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Nazeer-Akbarabadi

नज़ीर अकबराबादी की प्रसिद्ध कविताएं 
Famous Poetry of Nazeer Akbarabadi

1. बटुआ-1 - नज़ीर अकबराबादी

देख तेरा यह झमकता हुआ ऐ जां! बटुआ।
सुबह ने फेंक दिया मेहर का रख़्शां बटुआ॥
चांदनी में तेरे बटुए के मुक़ाबिल होने।
बनके निकला है फ़लक पर महेताबां बटुआ॥
गर चमन में तुझे बटुए की तलब हो तो वहीं।
ज़र भरा गुन्चे का लादें गुलेख़न्दां बटुआ॥
हाथ नाजुक हैं तेरे और वह हैं संगीं वरना।
बनके आ जावे अभी लाल बदख़्शां बटुआ॥
यूं कहा मैं कि यह बटुआ ज़रा हमको दीजे।
हम भी बनवाऐंगे ऐसा ही दुरख़शां बटुआ॥
सुनके बटुए को दिखाकर यह कहा वाह रे शऊर।
अरे बन सकता है ऐसा कोई अब याँ बटुआ॥
जब कहा मैंने सबब क्या तो हँस के "नज़ीर"।
यह तो लायी हैं मेरे वास्ते परियां बटुआ॥
(रख़्शां=प्रकाशमान, महेताबां=चाँद, दुरख़शां=
प्रकाशमान, शऊर=विवेक,सभ्यता, सबब=
कारण)

2. बटुआ-2 - नज़ीर अकबराबादी

तुम्हारे हाथ से होता नहीं एक दम जुदा बटुआ।
यह किस उल्फ़त भरी ने सच कहो तुमको दिया बटुआ॥
मुअत्तर हो रहा है निगहतज़ो ज़ोक़रनफ़िल से।
कहूं मैं इत्रदां क्यूं साहब इस बटुए को या बटुआ॥
घड़ी गुन्चा घड़ी गुल, फिर घड़ी में गुल से गुंचा हो।
तुम्हारे आगे क्या क्या रंग बदले है पड़ा बटुआ॥
तुम्हें हम चाहें तुम बटुए को चाहो क्या तमाशा है।
हमारे दिल रुबा तुम और तुम्हारा दिलरुबा बटुआ॥
जो तुमने बदले एक बटुए के एक बोसा ही ठहराया।
तो साहब याद रखियो यह हमारा है छटा बटुआ॥
निहायत पुरतकल्लुफ़ और बहुत खु़शकिता नाजुक सा।
बसद ताकीद बनवाया था हमने एक नया बटुआ॥
गएए हम इत्तिफ़ाक़न उस परी रू से जो मिलने को।
तो क्या कहिये वही उस दम हमारे पास था बटुआ॥
यकायक आ पड़ी उसकी नज़र इस पर तो ले हम से।
कहा, यह तो बनाया है किसी ने वाह क्या बटुआ॥
बहुत तारीफ़ कीं और हंस दिया जब दिल में हम समझे।
कि यह तारीफ़ कुछ ख़ाली न जावेगी चला बटुआ॥
कभी यूं और कभी वूं देख आखि़र यूं कहा हंस कर।
यह किसका है क़यामत पुर नज़ाकत खु़शनुमा बटुआ॥
कहा जब मैंने हंसकर सौ नियाज़ोइज्ज़ से ऐ जां।
इसे मैला न कीजिये, यह है एक महबूब का बटुआ॥
मैं भूले से ले आया था अगर दरकार हो तुमको।
तो मैं इससे भी बेहतर और दूं तुमको मंगा बटुआ॥
कहा हम तो यही लेंगे, तो मैंने फिर कहा साहब।
मैं बेगाना तुम्हें अब किस तरह से दूं भला बटुआ॥
जूं ही यह बात निकली मेरे मुंह से फिर तो झुंझलाकर।
वहीं उस शोख़ ने मारा, मेरे मुंह पर उठा बटुआ॥
कहा मैंने खफ़ा होते हो क्यूं चाहो तुम्हीं ले लो।
यह कहकर मैंने फिर उसकी तरफ ढलका दिया बटुआ॥
चला जब वह ढलकता उसकी जानिब देखिये शामत।
कहीं नागह सरे ज़ानू मैं उसके जा लगा बटुआ॥
तो ले बटुए को और जानू पकड़ कर यूं कहा दुश्मन।
यह तूने आपसे मारा मेरे, वारूं तेरा बटुआ॥
जला दूं टुकड़े कर डालूं वले तुझको न दूं हरगिज।
लगा मेरे बहुत, अब तो यह मेरा हो चुका बटुआ॥
न बटुआ दूं "नज़ीर" और तुझसे जानू का भी बदला लूं।
यही धमकी दिखाकर आखि़र उसने उसने ले लिया बटुआ॥
(मुअत्तर=सुगन्धित, निगहतज़ो=सुगन्ध से भरपूर,
इत्रदां=सुगन्ध पात्र, निहायत=अत्यन्त, पुरतकल्लुफ़=
सजा हुआ, सुसज्जित, खु़शकिता=सुन्दर, सौ
नियाज़ोइज्ज़=सौ बार हठ करके, बसद ताकीद=
नम्र निवेदन, हरगिज=कदापि)

3. ताबीज़-1 - नज़ीर अकबराबादी

अब तो लिख दो हज़रत मुझे कोई ऐसा ताबीज़।
हो रहूं जिससे मैं गुल के गले का ताबीज़॥
हम तो क्या हैं कि फ़रिश्ते के दिल छल लें।
आन ऐसा है यह हाथ का छल्ला ताबीज़॥
क्यों न हैकल में असर होवे कि उसका हर एक।
हुस्न में सीना पसीना है यह पहुंचा ताबीज॥
कुछ न कुछ आज तो हम तुमसे निशाना लेंगे।
या यह जं़जीर नई या सुनहरा ताबीज़॥
तप तिजारी के लिए चाहिए गंडा ताबीज़।
और जिन्हें इश्क का तप हो उन्हें क्या ताबीज़॥
उसके नीमा से जो मिलता मुझे एक तार "नज़ीर"।
तो बनाता उसे मैं अपने गले का ताबीज़॥
(हैकल=गले का हार, नीमा=ऊंचा पाजामा)

4. ताबीज़-2 - नज़ीर अकबराबादी

हो कुछ आसेब तो वाँ चाहिए गंडा ताबीज़।
और जो हो इश्क़ का साया तो करे क्या ताबीज़।
दिल को जिस वक्त यह जिन आन के लिपटा फिर तो।
क्या करें वां वह जो लिखते हैं फ़लीता ताबीज़।
हम तो जब होश में आवें तो कहीं से पावें।
यार के हाथ का, बाजू का, गले का ताबीज़।
ज़ोर ताबीज़ का चलता तो अरब में यारो।
क्या कोई एक भी मजनूँ को न देता ताबीज़।
कोहकन कोह को किस वास्ते काटा करता।
देते ग़मख़्वार न क्या इसके तई ला ताबीज़।
आखि़र इसके भी गया दिल का धड़कना उस रोज़।
क़ब्र का तेश ने जब इसके तराशा ताबीज़।
हमको भी कितने ही लोगों ने दिए आह "नज़ीर"।
पर किसी का भी कोई काम न आया ताबीज़।
इश्क का दूर करे दिल से जो धड़का ताबीज़।
इस धड़ाके का कोई हमने न देखा ताबीज़॥
(आसेब=प्रेत बाधा, कोहकन=पहाड़ काटने
वाला,शीरीं के प्रेमी फरहाद की उपाधि जिसने
शीरीं के लिए पहाड़ काटते हुए अपने प्राण दे
दिए, कोह=पहाड़, तेश=तेशः,कुदाल)

5. ख़त - नज़ीर अकबराबादी

"क़ासिद" सनम ने ख़त को मेरे देख क्या कहा?
हर्फ़े इताब, या सुखुने दिल कुशा कहा?
तुझको क़सम है, कीज़ो न पोशीदा मुझसे तू।
कहियो वही जो उसने मुझे बरमला कहा।
क़ासिद ने जब तो सुनके कहा "क्या कहूं मैं यार"।
पहले मुझी को उसने बहुत नासज़ा कहा।
फिर तुझको सौ इताब से झुझंला के दम ब दम।
क्या क्या कहूं मैं तुझसे कि क्या क्या बुरा कहा।
इसका मज़ा चखाऊंगा जाकर उसे शिताब।
रह रह इसी सुख़न के तई बारहा कहा।
मेरी तो कुछ खता नहीं तू ही समझ इसे।
बेजा कहा यह उसने मुझे या बजा कहा।
कहता था मैं तुझे कि न भेज उसको ख़त मियां।
लेकिन "नज़ीर" तूने न माना मेरा कहा॥

6. कोरा बर्तन - नज़ीर अकबराबादी

कोरे बर्तन हैं क्यारी गुलशन की।
जिस से खिलती है हर कली तन की।
बूंद पानी की उनमें जब खनकी।
क्या वह प्यारी सदा है सन सन की।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

पानी की आप अब बड़ी है ज़ात।
क़तरा क़तरा है जिसका आबेहयात।
कोरे बर्तन में जबकि आया हात।
फिर तो आबे हयात भी है मात।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

वह जो पानी की कोरी गोली है।
वही आने के मोल को ली है।
क्या ही ठण्डी हवा की गोली है।
क्या कहूं गोली गोली कोली है।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

यह जो गोली की बोलियां बांधी।
हमने पानी की गोलियां बांधी।
सोंधी सोंधी ठठोलियां बांधी।
दिल ने फूलों की झोलियां बांधी।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

कोरा पनिहारी का जो है मटका।
उसका जोबन कुछ और ही मटका।
ले गया जान पांव का खटका।
दिल घड़े की तरह से दे पटका॥
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

कोरी ठिलिया यह देख कर लोटा।
दिल लगा होने कुछ खरा खोटा।
गरचे लोटा वह क़द का है छोटा।
जिसने देखा उसी का दिल लोटा।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

कोरे कूज़ों को देख आलम में।
कूजे़ मिश्री के भर गए ग़म में।
यूं वह रिसते हैं आब के नम में।
जैसे डूबे हों फूल शबनम में।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

वाह जो कोरा सफ़ेद झज्जर है।
जिसकी जागीर मुल्क झज्जर है।
बेल बूटे से इस झमक पर है।
ताश, कमख़्वाब, या मुशज्जर है।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

जिस सुराही में सर्द पानी है।
मोती की आब पानी पानी है।
ज़िन्दगी की यही निशानी है।
दोस्तो यह भी बात मानी है।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

जितने नज़रो नियाज करते हैं।
और जो पीरों से अपने डरते हैं।
जबकि ला फूल पान धरते हैं।
वह भी कोरी ही ठिलिया भरते हैं।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

ख़ाक से जबकि उनको गढ़ते हैं।
बन्दिगी से यह अपनी बढ़ते हैं।
कोरों पर फूल हार चढ़ते हैं।
हूरौ गुल्मां दुरूद पढ़ते हैं।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥

कोरों पे जो "नज़ीर" जोबन है।
जोजरे में कहां वह खन खन है।
जिस घड़ोची पे कोरा बासन है।
वह घड़ोची नहीं है गुलशन है।
ताज़गी जी की और तरी तन की।
वाह, क्या बात कोरे बर्तन की॥
(आबेहयात=अमृत, कूज़ों=मिट्टी
के शकोरे, जोजरे=पुराना बर्तन)

7. हुक्का - नज़ीर अकबराबादी

जब से हुक़्क़ा तुझ लबेजांबख़्श का हमराज है।
तब से हक़ हक़ क्या कि कै़ कै़ की सी कुछ आवाज है।
यह जो उड़ता है धुआं अब तेरे मुंह से ऐ परी।
इस धुऐं बालानसब की अर्श तक परवाज है।
पेचवाँ पीने में किस किस आन का खुलता है पेच।
गुड़गड़ी पीने में काफ़िर और ही अन्दाज़ है।
पेचवां को अपने पेचों पर नहीं इतना ग़ुरूर।
जितना तेरी गुडगड़ी को डेढ़ ख़म पर नाज़ है।
दिल जलाने को तो अभी आशिके़ जां बाज़ है।
आब ने हुक़्के़ तवे नैचे को यह रुतवा कहां॥
मुंह से लगने में तो अब मनहाल भी मुमताज़ है।
गर तुझे होना है गुल ऐ दिल तो जल और दम न मार॥
देख तम्बाकू को क्या क्या सोज़ है और साज़ है।
गुल किया दम भर में तम्बाकू जलाकर आग में॥
ऐ परी रो तेे दम में तो यह कुछ ग़म्माज़ है।
है कहां टुक बोल उठ जल्दी खु़दा के वास्ते॥
ओ मियां हुक़्के़ अ़जब प्यारी तेरी आवाज़ है।
क्यों न तुझको मुंह लगावें ख़ल्क़ में शाहो गदा॥
तू तो परियों के लबों का हमदमो हमराज़ है।
पेचवाँ पर पेच खाती है पड़ी हूरों की जुल्फ॥
गुड़गुड़ी एक दमड़ी की महकिया को रहे आजिज़ सदा।
हमको क्या क्या गुड़गुड़ी और पेचवां पर नाज़ है॥
ग़ौर कर देखा तो अब यह वह मसल है ऐ 'नज़ीर'।
बाप ने पिदड़ी न मारी बेटा तीरन्दाज़ है॥
(लबेजांबख़्श=होंठों को जीवन देने वाला,
बालानसब=उच्चकुल, परवाज=उड़ान,
ग़ुरूर=गर्व, मुमताज़=सम्मानित, सोज़=
जलन)

8. पंखा-1 - नज़ीर अकबराबादी

क्या मौसम गर्मी में नमूदार है पंखा।
खू़बों के पसीनों का ख़रीदार है पंखा॥
गुलरू का हर एक जा पे तलबगार है पंखा।
अब पास मेरे यार के हर बार है पंखा॥
गर्मी से मुहब्बत की बड़ा यार है पंखा॥1॥

क्यूं कर न उठे दिल से मेरे शोलएजांकाह?।
जब शोख़ की पंखे के तई जी से हुई चाह॥
जल जावे जिगर क्यूं न भला रश्क से अब आह।
आगे दिले सदचाक हमारा था हुआ ख़्वाह॥
और अब तो दिलो जां से हवादार है पंखा॥2॥

क्या क्या तुझे उल्फ़त को जताता है वफ़ायें।
धूप आवे तो करता है पड़ा हाथ से छायें॥
बेताब हो कर-कर के खु़शामद की हवायें।
लेता है हर एक दम तेरे मुखड़े की बलायें॥
ऐसा तेरी उल्फ़त में गिरफ्तार है पंखा॥3॥

यह उंगलियां नाजु़क जो तुम्हारी हैं नुमाया।
डरता हूं कहीं फांस से होवें न यह हैरां।
इन नर्म से हाथों का तरस चाहिए हर आं।
पंखे को खजूरी के न लो हाथ में ऐ जां॥
तुमको तो मेरे दिल का सज़ावार है पंखा॥4॥

छेड़ा जो मेरे दिल की मुहब्बत के असर ने।
गर्मी में कहीं बैठ के पंखा तुझे करने॥
रंग चश्म के डोरों के तई खू़ने जिगर ने।
सीख़ो से मिज़ा की मेरी गूंधा है नज़र ने॥
पंखे तो बहुत बहुत हैं पै यह नूर कार है पंखा॥5॥

दिल बाग़ हुआ जाता है फूलों की भबक से।
और रूह बसी जाती है खु़शबू की महक से॥
कुछ ख़स से कुछ उस पानी की बूंदों की टपक से।
नींद आती है आंखों में चली जिनकी झपक से॥
क्या यार के झूलने का मजे़दार है पंखा॥6॥

जाड़े में जो रहते थे हम उस गुल के कने सो।
गर्मी ने जुदा कर दिया गर्मी का बुरा हो॥
हसरत से भला फूंकिये क्यूंकर न जिगर को।
क्या गर्दिशेअय्यामे हैं देखो तो अज़ीजो॥
जब यार के हम यार थे अब यार है पंखा॥7॥

नर्मी से सफ़ाई से नज़ाकत से भड़क से।
गोटों की लगावट से और अबरक की चमक से॥
मुक़्कै़श के झड़ते हैं पड़े तार झपक से।
दरियाई व गोटे व किनारी की झमक से॥
क हाथ में काफ़िर के झमकदार है पंखा॥8॥

एक दम तो मेरी जां तेरे पंखे की हवा लूं।
गर्मी तो पंखे की है टुक उसको निकालूं॥
आंखों से मलूं प्यार करूं छाती लगा लूं।
गर हुक्म करे तू तो मेरी जान उठा लूं॥
एक चार घड़ी को मुझे दरकार है पंखा॥9॥

इस धूप में ऐ जां कहीं मत पांव निकाले।
जलती है ज़मीं आग सी पड़ जायेंगे छाले॥
गर्मी है ज़रा तन के पसीने को सुखा ले।
आंखों में मेरी बैठ के टुक सर्द हवा ले॥
दीवार का तेरे ही तलबगार है पंखा॥10॥

रखती है तेरे हुस्न से सामाने चमन चश्म।
सूरत से तेरी रखती है नित उसकी लगन चश्म॥
सूराख़ से हर जाल से हर लहर से बन चश्म।
देखे हैं तेरे मुंह को यह होकर हमातन चश्म॥
यां तक तो तेरा तालिबेदीदार है पंखा॥11॥

है यह वह हवादार जहां इसका गुज़र हो।
फिर गर्मी तो वां अपने पसीने में चले रो॥
करता है ख़ुशी रूह को देता है अ़र्क खो।
रखता है सदा अपने वह क़ब्जे में हवा को॥
सच पूछो तो कुछ साहिबेअसरार1 है पंखा॥12॥

ले शाम से गर्मी में सदा ताबा सहर गाह।
रहता है हर एक वक़्त परीज़ादों के हमराह॥
आशिक़ के तई उसकी भला क्यूंकि न हो चाह?।
फूलों की गुंथावट से अब उस गुल का "नज़ीर" आह॥
रश्क चमनो हसरते गुलज़ार है पंखा॥13॥
(नमूदार=प्रकट, शोलएजांकाह=प्राणों को घुलाने
वाली चिंगारी, सदचाक=सौ प्रकार से कटा हुआ,
ख़्वाह=चाहने वाला, नुमाया=प्रकट, मिज़ा=पलकों
की नोक, गर्दिशेअय्यामे=दिनों का चक्कर, अज़ीजो=
मित्रों,प्रियजनों, हमातन=ध्यानपूर्वक,टकटकी लगाकर,
तालिबेदीदार=दर्शनाभिलाषी, साहिबेअसरार=भेद
छुपाने वाला)

9. पंखा-2 - नज़ीर अकबराबादी

बर्ग गुलो लाला का न बनवाइये पंखा।
इस से भी सुबक और कोई मंगवाइये पंखा॥
हम तर हैं पसीने में तो क्या आपको साहब।
ख़ुश बैठे हुए आप तो झमकाइये पंखा॥
मुद्दत के तुम्हारे हैं हवादार हम ऐ जां।
एक चार घड़ी हमसे भी झलवाइए पंखा॥
सुनकर यह कहा खै़र अगर है यूं ही दिल में।
तो जाके शिताबी अभी ले आइए पंखा॥
जब हमने कहा यां तो खजूरों के हैं अक्सर।
मुक्केश का ले आवें जो फ़रमाइए पंखा॥
फ़रमाया किसी का हो पे नाजुक हो सुबुक हो।
ऐसा न हो जो फिर के बदलवाइए पंखा॥
बनवा के बसदजे़ब कहा हमने यह आकर।
हम शर्त बदें ऐसा जो दिखलाइए पंखा॥
जब हंस के कहा छेड़ तुम्हारी नहीं जाती।
अब जी में है मुंह पर कोई लगवाइये पंखा॥
अलक़िस्सा जोही झलने लगे हम उसे ख़ुश हो।
बोला वहीं बस बस ज़रा ठहराइए पंखा॥
हलके़ मेरी जुल्फ़ों के खुले जाते हैं हिल हिल।
ऐसा भी तो लपझप से न झपकाइये पंखा॥
पंखे के भी झलने का नहीं तुमको शऊर अब।
मालूम हुआ बस जी इधर लाइये पंखा॥
एक दिन अ़र्कआलूद हो घबरा के कहा मैं।
इस वक़्त तो हमको कोई दिलवाइये पंखा॥
बोला कि वे खु़श फ़ायदा क्या अब जो तुम्हारे।
इन खुरखुरे हाथों से पकड़वाइये पंखा॥
इस छोटे से पंखे की हवा कब तुम्हें आये।
बे फ़ायदा जागह से न हिलवाइये पंखा॥
ऐसा ही जो झलना है "नज़ीर" अब तम्हें तो आप।
गुढ पंख के पर का कोई बनवाइये पंखा॥
(सुबक=हल्का, शिताबी=तुरन्त, बसदजे़ब=
अत्यधिक मनोरम, अलक़िस्सा=अतः, शऊर=
ढंग, अ़र्कआलूद=पसीने-पसीने होना लज्जित
होना)

10. पंखिया - नज़ीर अकबराबादी

क्यूं न झमक कर करे जलवा गरी पंखिया।
कुछ कफ़ेनाजुक परी, कुछ वह परी पंखिया॥
देख चमन में सहर, इसकी जबी पर अर्क़।
लाई उधर से नसीम, इत्र भरी पंखिया॥
शाख़ ने गुल की इधर बर्ग जो थी सब्ज तर।
उनकी बनाकर झली उसको हरी पंखिया॥
गर्मी में एक दिन गये उससे जो मिलने को हम।
छोटी सी आगे थी एक उसके धरी पंखिया॥
हम थे पसीने में तर, बैठते ही यक बयक।
हाथ बढ़ाकर जो लीं, उसकी ज़री पंखिया॥
उसने वहीं छीन ली और यह कहा वाह वाह।
तूने छुई क्यूं मेरी, जेब भरी पंखिया॥
कुछ थी अर्क़ की तरी, कुछ हुई खि़जलत "नज़ीर"।
और तरी के ऊपर लाई तरी पंखिया॥
(कफ़ेनाजुक परी=अप्सरा का सुन्दर हाथ,
सहर=प्रातः, जबी=माथा, नसीम=शीतल मंद
पवन, खि़जलत=लज्जा)

11. कोठा-1 - नज़ीर अकबराबादी

रहे जो शब को हम उस गुल के साथ कोठे पर।
तो क्या बहार से गुज़री है रात कोठे पर॥
यह धूमधाम रही सुबह तक अहा हा हा।
किसी की उतरे है जैसे बरात कोठे पर॥
मकां जो ऐश का हाथ आया गै़र से खाली।
पटे के चलने लगे फिर तो हाथ कोठे पर॥
गिराया शोर किया गालियां दी धूम मची।
अ़जब तरह की हुई बारदात कोठे पर॥
लिखें हम ऐश की तख़्ती को किस तरह ऐ जां।
क़लम ज़मीन के ऊपर, दवात कोठे पर॥
कमद जुल्फ़ की लटका के दिल को ले लीजे।
यह जिन्स यूं नहीं आने की हाथ कोठे पर॥
खु़दा के वास्ते जीने की राह बतलाओ।
हमें भी कहनी है कुछ तुम से बात कोठे पर॥
लिपट के सोये जो उस गुलबदन के साथ "नज़ीर"।
तमाम हो गईं हल मुश्किलात कोठे पर॥
(बारदात=घटना, जिन्स=वस्तु)

12. कोठा-2 - नज़ीर अकबराबादी

कभी तो जाओ हमारे भी जान कोठे पर।
लिया है हमने अकेला मकान कोठे पर॥
खड़े होते हो तुम आन आन कोठे पर।
करोगे हुस्न की क्या तुम दुकान कोठे पर॥
तुम्हें जो शाम को देखा था बाम पर मैंने।
तमाम रात रहा मेरा ध्यान कोठे पर॥
यकीं है बल्कि मेरी जान जबकि निकलेगी।
तो आ रहेगी तुम्हारे ही जान कोठे पर॥
मुझे यह डर है किसी की नज़र न लग जावे।
फिरो न तुम खुले बालों से जान कोठे पर॥
बशर तो क्या है फ़रिश्ते का जी निकल जावे।
तुम्हारे हुस्न की देख आन बान कोठे पर॥
झमक दिखाके हमें और भी फंसाना है।
जभी तो चढ़ते हो तुम रोज़ जान कोठे पर॥
तुम्हें तो क्या है व लेकिन मेरी ख़राबी हो।
किसी का आन पड़े अब जो ध्यान कोठे पर॥
गो चूने कारी में होती है सुखऱ्ी तो ऐसी।
किसी के खू़न का यह है निशान कोठे पर॥
यह आर्जू है किसी दिन तो अपने दिल का दर्द।
करें हम आन के तुमसे बयान कोठे पर॥
लड़ाओ गै़र से आंखें कहो हो हम से आह।
कि था हमें तो तुम्हारा ही ध्यान कोठे पर॥
खु़दा के वास्ते इतना तो झूठ मत बोलो।
कहीं न टूट पड़े आसमान कोठे पर॥
कमंद जुल्फ़ की लटका के उस सनम ने "नज़ीर"।
चढ़ा लिया मुझे अपने निदान कोठे पर॥

13. कोठे पर - नज़ीर अकबराबादी

हमेशा आके वह वाला सिफ़ात कोठे पर।
सुखु़न के घोले है कंदो नबात कोठे पर।
लगा रक़ीब की दहशत से घात कोठे पर।
रहे जो शब को हम उस गुल के साथ कोठे पर।
तो क्या बहार से गुज़री है रात कोठे पर॥

इधर से साक़ीयो मुतरिब भी हो गये यक जा।
इधर वह पार उधर नाच राग भी ठहरा।
अ़जब बहार की एक अन्जुमन हुई बरपा।
यह धुम धाम रही सुबह तक, अहा, हा, हा।
किसी की उतरे है जैसे बरात कोठे पर॥

हिजाब दूर हुआ दौरे जाम की ठहरी।
लगीं निकलने जो कुछ हसरतें थीं दिल में भरी।
बहुत दिनों से इसी बात की तमन्ना थी।
मकां जो ऐश का हाथ आया गै़र से ख़ाली।
पटे के चलने लगे फिर तो हाथ कोठे पर॥

यह ऐश सुनके रक़ीबों के दिल में आग लगी।
तो चोर बन के चढ़े, और मुंडेर आ पकड़ी।
इधर वह यार, उधर हमने लाठी पाठी की।
गिराया, शोर किया, गालियां दीं, धूम मची।
अजब तरह की हुई वारदात कोठे पर॥

अकेले बैठे हो तुम पुश्ते बाम पर इस आन।
हमें बुलाओ तो कुछ ऐश का भी हो सामान।
यह बात पर वही परदे में लीजै अब पहचान।
लिखें हम ऐश की तख़्ती को किस तरह ऐ जान?
क़लम ज़मीन के ऊपर, दवात कोठे पर।

मियां यह हाथ पे हम दिल जो अब लिये हैं खड़े।
और एक बोसे की क़ीमत पे बेचते हैंगे।
जो लीजिए तो यह तरकीब खू़ब है प्यारे।
कमंद जुल्फ़ की लटका के दिल को ले लीजे।
यह जिन्स यूं नहीं आने की हाथ कोठे पर।

किधर छुपे हो? ज़रा मुंह तो हमको दिखलाओ।
हमारे हाल के ऊपर भी कुछ तरस खाओ।
सभों से सुनते हो, हर एक से कहते हो आओ।
खु़दा के वास्ते ज़ीने की राह बतलाओ।
हमें भी कहनी है कुछ तुमसे बात कोठे पर॥

हुआ जो वस्ल मयस्सर बफ़ज्ले रब्बे क़दीर।
किनारो बोस की आपस में फिर हुई तदबीर।
हुए जो ऐश, तो किस किस की अब करें तक़रीर?
लिपट के सोये जो उस गुलबदन के साथ "नज़ीर"।
तमाम हो गई हल मुश्किलात कोठे पर॥
(वाला सिफ़ात=उच्च विशेषताओं वाला, दहशत=
भय, मुतरिब=गायक, हिजाब=परदा,लज्जा,
मयस्सर=प्राप्त, बफ़ज्ले रब्बे क़दीर=अल्लाह की
कृपा से)

14. मक्खियाँ - नज़ीर अकबराबादी

यारो में चुप रहूं भला ताकि?।
मक्खियां तो बहुत हुई दर पै॥
चले आते हैं ग़ोल पै दर पै।
शोर है गु़ल है भन भनाहट है॥
कोई थूके कोई करे है कै़।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥1॥

पहले मज़कूर किया है खाने का।
खाके फिर ज़िक्र किया पचाने का॥
कोई पीने का और न खाने का।
यह बुरा हाल है ज़माने का॥
सख़्त मुश्किल बड़ी खराबी है।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥2॥

दो चनों से जो मुंह चलाता है।
उसमें सौ मक्खियां वह खाता है॥
दाल रोटी पे क़हर आता है।
और जो मीठी चीज़ खाता है॥
उसने अल्लाह जाने खाई कै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥3॥

कपड़े उजले हैं या कि मैले हैं।
स पै गू मक्खियों के फैले हैं॥
सर से ता पा सड़े कुचैले हैं।
आदमी क्या कि गुड़ के भेले हैं॥
लद गये तार-तार सब रगों पै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥4॥

दिलबरों की यह शमत आई है।
आंख मक्खी ने काट खाई है॥
ठोड़ी भौं आंख सब सुजाई है।
हुस्न की भी यह बद नुमाई है॥
रो गई रंग रूप की सब रै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥5॥

रंडियां कस्बी अब जो गाती हैं।
मक्खियां मुंह में बैठ जाती हैं॥
दम बदम थूकने को जाती हैं।
खांस खंकार सर हिलाती हैं॥
तो भी बंधती नहीं है उनकी लै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥6॥

तबले वाले तो कुछ उड़ाते हैं।
ताल वाले भी खटखटाते हैं॥
ढोल वाले भी कुछ हिलाते हैं।
उनकी कमबख़्ती जो बजाते हैं॥
भोंपू नरसिंगा और तुरई करने।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥7॥

कपड़ा जिनका फटा पुराना है।
वह तो कुल मक्खियों ने साना है॥
पायजामा तमाम छाना है।
बाक़ी अन्दर का पैठ जाना है॥
वह भी मंजिल वह अब करेंगी तै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥8॥

दूध में मक्खियां ही दाबी हैं।
खाने में मक्खियां ही चाबी हैं॥
पानी में तो यह मुर्ग़आबी हैं।
अलग़रज़ जो बड़े शराबी हैं॥
वह भी सब ओकते हैं पीकर मै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥9॥

कोई ओके है रोटियां खाकर।
कोई डाले है पानी मतलाकर॥
कोई खांसे है ख़ाली उबका कर।
हद तो यह है कि सख़्त घबराकर॥
भूख में भी कोई करे है कै़।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥10॥

है "नज़ीर" अब तो शान में मक्खी।
घर के हर एक मकान में मक्खी॥
शहर की हर दुकान में मक्खी।
भर गई सब जहान में मक्खी॥
कोई खाली नहीं ग़रज़ अब शै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥11॥
(मज़कूर=वर्णन, सब रगों पै=नस
और पट्ठे, सारा शरीर, मुर्ग़आबी=
जल-पक्षी, शै=वस्तु)

15. पान - नज़ीर अकबराबादी

यह रंगे पान से जो दहन उसका लाल है।
आज इन लबों से लाल की पूरी मिसाल है॥
अस्तग़फ़िरूल्लाह लाल कहां और यह लब कहां।
ऐ बेवकू़फ़ कुछ भी तुझे इनफिजाल है॥
खु़र्शीद जिससे लाल की होती है तरबियत।
वह इन लबों के पान का अदना उगाल है॥
यों लाल गर्चे सुर्ख़ है पर संगे सख़्त है।
गो नर्म भी हुआ तो यह उसकी मजाल है॥
कहते हैं लाल टूट के होता नहीं दुरुस्त।
सच है, पर अपने दिल में तो और ही ख़याल है॥
हर दम सुखुन में टूट के बनता है लाल लब।
यह मोजिज़ा है या कोई सहरे हलाल है॥
बस लाल लब से लाल को निस्वत है क्या "नज़ीर"।
यां लाल की भी अब तो जुबां मुंह में लाल है॥
(दहन=मुँह, अस्तग़फ़िरूल्लाह=अल्लाह क्षमा करे,
इनफिजाल=लज्जा, तरबियत=प्रशिक्षण, अदना=
तुच्छ, मोजिज़ा=चमत्कार)

16. ख़मसा-1 - नज़ीर अकबराबादी

एक नुक्ता और सुनो यारो जो कौल बचन के साँचे हैं।
यह रम्ज उन्होंने खोली है ये हर्फ उन्होंने बाँचे हैं।
क्या आदम चीटीं बैल शुतुर क्या हाथी घोड़े लाँचे हैं।
क्या हूर मलिक के काबिल हैं क्या जिन्नोपरी के साँचे हैं।
हर सूरत में एक मूरत है उस मूरत के सब साँचे हैं॥ हर.

क्या फूल खिले हैं कु़दरत के यां आकर बाग बहारों में।
कलियों में कलियां फूल रहीं डाली है डाल हज़ारों में।
कुछ ऊपर रहतीं हारों में कुछ नीचे रहती झाड़ों में।
कुछ अर्जोसमां की कफ्शों में कुछ रहती चाँद सितरों में॥ हर.

नै होश ठिकाने क्या कहिये क्या जोर लगा है नल नल में।
जो एक में एक और सौ में सौ और लाख में लाख और दिल दिल में।
गेहूँ में गेहूँ जौ में जौ चावल में चावल फल फल में।
क्या पिदड़ी लाल कबूतर में क्या पिस्सू मच्छर खटमल में॥ हर.

क्या रंग भरा है कुदरत का हर आन भरे और रीते में।
जो आग लगी उस पत्थर से वह भड़की आन पलीते में।
बादाम चिरौंजी पिस्ते में क्या महुए और पपीते में।
क्या गीदड़ चर्ख चकोरों में क्या शेर हिरन और चीते में॥ हर.

हर पीपल में तो पीपल है पाखर में पाखर बड़ में बड़।
जामन में जामन आम में आम और छाल में छाल और जड़ में जड़।
क्या चीतल शिकरी बहरी बाज कूही या शाह और लग्घड़।
क्या चीलें कौये हंस हुआ क्या तूती मैनां और दहियर॥ हर.

है बीज के अन्दर बीज भरा और है लकड़ी लकड़ी लक्कड़ में।
है मक्खी मक्खी मक्खी में और मकड़ी मकड़ी मक्कड़ में।
जो बेल पाट पर फैल चलें है तूंबी बेलैं कुम्हड़े में।
तरबूजे तुरई खरबूजे में क्या सैमें खीरा ककड़ी में॥ हर.

है दरिया दरिया दरिया में और सहरा जंगल जंगल में।
ऊजड़ में ऊजड़ बस्ती में बस्ती है कोंपल कोंपल में।
क्या मोती मूंगे पन्ने में क्या हीरे लाल जमुर्रद में।
क्या हवा और जल थल में हर सूरत में एक सूरत है॥ हर.

यह चूंओं चरा की जाय नहीं यह जितनी चूड़ी चंदी है।
क्या कुदरत की रंगामेज़ी1 में हिकमत1 की कन्दा कंदी है।
हर जानिब घेरा घेरी है हर तरफ को बन्दा बंदी है।
क्या कहिए और ‘नज़ीर’ आगे कुछ राज जंजीरा बंदी है।
हर सूरत में एक मूरत है उस मूरत के सब साँचे हैं॥ हर.

(नुक्ता=भेद,रहस्य, कौल=वचन, रम्ज=रहस्य, हर्फ=
अक्षर, हू=स्वर्ग-अप्सरा, मलिक=फरिश्ते, अर्जोसमां=
धरती-आकाश, कफ्शों=जूते,पादुका, सहरा=जंगल,
रंगामेज़ी=चित्रकारी, हिकमत=बुद्धिमत्ता)

17. ख़मसा-2 - नज़ीर अकबराबादी

क्या इल्म उन्होंने सीख लिया जो बिन लिक्खे को बाँचे हैं।
और बात नहीं निकले मुँह से बिन होठ हिलाये जाँचे हैं।
दिल उनके तार सितारों के तन उनके तबल तमाचे हैं।
मुहचंग जबाँ दिल सारगी या घुंघरू हाथ कमाचे हैं।
है राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के साँचे हैं।
जो बेगत बेसुर ताल हुए बिन ताल पखावज नाचे हैं।

कुल बाजे बजकर टूट गये आवाज लगी जब भर्राने।
और छम छम घुंघरू बंद हुए तब गत का अंत लगे पाने।
संगीत नहीं यह संगत है संतों का जिससे जी माने।
यह नाच कोई क्या पहिचाने इस नाच को नाचे सो जाने॥ है राग.

जब हाथ को धोया हाथों से और हाथ लगे फड़काने को।
और पांवों को खींचा पावों से तब पांव लगे गत पाने को।
जब आँख उठाली हँसने से और नैन लगे मटकाने को।
सब काछ कछे सब नाच नचे उस रसिया छैल रिझाने को॥ है राग.

जो आग जिगर में भड़की है उस शोले की उजियाली है।
जो मुँह पर हुस्न की जर्दी है उस जर्दी की सब लाली है।
जिस गत पर उनका पांव पड़ा उस गत की चाल निराली है।
जिस मजलिस में वह नाचे हैं वह मजलिस सब से खाली है॥ है राग.

सब घटता बढ़ता फेंक उधर और ध्यान इधर धर भरते हैं।
बिन तारों तार मिलाते हैं जब नृत्य निराला करते हैं।
बिन गहने झमक दिखाते हैं बिन जूड़े मन को हरते हैं।
बिन हाथों भाव बताते हैं बिन पाँव खड़े गत भरते हैं॥ है राग.

था जिनकी ख़ातिर नाच बना तब सूरत उनकी आय गई।
कहीं आप हुए कहीं नाच हुआ और तान कहीं भर्राय गई।
अब छैल छबीले सुन्दर की छबि नैन के अन्दर छाय गई।
एक सूरत लाल त्रिभंगी की और जोति में जोति समाय गई॥ है राग.

सब होश बदन का दूर हुआ जब गत पर आ मिरदंग बजे।
तन भंग हुआ दिल भंग हुआ सब आन गई बे आन सजे।
यह नाचा कौन ‘नज़ीर’ और यां किस लिये रचाया नाच अज़ी।
जब बूँद ही जा दरियाव पड़ी उस तान का आखिर निकला जी।
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं॥
(शोले=अग्निकण,भड़कीली आग, मजलिस=सभा)

18. विसालेयार (दोस्त से मुलाकात)-1 - नज़ीर अकबराबादी

नज़र आया मुझे एक शोख़ ऐसा नाज़नीं चंचल।
कि जिसकी देखकर सजधज मेरा दिल हो गया बेकल॥
अदा भी चुलबुली और आन में भी कुछ अजीब छलबल।
फसूँगर अँखड़िया ज़ालिम कि और जिस पर लगा काजल॥
कभी नज़रें लड़ावे और कभी मुखड़े पे ले आँचल।
पड़ा दुरकान में झलके गले में सज रही हैकल॥
निगारे गुल इज़ारे नौ बहारे नाज़ पैराए।
दिल आरामे, परी शक्ले बुते, शोखे़ दिल आराए॥
देह सुमन तें ऊजरी मुख तें चंद लजाय।
भोएँ धनकें तान कें कमलन बान चलाय॥

मुझे उस शोख़ चंचल ने जब अपना हुस्न दिखलाया।
दिखाकर इक नज़र चलता हुआ और मुझको तड़पाया॥
गिरा मैं होके बेखु़द यूँ परी का जैसे हो साया।
फिर उसमें होश जब आया तो दिल सीने में घबड़ाया॥
बहुत सा उस घड़ी मैंने तो अपने दिल को समझाया।
न माना दिल ने हरगिज ढूंढना ही उसको ठहराया॥
कशीदम नालओ अज़ शौक पैराहन कबा करदम।
बराए जुस्तनेऊ सब्रो तस्कीं रारिहा करदम॥
भेंट भई जातें कही नैनन आँसू लाय।
है कोई ऐसा पीत जो पीतम मंदिर बताय॥

कहूँ क्या उस घड़ी यारो अजब अहवाल था मेरा।
हरइक से पूछता था हर घड़ी उस शोख़ का डेरा॥
तलब की कसरतें और जुस्तजू का शौक बहुतेरा।
इधर आहों की शोरश और उधर अश्कों ने आ घेरा॥
कभी थी इस तरफ झाँकी कभी था उस तरफ फेरा।
जो कोई पूछता था क्यों मियाँ क्या हाल है तेरा॥
अजूमीगुफ़्तम अहवालमनपुर्स ऐ यारे ग़मख़्वारम।
ख़्रावम दिल फ़िगारम बे क़रारम नौ गिरफ़्तारम॥
अलकन फन्दे उड़ पड़े मन फँस दीनो रोय।
दृगन जादू डार के सुध बुध दीनी खोय॥

अभी याँ इक परीरू कर गया है मुझको दीवाना।
मेरा दिल हो गया उस शमा रू को देख परवाना॥
बनाया उसकी आँखों ने मुझे इस मै का पैमाना।
निगाह ने कर दिया उसकी मुझे एक पल में मस्ताना॥
मियाँ एकदम तो मैं अपना सुनाऊँ उसको अफसाना।
मकाँ उसका तुझे ऐ यार कुछ मालूम है या ना॥
अगर दानी चुना कुन लुत्फ ताबीनम मकाँ नशरा।
नि हम सरबरदरश दर शौक बोसम आश्ताँ नशरा॥
नेह गरे का हार है हूँ तोरे बलिहार।
मारत मोहि बिरह दुख ले चल वाके द्वार॥

यह सुनकर था वह कहता मैं तुझे उसका पता देता।
नहीं मैं साथ जाकर तुझको उसका घर बता देता॥
अभी ले जाके तुझको उसकी ड्योढ़ी पर बिठा देता।
जो वाँके बैठने के तौर हैं वह सब जता देता॥
अदब से जाके उसके हलकए दर को हिला देता।
निकलता जब तो खू़बी से तुझे उससे मिला देता॥
व लेकिन आँ बुते सरकश जे आशिक आरमी दारद।
रशीदन ता दरश आसाँ नं बासद कारमी दारद॥
पलक कटारी मार के हिरदे रक्त बहाय।
कहाँ अब ऐसा मर्द जो बांके द्वारे जाय॥

ये बातें कहके था मेरे बहुत वह दिल को बहलाता।
जो उल्फ़त में जताते हैं वही था मुझको बतलाता॥
मगर मुझको बगैर अज देखने के कुछ न था भाता।
कभी था आह करता और कभी अश्क भर लाता॥
जो रोता मैं तो मुझको इस तरह आकर वह समझाता।
तेरा दिलवर है वह तू देखने को क्यों नहीं जाता॥
बे बीनम आखिरश जे मंद ताके निहाँ वाशद।
असीराने मुहब्बत रा कुज़ा परवाये जाँ वाशद॥
नेह नगर की रीति है, तन मन दीनो खोय।
पीत डगर जब पग रखा, होनी होय सो होय॥

वह था ये बात सुनता जब मेरा मुँह देख रहता था।
जो चलता था तो वह अपनी तरफ को हाथ गहता था॥
मेरा दिल आतिशे फुर्कत में उस दिलवर की रहता था।
न था कुछ बन जो आता, इससे दर्दो रंज सहता था॥
गिरेबाँ तक पड़ा अश्क उस घड़ी आँखों से बहता था।
वह कहता था अरे फिर जा तो मैं यूँ उससे कहता था॥
कशम आहो नुमायम गिरयाओ शामो सहर गरदम।
न बीनम ता रुखस अज़ जुस्तजू हरगिज न बरगरदम
पीतम या मन मोह के कीन्हो मान गुमान।
बिन देखे वा रूप के मेरे कलपत प्रान॥

चला वाँ से मैं उस ग़मख्वार की बातों से घबराकर।
यही थी आरजू दिल में कोई बतला दे उसका घर॥
परेशाँ हाल फिरता था, कभी ईधर कभी ऊधर।
न पाया जब मकां उसका तो बैठा एक रस्ते पर॥
यकायक देखता क्या हूँ कि आ पहुँचा वही दिलबर।
उठा मैं और कहा यूँ रखके सर को उसके कदमों पर॥
मरा मजरूह करदी वज़ निगाहमरुख़ ब पोशीदी।
चे तकसीरम कि दिल बुरदी व हाले मन न पुरसीदी॥
मनमोरा बस कर लियौ काहे कीन्हीं ओट॥
ऐसी मोते मनहरन क्या बन आई खोट॥

कही यह बात जब उस शोख़ से मैंने बचश्मे नम।
तो पहले नाज़ मैं वह नाज़िनी मुझसे हुआ बरहम॥
लगा मुझको झिड़कने उस घड़ी त्यौरी चढ़ा पैहम।
फिर उसमें रहम जो आया हँसकर यूँ कहा उस दम॥
तुझे जख़्मी जो कर आये थे अब तेगे निगह से हम।
लगा देंगे तेरे हम ज़ख़्म पर अब तुल्फ़ का मरहम॥
"नज़ीर" ई हर्फ चूं गुफ़्ताँ आँ निगारे दिल सिताने मन।
ग़म अज दिल रफ़्तो आमद शादमानी ता बजाने मन
मन मेरो या बात में निपट भयो परसंद।
निकसो दुख मन बीच तें आन भरयो आनंद॥
(निगारे गुल इज़ारे नौ बहारे नाज़ पैराए।
दिल आरामे, परी शक्ले बुते, शोखे़ दिल आराए=वह एक
प्रिय गुलाब जैसे गालों वाला, नई बहार के समान
नाज़ों अंदाज करने वाला, दिल का आराम, परी
जैसी शक्ल वाला बुत के समान चंचल और दिल
को सजाने वाला है:
कशीदम नालओ अज़ शौक पैराहन कबा करदम।
बराए जुस्तनेऊ सब्रो तस्कीं रारिहा करदम=
मैं रोया
और प्रेम में मैंने अपने वस्त्रों को फाड़कर गुदड़ी
बना डाला उसको खोजने के लिए मैंने सब्र और
आराम को छोड़ दिया;
अजूमीगुफ़्तम अहवालमनपुर्स ऐ यारे ग़मख़्वारम।
ख़्रावम दिल फ़िगारम बे क़रारम नौ गिरफ़्तारम=
मैं उससे यह कहता था कि ऐ मेरे हमदर्द दोस्त
मेरे हालात मत पूछ मैं बरबाद हूँ। फटे दिल
वाला बेक़रार और नया गिरफ़्तार हूँ;
अगर दानी चुना कुन लुत्फ ताबीनम मकाँ नशरा।
नि हम सरबरदरश दर शौक बोसम आश्ताँ नशरा
अगर तू जानता है तो इतनी कृपा कर कि मैं
उसके मकान को देख सकूँ उसके दरवाजे़ पर
अपना सर रखूँ और शौक में उसकी चौखट
को चूम सकूँ;
व लेकिन आँ बुते सरकश जे आशिक आरमी दारद।
रशीदन ता दरश आसाँ न बासद कारमी दारद=
लेकिन सह सरकश बुत आशिक़ से नफरत करता है
इसलिए उसके दरवाजे़ तक पहुँचना आसान नहीं,
मुश्किल काम है;
कशम आहो नुमायम गिरयाओ शामो सहर गरदम।
न बीनम ता रुखस अज़ जुस्तजू हरगिज न बरगरदम=
मैं आहें भरूँगा, रोऊँगा और शामो सुबह घूमता फिरता
रहूँगा जब तक उसके चेहरे को न देख लूँगा तब तक
हरगिज़ अपनी कोशिश से बाज़ न आऊँगा;
मरा मजरूह करदी वज़ निगाहमरुख़ ब पोशीदी।
चे तकसीरम कि दिल बुरदी व हाले मन न पुरसीदी=
तूने मुझे जख़्मी कर दिया और मेरी आँखों से अपना
चेहरा छिपा लिया। आखि़र मैंने कौन सा कुसूर किया
था कि तू मेरा दिल चुरा ले गया और उसके बाद तूने
मेरा हाल भी न पूछा;
"नज़ीर" ई हर्फ चूं गुफ़्ताँ आँ निगारे दिल सिताने मन।
ग़म अज दिल रफ़्तो आमद शादमानी ता बजाने मन=
‘नज़ीर’ जब मेरा दिल लेने वाले उस महबूब ने यह
बात कही तो ग़म मेरे दिल से चला गया और मेरी
रूह के अन्दर खुशियाँ भर गई)

19. विसालेयार (दोस्त से मुलाकात)-2 - नज़ीर अकबराबादी

इधर को जिस घड़ी ऐ! हमनसी,! वह यार आया।
हमारे दिल से गयी बेकली क़रार आया॥
उसे जो मेहर से है ज़र्रा परबरी मंजू़र।
तो फिर इधर को झाँकता वह मेहरवार आया॥
मिजाज उसका जो आशिक नवाज़ है हमदम।
तो राहे लुत्फ पे फिर वह करम शिआर आया॥
किसी ने दौड़ के हमसे कहा मुबारक हो।
तुम्हारे पास ही वह नाज़नी निगार आया॥
किसी ने गुल की तरह हँस के यूँ कहा आकर।
भला हुआ कि तुम्हारा भी गुल इज़ार आया॥
खुशी ये बोली "तुम्हारी मैं गरद ख़तिर हूँ"।
इधर से ऐश पुकारा कि "मैं भी हाज़िर हूँ"॥

गया मलाल हुए शाद हम ज़माने से।
हुआ मिलाप छुटे हिज्र के सताने से॥
निशात जी को हुई हर तरफ के मिलने से।
सुरूर दिल को हुआ हंसने और हंसाने से॥
हुई नमूद वह साअत भी इम्बिसात भरी।
कि जिसमें शाद हुए हम भी दिल लगाने से।
हर एक तरफ से हुई सौ तरह की खुशवक़्ती।
नवेदें आइयाँ इश्रत के कारखाने से॥
समाते फूले नहीं पैरहन में अब हरगिज।
हम ऐसे शाद हैं उस गुलबदन के आने से॥
जहाँ में जिस को मुलाकाते यार कहते हैं।
अजीब बहार है उसको बहार कहते हैं॥

हमारे दिल में जो फुर्कत की बेक़रारी थी।
तो उसके हाथ से सूरत अजब हमारी थी॥
कभी ख़याल रुख़ व जुल्फ़ का सहर ता शामे।
कभी तसव्वुरे मिस्रगाँ से दिल फ़गारी थी॥
न दिल लगे था किसी शग़ल से कोई साअत।
न जाँ को जुज अलमे हिज्र हम किनारी थी॥
यह इज्तराब था हरदम, ये अपनी बेताबी।
हमारे हाल पे सीमाव की भी जारी थी॥
खुदा के फज्ल से फिर उसमें खै़र व खू़बी से।
वह दिन भी आया कि जिसकी उम्मीदवारी थी॥
जो देखी भर के नजर गुलइज़ार की सूरत।
तो हर तरफ नज़र आयी बहार की सूरत॥

अयाँ जो सामने आकर वह गुल इज़ार हुआ।
तो आलम ऐश का फिर एक से हज़ार हुआ॥
निगह को हुस्न ने उस गुल के ताज़गी बख़्शी।
खुशी करीब हुई दूर इन्तज़ार हुआ॥
जुदा जो हिज्र में हमसे क़रार रहता था।
हमारे दिल से वह फिर आनकर दो चार हुआ॥
तसल्ली दिल को हुई उस सनम के मिलने से।
रुख़ उसका देखते ही रफह इज़्तरार हुआ॥
तलब थी दिल तयीं जिसकी एक मुद्दत से।
हज़ार शुक्र शुक्र वहीं ऐश आश्कार हुआ॥
निशातों ऐश को ख़ातिर से हम क़रीनी है।
नियाजो नाज़ है और लुत्फे हम नसीनी हैं॥

हम अपने दिल की खुशी का बयाँ करें क्या-क्या।
कि एक लहज़ा ये ठहरा है ऐश का नक्शा॥
कभी हैं देखते रुखसार यार को हँस हँस।
कभी खुशी से हैं छू लेते उसकी जुल्फ़ें दुता॥
कभी हैं यार के चश्मो निगाह से पीते।
खुशी से ऐश के भर-भर के साग़रे सहबा॥
कभी हैं उसके तकल्लुम से दिल को खुश करते।
कभी हैं उसके तबस्सुम पे दिल से होते फ़िदा॥
जो देखता है हमें इस तरह की इश्रत में।
तो यह सुखन वह रहे मुंसफी से है कहता॥
"नज़ीर" तुमने जो हासिल ये शादमानी की।
यही बहार है बुस्ताने ज़िन्दगानी की॥

20. दिलबरी - नज़ीर अकबराबादी

है दाम बिछा उसकी जुल्फ़ों के हर इक बल में।
जादू है निगाहों में औ सहर है काजल में॥
सर पावों से शोख़ी है उस चुलबुले चंचल में।
चितवन की लगावट ने एक आन की छल बल में॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में।

करने से खबरदारी हरगिज न हुआ लाहा॥
और एक के सीने को अय्यार ने ले राहा।
उस शोख़ सितमगर ने गम्जे़ से जो नहीं चाहा॥
की यारों से कुछ फुर्ती क्या कहिए अहा! हा! हा!
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

क्या पेश चले उससे यूँ नाज़ भरा हो जो।
किस तौर सरक जाये होना हो तो कुछ हो सो॥
ये घात ये चंचलपन कब याद परी को हो।
इस ढब के तईं यारो देखो तो उहो! हो! हो!॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

हँस-हँस के लगा जिस दम वह नाज़ो अदा करने।
जी उसकी लगावट से हर लहज़ा लगा डरने॥
हर आन लगी उसकी सौ मक्र के दम भरने।
क्या काम किया यारो उस शोख़ सितमगर ने॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

डरते थे बहुत हम तो उस शोख़ लड़ाके से।
और खौफ़ में थे उसके ढब आनो अदा के से॥
आया जो इधर को था अय्यार लपाके से।
नज़रों को मिलाते ही चंचल ने छपाके से॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

रखते थे बहुत हम तो हर आन की होशियारी।
खू़बाँ से न मिलते थे ता हो न गिरफ़्तारी॥
आज उस बुत पुरफ़न ने आकर यह तरहदारी।
जुल दे के हमें लपझप कुछ करके फसूंकारी॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

समझे थे उसे हम तो महबूब ये भोला है।
जो मक्र है और फ़न है हर्गिज नहीं आता है॥
ये बात न समझे थे जो सहर का नक़्शा है।
क्या कहिए "नज़ीर" आगे ये ज़ोर तमाशा है॥
पलकों की झपक दिखला दिल छल लिया इक पल में॥

21. शौके दीद - नज़ीर अकबराबादी

दिखला के झमक जिसको टुक चाह लगा दीजे।
फिर उसको बहुत, ऐ जाँ बाला न बता दीजे॥
सौ नाज़ अगर कीजे उफ़त भी जता दीजे॥
मंजर के ज़रा दर को आगे से हटा दीजे॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

देखी है तुम्हारे जो चेहरे की झमक ऐ जां।
दिल सीने में तड़पे है जो देख ले फिर एक आँ॥
है हमको बहुत मुश्किल और तुमको बहुत आसाँ।
है अर्ज़ यही अब, तो, ऐ बादशाहे खू़बाँ;॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

छुपते हो अयाँ होकर, हो तुम अगर इस ढब के।
आशिक़ भी तो सैदा हैं, चाहत ही के मतलब के॥
दीदार की ख़्वाहिश में हम यां हैं खड़े कब के।
जिस ढब से दिखाया था वैसी ही तरह अब के॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

आंखें भी तरसती हैं और दिल भी बहुत हैराँ।
कल पड़ती नहीं एक दम बिन देखे हुए ऐ जाँ!।
गर हुस्न दिखा हमको बेताब किया है यां॥
तो मेहर से टुक हँस कर, ऐ रश्क महे ताबाँ॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

आई है नज़र हमको जब से यह तरहदारी।
ठहरी है उसी दिन से ख़ातिर में तलबगारी॥
टुक लेते तुम्हें हम तो जो होती न नाचारी।
गर हमको जिलाना है तो करके नमूदारी॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

छुपने की अगर तुमने यां आन सँवारी है।
तो बस नहीं कुछ अपना, मर्ज़ी ये तुम्हारी है॥
बिन देखे हुए हमको हर साँस कटारी है।
कुछ और नहीं ख्वाहिश ये अर्ज़ हमारी है॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

दिल बहरे मुहब्बत में हर आन जो बहता है।
एक आन तुम्हें देखें अरमान ये रहता है॥
जी हो के बहुत बेबस दुःख दूरी के सहता है।
बेकल हो "नज़ीर" अब तो ऐं जाँ यही कहता है॥
फिर एक नज़र अपने मुखड़े को दिखा दीजे॥

22. गिरफ़्तारिए दिल - नज़ीर अकबराबादी

जिस दिन से अदा मुझको उस बुत की लगी प्यारी।
और खप गयी आँखों में चंचल की तरह दारी॥
दिल फँस गया जुल्फों में उस शोख़ के इकबारी।
दिवानगी आ पहुँची जाती रही होशियारी॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

मिलता हूँ जो टुक जाकर तो मुझसे वह लड़ता है।
कुछ बात जो कहता हूँ झुँझला के झगड़ता है॥
गर्दन को पकड़ मेरी सर को भी रगड़ता है।
जो-जो वह दिखाता है सब देखना पड़ता है॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

एक चाह के दरिया में दिन रात मैं बहता हूँ।
गोता भी जो खाता हूँ तो कुछ नहीं कहता हूँ॥
हरदम के सितम उसके मैं खींचता रहता हूँ।
जो जुल्म वह करता है नाचार मैं सहता हूँ॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

सूरत जो कभी उसकी टुक देखने जाता हूँ।
त्यौरी वह चढ़ाता है मैं खौफ़ में आता हूँ॥
झिड़के है खफ़ा होकर जब हाल दिखाता हूँ।
वह गालियाँ देता है मैं सर को झुकाता हूँ॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

दिल दे के मुझे यारो दुख दर्द हुआ लाहा।
पलकों ने सितमगर की अब दिल को मेरे राहा॥
रोता हूँ तो कहता है क्यों तूने मुझे चाहा।
जितना वह सताता है कहता हूँ अहा! हा! हा!
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

कहता है तुझे तो मैं हर आन कुढ़ाऊँगा।
कुचलूँगा तेरे दिल को और जी को जलाऊँगा॥
कूँचे से निकालूँगा हर वक्त सताऊँगा।
मैं उस से ये कहता हूँ "जी सब ये उठाऊँगा"॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

कीजेगा रवाना तो थैली को भरूँगा मैं।
जो चीज़ मंगाओगे ला आगे धरूँगा मैं॥
रातों को निगहबानी करते न डरूँगा मैं।
चप्पी को जो कहिएगा चप्पी भी करूँगा मैं॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

बैठोगे तो हर साअत रूमाल झलूंगा मैं।
गर्मी में जो कहिएगा तो पीठ मलूँगा मैं॥
खि़दमत की जो बातें हैं उनसे न टलूँगा मैं।
जाओगे कहीं जिस दम तो साथ चलूँगा मैं॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

दर पर जो बिठाओगे दरबान कहाऊँगा।
फर्राश बनाओगे तो फर्श बिछाऊँगा॥
तौसन के भी मलने से मुँह को न फिराऊँगा।
गर घास मंगाओगे तो घास भी लाऊँगा॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

तक़्सीर न होयेगी कुछ खि़दमते सामी में।
होगा वही आएगा जो राय गिरामी में॥
आने को नहीं हरगिज खातिर मेरी खामी में।
हाजिर है "नज़ीर" ऐं जाँ इस वक्त गुलामी में॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

23. राज़ी और रज़ा - नज़ीर अकबराबादी

गर तुझ में ऐ परीरू! या मेहर या जफा है।
या रास्ती का मिलना, या सर ब सरदग़ा है॥
कर तू वही जो तेरे, अब दिल को खुश लगा है।
हम जानते नहीं हैं, कुछ नेको बद कि क्या है॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

कुछ दिल में है तो दिल की, आबादियां भी कर ले।
ज़ोरो सितम की अपने उस्तादियाँ भी कर ले॥
वे दर्द है तो ज़ालिम, बेदर्दियाँ भी कर ले।
जल्लाद है तो काफिर, जल्लादियाँ भी कर ले॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

अब दर पे अपने हमको रहने दे या उठा दे।
हम सब तरह से खुश हैं रख या हवा बता दे॥
आशिक हैं नर कलन्दर चाहे जहाँ बिठा दे।
या अर्श पर चढ़ा दे या खाक में मिला दे॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

गर मेहर से बुलावे तो खू़ब जानते हैं।
और ज़ोर से डुबावे तो डूब जानते हैं॥
हम इस तरह भी तुझको मरगू़ब जानते हैं।
और उस तरह भी तुझ को महबूब जानते हैं॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

एक दिन वह था कि हम पर थे इश्क के धड़ाके।
याँ मतलबों के हम पर, और गैर पर कड़ाके॥
अब गै़र पर करम है, और हम पे हैं झड़ाके।
हम सब तरह खुशी हैं, सुनता है ओ लड़ाके॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

या दिल से अब खुशी हो, कर प्यार हमको प्यारे।
या तेग़ खींच ज़ालिम, टुकड़े उड़ा हमारे॥
जीता रखे तू हमको, या तन से सर उतारे।
अब तो "नज़ीर" आशिक कहते हैं यूँ पुकारे॥
राज़ी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।
याँ यूं भी वाह वा है और बूँ भी वाह वा है॥

24. फ़हमाइश - नज़ीर अकबराबादी

अपने ग़म ख़्वारों से कोई आन हँस ले बोल ले।
दर्दमन्दों का निकाल अरमान हँस ले बोल ले॥
फिर कहाँ में दिलबरी ये शान हँस ले बोल ले।
दम ग़नीमत है अरे नादान हँस ले बोल ले॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

आज तुझको हक़ ने दी है हुस्नों खूबी की बहार।
चाहने वालों से कर ले कुछ सलूक व मेहरो प्यार॥
कोंदना बिजली का और जोवन का मत गिन ऐतबार॥
काठ की हाँड़ी नहीं चढ़ती है प्यारे बार-बार॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

अब तो मुँह गुल है प्यारे फिर धतूरा आक है।
आज ये गुलशन खिला है कल को सूखा साख है॥
जो उठा शोला भबूका आखिरश को राख है।
चार दिन की चाँदनी है फिर अँधेरा पाख है॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

इस क़दर मत कर मेरी जाँ अपने जोबन पर गुमाँ।
ये नहीं रहता सदा काफिर किसी के पास याँ॥
जब गिरे हैं दाँत और पड़े चेहरे के ऊपर झुर्रियाँ।
फिर ये हँसना बोलना लौर फिर ये अचपलियाँ कहाँ॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

ऐसा कोई हुस्न वाला आह तू हमको बता।
जिसकी खूबी का हमेशा एकसा आलम रहा॥
क्यों ख़फा होता है हमसे याद रख ऐ दिलरुबा॥
हाथ आता है नहीं काफिर जब ये जोबन गया।
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

क्या हमारा हाले दिल खूबी तुझे कहती नहीं।
या हमारी चाह तेरे नाज़ को सहती नहीं॥
आह खेती हुस्न काफिर की हरी रहती नहीं॥
नाव कागज़ की है प्यारे ये सदा बहती नहीं॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

कैसे-कैसे खूबरू याँ हो गये हैं मेरी जाँ।
अपने ग़मख़्वारों से क्या क्या कर गये हैं खूबियां॥
तू जो रूठा रूठा रहता है ना मेहरबाँ।
देख पछतावेगा गाफिल हुस्न पर मत रख गुमाँ॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

हुस्न का आलम सितमगर हर घड़ी मिलता नहीं।
गुल भी खिल एक बारी ऐ जाँ! फिर कभी खिलता नहीं॥
मुझसे तेरा रूठना हरदम का अब झिलता नहीं।
दूध और दिल जब फटा प्यारे ये फिर मिलता नहीं॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

आज तो आशिक़ का सर है जान! तेरा पाँव है।
मिन्नतें होती हैं और तेरे नहीं कुछ भाव है॥
अब ये माशूकी का सक्ता आज तेरे नाँव है।
भूल मत इस पर मियाँ ये ढलती फिरती छाँव है॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

दिल गरीबों के जो प्यारे तुझसे अब दुःख पायेंगे।
एक दिन तुझको भी खूंबा ये यों ही कल पायेंगे॥
बात को हँसने को दे दे झिड़कियाँ तरसायेंगे।
पांडे जी पछतायेंगे वो ही चने की खायेंगे॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

अपने अपने वक्त में क्या क्या परीरू बन रहे।
चाँद से मुखड़े रहे और गुल से उनके तन रहे॥
न किसी का धन रहे और न सदा जोबन रहे॥
न सदा फूले तुरई और न सदा सावन रहे॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

अब तो चेहरे पर है तेरे हुश्नो खूबी की झलक।
ख़्वाह तू हँस बोल हम से ख़्वाह गुस्सा हो झड़प॥
एक दिन जाती रहेंगी ये चमक और झमक।
फिर जो बोलेगा तो हर एक यूँ कहेगा चल न बक॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

अब ‘नज़ीर’ आगे तेरे रहता है हाजिर सुबहो शाम।
प्यार से हँस बोल प्यारे पी मये उल्फत का जाम॥
फिर कहाँ ये दिलबरी ये ऐश की बातें मदाम।
कुछ न होयेगा रहेगा आखिरश अल्लाह का नाम॥
मान ले कहना मेरा ऐ जान! हँस ले बोल ले।
हुस्न ये दो दिन का है मेहमान हँस ले बोल ले॥

25. गिला - नज़ीर अकबराबादी

उस शोख के सितम का गिला आह क्या करूँ।
तन सूख कर हुआ है मेरा काह क्या करूँ॥
बहते हैं अश्क शामो सहर गाह क्या करूँ।
मिलता नहीं है तो भी वह गुमराह क्या करूँ॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

जिस दिन से उस से आन के फूटा मेरा नसीब।
दिल भर के एक दिन न हुआ देखना नसीब॥
हूँ जागता मैं तो भी नहीं जागता नसीब।
किन सख्तियों में आन पड़ा अब मैं या नसीब॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

इधर तो मुझको कत्ल करे है वह नेक नाम।
उधर को आ रहे हैं अजल के मुझे पयाम॥
अब यार को मनाऊँ कि रखूँ अजल को थाम।
इस कशमकश में अब कहो क्या-क्या करूँ मैं काम॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

गर यार की खु़शी न करूँ तो वह हो ख़फा।
और जो अजल को रोकूँ तो माने है वह बुरा॥
अर्सा था ज़िन्दगी का तो सौ घड़ियों पे आ लगा।
इस दो घड़ी में आह में क्या-क्या करूँ भला॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

गर अपनी ज़िन्दगानी का करता हूँ मैं हिसाब।
पल करने की देर है पानी का ज्यों हुबाब॥
क्यों कर बहे ना ग़म से मेरे आँसुओं का आब।
इतनी सी ज़िन्दगी में भी क्या क्या सहूँ अजाब॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

जो जी छुपा के अब न सहूँ यार की जफा।
तो आशिकों के बीच कहाता हूँ बेवफा॥
और जी को देखता हूँ तो एक दिन की है हवा।
इन मुश्किलों के बीच करूँ आह अब मैं क्या॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

गर हाथ धो के बैठ रहूं अब मैं सब्र कर।
तो लोग ताने देते हैं हँस-हँस के घर व घर॥
और यार से कहूँ तो वह करता नहीं नज़र।
इस बेबसी में आह कहां पीटूँ अपना सर॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

न आह का मकाँ है न रोने की अब है जाये॥
ने दिल को मेरे सब्र ना दिलदार मुँह लगाये
गर एक ग़म पुरे तो उसे जी मेरा उठाये।
इस आस्माँ फटे को कहूँ किससे अब मैं हाय॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

गर यार की गली में रहूँ जाके बेक़रार।
तो सख्तियों से मुझको उठाता है मार मार॥
हर आन तोड़ता है मेरी आस बार बार।
इस दर्दो ग़म को आह मैं किससे कहूँ पुकार॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

रोऊँ तो मुझको और रुलाता है वह हबीब।
बोलूँ तो यूँ कहे है कि चल मत निकाल जीव॥
गर उम्र देखता हूँ तो आ पहुँची अनकरीब।
और यार से सुलूक ये ठहरे है या नसीब॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

चाहूँ कि तुझको इश्क में अपने करूँ असीर।
तू दूर भागता है मुझे जान कर हक़ीर॥
ने मुझको कत्ल करता है ज़ालिम न दोस्तगीर।
क्या बे तरह के ग़म में फंसा हूँ मैं ऐ "नज़ीर"॥
फुर्सत तो साँस की भी नहीं आह! क्या करूँ।
क्या बेबसी है ऐ मेरे अल्लाह! क्या करूँ॥

26. अलफिराक (जुदाई) - नज़ीर अकबराबादी

जब से तुमको ले गया है ये फलक अज़लम कहीं।
जी तरसता है कहीं और चश्म है पुरनम कहीं॥
हम पे जो गुजरा है वह गुजरा किसी पर ग़म कहीं।
नै तसल्ली है न दिल को चैन है इकदम कहीं॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

तुम वहाँ बैठे हो हम यां हिज्र के हाथों ख़राब।
न तो दिन को भूख है न रात को आता है ख़्वाब॥
बेक़रारी, यादगारी, इन्तज़ारी, इज़्तराब।
क्या कहें तुम बिन पड़ा है हम पे अब कैसा अजाब॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

हर घड़ी आँसू बहाना दीदए खूँबार से।
रात दिन सर को पटकना हरदरो दीवार से॥
आहो नाला ख़ींचना हरदम दिले बीमार से।
है बुरा अहवाल अब तो हिज्र के आज़ार से॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

याद आती है तुम्हारी उल्फतों की जब कि चाह।
दिल के टुकड़े होते हैं आँसू बहे हैं ख़्वाहमख़ाह॥
पावों में ताकत, न तन में ज़ोर न मालूम राह।
क्या ग़जब है, क्यों करें, कुछ बन नहीं आती है राह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

न किसी से मेहरो उल्फत नै किसी से प्यार है।
नै रफीक अपना कोई और नै कोई ग़म ख़्वार है॥
दिल इधर सीने में तड़पे जी उधर बीमार है।
क्या कहें अब तो बहुत मिट्टी हमारी ख़्वार है।
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

घर में जी बहले, न बाहर अन्जुमन में दिल लगे।
नै खुश आवे सैर, नै सर्वो समन में दिल लगे॥
नै बहारों में, न सेहरा में, न बन में दिल लगे।
अब तो तुम बिन नै गुलिस्ताँ नै चमन में दिल लगे॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

पर नहीं, उड़कर तुम्हारे पास जो आ जाइये।
जी ही जी में कब तलक खूने जिगर को खाइए॥
चश्मेतर और दाग़ सीने के किसे दिखलाइये।
दिल समझता ही नहीं क्योंकर इसे समझाए॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

दम बदम भरते हैं ठंडी साँस बे दिल की तरह।
नाल ओ फरियाद हैं पर आन घायल की तरह॥
सर पटकना और तड़ना रात दिन दिल की तरह।
ख़ाको खूँ में लोटते है अब तो बिस्मिल की तरह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

अब जो अपने हाल पर हम खूब करते हैं निगाह।
हर घड़ी मिस्ले ‘नज़ीर’ इस ग़म से है हालत तबाह॥
है जो कुछ जुल्मो सितम हम पर, कहें क्या तुमसे आह।
बिन मुए अब तो ‘नज़ीर’ आता नहीं हरगिज़ निबाह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥
27. सोज़े फिराक़ (विरह की आग)
मुझे ऐ दोस्त! तेरा हिज्र अब ऐसा सताता है।
कि दुश्मन भी मेरे अहवाल पर आँसू बहाता है।
ये बेताबी ये बेख़्वाबी ये बेचैनी दिखाता है।
न दिल लगता है घर में और न सेहरा मुझको भाता है॥
अगर कुछ मुंह से बोलूँ तो मजा उल्फ़त का जाता है।
अगर चुपका ही रहता हूँ कलेजा मुंह को आता है॥
मरा दर देस्त अन्दर दिल अगर गोयम ज़वाँ सोज़द।
विगर दम दर क़शम तरसम कि मग़्जे उस्तुख़्वाँ सोज़द॥
कूक करूँ तो जग हँसे चुपके लागे घाव।
ऐसे कठिन सनेह का किस बिध करूँ उपाव॥

न था मालूम उल्फ़त में कि ग़म खाना भी होता है।
जिगर की बेकली और दिल का घबराना भी होता है॥
सिसकना, आह भरना, अश्क भर लाना भी होता है।
तड़पना, लोटना, बेताब हो जाना भी होता है॥
किये पर अपने फिर आपी को दुख पाना भी होता है।
क़फे-अफसोस को मल मल के पछताना भी होता है॥
अगर दानिस तमज़ रोजे़ अजल दागे़ जुदाई रा।
न मी करदम व दिल रोशन चिरागे़ आशनाई रा॥
जो मैं ऐसा जानती प्रीति करे दुख होय।
नगर ढ़िंढ़ोरा पीटती पीतन की जौ कोय॥

सहर से शाम तक सहरा में फिरता दिन को मनमारे।
लगाकर शाम से ता सुबह गिनता रात के तारे।
लबों पर आह दिल में दाग़ जों आतिश के अंगारे।
जिसे दिल चाहता है उसको कुछ परवाह नहीं बारे।
जब उसकी ही ये मर्जी है तो चुप बैठे हैं बेचारे।
मगर उसके तसव्वुर में यही कहते हैं ऐ प्यारे।
ज़िहाले मन कि चूनम बे रख़्त दारी ख़बर याना।
दिले मन सोख़्त आया दर्दिलत वाशद असरयाना॥
आह दई कैसी भई अनचाहत के संग।
दीपक को भावै नहीं जलजल मरै पतंग॥

कभी होकर गिरेबाँ चाक सेहरा को निकलता हूँ।
कभी घबराके फिर घर की तरफ नाचार चलता हूँ।
लगी है आग दिल में शमा सा जलकर पिघलता हूँ।
धुंआ उठता है आहों का बरंगे मोम गलता हूँ।
बदन में देखकर शोला भड़कते हाथ मलता हूँ।
भभूके तन से उठते हैं सती की तरह जलता हूँ।
ज़िताबे आतिशे दूरी कि मी सोज़द दिलों जाँरा।
नमूदह नब्जे़ मनपुर आबला दस्ते तबीं बाँरा।
वि़रह आग तन मैं लगी, जरन लगे सब गात।
नारी छूबत वैद के पड़ें फफोला हाथ॥

ग़ज़ब है एक तो समझे न दिल और जी भी घबरावे।
तिस ऊपर हर घड़ी उस दिलरुबा की शक्ल याद आवे।
न हो दिल क्यूं कि टुकड़े और न जाँ किस तौर घबरावे।
दरो दिवार से क्यूं कर न कोई सर को टकरावे।
लगी जो आग दिल में फिर वह बुझने किस तरह पावे।
मगर जिसने लगाई हो, वही आकर बुझा जावे।
चु दरदिल आतिशे दूरी फितर ऊरा कि बिन शानद।
मगर आँ कस कि आतिशज़द हमां आवे बर अफ्सानद।
हिरदे अंदर दौ लगी धुवां न परगट होय।
जा तन लागे सो लखे या जिन लाई सोय॥

कहाँ तक खाइये ग़म, अब ग़म खाया नहीं जाता।
दिले बेताब को बातों से, बहलाया नहीं जाता।
क़दम रखता हूँ जिस जां, वाँ से सरकाया नहीं जाता।
यह पत्थर हाथ से तिल भर भी उकसाया नहीं जाता।
पड़ा हूं दश्त मैं रस्ता कहीं पाया नहीं जाता।
जो चाहूं भाग जाऊँ भाग भी जाया नहीं जाता।
मकाने यारो दूरज़ मन न परदारम न पाए दिल।
अजब दर मुश्किलुफ्तादम चि साँ ते साज़म ई मंजिल।
ना मेरे पंख न पाँव बल मैं अपंग पिय दूर।
उड़ न सकूँ गिर-गिर पडूँ रहूँ बिसूर बिसूर॥

इधर दिल मुझसे कहता है, तू चल यार के डेरे।
उधर तन मुझको कहता है, कि तू मत मुझको दुख देरे।
जो कहना दिल का करता हूं, तो रहता वह घर मेरे।
मगर तन की सुनूं तो और दुख पड़ते हें बहुतेरे।
न दिल माने, न तन माने हरइक अपनी तरफ फेरे।
करूँ क्या मैं ‘नज़ीर’ ऐसी, जो मुश्किल आन कर घेरे।
दिलम दिलदार मी जोयद तनम आराम मी ख़्वाहिद।
अजाइब कशमकश दारम कि जानम मुफ्त भी काहिद।
दिल चाहे दिलदार को और तन चाहे आराम।
दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम॥
(मरा दर देस्त अन्दर दिल अगर गोयम ज़वाँ सोज़द।
विगर दम दर क़शम तरसम कि मग़्जे उस्तुख़्वाँ सोज़द=
मेरे दिल में ऐसा दर्द है कि यदि मैं उसका वर्णन करूँ
तो ज़बान जल जाय, यदि न कहूँ तो उसकी गर्मी से
मेरे सिर की हड्डियों का गूदा पिघल जाय;
अगर दानिस तमज़ रोजे़ अजल दागे़ जुदाई रा।
न मी करदम व दिल रोशन चिरागे़ आशनाई रा=
यदि मैं अज़ल के दिन से विरह के दुख और उसके
दाग को जानता तो मैं अपने दिल में प्रेम और
मुहब्बत का चिराग़ रोशन न करता;
ज़िहाले मन कि चूनम बे रख़्त दारी ख़बर याना।
दिले मन सोख़्त आया दर्दिलत वाशद असरयाना=
मैं तेरे चेहरे के दीदार के बिना कैसा हूँ मेरी इस
दशा से तू खबर रखता है या नहीं। मेरा तो दिल
जल गया लेकिन तेरे दिल पर भी इसका प्रभाव
है या नहीं;
ज़िताबे आतिशे दूरी कि मी सोज़द दिलों जाँरा।
नमूदह नब्जे़ मनपुर आबला दस्ते तबीं बाँरा=
मेरे हृदय और प्राणों को जलाने वाली विरह
की आग की गर्मी से मेरे हाथ की नाड़ी
हकीमों को आँवले भरी नज़र आती है;
चु दरदिल आतिशे दूरी फितर ऊरा कि बिन शानद।
मगर आँ कस कि आतिशज़द हमां आवे बर अफ्सानद=
दिल में जो विरह की आग लगी है उसे कौन ठंडा
कर सकता है सिवाय उसके कि जिसने यह आग
लगाई है;
मकाने यारो दूरज़ मन न परदारम न पाए दिल।
अजब दर मुश्किलुफ्तादम चि साँ ते साज़म ई मंजिल=
मेरे प्रिय का मकान मुझसे दूर है मेरे पास न पंख हैं,
न पांव में शक्ति है। ऐ दिल! मैं अजीब मुश्किल में
पड़ गया हूँ किस तरह इस मंज़िल को तय करूँ।)

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