अंगिका रचनाएँ Angika kavitayen

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

अंगिका चुनिंदा कविताएं
Angika kavitayen | Sant Kabir ki Angika kavita

चेत करु जोगी, बिलैया मारै मटकी - Sant Kabir

चेत करु जोगी, बिलैया मारै मटकी॥टेक॥
ब्रह्मा के मारै विष्णु के मारै।
नारद बाबा के सभा बिच पटकी॥1॥
ज्ञानी के मारै ध्यानी के मारै।
पंडित बाबा के बेद सब सटकी॥2॥
कहै कबीर एक बेर, हमरौ पर झपटी।
काशी से लेकर मगह में पटकी॥3॥

साधु बाबा हो बिषय बिलरवा, दहिया खैलकै मोर  - Sant Kabir

साधु बाबा हो बिषय बिलरवा, दहिया खैलकै मोर॥टेक॥
की लेके औटबै की लेके पौड़बै, की लेके महबै घोर।
की लेके जैबै गुरु नगरिया, की लेके करबै इँजो॥
पाँच लेके औटबै पचीस लेके पौड़बै, तीन लेके महबै घोर।
शब्द लेके जैबै गुरु नगरिया, सुरति से करबै इँजोर॥
एक ते बिलरवा देखै में करिया, दूसर घइहर चोर।
तेसर बिलरवा बन-बन भागे, भागे लम्बा पिरोर॥
कहै कबीर सुनो भाई साधो, बिलरा जालिम जोर।
जो बिलरा को लखै लखाबै, पहुँचे गुरु की ओर॥

हाँ रे! नसरल हटिया उसरी गेलै रे दइवा  - Sant Kabir

॥समदन॥

हाँ रे! नसरल हटिया उसरी गेलै रे दइवा,
उसरी गेलै रे दइवा रे, सौदा किछु करियो न भेल॥
हाँ रे! यही परदेशिया से जनि जोड़ पीरीतिया,
जनि जोड़ पीरीतिया, बिछुड़त विलँब न होय॥
हाँ रे! एक तो बिछुड़ल दूध से मखनवाँ हो,
दूध से मखनवाँ हो, फेरो नहिं दूध में समाय॥
हाँ रे! दोसरो जे बिछुड़ल, डालि से पल्लव,
डालि से पल्लव, फेरो नहीं डालि मंे समाय॥
हाँ रे! तेसरो जे बिछुड़ल, काया से हंसा हो,
काया से हंसा हो, फेरो नहीं काया में समाय॥
हाँ रे! अपन-अपन सँवर बाँधू हे सखिया,
हाँ रे! साहब कबीर येहो गैलन समदोनिया,
गैलन समदोनिया, संतो जन लेहु न विचार॥

sant-kabir


बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे - Sant Kabir

॥निर्गुण॥

बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे।
नाहिं करलाँ कछुवे हम रे दान से,
बन्धनवाँ सेहो रे खोलिये लेलकै रे॥बड़ी रे.॥
मैया मोरी रोबै रे हंसा, रोबै छै बहिनियाँ रे हो,
रोबै छै नगरिया केरो हो लोग।
सुन्दरी सिर धुनि-धुनि रोबै छै रे॥बड़ी रे.॥
भवजल नदिया रे हंसा, लागै छै भयावह रे,
कौनी विधि उतरब हम रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
गुरु के शब्द रे हंसा, गठरी बनैबै रे,
कि वही चढ़ी उतरब रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
साहेब कबीर रे हंसा, गाबै छै निरगुनियाँ रे।
कि संतो जन लेहो न विचार रे॥बड़ी रे.॥

सोना ऐसन देहिया हो संतो भइया - Sant Kabir

सोना ऐसन देहिया हो संतो भइया,
सेहो जइतै समसानियो रे जान।
जान, करी लेहो संतो भइया, सतगुरु के भजनियो रे जान॥
देहिया के कमइयो हो संतो भइया,
कामो नहीं अइतौ रे जान।
जान, एके रे अइतौ काम, गुरु के भजनियो रे जान॥
धन और यौवन हो केरो,
मत करु गुमनवाँ हो जान।
जान, करि लेहो सतगुरु के दरसनमाँ रे जान॥
कोखिया के जनमल हो संतो भइया,
सेहो भइलै मुदइयो रे जान।
जान, घुमि-घुमि अगिया, तोहरा लगैतौ रे जान॥
बड़ा भाग भइलै हो संतो भइया,
मानुष भइलै जनमियो रे जान।
जान, फेरु नहीं मानुष जनमियो रे जान॥
गुरु शब्द मंत्र हो संतो भइया,
बाँधि लेहु गठरियो रे जान।
जान, वही चढ़ि उतरबै, भव पारबो रे जान॥
साहेब कबीर हो संतो भइया,
गाबै छै निरगुणियो रे जान।
जान, संतो जन लेहु न विचारियो रे जान॥

का लै जैबौ, ससुर घर ऐबौ  - Sant Kabir

का लै जैबौ, ससुर घर ऐबौ॥टेक॥
गाँव के लोग जब पूछन लगिहैं, तब तुम क रे बतैबी॥1॥
खोल घुँघट जब देखन लगिहैं, तब बहुतै सरमैबौ॥2॥
कहत कबीर सुनो भाई साधो, फिर सासर नहिं पैबौ॥3॥

अँधियरवा में ठाढ़ गोरी का करलू - Sant Kabir


अँधियरवा में ठाढ़ गोरी का करलू॥टेक॥
जब लग तेल दिया में बाती, येहि अँजीरवा बिछाय घलतू॥1॥
मन का पलँग सँतोष बिछौना, ज्ञान क तकिया लगाय रखतू॥2॥
जरिगा तेल बुझाय गइ बाती, सुरेति में मुरति समाय रखतू॥3॥
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जोतिया में जोतिया मिलाय रखतू॥4॥

रहली मैं कुबुद्ध संग रहली - Sant Kabir

॥लगनी॥

रहली मैं कुबुद्ध संग रहली, साँझ के सुतल सबेरियो न उठली,
संतों हो! बालम सत्य गुरु प्रीतम, सिय तोर सालल रे की॥
चार पहर रात बीति जतसारियो, दसो द्वार पर लागल केवड़िया,
संतो हो! बिनु कुंजी पट खोलब, चित न मोर डोलल रे की॥
गेहुवाँ सुखाय गेल, जतवा भीतर भेलै, हथरा धरत मोरि बहियाँ मुरुक गेलै,
संतो हो! झिर-झिर बहत पवनवाँ, पीसन मन लागल रे की॥
सुरति सुहागिनी अपने पिया लगि भैलूँ बैरागिनी,
संतो हो! सब सोअल मृगा जागल, पिया बाट जोहल रे की॥
साहेब कबीर यह गावै जतसरियो, समुझि-समुझि पग धरहु सजनिया,
संतो हो! राह भुलायल कैसे घर के जायल रे की॥

पाँच ही तत्त के लागल हटिया - Sant Kabir

पाँच ही तत्त के लागल हटिया,
सौदा करै ले जायब हम सखिया।
कि आहो साधू हो! गुरु हो गोविन्द गुण गायब,
गेहुँमा पिसायब रे की॥1॥
हाथ के लेलौं सखी सुरति चंगेरिया,
पिसै ले गेलौं हम गुरु जतिया।
कि आहो साधू हो! धीरे-धीरे बहत बयार,
पिसत मन लागल रे की॥2॥
पिण्ड ब्रह्मांड केरो दोनों पल जतवा,
चाँद सुरज के दोनों लागल हथरा।
कि आहो साधू हो! केवल नाम सोहम्,
सुरत बोलै रे की॥3॥
मन दई पिसलन, चित्त दई उठलौं।
कि आहो साधू हो! काम क्रोध ठक चोकर,
चालि के निकालब रे की॥4॥
मन केरो मैदा सखी, तन केरो कढ़इया।
कि आहो साधू हो! ब्रह्म अगिन उदगार से,
पुरिया पकायब रे की॥5॥
से हो पुरिया भेजबै हम, गुरु के संदेसवा,
गुरु पाई मोरा तन मेटतै कलेसवा।
कि आहो साधू हो! मानुष जनम अनूप,
बहुरि नहिं पायब रे की॥6॥
साहेब कबीर येहो, गौलन जतसरिया।
कि आहो साधू हो! अबकि जनम,
बहुरि नहिं पायब रे की॥7॥

धोबिया हो बैराग - Sant Kabir

धोबिया हो बैराग।
मैली हो गुदरिया धोबिया धो दा हो॥टेक॥
कथि केरो किलवा, कथि केरो पाट।
कहाँ बसै धोबिया, कहाँ लागल घाट॥1॥
मन केरो किलवा, सुरत केरो पाट।
हे रे दइवा वही धोबिया, तिरबेनी लागल घाट॥2॥
लाया धोबिया गुदरी पुरान।
धोइते-धोइते धोबिया भइ गेलै हरान॥3॥
कहत कबीर गुदरिया केरो भाग।
मिली गेलै सतगुरु छूटी गेलै दाग॥4॥

तोर हीरा हिराइल बा किचड़े में  - Sant Kabir

तोर हीरा हिराइल बा किचड़े में॥टेक॥
कोई ढूँढै़ पूरब कोई ढूँढ़े पश्चिम, कोई ढूँढ़े पानी पथरे में॥1॥
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया, सब भूलल बाड़ैं नखरे में॥2॥
दास कबीर ये हीरा को परखैं, बाँधि लिहलैं जतन से अचरे में॥3॥

घर पिछुआरी लोहरवा भैया हो मितवा  - Sant Kabir

॥निर्गुण॥

घर पिछुआरी लोहरवा भैया हो मितवा।
हंसा मोरा रहतौ लुभाय के हो मितवा॥घर.॥
पीपर के पात फुलंगिया जैसे डोले हो मितवा।
जैसन डोले जग संसार हो मितवा॥घर.॥
लख चौरासी भरमी यह देहिया हो मितवा।
कबहू ना लिहलै सतगुरु नामिया हो मितवा॥घर.॥
कहहि कबीर सुनो भाई साधो हो मितवा।
संतो जब लेहू न विचारी हो मितवा॥घर.॥

सुगवा पिंजरवा छोरि भागा  - Sant Kabir

सुगवा पिंजरवा छोरि भागा।टेक॥
इस पिंजरे में दस दरवाजा,
दसो दरवाजे किवरवा लागा॥1॥
अँखियन सेती नीर बहन लाग्यो,
अब कस नाहिं तू बोलत अभागा॥2॥
कहत कबीर सुनो भाइ साधो,
उड़िगे हंस टूटि गयो तागा॥3॥

मोरी चुनरी में परि गयो दाग पिया - Sant Kabir

मोरी चुनरी में परि गयो दाग पिया॥टेक॥
पाँच तत्त्व की बनी चुनरिया, सोरह सै बँद लागे जिया॥1॥
यह चुनरी मोरे मैके तें आई, ससुरे में मनुवा खोय दिया॥2॥
मलि-मलि धोई दाग न छूटे, ज्ञान को साबुन लाय पिया॥3॥
कहै कबीर दाग तब छुटिहैं, जब साहेब अपनाय लिया॥4॥

मुनियाँ पिंजड़ेवाली ना, तेरो सतगुरु है बेपारी - Sant Kabir

मुनियाँ पिंजड़ेवाली ना, तेरो सतगुरु है बेपारी॥टेक॥
पाँच तत्त का बना है पींजड़ा, तामें रहती मुनियाँ।
उड़िके मुनियाँ डार पर बैठी, झींखन लागी सारी दुनिया॥1॥
अलग डाल पर बैठी मुनियाँ, पिये प्रेम रस बूटी।
क्या करिहैं जमराज तिहारो, नाम कहत तन छूटी॥2॥
मुनियाँ की गति मुनियाँ जानै, और कहै सब झूठी।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, गुरु चरनन की भूखी॥3॥

हंसा चलल ससुररिया रे, नैहरवा डोलम डोल  - Sant Kabir

हंसा चलल ससुररिया रे, नैहरवा डोलम डोल॥टेक॥
ससुरा से पियवा चिठिया भेजायल, नैहरा भाय गेलै शोर।
खाना-पीना मनहुँ न भावै, अँखियाँ से ढरकन लोर रे॥नै.॥
माई-बहिनियाँ फूटि-फूटि रोवे, सुगना उड़ि गेल मोर।
लपकि-झपकि के तिरिया रोवे, जोड़ि बिछुड़ि गेल मोर रे॥नै.॥
काँचहिं बाँस के डोलिया बनावल, आखर मूँजा के डोरी।
भाई भतीजा कसि-कसि बाँधे, जैसे नगरिया के चोर रे॥नै.।
चार जने मिलि खाट उठाइन, लेने चले जमुना की ओर।
सात बंधन के उकिया बनावल, मुख में दिहल अंगोर रे॥नै.॥
कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह पद है निरबानी।
जो कोई पद के अर्थ लगावे, पहुँचत मूल ठिकानी रे॥नै.॥

अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल - Sant Kabir

अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल॥टेक॥
जल उपजल जल ही से नेहा, रटत पियास पियास।
मैं बिरहिनि ठाढ़ी मग जोऊँ, प्रीतम तुम्हरी आस॥1॥
छोड़्यो गेह नेह लगि तुमसे, भई चरन लौलीन।
तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिन मीन॥2॥
दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा, घर अँगना न सुहाय।
सेजरिया बैरिनि भइ हमको, जागत रैन बिहाय॥3॥
हम तो तुम्हरी दासी सजना, तुम हमरे भरतार।
दीनदयाल दया करि आओ, समरथ सिरजनहार॥4॥
कै हम प्रान तजतु हैं प्यारे, कै अपनी करि लेव।
दास कबीर बिरह अति बाढ़्यो, अब तो दरसन देव॥5॥

ननदी गे तैं विषम सोहागिनि - Sant Kabir

ननदी गे तैं विषम सोहागिनि, तैं निन्दले संसारा गे॥1॥
आवत देखि मैं एक संग सूती, तैं औ खसम हमारा गे॥2॥
मोरे बाप के दुइ मेररुआ, मैं अरु मोर जेठानी गे॥3॥
जब हम रहलि रसिक के जग में, तबहि बात जग जानी गे॥4॥
माई मोर मुवलि पिता के संगे, सरा रचि मुवल सँगाती गे॥5॥
आपुहि मुवलि और ले मुवली, लोग कुटुंब संग साथी गे॥6॥
जाैं लौं श्वास रहे घट भीतर, तौ लौं कुशल परी हैं गे॥7॥
कहहि कबीर जब श्वास निकारियौ, मन्दिर अनल जरी हैं गे॥8॥

सतगुर के सँग क्यों न गई री - Sant Kabir

सतगुर के सँग क्यों न गई री॥टेक॥
सतगुर के सँग जाती सोना बनि जाती,
अब माटी के मैं मोल भई री॥1॥
सतगुर हैं मेरे प्रान-अधारा,
तिनकी सरन मैं क्यों न गही री॥2॥
सतगुर स्वामी मैं दासी सतगुर की,
सतगुर न भूले मैं भूल गई री॥3॥
सार को छोड़ि असार से लिपटी,
धृग धृग धृग मतिमंद भई री॥4॥
प्रान-पती को छोड़ि सखी री,
माया के जाल में अरुझ रही री॥5॥
जो प्रभु हैं मेरे प्रान-अधारा,
तिनकी मैं क्यों ना सरन गही री॥6॥

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Kabir Ji) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!