सूफ़ियाना-कलाम (भाग-4) नज़ीर Sufiyana Kalam (Part-4)

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Sufiyana-Kalam-Nazeer-Akbarabadi


सूफ़ियाना-कलाम (भाग-4) नज़ीर अकबराबादी
Sufiyana Kalam (Part-4) Nazeer Akbarabadi

46. आदमी नामा - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया में पादशह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़्लिसो-गदा है सो है वह भी आदमी
ज़रदार, बे-नवा है सो है वह भी आदमी
नेअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वह भी आदमी॥1॥

अब्दाल, कुत्ब, ग़ौस, वली आदमी हुए
मुनकिर भी आदमी हुए और कुफ़्र के भरे
क्या-क्या करिश्मे कश्फ़ो-करामात के लिए
हत्ता कि अपने जुहदो-रियाज़त के ज़ोर से
ख़ालिक से जा मिला है सो है वह भी आदमी॥2॥

फ़रऔन ने किया था जो दावा खुदाई का
शद्दाद भी बिहिश्त बनाकर खुदा हुआ
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बरमला
यह बात है समझने की आगे कहूं मैं कया
यां तक जो हो चुका है सो है वह भी आदमी॥3॥

यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर
यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्नो-कबह में है यां ज़हूर
शैतां भी आदमी है जो करता है मक़्रो-ज़ोर
और हादी रहनुमा है सो है वह भी आदमी॥4॥

मसजिद भी आदमी ने बनायी है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुत्बा-ख़्वां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज़ यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी॥5॥

यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी॥6॥

नाचे है आदमी ही बजा तालियों को यार।
और आदमी ही डाले है अपने इज़ार उतार॥
नंगा खड़ा उछलता है होकर जलीलो ख़्वार।
सब आदमी ही हंसते हैं देख उसको बार-बार॥
और वह जो मसखरा है सो है वह भी आदमी॥7॥

चलता है आदमी ही मुसाफ़िर हो, ले के माल
और आदमी ही मारे है फांसी गले में डाल
यां आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल
सच्चा भी आदमी ही निकलता है, मेरे लाल !
और झूठ का भरा है सो है वह भी आदमी॥8॥

यां आदमी ही शादी है और आदमी विवाह
काज़ी, वकील आदमी और आदमी गवाह
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़ामख़ाह
दोड़े है आदमी ही तो मशअल जला के राह
और ब्याहने चढ़ा है सो है वह भी आदमी॥9॥

और आदमी नक़ीब सो बोले है बार-बार
और आदमी ही प्यादे है और आदमी सवार
हुक्का, सुराही, जूतियां दौड़ें बग़ल में मार
कांधे पे रख के पालकी हैं दौड़ते कहार
और उसमें जो पड़ा है सो है वह भी आदमी॥10॥

बैठे हैं आदमी ही दुकानें लगा-लगा
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे ख़्वांचा
कहता है कोई 'लो', कोई कहता है 'ला, रे ला'
किस-किस तरह की बेचें हैं चीज़ें बना-बना
और मोल ले रहा है सो है वह भी आदमी॥11॥

यां आदमी ही क़हर से लड़ते हैं घूर-घूर।
और आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर॥
चाकर, गुलाम आदमी और आदमी मजूर।
यां तक कि आदमी ही उठाते हैं जा जरूर॥
और जिसने वह फिरा है सो है वह भी आदमी॥12॥

तबले, मजीरे, दायरे सारंगियां बजा
गाते हैं आदमी ही हर इक तरह जा-ब-जा
रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा
और आदमी ही नाचे हैं और देख फिर मज़ा
जो नाच देखता है सो है वह भी आदमी॥13॥

यां आदमी ही लालो-जवाहर हैं बे-बहा
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है कि उलटा है ज्यूं तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा है चांद का
बदशक्ल बदनुमा है सो है वह भी आदमी॥14॥

इक आदमी हैं जिनके ये कुछ जर्क़-बर्क़ हैं
रूपे के जिनके पांव हैं सोने के फ़र्क हैं
झमके तमाम ग़र्ब से ले ता-ब-शर्क हैं
कमख़्वाब, ताश, शाल, दुशालों में ग़र्क हैं
और चीथड़ों लगा है सो है वह भी आदमी॥15॥

एक ऐसे हैं कि जिनके बिछे हैं नए पलंग।
फूलों की सेज उनपे झमकती है ताज़ा रंग॥
सोते हैं लिपटे छाती से माशूक शोखो संग।
सौ-सौ तरह से ऐश के करते हैं रंग ढंग॥
और ख़ाक में पड़ा है सो है वह भी आदमी॥16॥

हैरां हूं यारो देखो तो यह क्या सुआंग है
यां आदमी ही चोर है और आप ही थांग है
है छीना झपटी और कहीं बांग तांग है
देखा तो आदमी ही यहां मिस्ले-रांग है
फ़ौलाद से गढ़ा है सो है वह भी आदमी॥17॥

मरने पै आदमी ही क़फ़न करते हैं तैयार।
नहला धुला उठाते हैं कांधे पै कर सवार॥
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार।
सब आदमी ही करते हैं, मुर्दे के कारोबार॥
और वह जो मर गया है सो है वह भी आदमी॥18॥

अशराफ़ और कमीने से ले शाह-ता-वज़ीर
यह आदमी ही करते हैं सब कारे-दिल-पिज़ीर
यां आदमी मुरीद हैं और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ऐ 'नज़ीर'
और सब में जो बुरा है सो है वह भी आदमी॥19॥
(पादशह=बादशाह, मुफ़्लिसो-गदा=फ़कीर और
निर्धन, ज़रदार=धनी, बे-नवा=निर्धन,
अब्दाल,कुत्ब,ग़ौस,वली= यह सभी सूफ़ियों के
ऊंचे दर्जे हैं, कश्फ़ो-करामात=चमत्कार,
हत्ता=यहाँ तक, जुहदो-रियाज़त=तपस्या,
बरमला=साफ़, नार=आग, हुस्नो-कबह=पाप-
पुण्य, ज़हूर=दिखाई देना, हादी,रहनुमा=
राह दिखाने वाला, इमाम=नमाज़ के नेता,
खुत्बा-ख़्वां=धार्मिक वक्ता, सैद=शिकार,
नक़ीब='हटो बचो' करने वाले प्यादे, जा-ब-जा=
हर जगह, बे-बहा=अमूल्य, जर्क़-बर्क़=भड़कीले
कपड़े, फ़र्क=माथे, ग़र्ब=पश्चिम, ता-ब-शर्क=पूर्व
तक, ग़र्क=डूबे हुए, थांग=चोरों को पता देने वाला,
अशराफ़=शरीफ़, कारे-दिल-पिज़ीर=अच्छे काम)

47. पैसा-1 - नज़ीर अकबराबादी

नक़्श याँ जिस के मियाँ हाथ लगा पैसे का
उस ने तय्यार हर इक ठाठ किया पैसे का
घर भी पाकीज़ा इमारत से बना पैसे का
खाना आराम से खाने को मिला पैसे का
कपड़ा तन का भी मिला ज़ेब-फ़ज़ा पैसे का॥1॥

जब हुआ पैसे का ऐ दोस्तो आ कर संजोग
इशरतें पास हुईं दूर हुए मन के रोग
खाए जब माल-पूए दूध दही मोहन-भोग
दिल को आनंद हुए भाग गए रोग और धोग
ऐसी ख़ूबी है जहाँ आना हुआ पैसे का॥2॥

साथ इक दोस्त के इक दिन जो मैं गुलशन में गया
वाँ के सर्व-ओ-सुमन-ओ-लाला-ओ-गुल को देखा
पूछा उस से कि ये है बाग़ बताओ किस का
उस ने तब गुल की तरह हँस दिया और मुझ से कहा
मेहरबाँ मुझ से ये तुम पूछा हो क्या पैसे का॥3॥

ये तो क्या और जो हैं इस से बड़े बाग़-ओ-चमन
हैं खिले कियारियों में नर्गिस-ओ-नसरीन-ओ-समन
हौज़ फ़व्वारे हैं बंगलों में भी पर्दे चलवन
जा-ब-जा क़ुमरी-ओ-बुलबुल की सदा शोर-अफ़्गन
वाँ भी देखा तो फ़क़त गुल है खिला पैसे का॥4॥

वाँ कोई आया लिए एक मुरस्सा पिंजङ़ा
लाल दस्तार-ओ-दुपट्टा भी हरा जूँ-तोता
इस में इक बैठी वो मैना कि हो बुलबुल भी फ़िदा
मैं ने पूछा ये तुम्हारा है रहा वो चुपका
निकली मिन्क़ार से मैना के सदा पैसे का॥5॥

वाँ से निकला तो मकाँ इक नज़र आया ऐसा
दर-ओ-दीवार से चमके था पड़ा आब-ए-तला
सीम चूने की जगह उस की था ईंटों में लगा
वाह-वा कर के कहा मैं ने ये होगा किस का
अक़्ल ने जब मुझे चुपके से कहा पैसे का॥6॥

रूठा आशिक़ से जो माशूक़ कोई हट का भरा
और वो मिन्नत से किसी तौर नहीं है मनता
ख़ूबियाँ पैसे की ऐ यारो कहूँ मैं क्या क्या
दिल अगर संग से भी उस का ज़ियादा था कड़ा
मोम-सा हो गया जब नाम सुना पैसे का॥7॥

जिस घड़ी होती है ऐ दोस्तो पैसे की नुमूद
हर तरह होती है ख़ुश-वक़्ती-ओ-ख़ूबी बहबूद
ख़ुश-दिली ताज़गी और ख़ुर्मी करती है दुरूद
जो ख़ुशी चाहिए होती है वहीं आ मौजूद
देखा यारो तो ये है ऐश-ओ-मज़ा पैसे का॥8॥

पैसे वाले ने अगर बैठ के लोगों में कहा
जैसा चाहूँ तो मकाँ वैसा ही डालूँ बनवा
हर्फ़-ए-तकरार किसी की जो ज़बाँ पर आया
उस ने बनवा के दिया जल्दी से वैसा ही दिखा
उस का ये काम है ऐ दोस्तो या पैसे का॥9॥

नाच और राग की भी ख़ूब-सी तय्यारी है
हुस्न है नाज़ है ख़ूबी है तरह-दारी है
रब्त है प्यार है और दोस्ती है यारी है
ग़ौर से देखा तो सब ऐश की बिस्यारी है
रूप जिस वक़्त हुआ जल्वा-नुमा पैसे का॥11॥

दाम में दाम के यारो जो मिरा दिल है असीर
इस लिए होती है ये मेरी ज़बाँ से तक़रीर
जी में ख़ुश रहता है और दिल भी बहुत ऐश-पज़ीर
जिस क़दर हो सका मैं ने किया तहरीर 'नज़ीर'
वस्फ़ आगे मैं लिखूँ ता-ब-कुजा पैसे का॥12॥
(नक़्श=ताबीज़, जे़ब फ़िज़ा=सुन्दरता बढ़ाने वाला,
इश्रतें=खुशियां, कु़मरीयो=सफेद पक्षी, सदा=आवाज़,
मुरस्सा=जड़ाऊ, आबे-तिला=सोने का पानी, सीम=
चांदी, संग=पत्थर, नुमूद=आमद,बढ़ोतरी, खुर्रमी=
प्रसन्नता, वरूद=आगमन, तकरार=वाद-विवाद,
रब्त=लगाव-सम्बन्ध, दाम=फंदा,बंधन, असीर=
कैदी,बंदी, बस्फ़=प्रशंसा,तारीफ़, कुंजा=कहां तक,
कब तक)

48. पैसा-2 - नज़ीर अकबराबादी

पैसे ही का अमीर के दिल में ख़याल है।
पैसे ही का फ़क़ीर भी करता सवाल है॥
पैसा ही फ़ौज, पैसा ही जाहो जलाल है॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥1॥

पैसे के ढेर होने से सब सेठ साठ हैं।
पैसे के ज़ोर शोर हैं पैसे के ठाठ हैं॥
पैसे के कोठे कोठियां, छैः सात आठ हैं।
पैसा न हो तो पेसे के फिर साठ-साठ हैं॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥2॥

पैसा न हो तो हाथी भी दमड़ी का दस्ता है।
पैसे से ऊंट लाख अशर्फ़ी को सस्ता है॥
हर वक़्त जिसके सामने पैसा बरसता है।
लादे हैं ऊंट को कोई, हाथी को कसता है॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥3॥

पैसा जो होवे पास तो कुन्दन के हैं डले।
पैसे बग़ैर मिट्टी के उससे डले भले॥
पैसे से चुन्नी लाख की, एक लाल देके ले।
पैसा न हो तो कौड़ी को मोती कोई न ले॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥4॥

तेगो-सिपर उठाते हैं पैसे के वास्ते।
तीरो सनां लगाते हैं पैसे के वास्ते॥
मैदां में जख़्म खाते हैं पैसे के वास्ते।
यां तक कि सर कटाते हैं पैसे के वास्ते॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥5॥

आलम में खैर करते हैं पैसे के ज़ोर से।
बुनियाद दैर करते हैं पैसे के ज़ोर से॥
दोजख़ में फेर करते हैं पैसे के ज़ोर से।
जन्नत की सैर करते हैं पैसे के ज़ोर से॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥6॥

दुनियां में दीनदार कहाना भी नाम है।
पैसा जहां के बीच वह क़ायम मुकाम है॥
पैसा ही जिस्मो जान है पैसा ही काम है।
पैसे ही का ‘नज़ीर’ यह आदम गु़लाम है॥
पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है।
पैसा न हो तो आदमी चर्खे़ की माल है॥7॥
(जलाल=शानोशौकत,रोबदाब, तेगो-सिपर=
तलवार-ढाल, दैर=इबादतखाना)

49. कौड़ी - नज़ीर अकबराबादी

कौड़ी है जिनके पास वह अहले-यकीन हैं।
खाने को उनके नेमतें, सो बेहतरीन हैं॥
कपड़े भी उनके तन में, निहायत महीन हैं।
समझें हैं उनको वह जो बड़े नुक्ता चीन हैं॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥1॥

कौड़ी बगै़र सोते थे ख़ाली ज़मीन पर।
कौड़ी हुई तो रहने लगे, शह नशीन पर॥
पटके सुनहरे बंध गए जामो की चीन पर।
मोती के गुच्छे लग गए, घोड़ों की ज़ीन पर॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥2॥
कौड़ी ही चाहती है सदा बादशाह को।
कौड़ी ही थाम लेती है, फौजो-सिपाह को॥
लेकर छड़ी रूमाल गदा भी निबाह को।
फिरता है हर दुकान पै कौड़ी की चाह को॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥3॥

कौड़ी न हो तो फिर यह झमेला कहां से हो।
रथ ख़ाना, फ़ील ख़ाना, तवेला कहां से हो॥
मुंडवा के सर फ़क़ीर का, चेला कहां से हो।
कौड़ी न हो तो साई का मेला कहां से हो॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥4॥

कांधे पे तेग़ धरते हैं कौड़ी के वास्ते।
आपस में खू़न करते हैं कौड़ी के वास्ते॥
यां तक तो लोग मरते हैं कौड़ी के वास्ते।
जो जान दे गुज़रते हैं कौड़ी के वास्ते॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥5॥

गालीयो मार खाते हैं कौड़ी के वास्ते।
शर्मों हया उठाते हैं कौड़ी के वास्ते॥
सौ मुल्क छान आते हैं कौड़ी के वास्ते।
मजिस्द को दम में ढाते हैं कौड़ी के वास्ते॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥6॥

कितने तो हममें ऐसे हैं कौड़ी के मुब्तिला।
कौड़ी हो गंदगी में तो लें दांत से उठा॥
खस्त नहीं है, ऐसा ही कौड़ी का मर्तबा।
कोई दांत से उठावे हम आंखों से लें उठा॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥7॥

बिन कौड़ी खु़रदिये के बराबर भी पत न थी।
कौड़ी जब आई पास तो बन बैठे सेठ जी॥
आके गुमाश्तों की खुली हर तरफ़ बही।
फिर वह जो कुछ कहें तो वही बात है सही॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥8॥

बिन कौड़ी थीं न तेल की बासी मंगौड़ियां।
कौड़ी हुई तो छटने लगीं लंबी चौड़ियां॥
यूं ख़ल्क़ दौड़ें मक्खियां, जू गुड़ पे दौड़ियां।
ख़ालिक ने क्या ही चीज़ बनाई हैं कौड़ियां॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥9॥

ख़ासे महल उठाते हैं कौड़ी के ज़ोर से।
पक्के कुंए खुदाते हैं कौड़ी के ज़ोर से॥
पुल और सरा बनाते हैं कौड़ी के ज़ोर से।
बाग़ो चमन लगाते हैं कौड़ी के ज़ोर से॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥10॥

ले मुफ़्लिस और फ़क़ीर से ता शाह और वज़ीर।
कौड़ी वह दिलरुबा है कि है सब की दिल पज़ीर।
देते हैं जान कौड़ी पे तिफ़्लो-जवानो पीर।
कौड़ी अजब ही चीज़ है मैं क्या कहूं ‘नज़ीर’॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥11॥
(अहले-यकीन=विश्वासपात्र, शह नशीन=ऊँची
इमारत, पटके=कपड़ा, फौजो-सिपाह=फौज और
सिपाही, फ़ील ख़ाना=हाथियों के रखने का
स्थान,हाथीखाना, तवेला=घुड़साल,अस्तबल,
खु़रदिये=फुटकल छोटी मोटी चीजे़ बेचने वाला,
पत=इज़्ज़त,आदर, गुमाश्तों=बड़े व्यापारी की
ओर से बही आदि लिखने,माल खरीदने या
बेचने पर नियुक्त व्यक्ति, ख़ल्क़=दुनिया,
सरा=सराय,मुसाफिरखाना, मुफ़्लिस=गरीब,
दिल पज़ीर=दिल को खुश करने वाली,
तिफ़्ल=बच्चा)

50. रूपए की फ़िलासफ़ी - नज़ीर अकबराबादी

नक्शा है अयां सौ तरबो-रक़्स की रै का।
है रब्ते बहम तबलओ सारंगियो नै का॥
झंकार मज़ीरों की है और शोर है ले का।
मीना की झलक जाम उधर झलके हैं मै का॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥1॥

हर आन जहां रूप रुपे के हैं झलकते।
क्या-क्या ज़रो जे़बर के हैं वां रंग दमकते॥
मोती भी झलकते हैं जवाहर भी चमकते।
सब ठाठ इसी चिलकी से देखें हैं चिलकते॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥2॥

बन ठन के हर एक बज़्म में आते हैं इसी से।
मेलों में तमाशों में भी जाते हैं इसी से॥
शीरीनियां मेवे भी मंगाते हैं इसी से।
खाते हैं और औरों को खिलाते हैं इसी से॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥3॥

पोशाक झमकदार बनाते हैं इसी से।
हश्मत के चमनकार बनाते हैं इसी से॥
महलात नमूदार बनाते हैं इसी से।
बाग़ात चमन ज़ार बनाते हैं इसी से॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥4॥

इस रूप से है हुस्न फसूंकार मुहैया।
इस रूप से फ़रहत के हैं आसार मुहैया॥
गजरे से लगा तुर्रए ज़र तार मुहैया।
क्या मोतिया है मोतियों के हार मुहैया॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥5॥

इस रूप से गमीं के भी सामान अयां हैं।
ख़स ख़ाने हैं छिड़के हुए और इत्र फिशां हैं॥
दिन जो भी जिधर देखिए ठण्डक के निशां हैं।
और शव के भी सोने को हवा दार मकां हैं॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥6॥

इस रूप से बारिश की भी चीजे़ं हैं मयस्सर।
रथ, छतरियां, बारानियां और मोम की चादर॥
बाहर भी वह देखें हैं बहारों को नज़र भर।
घर में भी खु़शी बैठे हैं सामान बनाकर॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥7॥

उजले हैं बिछे फ़र्श नहीं कुछ भी कुचैला॥
देखो जिधर असवाब हैं खु़श वक्ती का फैला।
भरता है इसी थैली से हर जिन्स का थैला॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥8॥

ज़ाहिर में तो ऐ दोस्तो! राहत है इसी से।
हर आन दिलो जां को मुसर्रत हैं इसी से॥
हर बात की खू़बीयो फ़राग़त है इसी से।
आलम में ‘नज़ीर’ इश्रतो फ़रहत है इसी से॥
झमका नज़र आता है हर एक ऐश की शै का।
दुनियां में अजब रूप झलकता है रुपे का॥9॥
(अयां=ज़ाहिर, तरबो-रक़्स=खुशी-नृत्य, बहम=
मेल, नै=बाँसुरी, मै=शराब, बज़्म=महफिल)

51. ज़र - नज़ीर अकबराबादी

दुनियां में कौन है जो नहीं मुब्तिलाए ज़र।
जितने हैं सबके दिल में भरी है हवाए ज़र॥
आंखों में, दिल में, जान में सीने में जाये ज़र।
हमको भी कुछ तलाश नहीं अब सिवाये मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है, दिन रात हाये ज़र॥1॥

कितने तो ज़र को नक़्शे तिलिस्मान कहते हैं।
और कितने ज़र को कश्फ़ो करामात कहते हैं॥
कितने खु़दा की ऐन इनायात कहते हैं।
कितने इसी को क़ाज़ियुलहाजात कहते हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥2॥

यह पानी जो अब ज़ीस्त की सबकी निशानी है।
ज़र की झमक को देख के अब यह भी पानी है॥
यारो हमारी जिसके सबब ज़िन्दिगानी है।
यह पानी यह नहीं है, वह सोने का पानी है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥3॥

आबेतिला की बूंद भी अब जिसके हाथ है।
वह बूंद क्या है चश्मए आबे-हयात है॥
दुनियां में ऐश, दीन भी इश्रत के साथ है।
ज़र वह है जिससे दोनों जहां में निजात है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥4॥

सुर्मे की जिसके पास तिला की सलाई है।
आंखों में उसकी आब, बड़ी रोशनाई है॥
ले अर्श फर्श सब उसे देता दिखाई है।
ख़ालिक ने देख नूर की पुतली बनाई है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥5॥

ज़र खान में गड़ा है तो वां भी बहार है।
शमशीर पर चढ़ा है तो वां भी बहार है॥
दीवार में लगा है तो वां भी बहार है।
गर ख़ाक में गिरा है तो वां भी बहार है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥6॥

ज़र के दिये से पीर और उस्ताद नर्म हो।
ज़र के सबब से दुश्मने नाशाद नर्म हो॥
जो शोख़ संग दिल है परीज़ाद नर्म हो।
ज़र वह है जिसको देख के फ़ौलाद नर्म हो॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥7॥

कपड़े पे गर लगा है तिलाई कलाबतूं।
मैं उसके तार तार की तारीफ़ क्या कहूँ॥
हो दस्त रस तो चोर उचक्के को क्या कहूं।
मेरे भी दिल में है कि मैं ही उसको छीन लूं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥8॥

जा लोग रोम, श्याम में ज़र को कमाते हैं।
माचीन चीन ज़र के जहाज़ आते जाते हैं॥
दक्खिन से ज़र के वास्ते सब यां को आते हैं।
और यां के ज़र के वास्ते दक्खिन को जाते हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥9॥

सोने की जदूले जो किताबों पे आम हैं।
वह जदूलें वह रंग वह सोने के काम हैं॥
जिनके वर्क़ वर्क़ ही सुनहरे तमाम हैं।
सब में ज्यादा उनकी ही क़ीमत हैं नाम हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥10॥

अब जिनके घर में ढेर हैं सोने के दाम के।
हर एक उम्मीदवार हैं उनके सलाम के॥
सब मिलके पांव चूमे हैं उनके गुलाम के।
क्या रुतबे है तिलाए अलैहिस्सलाम के॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥11॥

कितनों के दिल में धुल है कि ज़र ही कमाइये।
कुछ खाइए, खिलाइए और कुछ बनाइए॥
कहता है कोई हाय कहां ज़र को पाइए।
क्या कीजिए ज़हर खाइए और मर ही जाइए॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥12॥

सोना अगरचे ज़र्द है या सुर्ख फ़ाम है।
लेकिन तमाम ख़ल्क़ को उससे ही काम है॥
सबमें ज्यादा हुस्न की उल्फ़त का दाम है।
ज़र वह है जिसका हुस्न भी अदना गुलाम है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥13॥

सर पांव से जो सोने के गहने के जै़ल हैं।
जो देखता है उसके वही दिल को मैल है॥
वह चाह यह मिलाप तो ज़र के तुफैल है।
न पूछते हैं भूत है वह या चुडै़ल है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥14॥

होती हैं ज़र के वास्ते हर जा चढ़ाइयां।
कटते हैं हाथ पांव गले और कलाइयां॥
बन्दूकें और हैं कहीं तोपें लगाइयां।
कुल ज़र की हो रही हैं जहां में लड़ाइयां॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥15॥

लड़का सलाम करता है झुक झुक के रश्के माह।
बूढ़े बड़े सब उसकी तरफ़ प्यार करके वाह॥
देते हैं यह दुआ उसे तब दिल से ख़्वाह्मख़्वाह।
‘ऐ मेरे लाल हो तेरा सोने के सेहरे व्याह॥’
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥16॥

जितनी जहां में ख़ल्क़ है क्या शाह क्या वज़ीर।
पीरो, मुरीद, मुफ्लिसो, मोहताज और फ़क़ीर॥
सब हैगे ज़र के जाल में जो जान से असीर।
क्या क्या कहूं मैं खू़बियां ज़र की मियां ‘नज़ीर’॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥17॥
(मुब्तिलाए=ग्रस्त,फंसा हुआ, जाये=स्थान,
ऐन=ख़ास, क़ाज़ियुलहाजात=इच्छाओं की
पूर्ति करने वाला, ज़ीस्त=जीवन, आबेतिला=
सोने का पानी, आबे-हयात=अमृत, निजात=
मोक्ष,छुटकारा, तिला=सोना, अर्श=आसमान,
फर्श=ज़मीन, नाशाद=नाराज,अप्रसन्न, तिलाई=
सुनहरी, माचीन=इंडोचाइना,हिन्द चीन,
जदूले=पुस्तक के चारों ओर का हाशिया,
सुर्ख फ़ाम=लाल रंगवाला, रश्के माह=चांद
की प्रभा को मंद कर देने वाले मुखवाला)

52. मुफ़्लिसी - नज़ीर अकबराबादी

जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़्लिसी।
किस तरह से उसको सताती है मुफ़्लिसी॥
प्यासा तमाम रोज़ बिठाती है मुफ़्लिसी।
भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़्लिसी॥
यह दुख वह जाने जिस पे कि आती है मुफ़्लिसी॥1॥
कहिये तो अब हकीम की सबसे बड़ी है शां।
ताज़ीम जिसकी करते हैं नवाब और खां॥
मुफ़्लिस हुए तो हजराते लुक्मान क्या है यां।
ईसा भी हो तो कोई नहीं पूछता मियां॥
हिक्मत हकीम की भी डुबाती है मुफ़्लिसी॥2॥

जो अहले फ़ज्ल आलिमो फ़ाजिल कहाते हैं।
मुफ़्लिस हुए तो कल्मा तलक भूल जाते हैं।
पूछे कोई ‘अलिफ’ तो उसे ‘बे’ बताते हैं।
वह जो गरीब सुरबा के लड़के पढ़ाते हैं॥
उनकी तो उम्र भर नहीं जाती है मुफ़्लिसी॥3॥

मुफ़्लिस करे जो आन के महफ़िल के बीच हाल।
सब जानें रोटियों का यह डाला है इसने जाल॥
गिर-गिर पड़े तो कोई न लेवे उसे संभाल।
मुफ़्लिस में होवें लाख अगर इल्म और कमाल॥
सब ख़ाक बीच आके मिलाती है मुफ़्लिसी॥4॥

जब रोटियांे के बंटने का आकर पड़े शुमार।
मुफ़्लिस को देवे एक तवंगर को चार चार॥
गर और मांगे वह तो उसे झिड़कें बार-बार।
उस मुफ़्लिसी का आह, क्यां क्या करूं मैं यार॥
मुफ़्लिस को उस जगह भी चबाती है मुफ़्लिसी॥5॥

मुफ़्लिस की कुछ नज़र नहीं रहती है आन पर।
देता है अपनी जान वह एक-एक नान पर॥
हर आन टूट पड़ता है रोटी के ख़्वान पर ।
जिस तरह कुत्ते लड़ते हैं एक उस्तुख़्वान पर॥
वैसा ही मुफ़्लिसों को लड़ाती है मुफ़्लिसी॥6॥

करता नहीं हया से जो कोई वह काम ‘आ-ह’।
मुफ़्लिस करे है उसके तई इन्सिराम आह॥
समझे न कुछ हलाल न जाने हराम आह।
कहते हैं जिसको शर्मो हया नंगोनाम आह॥
वह सब हयाओं शर्म उठाती है मुफ़्लिसी॥7॥

यह मुफ़्लिसी वह शै है कि जिस घर में भर गई।
सब चीज़ के यह मिलने को मुहताज कर गई॥
जन बच्चे रोते हैं, गोया नानी गुजर गई।
हमसाये पूछते हैं कि क्या दादी मर गई॥
बिन मुर्दा घर में शोर मचाती है मुफ़्लिसी॥8॥

लाज़िम है गर ग़मी में कोई शोरो गुल मचाय।
मुफ़्लिस बगै़र ग़म के ही करता है हाय! हाय!॥
मर जावे गर कोई तो कहां से उसे उठाय।
इस मुफ़्लिसी की ख़्वारियां क्या-क्या कहूं मैं हाय॥
मुर्दे को बिन कफ़न के गड़ाती है मुफ़्लिसी॥9॥

क्या-क्या मुफ़्लिसी की कहूं ख़्वारी फ़कड़ियां।
झाडू बगैर घर में बिखरती है झकड़ियां॥
कोनों में जाले लिपटे हैं, छप्पर में सकड़ियां।
पैदा न होवे जिनके जलाने को लकड़ियां॥
दरिया में उनके मुर्दे बहाती है मुफ़्लिसी॥10॥

बीबी की नथ न लड़कों के हाथों कड़े रहे।
कपड़े मियां के बनिये के घर में पड़े रहे॥
जब कडियां बिक गई तो खण्डहर में पड़े रहे।
जंज़ीर न किवाड़ न पत्थर गड़े रहे॥
आखिर को ईट-ईट खुदाती है मुफ़्लिसी॥11॥

नक़्क़ाश पर भी जोर जब आ मुफ़्लिसी करे।
सब रंग दम में करदे मुसब्विर के किर-किरे॥
सूरत ही उसकी देख के मुंह खिंच रहे परे।
तस्वीर और नक़्श में क्या रंग वह भरे॥
उसके तो मुंह का रंग उड़ाती है मुफ़्लिसी॥12॥

जब ख़ूबरू पे आन के पड़ता है दिन सियाह।
फिरता है बोसे देता-हर एक को ख़्वामख़्वाह॥
हर्गिज किसी के दिल को नहीं होती उसकी चाह।
गर हुस्न हो हज़ार रुवे का तो उसको आह॥
क्या कौड़ियों के मोल बिकाती है मुफ़्लिसी॥13॥

उस ख़ूबरू को कौन दे अब दाम और दिर्हम।
जो कौड़ी-कौड़ी बोसे को राज़ी हो दम बदम॥
टोपी पुरानी दो तो वह जाने कुलाहे जम।
क्यूंकर न जी को उस चूने हुस्न के हो ग़म॥
जिसकी बहार मुफ्त लुटाती है मुफ़्लिसी॥14॥

आशिक़ के हाल पर भी जब मुफ़्लिसी पड़े।
माशूक़ अपने पास न दे उसको बैठने॥
आवे जो रात को तो निकाले वहीं उसे।
इस डर से यानी रात को धन्ना कहीं न दे॥
तुहमत यह आशिक़ों को लगाती है मुफ़्लिसी॥15॥

कैसी ही धूमधाम की रंडी हो खुश जमाल।
जब मुफ़्लिसी का आन पडे़ सर पे उसके जाल॥
देते हैं उसके नाच को ठट्ठे के बीच डाल।
नाचे है वह तो फ़र्श के ऊपर क़दम संभाल॥
और उसको उंगलियों पर नचाती है मुफ़्लिसी॥16॥

उसका तो दिल ठिकाने नहीं भाव क्या बताये।
जब हो फटा दुपट्टा तो काहे से मुंह छुपाये॥
ले शाम से वह सुबह तलक गोकि नाचे गाये।
औरों को आठ सात, तो वह दो टके ही पाये॥
इस लाज से उसे भी लजाती है मुफ़्लिसी॥17॥

जिस कस्बीररंडी का हो हिलाकत से दिल हुज़ी।
रखता है उसका जब कोई आकर तमाशवीं॥
इक पौन पैसे तक भी वह करती नहीं नहीं।
यह दुख उसी से पूछिये जब आह जिस तई॥
लालच में सारी रात जगाती है मुफ़्लिसी॥18॥

वह तो यह समझे दिल में कि थैला जो पाऊंगी।
दमड़ी के पान दमड़ी की मिस्सी मंगाऊंगी॥
बाक़ी रहे छै दाम से पानी भराऊंगी।
फिर दिल में सोचती हे कि क्या ख़ाक खाऊंगी॥
आखि़र चबैना उसको चबाती है मुफ़्लिसी॥19॥

जब मुफ़्लिसी से होवे कलावंत का दिल उदास।
फिरता है ले तंबूरे को हर घर के आस पास॥
एक पाव सेर आटे की दिल में लगाके आस।
गौरी का वक़्त होवे तो गाता है वह भवास॥
यां तक हवास उसके उड़ाती है मुफ़्लिसी॥20॥

मुफ़्लिस जो ब्याह बेटी का करता है बोल बोल।
पैसा कहां जो जाके वह लावे जहेज़ मोल॥
जोरू का वह गला है कि फूटा हो जैसे ढोल।
घर की हलाल ख़ोरी तलक करती है ठठोल॥
हैबत तमाम उसकी उठाती है मुफ़्लिसी ॥21॥

बेटे का ब्याह हो तो बराती न साथी है।
न रोशनी न बाजे की आवाज़ आती है॥
मां पीछे एक मैली चदर ओढ़े जाती है।
बेटा बना है दूल्हा, जो बाबा बराती है॥
मुफ़्लिस की यह बरात चढ़ाती है मुफ़्लिसी ॥22॥

गर ब्याह कर चला है सहर को तो यह बला।
शुहदा, जनाना, हीजड़ा, और भाट मुंडचिरा॥
घेरे हुए उसे चले जाते हैं जा बजा।
वह आगे-आगे लड़ता हुआ जाता है चला॥
और पीछे थपड़ियोंको बजाती है मुफ़्लिसी॥23॥

दरवाजे़ पर जनाने बजाते हैं तालियां।
और घर में बैठी डोमिनी देती हैं गालियां॥
मालिन गले की हार हो दौड़े ले डालियां।
सक़्का खड़ा सुनाता है बातें रज़ालियां॥
यह ख़्वारी, यह ख़राबी दिखाती है मुफ़्लिसी॥24॥

कोई सूम, बेहया कोई बोला ‘निखट्टू’ है।
बेटे ने जाना बाप तो मेरा ‘निखट्टू’ है॥
बेटी पुकारती हैं, कि ‘बाबा निखट्टू’ है।
बीबी यह दिल में कहती है ‘भडुआ निखट्टू’ है।
आखि़र ‘निखट्टू’ नाम धराती है मुफ़्लिसी ॥25॥

मुफ़्लिस का दर्द दिल में कोई ठानता नहीं।
मुफ़्लिस की बात को भी कोई मानता नहीं॥
ज़ात और हसब नसब को कोई जानता नहीं।
सूरत भी उसकी फिर कोई पहचानाता नहीं॥
यां तक नज़र से उसको गिराती है मुफ़्लिसी॥26॥

जिस वक़्त मुफ़्लिसी से यह आकर हुआ तबाह।
फिर कोई उसके हाल पे करता नही निगाह॥
दालिद्दरी कहे कोई ठहरावे रूसियाह।
जो बातें उम्र भर न सुनी होवें उसने आह॥
वह बातें उसको आके सुनाती है मुफ़्लिसी॥27॥

चूल्हा, तवा, न पानी के मटके में आबी है।
पीने को कुछ न खाने को और न रिकाबी है॥
मुफ़्लिस के साथ सबके तई बेहिज़ाबी है।
मुफ़्लिस की जोरू सच है कि हां सबकी भाभी है॥
इज़्ज़त सब उसके दिल की गंवाती है मुफ़्लिसी॥28॥

कैसा ही आदमी हो पर इफ़्लास के तुफैल।
कोई गधा कहे उसे, ठहरावे कोई बैल॥
कपड़े फटे तमाम, बढ़े बाल फैल-फैल।
मुंह खुश्क, दांत जर्द, बदन पर जमा है मैल॥
सब शक्ल कैदियों की बनाती है मुफ़्लिसी॥29॥

हर आन दोस्तों की मुहब्बत घटाती है।
जो आश्ना हैं उनकी तो उल्फ़त घटाती है॥
अपने की मेहर गै़र की चाहत घटाती है।
शर्मो हया व इज़्ज़तो हुर्मत घटाती है॥
हाँ, नाखून और बाल बढ़ाती है मुफ़्लिसी॥30॥

जब मुफ़्लिसी हुई तो शराफ़त कहां रही।
वह क़द्र ज़ात की वह नजाअत कहां रही॥
कपड़े फटे तो लोगों में इज़्ज़त कहां रही।
ताज़ीम और तबाज़ो की बाबत कहाँ रही॥
मजलिस की जूतियों पे बिठाती है मुफ़्लिसी॥31॥

मुफ़्लिस किसी का लड़का जो ले प्यार से उठा।
बाप उसका देखे हाथ का और पांव का कड़ा॥
कहता है कोई ‘जूती न लेवे कहीं चुरा’।
नटखट उचक्का चोर दग़ाबाज़ गठकटा॥
सौ-सौ तरह के ऐब लगाती है मुफ़्लिसी॥32॥

रखती नहीं किसी की यह ग़ैरत की आन को।
सब ख़ाक़ में मिलाती है हुर्मत की शान को॥
सौ मेहनतों में उसकी खपाती है जान को।
चोरी पे आके डाले है मुफ़्लिस के ध्यान को॥
आखि़र निदान भीख मंगाती है मुफ़्लिसी॥33॥

दुनियां में लेके शाह से, ऐ यारो ता फ़क़ीर।
ख़ालिक न मुफ़्लिसी में किसी को करे असीर।
अशराफ़ को बनाती है एक आन में हक़ीर।
क्या-क्या मैं मुफ़्लिसी की ख़राबीं कहूं ‘नज़ीर’॥
वह जाने जिसके दिल को जलाती है मुफ़्लिसी॥34॥
(मुफ़्लिसी=गरीबी,दरिद्रता, अहले फ़ज्ल आलिमो
फ़ाजिल=दुनियां वालों पर रहम करने वाले,स्नातक,
ख़्वान=दस्तरख़्वान,कपड़ा जिस पर खाना खाते हैं,
उस्तुख़्वान=हड्डी, इन्सिराम=प्रबन्ध, शर्मो हया
नंगोनाम=लज्जा,गैरत, हमसाये=पड़ोसी, नक़्क़ाश=
चित्रकार, मुसब्विर=तस्वीर बनाने वाला, ख़ूबरू=
सुन्दर,रूपवान, दिर्हम=चांदी का छोटा सिक्का,
चवन्नी, कुलाहे जम=ईरान के बादशाह जमशेद
का ताज, दालिद्दरी=दरिद्र, बेहिज़ाबी=बेपर्दगी,
तुफैल=कारण, हुर्मत=प्रतिष्ठा,इज़्ज़त, अशराफ़=
शरीफ लोग, हक़ीर=तुच्छ,छोटा)

53. इफ़्लास का नक्शा - नज़ीर अकबराबादी

रख बोझ सर पे निकला, अशतर मिला तो ऐसा।
घेरा ख़राबियों ने लश्कर मिला तो ऐसा॥
बढ़ गए जो बाल सर के, अफ़सर मिला तो ऐसा।
मुफ़्लिस का ज़र्द चेहरा, जो ज़र मिला तो ऐसा॥
आंसू जो ग़म से टपका, गौहर मिला तो ऐसा॥1॥

जब मुफ़्लिसी का आकर सर पर पड़े है साया।
फिरता है मर्द क्या-क्या, दर-दर ख़राबो रुसवा॥
बनता है मुफ़्लिसी में, मुफ़्लिस का आ यह नक़्शा।
पूरा हुनर जो सीखा, तो भीख मांगने का॥
यह बदनसीबी देखो, जौहर मिला तो ऐसा॥2॥

मुफ़्लिस ने गरचे मरकर की नौकरी किसी की।
कैसी ही मेहनतें की, लेकिन तलब न पाई॥
जिधर को हाथ डाला, पाई न फूटी कौड़ी।
की आशिकी तो सर पर, है एक सड़ी सी टोपी॥
सो वह भी उससे ले ली, दिलबर मिला तो ऐसा॥3॥

आखि़र को तंग होकर, जब मुफ़्लिसी के मारे।
चेला हुआ किसी का, और पहने सेली तागे॥
वां से सिवा लंगोटी, हरगिज़ न पाई उसने।
दिन को दिलाई झाडू, शब को मंगाए टुकड़े॥
मुफ़्लिस को पीरो मुर्शिद, रहबर मिला तो ऐसा॥4॥

आटा मिला तो ईंधन, चूल्हा, तवा नदारद।
रोटी पकावे किस पर घर में तवा नदारद॥
गर ठीकरे पे थोपे, तो फिर मज़ा नदारद।
नौ छेद, पेंदी गायब, जिस पर गला नदारद॥
पानी का गर्मियों में, झज्जर मिला तो ऐसा॥5॥

कु़लये, पुलाव, जर्दे, दूध और मलाई खोये।
पूरी, कचौरी, लड्डू, सब मुफ़्लिसी ने खोये।
जब कुछ हुआ मयस्सर, दिन रात रोये धोये।
या खुश्क टुकड़े चाबे, पानी के या भिगोये॥
सूखा मिला तो ऐसा, और तर मिला तो ऐसा॥6॥

कमख़ाब़, तास, मशरू, तनजे़ब, ख़ासा, मलमल।
सब मुफ़्लिसी के हाथों, गए अपने हाथ मल-मल॥
पगड़ी रही न जामा, पटका रहा न आंचल।
ले टाट की क़बा पर, जोड़ा पुराना कम्बल॥
अबरा मिला तो ऐसा, अस्तर मिला तो ऐसा॥7॥

ना झाडू झाड़ने की, पेबन्द की न सूई।
दालान न सहनवी, न ताक़ न बुख़ारी॥
उपला, न आग पानी, चूल्हा, तवा न चक्की।
टूटा सा एक उसारा, दीवार झांकड़ों की॥
क़िस्मत की बात देखो, जो धर मिला तो ऐसा॥8॥

चरपाई बेच खाई और बान को जलाकर।
रोटी पकाई रो-रो और खाई आह भर-भर॥
सोने के वक़्त झंगला गुदड़ा रहा न चादर।
कोहनी पे सर को रखकर सोये फ़क़त ज़मीं पर॥
तकिया मिला तो ऐसा बिस्तर मिला तो ऐसा॥9॥

जो सुबह और सूरज जब आके मुंह दिखाबे।
ले शाम तक उसी के, घर बीच धूप जावे॥
आंधी चले तो घर में, सब ख़ाक धूल जावे।
बरसे जो मेंह तो बाहर एक बूंद फिर न जावे॥
फूटे नसीब देखो, छप्पर मिला तो ऐसा॥10॥

जिस दिल जले के ऊपर, दिन मुफ़्लिसी के आये।
फिर दूर भागे उससे, सब अपने और पराये॥
आखि़र को मुफ़्लिसी ने, यह दुःख उसे दिखाये।
खाना जहां था बटता वां जाके धक्के खाये॥
कमबख़्त को जो खाना अक्सर मिला तो ऐसा॥11॥

ताज़ीम थी हर एक जा, था पास जब तलक ज़र।
मुफ़्लिस हुआ तो कोई, देखे न फिर नज़र भर॥
कपड़े फटों से बैठा, जिस बज़्म में वह जाकर।
सब फ़र्श से उठा कर, बिठलाया जूतियों पर॥
मुफ़्लिस को हर मकां में, आदर मिला तो ऐसा॥12॥

गर मुफ़्लिसी में उसने दो तीन लड़के पाये।
और कुनबे वाले लड़के, वां खेलने को आये॥
देख उनके गहने पाते, आंखों में आंसू लाये।
सिरकी को छील सच्चे नथ और कड़े बनाये॥
बदबख़्त के बच्चों को जे़वर मिला तो ऐसा॥13॥

असबाब था तो क्या-क्या, रखते थे लोग रिश्ता।
मुफ़्लिस हुआ तो हरगिज, रिस्ता रहा न नाता॥
न भाई-भाई कहता, न बेटा कहता बाबा।
इस पर "नज़ीर" मुझको रोना बहुत है आता॥
इस मुफ़्लिसी ज़दे को टब्बर मिला तो ऐसा॥14॥
(क़बा=अंगरखा,चोग़ा, झंगला=टूटे हुए बानों
वाली चारपाई, ताज़ीम=आदर-सत्कार, बज़्म=
सभा)

54. आटे-दाल का भाव-1- नज़ीर अकबराबादी 

क्या कहूँ नक़्शा मैं यारों! ख़ल्क़ के अहवाल का।
अहले दौलत का चलन, या मुफ़्लिसो-कंगाल का॥
यह बयां तो वाक़ई है, हर किसी के हाल का।
क्या तबंगर, क्या ग़नी, क्या पीर और क्या बालका॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥1॥

गर न आटे दाल का अन्देशा होता सद्दराह।
तो न फिरते मुल्क गीरी को वज़ीरो बादशाह॥
साथ आटे दाल के है हश्मतो फ़ौजो सिपाह।
जा बजा गढ़, कोट से, लड़ते हुए फिरते हैं आह॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥2॥

गर न आटे दाल का होता, कदम यां दरमियां।
मुंशियो मीरो वज़ीरो, बक़्शियो नव्वाबों खां॥
जागते दरबार में क्यों आधी-आधी रात वां।
क्या अजब नक़्शा पड़ा है आह, क्या कहिये मियां॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥3॥

गर न आटे दाल, का यां खटका होता बार-बार।
दौड़ते काहे को फिरते धूप में प्यादे सवार॥
और जितने हैं जहां मैं पेशेवर और पेशेदार।
एक भी जी पर नहीं है, इस सिवा सब्रो-क़रार ॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥4॥

अपने आलम में यह आटा दाल भी क्या फर्द है।
हुस्न की आनो अदा, सब इसके आगे गर्द है॥
आशिक़ों काभी इसी के, इश्क़ से मुंह ज़र्द है।
ताकुजा कहिए कि क्या, वह मर्द क्या नामर्द है॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥5॥

दिलबरों की चश्म अबरू जुल्फ़ क्या, खतोख़ाल है।
नाजकी, शोख़ी, अदाऐं हुस्न लालों लाल है॥
क्या कमर पतली है काफ़िर, क्या ठुमकती चाल है।
ग़ौर कर देखा है जो कुछ है सो आटा दाल है।
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥6॥

अब जिन्हें अल्लाह ने यां कर दिया कामिल फ़क़ीर।
वह तो बेरपवा सख़ी, दाता हैं आप ही दिल पज़ीर॥
और जितने हैं वह सब हैं दाल आटे के असीर।
इन ग़रीबों की भी अब यह शक्ल हैगी ऐ! "नज़ीर"॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥7॥
(ख़ल्क़=दुनिया, मुफ़्लिस=गरीब, तबंगर=तन्दुरुस्त,
सद्दराह=काम में रुकावट डालने वाला, दरमियां=बीच,
मीरो=अध्यक्ष,सरदार, बक़्शियो=सेना को वेतन बांटने
वाला,कस्बों में कर वसूल करने वाला, सब्रो-क़रार=
स्थिरता,सुकून)

55. आटे-दाल का भाव-2 - नज़ीर अकबराबादी

आटे के वास्ते है हविस मुल्को माल की।
आटा जो पालकी है तो है दाल नालकी।
आटे ही दाल से है, दुरुस्ती यह हाल की।
इससे ही सबकी खू़बी, जो है हालो-काल की।
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥1॥

इस आटे दाल ही का जो आलम में है ज़हूर।
इससे ही मुंह पे नूर है और पेट को सुरूर।
इससे ही आके चढ़ता है चेहरे पे सबके नूर।
शाहो गदा, अमीर, इसी के हैं सब म़जूर॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥2॥

कु़मरी ने क्या हुआ जो कहा ‘हक़सर्रहू’।
और फ़ाख़्ता भी बैठ के कहती है क़हक़हू॥
वह खेल खेलो जिससे हो तुम जग में सुर्ख़रू।
सुनते हो ऐ अज़ीज़ो इसी से है आबरू॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥3॥

मैना के पालने की, अगर दिल में मैल है।
सच पूछिये, तो यह भी ख़राबी की ज़ैल है॥
सब इश्क़बाजी, रोज़ी के होती तुफ़ैल है॥
रोज़ी न हो तो मैना भी फिर क्या चुड़ैल है॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥4॥

आटा है जिसका नाम, वही ख़ास नूर है।
और दाल भी परी है, कोई या कि हूर है॥
इसका भी खेल खेलना सबको ज़रूर है।
समझे जो इस सखु़न को, वह साहिबे शऊर है॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥5॥

बुलबुल के पालने में, कहो क्या है फ़ायदा?
और जो बया भी पाला, तो फिर हाथ क्या लगा?
कोई दम में पेट मांगेगा, कुछ मुझको ला खिला।
फिर दाल और आटा ही काम आता है विला॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥6॥

जिन पर हैं चार पैसे वही हैं यहाँ अमीर।
और जितने पैसेवर हैं यह क्या खु़र्द क्या कबीर॥
और जिनके पास कुछ नहीं वह हैं निरे फ़क़ीर।
रोटी का सिलसिला है बड़ा क्या कहूँ ‘नज़ीर’॥
सब छोड़ो बात, तूतियो पिदड़ीयो लाल की।
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो, आटे दाल की॥7॥
(नालकी=इधर-उधर से खुली छाजनदार पालकी,
हालो-काल=कार्य और कथन, तूतियो=मैना, सुरूर=
आनन्द,हल्का नशा, कु़मरी=सफेद पक्षी, सुर्ख़रू=
सम्मानित, विला=दोस्त)

56. भजन-1- नज़ीर अकबराबादी 

ऐ मन हित रख और न दूजा रंग बजावै।
मुख ते ले हरिनाम ज़रा मुहचंग बजावै।
तुरत सरंगी की छेड़ गुनी का ढंग बजावै।
धुर की धुन का ध्यान धरे और पंग बजावै।
नेह नून ले संग अरे आ-चंग बजावै।
भजन बरन पहिचान पिया मिरदंग बजावै॥

छिन छिन का रख मान अरे एक छिन मत भूले।
पल पल जगतें ठान अरे मन दिन मत भूले।
धनक धनक हो आन अरे धन धन मत भूले।
गत गत का परमान अरे गुन गुन मत भूले॥ नेह नून.

जिन चित घुंघरू बाँध सतेहा ताल लगाया।
हित और मन के साथ मंजीरा आन बजाया।
सुध बुध तबले ठोंक झनक कर ताल मिलाया।
ऐ मन मेरी मान भजन का भेद बताया॥ नेह नून.

जाको है टफक ग्यान तंबूरा कंठ लगाया।
धनक धनक जब ताल बजा तब मन लुभियाना।
तान मिलाया बाजे से जब ठहरा गाना।
मान मेरा दिस्टान अरे टुक होकर स्याना॥ नेह नून.

ढोलक डोरी खींच पुरे पर थाप लगाई।
बोल निकाले गीत के और उसकी अस्थाई।
पेम पुरी में बसने को जब जगह पाई।
ऐ मन मेरे बात यही है छानी ताई। नेह नून.

ध्यान मुंडेलस बाँध ज्योंही टुक सर उकसाया।
हित की बीन बजाने में परबीन कहाया।
डम्मल तन में साध कै और छैना छमकाया।
ऐ मन मेरे सोच यही तुझको समझाया॥ नेह नून.

ढोल गले में चाहत का है जिसने डाला।
टेक उसी की चाली और जोराग निकाला।
तू भी जब मद पेम का ऐ मन पीकर प्याला।
कहना मान नज़ीर का अब होकर मतवाला।
नेह नून ले संग अरे आ चंग बजावे।
भजन बरन पहिचान पिया मिरदंग बजावे॥

57. भजन-2 - नज़ीर अकबराबादी

भूल ठिठक हठ संग लगा करले हठ का बैराग
अरे मन ध्यान लगा दे।
माला पेम फिरा नित हिरदय भनक जतन से मार।
जोगी का विस्तार बना और कानों मुंदरे डाल
न ला पर दुविधा चित में।
फेरी फिर कर नाद बजा या अस्तल आसन मार। अरे मन.

सीख फकीरी पंथ मियाँ या ठान गृहस्थी छंद-
न दे टुक जी को डिगने।
जब लागेगी लाग सुरत धर बैठा कर आनंद-
बनज बना व्योपार चला या सब तज हो आजाद
न दे टुक तार बिखरने
ठहर गयी जब याद तो पा फिर भोजन और परसाद। अरे मन.

साथ कहा या संत कहा भक्ती पंथ बिचार,
तनक रख चित को थामे।
भूलेगी जब दूजी सुध तब ले पीतम दरबार-
अरे मन ध्यान लगा दे।
कर शब्दों के अर्थ सुना या नित्य कथा को बाँध-
लगाए रख धुन हाँ में।
जी की खेंचा खेंच गई फिर है तुझको है क्या आँच॥ अरे मन.

भेष बदल या मत बदले ह्यां बैठा रह हर आन
नजर मत फेर उधर से।
तुझसे नजीर अब कहता है जो ठीक उसी को जान
अरे मन ध्यान लगा दे।

58. भजन-3 - नज़ीर अकबराबादी

टुक लीप जमीं को पावों से और उल्टे गन्ने उसमें बो।
जो आख अखूले नीचे हों और नीचे की जड़ ऊपर हो।
रख बैल जुये के कांधे पर और पेट उलट कर कोल्हू को।
जो टपके रस की बूंद कोई उस रस से कान और मुंह को धो॥
गुरु चेला मिश्री कंद बने जब आन गुरू की खंडित हो।
ये उल्टे गुरू की बानी है जो उल्ट पढ़े सो पंडित हो।

मत गन्नों का गुन खेत उसे ये निरगुन खेती बाड़ी है।
जो इसको रस की ईख कहे वह रसिया निपट अनाड़ी है।
यह रस की रसिक लटारी है यह बिस की बूटी झाड़ी है।
जब उलटी इसको काढ़ी है तब इसका नाम उखाड़ी है॥ गुरू चेला.

ले पानी आतिश फूंक जला ये भट्टी जो भड़काई है।
घी डाल उलट कर छन्नी में उस घी की यही कढ़ाई है।
घी सोख लिया जब मैदे ने फिर आगे घोट घुटाई है।
जब हलवा जल कर खाक हुआ फिर खासा तू हलवाई है॥ गुरू चेला.

जब हलवा तेरा सख्त हुआ फिर आगे और बखेड़े हैं।
जब खोया कहवे नुकती को फिर खाते लड्डु पेड़े हैं।
कुछ बरफी बालूशाही के कुछ खुरमों के उलझेड़े हैं।
नित फेर पटे पर बेलन को खजलों के पर्त उखेड़े हैं॥ गुरू चेला.

जब पेठे का भी पेट फटा फिर काम पड़ेगा घेवर से।
सूराख पड़ेंगे छाती में और आन लगेंगे चक्कर से।
जब शीरा पानी राब हुआ और सावन भादों आ बरसे।
फिर तोड़ बताशे बाहर से, और फेर अंदर से अन्दर से॥ गुरू चेला.

जब सूख अंदर से सर्द हुए फिर और मिठाई गुप चुप है।
बिस अमृत बान इमरती के और हार गुलाबी चुप चुप हैं।
कुछ लुक लुक च्यूटी मक्खी की कुछ छायी छप्पी छुप छुप है।
अब गुप चुप भी चुप चाप हुई फिर आगे सौदा गुप चुप है॥ गुरू चेला.

जब गुप चुप मक्खी चाट गई फिर आगे शकराबाशा है।
वह शकरा सेर छटंकी है और बाशा तोला माशा है।
जब ओला घुलकर रूई हुआ फिर पत का तार तराशा है।
वह गाला बुढ़िया काता है और जवानों का तमाशा है॥ गुरू चेला.

जब पेड़े लड्डू टूट चुके फिर घेरा घेर ज़जेबी है।
साबूनी रेवड़ी तिलशकरी और बरफी रूह फरेबी है।
क्या अकबरशाही बीरबली क्या कुत्बीखान रकेबी है।
क्या शक्कर पारे नुकुल चने सब तेरी फौज जलेबी है॥ गुरू चेला.

जब बुढ़िया भी वो कात चुकी और हुई गंडेली की टक्कर।
और महक इलाची दाने की फिर मूंगा के लड्डू की कर कर।
हो खाली बदन खि़लौने का गई दूध और शहद की नहरे भर।
दर मार उठा कर दोजख़ के धर भिस्त का पत्थर छाती पर॥ गुरू चेला.

अबदर भिस्त भी जिस दम ठंठ हुए फिर आगे निपुरन धोबन है।
हैं आरी दंदा मिंसरी के और फोंक गजक के सोहन हैं।
फिर तनक तनकती पर आई और फूंकू नर आहत मोहन है।
जब हलवा मग़ज़ी खुश्क हुआ फिर खासा हलवा सोहन है॥ गुरू चेला.

वह सोहन भी जब रीत चुका फिर मिक़राज़ी भी आवेगा।
वह नोक तिलों की कतरेगा और खील को काट गिरावेगा।
वह सेवा सेब नज़ीर आखि़र फिर गूंगे का गुड़ खावेगा।
फिर आगे बूर के लड्डू हैं जो खावेगा पछतावेगा।
(आतिश=अग्नि, खासा=योग्य,ज्ञानी, खुरमों=छुहारे,
फरेबी=आत्मा को धोखा देने वाली, दोजख़=नरक)


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