Suryakant Tripathi Nirala-Archana सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला-अर्चना

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Archana Suryakant Tripathi Nirala
अर्चना सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

1. भव अर्णव की तरणी तरुणा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भव-अर्णव की तरुणी तरुणा ।
बरसीं तुम नयनों से करुणा ।
हार हारकर भी जो जीता,
सत्य तुम्हारी गाई गीता,
हुईं असित जीवन की सीता,
दाव-दहन की श्रावण-वरुणा ।

काटे कटी नहीं जो कारा
उसकी हुईं मुक्ति की धारा,
वार वार से जो जन हारा ।
उसकी सहज साधिका अरुणा ।

2. तन की, मन की, धन की हो तुम-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तन की, मन की, धन की हो तुम।
नव जागरण, शयन की हो तुम।

काम कामिनी कभी नहीं तुम,
सहज स्वामिनी सदा रहीं तुम,
स्वर्ग-दामिनी नदी बहीं तुम,
अनयन नयन-नयन की हो तुम।

मोह-पटल-मोचन आरोचन,
जीवन कभी नहीं जन-शोचन,
हास तुम्हारा पाश-विमोचन,
मुनि की मान, मनन की हो तुम।

गहरे गया, तुम्हें तब पाया,
रहीं अन्यथा कायिक छाया,
सत्य भाष की केवल माया,
मेरे श्रवण वचन की हो तुम।

3. भज, भिखारी, विश्व-भरणा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भज भिखारी, विश्वभरणा,
सदा अशरण-शरण-शरणा।

मार्ग हैं, पर नहीं आश्रय;
चलन है, पर निर्दलन-भय;
सहित-जीवन मरण निश्चय;
कह सतत जय-विजय-रणना।
suryakant-tripathi
पतित को सित हाथ गहकर
जो चलाती हैं सुपथ पर,
उन्हीं का तू मनन कर कर
पकड़ निश्शर-विश्वतरणा।

पार पारावार कर तू,
मर विभव से, अमर बर तू,
रे असुन्दर, सुघर घर तू,
एक तेरी तपोवरणा।

4. समझा जीवन की विजया हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

समझा जीवन की विजया हो।
रथी दोषरत को दलने को
विरथ व्रती पर सती दया हो।

पता न फिर भी मिला तुम्हारा,
खोज-खोजकर मानव हारा;
फिर भी तुम्हीं एक ध्रुवतारा,
नैश पथिक की पिक अभया हो।

ऋतुओं के आवर्त-विवर्तों,
लिये चलीं जो समतल-गर्तों,
खुलती हुई मर्त्य के पर्तों
कला सफल तुम विमलतया हो।

5. पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा

पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा।
भुक्ति-मुक्ति में गान तुम्हारा।

आंख-आंख पर भाव बदलकर,
चमके हो रंग-छवि के पलभर,
पुनः खोलकर हृदय-कमल कर,
गन्ध बने, अभिधान तुम्हारा।

विपुल-पुलक-व्याकुल अलि के दल
मानव मधु के लिए समुत्कल
उठे ज्योति के पंख खमण्डल,
अन्तस्तल अभियान तुम्हारा।

बैठे हृदयासन स्वतनत्र-मन,
किया समाहित रूप-विचिन्तन,
नृम्न मृण्मरण बचे विचक्षण,
ज्ञान-ज्ञान शुभ स्थान तुम्हारा।

6. दुरित दूर करो नाथ-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

दुरित दूर करो नाथ
अशरण हूँ, गहो हाथ।

हार गया जीवन-रण,
छोड़ गये साथी जन,
एकाकी, नैश-क्षण,
कण्टक-पथ, विगत पाथ।

देखा है, प्रात किरण
फूटी है मनोरमण,
कहा, तुम्ही को अशरण-
शरण, एक तुम्हीं साथ।

जब तक शत मोह जाल
घेर रहे हैं कराल--
जीवन के विपुल व्याल,
मुक्त करो, विश्वगाथ!

7. भव-सागर से पार करो हे!-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भव-सागर से पार करो हे!
गह्वर से उद्धार करो हे!

कृमि से पतित जन्म होता है,
शिशु दुर्गन्ध-विकल रोता है,
ठोकर से जगता-सोता है,
प्रभु, उसका निर्वार करो हे!

पशुओं से संकुल सन्तुल जग,
अहंकार के बाँध बंधा मग,
नहीं डाल भी जो बैठे खग,
ऐसे तल निस्तार करो हे!

विपुल काम के जाल बिछाकर,
जीते हैं जन जन को खाकर,
रहूँ कहाँ मैं ठौर न पाकर,
माया का संहार करो हे!

8. रमण मन के मान के तन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

रमण मन के, मान के तन!
तुम्हीं जग के जीव-जीवन!

तुम्हीं में है महामाया,
जुड़ी छुटकर विश्वकाया;
कल्पतरु की कनक-छाया
तुम्हारे आनन्द-कानन।

तुम्हारी स्वर्सरित बहकर
हर रही है ताप दुस्तर;
तुम्हारे उर हैं अमर-मर,
दिवाकर, शशि, तारकागण।

तुम्हीं से ऋतु घूमती है,
नये कलि-दल चूमती है,
नये आसव झूमती है,
नये गीतों, नये नर्तन!

9. बन जाय भले शुक की उक से-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

बन जाय भले शुक की उक से,
सुख की दुख से अवनी न बनी।
रुक जाय चली गति जो जग की,
जन से जन-जीवन की न ठनी।
बिगड़ी बनती बन जाय सही,
डगड़ी गड़ती गड़ जाय मही,
कटती पटती पट जाय तही,
तन की मन से तनती न तनी।
सब लोग भले भिड़ जांय यहाँ,
जो चढ़े सिर थे, चिढ़ जांय यहाँ,
जो गिरा उसकी न गिरी लवनी।

10. लगी लगन, जगे नयन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

लगी लगन, जगे नयन;
हटे दोष, छुटा अयन;

दुर्मिल जो कुछ ऊर्मिल
मिल-मिलकर हुआ अखिल,
घुल-घुलकर कुल पंकिल
घुला एक रस अशयन।

छुटे सभी विषम बन्ध
विषमय वासना-अन्ध;
संशय की गई गन्ध;
शय-निश्चय किया चयन।

कामना विलीन हुई,--
सभी अर्थ क्षीण हुई,
उद्धत शिति दीन हुई,
दिखा नवल विश्व-वयन।

11. शिविर की शर्वरी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

शिविर की शर्वरी
हिंस्र पशुओं भरी।

ऐसी दशा विश्व की विमल लोचनों
देखी, जगा त्रास, हृदय संकोचनों
कांपा कि नाची निराशा दिगम्बरी।

मातः, किरण हाथ प्रातः बढ़ाया
कि भय के हृदय से पकड़कर छुड़ाया,
चपलता पर मिली अपल थल की तरी।

12. आशा आशा मरे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

आशा आशा मरे
लोग देश के हरे!

देख पड़ा है जहाँ,
सभी झूठ है वहाँ,
भूख-प्यास सत्य,
होंठ सूख रहे हैं अरे!

आस कहाँ से बंधे?
सांस कहाँ से सधे?
एक एक दास,
मनस्काम कहाँ से सरे?

रूप-नाम हैं नहीं,
कौन काम तो सही?
मही-गगन एक,
कौन पैर तो यहाँ धरे?

13. छाँह न छोड़ी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

छांह न छोड़ी,
तेरे पथ से उसने आस न तोड़ी।

शाख़-शाख़ पर सुमन खिले,
हवा-हवा से हिले मिले,
उर-उर फिर से भरे, छिले,
लेकिन उसने सुषमे, आंख न मोडी।

कहीं आव, कहीं है दुराव,
कहीं बढ़े चलने का चाव,
पाप-ताप लेने का दाव
कहीं बढ़े-बढ़े हाथ घात निगोड़ी।

14. साधो मग डगमग पग-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

साधो मग डगमग पग,
तमस्तरण जागे जग।

शाप-शयन सो-सोकर,
हुए शीर्ण खो-खोकर,
अनवलाप रो-रोकर
हुए चपल छलकर ठग।

खोलो जीवन बन्धन,
तोलो अनमोल नयन,
प्राणों के पथ पावन,
रँगो रेणु के रँग रग।

15. सोईं अँखियाँ-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सोईं अँखियाँ:
तुम्हें खोजकर बाहर,
हारीं सखियाँ।

तिमिरवरण हुईं इसलिये
पलकों के द्वार दे दिये
अन्तर में अकपट
हैं बाहर पखियाँ।

प्रार्थना, प्रभाती जैसी,
खुलें तुम्हारे लिये वैसी,
भरें सरस दर्शन से
ये कमरखियाँ।

16. तिमिरदारण मिहिर दरसो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तिमिरदारण मिहिर दरसो।
ज्योति के कर अन्ध कारा-
गार जग का सजग परसो।

खो गया जीवन हमारा,
अन्धता से गत सहारा;
गात के सम्पात पर उत्थान
देकर प्राण बरसो।

क्षिप्रतर हो गति हमारी,
खुले प्रति-कलि-कुसुम-क्यारी,
सहज सौरभ से समीरण पर
सहस्रों किरण हरसों।

17. तुम जो सुथरे पथ उतरे हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुम जो सुथरे पथ उतरे हो,
सुमन खिले, पराग बिखरे, ओ!

ज्योतिश्छाय केश-मुख वाली,
तरुणी की सकरुण कलिका ली,
अधर-उरोज-सरोज-वनाली,
अश्रु-ओस की भेंट भरे हो।

पवन-मन्द-मृदु-गन्ध प्रवाहित,
मधु-मकरन्द, सुमन-सर-गाहित,
छन्द-छन्द सरि-तरि उत्साहित,
अवनि-अनिल-अम्बर संवरे हो।

स्वर्ण-रेणु के उदयाचल-रवि,
दुपहर के खरतर ज्योतिशछवि,
हे उर-उर के मुखर-मधुर कवि,
निःस्व विश्व को तुम्हीं वरे हो।

18. जिनकी नहीं मानी कान-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

जिनकी नहीं मानी कान
रही उनकी भी जी की।

जोबन की आन-बान
तभी दुनिया की फीकी।
राह कभी नहीं भूली तुम्हारी,
आँख से आँख की खाई कटारी,
छोड़ी जो बाँधी अटारी-अटारी
नई रोशनी, नई तान;
रही उनकी भी जी की,
जिनकी नहीं मानी कान।

19. दीप जलता रहा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

दीप जलता रहा,
हवा चलती रही;
नीर पलता रहा,
बर्फ गलती रही।

जिस तरह आग
वन में लगी हुई है,
एकता में सरस
भास है--दुई है,
सत्य में भ्रम हुआ है,
छुईमुई है,
मान बढ़ता रहा,
उम्र ढलती रही।

समय की बाट पर,
हाट जैसे लगी,--
मोल चलता रहा,
झोल जैसे दगी,--
पलक दल रुक गये,
आँख जैसे लगी,--
काल खुलता रहा

20. आंख लगाई-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

आंख लगाई
तुमसे जब से हमने चैन न पाई।

छल जो, प्राणों का सम्बल हुआ,
प्राणों का सम्बल निष्कल हुआ,
जंगल रमने का मंगल हुआ,
ज्योति जहाँ वहाँ अंधेरी घिर आई।

राह रही जहाँ वहाँ पन्थ न सूझा,
चाह रही जहाँ वहाँ एक न बूझा,
ऐसी तलवार चली कुनबा जूझा,
बन आई वह कि दूर हुई सगाई।

21. दो सदा सत्संग मुझको-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

दो सदा सत्संग मुझको।
अनृत से पीछा छुटे,
तन हो अमृत का रंग मुझको।

अशन-व्यसन तुले हुए हों,
खुले अपने ढंग;
सत्य अभिधा साधना हो,
बाधना हो व्यंग, मुझको।

लगें तुमसे तन-वचन-मन,
दूर रहे अनंग;
बाढ़ के जल बढ़ूं, निर्मल-
मिलूं एक उमंग, मुझको।

शान्त हों कुल धातुएँ ये,
बहे एक तरंग,
रूप के गुण गगन चढ़कर,
मिलूं तुमसे, ब्रह्म, मुझको।

22. चंग चढ़ी थी हमारी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

चंग चढ़ी थी हमारी,
तुम्हारी डोर न टूटी।

आँख लगी जो हमारी,
तुम्हारी कोर न छूटी।
जीवन था बलिहार,
तुम्हारा पार न आया,
हार हुई थी हमारी,
तुम्हारी जोत न फूटी।

ज्ञान गया ऐ हमारा,
तुम्हारा मान नया था,
हाथ उठा जो हमारा,
तुम्हारा रास न लूटी।

पैर बढ़े थे हमारे,
तुम्हारे द्वार खुले थे,
दर्शन चाहा हमारा,
तुम्हारी, जीवन-घूटी।

23. नयन नहाये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

नयन नहाये
जब से उसकी छबि में रूप बहाये।

साथ छुटा स्वजनों की,
पाँख फिर गई,
चली हुई पहली वह
राह घिर गई,
उमड़ा उर चलने को
जिस पुर आये।

कण्ठ नये स्वर से क्या
फूटकर खुला!
बदल गई आँख, विश्व-
रूप वह धुला!
मिथ्या के भास सभी,
कहाँ समाये!

24. किशोरी, रंग भरी किस अंग भरी हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

रंगभरी किस अंग भरी हो?
गातहरी किस हाथ बरी हो?

जीवन के जागरण-शयन की,
श्याम-अरुण-सित-तरुण-नयन की,
गन्ध-कुसुम-शोभा उपवन की,
मानस-मानस में उतरी हो;
जोबन-जोबन से संवरी हो।

जैसे मैं बाजार में बिका
कौड़ी मोल; पूर्ण शून्य दिखा;
बाँह पकड़ने की साहसिका,
सागर से उर्त्तीण तरी हो;
अल्पमूल्य की वृद्धिकरी हो।

25. सरल तार, नवल गान-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सरल तार, नवल गान,
नव-नव स्वर के वितान।

जैसे नव ॠतु, नव कलि,
आकुल नव-नव अंजलि,
गुंजित-अलि-कुसुमावलि,
नव-नव-मधु-गन्ध-पान।

नव रस के कलश उठे,
जैसे फल के, असु के,—
नव यौवन के बसु के
नव जीवन के प्रदान।

उठे उत्स, उत्सुक मन,
देखे वह मुक्त गगन,
मुक्त धरा, मुक्तानन,
मिला दे अदिव्य प्राण।

26. पार संसार के-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पार संसार के,
विश्व के हार के,
दुरित संभार के
नाश हो क्षार के।

सविध हो वैतरण,
सुकृत कारण-करण,
अरण-वारण-वरण,
शरण संचार के।

तान वह छेड़ दी,
सुमन की, पेड़ की,
तीन की, डेढ़ की,
तार के हार के!

वार वनिता विनत,
आ गये तथागत,
अप्रहत, स्नेह रत,
मुक्ति के द्वार के।

27. प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल
परा-पथ पाथेय पुष्कल।

गणित अगणित नूपुरों के,
ध्वनित सुन्दर स्वर सुरों के,
सुरंजन गुंजन पुरों के,
कला निस्तल की समुच्छल।

वासना के विषम शर से
बिंधे को जो छुआ कर से,
शत समुत्सुक उत्स बरसे,
गात गाथा हुई उज्जवल।

खुली अन्तः किरण सुन्दर,
दिखे गृह, वन, सरित, सागर,
हँसे खुलकर हार-बाहर,
अजन जन के बने मंगल।

28. पैर उठे, हवा चली-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पैर उठे, हवा चली।
उर-उर की खिली कली।

शाख-शाख तनी तान,
विपिन-विपिन खिले गान,
खिंचे नयन-नयन प्राण,
गन्ध-गन्ध सिंची गली।

पवन-पवन पावन है
जीवन-वन सावन है,
जन-जन मनभावन है,
आशा सुखशयन-पली।

दूर हुआ कलुष-भेद,
कण्टके निस्पन्ध छेद,
खुले सर्ग, दिव्य वेद,
माया हो गई भली।

29. और न अब भरमाओ-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

और न अब भरमाओ,
पौर आओ, तुम आओ!

जी की जो तुमसे चटकी है,
बुद्धि-शुद्धि भटकी-भटकी है;
और जनों की लट लटकी है?
ऐसे अकेले बचाओ,
छोड़कर दूर न जाओ।

खाली पूरे हाथ गये हैं,
ऊपर नये-नये उनये हैं,
सुख से मिलें जो दुख-दुनये हैं,
बेर न वीर लगाओ,
बढ़ाकर हाथ बटाओ!

30. दे न गये बचने की साँस, आस ले गये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

दे न गये बचने की
साँस, आस ले गये।

रह-रहकर मारे पर
यौवन के ज्वर के शर
नव-नव कल-कोमल कर
उठे हुए जो न नये।

फागुन के खुले फाग
गाये जो सिन्धु-राग
दल के दल भरमाये
पातों से जो न छये।

गले-गले मिलने की,
कटी हुई सिलने की,
पड़ी हुई झिलने की,
आ बीती खड़े-खड़े।

31. अलि की गूँज चली द्रुम कुँजों-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

अलि की गूँज चली द्रुम कुँजों।

मधु के फूटे अधर-अधर धर।
भरकर मुदे प्रथम गुंजित-स्वर
छाया के प्राणों के ऊपर,
पीली ज्वाल पुंज की पुंजों।

उल्टी-सीधी बात सँवरकर
काटे आये हाथ उतरकर,
बैठे साहस के आसन पर
भुज-भुज के गुण गाये गुंजों।

32. आज प्रथम गाई पिक पंचम-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

आज प्रथम गाई पिक पंचम।
गूंजा है मरु विपिन मनोरम।

मस्त प्रवाह, कुसुम तरु फूले,
बौर-बौर पर भौंरे झूले,
पात-गात के प्रमुदित झूले,
छाई सुरभि चतुर्दिक उत्तम।

आँखों से बरसे ज्योतिःकण,
परसे उन्मन-उन्मन उपवन,
खुला धरा का पराकृष्ट तन,
फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।

प्रथम वर्ष की पांख खुली है,
शाख-शाख किसलयों तुली है,
एक और माधुरी घुली है,
गीत-गन्ध-रस वर्णों अनुपम।

33. फूटे हैं आमों में बौर-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

फूटे हैं आमों में बौर,
भौंर वन-वन टूटे हैं।
होली मची ठौर-ठौर,
सभी बन्धन छूटे हैं।

फागुन के रंग राग,
बाग-वन फाग मचा है,
भर गये मोती के झाग,
जनों के मन लूटे हैं।

माथे अबीर से लाल,
गाल सेंदुर के देखे,
आँखें हुई हैं गुलाल,
गेरू के ढेले कूटे हैं।

34. खेलूंगी कभी न होली-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

खेलूंगी कभी न होली
उससे नहीं जो हमजोली।

यहां आंख कहीं कुछ बोली
यह हुई श्‍याम की तोली
ऐसी भी रही ठिठोली।
गाढ़े-रेशम की चोली-

अपने से अपनी धो लो,
अपना घूंघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी परायी टोली ।

जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोड़ू-जांता,
मैं मोल दूसरे मोली ।

35. तपी आतप से जो सित गात-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तपी आतप से जो सित गात,
गगन गरजे घन, विद्युत पात।

पलटकर अपना पहला ओर,
बही पूर्वा छू छू कर छोर;
हुए शीकर से निश्शर कोर,
स्निग्ध शशि जैसे मुख अवदात।

36. केशर की, कलि की पिचकारी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

केशर की, कलि की पिचकारी
पात-पात की गात संवारी।

राग-पराग-कपोल किये हैं,
लाल-गुलाल अमोल लिये हैं,
तरु-तरु के तन खोल दिये हैं,
आरति जोत-उदोत उतारी--
गन्ध-पवन की धूप धवारी।

गाये खग-कुल-कण्ठ गीत शत,
संग मृदंग तरंग-तीर-हत,
भजन मनोरंजन-रत अविरत,
राग-राग को फलित किया री--
विकल-अंग कल गगन विहारी।

37. बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

38. गिरते जीवन को उठा दिया-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

गिरते जीवन को उठा दिया,
तुमने कितना धन लुटा दिया!

सूखी आशा की विषम फांस,
खोलकर साफ की गांस-गांस,
छन-छन, दिन-दिन, फिर मास-मास,
मन की उलझन से छुटा दिया।

बैठाला ज्योतिर्मुख करकर,
खोली छवि तमस्तोम हरकर,
मानस को मानस में भरकर,
जन को जगती से खुटा दिया।

पंजर के निर्जर के रथ से,
सन्तुलिता को इति से, अथ से,
बरने को, वारण के पथ से,
काले तारे को टुटा दिया।

39. धीरे धीरे हँसकर आईं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

धीरे धीरे हँसकर आईं
प्राणों की जर्जर परछाईं।

छाया-पथ घनतर से घनतम,
होता जो गया पंक-कर्दम,
ढकता रवि आँखों से सत्तम,
मृत्यु की प्रथम आभा भाईं।

क्या गले लगाना है बढ़कर,
क्या अलख जगाना अड़-अड़कर,
क्या लहराना है झड़-झड़कर,
जैसे तुम कहकर मुस्काईं।

पिछले कुल खेल समाप्त हुए,
जो नहीं मिले वर प्राप्त हुए,
बीसों विष जैसे व्याप्त हुए,
फिर भी न कहीं तुम घबराईं।

40. निविड़-विपिन, पथ अराल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

निविड़-विपिन, पथ अराल;
भरे हिंस्र जन्तु-व्याल।

मारे कर अन्धकार,
बढ़ता है अनिर्वार,
द्रुम-वितान, नहीं पार,
कैसा है जटिल जाल।

नहीं कहीं सुजलाशय,
सुस्थल, गृह, देवालय,
जगता है केवल भय,
केवल छाया विशाल।

अन्धकार के दृढ़ कर
बंधा जा रहा जर्जर,
तन उन्मीलन निःस्वर,
मन्द्र-चरण मरण-ताल।

41. सुरतरु वर शाखा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सुरतरु वर शाखा
खिली पुष्प-भाषा।

मीलित नयनों जपकर
तन से क्षण-क्षण तपकर
तनु के अनुताप प्रखर,
पूरी अभिलाषा।

बरसे नव वारिद वर,
द्रुम पल्लव-कलि-फलभर
आनत हैं अवनी पर
जैसी तुम आशा।

भावों के दल, ध्वनि, रस
भरे अधर-अधर सुवश,
उघरे, उर-मधुर परस,
हँसी केश-पाशा।

42. वेदना बनी मेरी अवनी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वेदना बनी;
मेरी अवनी।

कठिन-कठिन हुए मृदुल
पद-कमल विपद संकल
भूमि हुई शयन-तुमुल
कण्टकों घनी।

तुमने जो गही बांह,
वारिद की हुई छांह,
नारी से हुईं नाह,
सुकृत जीवनी।

पार करो यह सागर
दीन के लिए दुस्तर,
करुणामयि, गहकर कर,
ज्योतिर्धमनी।

43. आंख बचाते हो तो क्या आते हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

आँख बचाते हो
तो क्या आते हो?

काम हमारा बिगड़ गया
देखा रूप जब कभी नया;
कहाँ तुम्हारी महा दया?
क्या क्या समझाते हो?--
आँख बचाते हो।

लीक छोड़कर कहाँ चलूं?
दाने के बिना क्या तलूं?
फूला जब नहीं क्या फलूं?
क्या हाथ बटाते हो?--
आँख बचाते हो।

44. हरि का मन से गुणगान करो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हरि का मन से गुणगान करो,
तुम और गुमान करो, न करो।
स्वर-गंगा का जल पान करो,
तुम अन्य विधान करो, न करो।

निशिवासर ईश्वर ध्यान करो,
तुम अन्य विमान करो, न करो।
ठग को जग-जीवन-दान करो,
तुम अन्य प्रदान करो, न करो।

दुख की निशि का अवसान करो,
उपमा, उपमान करो, न करो।
प्रिय नाह की बांह का थान करो,
तुम और वितान करो, न करो।

45. खुल कर गिरती है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

खुल कर गिरती है
जो, उड़ती फिरती है।

ऐसी ही एक बात चलती है,
घात खड़ी-खड़ी हाथ मलती है,
तभी सह-सही दाल गलती है
(जो)तिरती-तिरती है।

काम इशारा नहीं आया तो
जैसी माया हो, छाया हो।
मुसकाया, मन को भाया जो,
उससे सिरती है।

विगलित जो हुआ दाप से दर
प्राणों को मिला शाप से वर;
गिरि के उर से मृदु-मन्द्र-स्वर,
सरिता झिरती है।

46. तन, मन, धन वारे हैं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तन, मन, धन वारे हैं;
परम-रमण, पाप-शमन,
स्थावर-जंगम-जीवन;
उद्दीपन, सन्दीपन,
सुनयन रतनारे हैं।

उनके वर रहे अमर
स्वर्ग-धरा पर संचर,
अक्षर-अक्षर अक्षर,
असुर अमित मारे हैं।

दूर हुआ दुरित, दोष,
गूंज है विजय-घोष,
भक्तों के आशुतोष,
नभ-नभ के तारे हैं।

47. वे कह जो गये कल आने को-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वे कह जो गये कल आने को,
सखि, बीत गये कितने कल्पों।
खग-पांख-मढी मृग-आँख लगी,
अनुराग जगी दुख के तल्पों।

उनकी जो रही, बस की न कही,
रस की रसना अशना न रही,
विपरीत की टेक न एक सही,
दिन बीत चले अल्पों-अल्पों।

उनकी जय उर-उर भय भसका,
उनके मग में जग-जय मसका,
उनके डग से कुल क्षय धसका,
पर दरस गये जल्पों-जल्पों।

48. मानव का मन शान्त करो हे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

मानव का मन शान्त करो हे!
काम, क्रोध, मद, लोभ दम्भ से
जीवन को एकान्त करो हे।

हिलें वासना-कृष्ण-तृष्ण उर,
खिलें विटप छाया-जल-सुमधुर,
गूंजे अलि-गुंजन के नूपुर,
निज-पुर-सीमा-प्रान्त करो हे।

विहग-विहग नव गगन हिला दे,
गान खुले-कण्ठ-स्वर गा दे,
नभ-नभ कानन-कानन छा दे,
ऐसे तुम निष्क्रान्त करो हे।

रूखे-मुख की रेखा सोये,
फूट-फूटकर माया रोये,
मानस-सलिल-मलिनता धोये,
प्रति मग से आक्रान्त करो हे!

49. तुम ही हुए रखवाल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुम ही हुए रखवाल
तो उसका कौन न होगा?
फूली-फली तरु-डाल
तो उसका कौन न होगा?

कान पड़ी है खटाई
तो उसकी मौन मिताई,
और हिये जयमाल
तो उसका कौन न होगा?

जिसने किया है किनारा
उसीका दलबल हारा,
और हुए तुम ढाल
तो उसका कौन न होगा?

50. नव तन कनक-किरण फूटी है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

नव तन कनक-किरण फूटी है।
दुर्जय भय-बाधा छूटी है।

प्रात धवल-कलि गात निरामय
मधु-मकरन्द-गन्ध विशदाशय,
सुमन-सुमन, वन-मन, अमरण-क्षय,
सिर पर स्वर्गाशिस टूटी है।

वन के तरु की कनक-बान की
वल्ली फैली तरुण-प्राण की,
निर्जल-तरु-उलझे वितान की
गत-युग की गाथा छूटी है।

51. घन तम से आवृत धरणी है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

घन तम से आवृत धरणी है;
तुमुल तरंगों की तरणी है।

मन्दिर में बन्दी हैं चारण,
चिघर रहे हैं वन में वारण,
रोता है बालक निष्कारण,
विना-सरण-सारण भरणी है।

शत संहत आवर्त-विवर्तों
जल पछाड़ खाता है पर्तों,
उठते हैं पहाड़, फिर गर्तों
धसते हैं, मारण-रजनी है।

जीर्ण-शीर्ण होकर जीती है,
जीवन में रहकर रीती है,
मन की पावनता पीती है,
ऐसी यह अकाम सरणी है।

52. नव जीवन की बीन बजाई-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

नव जीवन की बीन बजाई।
प्रात रागिनी क्षीण बजाई।

घर-घर नये-नये मुख, नव कर,
भरकर नये-नये गुंजित स्वर,
नर को किया नरोत्तम का वर,
मीड़ अनीड़ नवीन बजाई।

वातायन-वातायन के मुख
खोली कला विलोकन-उत्सुक,
लोक-लोक आलोक, दूर दुख,
आगम-रीति प्रवीण बजाई।

53. पाप तुम्हारे पांव पड़ा था-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पाप तुम्हारे पांव पड़ा था,
हाथ जोड़कर ठांव खड़ा था।

विगत युगों का जंग लगा था,
पहिया चलता न था, रुका था,
रगड़ कड़ी की थी, सँवरा था,
पथ चलने का काम बड़ा था।

जड़ता की जड़तक मारी थी,
ऐसी जगने की बारी थी,
मंजिल भी थककर हारी थी,
ऐसे अपने नाँव चढ़ा था।

सभी उहार उतार दिये थे,
फिरसे पट्टे श्वेत सिये थे,
तीन-तीन के एक किये थे,
किसी एक अपवर्ग मढ़ा था।

54. क्यों मुझको तुम भूल गये हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

क्यों मुझको तुम भूल गये हो?
काट डाल क्या, मूल गये हो।

रवि की तीव्र किरण से पीकर
जलता था जब विश्व प्रखरतर,
तुम मेरे छाया के तरु पर
डाल पवन से धूल गये हो।

विफल हुई साधना देह की,
असफल आराधना स्नेह की,
बिना दीप की रात गेह की,
उल्टे फलकर फूल गये हो।

नहीं ज्ञात, उत्पात हुआ क्यों,
ऐसा निष्ठुर घात हुआ क्यों,
विमल-गात अस्नात हुआ क्यों,
बढ़ने को प्रतिकूल गये हो?

55. तुमसे जो मिले नयन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुमसे जो मिले नयन,
दूर हुए दुरित-शयन।

खिले अंग-अंग अमल
सर के पातः-शतदल
पावन-पवनोत्कल-पल,
अलक-मन्द-गन्ध-वयन।

खग-कुल कल-कण्ठ-राग
फूटे नग, नगर, बाग,
अधर-विधुर छुटे दाग,
कर-कर सित-सुमन-चयन।

अखिल के न खिले हुए,
खले हिले-मिले हुए,
एक ताग सिले हुए
आये हो एक अयन।

56. वन-वन के झरे पात-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वन-वन के झरे पात,
नग्न हुई विजन-गात।

जैसे छाया के क्षण
हंसा किसी को उपवन,
अब कर-पुट विज्ञापन,
क्षमापन, प्रपन्न प्रात।

करुणा के दान-मान
फूटे नव पत्र-गान,
उपवन-उपवन समान
नवल-स्वर्ग-रश्मि-जात।

57. तुमने स्वर के आलोक-ढले-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुमने स्वर के आलोक-ढले
गाये हैं गाने गले-गले।

बचकर भव की भंगुरता से
रागों के सुमनों के बासे
रंग-रेणु-गन्ध के वे भासे
मीड़ों के नीड़ों से निकले।

नश्वरता पर सस्वर छाये
जैसे पल्लव के दल आये,
वन के वसन्त के मन भाये
जैसे जन बैठे छाँह-तले।

बोले, अब अपना पथ सूझा,
भूला जीवन-प्रकरण बूझा,
प्रबल से प्रबलतर अरि जूझा,
रोके जो सहसा चक्र चले।

58. लिया-दिया तुमसे मेरा था-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

लिया-दिया तुमसे मेरा था,
दुनिया सपने का डेरा था।

अपने चक्कर से कुल कट गये,
काम की कला से हट हट गये,
छापे से तुम्हीं निपट पट गये,
उलटा जो सीधा ढेरा था।

सही आंख तुम्हीं दिखे पहले,
नहले पर तुम्हीं रहे दहले,
बहते थे जितने थे बहले,
किसी जीभ तुमको टेरा था।

तभी किनारे लगा दिया है,
जहाँ करारा गिरा दिया है,
कैसा तुमने तरा दिया है,
गहरा भवरों का फेरा था।

59. गीत गाने दो मुझे तो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।

60. सहज-सहज कर दो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सहज-सहज कर दो;
सकलश रस भर दो।

ठग ठगकर मन को
लूट गये धन को,
ऐसा असमंजस, धिक
जीवन-यौवन को;
निर्भय हूँ, वर दो।

जगज्जाल छाया,
माया ही माया,
सूझता नहीं है पथ
अन्धकार आया;
तिमिर-भेद शर दो।

61. वासना-समासीना, महती जगती दीना-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वासना-समासीना,
महती जगती दीना।

जलद-पयोधर-भारा,
रवि-शशि-तारक-हारा,
व्योम-मुखच्छबिसारा
शतधारा पथ-हीना।

ॠषिकुल-कल-कण्ठस्तुति,
दिव्य-शस्य-सकलाहुति,
निगमागम-शास्त्रश्रुति
रासभ-वासव-वीणा।

62. ये दुख के दिन काटे हैं जिसने-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

ये दुख के दिन
काटे हैं जिसने
गिन गिनकर
पल-छिन, तिन-तिन।

आँसू की लड़ के मोती के
हार पिरोये,
गले डालकर प्रियतम के
लखने को शशिमुख
दुःखनिशा में
उज्ज्वल अमलिन।

63. हार तुमसे बनी है जय-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हार तुमसे बनी है जय,
जीत की जो चक्षु में क्षय।

विषम कम्पन बली के उर,
सदुन्मोचन छली के पुर,
कामिनी के अकल नूपुर,
भामिनी के हृदय में भय।

रच गये जो अधर अनरुण,
बच गये जो विरह-सकरुण,
अनसुने जो सच गये सुन,
जो न पाया, मिला आशय।

क्षणिकता चिर-धनिक की है,
पणिकता जग-वणिक की है,
राशि जैसे कणिक की है,
वाम जैसे है निरामय।

64. अट नहीं रही है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

पत्‍तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्‍प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।

65. कुंज-कुंज कोयल बोली है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कुंज-कुंज कोयल बोली है,
स्वर की मादकता घोली है।

कांपा है घन पल्लव-कानन,
गूँजी गुहा श्रवण-उन्मादन,
तने सहज छादन-आच्छादन,
नस ने रस-वशता तोली है।

गृह-वन जरा-मरण से जीकर
प्राणों का आसव पी-पीकर
झरे पराग-गन्ध-मधु-शीकर,
सुरभित पल्लव की चोली है।

तारक-तनु रवि के कर सिंचित,
नियमित अभिसारक जीवित सित,
आमद-पद-भर मंजु-गुंजरित
अलिका की कलिका डोली है।

66. कौन गुमान करो जिन्दगी का-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कौन गुमान करो जिन्दगी का?
जो कुछ है कुल मान उन्हीं का।

बाँधे हुए घर-बार तुम्हारे,
माथे है नील का टीका,
दाग़-दाग़ कुल अंग स्याह हैं
रंग रहा है फीका--
तुम्हारा कोई न जी का।
एक भरोसा, एक सहारा,
वारा-न्यारा बन्दगी का,
ज्ञान गठा कब, मान हुआ कब,
ध्यान गया जब पी का,
बना कब आन किसीका?

67. छोड़ दो, न छेड़ो टेढ़े-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

छोड़ दो, न छेड़ो टेढ़े,
कब बसे तुम्हारे खेड़े?

यह राह तुम्हारी कब की
जिसको समझे हम सब की?
गम खा जाते हैं अब की,
तुम ख़बर करो इस ढब की,
हम नहीं हाथ के पेड़े।

सब जन आते जाते हैं,
हँसते हैं, बतलाते हैं,
आपस में इठलाते हैं,
अपना मन बहलाते हैं,
तुमको खेने हैं बेड़े।

68. प्रिय के हाथ लगाये जागी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रिय के हाथ लगाये जागी,
ऐसी मैं सो गई अभागी।

हरसिंगार के फूल झर गये,
कनक रश्मि से द्वार भर गये,
चिड़ियों के कल कण्ठ मर गये,
भस्म रमाकर चला विरागी।

शिशु गण अपने पाठ हुए रत,
गृही निपुण गृह के कर्मों नत,
गृहिणी स्नान-ध्यान को उद्यत,
भिक्षुक ने घर भिक्षा माँगी।

69. चलीं निशि में तुम आई प्रात-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

चलीं निशि में तुम आई प्रात;
नवल वीक्षण, नवकर सम्पात,

नूपुर के निक्वण कूजे खग,
हिले हीरकाभरण, पुष्प मग,
साँस समीरण, पुलकाकुल जग,
हिले पग जलजात।

70. लघु-तटिनी, तट छाईं कलियां-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

लघु-तटिनी, तट छाईं कलियां;
गूँजी अलियों की आवलियाँ।

तरियों की परियाँ हैं जल पर,
गाती हैं खग-कुल-कल-कल-स्वर,
तिरती हैं सुख-सुकर पंख-भर,
रूम घूमकर सुघर मछलियाँ।

जल-थल-नभ आनन्द-भास है,
किसी विश्वमय का विकास है,
सलिल-अनिल ऊर्मिल विलास है,
निस्तल गीति-प्रीति की तलियाँ।

परिचय से संचित सारा जग,
राग-राग से जीवन जगमग,
सुख के उठते हैं पुलकित डग,
रह जाती हैं अपल पुतलियाँ।

71. हार गई मैं तुम्हें जगाकर-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हार गई मैं तुम्हें जगाकर,
धूप चढ़ी प्रखर से प्रखरतर।

वर्जन के जो वज्र-द्वार हैं,
क्या खुलने के भी किंवार हैं?
प्राण पवन से पार-पार हैं,
जैसे दिनकर निष्कर, निश्शर।

पंच विपंची से विहीन हैं;
जैसे जन आयु से छीण हैं;
सभी विरोधाभास पीन हैं;
असमय के जैसे धाराधर।

72. तरणि तार दो अपर पार को-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तरणि तार दो
अपर पार को

खे-खेकर थके हाथ,
कोई भी नहीं साथ,
श्रम-सीकर-भरा माथ,
बीच-धार, ओ!

पार किया तो कानन;
मुरझाया जो आनन,
आओ हे निर्वारण,
बिपत वार लो।

पड़ी भँवर-बीच नाव,
भूले हैं सभी दांव,
रुकता है नहीं राव--
सलिल-सार, ओ!

73. गीत-गाये हैं मधुर स्वर-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

गीत-गाये हैं मधुर स्वर,
किरण-कर वीणा नवलतर।

ताकते हैं लोग, आये
कहाँ तुम, कैसे सुहाये,
अनन्तर अन्तर समाये,
कठिन छिपकर, सहज खुलकर।

कान्त है कान्तार दुर्मिल,
सुघर स्वर से अनिल ऊर्मिल,
मीड़ से शत-मोह घूर्मिल,
तार से तारक, कलाधर।

छा गया जैसे अखिल भव,
द्रुमों से जागा यथा दव,
ॠतु-कुसुम से गन्ध, आसव,
उषा से जैसे कनक-कर।

74. हंसो अधर-धरी हंसी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हंसो अधर-धरी हंसी,
बसो प्राण-प्राण-बसी।

करुणा के रस ऊर्वर
कर दो ऊसर-ऊसर
दुख की सन्ध्या धूसर
हीरक-तारकों-कसी।

मोह छोह से भर दो,
दिशा देश के स्वर हो,
परास्पर्श दो पर को,
शरण वरण-लाल-लसी।

चरण मरण-शयन-शीर्ण,
नयन ज्ञान-किरण-कीर्ण,
स्नेह देह-दहन-दीर्ण,
रहन विश्व-वास-फंसी।

75. कठिन यह संसार, कैसे विनिस्तार-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कठिन यह संसार, कैसे विनिस्तार?
ऊर्मि का पाथार कैसे करे पार?

अयुत भंगुर तरंगों टूटता सिन्धु,
तुमुल-जल-बल-भार, क्षार-तल, कुल बिन्दु,
तट-विटप लुप्त, केवल सलिल-संहार।

ॠतु-वलय सकल शय नाचते हैं यहाँ,
देख पड़ता नहीं, आँचते हैं यहाँ,
सत्य में झूठ, कुहरा-भरा संभार।

76. नील जलधि जल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

नील जलधि जल,
नील गगन-तल,
नील कमल-दल,
नील नयन द्वय।

नील मॄत्ति पर
नील मृत्यु-शर,
नील अनिल-कर,
नील निलय-लय।

नील मोर के
नील नृत्य रे,
नील कृत्य से
नील शवाशय।

नील कुसुम-मग,
नील नग्न-नग,
नील शील-जग,
नील कराभय।

77. क्या सुनाया गीत, कोयल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

क्या सुनाया गीत, कोयल!
समय के समधीत, कोयल!

मंजरित हैं कुंज, कानन,
जानपद के पुंज-आनन,
वर्ष के कर हर्ष के शर
बिंध गया है शीत, कोयल!

कामना के नयन वंचित,
रुचिर रचनाकरों-संचित,
मधुर मधु का तथ्य, अथवा
पथ्य है नवनीत, कोयल!

78. भजन कर हरि के चरण, मन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भजन कर हरि के चरण, मन!
पार कर मायावरण, मन!

कलुष के कर से गिरे हैं
देह-क्रम तेरे फिरे हैं,
विपथ के रथ से उतरकर
बन शरण का उपकरण, मन!

अन्यथा है वन्य कारा,
प्रबल पावस, मध्य धारा,
टूटते तन से पछड़कर
उखड़ जायेगा तरण, मन!

79. अनमिल-अनमिल मिलते-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

अनमिल-अनमिल मिलते
प्राण, गीत तो खिलते।

उड़ती हैं छुट-छुटकर
आँखें मन के नभ पर
और किसी मणि के घर
झिलमिल सुख से हिलते।

किससे मैं कहूँ व्यथा--
अपनी जित-विजित कथा?
होगी भी अनन्यता
छन की लौ के झिलते?

80. मुदे नयन, मिले प्राण-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

मुदे नयन, मिले प्राण,
हो गया निशावसान।

जगते-जग के कलरव
सोये, उर के उत्सव
मन्द हुए स्पन्दित जब,
मिले कण्ठ-कण्ठ गान।

एक हुए दोनें वर
ईश्वर के अविनश्वर,
पार हुए घर-प्रान्तर,
अन्तर में निरवमान!

ज्ञान-सूत्र में मिलकर
स्वर्ग से चढ़े ऊपर,
जहाँ नहीं नर, न अमर,
सुन्दरता का विधान।

81. जननी मोह की रजनी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

जननी मोह की रजनी
पार कर गई अवनी।

तोरण-तोरण साजे,
मंगल-बाजे बाजे,
जन-गण-जीवन राजे,
महिलाएँ बनीठनीं।

साड़ी के खिले मोर,
रेशम के हिले छोर,
शिंजित हैं बोर-बोर,
चमकी है कनी-कनी।

क्षिति पर हैं लौह-यान,
गगन विकल हैं विमान,
थल पर है उथल-पुथल,
जल पर तैरी तरणी।

82. उनसे-संसार, भव-वैभव-द्वार-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

उनसे-संसार,
भव-वैभव-द्वार।

समझो वर निर्जर रण;
करो बार बार स्मरण,
निराकार करण-हरण,
शरण, मरणपार।

रवि की छवि के प्रभात,
ज्योति के अदृश्य गात,
गन्ध-मन्द-पवन-जात,
उर-उर के हार।

83. मधुर स्वर तुमने बुलाया-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

मधुर स्वर तुमने बुलाया,
छद्म से जो मरण आया।

बो गई विष वायु पच्छिम,
मेघ के मद हुई रिमझिम,
रागिनी में मृत्युः द्रिमद्रिम,
तान में अवसान छाया।

चरण की गति में विरत लय,
सांस में अवकाश का क्षय,
सुषमता में असम संचय,
वरण में निश्शरण गाया।

84. गवना न करा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

गवना न करा।
खाली पैरों रास्ता न चला।

कंकरीली राहें न कटेंगी,
बेपर की बातें न पटेंगी,
काली मेघनियाँ न फटेंगी,
ऐसे ऐसे तू डग न भरा।

कुछ भी न बता तू रहा पता,
सपने-सपने दे रहा घता,
जो पूरा-पूरा माल-मता,
मुरझा न जायगा बाग हरा।

85. कैसे हुई हार तेरी निराकार-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कैसे हुई हार तेरी निराकार,
गगन के तारकों बन्द हैं कुल द्वार?

दुर्ग दुर्घर्ष यह तोड़ता है कौन?
प्रश्न के पत्र, उत्तर प्रकृति है मौन;
पवन इंगित कर रहा है--निकल पार।

सलिल की ऊर्मियों हथेली मारकर
सरिता तुझे कह रही है कि कारगर
बिपत से वारकर जब पकड़ पतवार।

क्षिति के चले सीत कहते विनतभाव--
जीवन बिना अन्न के है विपन्नाव;
कैसे दुसह द्वार से करे निर्वार?

86. तुम आये, कनकाचल छाये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुम आये, कनकाचल छाये,
ऐ नव-नव किसलय फैलाये।
शतशत वल्लरियाँ नत-मस्तक,
झुककर पुष्पाधर मुसकाये।

परिणय अगणन यौवन-उपवन,
संकुल फल के गुंजन भाये;
मधु के पावन सावन सरसे,
परसे जीवन-वन मुरझाये।

रवि-शशि-मण्डल, तारा-ग्रह-दल,
फिरते पल-पल दृग-दृग छाये,
मूर्छित गिरकर जो अनृत अकर,
सुषमा के वर सर लहराये।

87. खोले अमलिन जिस दिन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

खोले अमलिन जिस दिन,
नयन विश्वजन के
दिखी भारती की छबि,
बिके लोग धन के।

तन की छुटा गई सुरत,
रुके चरण मायामत,
रोग-शोक-लोक, वितत
उठे नये रण के।

तटिनी के तीर खड़े
खम्भे थे, वीर बड़े,
मेरु के करार चढ़े,
श्रम के यौवन के।

88. तू दिगम्बर विश्व है घर-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तू दिगम्बर विश्व है घर
ज्ञान तेरा सहज वर कर।
शोकसारण करणकारण,
तरणतारण विष्णु-शंकर।

अमित सित के असित चित के,
त्वरित हित के राम वानर,
लक्षणासन संग लक्ष्मण
वासनारण-प्रहर-खर-शर।

गति अनाहत, तू सखा मत,
सहज संयत, रे अकातर,
ध्यान के सम्मान में रत
ज्ञान के शतपथ-चराचर।

89. कौन फिर तुझको बरेगा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कौन फिर तुझको बरेगा
तू न जब उस पथ मरेगा?

निखिल के शर शत्रु हनकर,
क्षत भले कर क्षत्र बनकर,
तू चला जबतक न तनकर,--
धर्म का ध्वज कर न लेगा।

देश के अवशेष के रण
शमन के प्रहरण दिया तन
तो हुआ तू शरणशारण,
विश्व तेरे यश भरेगा।

मिलेंगे जन अशंकित मन
खिलेंगे निश्शेष-चेतन,
विषद-वासों के विभूषण,
चरण के तल, तू तरेगा।

90. हरिण-नयन हरि ने छीने हैं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हरिण-नयन हरि ने छीने हैं।
पावन रँग रग-रग भीने हैं।

जिते न-चहती माया महती,
बनी भावना सहती-सहती,
भीतर धसी साधना बहती,
सिले छेद जो तन सीने हैं।

जाने जन जो मरे जिये थे,
फिरे सुकृत जो लिये दिये थे,
हुए हिये जो मान किये थे,
पटे सुहसन, वसन झीने हैं।

91. हुए पार द्वार-द्वार-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हुए पार द्वार-द्वार,
कहीं मिला नहीं तार।

विश्व के समाराधन
हंसे देखकर उस क्षण,
चेतन जनगण अचेत
समझे क्या जीत हार?

कांटों से विक्षत पद,
सभी लोग अवशम्बद,
सूख गया जैसे नद
सुफलभार सुजलधार।

केवल है जन्तु-कवल
गई तन्तु नवल-धवल,
छुटा छोर का सम्बल,
टूटा उर-सुघर हार।

92. पथ पर बेमौत न मर-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पथ पर बेमौत न मर,
श्रम कर तू विश्रम-कर।

उठा उठा करद हाथ,
दे दे तू वरद साथ,
जग के इस सजग प्रात
पात-पात किरनें भर।

बढ़ा बढ़ा कर के तन,
जगा जगा निश्चेतन,
भगा भीरु जीवन-रण
सर-सर से उभर सुघर।

चलते चलते छुटकर
द्रुम की मधुलता उतर
विधुर स्पर्श कर पथ पर
युवा-युवतियों के सर।

93. कनक कसौटी पर कढ़ आया-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कनक कसौटी पर कढ़ आया
स्वच्छ सलिल पर कर की छाया।

मान गये जैसे सुनकर जन
मन के मान अवश्रित प्रवचन,
जो रणमद पद के उत्तोलन
मिलते ही काया से काया।

चले सुपथ सत्य को संवरकर
उचित बचा लेने को टक्कर,
तजने को जीवित अविनश्वर,
मिलती जो माया से माया।

वाद-विवाद गांठकर गहरे
बायें सदा छोड़कर बहरे
कथा व्यथा के, गांव न ठहरे,
सत होकर जो आया, पाया।

94. साध पुरी, फिरी धुरी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

साध पुरी, फिरी धुरी।
छुटी गैल-छैल-छुरी।

अपने वश हैं सपने,
सुकर बने जो न बने,
सीधे हैं कड़े चने,
मिली एक एक कुरी।

सबकी आँखों उतरे
साख-साख से सुथरे,
सुए के हुए खुथरे
ऊपर से चली खुरी।

सजधजकर चले चले
भले-भले गले-गले
थे जो इकले-दुकले,
बातें थीं भली-बुरी।

95. पतित हुआ हूँ भव से तार-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पतित हुआ हूँ भव से तार;
दुस्तर दव से कर उद्धार।

तू इंगित से विश्व अपरिमित
रच-रचकर करती है अवसित
किस काया से किस छायाश्रित,
मैं बस होता हूँ बलिहार।

समझ में न आया तेरा कर
भर देगा या ले लेगा हर,
सीस झुकाकर उन चरणों पर
रहता हूँ भय से इस पार।

रुक जाती है वाणी मेरी,
दिखती है नादानी मेरी,
फिर भी मति दीवानी मेरी
कहती है, तू ठेक उतार।

96. पतित पावनी, गंगे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!

कनकाचल-विमल-धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!

सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहर
जल धारा धाराधर
मुखर, सुकर-कर-अंगे!

97. चरण गहे थे, मौन रहे थे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

चरण गहे थे, मौन रहे थे,
विनय-वचन बहु-रचन कहे थे।

भक्ति-आंसुओं पद पखार कर,
नयन-ज्योति आरति उतार कर,
तन-मन-धन सर्वस्व वार कर,
अमर-विचाराधार बहे थे।

आस लगी है जी की जैसी,
खण्डित हुई तपस्या वैसी,
विरति सुरति में आई कैसी,
कौन मान-उपमान लहे थे।

ठोकर गली-गली की खाई,
जगती से न कभी बन आई,
रहे तुम्हारी एक सगाई,
इसी लिए कुल ताप सहे थे।

98. विपद-भय-निवारण करेगा वही सुन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

विपद-भय-निवारण करेगा वही सुन,
उसी का ज्ञान है, ध्यान है मान-गुन।

वेग चल, वेग चल, आयु घटती हुई,
प्रमुद-पद की सुखद वायु कटती हुई;
जल्पना छोड़ दे जोड़ दे ललित धुन।

सलिल में मीन हैं मग्न, मनु अनिल में
सीखने के लिये ज्ञान है अखिल में,
विमल अनवद्य की भावना सद्य चुन।

अन्यथा सकल आराधना शून्य है,
मृत्तिका भाप है, पाप भी पूण्य है,
भेद की आग में व्यर्थ अब तो न भुन।

99. श्याम-श्यामा के युगल पद-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

श्याम-श्यामा के युगल पद,
कोकनद मन के विनिर्मद।

हृदय के चन्दन सुखाशय,
नयन के वन्दन निरामय,
निश्शरण के निर्गमन के,
गगन-छाया-तल सदाश्रय,
उषा की लाली लगे दुख के,
जगे के योग के गद।

नन्द के आनन्द के घन,
बाधना के साध्य-साधन,
शेष के अवशेष के फल
ज्योति के सम्वलित जीवन,
प्राण के आदान के बल,
मान के मन के वशम्वद।

100. काम के छवि-धाम-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

काम के छवि-धाम,
शमन प्रशमन राम!

सिन्धुरा के सीस
सिन्दूर, जगदीश,
मानव सहित-कीश,
सीता-सती-नाम।

अरि-दल-दलन-कारि,
शंकर, समनुसारि
पद-युगल-तट-वारि
सरिता, सकल याम।

शेष के तल्प कल
शयन अवशेष-पल,
चयन-कलि-गन्ध-दल
विश्व के आराम।

101. हे जननि, तुम तपश्चरिता-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

हे जननि, तुम तपश्चरिता,
जगत की गति, सुमति भरिता।

कामना के हाथ थक कर
रह गये मुख विमुख बक कर,
निःस्व के उर विश्व के सुर
बह चली हो तमस्तरिता।

विवश होकर मिले शंकर,
कर तुम्हारे हैं विजय वर,
चरण पर मस्तक झुकाकर,
शरण हूँ, तुम मरण सरिता।

102. मुक्तादल जल बरसो, बादल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

मुक्तादल जल बरसो, बादल,
सरिसर कलकलसरसो बादल!

शिखि के विशिख चपल नर्तन वन,
भरे कुंजद्रुम षटपद गुंजन,
कोकिल काकलि जित कल कूजन,
सावन पावन परसो, बादल!

अनियारे दृग के तारे द्वय,
गगन-धरा पर खुले असंशय,
स्वर्ग उतर आया या निर्मय,
छबि छबि से यों दरसो, बादल!

बदले क्षिति से नभ, नभ से क्षिति,
अमित रूपजल के सुख मुख मिति,
जीवन की जित-जीवन संचिति,
उत्सुख दुख-दुख हरसो, बादल!

103. गगन गगन है गान तुम्हारा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

गगन गगन है गान तुम्हारा,
घन घन जीवनयान तुम्हारा।

नयन नयन खोले हैं यौवन,
यौवन यौवन बांधे सुनयन,
तन तन मन साधे मन मन तन,
मानव मानव मान तुम्हारा।

क्षिति को जल, जल को सित उत्पल,
उत्पल को रवि, ज्योतिर्मण्डल,
रवि को नील गगनतल पुष्कल,
विद्यमान है दान तुम्हारा।

बालों को क्रीड़ाप्रवाल हैं,
युवकों को तनु, कुसुम-माल हैं,
वृद्धों को तप, आलबाल हैं,
छुटा-मिला जप ध्यान तुम्हारा।

104. बीन वारण के वरण घन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

बीन वारण के वरण घन,
जो बजी वर्षित तुम्हारी,
तार तनु की नाचती उतरी,
परी, अप्सरकुमारी।

लूटती रेणुओं की निधि,
देखती निज देश वारिधि,
बह चली सलिला अनवसित
ऊर्मिला, जैसे उतारी।

चतुर्दिक छन-छन, छनन-छन,
बिना नूपुर के रणन-रण,
वीचि के फिर शिखर पर,
फिर गर्त पर, फिर सुध बिसारी।

105. घन आये घनश्याम न आये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

घन आये घनश्याम न आये।
जल बरसे आँसू दृग छाये।

पड़े हिंडोले, धड़का आया,
बढ़ी पैंग, घबराई काया,
चले गले, गहराई छाया,
पायल बजे, होश मुरझाये।

भूले छिन, मेरे न कटे दिन,
खुले कमल, मैंने तोड़े तिन,
अमलिन मुख की सभी सुहागिन,
मेरे सुख सीधे न समाये।

106. किरणों की परियां मुसका दीं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

किरणों की परियाँ मुसका दीं।
ज्योति हरी छाया पर छा दी।

परिचय के उर गूंजे नूपुर,
थिर चितवन से चिर मिलनातुर,
विष की शत वाणी से विच्छुर,
गांस गांस की फांस हिला दीं।

प्राणों की अंजलि से उड़कर,
छा छा कर ज्योर्तिमय अम्बर,
बादल से ॠतु समय बदलकर,
बूंदो से वेदना बिछा दीं।

पादप-पादप को चेतनतर,
कर के फहराया केतनवर,
ऐसा गाया गीत अनश्वर,
कण के तन की प्यास बुझा दीं।

107. तुम्हारी छांह है, छल है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तुम्हारी छांह है, छल है,
तुम्हारे बाल हैं, बल है।

दृगों में ज्योति है, शय है,
हृदय में स्पन्द है, भय है।
गले में गीत है, लय है,
तुम्हारी डाल है, फल है।

उरोरुह राग है, रति है,
प्रभा है, सहज परिणति है,
सुतनुता छन्द है, यति है,
कमल है, जाल है, जल है।

108. माँ अपने आलोक निखारो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से वारो।

विपुल दिशावधि शून्य वगर्जन,
व्याधि-शयन जर्जर मानव मन,
ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन
करुणाकरों उतारो, तारो।

पल्लव में रस, सुरभि सुमन में,
फल में दल, कलरव उपवन में,
लाओ चारु-चयन चितवन में,
स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।

109. तपन से घन, मन शयन से-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

तपन से घन, मन शयन से,
प्रातजीवन निशि-नयन से।

प्रमद आलस से मिला है,
किरण से जलरुह किला है,
रूप शंका से सुघरतर
अदर्शित होकर खिला है,
गन्ध जैसे पवन से, शशि
रविकरों से, जन अयन से।

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