अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’-पारिजात Parijat11-15 Sarg

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Parijat Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
पारिजात अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कर्म-विपाक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(1)
कर्म-अकर्म-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अवसर पर ऑंखें बदले।
बनता है सगा पराया।
काँटा छिंट गया वहाँ पर।
था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥
 
जो रहा प्यारे का पुतला।
वह है ऑंखों में गड़ता।
अपने पोसे-पाले को।
है कभी पीसना पड़ता॥2॥
 
जिसकी नहँ उँगली दुखते।
ऑंखों में ऑंसू आता।
जी खटके पीछे पड़कर।
है वही पछाड़ा जाता॥3॥
 
जिसका मुँह बिना विलोके।
दिन था पहाड़ हो पाता।
वह मुँह न दिखावे, ऐसा।
है कभी चित्त फट जाता॥4॥
 
हैं भली भली ही बातें।
हैं बुरी बुरी कहलाती।
पर लाग लगे पर-घर में।
है आग लगाई जाती॥5॥
 
है झूठा तो झूठा ही।
सच्चा है भला कहाता।
पर लगता ही रहता है।
झूठी बातों का ताँता॥6॥
 
खलता है पग के नीचे।
चींटी का भी पड़ जाना।
पर कभी ठीक जँचता है।
लाखों का लहू बहाना॥7॥
 
जी बहुत दुखी होता है।
अवलोक और का दुखड़ा।
हैं कभी फेर लेते मुँह।
देखे दुखियों का मुखड़ा॥8॥
 
थोड़ा भी सितम किसी का।
है कहाँ कौन सह पाता।
पर दबकर कड़े पड़े का।
है तलवा चाटा जाता॥9॥
 
सब कुछ है समय कराता।
यह बात गयी है मानी।
है भरी दाँव-पेचों से।
भव कर्म-अकर्म-कहानी॥10॥
 
(2)
 
उत्ताकल तरंगित वारिधिक।
यदि रत्नराजि देता है।
तो द्वीपपुंज को भी वह।
हो क्षुब्धा निगल लेता है॥1॥
 
चल परम प्रचंड प्रभंजन।
यदि है विशुध्दि कर पाता।
तो दुर्गति कर तरुओं की।
भव में रज है भर जाता॥2॥
 
यदि बरस-बरसकर वारिद।
बनता है जीवनदाता।
तो मार-मारकर पत्थर।
भू पर है वज्र गिराता॥3॥
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यदि आ दिनमणि की किरणें।
जग में हैं ज्योति जगाती।
तो करके नाश निशा का।
तम को हैं तमक दिखाती॥4॥
 
यदि बहु भलाइयाँ भू की।
पावक द्वारा हैं होती।
तो जगी ज्वाल-मालाएँ।
हैं आग धारा में बोती॥5॥
 
हैं देवधुनी के धाता।
गिरि हैं भूधार कहलाते।
पर वे पाषाण-हृदय हैं।
पविता उनमें हैं पाते॥6॥
 
सरिताएँ हैं रस देती।
कल कल रव कर हैं गाती।
पर टेढ़ी चालें चल-चल।
हैं बहु विचलित कर पाती॥7॥
 
उनमें है सुधा गरल है।
हैं विविध विनोद व्यथाएँ।
हैं भरी जटिलताओं से।
भव कर्म-अकर्म-कथाएँ॥8॥
 
(3)
 
वह गूढ़ ग्रंथि है ऐसी।
जो खुली न मति-नख द्वारा।
वह है वह जटिल समस्या।
जिससे समस्त जग हारा॥1॥
 
है अविज्ञात गति जिसकी।
मिलता है नहीं किनारा।
वह है अन्त:सलिला की।
वह अन्तर्वत्तअधिकतरी धारा॥2॥
 
पच्ची होता रहता है।
जिसके निमित्त जग माथा।
अविदित रहस्य-परिपूरित।
वह है वह अद्भुत गाथा॥3॥
 
खोले जिसका अवगुंठन।
खुलता न कभी दिखलाया।
वह है वह प्रकृति-वधूटी।
जिसकी है मोहक माया॥4॥
 
जैसी कि लोक-अभिरुचि है।
वह नहीं उठ सकी वैसी।
भव-रंगमंच की वह है।
अवरोधा-यवनिका ऐसी॥5॥
 
कैसे खुलता वह ताला।
जिसने बाधा है डाली।
जो किसी को न मिल पाई।
वह है विचित्र वह ताली॥6॥
 
जिस जगह अगति के द्वारा।
जाती है मति-गति डाँटी।
है जहाँ प्रगति न दृगों की।
वह है वह दुर्गम घाटी॥7॥
 
मन मनन नहीं कर पाता।
मतिमान मंद है बनता।
कब बोध-सुफल कहलाई।
भव कर्म-अकर्म-गहनता॥8॥
 
(4)
 
जो पूज्यपाद कहलाता।
गुरुदेव गया जो माना।
अपने शिष्यों को जिसने।
सुत के समान ही जाना॥1॥
 
जिसके प्रसाद से कितने।
दिव्यास्त्रा हाथ थे आये।
जिसकी गौरव-गाथाएँ।
थे अयुत-मुखों ने गाये॥2॥
 
वह वृध्द निरस्त्रा तपस्वी।
संतान-शोक से कातर।
हत हुआ कपट-कौशल से।
हो गया अलग धाड़ से सर॥3॥
 
जो सत्यसंधा था जिसका।
व्रत धर्म-धुरंधरता था।
उसके असत्य के बल से।
गुरुपत्नी हुई अनाथा॥4॥
 
'ए सारी बातें' जो हैं।
वह आहव-नीति-प्रकाशी।
संकेत से हुई जिनके।
वे थे भूभार-विनाशी॥5॥
 
बहु रक्षित राजसभा में।
जो थी महती कहलाती।
रजवती एक कुलबाला।
है पकड़ मँगाई जाती॥6॥
 
चिढ़ एक महाबलशाली।
था उसको बहुत सताता।
उस निरपराधा महिला का।
कच खींचा-नोचा जाता॥7॥
 
वह रोती-चिल्लाती थी।
पर कौन मदद को आता।
उस भरी सभा में उसको।
था नग्न बनाया जाता॥8॥
 
थे वहाँ महज्जन कितने।
पर दिखा सके न महत्ता।
अबला शरीर पर विजयी।
हो गयी आसुरी सत्ता॥9॥
 
थी अर्ध्दनिशा, छाया था।
सब ओर घना अंधियाला
लग गया चेतना पर था।
निद्रा-देवी का ताला॥10॥
 
सब जगत पड़ा सोता था।
पर कुछ वीरताभिमानी।
जगते थे इस असमय में।
रचने को क्रान्ति-कहानी॥11॥
 
कर प्रबल प्रमुख को आगे।
घुस-घुस शिविरों में कितने।
उनका वधा किया उन्होंने।
निद्र्राभिभूत थे जितने॥12॥
 
जो निरापराधा बालक थे।
जिनकी थीं करुण पुकारें।
जो थे निरीह उन पर भी।
गिर गईं उठी तलवारें॥13॥
 
जो इस प्रसिध्द नाटक का।
है सूत्रधार कहलाता।
भारत-वसुधा द्वारा वह।
चिरजीवी पद है पाता॥14॥
 
कर्तव्य-विमूढ कगी।
क्यों नहीं विचित्र अवस्था।
है भरी विषमताओं से।
भव कर्म-अकर्म-व्यवस्था॥15॥
 
(5)
कर्म का मर्म-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(1)
 
फूल काँटों को करता है।
संग को मोम बनाता है।
बालुकामयी मरुधारा में।
सुरसरी-सलिल बहाता है॥1॥
 
जहाँ पड़ जाता है सूखा।
वहाँ पानी बरसाता है।
धूल-मिट्टी में कितने ही।
अनूठे फल उपजाता है॥2॥
 
दूर करके पेचीलापन।
झमेलों से बच जाता है।
गुत्थियाँ खोल-खोलकर वह।
उलझनों को सुलझाता है॥3॥
 
बखेडे पास नहीं आते।
बला का गला दबाता है।
दहल सिर पर सवार होकर।
उसे नीचा दिखलाता है॥4॥
 
भूल की भूल-भुलैयों में।
पड़ गये तुरत सँभलता है।
राह में रोड़े हों तो हों।
पाँव उसका कब टलता है॥5॥
 
चाहता है जो कुछ करना।
उसे वह कर दिखलाता है।
सामने हो पहाड़ तो क्या।
धूल में उसे मिलाता है॥6॥
 
सामने आ रुकावटें सब।
उसे हैं रोक नहीं पाती।
देख उसको चालें चलते।
आप वे हैं चकरा जाती॥7॥
 
बहुत ही साहस है उसमें।
क्या नहीं वह कर पाता है।
फन पकड़ता है साँपों का।
सिंह को डाँट बताता है॥8॥
 
बड़ी करतूतों वाला है।
सदा सब कुछ कर लेता है।
परस पारस से लोहे को।
'कर्म' सोना कर देता है॥9॥
 
(2)
 
चारु चिन्तामणि जैसा है।
क्यों नहीं चिन्तित हित करता।
मिले नर-रत्न गृहों को वह।
रुचिर रत्नों से है भरता॥1॥
 
उसी का अनुपम रस पाकर।
रसा कहलाई सरसा है।
सब सुखों का वह साधन है।
कामप्रद कामधेनु-सा है॥2॥
 
देखकर उसकी तत्परता।
भवानी भव कर जाती है।
दान कर उसको वर विद्या।
गिरा गौरवित बनाती है॥3॥
 
देखकर उसका सत्याग्रह।
लोक-पालक घबराते हैं।
झूलते विधिक हैं विधिक अपनी।
रुद्र शंकर बन जाते हैं॥4॥
 
परम आदर कर जलधारा।
सदा उसका पग है धोती।
दामिनी दीप दिखा, उस पर।
बरसता है बादल मोती॥5॥
 
दिवा दमकाता है, रजनी।
उसे रंजित कर छिकती है।
देख विधु हँसता है, उसपर।
चाँदनी सुधा छिड़कती है॥6॥
 
दिव उसे दिव्य बनाता है।
तारकाएँ दम भरती हैं।
देखकर उसकी कृतियों को।
दिशाएँ बिहँसा करती हैं॥7॥
 
रमा के कर से लालित हो।
क्या नहीं ललके लेता है।
कल्पतरु-जैसा कामद बन।
'कर्म' वांछित फल देता है॥8॥
 
(3)
 
बबूलों को बोकर किसने।
आम के अनुपम फल पाये।
लगे तब कंज मंजु कैसे।
फूल जब सेमल के भाये॥1॥
 
डरे तब जल जाने से क्यों।
आग से जब कोई खेले।
बाल बिनने से क्यों काँपे।
जब बलाएँ सिर पर ले ले॥2॥
 
गात चन्दन से चर्चित हो।
चाँदनी का सुख पाता है।
क्यों न वह छाया में बैठे।
धूप में जो उकताता है॥3॥
 
प्यारे ही से बन सकते हैं।
पराये भी अपने प्यारे।
बचाना है अपने को तो।
और को पत्थर क्यों मा॥4॥
 
सँभाले, मुँह, करते रहकर।
जीभ की पूरी रखवाली।
जब बुरी गाली लगती है।
तब न दें औरों को गाली॥5॥
 
जगत में कौन पराया है।
कौन याँ नहीं हमारा है।
मान तो हम सबको देवें।
मान जो हमको प्यारा है॥6॥
 
क्यों किसी को कोई दुख दे।
क्यों किसी को कोई ताने।
क्यों न अपने जी जैसा ही।
दूसरों के जी को जाने॥7॥
 
कौन किसको सुख देता है।
किसी को कौन सताता है।
किये का ही फल मिलता है।
कर्म ही सुख-दुख-दाता है॥8॥
 
(4)
 
प्रति दिवस उदयाचल पर आ।
भव-दृगों से हो अवलोकित।
कीत्तिक दिनमणि-कर पाता है।
लोक को करके आलोकित॥1॥
 
सुधा को लिये सिंधु को मथ।
सुधाकर नभ पर आता है।
रात-भर बिहँस-बिहँस उसको।
धारातल पर बरसाता है॥2॥
 
तारकावलि तैयारी कर।
तिमिर से भिड़ती रहती है।
ज्योति देकर जगतीतल को।
प्रगति-धारा में बहती है॥3॥
 
वात है मंद-मंद चलता।
महँक से भरता रहता है।
पास आ कलिका कानों में।
विकचता बातें कहता है॥4॥
 
वारि से भर-भरकर वारिद।
सरस हो-हो रस देता है।
मुग्धता दिखा दिग्वधू की।
बलाएँ बहुधा लेता है॥5॥
 
व्योमतल में नभ-यान विहर।
विविध कौतुक दिखलाते हैं।
कीत्तिक विज्ञान-विधानों की।
विपुल कंठों से गाते हैं॥6॥
 
हिमाचल अचल कहाकर भी।
द्रवित हो रचता सोता है।
निर्झरों से झंकृत रहकर।
ध्वनित सरिध्वनि से होता है॥7॥
 
गगनचुम्बी मंदिर के कलश।
उच्च प्रासाद-पताकाएँ।
प्रचारित करती रहती हैं।
कला-कौशल गुण-गरिमाएँ॥8॥
 
महँकते हैं रस देते हैं।
हँस लुभाते ही रहते हैं।
फूल सब अपना मुँह खोले।
कौन-सी बातें कहते हैं॥9॥
 
काम में रत रह गाने गा।
खोजते फिरते हैं चारा।
कौन-सा भेद बताते हैं।
विहग-कुल निज कलरव द्वारा॥10॥
भ्रमर-गुंजन तितली-नर्त्तन।
हो रहा है किस तंत्री पर।
मत्त होती है मधुमक्खी।
कौन-सा मधुप्याला पीकर॥11॥
 
विपुल वन-उपवन के पादप।
ह परिधानों को पहने।
सजाये किसके सजते हैं।
फूल-फल के पाकर गहने॥12॥
 
महा उत्ताकल तरंगों पर।
विजय पोतों से पाता है।
मिल गये किसका बल गोपद।
सिंधु को मनुज बनाता है॥13॥
 
सत्यता से सब दिन किसकी।
सिध्दि के साथ निबहती है।
सफलता-ताला की कुद्बजी
हाथ में किसके रहती है॥14॥
 
सुशोभित है दिव की दिवता।
दिव्यतम उसकी सत्ता से।
विलसता है वसुंधरातल।
कर्म की कान्त महत्ता से॥15॥
 
(6)
कर्म का त्याग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(1)
 
यह सुखद पावन भूति-निकेत।
सुरसरी का है सरस प्रवाह।
वह मलिन रोग-भरित अपुनीत।
कर्मनाशा का है अवगाह॥1॥
 
यह हिमाचल का है वह अंक।
विबुध करते हैं जहाँ विहार।
जहाँ पर प्रकृति-वधूटी बैठ।
गूँधाती है मंजुल मणिहार॥2॥
 
वह मरुस्थल का है वह भाग।
जहाँ है खर-रवि-कर उत्ताकप।
बढ़ाती है बालुका-उपेत।
जहाँ की भूमि विविध संताप॥3॥
 
यह प्रकृति देश-काल-अनुकूल।
विधाता का है वह सुविधन।
समुन्नति-आनन परम प्रफुल्ल।
नहीं जिससे बन पाता म्लान॥4॥
 
वर परम कुटिल काल-संकेत।
इस सरणि का है जो है हीन।
बनाता रहता है जो सतत।
प्राणियों को बहु दीन मलीन॥5॥
 
यह नियति-कर-विरचित कमनीय।
उच्चतम है वह सत्सोपान।
चढ़े जिस पर संयम के साथ।
सकल भव करता है सम्मान॥6॥
 
वह महा अज्ञ विवेक-विहीन
कर-रचित है वह गत्ता गँभीर।
गि जिसमें होता है नष्ट।
विभव-गौरव का सबल शरीर॥7॥
 
एक है सुधा, दूसरा गरल।
प्रथम है धर्म, द्वितीय अधर्म।
उभय की हैं वृत्तिकयाँ विभिन्न।
कर्म है जीवन, मरण अकर्म॥8॥
(2)
 
शक्ति रहते न सकेंगे रोक।
विलोचन अवलोकन का काम।
नासिका ग्रहण कगी गंधा।
बनेगा श्रवण शब्द का धाम॥1॥
 
तुरत जायेगी रसना जान।
कौन-से रस का क्या है स्वाद।
न चूकेगा अवसर अवलोक।
कगा आनन वाद-विवाद॥2॥
 
त्वचा को बिना किये कुछ यत्न।
स्पर्श का हो जाता है ज्ञान।
किया करता है मन सब काल।
बहुत-सी बातों का अनुमान॥3॥
 
सलिल में तरल तरंग समान।
उठा करते हैं नाना भाव।
वहन करता रहता है चित्त।
निज विषय के चिन्तन का चाव॥4॥
 
चलेगी क्या न निराली चाल।
आत्मगौरव स्वाभाविक चाह।
निकालेगी न सुअवसर देख।
क्या सुमति अपनी अनुपम राह॥5॥
 
क्या कगी न मान की आन।
सदा निज विभुता का विस्तार।
क्या न डालेगी लिप्सा ललक।
समादर-कंठ में प्रमुद-हार॥6॥
 
विदित करने को विश्व-विभूति।
दिखाने को अद्भुत व्यापार।
लगा जो उर से शिर पर्यन्त।
टूट जायेगा क्या वह तार॥7॥
 
जिस समय तक है सुख-दुख-ज्ञान।
आत्मसत्ता में है अनुराग।
कर्ममय है जबतक संसार।
कर्म का कैसे होगा त्याग॥8॥
 
(3)
 
विलोचन अवलोकें छविपुंज।
मुग्ध हों भव-सौन्दर्य विलोक।
किन्तु हो दृष्टि नितान्त पुनीत।
सामने हो अनुभव-आलोक॥1॥
 
दिखाई पड़े कुवस्तु सुवस्तु।
विदूरित हों तम-तोम-विकार।
सुमति मानवता मुख अवलोक।
बने सद्भाव गले का हार॥2॥
 
हस्तगत हो वह आत्मिक शक्ति।
छिड़े वह अन्तस्तल का तार।
लोकहितमय हो जिसकी भीड़।
प्रेम-परिपूरित हो झंकार॥3॥
 
पाठ कर विश्व-बंधुता-मंत्र।
बने मानस कमनीय अतीव।
समझकर सर्वभूतहित मर्म।
सगे बन जायँ जगत के जीव॥4॥
 
चित्त इतना हो जाय दयार्द्र।
दु:ख औरों का देख सके न।
अगम भवहित का पंथ विलोक।
पाँव पौरुष का कभी थके न॥5॥
 
न ममता छले न मोहे मोह।
असंयम सके हृदय को छू न।
मिले परमार्थ-शंभु का शीश।
स्वार्थ बन जाय पवित्रा प्रसून॥6॥
 
सफल होता है मानव-जन्म।
हाथ आ जाता है अपवर्ग
धर्म पर जब परमार्थ-निमित्त।
स्वार्थ हो जाता है उत्सर्ग॥7॥
 
स्वार्थ-परमार्थ-रहस्य विलोक।
विश्वहित से रख बहु अनुराग।
सदा जो किया जाय सविवेक।
है वही 'कृत्य' कर्म का त्याग॥8॥
 
(4)
 
अंधा नयनों में भर दे ज्योति।
बने अज्ञान-तिमिर आलोक।
भरित हो जहाँ मलिनता भूरि।
क उसको उज्ज्वलतम ओक॥1॥
 
तमोगुण से हो-हो अभिभूत।
तामसी रजनी का व्यापार।
जहाँ हो व्याप्त वहाँ बन भानु।
क निज प्रबल प्रभा-विस्तार॥2॥
 
जहाँ पर कूटनीति का जाल।
फैल करता हो अत्याचार।
वहाँ बन स्वयं न्याय की मूर्ति।
क उत्पीड़ित का उपकार॥3॥
 
कृपा-कर सदा पोंछता रहे।
व्यथित पीड़ित जन-लोचन-वारि।
क्लेश विकराल उरग के लिए।
सर्वदा बने सबल उरगारि॥4॥
 
दौड़कर पकड़े उनका हाथ।
बहाये जिनको संकट-स्रोत।
आपदा-वारिधिक-वारि-निमग्न।
भग्नउर के निमित्त हो पोत॥5॥
 
दीन का बंधु दुखी-अवलंब।
रंक का धन अनाथ का नाथ।
जाय बन निराधार-आधार।
पतित की गति प्यारे का पाथ॥6॥
 
किन्तु जो क, क सविवेक।
स्वार्थ तज धारण करके धर्म
जान कर्तव्य दिव्य रख दृष्टि।
समझकर मानवता का मर्म॥7॥
 
क क्यों कर्म-त्याग का गर्व।
दिखाकर नाना विषय-विराग।
कर्म का त्याग कर सका कौन।
त्याग है कर्र्म-फलों का त्याग॥8॥
 
(7)
कर्म-भोग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(1)
 
एक भ्रम है अज्ञान-प्रसूत।
बनाता रहता है जो भ्रान्त।
हुआ कर्तव्य-विमूढ़ सदैव।
लोक जिससे हो-हो आक्रान्त॥1॥
 
मनुज-उत्साह-कुरंग-निमित्त।
है परम जटिल वह महाजाल।
नहीं पाता विमुक्ति-पथ खोज।
 
बध्द जिसमें रह जो चिरकाल॥2॥
वह समुन्नति-सरि प्रबल प्रवाह।
निरोधाक है मरुधारा समान।
जहाँ होता है उसके सरस।
मनोहर जीवन का अवसान॥3॥
 
ओज-गिरि-शिखरों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
श्रम-सदन पर गोलों के सदृश।
सदा पहुँचाता है आघात॥4॥
 
गि जिसमें प्रयत्न-मातंग।
विवश है बनता, है वह गत्ता।
पड़े जिसमें जन-साहस-पोत।
सदा डूबे, है वह आर्वत॥5॥
 
लोप होती है, उसमें देख।
वायु-सी दीपक-दीप्ति विरक्ति।
मनुज-जीवन-प्रदीप की ज्योति।
अलौकिक कार्यकारिणी शक्ति॥6॥
 
उस प्रभंजन का है वह वेग।
भरी जिसने विपत्तिक की गोद।
हुआ जिससे सर्वदा विपन्न।
सकल उद्योग-समूह पयोद॥7॥
 
पा सके पता नहीं बुधवृन्द।
बुध्दि की दूरबीन से देख।
थक गयी दृष्टि दिव्य से दिव्य।
न दिखलाया लिलार का लेख॥8॥
 
(2)
 
भाग्य-लिपि मानना बड़ी है भ्रान्ति।
वह पतन गूढ़ गत्ता की है राह।
वह नदी है भयंकरी दुर्लङ्घ्य।
आज तक मिल सकी न जिसकी थाह॥1॥
 
क्यों न उसको मरीचिका लें मान।
है दिखाती सरस सलिल-आवास।
पर सकी मिल न एक बूँद कदापि।
बुझ न पाई कभी किसी की प्यासे॥2॥
 
है किसी बाँझ बालिका की बात।
जिसका केवल सुना गया है नाम।
पर किसी को मिला नहीं अस्तित्व।
है कहाँ पर धारा कहाँ धन धाम॥3॥
 
है कहीं पर नहीं दिखाती नींव।
है कहीं भी जमा न उसका पाँव।
क्यों बतायें उसे न सिकता-भित्तिक।
जब कि है भाव का सदैव अभाव॥4॥
 
है अमा की तिमिर-भरी वह रात।
कालिमा हो सकी न जिसकी दूर।
और भी हो गयी विपत्तिक-उपेत।
क्या हुआ जो मिलित हुए शशि सूर॥5॥
 
उस गहनता समान है वह गूढ़।
है बनाता जिसे विपिन बहु घोर।
है जहाँ दृष्टि को न मिलता पंथ।
है जहाँ पर विभीषिका सब ओर॥6॥
 
वह किसी नट कुवंशिका के तुल्य।
है जगाती अनेक सोये नाग।
बेसुरा बोल फोड़ती है कान।
है भरी छिद्र से घिरी खटराग॥7॥
 
है किसी ज्ञान-हीन लोक-निमित्त।
व्योम का पुष्प, मरुमही का नीर।
फेर में पड़ न, क्यों न मुँह लें फेर।
वारि की लीक है लिलार-लकीर॥8॥
 
(3)
 
भाग्य हैं अज्ञों का अवलंब।
आलसी का है परमाधार।
गले में पड़े भ्रान्ति का फंद।
लुट गया मणिमुक्ता का हार॥1॥
 
दूसरों का आनन अवलोक।
बढ़ गये कर्महीनता प्यारे।
मिला मिट्टी में साँसत भोग।
सुखों का सोने का संसार॥2॥
 
सो रहे हैं ऑंखों को मूँद।
समय पर सके नहीं जो जाग।
डालकर हाथ-पाँव वे लोग।
भाग में लगा रहे हैं आग॥3॥
 
अचाद्बचक हो जाये पविपात।
या बरस जाये सिर पर फूल।
भीरुता का है यह उपभोग।
सदा है भाग्य-भरोसा भूल॥4॥
 
लोक को काम-चोर की उक्ति।
किया करती है अधिक प्रसन्न।
उसे फल-दल-देते हैं पेड़।
धारा से वह पाता है अन्न॥5॥
 
बनाता कैसे उसे न मूढ़।
अभावों से कर-कर अभिभूत।
किसी सिर पर जब हुआ सवार।
भाग्यजीवी अभाग्य का भूत॥6॥
 
जब हमारा अति कुत्सित कर्म।
चलायेगा हम पर करवाल।
उस समय सुन्दर सरस प्रसून।
बरस पायेगा नहीं कपाल॥7॥
 
है गढ़ी हुई भाग्य-लिपि बात।
कथा उसकी है परम अलीक।
कहाँ पर मिला भाल का अंक।
कल्पिता है लिलार की लीक॥8॥
 
(4)
 
भाग्य का रोना रो-रोकर।
वृथा ही नर घबराता है।
भागता है श्रम से, तब क्यों।
भाग्य को कोसा जाता है॥1॥
 
साँसतें सहता है कोई।
तो किये का फल पाता है।
किया उस बेचा ने क्या।
भाल क्यों ठोंका जाता है॥2॥
 
उसी के अपने कर्मों से।
मनुज-कष्टों का नाता है।
क्यों पटकते हैं सिर को वह।
किसलिए पीटा जाता है॥3॥
 
खोलकर नर कानों को जब।
नहीं हित-बातें सुनता है।
बुरी धुन जब जी को भाई।
किसलिए सिर तब धुनता है॥4॥
 
चलें सारी चालें उलटी।
भली बातों से मुँह मोड़े।
किसलिए माथा तो ठनके।
किसलिए तो सिर को तोड़े॥5॥
 
काम के काम न कर पायें।
न तो हित की बातें सोचें।
क्यों न तो ठोकर खायेंगे।
चौंककर सिर को क्यों नोचें॥6॥
 
कर्म का मर्म बिना समझे।
सदा जो बने रहे पोंगा।
तो न होगा कुछ सिर पकड़े।
हित नहीं सिर कूटे होगा॥7॥
 
किसी का कर्म-भोग क्या है?
कर्म को कर्म बनाता है।
क्यों पड़े भाग्य फेर में नर।
कर्म ही भाग्य-विधाता है॥8॥
 
(5)
 
पिता-वीर्य माता-रज द्वारा है प्राणी बन पाता।
उनके वैभव का प्रभाव उस पर है प्रचुर दिखाता।
प्रकृति कान्त-कर कौशल से है सकल क्रियाएँ करता।
भव के नव-नव चित्रों में है 'रंग' ढंग से भरता॥1॥
 
गर्भाधन-समय से ही है सृजन-कार्य छिड़ जाता।
गर्भकाल में भी कमाल कम नहीं दिखाता धाता।
बालक जन्म-लाभ कर ज्यों-ज्यों है जगती का बनता।
त्यों-त्यों उसका हृदय-भाव है विविध रसों में सनता॥2॥
 
विविधिक परिस्थितियाँ उसकी संस्कृति को हैं रच देती।
उसकी मति उन्नत हो-हो बहु शिक्षाएँ है लेती।
बड़े मनोहर दिव्य दृश्य ऋतु की कमनीय छटाएँ।
पंच भूत की बहु विभूतियाँ उमड़ी श्याम घटाएँ॥3॥
 
द्युमणिदेव की परम दिव्यता, विधु का रस बरसाना।
तारक-चय का चमक-चमककर चमत्कार दिखलाना।
बार-बार घटती घटनाएँ कार्य-कलाप-विपुलता।
देश-काल-व्यापार-विशदता लोक-विधन-बहुलता॥4॥
 
प्राणिपुंज की प्रवंचनाएँ अद्भुत आपाधापी।
समय-प्रवृत्तिक सामयिकता के परिवर्त्तन बहुव्यापी।
इन सबका प्रभाव अनुभव संसर्ग निसर्गज बातें।
कितने उज्ज्वलतम दिन, कितनी बहु तमसावृत रातें॥5॥
 
रह निर्माण-निरत प्राणी को अनुप्राणित करती हैं।
नाना भाव विभिन्न प्रकृति में यथाकाल भरती हैं।
यह प्रक्रिया-समष्टि लोक-जीवन की है निर्माता।
शारीरिक संपूर्ण शक्तियों की है यही विधाता॥6॥
 
यह अदृष्ट है, इसीलिए है सदा अदृष्ट कहाती।
माननीय विधिक की महिमामय विधिक है मानी जाती।
वह ललाट पर नहीं लिखित है, है न कर्म की खा।
किसी काल में उसे किसी ने कहीं नहीं है देखा॥7॥
 
किन्तु वह बहुत बड़ी शक्ति है, है महानतम सत्ता।
उसमें भरी हुई है जन-जीवन की भूरि महत्ता।
सदुपयोग यदि उसका हो, यदि जाना मर्मस्थल हो।
क कर्म के लिए कर्म तो क्यों न कर्म का फल हो॥8॥
 
(8)
कर्मवीर-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(1)
 
हाथ-पाँवों के होते कब।
बन सका वह लँगड़ा-लूला।
भाग्य की भूल-भुलैयाँ में।
करतबी कभी नहीं भूला॥1॥
 
उसी की गति कुछ है ऐसी।
जो नहीं जाती है कूती।
एक करतूती है ऐसा।
बोलती है जिसकी तूती॥2॥
 
भले ही गोले चलते हों।
कब सका है जी हिल उनका।
वीर कब घबरा जाते हैं।
दलकता है कब दिल उनका॥3॥
 
थकाहट थका नहीं सकती।
रुकावट रोक नहीं पाती।
काम करनेवाले की धुन।
तोड़ नभ-ता है लाती॥4॥
 
जो बड़ी जीवट वाले हैं।
न डिगना है उनकी थाती।
कलेजा कभी नहीं हिलता।
सिल बनी रहती है छाती॥5॥
 
साहसी का साहस देखे।
सिड़ें हैं अपना सिर देती।
बिदअतें बिदअत सहती हैं।
साँसतें साँस नहीं लेतीं॥6॥
 
सूख जाये समुद्र जो तो।
उसे दम भर में भरते हैं।
काम है कौन नहीं जिसको।
कलेजेवाले करते हैं॥7॥
 
पैठते हैं पातालों में।
आसमाँ पर उड़ जाते हैं।
काम जिनको प्यारा है वे।
काम कर नाम कमाते हैं॥8॥
 
(2)
 
देख उत्ताकल तरंगों को।
कार्यरत कब घबराता है।
शक्ति कुंभज-सी धारण कर।
पयोनिधिक को पी जाता है॥1॥
 
कार्य-पथ का बाधक देखे।
वीर पौरुष से भरता है।
पर्वतों को पवि बन-बनकर।
धूल में परिणत करता है॥2॥
 
विलोक मूर्ति केशरी की।
गरजती शोणित की प्यारेसी।
शक्ति वीरों की बनती है।
सर्वदा सिंहवाहना-सी॥3॥
 
पुरन्दर के हाथों से भी।
बात कहते वह है छिनता।
वीरवर भ वीरता में।
वज्र को वज्र नहीं गिनता॥4॥
 
सत्य पथ पर चोटें खाये।
नहीं वह करता है 'सी' भी।
कब हुई वीरों को परवा।
त्रिकशूली के त्रिकशूल की भी॥5॥
 
देखकर उनकी बलवत्ताक।
सबल का बल भी है टलता।
अलौकिक वीर-चरित्रों पर।
चक्रधार-चक्र नहीं चलता॥6॥
 
खलों की खलता का सहना।
वीर को है बहुधा खलता।
किसी पत्थर-सी छाती पर।
वही है सदा मूँग दलता॥7॥
 
कर्मरत वीरों का कौशल।
चमकता है रत्नों को जन।
फूल के गुच्छे बनते हैं।
हाथ में पड़ साँपों के फन॥8॥
 
(3)
 
वज्र को तृण कर देने में।
फड़कती है उसकी नस-नस।
सिन्धु को गोपद करता है।
साहसी का सच्चा साहस॥1॥
 
राह में अड़ी अड़चनों को।
चींटियों-सदृश मसलता है।
वीर जब बढ़ता है आगे।
काम करके ही टलता है॥2॥
 
काम जब कसकर करती है।
बिगड़ पाता तब कैसे रस।
सिध्दि कृति की मूँठी में है।
हाथ में उसके है पारस॥3॥
 
विघ्न हैं विघ्न नहीं करते।
नहीं बाधा बाधा देती।
साहसी का देखे साहस।
आपदा साँस नहीं लेती॥4॥
 
यत्न कर लोग रत्न कितने।
कीचड़ों में से पाते हैं।
फल लगा उकठे काठों में।
धूल में फूल खिलाते हैं॥5॥
 
बुध्दि के बल से वश में रह।
विविध ढंगों में ढलती है।
बालकर दीपक-मालाएँ।
दामिनी पंखा झलती है॥6॥
 
क्या नहीं करता है उद्यम।
कर सके क्या न यत्न न्या।
ऑंख के ता बन पाये।
करोड़ों कोसों के ता॥7॥
 
खुले ताला के जाती है।
निजी पूँजी देखीभाली
किन्तु है कर्म करों में ही।
सब सफलताओं की ताली॥8॥
(4)
 
विश्व के थाल में भरा व्यंजन।
बस उसी के लिए परोसा है।
जो खड़ा है स्वपाँव पर होता।
बाहुबल का जिसे भरोसा है॥1॥
 
है भरा वित्ता जाँघ में जिनकी।
मुँह नहीं ताकते किसी का वे।
कर कमाई कुबेर बन घर में।
बालते हैं प्रदीप घी का वे॥2॥
 
यह भरा है उमंग से होता।
इंच-भर वह नहीं उभरता है।
करतबी काम कर कमाता है।
आलसी दैव-दैव करता है॥3॥
 
कौन पड़ भाग्य-फेर में पनपा।
आत्मबल है विभूति का दाता।
एक दो बेर को तरसता है।
दूसरा है कुबेर बन जाता॥4॥
 
नाम हैं कर्म-भोग का लेते।
पर बने हैं बहुत बड़े भोगी।
भाग्य की भूल में पड़े हैं जब।
तब भलाई न दैव से होगी॥5॥
 
चौंक भूले हुए हरिण की-सी।
किसलिए नर छलाँग भरता है।
कर रहा है सदैव मनमानी।
तो वृथा दैव-दैव करता है॥6॥
 
जो नहीं ऑंख खोलकर चलते।
देखकर देख जो नहीं पाते।
दैव पर भूल जो करें भूलें।
किसलिए वे न ठोकरें खाते॥7॥
 
हाथ में विश्वशक्ति है उसके।
वह विबुध-वृन्द-नेत्र-तारा है।
अन्य बलवान कौन है ऐसा।
आत्मबल का जिसे सहारा है॥8॥
 
(5)
 
नर नभग के सदृश कैसे।
नभ में उड़ते दिखलाते।
सुरपुर-विमान जैसे ही।
क्यों विविध विमान बनाते॥1॥
 
क्यों ल तार बन पाते।
क्यों घड़ियाँ घर-घर चलतीं।
क्यों विपुल दीप-मालाएँ।
विद्युत-विभूति से बलतीं॥2॥
 
बातें सहस्र कोसों की।
क्यों घर-बैठे सुन पाते।
बहु अन्य-देश-गायक क्यों।
आ पास स्वगाने गाते॥3॥
 
क्यों विविध कलें बन-बनकर।
दिखलातीं दिव्य कलाएँ।
वह बल क्यों मिलता जिससे।
टलती हैं विपुल बलाएँ॥4॥
 
लाखों कोसों की दूरी।
क्यों परम अल्प हो जाती।
बहु-दूर-स्थित द्वीपावलि।
क्यों घर-ऑंगन बन जाती॥5॥
 
कैसे भावुक को मिलती।
बहु भव-विधायिनी बातें।
वर ज्योति-विमंडित बनती।
कैसे तमसावृत रातें॥6॥
 
बन-बन विचित्र यंत्रों में।
अद्भुत क्रीड़ा-शालाएँ।
क्यों हार गले का बनतीं।
मोहक तारक-मालाएँ॥7॥
 
जो कर्म-कुशलता दिखला।
जागतीं न विज्ञ जमाते।
कैसे अवगत हो पातीं।
विज्ञान की विविध बातें॥8॥
 
(9)
कर्मयोग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
छप्पै
 
नयन मनुज के सदा सफलता-मुख अवलोकें।
दोनों कर बन परम कान्त सुरतरु-फल लोकें।
उसको बहती मिले मरु-अवनि में रस-धारा।
वह पाता ही रहे अमरपुर-सा सुख न्यारा।
कैसे किस साधन के किये? तो उत्तार होगा यही।
सब दिनों कर्मरत जो रहा सिध्दि पा सका है वही॥1॥
 
उषा राग को लसित कर्म अनुराग बनाता।
कर्मसूत्र में बँधा दिवाकर है दिखलाता।
रजनी-रंजन कर्म कान्त बन है छबि पाता।
अवनीतल पर सरस सुधारस है बरसाता।
है करती रहती विश्व को विदित कर्म की माधुरी।
हो तारकावली से कलित प्रति दिन रजनी सुन्दरी॥2॥
 
परम पवि-हृदय-मेरु-प्रवाहित निर्झर द्वारा।
प्रस्तर-संकुल अवनि-मध्य-गत सरिता-धारा।
फल से विलसे विटप रंग लाती लतिकाएँ।
सौरभ-भ प्रसून विकच बनतीं कलिकाएँ।
देती है भव को, कर्म की अनुपमता की सूचना।
है कर्म परम पावन सरस सुन्दर भावों में सना॥3॥
 
कैसे मिलते रत्न क्यों उदधिक-मंथन होता।
कैसे कार्य-कलाप बीज कल कृति के बोता।
कैसे जड़ता मध्य जीवनी-धारा बहती।
कैसे वांछित 'सिध्दि' साधना-कर में रहती।
कैसे तो वारिद-वृन्द वर वारि बरस पाते कहीं।
जो कर्म न होता तो रसा सरसा हो सकती नहीं॥4॥
 
कर्महीनता मरण, कर्म-कौशल है जीवन।
सौरभ-रहित सुमन-समान है कर्महीन जन।
तिमिर-भरित अपुनीत इन्द्रियों का वर रवि है।
कर्म परम पाषाण-भूत मानस का पवि है।
है कर्म-त्याग की रगों में परिपूरित निर्जीवता।
है कर्मयोग के सूत्र में बँधी समस्त सजीवता॥5॥
 
(10)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
क्या है कर्म अकर्म धर्म किसको हैं मानते दिव्य-धी।
क्या है पुण्य-विवेक, पाप किसको विद्वज्जनों ने कहा।
मीमांसा इसकी हुई कम नहीं, है आज भी हो रही।
होता है न रहस्य-भेद फिर भी 'धर्मस्य सूक्ष्मा गति'॥1॥
 
नाना तर्क-वितर्क हैं विषय हैं वे जो द्विधाग्रस्त हैं।
ऐसे हैं फिर भी विचार कितने जो सत्य-सर्वस्व हैं।
सा मानवधर्मग्रंथ जिनको हैं तत्तवत: मानते।
तो भी क्या वसुधा समस्त जन के वे सर्वथा मान्य हैं॥2॥
 
प्राणी हैं परिणाम भूत-चय का, है वृत्तिक भी भौतिकी।
पाते हैं उसमें अत: अधिकता भूतोद्भवा भूति की।
होती है पशुता-प्रवृत्तिक प्रबला कर्मेन्द्रियासक्ति से।
देती है उसको बना अधामता की मूर्ति स्वार्थान्धाता॥3॥
 
हो सावेश नहीं मनुष्य करता है कौन-सी क्रूरता।
हो क्रोधान्धा महा अनर्थ करते होता नहीं त्रास्त है।
क्या है बर्बरता महा अधामता क्या दानवी कृत्य है।
प्राणी है यह सोच ही न सकता विक्षिप्त हो वैर से॥4॥
 
चेष्टाएँ कितनी हुईं, तम टले, पापांधाता दूर हो।
अत्याचार निरस्त हो, दनुजता हो वज्रपातांकिता।
तो भी क्या पशुता टली, अधामता क्या हो सकी धवंसिता।
क्या धीरे त्रास्त हुई सुने नरक की हृत्कम्पकारी कथा॥5॥
 
तो क्या है यमयातनातिपरुषा क्या है महा भर्त्सना।
तो क्या हैं विकरार्लमूर्ति यम के उद्दंड दूताग्रणी।
जो हो शंकित अल्प भी न उनसे पापीयसी वृत्तिक तो।
क्या है वैतरणी विभीषण क्रिया क्या नारकीयाग्नि है॥6॥
 
जो होते कुछ भी संशक, मति तो होती नहीं तामसी।
तो पाती तमसावृता न दृग की ज्योतिर्मयी दृष्टि भी।
तो व्यापी रहती नहीं हृदय में दुर्वृत्तिक की कालिमा।
हैं जो लोग मदांध वे न डरते हैं अंधतामिस्र से॥7॥
 
पाई है उसमें प्रभूत पशुता दुर्वृत्ताता दानवी।
हिंसा हिंसक जन्तु-सी कुटिलता सर्पाधिकराजोपमा।
उत्पात-प्रियता प्रभंजन समा दुर्दग्धाता वद्रि-सी।
कुंभीपाक विपाक बात सुन क्यों काँपें महापातकी॥8॥
 
देता है अलि-डंक-सा दुख उसे जो पंक-निक्षेप हो।
होती है अहि-दंशतुल्य परुषा पीड़ा अवज्ञा हुए।
देखे कीत्तिक-कलाप-लोप उसको होता महाताप है।
पाता रौरव-वास दीर्घ दुख है खो गौरवों को सुधी॥9॥
 
होते हैं उसके विचार-तरु के पत्तो छुरा-धार से।
देते हैं कर जो विपन्न बहुधा रक्ताक्त उद्बोधा को।
जो होके विकलांग भाव उसके होते व्यथाग्रस्त हैं।
तो क्या है असिपत्रा-से नरक का वासी नहीं भ्रष्ट-धी॥10॥
 
है दुर्गन्धा-निकेतना कलुषिता निन्द्या जुगुप्सा-भरी।
हैं उन्मादमयी सनी रुधिकर से हैं लोक-हिंसारता।
होती है खर गृधारदृष्टि उनकी मांसाशिनी निम्नगा।
भू में ही कितनी कराल कृतियाँ है कालसूत्रोपमा॥11॥
 
जोंकें हों उसमें प्रकम्पितकरी दुर्दशनों से भरी।
होवें भूरि विषाक्त व्याल उसके फूत्कार से फूँकते।
हो कालानन-सा कराल वह या हो आस्य नागेन्द्र का।
थोड़ी भी कब अंधाकूप परवा पापांधाता को हुई॥12॥
 
लोहे से विरची विभावसु बनी आलिंगिता कामिनी।
दे अत्यंत व्यथा, नुचें नरक में सर्वांग की बोटियाँ।
सा सुन्दर गात में कुलिश-से काँटे सहस्रों गड़ें।
क्यों कामी सुन वज्रकंटक-कथा कामांधाता से बचे॥13॥
 
जो खाते पर-मांस हैं न उनका क्यों मांस खाते वही।
जैसा है नर पाप-कर्म, मिलता है दण्ड वैसा वहाँ।
चाहे हो अथवा न हो नरक, क्या आदर्श भी है नहीं।
तो है शोक, विलोक शाल्मलिक्रिया जो हो न शालीनता॥14॥
 
देखा जो दृग खोल के अवनि तो है वंचितों से भरी।
हैं रोते मिलते अनेक कितने पाते नहीं रोटियाँ।
लाखों का भर पेट अन्न मिलना है स्वप्न के दृश्य-सा।
लाखों की कृमि-भोजनादि नरकों-सी नारकी वृत्तिक है॥15॥
 
हो-हो लोलुपता-प्रपंच-पतिता हो लोभ से लालिता।
ला, ला, के पड़ फेर में, ललकती, हो लालसा से भरी।
पाती हैं पति यातना निरय की हो लीन दुर्नीति में।
लालाभक्षनिकेतना अललिता लालायिता वृत्तिकयाँ॥16॥
 
चक्की में पिसते नहीं विवश हो, होते व्यथाग्रस्त क्यों।
कैसे शूकर से कदर्य्य, मुख बा-बा लीलना चाहते।
जो होते न कुकर्म में निरत तो जाता न ता गला।
कैसे शूकर-आननादि नरकों-सी यंत्रणा भोगते॥17॥
 
देखे दुर्गति पाप में निरत की, कामांधा की दुर्दशा।
नाना शूल-समूह से हृदय को पाके विधा प्रायश:।
बारंबार विलोक मत्त मति को मोहादि से मर्दिता।
होती हैं सुख ज्ञात संडसन की सारी सुनी साँसतें॥18॥
 
होती है सुखिता पिये रुधिकर के, है नोचती बोटियाँ।
प्यारा है उसको निपात वह है उत्पात-उत्पादिका।
लेती है प्रिय प्राण प्राणिचय का, है त्राकण देती कहाँ।
क्रूरों की कटुतामयी कुटिलता है गृधारभक्षोपमा॥19॥
 
पक्षी को पशुवृन्द को पटक के हैं पीटती प्रायश:।
बाणों से कर विध्द गृधार बन हैं देती बड़ी यंत्रणा।
हैं कोंचा करती सदैव, बढ़के हैं गोलियाँ मारती।
हैं विश्वासन-सी निकृष्ट, नर की मांसाशिनी वृत्तिकयाँ॥20॥
 
जो होवें बहु गृधार क्षीण खग को चोंचे चला चोंथते।
जो हो निर्बल को विदीर्ण करते हो क्रुध्द क्रूराग्रणी।
जो निर्जीव शरीर को लिपट हों कुत्तो कई नोचते।
तो श्वानोदन-दृश्य दृष्टिगत क्यों होगा न भू में किसे॥21॥
 
क्या हैं प्राणिसमूह को न डसते नानामुखी सर्प हो।
होती है उनकी कशा कलुषिता क्या विज्जुतुल्या नहीं।
क्या वे ले शित शेल हैं न कितने हृत्पिंड को बेधाते।
शूल-प्रोत-समान क्या न महि में है शूलदाताग्रणी॥22॥
 
हैं दुर्गंधामयी महाकलुषिता बीभत्सता से भरी।
नाना मूर्तिमती करालवदना क्रोधान्विता सर्पिणी।
है उच्छृंखलता-रता बहुमुखी आतंक-आपूरिता।
पापी की पतिता प्रवृत्तिक-सदृशा वैश्वासिनी प्रक्रिया॥23॥
 
है डाला करती विपन्न मुख में सीसा गला प्रायश:।
भोगे भी यह भोग प्राण कढ़ते हैं पातकी के नहीं।
खाता मुद्गर है, प्रहार सहता है, छूटता जी नहीं।
कैसी है यह क्षार कर्दमकृता दु:खान्त दृश्यावली॥24॥
 
रोता है पिटके कठोर कर से है यंत्रणा भोगता।
बोटी है कटती, समस्त तन को है नोचती दानवी।
है दुर्भाग्य, महा विपत्तिक यह है, है मर्मवेधी व्यथा।
जो रक्षोगण-भोजनावधिक अघी है छूट पाता नहीं॥25॥

द्वादश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रलय-प्रपंच-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
परिवर्तन
(1)
जल को थल होते देखा।
थल है जलमय हो जाता।
है गत्ता जहाँ पर गहरा।
था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥
 
वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से।
बहु सुन्दर नगर दिखाते।
हैं उदधिक-गर्भगत अधुना।
हैं पता न उनका पाते॥2॥
 
नन्दन-वन-से दृग-रंजन।
बहु वन बन गये मरुस्थल।
हो गये मरुस्थल कितने।
दुरम-वलित शस्य-से श्यामल॥3॥
 
प्रज्वाल-वमन-रत पर्वत।
बनता है दिव्य हिमाचल।
है अग्नि-गर्भ हो जाता।
हिमराशि-विसिद्बिचत अद्बचल॥4॥
 
जो नगर अपर अलका था।
थी जहाँ खिंची सुख-खा।
उसको क्षिति हिलते क्षण में।
अन्तर्हित होते देखा॥5॥
 
निधिकता अवलोक जहाँ की।
था वरुण-कलेजा हिलता।
बहु-योजन-व्यापी भूतल।
है वहीं अचानक मिलता॥6॥
 
अति तरल सलिल कहलाकर।
है बूँद बूँदपन खोती।
है स्रोत सरित बन पाता।
सरि निधिक में मिल निधिक होती॥7॥
 
फिर रही किसी फिरकी-से।
है काल कहीं फुरतीला।
होती रहती है भव में।
पल-पल परिवर्त्तन-लीला॥8॥
 
(2)
 
है बीज अंकुरित होता।
अंकुर तरु है बन पाता।
हो शाखा-पत्रा-सुशोभित।
है तरु प्रसून पा जाता॥1॥
 
खिल-खिल प्रसून छविशाली।
बनता है फल का दाता।
फल बीज से भरित होकर।
है सृजन-दृश्य दिखलाता॥2॥
 
बहु-वाष्प-समूह सघनता।
है घनमाला कहलाती।
घन है बूँदों से भरता।
बूँदें हैं वारि बनाती॥3॥
 
सागर हो या हो वसुधा।
जल कहाँ नहीं दिखलाता।
वह तप-तपकर तापों से।
है पुन: वाष्प बन जाता॥4॥
 
तृण हैं मिट्टी में उगते।
मिट्टी में हैं पल पाते।
जल गये, राख होने पर।
मिट्टी में है मिल जाते॥5॥
 
जो च गये पशुओं से।
वे हैं मल बने दिखाते।
फिर बाहर निकल उदर के।
मिट्टी ही हैं हो जाते॥6॥
 
ऐसी ही विधिकयों से ही।
है बना विश्व यह सारा।
चाहे हो कोई रजकण।
या हो नभतल का तारा॥7॥
 
है संसृति का संचालन।
है प्रकृति-प्रवृत्तिक-प्र्रवत्तान।
है भरित गूढ़ भावों से।
भव का अद्भुत परिवर्त्तन॥8॥
 
(3)
 
जो तपते हुए तवे पर।
कुछ बूँदें हैं पड़ पाती।
तो वे छन-छनकर छन में।
अन्तर्हित हैं हो जाती॥1॥
 
समझा जाता है जलकर।
वे हैं विनष्ट हो जाती।
पर वाष्प-रूप में पल में।
वे हैं परिणत हो पाती॥2॥
 
जल तेल धूम होता है।
वत्तिकका राख है बनती।
दीपक के बुझ जाने पर।
है ज्योति ज्योति में मिलती॥3॥
 
मरने पर प्राणी-तन को।
पंचत्व प्राप्त होता है।
अजरामर जीव कभी भी।
निज स्वत्व नहीं खोता है॥4॥
 
अवसर पर वसन बदलता।
जैसे जन है दिखलाता।
वैसे ही जीव पुरातन।
तन तज, नव तन है पाता॥5॥
 
जैसे मिट्टी में मिल तन।
है विविध रूप धार पाता।
तृण-लता गुल्म पादप हो।
बनता है बहु-फल-दाता॥6॥
 
वैसे ही निज जीवन का।
होता है वह निर्माता।
अनुकूल योनियों में जा।
है जीव कर्म-फल पाता॥7॥
 
है वस्तु-विनाश असम्भव।
बतलाते हैं यह बुध जन।
है दशा बदलती रहती।
है मृत्यु एक परर्वत्तान॥8॥
 
(4)
नैमिक्तिक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
प्रलय
 
भले ही ऊषा आती रहे।
लिये अंजलि में सुमन अपार।
बनी अनुरंजित कर अनुराग।
वारती रवि पर मुक्ता-हार॥1॥
 
खग-स्वरों में भर मंजुल नाद।
सजाये अपना उज्ज्वल गात।
अरुण अरुणाभा से हो लसित।
प्रति दिवस आये दिव्य प्रभात॥2॥
 
गगन-मण्डल में ज्योति पसार।
जगमगायें ता छविधाम।
दिव्य नन्दनवन-सुमन-समान।
बन परम रम्य लोक अभिराम॥3॥
 
हरित तरु-दल से कर बहु केलि।
परसता लतिका ललित शरीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
बहे कुंजों में मंजु समीर॥4॥
 
भरा नगरों में रहे विनोद।
सुखों का हो बहुविध विस्तार।
बने अत्यन्त प्रफुल्ल त्रिकलोक।
विहँसता रहे सकल संसार॥5॥
 
ध्वनित हो समय-करों से छिड़े।
प्रकृति-तन्त्राी के अद्भुत तार।
विश्व-कानों में गूँजा क।
अलौकिकतम उसकी झंकार॥6॥
 
किन्तु क्या उसको, जिसका आज।
टूटता है साँसों का तार।
नहीं जो जुड़ पाता है कभी।
काल-कर का सह सबल प्रहार॥7॥
 
गगनचुम्बी उसके प्रासाद।
मोहते रहें, बनें छविमान।
रात में जिनके कलश विलोक।
कलानिधि भी हों मुग्ध महान॥8॥
 
लगाए उसके उपवन बाग।
फूल-फल लाएँ बन छविवन्त।
बढ़ाता उनकी शोभा रहे।
समय पर आकर सरस वसन्त॥9॥
 
स्नेह-परिपालित सकल कुटुम्ब।
प्रीति में रत पूरा परिवार।
समुन्नत हो पाए सुख भूरि।
बने बहु वैभव-पारावार॥10॥
 
किया जिन भावों का उपयोग।
लिया जिन मधुर रसों का स्वाद।
बनें वे उन्नत पाकर समय।
या बताए जावें अपवाद॥11॥
 
कलित क्रीड़ाओं के प्रिय धाम।
घूमने-फिरने के मैदान।
सुसज्जित विलसित हों सर्वदा।
या बनें प्रेत-निवासस्थान॥12॥
 
क्या उसे जिसकी ग्रीवा-मध्य।
अचानक पड़ा काल का फन्द।
समय के फरफन्दों में फँसे।
हो गयीं जिसकी ऑंखें बन्द॥13॥
 
बनेगा पाँच तत्तव की भूति।
म पर, पाँच तत्तव का गात।
ज्योति में मिल जाएगी ज्योति।
वात में मिल पाएगा वात॥14॥
 
व्योम में समा जाएगा व्योम।
नीर भी बन जाएगा नीर।
मृत्तिकका में होयेगा मग्न।
मृत्तिकका से संभूत शरीर॥15॥
 
कर्म-अनुसार लाभ कर योनि।
जीव पा जाता है तन अन्य।
किन्तु व्यक्तित्व किसी का कभी।
यों नहीं हो पाता है धान्य॥16॥
 
व्यक्ति में रहता है व्यक्तित्व।
उसी से है उसका संबंधा।
पर मिला एक बार वह कभी।
नियति का है यह गूढ़ प्रबन्धा॥17॥
 
पंचतन्मात्राकओं का मिलन।
लाभ कर आत्मा का संसर्ग।
प्राणियों का करता है सृजन।
पृथक होते हैं जिनके वर्ग॥18॥
 
वर्ग में परिचय का प्रिय कार्य।
कर सका है केवल व्यक्तित्व।
बिना व्यक्तित्व महत्तव-विकास।
व्यर्थ हो जाता है अस्तित्व॥19॥
 
मिल सका किसे पूर्व व्यक्तित्व।
जन्म ले-लेकर भी शत बार।
म के लिए सभी मर गया।
भले ही मरा न हो संसार॥20॥
 
गमन है पुनरागमन-विहीन।
भाव है सकल अभाव-निलय।
कहा जाता है भय-सर्वस्व।
मरण माना जाता है प्रलय॥21॥
 
(5)
 
जगद्विजयी उठता है काँप।
कान में पड़े काल का नाम।
मृत्यु का भीषण दृश्य विलोक।
न लेगा कौन कलेजा थाम॥1॥
 
यही है वह कराल यमदण्ड।
दहलता है जिससे संसार।
वार बेकार न जिसकी हुई।
यही है वह बाँकी तलवार॥2॥
 
यही है काली की वह जीभ।
लपलपाती अतीव विकराल।
जिसे है सृष्टि देखती सदा।
करोड़ों के लोहू से लाल॥3॥
 
यही है वह त्रिकनेत्र का नेत्र।
खुले जिसके होता है प्रलय।
ज्वाल से जिसके हो-हो दग्धा।
भस्म होता है विश्व-वलय॥4॥
 
यही है वह रण का उन्माद।
कटाए जिसने लाखों शीश।
प्रहारों से जिसके हो व्रणित।
रुधिकर-धारा में बहे क्षितीश॥5॥
 
यही है वह जल-प्लावन जो कि।
देश को करता है उत्सन्न।
प्राणियों का लेता है प्राण।
बनाकर उनको विपुल विपन्न॥6॥
 
यही है वह भारी भूकम्प।
काल का जो है महाप्रकोप।
धारा का फट जाता है हृदय।
हुए लाखों लोगों का लोप॥7॥
 
अयुत-फणधार का है फुफकार।
भीतिमय है भौतिक उत्पात।
मरण है वज्रपात-सन्देश।
है महा सांघातिक आघात॥8॥
 
सशंकित हुआ कहाँ कब कौन।
प्रलय का अवलोके भ्रू बंक।
विश्व के अन्तर में है व्याप्त।
प्रलय से अधिक मरण-आतंक॥9॥
 
(6)
 
क्षणिक जीवन के विविध विचार।
कीत्तिक-रक्षण के नाना भाव।
स्वर्ग-सुख-लाभ,नरक-आतंक।
संकटों से बचने के चाव॥1॥
 
कराते हैं नर से शुभ कर्म।
भिन्न होते हैं उनके रूप।
साधनाएँ होती हैं सधी।
साधाकों की रुचि के अनुरूप॥2॥
 
मन्दिरों के चमकीले कलश।
लगाए ह-भ बहु बाग।
सरों में उठती तरल तरंग।
सुर-यजन-पूजन का अनुराग॥3॥
 
भंग यदि कर पाएँ निज मौन।
तो बताएँगे वे यह बात।
सभी हैं स्वर्गलाभ के यत्न।
कीत्तिक-रक्षण इच्छा-संजात॥4॥
 
विरागी जन का गृह-वैराग्य।
तापसों के नाना तप-योग।
त्यागियों के कितने ही त्याग।
शान्ति-कामुक के शान्ति-प्रयोग॥5॥
 
विपद-निपतित का पूजा-पाठ।
विनय से भरी विपन्न पुकार।
मुक्ति से सुपथों का संधन।
मृत्युभय के ही हैं प्रतिकार॥6॥
 
संकटों के संहारनिमित्त।
किए जाते हैं जितने कर्म।
पुण्य के उपकारक उपकरण।
जिन्हें माना जाता है धर्म॥7॥
 
भाव वे जो होते हैं सुखित।
दीन-दुखियों को दान दिला।
सबों में अवलोके दृग खोल।
मृत्यु का भय प्रतिबिंबित मिला॥8॥
 
काल है बहुत बड़ा विकराल।
हो सका उसका कभी न अन्त।
बंक भुकृटी उसकी अवलोक।
दैव बनता है महा दुरन्त॥9॥
 
बहाता है वह हो-हो कुपित।
जग-दृगों से जितनी जलधार।
कँपाता है वह जितने हृदय।
बहु व्यथाएँ दे बारम्बार॥10॥
 
अचानक जितनों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
मचाता रहता है जी खोल।
जगत में वह जितना उत्पात॥11॥
 
कर सका है उतना कब कौन।
हो सका कब उसका अनुमान।
भयंकर ऐसा है यह रोग।
नहीं जिसका हो सका निदान॥12॥
 
मरण-भय का ही है परिणाम।
विश्व का प्रबल निराशावाद।
श्रवणगत होता है सब ओर।
उर कँपाकर जिसका गुरु नाद॥13॥
 
क्षणिकता जीवन का अवलोक।
बन गया है असार संसार।
कहाँ है ठीक-ठीक बज रहा।
आज आशा-तन्त्री का तार॥14॥
 
विरागी जन के कुछ साहित्य।
सुनाते हैं वह निर्मम राग।
बना जिससे बहु जीवन व्यर्थ।
ग्रहण कर महा अवांछित त्याग॥15॥
 
मृत्यु के पंजे में पड़ गये।
छूटता है सारा संसार
मिटा करता है वह व्यक्तित्व।
नहीं मिल पाता जो दो बार॥16॥
 
रही जो हृदयेश्वरी सदैव।
प्रीति की मूर्ति जो गयी कही।
कलेजे के टुकड़े जो बने।
ऑंख की पुतली जो कि रही॥17॥
 
देखने को जिनकी प्रिय झलक।
ललक सहती न पलक की ओट।
अलग जिनका होना अवलोक।
लगन को लग जाती थी चोट॥18॥
 
बिना देखे जिनका वर वदन।
नहीं चित को मिलता था चैन।
विलोके जिनका दिव्य स्वरूप।
विमोहित होता रहता मैन॥19॥
 
पिपासित ऑंखें रहकर खुली।
ताकती रहतीं जिनकी राह।
अदर्शन से जिनके बन विकल।
बहुत चंचल होती थी चाह॥20॥
 
इन प्रणय-रस-सिक्तों का साथ।
जो छुड़ा देता है तत्काल।
कुछ दिनों नहीं, सदा के लिए।
काल वह है, कितना विकराल॥21॥
 
डाल पाए उतना न प्रभाव।
प्रलय के गा-गाकर बहु गीत।
लोग जितने कि प्रभावित हुए।
मरण-वृतों से हो भयभीत॥22॥
 
(7)
मृत्यु-आतंक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
तब क्यों नहीं ऑंख खुलती है।
होश क्यों नहीं आता।
जब कि पलक मारते काल का।
रंग पलट है जाता।
तब किसलिए अधमता करते
नहीं धाड़कती छाती।
जब घन की छाया समान है
काया क्षणिक कहाती॥1॥
 
तब क्यों लोग दूसरों को।
दुख देते नहीं अघाते।
जब जीवन के दिवस।
भोर के ता हैं बन जाते।
तब किसलिए अहित की धारा।
हृदयों में है बहती।
जब बहु छिद्रवान घट-जल-सम।
आयु छीजती रहती॥2॥
 
तब क्यों पीड़ित क उरों को।
कह नितान्त कटु वाणी।
जब बालू की भीत के सदृश
पतनशील है प्राणी।
तब किसलिए किसी का कोई
क्यों है गला दबाता।
ओले के समान जब जन-तन
है गलता दिखलाता॥3॥
 
तब क्यों बार-बार कल-छल कर
है बलवान कहाता।
जब बुलबुले-समान बात कहते
है मनुज बिलाता।
उथल-पुथल किसलिए मचाता है
तब कोई पल-पल।
चलदल-दल-गत सलिल-बिन्दु-सम।
जब जीवन है चंचल॥4॥
 
(8)
प्रलय-प्रसंग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
खुले, रजनी में निद्रा-गोद।
जब शयन करता है मनुजात।
अंक में उसके रखकर शीश।
भूलकर भव की सारी बात॥1॥
 
सुषुप्तावस्था का यह काल।
कहा जाता है नित्य प्रलय।
क्योंकि हो जाता है उस समय।
गहन निद्रा में भव का लय॥2॥
 
मृतक के लिए विना क्षय हुआ।
क्षयित होता है विश्व-वलय।
अत: प्राणी का प्राण-प्रयाण।
कहाता है नैमित्तिकक प्रलय॥3॥
 
मनोहर लोक-विलोचन-चोर।
गगन-सर-सरसीरुह अभिराम।
तामसी रजनी के सर्वस्व।
जगमगाते ता छवि-धाम॥4॥
 
धारातल-जैसे ही हैं ओक।
अत: उनका भी होगा नाश।
एक दिन वे, हो बहुश: खंड।
गँवाएँगे निज दिव्य प्रकाश॥5॥
 
बना नभ-तल को ज्योति-निकेत।
हुआ करता है उल्कापात।
और क्या है? वह है, द्युतिप्राप्त
मृतक तारक-तनांश-विनिपात॥6॥
 
धारा पर लाखों बरसों बाद।
काल का जब होगा आघात।
उस समय उसके भी तन-खंड।
करेंगे अरबों उल्कापात॥7॥
 
पिंड हो या हो कोई लोक।
जब कि उसका होता है नाश।
है महाप्रलय कहाता वही।
प्राकृतिक है यह भव अवकाश॥8॥
 
सकल लोकों का करके नाश।
प्रकृति को दे देना विश्राम।
बनाना भव को तिमिराच्छन्न।
है महा महाप्रलय का काम॥9॥
 
काल का है प्रकाण्ड व्यापार।
प्रकृति का विधवंसक आरोप।
लोप-लीलाओं का है केन्द्र।
लोक कम्पित कर प्रलय-प्रकोप॥10॥
 
(9)
 
काल-सागर में बन निस्सार।
एक दिन डूबेगा संसार॥1॥
 
तब दिवस-मणि मणिता कर लाभ।
न मण्डित हो पाएगा व्योम।
न रजनी के रंजन के हेतु।
विलस हँस रस बरसेगा सोम।
कगा नभतल में न विहार॥2॥
 
ललकते लोचन के सर्वस्व।
मनोहर मोहक परम ललाम।
गगनतल के तारक-समुदाय।
न बन पाएँगे, हो छविधाम।
प्रकृति-उर-विलसित मुक्ता-हार॥3॥
 
विहँसती लसती भरी उमंग।
रंगिणी ऊषा प्रात:काल।
खुले प्राची-दिगंगना-द्वार।
न झाँकेगी घूँघट-पट टाल।
लिए रवि-पूजन का संभार॥4॥
 
सुनाता बड़े रसीले राग।
बहाता गात-विमोहक वात।
खिलाता सुन्दर सरस प्रसून।
न आयेगा उत्फुल्ल प्रभात।
कर जगत में नव ज्योति-प्रसार॥5॥
 
धारा पर उज्ज्वल चादर डाल।
रजकणों को कर रजत-समान।
दलन कर रजनी का तमतोम।
दृगों को कर दिव्यता-प्रदान।
दिखाएँगे न दमकते बार॥6॥
 
गगनतल-चुम्बी मेरु-समूह।
न पहनेंगे कमनीय किरीट।
कलित कर से उनपर राकेश।
सकेगा नहीं छटाएँ छींट।
न शृंगों का होगा शृंगार॥7॥
 
दिखाएँगे न दिव्यतम दृश्य।
विरचकर विचित्रतामय वेश।
विविधताओं से हो परिपूर्ण।
बड़े ही सुन्दर बहुश: देश।
करेंगे नहीं विभव-विस्तार॥8॥
 
वहन कर बहु विभूति-अनुभूति।
सृजन कर सरस हृदय-समुदाय।
ग्रहण कर नूतनता-सम्पत्तिक।
नागरिकतामय नगर-निकाय।
न खोलेंगे विमुग्धता-द्वार॥9॥
 
कगी उन्हें नहीं अति कान्त।
नवल कोमल किसलय कर दान।
बना पादपचय को हरिताभ।
तानकर सुन्दर लता-विमान।
वनों में लसित वसंत-बहार॥10॥
 
करेंगे कलिका का न विकास।
परसकर उसका मृदुल शरीर।
करेंगे सुमन को न उत्फुल्ल।
डुलाकर मंजुल व्यजन समीर।
प्रकृति के कर अतीव सुकुमार॥11॥
 
कगा नहीं मनों को मुग्ध।
भगा नहीं मही में मोद।
बनाएगा न वृत्तिक को मत्त।
वस्तुओं में भर भूरि विनोद।
सरसतम ऋतुओं का संचार॥12॥
 
न होगी कहीं जागती ज्योति।
कहीं भी होगा नहीं प्रकाश।
भर गया होगा तम सब ओर।
हो गया होगा भव का नाश।
वाष्पमय होगा सब व्यापार॥13॥
 
अचिन्तित है यह गूढ़ रहस्य।
भले ही कह लें इसे परत्रा।
और क्या कहें, कहें क्या? किन्तु
भरा होगा इसमें सर्वत्र।
सकल लोकों का हाहाकार॥14॥
 
(10)
 
एक दिन आयेगा ऐसा।
घहरते आएँगे बहु घन।
लगेगा लगातार होने।
कम्पिता भू पर वज्र-पतन॥1॥
 
पसा हाथ न सूझेगा।
तिमिर छा जाएगा इतना।
न अनुमिति हो पाएगी, वह।
बनेगा घनीभूत कितना॥2॥
 
मेघ कर महाघोर गर्जन।
कगा लोकों को स्तंभित।
जल बरस मूसलधारों से।
बना वसुधातल को प्लावित॥3॥
 
डुबा देगा समस्त महि को।
बना सर-सरिताओं को निधिक।
महा उत्ताकल तरंगों से।
तरंगित विस्तृत हो वारिधिक॥4॥
 
सहस्रानन कृतान्त-व्रत ले।
विष-वमन अयुत मुखों से कर।
कगा सहलाहल महि को।
ककुभ में बहु कोलाहल भर॥5॥
 
भय-भ सा भुवनों के।
बहु निकट बहुधा हो-हो उदय।
दिवाकर निज प्रचंड कर से।
कगा भव को पावकमय॥6॥
 
जायगा खुल प्रलयंकर का।
तीसरा अति भीषण लोचन।
बनेगा जिससे ज्वालामय।
सकल लोकों का कंपित तन॥7॥
 
सकल ओकों को लोकों को।
सकल ब्रह्मांडों को छन-छन।
दलित मर्दित धवंसित दग्धिकत।
कगा शिव-तांडव-नर्त्तन॥8॥
 
पतित यों होंगे तारकचय।
उठे कर के आघातों से।
गिरा करते हैं जैसे फल।
प्रभंजन के उत्पातों से॥9॥
 
पदों के प्रबल प्रहारों से।
विचूर्णि होगा वसुधातल।
विताड़ित होकर, जायेगा
कचूमर पातालों का निकल॥10॥
 
समय-आघातों से इतना।
बिगड़ जाएगा आकर्षण।
परस्पर टकरा, तारों का।
अधिक निपतन होगा प्रतिक्षण॥11॥
 
बनेगा महालोम-हर्षण।
उस समय अन्तक-मुख-व्यादन।
कालिका लेलिहान जिह्ना।
काल का विकट कराल वदन॥12॥
 
गगन में होगा परिपूरित।
प्रचुरता से विनाश का कण।
लोक में होगा कोलाहल।
वायु में होगा भरा मरण॥13॥
 
नियति-दृग के सम्मुख होगा।
विश्व-हृत्कंपितकारी तम।
प्रकृति-कर से चलता होगा।
काल-जैसा विस्फोटक बम॥14॥
 
रहेगा छाया सन्नाटा।
समय का मुख नीरव होगा।
अवस्था होवेगी प्रकृतिस्थ।
सूक्ष्ममत अणुगत भव होगा॥15॥
 
(11)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
है पाताल-पता कहाँ, गगन भी है सर्वथा शून्य ही।
भू है लोक अवश्य, किन्तु वह क्या है एक तारा नहीं।
संख्यातीत समस्त तारक-धारा के तुल्य ही लोक हैं।
लोकों की गणना भला कब हुई, होगी कभी भी नहीं॥1॥
 
क्या की है, यह सोचके, विबुध ने लोकत्रायी-कल्पना।
जो हैं ज्ञापित नाम से वसुमती, आकाश, पाताल के।
ता हैं नभ में अत: गगन ही संकेत है सर्व का।
जो हो, किन्तु रहस्य लोकचय का अद्यापि अज्ञात है॥2॥
 
तारों में कितने सहस्रकर से भी सौगुने हैं बड़े।
ऐसे हैं कुछ सूर्य ज्योति जिनकी भू में न आयी अभी।
होता है यह प्रश्न, क्या प्रलय में है धवंस होते सभी।
है वैज्ञानिक धारणा कि इसकी संभावना है नहीं॥3॥
 
ज्यों भू में बहु जीव नित्य मरते होते समुत्पन्न हैं।
वैसे ही नभ-मध्य नित्य बनते हैं छीजते लोक भी।
है स्वाभाविक प्रक्रिया यदि यही, तत्काल ही साथ ही।
सा तारक-व्यूह का विलय तो क्यों मान लेगा सुधी॥4॥
 
शंकाएँ इस भाँति की बहु हुई, हैं आज भी हो रही।
है सिध्दान्त-विभेद भी कम नहीं है, तर्क-सीमा नहीं।
तो भी है यह बात सत्य, पहले जो विश्व सूक्ष्माणु था।
सो कालान्तर में पुन: यदि बने सूक्ष्माणु वैचित्रय क्या॥5॥
 
वेदों से यह बात ज्ञात विबुधों के वृन्द को है हुई।
जो है सक्रिय भाग सर्व भव का सो तो चतुर्थांश है।
है शेषांश क्रिया-विहीन, अब भी, जो सर्वथा रिक्त है।
कैसी अद्भुत गूढ़ उक्ति यह है, सत्ता महत्ताअधिकतरंकिता॥6॥
 
जो है निष्क्रिय तीन अंश कृतियाँ जो हैं चतुर्थांश में।
पाएगा भव पूर्णता कब? इसे क्यों धीरे सकेगी बता।
होवेगा कब नाश सर्व भव का? कोई इसे क्यों कहे।
ये बातें मन-बुध्दि-गोचर नहीं, प्राय: अविज्ञेय हैं॥7॥
 
शास्त्रों में विधिक-कल्प के प्रलय के कालादि की कल्पना।
है गंभीर विचार-भाव-भरिता विद्वज्जनोद्वोधिकनी।
तो भी वे कह नेति-नेति वसुधा को हैं बताते यही।
है संसार रहस्य, है प्रकृति की मायातिमायाविनी॥8॥
 
जो पू परमाणु-वाद-रत हैं, विज्ञान-सर्वस्व हैं।
वे भी देख विचित्रता प्रकृति की होते जड़ीभूत हैं।
क्यों कोई खग विश्वव्याप्त नभ की देगा इयत्ताक बता।
कोई कीट वसुंधरा-विभव का क्यों पा सकेगा पता॥9॥
 
आविष्कारक कर्मशील बहुश: हैं मेदिनी में हुए।
इच्छा के अनुकूल कूल पर जा हैं शोधा भूय: किए।
पाए हैं उनके प्रयत्न-कर ने प्राय: कई रत्न भी।
संसारांबुधिकरत्नराशि फिर भी दुष्प्राप्य दुर्बोधा है॥10॥
 
आके भूतल में विलोक निशि में आकाश-दृश्यावली।
होता है मनुजात बुध्दिहत-सा सोचे स्वअल्पज्ञता।
पाए हैं कुछ बुध्दिमान जन ने एकाधा मोती कहीं।
बेजाने संसार-सिंधु अब भी छाने बिना है पड़ा॥11॥
 
वे थे शक्ति-निधन साथ उनका था दानवों ने दिया।
क्या है मानव-शक्ति, और उसकी क्या है क्रियाशीलता।
मेधावी सुर ने समुद्र मथ के जो रत्न पाए गिने।
तो क्यों रत्न-समूह विश्व-निधिक के पाते धारा स्वल्पधी॥12॥

त्रयोदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कान्त कल्पना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सिन्दूर
(1)
सिखाए अनुरंजन का मन्त्रा।
जमाए अनुपम अपना रंग।
लोक-हित-पंकज-पुंज-निमित्त।
कहाए विलसित बाल-पतंग॥1॥
 
भर रग-रग में भव-अनुराग।
मानसों को कर बहु अभिराम।
रखे शुचि रुचि की लाली मंजु।
लालिमा दिखला परम ललाम॥2॥
 
सिध्द हो कल कृति-नयन-निमित्त।
अलौकिक रस-अंकित वह बिन्दु।
याद आता है जिसे विलोक।
सुधारस-वर्षणकारी इन्दु॥3॥
 
लाभ कर हृदय-रंजिनी कान्ति।
ज्ञात हो लसित लालसा-ओक।
उसे, है जिसे, लोक-हित प्यारे।
दिखा अवलोकनीय आलोक॥4॥
 
मंजु आरंजित मुख का राग।
करें जन-जन रंजन भरपूर।
बने वसुधा सोहाग-सर्वस्व।
भारती-भूति-भाल सिन्दूर॥5॥
 
प्रभाकर
(2)
 
दृगों पर पड़ा असित परदा।
उरों में ऍंधिकयाला छाया।
समाया नस-नस में तामस।
भरा तम घर-घर में पाया॥1॥
 
ज्योति के लिए न फिर कैसे।
दुखित जनता-मानस तरसे।
प्रभाकर भारत-भूतल का।
तिमिर हर लो सहस्र कर से॥2॥
 
(3)
 
अरुणता अरुण नहीं पाता।
उषा क्यों आरंजित होती।
विभा का बीज धारातल में।
कान्त किरणावलि क्यों बोती॥1॥
 
गिरि-शिखर क्यों शोभा पाता।
मणि-जटित कल किरीट पाकर।
ललित क्यों लतिकाएँ होतीं।
मंजुतम मुक्ताओं से भर॥2॥
 
सरि-सरोवर में क्यों बिछतीं।
चादरें स्वर्ण-तार-विरचित।
अंक प्राची का क्यों लसता।
विपुल हीरक-चय से हो खचित॥3॥
 
कंठ क्यों खुलता विहगों का।
कुसुम-कुल-कलिका क्यों खिलती।
विलसता क्यों प्रभात का मुख।
प्रभाकर-प्रभा जो न मिलती॥4॥
 
(4)
 
क्षपाकर की छवि छिनती है।
तेजहत होते हैं ता।
गिरि-गुहा में तम छिपता है।
बने अंधो निशिचर सा॥1॥
 
उसे कहते दिल दुखता है।
यामिनी लुटती है जैसी।
कहें क्या ऐसी विभुता को।
प्रभाकर यह प्रभुता कैसी॥2॥
 
आलोक
(5)
 
भरत-सुत का मुख अति कमनीय।
हो गया है श्रीहीन नितान्त।
क्या पुन: पूर्व तेज कर प्राप्त।
बनेगा नहीं कलानिधि कान्त॥1॥
 
जगी जगती में जिसकी ज्योति।
समालोकित कर सा ओक।
कगी क्या भारत-भू लाभ।
फिर अलौकिकतम वह आलोक॥2॥
 
(6)
 
मत मिले तारकचय की ज्योति।
भले ही उगे न मंजु मयंक।
न दीखे दीपावलि की दीप्ति।
छिपाए चपला को घन अंक॥1॥
 
प्रभा पाएगा पूत प्रभात।
समालोकित होंगे सब ओक।
बनेगा दिवा दिव्य-से-दिव्य।
दिवापति का पाकर आलोक॥2॥
 
चारु चरित
(7)
 
किसके लालन-पालन से है रहती मुख की लाली।
भूतल में किसके कर से प्रतिपत्तिक गयी प्रतिपाली।
किसका आनन अवलोकन कर मानवता है जीती।
सुरुचि-चकोरी किस मयंक-मुख का मयूख है पीती॥1॥
 
कुजन लौह किस पारस के परसे है सोना बनता।
किसका कीत्तिक-वितान सकल वसुधातल में है तनता।
किसके दिव्यभूत मुख पर है वह आलोक दिखाता।
जिसे विलोक कलंक-तिमिर का है विलोप हो जाता॥2॥
 
किसके दृष्टिपूत दृग में है वह लालिमा विलसती।
जिसके बल से अनुरंजनता है वसुधा में बसती।
किसका तेज:पुंज कलेवर वह कौशल करता है।
जो तामसी वृत्तिक रजनी में दिव्य ज्योति भरता है॥3॥
 
किसका मंजुल मनोभाव है वह कल कुसुम खिलाता।
जिसके सौरभ से मन-उपवन है सुरभित हो जाता।
है किसकी अनुपम कृपालुता कल्पद्रुम की छाया।
पा जिसका अवलम्बन मानव ने वांछित फल पाया॥4॥
 
किसके अंकुश में मद-सा मदमत्त द्विरद दिखलाया।
किसे मोहती नहीं काम की महामोहिनी माया।
किसको ललना-लोल-नयन लालायित नहीं बनाता।
कुसुमायुधा के आयुधा को है कौन कुसुम कर पाता॥5॥
 
किसे लोभ की ललितभूत लहरें हैं नहीं नचाती।
किसके सम्मुख लोक-लालसाएँ हैं ललक न आती।
कामद सुखद वरद बहु रसमय परम मनोहर प्यारी।
है किसकी कमनीय कामना कामधेनु-सी न्यारी॥6॥
 
जो कोपानल मति-विलोप का साधन है हो पाता।
जिसका धूम विवेक-विलोचन को है अंधा बनाता।
जो अन्तस्तल को विदग्धा कर-कर है बहुत सताता।
वह आकर किसके समीप है तेज-पुंज बन जाता॥7॥
 
किसपर कभी मोह ने अपनी नहीं मोहनी डाली।
किसकी ममता गयी लोक-ममता-रंगत में ढाली।
किसके दिव्य दिवस हैं किसकी विभामयी हैं रातें।
परम पुनीत विभूति-भरित हैं चारु चरित की बातें॥8॥
 
(8)
 
मनुज-कुल मंजुल मानस-हंस।
मनुजता-कलिका कलित विकास।
सुरुचि-सरसी का सलिल ललाम।
कामना कान्त कमलिनी-वास॥1॥
 
कीत्तिक-कौमुदी कौमुदीनाथ।
सुकृति-सरिता का सरस प्रवाह।
ख्याति महिला का है सर्वस्व।
पूत जीवन पावन अवगाह॥2॥
 
वह मुकुर है वह जिसमें सांग।
हुए प्रतिबिम्बित शुचितम भाव।
कुजन-अय को करता है स्वर्ण।
डाल पारस-सा प्रमित प्रभाव॥3॥
 
बता पतितों को अपतन-मन्त्रा।
लाभ की उसने कीत्तिक महान।
कुमति को पढ़ा सुमति का पाठ।
अगति को करके प्रगति-प्रदान॥4॥
 
वह जलद है वह जिसका वारि।
हो सका हितकर सुधा-समान।
बन सके मरु-से जीवन-हीन।
कृपा से किसकी जीवनवान॥5॥
 
बो सके अवनी में वे बीज।
उसी के कर नितान्त कमनीय।
उगे जिससे वे पादप-पुंज।
बने जो सुरतरु-से महनीय॥6॥
 
मिले बल उसका बढ़ा समाज।
लाभ कर लोक-रंजिनी ख्याति।
हो गये ह-भ बहु वंश।
फली-फूली उससे सब जाति॥7॥
 
मनुज-जीवन होता है धान्य।
सफल बनते हैं सा यत्न।
हो सका महिमावान न कौन।
पा गये चारु चरित-सा रत्न॥8॥
 
मधुकर
(9)
 
भूलता भ्रमरी को कैसे।
भाँव क्यों भरता फिरता।
सुविकसित सुमन-समूहों पर।
मत्त बन-बनकर क्यों गिरता॥1॥
 
किसलिए काँटों से छिदता।
किसलिए तन की सुधा खोता।
कमल में कैसे बँधा जाता।
जो न मधुरत मधुकर होता॥2॥
 
सन्देश
(10)
 
भले ही हो मेरा मुख बन्द।
सजल दृग क्यों न सके अवलोक।
हाँ परम कुंठित है मम कंठ।
क्या नहीं मुखरित मानस ओक॥1॥
 
किसी अन्तर्दर्शी को छोड़।
कौन अन्तर-तर सका विलोक।
तिमिरमय हो सारा संसार।
कौन है सकल लोक-आलोक॥2॥
 
परम नीरव हो अन्तर्नाद।
किन्तु हैं अन्तर्यामी आप।
मुझे है इतना भी न विवेक।
पुण्य क्या है प्रभु क्या है पाप॥3॥
 
महा अद्भुत है विश्व-विधन।
बुध्दि क्यों उसमें क प्रवेश।
क्या कहूँ और कहूँ किस भाँति।
मौन ही है मेरा सन्देश॥4॥
 
भेद
(11)
 
भेद तब कैसे बतलायें।
भेद जब जान नहीं पाते।
फूल क्यों महँक-महँककर यों।
दूसरों को हैं महँकाते॥।1॥
 
किसलिए खिल-खिल हँसते हैं॥
किसलिए वे मुसकाते हैं।
देख करके किसकी रंगत।
फूल फूले न समाते हैं॥2॥
 
कमनीय कामना
(12)
 
बहु गौरवित दिखाये जाये न गर्व से गिर।
सब काल हिम-अचल-सा ऊँचा उठा रहे शिर।
अविनय-कुहेलिका से हो अल्प भी न मैली।
सब ओर सित सिता-सी हो कान्त-कीत्तिक फैली॥1॥
 
विलसे बने मनोहर बहु दिव्यभूत कर से।
संस्कृति-सरोजिनी हो सरसाति स्वत्व सरसे।
भावे स्वकीयता हो परकीयता न प्यारी।
जातीयता-तुला पर ममता तुले हमारी॥2॥
 
न विलासिता लुभाये न विभूति देख भूले।
कृति-कंजिनी विलोके सद्भाव-भानु फूले।
उसको बुरी लगन की लगती रहें न लातें।
न विवेक-हंस भूले निज नीर-क्षीर बातें॥3॥
 
तन-सुख-सेवार में फँस गौरव रहे न खोती।
संसार-मानसर में मति क्यों चुगे न मोती।
लगते कलंक को वे क्यों लाग से न धोंये
कैसे कुलांगनाएँ कुल का ममत्व खोयें॥4॥
 
सारी कुभावनाएँ जायें सदैव पीसी।
कमनीय कामनाएँ हों कल्पवेलि की-सी।
सुविभूतिदायिनी हो बन सिध्दि-सहचरी-सी।
हो साधना पुनीता सब काल सुरसरी-सी॥5॥
 
मानस-मयंक जैसा हँस-हँस रहे सरसता।
सब पर रहे मनुजता सुन्दर सुधा बरसता।
करके विमुग्ध भव को निज दिव्य दृश्य द्वारा।
उज्ज्वल रहे सदा ही चित-चित्रापट हमारा॥6॥
 
(13)
 
बादल की बातें
 
क्यों भ रहते हैं इतने।
लाल-पीले क्यों होते हैं।
बाँधाकर झड़ी आँसुओं की।
किसलिए बादल रोते हैं॥1॥
 
रंग बिगड़ा जो औरों का।
घरों में तो वे क्यों पैठे।
ताकते मिले राह किसकी।
पहाड़ों पर पहरों बैठे॥2॥
 
किसलिए ऊपर-नीचे हो।
चोट पर चोटें सहते हैं।
चाट से क्यों गिरि-चोटी के।
चाटते तलवा रहते हैं॥3॥
 
तरस खाकर भी कितनों को।
वे बहुत ही तरसाते हैं।
कभी तर करते रहते हैं।
कभी मोती बरसाते हैं॥4॥
 
क्यों बहुत ऊपर उठते हैं।
किसलिए नीचे गिरते हैं।
किसलिए देख-देख उनको।
कलेजे कितने चिरते हैं॥5॥
 
कभी क्यों पिघल पसीजे रह।
प्यारे से वे जाते हैं भर।
कभी क्यों गरज-गरज बादल।
मारते रहते हैं पत्थर॥6॥
 
हवा को हवा बताते या।
हवा हित के दम भरते हैं।
भागते फिरते हैं घन या।
हवा से बातें करते हैं॥7॥
 
बरसता रहता है जल या।
आँख से आँसू छनता है।
कौन-से दुख से बादल का।
कलेजा छलनी बनता है॥8॥
 
दिखाकर अपना श्यामल तन।
कौन-से रस से भरते हैं।
घेरते-घिरते आकर घन।
किन दिलों में घर करते हैं॥9॥
 
जब मिले मिले पसीजे ही।
सके रस-बूँदों में भी ढल।
रंग अपना क्यों पानी खो।
बदलते रहते हैं बादल॥10॥
 
शारद-सुषमा
(14)
 
लसी क्यों नवल बधूटी-सी।
नीलिमा नीले नभ-तल की।
रँगीली उषा अंक में भर।
लालिमा क्यों छगुनी छलकी॥1॥
 
चन्द्र है मंद-मंद हँसता।
चाँदनी क्यों यों खिलती है।
बता दो आज दिग्वधू क्यों।
मंजु मुसुकाती मिलती है॥2॥
 
बेलियाँ क्यों अलबेली बन।
दिखाती हैं अलबेलापन।
पेड़ क्यों लिये डालियाँ हैं।
फूल क्यों बैठे हैं बन-ठन॥3॥
 
तितलियाँ नाच रही हैं क्यों।
गीत क्यों कीचक गाते हैं।
चहकती हैं क्यों यों चिड़ियाँ।
मधुप क्यों मत्त दिखाते हैं॥4॥
 
विमलसलिला सरिताएँ क्यों।
मधुर कल-कल ध्वनि करती हैं।
क्यों ललित लीलामय लहरें।
मंजु भावों से भरती हैं॥5॥
 
हिम-मुकुट हीरक-चय-मंडित।
नगनिकर ने क्यों पाया है।
धावलता मिस वसुधा-तल पर।
क्षीर-निधिक क्यों लहराया है॥6॥
 
सर कमल-कुल लोचन खोले।
किसे अवलोकन करते हैं।
कान्त कूलों पर सारस क्यों।
सरसता-सहित विचरते हैं॥7॥
 
पहनकर सजी सिता साड़ी।
तारकावलि मुक्तामाला।
आ रही है क्या विधु-वदना।
शरद-ऋतु-सी सुरपुर-बाला॥8॥
 
कुसुमाकर
(15)
 
बनाते क्यों हैं मन को मुग्ध।
गूँजते फिरते मत्त मिलिन्द।
कोंपलों से बन-बन बहु कान्त।
भ फल-फूलों से तरु-वृन्द॥1॥
 
अनारों-कचनारों के पेड़।
लाभ कर अनुरंजन का माल।
किस ललक का रखते हैं रंग।
लाल फूलों से होकर लाल॥2॥
 
कलाएँ कौन लाल की देख।
कर रही हैं लोकोत्तर काम।
कालिमा-अंक को बना कान्त।
पलाशों की लालिमा ललाम॥3॥
 
पा गये रंजित रुचिर पराग।
किसलिए हैं पुलकित जलजात।
मिले बहु विकसित कुसुम-समूह।
हुआ क्यों लसित लता का गात॥4॥
 
क्यों गुलाबी रंगत में डूब।
गुलाबों में झलका अनुराग।
खिले हैं क्यों गेंदे के फूल।
बाँधाकर सिर पर पीली पाग॥5॥
 
तितलियाँ क्यों करती हैं नृत्य।
पहनकर रंग-बिरंगे चीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
चल रहा है क्यों मलय-समीर॥6॥
 
दिशाओं को कर ध्वनित नितान्त।
सुनाता है क्यों पंचम तान।
बनाता है क्यों बहु उन्मत्ता।
कोकिलों का उन्मादक गान॥7॥
 
याद कर किसका अनुपम रूप।
गयी अपने तन की छवि भूल।
मुसकुराई क्यों किसपर रीझ।
रंगरलियाँ कर कलियाँ फूल॥8॥
 
हुआ क्यों वासर सरस अपार।
बनी क्यों रजनी बहु मधुमान।
मारता है शर क्यों रतिकान्त।
कान तक अपनी तान कमान॥9॥
 
आ गया कुसुमाकर ले साज।
प्रकृति का हुआ प्रचुर शृंगार।
धारा बन गयी परम कमनीय।
पहनकर नव कुसुमों का हार॥10॥
 
कमनीय कला
(16)
 
रंजिता राका-रजनी-सी।
बने उससे रंजनरत मति।
सरस बन जाए रस बरसे।
रसिक जन की रहस्यमय रति॥1॥
 
तामसी मानस का तम हर।
जगाये ज्योति अलौकिकतम।
चुराती रहे चित्त चसके।
चमककर चारु चाँदनी-सम॥2॥
 
सुधा बरसा-बरसा बहुधा।
क वसुधा का बहुत भला।
कलानिधि कान्त कला-सी बन।
कामिनी की कमनीय कला॥3॥
 
अमरपद
(17)
 
कवित्ता
 
कोई काल कैसे नाम उनका कगा लोप।
जिनको प्रसिध्द कर पाती है परम्परा।
जिनकी रसाल रचनाओं से सरस बन
रहता सदैव याद पादप हरा-भरा।
'हरिऔध' होते हैं अमर कविता से कवि।
कमनीय कीत्तिक है अमरता सहोदरा
सुधा हैं बहाते कवि-कुल वसुधातल में।
सुधा कवि-कुल को पिलाती है वसुंधरा॥1॥
 
चिरजीवी कैसे वे रसिक जन होंगे नहीं
नाना रस ले-ले जो रसायन बनाते हैं।
लोग क्यों सकेंगे भूल उन्हें जो लगन साथ
कीत्तिक-वेलि उर-आलबाल में लगाते हैं।
'हरिऔध' कैसे वे न जीवित रहेंगे सदा
जग में सजीव कविता जो छोड़ जाते हैं।
कैसे वे मरेंगे जो अमर रचनाएँ कर
मर मेदिनी ही में अमरपद पाते हैं॥2॥
 
जले तन
(18)
 
बावले बन जाते थे हम।
देख पाते जब नहीं बदन।
याद हैं वे दिन भी हमको।
वारते थे जब हम तन-मन॥1॥
 
कलेजे छिले पड़े छाले।
हो रही है बेतरह जलन।
आग है सुलग रही जी में।
कहायें क्यों न अब जले तन॥2॥
 
(19)
 
फूले-फले
 
बुरों से बुरा नहीं माना।
भले बन उनके किए भला।
हमारी छाया में रहकर।
चाल चलकर भी लोग पले॥1॥
 
पास आ क्यों कोई हो खड़ा।
हो गये हैं जब हम खोखले।
कहाँ थी पूछ हमारी नहीं।
कभी थे हम भी फूले-फले॥2॥
 
(20)
 
कलियाँ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
बीच में ही जाती हैं लुट।
क्या उन्हें कोई समझाये।
कलेजा मुँह को आता है।
किसलिए सितम गये ढाये॥1॥
 
बुरी है दुनिया की रंगत।
किसलिए कोई घबराए।
क्या कहे बातें कलियों की।
फूल तो खिलने भी पाए॥2॥
 
(21)
 
फूल
 
रंग कब बिगड़ सका उनका।
रंग लाते दिखलाते हैं।
मस्त हैं सदा बने रहते।
उन्हें मुस्काते पाते हैं॥1॥
भले ही जियें एक ही दिन।
पर कहाँ वे घबराते हैं।
फूल हँसते ही रहते हैं।
खिला सब उनको पाते हैं॥2॥
 
(22)
 
विवशता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
मल रहा है दिल मला क।
कुछ न होगा आँसू आये।
सब दिनों कौन रहा जीता।
सभी तो मरते दिखलाये॥1॥
हो रहेगा जो होना है।
टलेगी घड़ी न घबराये।
छूट जायेंगे बन्धान से।
मौत आती है तो आये॥2॥
 
(23)
 
प्यासी आँखें-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
कहें क्या बातें आँखों की।
चाल चलती हैं मनमानी।
सदा पानी में डूबी रह।
नहीं रख सकती हैं पानी॥1॥
 
लगन है रोग या जलन है।
किसी को कब यह बतलाया।
जल भरा रहता है उनमें।
पर उन्हें प्यारेसी ही पाया॥2॥
 
(24)
 
आँसू और आँखें
 
दिल मसलता ही रहता है।
सदा बेचैनी रहती है।
लाग में आ-आकर चाहत।
न जाने क्या-क्या कहती है॥1॥
 
कह सके यह कोई कैसे।
आग जी की बुझ जाती है।
कौन-सा रस पाती है जो।
आँख आँसू बरसाती है॥2॥
 
(25)
 
आँख का जलना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
ललाई लपट हो गयी है।
चमक बन पाई चिनगारी।
आँच-सी है लगने लग गयी।
की गयी जो चोटें कारी॥1॥
 
फूलना-फलना औरों का।
चाहिए क्या इतना खलना।
बिना ही आग जल रही है।
आँख का देखो तो जलना॥2॥
 
(26)
 
आँख फूटना
 
और का देखकर भला होते।
है भलाई उमंग में आती।
है सुजनता बहुत सुखी होती।
रीझ है रंगते दिखा जाती॥1॥
 
जो न अनदेखपन बुरा होता।
किसलिए डाह कूटती छाती।
तो किसी नीच की बिना फूटे।
किसलिए आँख फूटने पाती॥2॥
 
(27)
 
आँख की चाल
 
लाल होती हैं लड़ती हैं।
चाल भी टेढ़ी चलती हैं।
बदलते भी उनको देखा।
बला लाती हैं, जलती हैं॥1॥
 
बिगड़ती-बनती रहती हैं।
उन्होंने खिंचवाई खालें।
भली हैं कभी नहीं आँखें।
देख ली हैं उनकी चालें॥2॥
 
(28)
 
आँख और अमृत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
करें जो हँस-हँसकर बातें।
बिना ही कुछ बोले-चाले।
पिलायें प्यारे दिखाकर जो।
छलकते प्रिय छवि के प्यारेले॥1॥
 
बनी आँखें ही हैं ऐसी।
उरों में जो अमृत ढालें।
सदा जो ज्योति जगा करके।
ऍंधो में दीपक बालें॥2॥
 
(29)
 
आँख और ऍंधोर
 
दिवाकर की भी हुई कृपा न।
भले ही वे हों किरण-कुबेर।
उसे दिन भी कर सका न दूर।
सामने जो था तम का ढेर॥1॥
 
ज्योति भी भागी तजकर संग।
दृगों पर हुआ देख ऍंधोर।
कौन किसका देता है साथ।
दिनों का जब होता है फेर॥2॥
 
(30)
 
नुकीली आँख
 
प्यारे के रंगों में रँगकर।
अगर बन गयी रँगीली हो।
क्या हुआ तो जो हो चंचल।
फबीली हो, फुरतीली हो॥1॥
 
चाहते हैं रस हो उसमें।
आँसुओं से वह गीली हो।
अगर है नोक-झोंक तो क्या।
भले ही आँख नुकीली हो॥2॥
 
(31)
 
नयहीन नयन
 
दिखाकर लोचन अपना लोच।
नहीं करते किसको आधीन।
किन्तु ऐसा है कौन कठोर।
कौन दृग-सा है दयाविहीन॥1॥
 
चुराता है चित को चुपचाप।
लिया करता है मन को छीन।
कलेजे में करता है छेद।
नयन कितना है नय से हीन॥2॥
 
(32)
 
ज्योतिविहीन दृग
 
उस दिवाकर को जिसका तेज।
दिया करता है परम प्रकाश।
उस दिवस को जो ले दिव-दीप्ति।
किया करता है तम का नाश॥1॥
 
उस कुमुद को जो है बहु कान्त।
कौमुदी जिसकी है द्युति पीन।
उन ग्रहों को जो हैं अति दिव्य।
क क्या ले दृग ज्योति-विहीन॥2॥
 
(33)
 
अंधी आँखें
 
कलेजों को देती है बेधा।
चलाकर तीखे-तीखे तीर।
छातियों को देती है छील।
किसलिए बन-बनकर बेपीर॥1॥
 
सितम करती है अंधाधुंधा।
तनिक भी नहीं लगाती देर।
किसलिए अंधी बनकर आँख।
मचाती है इतना अंधोर॥2॥
 
(34)
 
आनन्द
 
कंज का है दिनमणि से प्यारे।
चन्द्रमा है चकोर-चितचोर।
नवल घन श्यामल कान्ति विलोक।
नृत्य करने लगता है मोर॥1॥
 
पपीहा है स्वाती-अनुरक्त।
भ्रमर को है जलजात पसन्द।
वही करता है उससे प्रीति।
मिला जिसको जिससे आनन्द॥2॥
 
(35)
 
बड़ी-बड़ी आँखें
 
छोड़ सीधी सधी भली राहें।
जब बुरी राह में अड़ी आँखें।
बेकसों और बेगुनाहों पर।
बेतरह जब कड़ी पड़ी आँखें॥1॥
 
जब न सीधी रहीं बनी टेढ़ी।
लाड़ को छोड़कर लड़ी आँखें।
रह गयी कौन-सी बड़ाई तब।
क्यों न सोचे बड़ी-बड़ी आँखें॥2॥
 
(36)
 
आँख की कला
 
बहुत रस बरसाया है तो।
बनाया है मतवाला भी।
तनों में जीवन डाला है।
तो पिलाया विष-प्यारेला भी॥1॥
 
रखी जो मुँह की लाली तो।
बनाया है मुँह काला भी।
सुधारस जो है आँखों में।
तो हलाहल है, हाला भी॥2॥
 
(37)
 
बला की पुतली
 
रीझ को आँख अगर होती।
प्रेम होता न अगर अंधा।
लगन जो लाग में न आती।
समझ सकती अपना धंधा॥1॥
 
काम ले कई कलाओं से।
किसलिए तो कोई छलता।
बला की पुतली आँखों पर।
भला कैसे जादू चलता॥2॥

(38)
 
आँखों की मचल
 
कभी है पलक नहीं उठती।
कभी तिरछे चलती हैं वे।
बाँकपन कभी दिखाती हैं।
कभी लड़-भिड़ खलती हैं वे॥1॥
 
रंगतें बदला करती हैं।
छवि दिखाकर हैं छलती वे।
मचलनेवाली आँखें हैं।
किसलिए नहीं मचलतीं वे॥2॥
 
(39)
 
आँख की लालिमा
 
पूत सम्बन्धा दिव्य मन्दिर में।
लाग की आग आ लगाये क्यों।
प्रेम की अति ललाम लाली को।
क्रोधा की लालिमा जलाये क्यों॥1॥
 
रंग अनुराग का अगर बिगड़ा।
अंधता ही अगर लुभाती है।
था भला आँख फूट जाती जो।
लालिमा कालिमा कहाती है॥2॥
 
(40)
 
आँख दिखलाना
 
बेतुकी बात बेतुके मुँह की।
है किसी से नहीं सुनी जाती।
क्यों न जी जायगा बिगड़ कोई।
जो छिनी जाय जन्म की थाती॥1॥
 
जाति की दृष्टि घिन-भरी ओछी।
जाति से है सही नहीं जाती।
आँख जो देखना पड़ा है तो।
क्यों नहीं आँख आँख दिखलाती॥2॥
 
(41)
 
लाल-लाल आँखें
 
भाव ही भाव का विधायक है।
किसलिए हम कहीं दलक देखें।
चित्रा क्यों आँकते रहे अरुचिर।
क्यों नहीं मंजु छवि छलक देखें॥1॥
 
क्यों विलोकें विरोधिकनी बातें।
क्यों न मनमोहिनी झलक देखें।
क्यों नहीं लाल-लाल आँखों में।
हम किसी लाल की ललक देखें॥2॥
 
(42)
 
आँसू-भरी आँखें
 
हैं दिलों को नरम बना देती।
मैल मन का कभी मिलीं धोती।
हैं किसी चित्त में जगह करती।
हैं उरों में भरी कसर खोती॥1॥
 
आग जी की कहीं बुझाती हैं।
हैं कहीं बीज प्यारे का बोती।
आँसुओं से भरी हुई आँखें।
हैं कहीं पर बखेरती मोती॥2॥
 
(43)
 
प्यारे और आँख
 
जो किसी से नहीं भ हैं हम।
क्यों न हित का उभार तो होगा।
चल रहा ठीक-ठीक बेड़ा है।
किसलिए वह न पार तो होगा॥1॥
 
है कसर जो भरी नहीं जी में।
क्यों न संसार यार तो होगा।
प्यारे से हैं अगर भरी आँखें।
क्यों न दिल में दुलार तो होगा॥2॥
 
(44)
 
आँखों के डो
 
रंग रखना पड़ा इसी से ही।
हैं किसी रंग से न को ये।
है लसी लाल लालिमा जिसमें।
हैं उसी रंग-बीच बो ये॥1॥
 
लोक-अनुराग के रुचिर सर के।
हैं बड़े ही ललित हिलो ये।
हैं लकीरें ललामता-कर की।
आँख के लाल-लाल डो ये॥2॥
 
(45)
 
कान्त छवि के विकास अनुपम हैं।
या किसी राग के बसे हैं।
लालसा के सरस नमूने हैं।
या लगन के ललाम घे हैं॥1॥
 
या रुचिर रस सुचारु कर विचरित।
भाव के कान्ततम फ हैं।
आँख के रंग में रँगे डो।
कौन-से चित्रा के चिते हैं॥2॥
 
(46)
 
आँख की सितता
 
है हँसी-सी विकासवाली वह।
है मुकुर-सी मनोज्ञ आभामय।
है दिखा दिव्यता दमक जाती।
है ललिततम ललामता-आलय॥1॥
 
है सहज भाव के सहित उसमें।
सात्तिवकी वृत्तिक की अपरिमितता।
है सिता-सी मनोहरा सरसा।
है सुधा-सिक्त आँख की सितता॥2॥
 
(47)
 
काली पुतली
 
कालिमामयी कहें उसको।
बतायें उसे गरलवाली।
न सुन्दरता होवे उसमें।
ऐंठ लेवे कोई लाली॥1॥
 
किन्तु उससे ही मिलती है।
लोक-आँखों की उँजियाली।
जगत में ऍंधिकयाला होता।
न होती जो पुतली काली॥2॥
 
(48)
 
रँगी आँखें
 
जगमगाती न किसलिए मिलतीं।
ज्योति के जाल से जगी आँखें।
देखने को ललामता भव की।
क्यों ललककर न हों लगी आँखें॥1॥
 
भूलतीं क्यों भलाइयाँ विभु की।
प्रेम के पाग में पगी आँखें।
क्यों नहीं श्यामता-रता होतीं।
श्याम के रंग में रँगी आँखें॥2॥
 
(49)
 
आँख की लालिमा
 
उषा-सी लोक-रंजिनी बन।
साथ लाती है उँजियाली।
अलौकिक कान्ति-कला दिखला।
दूर करती है अंधियारा ।
 
बना करती है बन-ठन के।
छलकती छविवाली प्यारेली।
लालिमा विलसित आँखों की।
मुँहों की रखती है लाली॥2॥
 
(50)
 
लसती लालिमा
 
सुखों को सुखित बनाती है।
ललकते उर में है बसती।
सदा अनुराग-रंग दिखला।
प्यारेवालों को है कसती॥1॥
 
कभी खिलती मिल जाती है।
कभी दिखलाती है हँसती।
कालिमा को कलपाती है।
लालिमा आँखों में लसती॥2॥
 
(51)
 
आँख का पानी
 
मुँह दिखाते बने न औरों को।
और मुँह की सदा पड़े खानी।
पत उतर जाय, हो हँसी, ऐसी
हो किसी से कभी न नादानी॥1॥
बेबसी, बेकसी, खुले खुल ले।
बेहयाई न जाय पहचानी।
बह सके तो घड़ों बहे आँसू।
पर न गिर जाय आँख का पानी॥2॥
 
(52)
 
लजीली आँख
 
हो सकी जब कि लाल-पीली तू।
तब कहें क्योंकि तू रसीली है।
जब कटीली कहा गया तुझको।
तब कहें क्यों कि तू छबीली है॥1॥
फबतियाँ लोग जब लगे लेने।
तब कहें क्योंकि तू फबीली है।
जब नहीं लाज रख सकी अपनी।
तब कहाँ आँख तू लजीली है॥2॥
 
(53)
 
अपने दुखड़े
 
हम बलाएँ लिया करें उनकी।
और हम पर बलाएँ वे लाएँ।
है यही ठीक तो कहें किससे।
क्या करें चैन किस तरह पाएँ॥1॥
 
किस तरह रंग में रँगे उनको।
आह को कौन ढंग सिखलाएँ।
जो पसीजे न आँसुओं से वे।
क्यों कलेजा निकाल दिखलाएँ॥2॥
 
(54)
 
आँसू
 
साँसतें करके औरों की।
साँसतें सहते हैं आँसू।
अगर कुछ असर नहीं रखते।
किसलिए बहते हैं आँसू॥1॥
 
क्यों नहीं उसके सब दुखड़े।
किसी से कहते हैं आँसू।
कलेजा मलने ही से तो।
निकलते रहते हैं आँसू॥2॥
 
(55)
 
आँसू की बूँद
 
नरम करती है जो मन को।
तो भलाई कर पाती है।
पर गरम बन करके वह क्यों।
किसी का भरम गँवाती है॥1॥
 
ठीक करती रहती है जो।
कहीं की आग बुझाती है।
बूँद आँसू की पानी हो।
कहीं क्यों आग लगाती है॥2॥
 
(56)
 
टपकते आँसू
 
रंग में औरों के दुख के।
कब नहीं रँगते हैं आँसू।
भला औरों का करने को।
सदैव उमगते हैं आँसू॥1॥
 
पास रहकर आहें सुन-सुन।
प्रेम में पगते हैं आँसू।
बढ़ गये टपक फफोलों की।
टपकने लगते हैं आँसू॥2॥
 
(57)
 
आँसू
 
दूसरों का दुख औरों से।
कौन कातर बन कह पाया।
पास सा पीड़ित जन के।
तरस खा-खाकर रह पाया॥1॥
 
समय की सभी साँसतों को।
कौन साहस कर सह पाया
जगत-दुख की धाराओं में।
कौन आँसू-सा बह पाया॥2॥
 
(58)
 
आँख का रोना
 
सामने दुख-रवि को देखे।
कब नहीं बन पाई कोई।
देख करके आहें भरते।
सभी नींदें किसने खोईं॥1॥
न जाने कितनी रातों में।
वे नहीं सुख से हैं सोई।
कौन रोया इतना, जितनी।
आजतक आँखें हैं रोई॥2॥
 
(59)
 
आँख का जल
 
पास अपने कोई पापी।
नहीं पाता पावन सोता।
बड़े ही बु-बु धाब्बे।
अधाम प्राणी कैसे धोता॥1॥
 
कालिमामय कोई कैसे।
कालिमाएँ अपनी खोता।
जलन जी की कैसे जाती।
जो न आँखों का जल होता॥2॥
 
(60)
 
आँसू का बरसना
 
जी तड़पता है तो तड़पे।
पता क्यों पाते हैं आँसू।
नहीं रुकते हैं रोके से।
चले दिखलाते हैं आँसू॥1॥
 
आज क्यों मेरी आँखों में।
उमड़ते आते हैं आँसू।
लगाकर होड़ बादलों से।
क्यों बरस जाते हैं आँसू॥2॥
 
(61)
 
आँसू और धूल
 
बूँद बन गये मोतियों-से।
दृगों में हिलते हैं आँसू।
किसी को रस देने के लिए।
आम-से छिलते हैं आँसू॥1॥
 
प्यारेवाली बहु आँखों में।
बहुत ही खिलते हैं आँसू।
एक दिन ऐसा आता है।
धूल में मिलते हैं आँसू॥2॥
 
(62)
 
आँख भर आना
 
सदय निर्दय को करता है।
लोचनों में लाया आँसू।
कठिन को मृदुल बनाता है।
जन-नयन में छाया आँसू॥1॥
 
द्रवित कर देता है चित को।
दृगों में दिखलाया आँसू।
उरों में भरता है करुणा।
आँख में भर आया आँसू॥2॥
 
(63)
 
आँसू का तार
 
रात बीते दिन आता है।
धूप में मिलती है छाया।
तब कहाँ रह जायेगा दुख।
जहाँ मुख सुख ने दिखलाया॥1॥
 
चाहिए धीरज भी रखना।
बहुत ही जी क्यों घबराया।
पता पा जायेंगे दिल का।
तार आँसू का लग पाया॥2॥
 
(64)
 
आँसू का चलना
 
विरह की क्यों कटतीं रातें।
बीतते दुख के दिन कैसे।
जलन किस तरह दूर होती।
क्यों भला मिलते सुख वैसे॥1॥
 
ह बनकर क्यों हो पाते।
कलेजे जैसे-के-तैसे।
न चलते जो वैसे आँसू।
मिले सोते बहते जैसे॥2॥
 
(65)
 
आँख की पट्टी
 
यह कभी समझ नहीं पाते।
वस्तु मीठी है या खट्टी।
पर कमर कस सब लोगों को।
पढ़ाते रहते हैं पट्टी॥1॥
 
बड़ाई अब इसमें ही है।
बनेंगे धाखे की टट्टी।
भला कैसे खुल पाएँगी।
बँधी है आँखों पर पट्टी॥2॥
 
(66)
 
आँख में उँगली
 
बगल में बैठ-बैठ करके।
लगाते रहते हैं बगली।
पर बताते ही रहते हैं।
और की दौलत को कँगली॥1॥
 
समझ करतूतों को देखे।
बनी ही रहती है पगली।
पर चलेंगे उलटी चालें।
करेंगे आँखों में उँगली॥2॥
 
(67)
 
जी की गाँठ
 
ऐंठ दिखलाकर ऐंठेंगे।
सुनेंगे बात नहीं धी की।
बहुत ही गहरी हो रंगत।
पर कहेंगे उसको फीकी॥1॥
 
पेट जलता ही रहता हो।
पूरियाँ खायेंगे घी की।
करेंगे गँठजोड़ा तो भी।
खुलेगी गाँठ नहीं जी की॥2॥
 
(68)
 
काल और समय
 
आँख में जगह मिली जिसको।
कलेजे में जो पल पाया।
अंक में कल कपोल ने ले।
जिसे मोती-सा चमकाया॥1॥
 
समय की बात निराली है।
काल कब किसका कहलाया।
वही आँसू भूतल पर गिर।
धूल में मिलता दिखलाया॥2॥
 
(69)
 
आँसू और दिल
 
आँसुओ, यह बतला दो, क्यों।
कभी झरनों-सा झरते हो।
कभी हो झड़ी लगा देते।
कभी बेतरह बिखरते हो॥1॥
 
गिर गये जब आँखों से तब।
किसलिए उनको भरते हो।
निकल आये दिल से, तब क्यों।
फिर जगह दिल में करते हो॥2॥
 
(70)
 
कोई दिल
 
आग को तब बुझते देखा।
जब बुझाये उसको पानी।
भागना जलते को तजकर।
बताई गयी बेइमानी॥1॥
 
तुम्हें आता देखे आँसू।
दुखी हो आँख बहुत रोई।
निकल जल रहे कलेजे से।
खोजते हो क्या दिल कोई॥2॥
 
(71)
 
पानी खोना
 
कभी है चित्त सुखित होता।
दुखों से सुख का मुख धाोकर।
चमकने लगता है सोना।
आँच खाकर निर्मल होकर॥1॥
 
कलेजा होता है ठंढा।
बहाकर आँसू रो-रोकर।
आग जी की बुझ जाती है।
बड़ा प्यारा पानी खोकर॥2॥
 
(72)
 
आँख और कालिमा
 
कीत्तिक कर वर वितान भव में।
कान्त सितता से तनती हैं।
दिखा स्वाभाविक सुन्दरता।
सरस भावों में सनती हैं॥1॥
 
लालिमा की ललिताभा से।
रुचिर-रुचियों को जनती हैं।
कालिमा से कलंकिता हो।
कलमुँही आँखें बनती हैं॥2॥
 
(73)
 
आँसू छनना
 
कपोलों पर गिर पड़ते हैं।
कभी काजल से सनते हैं।
बाल के फंदों में फँसकर।
बेड़ियाँ कभी पहनते हैं॥1॥
 
बरौनी से छिद जाते हैं।
कभी बेबस-से बनते हैं।
कौन-सी छान-बीन में पड़।
आँख से आँसू छनते हैं॥2॥
 
(74)
 
दिल और आँसू
 
पसीजे उन्हें देख वे भी।
सितम जो करते रहते हैं।
बहे उनके वे भी पिघले।
संगदिल जिनको कहते हैं॥1॥
 
जले तन को जल बनते हैं।
कलेजा तर कर देते हैं।
आँख में भर-भरकर आँसू।
दिलों में घर कर लेते हैं॥2॥
 
(75)
 
तिल और आँसू
 
सामना दुख-लहरों का कर।
सुखों की नावें खेते हैं।
लगे रहते हैं त्यों हित में।
विहग ज्यों अण्डे सेतें हैं॥1॥
 
दूर कर बला दूसरों की।
बलाएँ सिर पर लेते हैं।
आँख के तिल से मिल आँसू।
मोम सिल को कर देते हैं॥2॥
 
(76)
 
निकलें आँसू
 
मकर के हाथ मोह में पड़।
भूल करके बिक लें आँसू।
हँसी के फंदों में फँसकर।
वहाँ कुछ क्षण टिक लें आँसू॥1॥
 
कहाँ किसने उनको छेंका।
कुछ घड़ी तक छिंक ले आँसू।
छुड़ाना है दुख से दिल को।
क्यों न दृग से निकलें आँसू॥2॥
 
(77)
 
बूँदों में
 
बहुत-से खेल मिले महि के।
खेलाड़ी की कुछ कूदों में।
भरा है भव का मीठापन।
फलों के मधुमय गूदों में॥1॥
 
असुख ऊँचे पहाड़ देखे।
छिपे कुछ छोटे तूदों में।
रहा है दुख-सागर लहरा।
आँसुओं की कुछ बूँदों में॥2॥
 
(78)
 
दिव्य दृष्टि
 
किसी में हास मिला हँसता।
किसी में दुख-दल दिखलाया।
किसी में विरह बिलखता था।
किसी में पीड़ा को पाया॥1॥
 
किसी में खिंची हुई देखी।
कलह की बड़ी कुटिल खा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
दृष्टि को दिव्य बना देखा॥2॥
 
(79)
 
खुली आँखें
 
किसी में मकर मिला फिरता।
किसी में भूख भरी पाई।
किसी में चोट तड़पती थी।
किसी में साँसत दिखलाई॥1॥
 
किसी में लगन की लहर थी।
किसी में था लानत-लेखा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
खोलकर आँखों को देखा॥2॥
 
(80)
 
आँसू आना
 
पतित तो पैसे वाले हैं।
पेट पचके जो पाते हैं।
तब कहाँ भलमनसाहत है।
जो नहीं भूखे भाते हैं॥1॥
 
लोग तो पड़े भूल में हैं।
भले कैसे कहलाते हैं।
देख दुखिया-दुख आँखों में।
जो नहीं आँसू आते हैं॥2॥
 
(81)
 
आँसू गिरना
 
किसलिए कढ़ें कलेजे से।
बला से क्यों न घिरें आँसू।
कभी दुख-जल-लहरों में आ।
न तो उभरें न तिरें आँसू॥1॥
 
किसी की आँखों में आकर।
फिरायें क्यों न फिरें आँसू।
देश की गिरी दशा देखे।
गिराये जो न गिरें आँसू॥2॥
 
(82)
 
आँसुओं का सागर
 
अंक में रुचि के भरता है।
मोद मुक्ता-छवि से छहरा।
दिव्यतम भव को करता है।
कीत्तिक का कान्त केतु फहरा॥1॥
 
भाव पर सरस तरंगों से।
रंग दे देता है गहरा।
प्रेम-परिपूरित आँखों में।
आँसुओं का सागर लहरा॥2॥
 
(83)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
थोड़ा ज्ञान हुए, महान बनना, सीधो नहीं बोलना।
मान्यों का करना न मान, सुनना बातें न धीमान की।
बोना बीज प्रपंच का सदन में, बातें बनाना वृथा।
लेना काम न बुध्दि से खल मिले, है बुध्दिमत्तक नहीं॥1॥
 
देखे दुर्गति देश की, विवशता उत्पीड़िता जाति की।
देखे क्रन्दन क्षुधादग्धा जन का, संताप संत्रास्त का।
देखे धवंस प्रशंसनीय कुल का, निर्वंश सद्वंश का।
जाते हैं जल क्यों नहीं, सजल हो पाते नहीं नेत्र जो॥2॥
 
तो है व्यर्थ अपूर्व वाक्य-रचना ओजस्विनी वक्तृता।
तो है व्यर्थ गभीर गर्जन, बुरी है दीर्घ आयोजना।
तो है व्यर्थ समस्त व्यंग्य, गहरी आलोचना लोक की।
सेवा हो सकती अनन्य मन से जो मातृ-भू की नहीं॥3॥
 
है लक्षाधिकप की कमी न, फिर भी कंगाल हैं कोटिश:।
होते हैं व्यय व्यर्थ; किन्तु बहुश: हैं पीच पाते नहीं।
होती है बहु दुर्दशा, पर खड़े होते नहीं रोंगटे।
देती है व्यथिता बना न मति को क्यों भारती-भू-व्यथा॥4॥
 
भीता है वह सत्प्रवृत्तिक जिससे भू को मिली भव्यता।
त्यक्ता है वह शान्ति जो जगत है क्रान्ति-विधवंसिनी।
देखे दुर्गति नीति की मनुजता अत्यन्त है चिन्तिता।
यों हो मर्दित भारतीय सुत से क्यों भारती-भूतियाँ॥5॥
 
होवे पावनतारता सुचरिता सद्वृत्तिक से पूरिता।
कान्ता कीत्तिक-कलाप से विलसिता लोकोपकारांकिता।
पा सत्यामृत का प्रवाह सरसा होती रहे सर्वदा।
सद्भावाचल-शृंग से निपतिता हो भारती-भू नहीं॥6॥
 
पाके श्री सुत सर्वदा सुखित हो होवें यशस्वी सुधी।
ऐसी उत्ताम नीति हो, बन सके जो प्रीति-संवर्ध्दिनी।
होवे मानवता-प्रवृत्तिक प्रबला हो लालसा उज्ज्वला।
होवे भारत-भू भला, उतरती दीखे सदा आरती॥7॥
 
वेदों से भववंद्य ग्रंथ किसकी सद्वृध्दि के स्वत्व हैं।
पैदा हैं किसने किये सुअन वे जो सत्यसर्वस्व हैं।
ऊँचा है कहता हिमाद्रि किसको सर्वोच्चता को दिखा।
पाके भारत-सा सपूत भव में है भाग्यमाना मही॥8॥
 
हो पाये-अवतार भार हरने की दृष्टि से जी जहाँ।
भाराक्रान्त जिसे विलोक विधिक भी होते महाभीत थे।
तो होगा बहुदग्धा क्यों न उर, क्यों होगी न पीड़ा बड़ी।
जो भारत के भारभूत नर से हो भारभूता धारा॥9॥
 
क्यों होगा उसका उभार उसमें होगी न क्यों भीरुता।
होते भी सुविभूतियाँ न वह क्यों होगी व्यथा से भरी।
दैवी भूति-निकेत दिव्यसुर-से प्राणी कहाँ हैं हुए।
भीता भारत-जात भार-भय से क्यों भारती-भूमि हो॥10॥
 
है औदार्यमयी समस्त भव के सद्भाव से है भरी।
होती है मुदिता विलोक जगती लीलावती मूर्तियाँ।
सारी मोहक मंजु सृष्टि-ममता है मोह लेती उसे।
संसिक्ता रस से महानहृदया है विश्व की बंधुता॥11॥
 
तो हत्या करतीं कभी न इतनी पापीयसी वृत्तिकयाँ।
हो पाई जितनी जिन्हें सुन किसे होती नहीं है व्यथा।
तो धार्मान्धा नहीं कृतान्त बनते कृत्या कहाती न धीरे।
प्राणी निष्ठुर चित्तमध्य बसती जो विश्व की बन्धुता॥12॥
 
वे दानव हैं जो अधर्म करते हैं धर्म की ओट में।
वे हैं पामर ढूँढ़ते गरल हैं जो पुण्य-पाथोधिक में।
वे सद्ग्रंथ कदापि हैं न जिनमें है ईदृशी पंक्तियाँ।
जो है धर्म-विहीन, विश्व-ममता के मर्म से वंचिता॥13॥
 
देते हैं प्रिय ज्योति मंद हँसके हैं मोह लेते उसे।
हैं ता-सम नेत्र के, वसुमती के 'इन्दु' आनन्द हैं।
वे आके रस जो नहीं बरसते, होती रसा क्यों रसा।
तो होती वसुधा न सिक्त, कर में होती सुधा जो नहीं॥14॥
 
तो होता तम-भरा सर्व महि में होती न दृश्यावली।
तो होती मलिना दिशा न मिलती छाई कहीं भी छटा।
हो जाती मरु-मेदिनी, नयनता पाती महाअंधता।
देते जो न दिनेश दिव्य बनके भू-भूमि को दिव्यता॥15॥

चतुर्दश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सत्य का स्वरूप
विभु-विभूति
(1)
भरा है नभतल में भरपूर।
कौन-से श्यामल तन का रंग।
मिले किसके कर का अवलंब।
अधर में उड़े असंख्य पतंग॥1॥
 
किस अलौकिक विभु का बन भव्य।
आरती करती है सब काल।
जगमगाती जगतीतल-ज्योति।
गगन में अगिणत दीपक बाल॥2॥
 
किसे अर्पित होता है नित्य।
उषा के अन्तर का अनुराग।
चाँदनी खिलती मिलती है।
लाभ कर किसका दिव्य सुहाग॥3॥
 
बताता है किसको रसधाम।
बरस, घन, नभ में हो समवेत।
किया करता है उन्नत मेरु।
उच्चता का किसका संकेत॥4॥
 
किसे देते हैं पादप-वृन्द।
बहु नमित हो फल का उपहार।
पिन्हाती हैं लतिकाएँ रीझ।
किसे कल कुसुमावलि का हार॥5॥
 
किसे नदियाँ कर कल-कल नाद।
सुनाती हैं अति सुन्दर तान।
याद कर किसको विपुल विहंग।
किया करते हैं मंजुल गान॥6॥
 
उठा करती है उदधिक-तरंग।
चूमने को किसका पग पूत।
वितरता है सौरभ-संभार।
मलय-मारुत बन किसका दूत॥7॥
 
तिमिर में है जगती भव-ज्योति।
भाव में है सच्ची अनुभूति।
विलोकें क्यों न दृगों को खोल।
कहाँ है विभु की नहीं विभूति॥8॥
 
सनातन धर्म
छप्पय
(2)
 
वह लोकोत्तर सत्य नियति का जो है धाता।
भव की अनुभव-पूत भक्ति का जो है दाता।
वर विवेक-विज्ञान-नयन का जो है तारा।
पाकर जिसकी ज्योति जगमगाया जग सारा।
हैं भुक्ति-मुक्ति जिसकी प्रिया शुचितम जिसका कर्म है।
सब काल एकरस जो रहा वही सनातन धर्म है॥1॥
 
वंदनीयतम वेदमन्त्रा उसके हैं ज्ञापक।
सकलागम हैं परम अगम महिमा के मापक।
उसकी विभुता विविध उपनिषद हैं बतलाते।
सा नियमन नियम स्मृति सकल हैं सिखलाते।
उसके आदर्श पुराण के कथानकों में हैं कथित।
भारत-से अनुपम ग्रंथ में उसकी गरिमा है ग्रथित॥2॥
 
मानवता का मूल सदाशयता का मं र।
सदाचार कमनीय स्वर्ग का पूज्य पुरंदर।
भव-सभ्यता-सुमेरु दिव्यता का कल केतन।
लोक-शान्ति का सेतु भव्य भावना-निकेतन।
नायक है सकल सुनीति का, नैतिक बल का है जनक।
है वह पारस जिसको परस लोहा बनता है कनक॥3॥
 
सर्वभूत-हित-महामन्त्रा का सबल प्रचारक।
सदय हृदय से एक-एक जन का उपकारक।
सत्य भाव से विश्व-बंधुता का अनुरागी।
सकल-सिध्दि-सर्वस्व सर्वगत सच्चा त्यागी।
उसकी विचार-धारा धारा के धार्मों में है बही।
सब सार्वभौम सिध्दान्त का आदि प्रवर्तक है वही॥4॥
 
बुध्ददेव के धर्मभाव में वही समाया।
उसको ही जरदश्त-हृदय में विलसित पाया।
है ईसा की दिव्य उक्ति का वही विधाता।
वही मुहम्मद की विभूति का है निर्माता।
अवनीतल का सारा तिमिर उसके टाले ही टला।
वह है वह पलना सकल-मत-शिशु जिस पलने में पला॥5॥
 
पशु मानव हो गये लाभ कर दिव्य सहारा।
पावन बने अनेक अपावन जिसके द्वारा।
जो दे-दे बहु कष्ट लोक-कंटक कहलाया।
उसने कुसुम-समान उसे भी रुचिर बनाया।
सिदियन-सी कितनी जातियाँ चारु रंगतों में ढलीं।
पाकर उसको सुधारीं सधीरें सफल बनीं फूलीं-फलीं॥6॥
 
उसके खोले खुले बड़े पेचीले ताले।
उसने सुलझा दिये, गये जो उलझन डाले।
खुली कौन-सी ग्रंथि नहीं उसके कर द्वारा।
दिया उसी ने तोड़ विश्व का बन्धान सारा।
देश काल को देख कब बना नहीं वह दिव्यतर।
कब उसने गति बदली नहीं समय-प्रगति अवलोककर॥7॥
 
है उसमें वह भूति जो असुर को सुर कर दे।
है उसमें वह शान्ति शान्ति जो भव में भर दे।
है उसमें वह शक्ति पतित को पूत बनाये।
है उसमें वह कान्ति रजकणों को चमकाये।
जिससे अमनुजता असमता सब दिन रहती है डरी।
उसकी उदारतम वृत्तिक में वह उदारता है भरीे॥8॥
 
अचल हिमाचल उठा शीश गुणगण गाता है।
पावनता सुरसरित का सलिल बतलाता है।
गाकर गौरव-गीत विबुध बल-बल जाते हैं।
अवनीतल में कीत्तिक-पताके लहराते हैं।
उसकी संस्कृति के सूत्र से सुख-वितान जग में ताना।
उसके बल से संसार में भारत-मुख उज्ज्वल बना॥9॥
 
ऐसा परम पुनीत सनातन धर्म निराला।
दूर क सब तिमिर दिखा बहु दिव्य उजाला।
भ्रम-प्रमाद-वश कभी न वह अनुदार कहाये।
सब उससे सुर-तरु-समान वांछित फल पाये।
जल पवन रवि-किरण-सम उसे।
मनुज-मात्रा अपना कहे।
सा वसुधातल में सदा।
शान्ति-सुधा-धारा बहे॥10॥
 
भाव-विभूति
(3)
 
बहुत सूखे हृदयों को सींच।
सरसता कर असरस को दान।
दया है उस द्रविता का नाम।
बरस जाये जो जलद-समान॥1॥
 
सुन जिसे श्रवण हो सुधा-सिक्त।
सुनाये हृत्तान्त्री वह राग।
क जो जन-रंजन सब काल।
वही है आरंजित अनुराग॥2॥
 
है सरस भावुकता-परिणाम।
करुण रस का उर में संचार।
कहाँ तब पाया हृदय पसीज।
दृगों में बही न जो रस-धार॥3॥
 
शान्ति-जननी सत्यता-विभूति।
पूततम भावों की हैं पूत्तिक।
मही में है बहु महिमावान।
दिव्य है मानवता की मूर्ति॥4॥
 
कान्त कृति-रत्न राजि खनि मंजु।
सुरुचि-स्वामिनी सुअनुभवनीय।
परम कामदा साधना-सिध्दि।
सुमति है कामधेनु कमनीय॥5॥
 
ललित रुचि है कुसुमालि-समान।
कल्पतरु-से हैं भाव ललाम।
लोक-अभिनन्दन कान्त नितान्त।
शील है नन्दन-वन अभिराम॥6॥
 
मलिन मन को धो हर तन-ताप।
खोलता है सुरपुर की राह।
धारा में सदाचार सब काल।
सुरसरी का है पूत प्रवाह॥7॥
 
रहे जिससे जीवन का रंग।
वही है बहु कमनीय उमंग।
हंस जिससे मुक्ता पा जाय।
वही है मानस-मंजु-तरंग॥8॥
 
प्रेमाश्रु
(4)
 
सिंची बहु सरस बन-बन जिससे
वह मानवता-क्यारी।
जिसमें विकसित मिली रुचिर रुचि
की कुसुमावलि सारी।
जिसकी बूँद-बूँद में ऐसे
सिक्त भाव हैं पाते।
जिसके बाल से नीरस उर भी
हैं रसमय बन जाते॥1॥
 
जिसमें अललित लोभ की लहर
कभी नहीं लहराती।
जिसमें छल-बल की प्रपंच की
भँवर नहीं पड़ पाती।
जिसमें विविध विरोधा वैर के
बुद्बुद नहीं दिखाते।
जिसने कलह-कपट-कुचाल के
है शैवाल न पाते॥2॥
 
सदा डूब जाती है जिसमें
अहितकारिता-नौका।
मिली न जिसमें रुधिकर-पान-रत
कुत्सित नीति-जलौका।
जिसमें मद-मत्सर-प्रसूत वह
वेग नहीं मिल पाता।
पड़ जिसके प्रपंच में जनहित-
पोत टूट है जाता॥3॥
 
जिसकी सहज तरलता है
पविता को तरल बनाती।
जिसकी द्रवणशीलता है
वसुधा में सुधा बहाती।
जिसके पूत प्रवाह से धुले
मानस का मल सारा।
नहीं नयन से क्यों बहती वह
प्रेम-अश्रु की धारा॥4॥
 
प्रेम-तरंग
छप्पै
(5)
 
वसुधा पर विधु-सदृश सुधा है वह बरसाता।
वह है जलद-समान जगत का जीवन-दाता।
वही सदा है कामधेनु कामद कहलाता।
वही कल्पतरु-तुल्य बहु फलद है बन पाता।
जो जन-रंजित हो सके भव-अनुरंजन-रंग से।
जिसका मानस हो लसित पावन प्रेम-तरंग से॥1॥
 
सत्य-सन्देश
(6)
 
भक्त-जन-रंजन की वर भक्ति।
कगी किस उर में न प्रवेश।
रुचिर जीवन न बनेगा कौन।
सुन सुरुचि-भरित सत्य-सन्देश॥1॥
 
जगेगा भला न किसका भाग।
लगेगा किसे न प्यारा देश।
बनेगा कौन न शुचिता-मूर्ति।
हृदय से सुने सत्य-सन्देश॥2॥
 
परम भय-संकुल हो सब काल।
अभय करता है वर आदेश।
तरंगाकुल भव-सिंधु-निमित्त।
पोत है पूत सत्य-सन्देश॥3॥
 
दूर करता है तम-अज्ञान।
हटाता है भव-रजनी-क्लेश
उरों में जगा ज्ञान की ज्योति।
भानुकर-सदृश सत्य-सन्देश॥4॥
 
सत्य-सन्देश
(7)
 
सुन जिसे भव जाता है भूल।
स्वर्ग की सरस सुधा का स्वाद।
भरित मिलता है किसमें भूरि।
भारती-वीणा का वह नाद॥1॥
 
सुन जिसे मति होती है मुग्ध।
उमग नर्त्तन त्याग।
विपुल पुलकित बनती है भक्ति।
मिला किसमें वह अनुपम राग॥2॥
 
सुन पड़ा जिसमें अनहद नाद।
हुआ जिसमें समाधिक-धन-गीत।
सुरति है जिसकी सहज विभूति।
मिला किसमें वह श्रुति-संगीत॥3॥
 
रूप किसका है भव-अनुराग।
लोक-हित-व्रत है किसका वेश।
सुर-विटप-सदृश फलद है कौन।
भूत-हित-पूत सत्य-सन्देश॥4॥
 
विवाह
 
(8)
पूततम है विधन विधिक का।
नियति का है नियमित नियमन।
प्रकृति का है अनुपम आशय।
वेद का वन्दित अनुशासन॥1॥
 
वंश-वर्ध्दक वसुधा-हित-रत।
सदाचारी सपूत को जन।
क्षेत्रा में विश्व-सृजन के वह।
सदा करता है बीज-वपन॥2॥
 
शान्ति का है वर आवाहन।
सुकृति का संयत आराधन।
मधुरता का विकास मधुमय।
सरसता का सुन्दर साधन॥3॥
 
रमा का रंजन होता है।
गिरा गौरवित दिखाती है।
मंजुतम मूर्ति त्याग की बन।
सती सत उससे पाती है॥।4॥
 
विलसता सुरतरु है उसमें।
मलय-मारुत बह पाता है।
स्वर्ग-जैसा सुन्दर उससे।
गृही का गृह बन जाता है॥5॥
 
बालकों का विधु-सा मुखड़ा।
नयन को कैसे दिखलाता।
सुधारस कानों में कैसे।
मृदु वचन उनका बरसाता॥6॥
 
अलौकिक रत्न लाभ कर क्यों।
दिव्य जगतीतल बन जाता।
लाल माई के क्यों मिलते।
जो न जुड़ता पावन नाता॥7॥
 
भूति से उसकी जल-पय-सम।
एक हो जाते हैं दो मन।
मिलाता है दो हृदयों को।
मुक्ति-साधन विवाह-बंधन॥8॥
 
धर्म-धारणा
(9)
 
सहज सनातन धर्म हमारा।
परम अपावन जन-निमित्त है पावन सुरसरि-धारा।
भव-पथ के भूले-भटके को दिव्य-ज्योति धारुव-तारा।
पाप-पुंज-रत पामर नर को खरतर असि की धारा।
सकल काल अभिमत फलदायक है सुरुतरु-सा न्यारा।
विविध-रोग-उपशम-अधिकारी है परिशोधिकत पारा।
ज्ञान-निकेतन अखिल सिध्दि-साधना-सदन श्रुति प्यारा।
भुक्ति-मुक्ति वर भक्तिविधायक सिध्द-समाधिक-सहारा।
त्रिककालज्ञ सर्वज्ञ तपोधन ने है उसे सुधारा।
ले अवतार आप विभुवर ने प्राय: उसे उबारा।
वह विकास है वह जिससे विकसित है अनुभव सारा।
धारा-ज्ञान-विज्ञान दिव्य लोचन का है वह तारा।
भू के सकल पंथ मत में है उसका प्रबल प्रसारा।
नभ में दीपक बले उसी की जगी ज्योति के द्वारा।
सँभल उसी की पूत शान्ति के कर से हुए उतारा।
मधुर बन सकेगा वसुधातल का अशान्ति-जल खारा॥1॥
 
उद्बोधन
(10)
 
किसी की उँगली का संचार।
भर सका जिसमें बहु प्रिय राग।
हो सका जिसमें ध्वनित सदैव।
भूतभावन-पावन-अनुराग॥1॥
 
सुनाता है भवहित-संगीत।
छिड़े पर जिसका अनुपम तार।
खोल देती है हृदय-कपाट।
सुझंकृत हो जिसकी झंकार॥2॥
 
सुने जिसका बहु व्यंजक बोल।
सुरुचि सकती है शुचि पर पूज।
मानसों को करती है पूत।
सुगुंजित हो-हो जिसकी गूँज॥3॥
 
पान कर जिसका रस स्वर्गीय।
कान बन सका सुधा का पात्रा।
उस अलौकिक तंत्री का नाद।
सुने वसुधातल-मानवमात्रा॥4॥
 
(11)
 
सती ने किससे पाई सिध्दि।
रमा ने कान्ति परम कमनीय।
गिरा किससे पाये अनुभूति।
बनी सब भव में अनुभवनीय॥1॥
 
लाभ कर किससे दिव्य विकास।
हुए उद्भासित सा ओक।
अलौकिकता किसकी अवलोक।
लोक को मिला विपुल आलोक॥2॥
 
मिली दिनमणि को किससे ज्योति।
कलानिधि को अति कोमल कान्ति।
समुज्ज्वल किससे हुए दिगन्त।
पा सकी वसुधा किससे शान्ति॥3॥
 
कौन है भव का सुन्दर भाव।
कौन है शिव-ललाट की लीक।
धारातल के सा शुभ कर्म।
कहाये किससे कान्त प्रतीक॥4॥
 
भाल पर किसके है वह तेज।
काँपता है जिससे तम-पुंज।
विलोके किसकी प्रगति ललाम।
भव-अहित-दल बनते हैं लुंज॥5॥
 
कौन है वह कमनीय प्रवाह।
झलकता है जिसमें विभु-विम्ब।
देखते हैं किसमें बुध-वृन्द।
क्यों मिलित हुए बिम्ब-प्रतिबिम्ब॥6॥
 
कौन है वह विस्तृत आकाश।
मिल गये जिसका निर्मल अंक।
चमकते हैं बन-बन बहु कान्त।
लोक-हित नाना मंजु मयंक॥7॥
 
दिव्यताएँ उसकी अवलोक।
दिव्यतम बनता है भव-कूप।
अपावन जन का है अवलम्ब।
परम पावन है सत्य-स्वरूप॥8॥
 
(12)
 
हँसी है कभी उड़ाती उसे।
कभी छलती है मृदु मुसकान।
कभी आँखों के कुछ संकेत।
नहीं करते उसका सम्मान॥1॥
 
कभी मीठी बातों का ढंग।
दिया करता है परदा डाल।
कभी चालाकी दिखला रंग।
चला करती है उससे चाल॥2॥
 
झमेले करती हैं उत्पन्न।
कभी लालच की लहरें लोल।
कभी रगड़े करते हैं तंग।
बनाकर उसको डाँवाडोल॥3॥
 
कभी जी की कसरें धुन बाँधा।
किया करती हैं टाल-मटोल।
देखकर उसका बिगड़ा रंग।
नहीं वह कुछ सकता है बोल॥4॥
 
धूल कितनी आँखों में झोंक।
कहीं पर बिछा कपट का जाल।
सदा ही बात बना कुछ लोग।
दिया करते हैं उसको टाल॥5॥
 
वैर के बो-बो करके बीज।
जो घरों में बोते हैं आग।
बहुत ही जले-भुने वे लोग।
न करते कैसे उसका त्याग॥6॥
 
बोलते ही रहते हैं झूठ।
बहुत लोगों की है यह बान।
जिसे वे करते नहीं पसंद।
करेंगे कैसे उसका मान॥7॥
 
सदा पाते रहते हैं लोग।
लोक में फल स्वकर्म-अनुरूप।
उन्हें कब नहीं मिला है दंड।
सके जो देख न सत्य-स्वरूप॥8॥
 
(13)
 
बिछाकर अलकावलि का जाल।
धाता है उसे बताता काम।
नहीं लग लगने देता-उसे।
कामिनी-कुल का रूप ललाम॥1॥
 
रोकता है पढ़ मोहन-मन्त्रा।
मोहनी डाल-डालकर मोह।
उसे प्राय: देता है डाँट।
दिखाकर निज दबंगपन द्रोह॥2॥
 
डराता है कर आँखें लाल।
उसे अभिमानी का अभिमान।
बहुत फैला अपना तमपुंज।
तमक उसको देती है तान॥3॥
 
पास आने देता ही नहीं।
किया करता है पथ-अवरोधा।
डाल बाधाएँ हो-हो क्रुध्द।
उसे बाधिकत करता है क्रोधा॥4॥
 
सामने अपने उसे विलोक।
छटकने लग जाता है क्षोभ।
दूर उसको रखने के लिए।
ललचता ही रहता है लोभ॥5॥
 
देखती उसे आँख-भर नहीं।
काँपती है सुन उसका नाम।
साथ में उसको लेकर चले।
कब चला लम्पटता का काम॥6॥
 
नहीं अभिनन्दित करता उसे।
परम निन्दित निन्दा का चाव।
मानता है उसको रिपु-तुल्य।
लोक हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव॥7॥
 
बताता उसको हितकर नहीं।
नीचतम मानस-मलिन-स्वभाव।
चाहते हैं भ्रमांधा भव-मध्य।
भाव का उसके परम अभाव॥8॥
 
मानता मन का उसको नहीं।
जुगुप्सा - लिप्सा - कुत्साधाम।
उसे कहके लालित्य-विहीन।
स्वयं बनता है दंभ ललाम॥9॥
 
कभी करती है उससे मेल।
कभी बन जाती है प्रतिकूल।
पड़े निज भूल-भूलैयाँ-मध्य।
क्यों न करती प्रवंचना भूल॥10॥
 
भले ही हो वह भवनिधिक-पोत।
हो सकेगी क्यों उससे प्रीति।
कगी क्यों प्रिय पटुता-संग।
कुटिलता कटुता की कटु नीति॥11॥
 
जब नहीं तिमिर सकेगी टाल।
क तब क्यों प्रकाश की साधा।
वदन क्यों उसका सके विलोक।
अधामता होती है जन्मांधा॥12॥
 
कगी कैसे उसे पसंद।
जो कि है परम पुण्य की मुर्ति
सदा है पापरता चित-वृत्तिक।
कुजनता है पामरता-पूत्तिक॥13॥
 
उलूक-प्रकृति का है दुर्भाग्य।
जो न समझे, न सके अवलोक।
दिवाकर के समान है दिव्य।
सत्य है सकल लोक-आलोक॥14॥
 
(14)
 
द्रवित हो बहुत पसीज-पसीज।
दुखित दुख-तिमिर-पुंज को टाल।
झलकती किसकी है प्रिय ज्योति।
करुण रस-धारा में सब काल॥1॥
 
दान कर देता है सर्वस्व।
समझकर उसे कीत्तिक-उपहार।
कहे किसके बनता है रीझ।
हृदय सहृदय का परम उदार॥2॥
 
दशा दयनीय जनों की देख।
सदयता को वह सका न रोक।
याद आता है किसका रूप।
दया की दयालुता अवलोक॥3॥
 
विविध विद्या-बल से कर दूर।
अविद्याजनित विकार-विभेद।
किस भुवन-वंदित का कर साथ।
बन सका वन्दनीय निर्वेद॥4॥
 
दानवी प्रकृति परम दुर्दान्त।
प्राप्त कर किससे बहु शुचि स्फूत्तिक।
बनी सहृदयता मृदुता-धाम।
सुजनता जनता-ममता-मूर्ति॥5॥
 
सुधा से कर मरु-उर को सिक्त।
सिता-सी फैला कोमल कान्ति।
हुए किस रजनी-पति से स्नेह।
बन सकी राका-रजनी-शान्ति॥6॥
 
लाभ कर ममता विश्व-जनीन।
सृजन कर भौतिक शान्ति-विधन।
मिले किसका महान अवलम्ब।
बनी मानवता महिमावन॥7॥
 
विलोके किसको गौरव-धाम।
गौरवित बनता है गंभीर।
देखकर किसको धर्मधुरीण।
धीरता नहीं त्यागता धीर॥8॥
 
बना करती है किसे विलोक।
सुमति की मूर्ति परम रमणीय।
सदाशयता सुख्याति सकान्ति।
सुकृति की कीत्तिक-कला कमनीय॥9॥
 
बढ़ाकर शालीनता-प्रभाव।
शिष्टता में भर भूरि उमंग।
विलसती है किसको अवलोक।
शील मानस महनीय तरंग॥10॥
 
नाचता है किस घन को देख।
सर्वदा सदाचार-मनमोर।
देखता है किस विधु की कान्ति।
सच्चरित बनकर चरितचकोर॥11॥
 
जी रही है भव-पूत विभूति।
देखकर किसके मुख की ओर।
कौन है सद्गति का सर्वस्व।
रुचिरतम सुरुचि-चित्त का चोर॥12॥
 
ज्ञान-विज्ञान-सहित रुचि साथ।
भावनाओं में भर अनुरक्ति।
गयी खिल देखे किसका भाव।
भुवन-भावुकता-भरिता भक्ति॥13॥
 
विश्व-गिरि-शिखरों पर सर्वत्र।
गड़ गयी गौरव पा अविलम्ब।
धर्म की धवजा उड़ी भव-मध्य।
मिले किसके कर का अवलम्ब॥14॥
 
दिव्य भावों का है आधार।
नियति का नियमनशील निजस्व।
लोक-पति का है भव्य स्वरूप।
सत्य है भव-जीवन-सर्वस्व॥15॥
 
(15)
 
अन्न दे देना भूखों को।
पिलाना प्यासे को पानी।
दीन-दुखिया-कंगालों को।
दान देना बनकर दानी॥1॥
 
बुरा करना न दूसरों का।
नहीं कहना लगती बातें।
सँभल सेवा उसकी करना।
न कटती हैं जिसकी रातें॥2॥
 
कभी रखना न मैल दिल में।
चलाना कभी नहीं चोटें।
क्यों न टोटा पर टोटा हो।
पर गला कभी नहीं घोटें॥3॥
 
काटना जड़ बुराइयों की।
बदी को धाता बता देना।
चाल चल-चल या छल करके।
कुछ किसी का न छीन लेना॥4॥
 
डराना बेजा धामकाना।
सताना डाँटे बतलाना।
खिजाना साँसत कर हँसना।
 
दूसरों का दिल दहलाना॥5॥
बुरा है, इसीलिए इनसे।
सदा ही बच करके रहना।
बु भावों की लहरों में।
भूलकर भी न कभी बहना॥6॥
 
समझना यह, जिन बातों का।
हमें है दुख होता रहता।
सुने, वैसी ही बातों को।
विवश हो कोई है सहता॥7॥
 
सोचना, यह, दिल का छिलना।
कपट का जाल बिछा देना।
बहँकना मनमाना करना।
बलाएँ हैं सिर पर लेना॥8॥
 
जानना यह, काँटे बोना।
कुढ़ाना दे-देकर ताना।
कलेजा पत्थर का करना।
बेतरह है मुँह की खाना॥9॥
 
मूसना माल न औरों का।
चूसना लहू न लोगों का।
बाँधाकर कमर दूर करना।
देश के सा रोगों का॥10॥
 
खोलना आँखें अंधो की।
राह भूलों को बतलाना।
समझना सब जग को अपना।
काम पड़ गये काम आना॥11॥
 
बड़ाई सदा बड़ों की रख।
कहे पर कहा काम करना।
जाति के सिरमौरों की सुन।
समय पर उनका दम भरना॥12॥
 
भागना झूठी बातों से।
धाँधाली से बचते रहना।
कभी जो कुछ कहना हो तो।
सँभल करके उसको कहना॥13॥
 
बुराई सदा बुराई है।
भलाई को न भूल जाना।
भले का सदा भला होगा।
यह समझना औ' समझाना॥14॥
 
जन्तुओं के सुख-दुख को भी।
मानना निज सुख-दुख-ऐसा।
सभी जीवों के जी को भी।
जानना अपने जी-जैसा॥15॥
 
ह पत्तो की हरियाली।
फूल का खिलना कुम्हलाना।
देखकर, आँखोंवाले वन।
दया उनपर भी दिखलाना16॥
 
भले कामों के करने में।
न बनना कसर दिखा कच्चा।
भाव बच्चों-जैसा रखना।
सत्य का है स्वरूप सच्चा॥17॥
 
(16)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
जो हो सात्तिवकता भरी न उसमें, जो हो नहीं दिव्यता।
जो हो बोधक नहीं पूत रुचि का, जो हो नहीं शुध्द श्री।
तो है व्यर्थ, प्रवंचना-भरित है, है र्धात्ताता चिद्द ही।
होवे भाल विशाल का तिलक जो सत्यावलम्बी नहीं॥1॥
 
तो क्या है वह लालिमा तिलक की जो भक्तिरक्ता नहीं।
तो क्या है वह श्वेतता न जिसमें है सात्तिवकी सिक्तता।
खाएँ रमणीय, कान्त रचना, आकार की मंजुता।
तो क्या है उनमें नहीं यदि लसी सत्यादृता पूतता॥2॥
 
नाना योग-क्रिया-कलाप-विधिक से आराधाना इष्ट की।
पूजा-पाठ-व्रतोपवास-जप की यज्ञादि की योजना।
देवोपासन मन्दिरादि रचना पुण्यांग की पूत्तिकयाँ।
तो क्या हैं यदि साधना-नियम में है सत्य-सत्ता नहीं॥3॥
 
होती हैं सब सिध्दियाँ करगता अंगीकृता ऋध्दियाँ।
जाती है बन सेविका सफलता सद्वृत्तिक-उद्बोधिकता।
है आज्ञा मतिमानता मनुजता ओजस्विता मानती।
होगी क्यों ऋत कल्पना न उसकी जो सत्य-संकल्प है॥4॥
 
जो है ज्ञान-निधन कष्ट उसको देगी न अज्ञानता।
जो है लोभ-विहीन तृप्त उसको लेगी न लिप्सा लुभा।
मोहेगी न विमुक्त मुक्तिरत को मुक्तावली-मालिका।
होवेगा वह क्यों असत्य प्रतिभू जो सत्य-सर्वस्व है॥5॥
 
जो माला फिरती रहे प्रति घटी होगा न तो भी भला।
जो संध्या करते त्रिककाल हम हों तो भी नपेगा गला।
जो हों योग-क्रिया सदैव करते तो भी न होंगे सुखी।
होती है यदि अज्ञता विमुखता से सत्यता वंचिता॥6॥
 
अन्यों के छिनते न स्वत्व लुटते तो कोटिश: स क्र्या।
क्यों होते नगरादि धवंस बहती क्यों रक्त-धारा कहीं।
कैसे तो कटते कराल कर से लाखों करोड़ों गले।
पृथ्वी हो रत सर्व-भूत-हित में जो सत्य को पूजती॥7॥
 
क्यों होते बहु वंश धवंस मिलते वे आज फूले-फले।
उल्लू है अब बोलता नित जहाँ होती वहाँ रम्यता।
होता देश वहाँ विशाल अब हैं कान्तार पाते जहाँ।
आस्था से अवलोकती वसुमती जो सत्यता-दिव्यता॥8॥
 
भूमा में भव में विभूतितन में भू में मनोभाव में।
होते हैं जितने विकार मल या मालिन्य के सूत्र से।
देती हैं उनको निवृत्ता कर वे सद्भाव-सद्बोधा से।
हैं संशोधनशील दिव्य कृतियाँ सत्यात्मिका वृत्तिकयाँ॥9॥
 
कोई है धन के लिए बहँकता कोई धारा के लिए।
कोई राग-विराग से विवश हो है त्याग देता उसे।
कोई वैर-विरोधा-क्रोधा-मत ले देता उसे है बिदा।
प्यारा है जितना प्रपंच उतना है सत्य प्यारा कहाँ॥10॥
 
क्या होगा कपड़ा रँगे, सिर मुड़े, काषायधारी बने।
मालाएँ पहने, त्रिकपुंडधार हो, लम्बी जटाएँ रखे।
क्या होगा सब गात में रज मले या वेश नाना रचे।
जो हो इष्ट प्रवंचना बन यती जो हो न सत्यव्रती॥11॥
 
हो-हो आकुल स्वार्थ है दहलता, आवेश है चौंकता।
तृष्णा है मुँह ढाँकती, कुजनता है पास आती नहीं।
निन्दा है बनती विमूढ़, डर से है भागती दुर्दशा।
देखे आनन सत्य का सहमती हैं सर्व दुर्नीतियाँ॥12॥
 
तारों में दिव के सदैव किसकी है दीखती दिव्यता।
भूतों में भवभूतिमध्य किसका अस्तित्व पाया गया।
जीवों में तरु-लता आदि तक में है कौन सत्ता लसी।
कैसे तो न असत्य विश्व बनता जो सत्य होता नहीं॥13॥
 
सारी विश्व-विभूति के विषय का आधार अस्तित्व है।
है अस्तित्व-प्रमाण सत्य वह जो सर्वत्र प्रत्यक्ष है।
अन्तर्दृष्टि समष्टि व्यष्टिगत हो जो दृश्य है देखती।
तो होती रसवृष्टि है हृदय में सत्यात्मिका सृष्टि है॥14॥
 
है विश्वस्त, विभूतिमान, भव का सर्वस्व, सर्वाश्रयी।
है विज्ञान-निधन, ज्ञान-निधिक का विश्राम, शान्ताश्रयी।
वादों से बहु अन्यथाचरण से वैदग्धा-व्युत्पत्तिक से।
तर्कों से वह क्यों असत्य बनता, है सत्य तो सत्य ही॥15॥
 
चाहे हो रवि या शशांक अथवा हों व्योमता सभी।
चाहे हों सुरलोक के अधिकप या हों देव देवांगना।
चाहे हो दिव-दामिनी भव-विभा चाहे महाअग्नि हो।
दिव्यों में उतनी मिली न जितनी है सत्य में दिव्यता॥16॥
 
है रम्या गुरुतामयी सहृदया मान्या महत्ताअधिकतरंकिता।
नाना दिव्य विभूति-भाव-भरिता कान्ता मनोज्ञा महा।
सौम्या शान्ति-निकेतना सदयता की मुर्ति विता।
श्वेताभा-सदना सितासिततरा है सिध्दिदा सत्यता॥17॥

पंचदश सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

परमानन्द
आनन्द-उद्बोध
(1)
गले लग-लगकर कलियों को।
खिला करके वह खिलता है।
नवल दल में दिखलाता है।
फूल में हँसता मिलता है॥1॥
 
अंक में उसको ले-लेकर।
ललित लतिका लहराती है।
छटाएँ दिखला विलसित बन।
बेलि उसको बेलमाती है॥2॥
 
पेड़ के पत्तो-पत्तो में।
पता उसका मिल पाता है॥
दिखाकर रंग-बिरंगापन।
फलों में रस भर जाता है॥3॥
 
हरित-तृण-राजिरंजिता हो।
उसे बहु व्यंजित करती है।
गोद में वसुधा की दबकी।
दूब उसका दम भरती है॥4॥
 
शस्य, श्यामल परिधन पहन।
मन्द आन्दोलित हो-होकर।
ललकते जन के लोचन में।
भाव उसके देता है भर॥5॥
 
वन, बहुत बन-ठनकर उसको।
पास बिठलाए रहता है।
बने रहकर उसका उपवन।
विकस हँस विलस निबहता है॥6॥
 
रुचिर रस से सिंचित हो-हो।
बड़े मीठे फल चखता है।
सविधिक आवाहन कर उसका।
वनस्पति निज पति रखता है॥7॥
 
रमण कर तृण के तरु तक में।
भाँव भव में भरता है।
सहज आनन्द भला किसको।
नहीं आनन्दित करता है॥8॥
 
(2)
 
जलधिक के नील कलेवर को।
सुनहला वसन पिन्हाता है।
दिवाकर का कर जब उसमें।
जागती ज्योति जगाता है॥1॥
 
जब छलकती बूँदें उसकी।
मंजु मोती बन जाती हैं।
जब सुधा-धावल बनाने को।
चाँदनी रातें आती हैं॥2॥
 
तब ललकते दृगवालों को।
कौन उल्लसित बनाता है।
कौन उमगे जन-मानस को।
बहु तरंगित कर पाता है॥3॥
 
सरस धाराएँ सरिता की।
सुनातीं अपना कल-कल रव।
मनाती हैं जब राका में।
दीप-माला-जैसा उत्सव॥4॥
 
नाचने लगती हैं लहरें।
चन्द्र-प्रतिबिम्बों को जब ले।
कौन तब उर-मन्दिर में आ।
बजाता है मंजुल तबले॥5॥
 
शरद में जब सर शोभित हो।
मानसरवर बन जाता है।
जब कमल-माला अलिमाला।
हँस-मालाएँ पाता है॥6॥
 
सलिल जब ले इनकी छाया।
ललित लीलामय बनता है।
कौन तब आ वितान अपना।
मुग्ध जन मन में तनता है॥7॥
 
उड़ा छीटे क्षिति-अंचल में।
कान्त मुक्तावलि भरता है।
किसी उत्साहित जन-जैसा।
उत्स जब उत्सव करता है॥8॥
 
मुकुर मंजुल गिरते जल में।
दिव्य दृश्यों को दर्शित कर।
उस समय दर्शक के उर में।
कौन ललकें देता है भर॥9॥
 
मिले सौन्दर्य मलय-मारुत।
कुसुम-कोरक-सा है खिलता।
कौन-सा है वह रम्य स्थल।
जहाँ आनन्द नहीं मिलता॥10॥
 
(3)
 
हिमाचल-जैसा गिरिवर जो।
गगन से बातें करता है।
उर-भवन में भावुक के जो।
भूरि भावों को भरता है॥1॥
 
लसित है जिसके अंचल में।
काश्मीरोपम रम्य स्थल।
जिसे अवलोके बनता है।
विमोहित वसुधा-अन्तस्तल॥2॥
 
दिवसमणि निज कर से जिसको।
मणि-खचित मुकुट पिन्हाता है।
नग-निकर से परिपूरित रह।
नगाधिकप जो कहलाता है॥3॥
 
देख कृति जिसकी क्षण-भर भी।
छटा है अलग नहीं होती।
जलद आलिंगन कर जिसपर।
बरसते रहते हैं मोती॥4॥
 
अंक में जिसके रस रख-रख।
सरसता-सोता बहता है।
वह किसे मानस-वारिधिक का।
कलानिधि करता रहता है॥5॥
 
ज्योति जग में भर देते हैं।
कलश जिनके रवि-बिम्बोपम।
सहज सौन्दर्य-विभव जिनको।
सिध्द करते हैं सुरपुर-सम॥6॥
 
पताका उड़-उड़ पावनता।
पता का पथ बतलाती है।
मधुर ध्वनि जिनके घंटों की।
ध्वनित हो मुदित बनाती है॥7॥
 
भावमय दृश्यों का दर्शन।
भक्ति-रति उर में भरता है।
शान्तिमय जिनका वातावरण।
प्रभावित चित को करता है॥8॥
 
लसित जिनमें दिखलाती है।
भव्यतम मूर्ति भावना की।
सत्यता शिवता से भरिता।
देवता की बाँकी झाँकी॥9॥
 
बहु सुमन महँक-महँक महँका।
जिन्हें महनीय बनाते हैं।
दिव्य वे देवालय किसको।
उर-गगन द्युमणि बनाते हैं॥10॥
 
रमा रमणीय करालंकृत।
कारु कार्यावलि कान्त निलय।
चारुतम चित्रों से चित्रिकत।
गगनचुम्बी नृप-मन्दिर-चय॥11॥
 
विविधताओं से परिपूरित।
विश्व-वैचित्रयों के सम्बल।
विपुल विद्यालय रंगालय।
उच्च दुर्गावलि रम्य स्थल॥12॥
 
मनोहर नगर नागरिक जन।
विपणि की वस्तु उत्तामोत्ताम।
धारा धनदों के सज्जित सदन।
दिव्य दूकानें नग निरुपम॥13॥
 
विविध अद्भुत विभूतियों से।
भव्यता से भूषित जल-थल।
बनाते रहते हैं किसको।
हृदय-सर का प्रफुल्ल उत्पल॥14॥
 
प्रकृति का है हँसमुख बालक।
आत्मसुख का अमूल्य सम्बल।
हास का है 'आनन्द'-जनक।
स्वर्ग-उपवन विकसित शतदल॥15॥
 
(4)
 
सहज अनुराग-राग से जब।
रंगिणी ऊषा भरती है।
पाँवड़े डाल लाल पट के।
अरुण स्वागत जब करती है॥1॥
 
विहँसती दिशा-सुन्दरी से।
गले मिल जब मुसकाती है।
स्वयं आरंजित होकर जब।
उसे रंजिता बनाती है॥2॥
 
जब दिवसमणि गगनांगण को।
बना मणिमय छवि पाता है।
धारा को किरणावलि-विरचित।
दिव्यतम वसन पिन्हाता है॥3॥
 
देख लुटते तारकचय को।
उन्हें अन्तर्हित करता है।
जगा जगती के जीवों को।
ज्योति जन-जन में भरता है॥4॥
 
प्रभा देकर प्रभात को जब।
प्रभासंयुत कर पाता है।
लोक को उल्लासों से तब।
कौन उल्लसित बनाता है॥5॥
 
लाल नीले पीले उजले।
जगमगाते नभ के ता।
किरण-मालाओं से बनते।
किसी ललके दृग के ता॥6॥
 
तिमिर में जगमग-जगमग कर।
ज्योति जो भरते रहते हैं।
जो सदा चुप रह-रहकर भी।
न जाने क्या-क्या कहते हैं॥7॥
 
मोहते हुए मनों को जब।
दिखाते हैं वे छवि न्यारी।
कौन तब देता है दिखला।
दृगों को फूली फुलवारी॥8॥
 
कलानिधि मंद-मंद हँसकर।
जब कलाएँ दिखलाता है।
जिस समय राका-रजनी को।
चूमकर गले लगाता है॥9॥
 
चाँदनी छिटक-छिटककर जब।
धारा को सुधा पिलाती है।
रजकणों का चुम्बन कर जब।
उन्हें रजताभ बनाती है॥10॥
 
नवल श्यामलतन नीरद जब।
गगनतल में घिर आते हैं।
पुरन्दर-धानु से हो विलसित।
जब बड़ी छटा दिखाते हैं॥11॥
 
दामिनी दमक-दमक थोड़ा।
छटा क्षिति पर छिटकाती-सी।
अंक में नव जलधार के जब।
दिखाती है मुसुकाती-सी॥12॥
 
किनारों पर उन जलदों के।
श्यामता है जिनकी विकसित।
अस्त होते रवि की किरणें।
लगाती हैं जब लैस ललित॥13॥
 
गगनतल को उद्भासित कर।
चमकते हैं जब उल्काचय।
कौन तब इन बहु दृश्यों से।
बनाता है महि को मुदमय॥14॥
 
मुग्धता का सुन्दर साधन।
विविध भावों का अभिनन्दन।
सुखों का है आनन्द सुहृद।
विकासों का है नन्दनवन॥15॥
 
(5)
 
मुग्धता जन-मानस में भर।
बहु कलाएँ दिखलाता है।
बैठ कोकिल-कुल-कंठों में।
कौन काकली सुनाता है॥1॥
 
चहकती ही वह रह जाती।
नहीं चाहत उसको छूती।
मिले किसका बल तूती की।
बोलती रहती है तूती॥2॥
 
पपीहा पी-पी कहता है।
प्यारे से भरा दिखाता है।
गले से किसके गला मिला।
गीत उन्मादक गाता है॥3॥
 
कान में सुननेवालों के।
सुधा-बूँदें टपकाता है।
सारिका के सुन्दर स्वर को।
बहु सरस कौन बनाता है॥4॥
 
लोक-हितकारक शब्दों को।
आप रट उन्हें रटाता है।
शुकों के कोमल कंठों को।
कौन प्रिय पाठ पढ़ाता है॥5॥
 
लोक के ललचे लोचन को।
बहु-विलोचनता भाती है।
मोर के मंजुल नर्त्तन में।
कला किसकी दिखलाती है॥6॥
 
मत्तता में गति में रव में।
रमण कर मोहित करता है।
कपोतों की सुन्दरता में।
कौन मोहकता भरता है॥7॥
 
खगों के कलरव में जब में।
रंग-रूपों में है खिलता।
पंख छवि में रोमावलि में।
कहाँ आनन्द नहीं मिलता॥8॥
 
(6)
 
विपंची के वर वादन में।
ध्वनित किसकी ध्वनि होती है।
तानपूरों की कोर-कसर।
कान्तता किसकी खोती है॥1॥
 
बज रही सारंगी-स्वर में।
रंग किसका दिखलाता है।
सितारों के तारों में भी।
तार किसका लग पाता है॥2॥
 
मृदंगों की मृदंगता में।
मन्द्ररव किसका सुनते हैं।
धुनों में किसकी धुन पाकर।
लोग अपना सिर धुनते हैं॥3॥
 
थाप में बजते तबलों की।
प्रबलता किसकी पाते हैं।
बोल तब कौन सुनाता है।
लोग जब ढोल बजाते हैं॥4॥
 
मुरलिका के मृदुतम रव में।
माधुरी कौन मिलाता है।
सुने शहनाई कानों को।
सुधा-रस कौन पिलाता है॥5॥
 
मँजीरा मँजे करों में पड़।
मंजुता किससे पाता है।
सकल करतालों को रुचिकर।
ताल दे कौन बनाता है॥6॥
 
न संगत होने पर किसकी।
गतों की गत बन जाती है।
बिना पाये किसकी कलता।
लय नहीं लय कहलाती है॥7॥
 
राग-रागिनियों में किसका।
भरा अनुराग दिखाता है।
गीत-संगीतों में किसका।
गौरवित गान सुनाता है॥8॥
 
मनोमोहक आलापों में।
कौन आलापित होता है।
कान्त कंठों में किसका कर।
बीज पटुता का बोता है॥9॥
 
बनाता है वादन को प्रिय।
गान को करता है रसमय।
धुनों का धन स्वर का सम्बल।
लयों का है आनन्द-निलय॥10॥
 
(7)
 
बालकों की तुतली बोली।
कमल-सा कोमल कान्त वदन।
बड़ी भोली-भाली आँखें।
मोतियों-से कमनीय रदन॥1॥
 
बहँकना मुँह लटका लेना।
ललकना उनका मुसकाना।
मचलना ठुमुक-ठुमुक चलना।
फूल-जैसा ही खिल जाना॥2॥
 
सुने देखे मानव किसकी।
याद करता है वह लीला।
सकल भव में जो है व्यापित।
बन महा अनुरंजन-शीला॥3॥
 
कामिनी के उस मृदु मुख में।
कहा जो गया कलाधर-सा।
रस बरस जाने से जिसके।
सरस होती रहती है रसा॥4॥
 
लोच-लालित उस लोचन में।
भरी है जिसमें रोचकता।
प्रेम-जलबिन्दु झलकते हैं।
जहाँ वैसे जैसे मुक्ता॥5॥
 
अधर पर लसी उस हँसी में।
सुधा जो वसुधातल की है।
जिसे देखे पिपासिता बन।
लालसा सब दिन ललकी है॥6॥
 
उन ललित हावों-भावों में।
केलियों में जिनकी कलता।
मोहती किसे नहीं, मनसिज।
पा जिसे भव को है छलता॥7॥
 
उन विविध परिहासादिक में।
मुदित चित जिससे है खिलता।
कला किसकी दिखलाती है।
कौन है रमा हुआ मिलता॥8॥
 
मानवों के प्रफुल्ल मुख पर।
छटा किसकी दिखलाती है।
वीर-हृदयों की वरता में।
भूति किसकी छवि पाती है॥9॥
 
कौन करुणाद्रव बूँदों में।
झलकता पाया जाता है।
हास्य-रस के सर्वस्वों में।
कौन हँसता दिखलाता है॥10॥
 
जुगुप्सा की लिप्साओं में।
कौन शुचि रुचि से रहता है।
कौन बहु शान्तभूत चित में।
शान्तिधारा बन बहता है॥11॥
 
बहु गरलता से बचने की।
सती की-सी गति-मति सिखला।
कौन बनता है महिमामय।
रुद्रता में शिवता दिखला॥12॥
 
देख थर-थर कँपते नर को।
परम पाता-पद लेता है।
कौन भय-भरित मानसों को।
अभयता का वर देता है॥13॥
 
विचित्र-चरित्रा चरित्रों को।
सुचित्रिकत कर चमकाता है।
कौन अद्भुतकर्मा नर के।
अद्भुतों का निर्माता है॥14॥
 
विविध भावों का है वैभव।
विभावों का है आलम्बन।
रसों का है आनन्द-रसन।
रसिक जन का है जीवन-धन॥15॥
 
(8)
बताता है किसको बहु दिव्य।
कपोलों पर का कलिताभास।
प्रकट करता है किसकी भूति।
सरस मानस का मधुर विकास॥1॥
 
दृगों में भरकर कोमल कान्ति।
वदन को देकर दिव्य विकास।
किसे कहता है बहु कमनीय।
अधर पर विलसित मंजुल हास॥2॥
 
जगाकर कितने सुन्दर भाव।
भगाकर कितने मानस-रोग।
हुए उन्मुक्त कौन-सा द्वार।
खिलखिलाने लगते हैं लोग॥3॥
 
दामिनी-सी बन दमक-निकेत।
सरसता-लसिता सिता-समान।
कढ़ी किससे पढ़ मोहनमन्त्रा।
मधुरिमामयी मंजु मुसकान॥4॥
 
बना बहु भावों को उत्फुल्ल।
कर भुवन भावुकता की पूत्तिक।
बढ़ाती है किसकी कल कीत्तिक।
मनोहर प्रसन्नता की मुर्ति॥5॥
 
बन विविध केलि-कला-सम्पन्न।
विमोहक सकल विलास-निवास।
विदित करता है किसकी वृत्तिक।
किसी अन्तस्तल का उल्लास॥6॥
 
चित्त को बहु चावों के साथ।
बनाता रहता है हिन्दोल।
किस समुद्वेलित निधिकसंभूत।
चपलतम अट्टहास-कल्लोल॥7॥
 
विकच बन वारिज-वृन्द-समान।
दे भुवन-अलि को मोद-मरन्द।
मुग्ध करता है रच बहु रूप।
लोक-उर अभिनन्दन आनन्द॥8॥
 
(9)
 
कलुषित आनन्द
 
हैं बहुत ही उमंग में आते।
नाचते-कूदते दिखाते हैं।
वैरियों का विनाश अवलोके।
लोग फूले नहीं समाते हैं॥1॥
 
कम नहीं लोग हैं मिले ऐसे।
मौज जिनको रही बहुत भाती।
और की देखकर हँसी होते।
है हँसी-पर-हँसी जिन्हें आती॥2॥
 
वे लगे आसमान पर चढ़ने।
जो रहे राह के बने तिनके।
और को पाँव से मसल करके।
पाँव सीधो पड़े कहाँ किनके॥3॥
 
काल-इतिहास बन्द ताले में।
देख लो ख्याति की लगा ताली।
कर लहू और पान कर लोहू।
क्या न मुँह की रखी गयी लाली॥4॥
 
काटकर लाख-लाख लोगों को।
जय-फ गये उड़ाये हैं।
छीनकर राज छेद छाती को।
बहु महोत्सव गये मनाए हैं॥5॥
 
लाल भू-अंक को लहू से कर।
बहु कलेजे गये निकाले हैं।
मोद से मत्त हो बजा बाजे।
सिर कतरकर गये उछाले हैं॥6॥
 
आ चुके हैं अनेक ऐसे दिन।
जब नृमणि बिधा गया बिलल्ले-से।
मच गयी धूम जब बधाई की।
जब बजीं नौबतें धाड़ल्ले से॥7॥
 
क्यों बताए महाकुकर्मों ने।
लोक का है अहित किया जितना।
आह! आनन्द से महत्ताम में।
किस तरह भर गया कलुष इतना॥8॥
 
(10)
 
दौड़कर नहीं उठाते क्यों।
क्यों मनुजता को ठगते हैं।
देख फिसले को गिर जाते।
लोग क्यों हँसने लगते हैं॥1॥
 
फाँसकर निज पंजे में क्यों।
शिकंजे में चाहे कसना।
क मतिमंद किसी को क्यों।
किसी का मंद-मंद हँसना॥2॥
 
व्यंग्य से भरा हुआ क्यों हो।
मौन रह क्यों मा ताना।
बने क्यों गरल तरल धारा।
किसी का मानस मुसकाना॥3॥
 
अपटुता-पुट मृदुता में दे।
हृदय में क्यों कटुता भर दे।
द्रास नर-सद्भावों का क्यों।
किसी का अट्टहास कर दे॥4॥
 
मुँह खुला जो न सुगंधिकत बन।
किसी से हिले-मिले तो क्या।
रज-भरा जो है मानस में।
फूल की तरह खिले तो क्या॥5॥
 
लोकरंजन करनेवाली।
चाँदनी जो न छिटक पाई।
किसलिए हृदय हुआ विकसित।
हँसी क्यों होठों पर आयी॥6॥
 
मलिन हो पड़ा कीच में है।
परम उज्ज्वल पावन सोना।
बन गया जो विलसितामय।
किसी का सउल्लास होना॥7॥
 
विफल कर जीवन औरों का।
मिलेगी उसे सफलता क्यों।
जो नहीं फूल बरसती है।
कहें उसको प्रफुल्लता क्यों॥8॥
 
बना अवसन्न दूसरों को।
जो अहितरता अवनता है।
नहीं है जो प्रसन्न करती।
तो कहाँ वह प्रसन्नता है॥9॥
 
नहीं है जिसमें मधुमयता।
बना जो कटुता-अनुमोदक।
नहीं है जो है प्रमोद देता।
मोद तो कैसे है मोदक॥10॥
 
किसी उत्फुल्ल सरोरुह-सा।
हृदय को नहीं खिलाता जो।
कहें उसको विनोद कैसे।
विनोदित नहीं बनाता जो॥11॥
 
कलह को जो अंकुरित बना।
बचाये मुँह जैसे-तैसे।
बीज बो दे विवाद का जो।
कहें आमोद उसे कैसे॥12॥
 
वह नहीं हँसा सका जिसको।
उसे फिर कौन हँसायेगा।
विषादित बना दूसरों को।
हर्ष क्यों हर्ष कहायेगा॥13॥
 
सहज हो सुन्दर हो जिसमें।
कलुष का लेश नहीं होता।
वही आनन्द कहाता है।
बहाये जो रस का सोता॥14॥
 
(11)
 
मिले कितने ऐसे जिनकी
जीभ कटु कह है रस पाती।
सुने पर-निन्दा कानों में।
है सुधा-बूँद टपक जाती॥1॥
 
गालियाँ बक-बक कर कितने।
परम पुलकित दिखलाते हैं।
बुराई कर-कर औरों की।
कई फूले न समाते हैं॥2॥
 
बला में डाल-डाल कितने।
बजाने लगते हैं ताली।
छीन लेते हैं हँस कितने।
पड़ोसी की परसी थाली॥3॥
 
लूट ले-लेकर अन्यों को।
किसी को मिलती है थाती।
पीस पिसते को बनती है।
किसी की गज-भर की छाती॥4॥
 
चहकते फिरते हैं कितने।
बने परकीया के प्यारे।
लोप कर अन्य कीत्तिक कितने।
तोड़ते हैं नभ के ता॥5॥
 
तोड़कर दाँत दूसरों का।
किसी के दाँत निकलते हैं।
उछलने लगते हैं कितने।
जब किसी को वे छलते हैं॥6॥
 
चोट पहुँचा-पहुँचा कितने।
काम चोरी का करते हैं।
बहुत हैं ह-भ बनते।
जब किसी का कुछ हरते हैं॥7॥
 
लुभा ललनाओं को कितने।
बहँक बनते हैं छविशाली।
जाल में फाँस युवतियों को।
बचाते हैं मुँह की लाली॥8॥
 
मोहते रहते हैं कितने।
मोह से हो-हो मतवाले।
छलकते प्यारेले बनते हैं।
छातियों में छाले डाले॥9॥
 
काम-मोहादि प्रपंचों सें
वासनाओं से हो बाधिकत।
प्रायश: होता रहता है।
मनुज आनन्द महाकलुषित॥10॥
 
(12)
 
परमानन्द-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
सत्य ही है जिसका सर्वस्व।
धर्ममय है जिसका संसार।
ज्ञानगत है जिसका विज्ञान।
रुचिरतम है जिसका आचार॥1॥
 
जिसे सच्चा है तत्तव-विवेक।
शुध्द है जिसका सर्व विचार।
लोकप्रिय है जिसका सत्कर्म।
प्रेम का जो है पारावार॥2॥
 
भूतहित से हो-हो अभिभूत।
भूतिमय है जिसकी भवभक्ति।
जिसे है करती सदा विमुग्ध।
मनुजता की महती अनुरक्ति॥3॥
 
जो समझ पाता है यह मर्म।
सत्य-प्रेमी हैं सब मत पंथ।
एक है सार्वभौम सिध्दान्त।
मान्य हैं सर्व धर्म के ग्रंथ॥4॥
 
देश को कहते हुए स्वदेश।
जिसे है सब देशों से प्यारे।
सगे हैं जिसके मानव मात्रा।
सदन है जिसका सब संसार॥5॥
 
ललित लौकिकता में अवलोक।
अलौकिकता की व्यापक पूत्तिक।
मानता है जो हो-हो मुग्ध।
विश्व को विश्वात्मा की मुर्त्ति॥6॥
 
भरी है भव में जो सर्वत्र।
ज्ञान-अर्जन की सहज विभूति।
देख उसको जिसकी वर दृष्टि।
लाभ करती है प्रिय अनुभूति॥7॥
 
जो कलुष का करता है त्याग।
सताता जिसे नहीं है द्वन्द्व॥
जिसे उद्बोधा-मर्म है ज्ञात।
वही पाता है परमानन्द॥8॥
 
(13)
 
दिव-विभा की विभूतियों में जो।
है सदा उस दिवेन्द्र को पाता।
जिस किरीट-किरीट-मणियों का।
एक मणि है द्युमणि कहा जाता॥1॥
 
देखता है विमुग्ध हो-हो जो।
व्योम के दिव्यतम कतारों को।
विभु महाअब्धिक-अंक में विलसे।
बुद्बुदोपम अनन्त तारों को॥2॥
 
दृष्टि में है बसी हुई जिसकी।
लालिमा उस ललामतामय की।
लोक की रंजिनी ऊषा जिससे।
पा सकी सिध्दियाँ स्वआलय की॥3॥
 
है प्रभावित हुआ हृदय जिसका।
उस प्रभावान की प्रभा द्वारा।
पा रही है विभूतियाँ जिससे।
भा-भरी व्योम-सुरसरी-धारा॥4॥
 
हैं सके देख दिव्य दृग जिसके।
वह महत्ता महान सत्ता की।
प्रीतिमय हो प्रसादिका जो है।
सृष्टि के एक-एक पत्ता की॥5॥
 
चित्त है यह बता रहा जिसका।
लोकपति की विचित्र लीला है।
है धात्री
उडुगणागार व्योम नीला है॥6॥
 
है यही सोचती है सुमति जिसकी।
मूल में है महान मौलिकता।
कल्पना है अकल्पना बनती।
लोक में है भरी अलौकिकता॥7॥
 
ब्रह्म की उस ललित कला को जो।
है लसी लोक-मध्य बन सुखकन्द।
देख पाया प्रफुल्ल हो जिसने।
क्यों मिलेगा उसे न परमानन्द॥8॥
 
(14)
 
निरवलम्बों का हो अवलम्ब।
व्यथाएँ कर व्यथितों की दूर।
तिमिर-परिपूरित चित्त-निमित्त।
सदा बन-बन सहस्रकर सूर॥1॥
 
वैरियों से कर कभी न वैर।
अहित-हित-रत रह-रह सब काल।
विलोके विपुल विभुक्षित-वृन्द।
समर्पण कर व्यंजन का थाल॥2॥
 
सदयता सहानुभूति-समेत।
दुर्जनों को दे समुचित दंड।
दलन कर वर विवेक के साथ।
पतित पाषण्डी-जन पाषण्ड॥3॥
 
मानकर उचित बात सर्वत्र।
दानकर सबको वास्तव स्वत्व।
छोड़कर दंभ-द्रोह-दुर्वृत्तिक।
त्याग कर स्वार्थ-निकेत निजत्व॥4॥
 
छोड़ हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव।
दूर कर मानस-सकल-विकार।
नीति-पथ पर हो दृढ़ आरूढ़।
त्याग कर सारा अत्याचार॥5॥
 
हो दलित-मानस-लौह-निमित्त।
मंजुतम पारस तुल्य महान।
किये कंगालों का कल्याण।
अकिंचन को कर कंचन-दान॥6॥
 
महँक की मोहकता अवलोक।
सच्चरित-सुमनों से कर प्यारे।
प्रकृति के कान्त गले में डाल।
शील-मुक्तामणि मंजुल हार॥7॥
 
कर कुटिल-हृदय-हृदय को कान्त।
मन्द मानस को कर सुखकन्द।
लोक-कण्टक को विरच प्रसून।
सुजन पाता है परमानन्द॥8॥
 
(15)
 
मनन कर सादर सत्साहित्य।
सुने लोकोत्तर कविता-पाठ।
किसी वांछित कर से तत्काल।
खुले जी की चिरकालिक गाँठ॥1॥
 
विषय का होवे मर्मस्पर्श।
भरा हो जिसमें अनुभव-मर्म।
ललित भावों में हो तल्लीन।
किये कल-कौशलमय कवि-कर्म॥2॥
 
धर्म ममता शुचिता सद्भाव।
सदाशयता हों जिसके अंग।
सुने वह विबुध-कंठसंभूत।
मधुरतम पावन कथा-प्रसंग॥3॥
 
लोक-परलोक-दिव्य-आलोक।
लसित, जिसका हो धर्म-प्रसंग।
सर्वहित हो जिसका सर्वस्व।
किए ऐसा पुनीत सत्संग॥4॥
 
सरसतम स्वर-लय-ताल-समेत।
सुधारस-सिक्त कण्ठ से गीत।
लोकहित, भवरति, भाव-उपेत।
सुने रसमय स्वर्गिक संगीत॥5॥
 
निगम का महा अगम झंकार।
आगमों का कमनीय निनाद।
श्रवण कर बड़े प्रेम के साथ।
उपनिषद का अनुपम संवाद॥6॥
 
लगा आसन, समाधिक में बैठ।
कर्णगत हुए अनाहत नाद।
विलोके वांछनीय विभर्मूर्ति।
कर अलौकिक रस का आस्वाद॥7॥
 
हृदय में बहती है रसधार।
दिव्य बनता है मानस-द्वन्द्व।
विवृत हो जाते हैं युग नेत्र।
मनुज पाता है परमानन्द॥8॥
 
(16)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
हैं सेवा करती प्रसन्न मन से होते समुत्सन्न की।
पोंछा हैं करती प्रफुल्ल चित से आँसू व्यथाग्रस्त का।
जाती हैं वन पोत पूत रुचि से दु:खाब्धिक में मग्न का।
पूर्णानन्द-निकेतन प्रकृति की हैं सात्तिवकी वृत्तिकयाँ॥1॥
 
प्यासे को जल दे, विपन्न जन को आपत्तिकयों से बचा।
चिन्ताएँ कर दूर चिन्तित जनों की चिन्त्य आदर्श से।
बाधाएँ कर धवस्त व्यस्त जन की संत्रास्त को त्राकण दे।
होती है सुखिता सदा सदयता हो पूर्ण आनन्दिता॥2॥
 
हो राका-रजनी-समान रुचिरा हो कीत्तिक से कीत्तिकता।
हो सत्कर्म-परायणा सहृदया हो शान्ति से पूरिता।
हो सेवा-निरता उदारचरिता हो लोक-सम्मानिता।
होती हैं अभिनन्दिता सुकृतियाँ हो भूरि आनन्दिता॥3॥
 
पाता है वह सत्य का, पतित को है पूत देता बना।
पाते हैं उसको सचेत उसमें है पूत्तिक चैतन्य की।
है उध्दारक धर्म का सतत है सत्कर्म का संग्रही।
है आनन्द-निधन मूर्ति भव में श्रीसच्चिदानन्द की॥4॥
 
चाहे हो रवि सोम शुक्र अथवा हो व्योम-तारावली।
चाहे हों ललिता लता-तृण ह उत्फुल्ल वृक्षावली।
चाहे हों भव भव्य दृश्य सबकी देखे महादिव्यता।
क्यों आनन्द विभोर हो न वह जो आनन्दसर्वस्व है॥5॥
 
चाहे हो नभ नीलिमा-निलय या भू शस्य से श्यामला।
चाहे हो वन हरी भूमि अथवा हो वृक्ष रम्य स्थली।
पाता है वह प्रेमदेव-विभुता की व्यंजना विश्व में।
पूर्णानंद मिला कहाँ न उसको जो प्रेमसर्वस्व है॥6॥
 
है विज्ञात मनोज्ञ मानसर के कान्तांबुजों की कथा।
देखा है खिलना गुलाब-कुल का नीपादि का फूलना।
जानी है कुसुमावली-विकचता आम्रादि की हृष्टता।
होती है अतुला प्रफुल्ल चित की आनन्द-उत्फुल्लता॥7॥
 
भू पाये ऋतु-कान्त-कान्ति उतनी होती नहीं मोदिता।
होता व्योम नहीं प्रसन्न उतना पा शारदी पूर्णिमा।
देखे दिव्यतमा विभूति भव की पा वृत्तिक सर्वोत्तामा।
होती है जितनी विमुग्ध मन को आनन्द-उन्मत्ताता॥8॥
 
देती है भर भाव में सरसता कान्तोक्ति में मुग्धता।
खोती है तमतोम लोक-उर का आलोक-माला दिखा।
कानों में चित में विमुग्ध मन में है ढाल पाती सुधा।
हो दिव्या सविता-समान कविता देती महानन्द है॥9॥
 
लाती है चुन फूल को सुकरता से नन्दनोद्यान से।
लेती है फल कल्प से सुरगवी को है सदा दूहती।
दे-देके तम को प्रकाश, भरती है भाव में भव्यता।
हो दिव्या दिव भासमान प्रतिभा पाती महानन्द है॥10॥
 
पाते जीवन हैं प्रफुल्ल बनके सद्भाव-पौधे सदा।
होती है सरसा प्रवृत्तिक-लतिका हो सर्वथा सिंचिता।
है सिक्ता बनती सुचारु रुचि हो दूर्वा-समा शोभना।
प्राणी के उर-भूमिमध्य महती आनन्द-धारा बहे॥11॥
 
नाना प्राणिसमूह पोषणरता है मेघमाला-समा।
है वैसी रस-दायिका सकल को जैसी की देवापगा।
पाते हैं सुख-साधिकका शरद् की शान्ता सिता-सी उसे।
हो जाती है मति है महान-हृदया आनन्दमग्ना बने॥12॥
 
झाँकी है उसकी कहाँ न, झुकके औ' झाँकके देख लो।
है होती रहती दिशा मुखरिता र्सत्कीत्तिक-आलाप से।
है नाचा करती विभूति विभु की द्रष्टा-दृगों में सदा।
है आनन्द निमग्नभूत जन को आनन्दमग्ना मही॥13॥
 
प्यारा है जितना स्वदेश उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीत्तिक जितनी उध्दार की कामना।
उत्सर्गीकृत मातृभूमि पर जो सन्तान है, धान्य है।
पाता है वह महानन्द बनता जो त्यागसर्वस्व है॥14॥
 
जो है मूर्ति विवेक की, प्रगति है जो ज्ञान-विज्ञान की।
जो है सर्वजनोपकार-निरता प्रज्ञामयी मुक्तिदा।
जो है प्रेमपरायणा, मनुजतासर्वस्व, सत्यप्रिया।
है विद्या वह महानन्द-जननी, शुध्दा, परासंज्ञका॥15॥
 

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