फिर भी वो उदास सी रहती,
उनकी काजल आंजी आँखें
सूनेपन की बातें कहती।

जगने उठने में सोने में
कुछ हंसने में कुछ रोने में
थोड़े दिन यूँ ही बीते
खाली खाली रीते रीते

तभी हमारे कवि जी,
तीन लोक से न्यारे कवि जी,
उनके सपनों में आ छाए;
उनको बहुत-बहुत ही भाए।

यूं तो लोगों की नज़रों में
कवि जी कस्बे का कबाड़ थे,
लेकिन उनके ऊपर नीचे
सच्चे झूठे कुछ जुगाड़ थे।

बरस दो बरस में टीवी पर
उनका चेहरा दिख जाता था;
कभी कभी अखबारों में भी
उनका लिखा छप जाता था।

तब वह दुगने हो जाते थे;
सबसे कहते बहुत व्यस्त हूँ,
मरने तक की फुर्सत कब है;
भाग-दौड़ में बड़ा तृस्त हूँ।

रूपा रानी को वो भाए;
उनको रूपा रानी भाई,
जैसे गंगा मैया एक दिन
ऋषिकेष से भू पर आई।

धरती को आकाश मिल गया;
पतझड़ को वनवास मिल गया,
पीड़ा ने निर्वासन पाया;
आँसू को वनवास मिल गया।

रूपा रानी के अधरों पर
चन्दनवन महकाते कवि जी,
कभी फैलते कभी सिमटते;
देर रात घर आते कवि जी।

सोते तो उनके सपनों में
रूपा रानी जगती रहती,
लाख छुपाते सबसे लेकिन;
आँखें मन की बातें कहती।

लेकिन एक दिन हुआ वही
जो पहले से होता आया है,
हंसने वाला हंसने बैठा;
रोया जो रोता आया है।

जैसे राम कथा में
निर्वासन प्रसंग आ जाए,
या फिर हँसते नीलगगन में
श्यामल मेघों का दल छाए।

इसी भांति इस प्रेम कथा में
अपराधी बन आई कविता,
होठों की स्मृत रेखा पर,
धूम्ररेख बन छाई कविता।

रूपा रानी के घरवाले
सबसे कहते हमसे कहते,
यह आवारा काम-धाम कुछ
करता तो हम चुप हो सहते।

बड़ी बैंक का बड़ी रैंक का
एक सुदर्शन दूल्हा आया,
जैसे कोई बीमा वाला
गारंटेड खुशियाँ घर लाया।

शादी की इस धूम-धाम में
अपने कवि जी बहुत व्यस्त थे,
अंदर-अंदर एकाकी थे
बाहर-बाहर बहुत मस्त थे।

बिदा हुई तो खुद ही उसको
दूल्हे जी के पास बिठाया।

तब से कवि जी के अंतस में
पीड़ा जमकर रहती है जी,
लाख छिपाते बातें लेकिन
आँखें सब से कहती हैं जी।

आप पूछते हैं यह किस्सा
कैसे कब और कहाँ हुआ था,
मुझको अब कुछ याद नहीं
इसने मुझको कहाँ छूआ था।

शायद जबसे वाल्मीकि ने
पहली कविता लिखी तबसे,
या जब तुलसी रतनावली के
द्वारे से लौटे थे तब से।

यूं ही सुना दिया यह किस्सा
इसमें कुछ फरियाद नहीं है,
आगे की घटनाएँ सब
मालूम हैं पर याद नहीं है।

मर गया राजा मर गयी रानी
खतम हुई यूं प्रेम कहानी।

बाकी किस्से फिर सुन लेना
आएंगी अनगिनत शाम जी,
अच्छा जी अब चलता हूँ मैं,
राम-राम जी राम-राम जी।

मैं उसको भूल ही जाऊंगा - Kumar Vishwas Poetry

माँ को देखा कि वो बेबस-सी परेशान सी है
अपने बेटे के छले जाने पे हैरान-सी है
वो बड़ी दूर चली आई है मुझसे मिलने
मेरी उम्मीद की झोली का फटा मुंह सिलने

उसकी आँखों में पिता मुझको दीख जाते हैं
कभी उद्धव तो कभी नंद नज़र आते हैं
वो निरी मां की तरह प्यार से दुलारती है
ज़िन्दगी कितनी अहम चीज है बतलाती है

उसको डर है कि उसका चाँद-सा प्यारा बेटा
जिसके गीतों की चूनर ओढ़ के दुनिया नाचे
जिसके होंठों की शरारत पे मुहब्बत है फ़िदा
जिसके शब्दों में सभी प्यार की गीता बांचें

उसका वो राजकुंवर ओस की बून्दों की तरह
दर्द की धूप से दुनिया से उड़ न जाये कहीं
शोहरत-ओ-प्यार की मंजिल की तरफ़ बढ़ता हुआ
शौक से मौत की राहों पे मुड़ न जाये कहीं

उसको लगता है मेरा नर्म-सा नाजुक-सा जिगर
दूरियाँ सह नहीं पाएगा बिख़र जायेगा
उसको मालूम नहीं आग में सीने की मेरी
मेरा शायर जो तपेगा तो निखर जायेगा

मुझको मालूम है दुनिया के लिए जीना है
इसलिए माँ मेरी हैरान-परेशान न हो
मेरी खुशियां तू मुझे दे न सकीं, इसके लिए
बेवजह खुद पे शर्मशार, पशेमान न हो

एक तू है, कि जिसे दर्द है दुनिया के लिए
एक वो है, कि जिसे खुद पे कोई शर्म नहीं
एक तू है, कि जिसे ममता है पत्थर तक से
एक वो पत्थर दिल, दिल में कोई मर्म नहीं

मैं उसको भूल ही जाऊंगा वायदा है मेरा
मैं उसकी हर बात जुबां पर न कभी लाऊंगा
मेरा हर जिक्र उसकी फ़िक्र से जुदा होगा
मैं उसका नाम किसी गीत में न गाऊंगा

मुझको मालूम है वादे की हक़ीक़त लेकिन
तेरा दिल रखने की खातिर ये वायदा ही सही
मुझको वो प्यार की दुनिया ना मिली ना ही सही
खुद को मैं पढ़ तो सका इतना फ़ायदा ही सही

मद्यँतिका (मेहंदी) - Kumar Vishwas Poetry

मैं जिस घर में रहता हूँ, उस घर के पिछवाड़े
कुल चार साल की एक बालिका रहती है
जाने क्यूँ मेरी गर्दन से लिपट झूल
वो मुझको सबसे प्यारा अंकल कहती है

है नाम जिसका मद्यन्तिका याकि मेहंदी
सुनता हूँ उसने अपने पिता को नहीं देखा
उसकी जननी को त्याग कहीं बसते हैं वे
कितना कमज़ोर लिखा विधि ने उनका लेखा

धरती पर उसके आने की आहट सुनकर
बस दस दिन ही जननी उल्लास मना पायी
कुंठाओं की चौसर पर सिक्कों की बाज़ी
हारी, लेकर गर्भस्थ शिशु वापस आयी

अब एक नौकरी का बल और संबल उसका
बस ये ही दो आधार ज़िंदगी जीने को
अमृतरूपा इक बेल सींचने की ख़ातिर
वह विवश समय का तीक्ष्ण हलाहल पीने को

वह कभी खेलती रहती है अपने घर पर
या कभी-कभी मुझसे मिलने आ जाती है
मैं बच्चों के कुछ गीत सुनाता हूँ उसको
उल्लास भरी वह मेरे संग-संग गाती है

इतनी पावन, इतनी मोहक, इतनी सुन्दर
जैसे उमंग ही स्वयं देह धर आयी हो
या देवों ने भी नर की सृजन-शक्ति देख
सम्मोहित हो यह अमर आरती गायी हो

वह जैसे नयी कली चटके उपवन महके
धरती की शय्या पर किरणों की अंगड़ाई
वह जैसे दूर कहीं पर बाँसुरिया बाजे
वह जैसे मंडप के द्वारे की शहनाई

वह जैसे उत्सव की शिशुता हो मूर्तिमंत
वह बचपन जैसे इन्द्रधनुष के रंगों का
वह जिज्ञासा जैसे किशोर हिरनी की हो
वह नर्तन जैसे सागर बीच तरंगों का

वह जैसे तुलसी के मानस की चौपाई
मैथिल-कोकिल-विद्यापति कवि का एक छन्द
वह भक्ति भरे जन्मांध सूर की एक तान
वह मीरा के पद से उठती अनघा सुगंध

वह मेघदूत की पीर, कथा रामायण की,
उसके आगे लज्जित कवि-कुलगुरु का मनोज
वह वर्ड्सवर्थ की लूसी का भारतीय रूप
वह महाप्राण की, जैसे जीवित हो सरोज

सारे सुर उसकी बोली के आगे फीके
सारी चंचलता आँखों के आगे हारी
सारा आकाश समेटे अपनी बाहों में
सब शब्द मौन हो जाएँ वह उतनी प्यारी

जब-जब उसके आगत का करता हूँ विचार
मैं अन्दर तक आकुलता से भर जाता हूँ
सच कहता हूँ जितना जीवन जीता दिन-भर
मैं रोज़ रात को उतना ही मर जाता हूँ

मैं सोच रहा हूँ जबकि समय की कुंठाएँ
कल ग्रन्थ पुराने इसके सम्मुख बांचेंगी
कल जबकि नपुंसक फिकरों वाली सच्चाई
इसकी आंखों के आगे नंगी नाचेंगी

जब पता चलेगा कहीं किसी छत के नीचे
मेरा निर्माता पिता आज भी सोता है
इस टॉफ़ी, खेल-खिलोंनो वाली दुनिया में
संबंधों का ऐसा मज़ाक भी होता है

जब पता चलेगा कैसे सिक्कों के कारण
मेरी माँ को पीड़ा-गाली-दुत्कार मिली
लुटकर-पिटकर, समझौतों की हद पर आकर
पैरों की ठोकर ही उसको हर बार मिली

वह दिन न कभी आये भगवान करे लेकिन
वह दिन आएगा, उसको आना ही होगा
यह भोलापन, नासमझी मन में बनी रहे
लेकिन आँखों से इसको जाना ही होगा

तब हो सकता है पीर सहन न कर पाए
सारी मुस्कानें उड़ जाएँ और वह रो दे
जितनी स्वभाव की कोमलता संयोजित की
वह सारी प्रति-हिंसा के मेले में खो दे

जिन आंखों से अब तक उल्लास लुटाया था
उन आंखों से वह आग लगाने की सोचे
जिन होंठों से मुस्कान और बस गीत झरे
उन होंठों से विष-बाण चलाने की सोचे

तब भी क्या मैं कुछ नए खेल करतब कौतुक
दिखलाकर इसको यूहीं बहला पाऊँगा
तब भी क्या अपने सीने पर शीश टिका
आश्वस्ति भरें हाथों से सहला पाऊंगा

लेकिन मैं हूँ यायावर कवि मेरा क्या है
उस दिन मैं जाने कौन कहाँ से लोक उड़ूँ
या गीतों-गज़लों की अपनी गठरी समेट
मैं तब तक सुर के महालोक की ओर मुड़ूँ

मैं अतः तुम्हारी छोटी-सी मुट्ठी में
आशीष भरा ये गीत सौंप कर जाता हूँ
फूलों से रंग रंगे इन पावन अधरों को
बुद्धत्व भरा संगीत सौंप कर जाता हूँ

इस जीवन के सारे उल्लास तुम्हारे हों
सारे पतझर मेरे मधुमास तुम्हारे हों
आँसू की बरखा से धुलकर जो चमक उठें
ऐसे निरभ्र-निर्मल आकाश तुम्हारे हों

पीड़ा का क्या है, पीड़ा तो सबने दी है
लेकिन मेहंदी ! तुम केवल मुस्कानें देना
विद्वेष हलाहल पीकर अमृत छलकाना
शिव वाली परंपरा को पहचानें देना

आँखों की बरखा से सारी कालिख धोकर
इस धरा-वधू की शुभ्र हथेली पर रचना
आकाश भरे इसकी जब माँग कभी मेहंदी !
तब रंग-गंध का बन प्रतीक तुम ही बचना!!

है नमन उनको - Kumar Vishwas Poetry

kumar vishwas patriotic poems lyrics in hindi

है नमन उनको कि जो यशकाय को अमरत्व देकर
इस जगत के शौर्य की जीवित कहानी हो गये हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये हैं
है नमन उस देहरी को जिस पर तुम खेले कन्हैया
घर तुम्हारे परम तप की राजधानी हो गये हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये

हमने भेजे हैं सिकन्दर सिर झुकाए मात खाए
हमसे भिड़ते हैं वो जिनका मन धरा से भर गया है
नर्क में तुम पूछना अपने बुजुर्गों से कभी भी
सिंह के दाँतों से गिनती सीखने वालों के आगे
शीश देने की कला में क्या गजब है क्या नया है
जूझना यमराज से आदत पुरानी है हमारी
उत्तरों की खोज में फिर एक नचिकेता गया है
है नमन उनको कि जिनकी अग्नि से हारा प्रभंजन
काल कौतुक जिनके आगे पानी पानी हो गये हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये हैं

लिख चुकी है विधि तुम्हारी वीरता के पुण्य लेखे
विजय के उदघोष, गीता के कथन तुमको नमन है
राखियों की प्रतीक्षा, सिन्दूरदानों की व्यथाओं
देशहित प्रतिबद्ध यौवन के सपन तुमको नमन है
बहन के विश्वास भाई के सखा कुल के सहारे
पिता के व्रत के फलित माँ के नयन तुमको नमन है
है नमन उनको कि जिनको काल पाकर हुआ पावन
शिखर जिनके चरण छूकर और मानी हो गये हैं
कंचनी तन, चन्दनी मन, आह, आँसू, प्यार, सपने
राष्ट्र के हित कर चले सब कुछ हवन तुमको नमन है
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये
ये रदीफ़ो काफ़िया

मैं तो झोंका हूँ - Kumar Vishwas Poetry

मैं तो झोंका हूँ हवाओं का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना, तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा

हो के क़दमों पर निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल कर भी मैं ख़ुश्बू बचा ले जाऊँगा

कौन-सी शै तुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा

क़ोशिशें मुझको मिटाने की मुबारक़ हों मगर
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मज़ा ले जाऊँगा

शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त-दुश्मन हो गए
सब यहीं रह जाएंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा

हर सदा पैग़ाम - Kumar Vishwas Poetry

हर सदा पैग़ाम देती फिर रही दर-दर
चुप्पियों से भी बड़ा है चुप्पियों का डर

रोज़ मौसम की शरारत झेलता कब तक
मैंने खुद में रच लिए कुछ खुशनुमा मंज़र

वक़्त ने मुझ से कहा "कुछ चाहिए तो कह"
मैं बोला शुक्रिया मुझको मुआफ़ कर

मैं भी उस मुश्कि़ल से गुज़रा हूँ जो तुझ पर है
राह निकलेगी कोई तू सामना तो कर

उनकी ख़ैरो-ख़बर - Kumar Vishwas Poetry

उनकी ख़ैरो-ख़बर नहीं मिलती
हमको ही ख़ासकर नहीं मिलती

शायरी को नज़र नहीं मिलती
मुझको तू ही अगर नहीं मिलती

रूह में, दिल में, जिस्म में दुनिया
ढूंढता हूँ मगर नहीं मिलती

लोग कहते हैं रूह बिकती है
मैं जहाँ हूँ उधर नहीं मिलती

रंग दुनिया ने दिखाया है - Kumar Vishwas Poetry

रंग दुनिया ने दिखाया है निराला देखूँ
है अँधेरे में उजाला तो उजाला देखूँ

आइना रख दे मिरे सामने आख़िर मैं भी
कैसा लगता है तिरा चाहने वाला देखूँ

कल तलक वो जो मिरे सर की क़सम खाता था
आज सर उस ने मिरा कैसे उछाला देखूँ

मुझ से माज़ी मिरा कल रात सिमट कर बोला
किस तरह मैं ने यहाँ ख़ुद को सँभाला देखूँ

जिस के आँगन से खुले थे मिरे सारे रस्ते
उस हवेली पे भला कैसे मैं ताला देखूँ

सब तमन्नाएँ हों पूरी - Kumar Vishwas Poetry

सब तमन्नाएँ हों पूरी कोई ख़्वाहिश भी रहे
चाहता वो है मोहब्बत में नुमाइश भी रहे

आसमाँ चूमे मिरे पँख तिरी रहमत से
और किसी पेड़ की डाली पे रिहाइश भी रहे

उस ने सौंपा नहीं मुझ को मिरे हिस्से का वजूद
उस की कोशिश है कि मुझ से मिरी रंजिश भी रहे

मुझ को मालूम है मेरा है वो मैं उस का हूँ
उस की चाहत है कि रस्मों की ये बंदिश भी रहे

मौसमों से रहें 'विश्वास' के ऐसे रिश्ते
कुछ अदावत भी रहे थोड़ी नवाज़िश भी रहे

दिल तो करता है -कुमार विश्वास

दिल तो करता है ख़ैर करता है
आप का ज़िक्र ग़ैर करता है

क्यूँ न मैं दिल से दूँ दुआ उस को
जबकि वो मुझ से बैर करता है

आप तो हू-ब-हू वही हैं जो
मेरे सपनों में सैर करता है

इश्क़ क्यूँ आप से ये दिल मेरा
मुझ से पूछे बग़ैर करता है

एक ज़र्रा दुआएँ माँ की ले
आसमानों की सैर करता है

पल की बात थी -कुमार विश्वास

मैं जिसे मुद्दत में कहता था वो पल की बात थी,
आपको भी याद होगा आजकल की बात थी ।

रोज मेला जोड़ते थे वे समस्या के लिए,
और उनकी जेब में ही बंद हल की बात थी ।

उस सभा में सभ्यता के नाम पर जो मौन था,
बस उसी के कथ्य में मौजूद तल की बात थी ।

नीतियां झूठी पड़ी घबरा गए सब शास्त्र भी,
झोंपड़ी के सामने जब भी महल की बात थी ।
चन्द कलियां निशात की

कोई दीवाना कहता है -कुमार विश्वास

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

बदलने को तो इन आंखों के मंजर कम नहीं बदले,
तुम्हारी याद के मौसम हमारे गम नहीं बदले
तुम अगले जन्म में हमसे मिलोगी तब तो मानोगी,
जमाने और सदी की इस बदल में हम नहीं बदले

हमें मालूम है दो दिल जुदाई सह नहीं सकते
मगर रस्मे-वफ़ा ये है कि ये भी कह नहीं सकते
जरा कुछ देर तुम उन साहिलों कि चीख सुन भर लो
जो लहरों में तो डूबे हैं, मगर संग बह नहीं सकते

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

मिले हर जख्म को मुस्कान को सीना नहीं आया
अमरता चाहते थे पर ज़हर पीना नहीं आया
तुम्हारी और मेरी दस्ता में फर्क इतना है
मुझे मरना नहीं आया तुम्हे जीना नहीं आया

पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश में है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या

जहाँ हर दिन सिसकना है जहाँ हर रात गाना है
हमारी ज़िन्दगी भी इक तवायफ़ का घराना है
बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखे हमने
तुम्हारी याद का क्या है उसे तो रोज़ आना है

तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मैं भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नहीं लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

मैं जब भी तेज़ चलता हूँ नज़ारे छूट जाते हैं
कोई जब रूप गढ़ता हूँ तो साँचे टूट जाते हैं
मैं रोता हूँ तो आकर लोग कँधा थपथपाते हैं
मैं हँसता हूँ तो अक़्सर लोग मुझसे रूठ जाते हैं

सदा तो धूप के हाथों में ही परचम नहीं होता
खुशी के घर में भी बोलों कभी क्या गम नहीं होता
फ़क़त इक आदमी के वास्तें जग छोड़ने वालो
फ़क़त उस आदमी से ये ज़माना कम नहीं होता।

हमारे वास्ते कोई दुआ मांगे, असर तो हो
हकीकत में कहीं पर हो न हो आँखों में घर तो हो
तुम्हारे प्यार की बातें सुनाते हैं ज़माने को
तुम्हें खबरों में रखते हैं मगर तुमको खबर तो हो

बताऊँ क्या मुझे ऐसे सहारों ने सताया है,
नदी तो कुछ नहीं बोली किनारों ने सताया है
सदा ही शूल मेरी राह से खुद हट गये लेकिन,
मुझे तो हर घड़ी हर पल बहारों ने सताया है।

हर एक नदिया के होंठों पे समंदर का तराना है,
यहाँ फरहाद के आगे सदा कोई बहाना है !
वही बातें पुरानी थीं, वही किस्सा पुराना है,
तुम्हारे और मेरे बीच में फिर से जमाना है

मेरा प्रतिमान आंसू मे भिगो कर गढ़ लिया होता,
अकिंचन पाँव तब आगे तुम्हारा बढ़ लिया होता,
मेरी आँखों मे भी अंकित समर्पण की रिचाएँ थीं,
उन्हें कुछ अर्थ मिल जाता जो तुमने पढ़ लिया होता

कोई खामोश है इतना, बहाने भूल आया हूँ
किसी की इक तरनुम में, तराने भूल आया हूँ
मेरी अब राह मत तकना कभी ए आसमां वालो
मैं इक चिड़िया की आँखों में, उड़ाने भूल आया हूँ

हमें दो पल सुरूरे-इश्क़ में मदहोश रहने दो
ज़ेहन की सीढियाँ उतरो, अमां ये जोश रहने दो
तुम्ही कहते थे "ये मसले, नज़र सुलझी तो सुलझेंगे",
नज़र की बात है तो फिर ये लब खामोश रहने दो

मैं उसका हूँ वो इस अहसास से इनकार करता है
भरी महफ़िल में भी, रुसवा हर बार करता है
यकीं है सारी दुनिया को, खफा है मुझसे वो लेकिन
मुझे मालूम है फिर भी मुझी से प्यार करता है

अभी चलता हूँ, रस्ते को मैं मंजिल मान लूँ कैसे
मसीहा दिल को अपनी जिद का कातिल मान लूँ कैसे
तुम्हारी याद के आदिम अंधेरे मुझ को घेरे हैं
तुम्हारे बिन जो बीते दिन उन्हें दिन मान लूँ कैसे

भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख़्वाबों में आकर बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है, साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कस लिया दो पल तो हंगामा

जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामे की रातें हैं या है रातों का हंगामा

कल्म को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूँ तो हंगामा
नही मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा

इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा

हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा

ये उर्दू बज़्म है और मैं तो हिंदी माँ का जाया हूँ
ज़बानें मुल्क़ की बहनें हैं ये पैग़ाम लाया हूँ
मुझे दुगनी मुहब्बत से सुनो उर्दू ज़बाँ वालों
मैं हिंदी माँ का बेटा हूँ, मैं घर मौसी के आया हूँ

स्वयं से दूर हो तुम भी, स्वयं से दूर हैं हम भी
बहुत मशहुर हो तुम भी, बहुत मशहुर हैं हम भी
बड़े मगरूर हो तुम भी, बड़े मगरूर हैं हम भी
अत: मजबूर हो तुम भी, अत: मजबूर हैं हम भी

हरेक टूटन, उदासी, ऊब आवारा ही होती है,
इसी आवारगी में प्यार की शुरुआत होती है,
मेरे हँसने को उसने भी गुनाहों में गिना जिसके,
हरेक आँसू को मैंने यूँ संभाला जैसे मोती है

कहीं पर जग लिए तुम बिन, कहीं पर सो लिए तुम बिन
भरी महफिल में भी अक्सर, अकेले हो लिए तुम बिन
ये पिछले चंद वर्षों की कमाई साथ है अपने
कभी तो हंस लिए तुम बिन, कभी तो रो लिए तुम बिन

हमें दिल में बसाकर अपने घर जाएं तो अच्छा हो
हमारी बात सुनलें और ठहर जाएं तो अच्छा हो
ये सारी शाम जाब नज़रों ही नज़रो में बिता दी है
तो कुछ पल और आँखों में गुज़र जाएँ तो अच्छा हो

बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन,
मन हीरा बेमोल लुट गया रोता घिस घिस री तातन चन्दन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज गजब की हैं,
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन

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