फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विविध कविताएँ Faiz Ahmed Faiz Poetry in Hindi

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़- विविध कविताएँ
Faiz Ahmed Faiz-Poetry in Hindi

अब बज़्मे-सुख़न सुहबते-सोख़्तगाँ है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अब बज़्मे-सुख़न सुहबते-सोख़्तगाँ है

अब हल्कः-ए-मय तायफ़ः-ए-बेतलबाँ है

हम सहल तलब कौन से फ़रहाद थे, लेकिन

अब शह्‍र में तेरे कोई हम-सा भी कहाँ है

 

 

 

घर रहिए तो वीरानी-ए-दिल खाने को आवे

रह चलिए तो हर गाम पे ग़ोग़ा-ए-सगाँ है

 

है साहबे-इंसाफ़ ख़ुद इंसाफ़ का तालिब

मुहर उसकी है, मीज़ान ब-दस्ते-दिगराँ है

 

अरबाबे-जुनूँ यह-ब-दिगर दस्तो-गरेबाँ

और जैशे-हवस दूर से नज्ज़ारः कुना है

फ़ैज़ का आख़िरी कलाम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है

मताए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है

हम एक उमर से वाकिफ़ हैं अब न समझाओ

कि लुतफ़ क्या है मेरे मेहरबां सितम क्या है

 

 

 

करे न जग में अलाव तो शे'र किस मकसद

करे न शहर में जल-थल तो चशमे-नम क्या है

 

अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना

न जाने आज की फ़ेहरिसत में रकम क्या है

 

सजायो बज़म ग़ज़ल गायो जाम ताज़ा करो

बहुत सही ग़मे-गेती, शराब कम क्या है

 

बेबसी का कोई दरमाँ नहीं करने देते -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बेबसी का कोई दरमाँ नहीं करने देते

अब तो वीराना भी वीराँ नहीं करने देते

Poetry-Hindi-Faiz-Ahmed-Faiz-flower-wallpaper

 

दिल को सदलख़्त किया सीने का किया

और हमें चाक गरेबाँ नहीं करने देते

 

उनको इस्लाम के लुट जाने का डर इतना है

अब वो काफ़िर को मुसलमाँ नहीं करने देते

 

दिल में वो आग फ़रोज़ाँ है अदू जिसका बयाँ

कोई मजमूँ किसी उन्वाँ नहीं करने देते

 

जान बाक़ी है तो करने को बहुत बाक़ी है

अब वो जो कुछ कि मेरी जाँ नहीं करने देते

३० अक्तूबर, १९८४

 

चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का

रंग बदले किसी सूरत शबे-तनहाई का

 

दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनाँ

आज अरज़ां हो कोई हर्फ़ शनासाई का

 

गरमी-ए-इशक से हर अंजुमने-गुलबदनां

तज़किरा छेड़े तिरी पैरहन-आराई का

 

सहने-गुलशन में कभी ऐ शहे-शमशादकदां

फिर नज़र आये सलीका तिरी रा'नाई का

 

एक बार और मसीहा-ए-दिले-दिलज़दगां

कोई वा'दा कोई इकरार मसीहाई का

 

दीदा-ओ-दिल को संभालो कि सरे-शामे-फ़िराक

साज़ो-सामान बहम पहुंचा है रुसवाई का

 

गो सबको बहम साग़रो-बादः तो नहीं था -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गो सबको बहम साग़रो-बादः तो नहीं था

ये शह्‍र उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था

 

गलियों में फिरा करते थे दो-चार दिवाने

हर शख़्स का सद-चाक-लबादा तो नहीं था

 

मंज़िल को न पहचाने रहे-इश्क़ का राही

नादाँ ही सही, इतना भी सादा तो नहीं था

 

थककर यूँ ही पल-भर के लिए आँख लगी थी

सोकर ही न उट्‍ठें ये इरादा तो नहीं था

 

हर घड़ी अक्से-रुख़े-यार लिए फिरती है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हर घड़ी अक्से-रुख़े-यार लिए फिरती है

कितने महताब शबे-तार लिए फिरती है

 

सुन तो लो, देख तो लो, मानो न मानो, ऐ दिल

शामे-ग़म सैकड़ों इक़रार लिए फिरती है

 

है वही हल्क़ः-ए-मौहूम मगर मौजे-नसीम

तारे-गेसू में ख़मे-दार लिए फिरती है

 

बाग़बाँ होश कि बरहम है मिज़ाजे-गुलशन

हर कली हाथ में तलवार लिए फिरती है

 

हवसे-मंज़िले-लैला न तुझे है न मुझे -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हवसे-मंज़िले-लैला न तुझे है न मुझे

ताबे-सरगरमी-ए-सहरा न तुझे है न मुझे

 

मैं भी साहल से ख़ज़फ़ चुनता रहा हूं, तुम भी

हासिल इक गौहरे-जद्दा न तुझे है न मुझे

 

छोड़िए यूसुफ़े-गुमगशता की क्या बात करें

शिद्दते-शौके-जुलेख़ा न तुझे है न मुझे

 

इक चराग़े-तहे-दामां ही बहुत है हमको

ताकते-जलवा-ए-सीना न तुझे है न मुझे

 

कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ, कब तक रह दिखलाओगे

कब तक चैन की मोहलत दोगे, कब तक याद न आओगे

 

बीता दीद-उमीद का मौसम, ख़ाक उड़ती है आँखों में

कब भेजोगे दर्द का बादल, कब बरखा बरसाओगे

 

अह्‍दे-वफ़ा या तर्के-मुहब्बत, जी चाहो सो आप करो

अपने बस की बात ही क्या है, हमसे क्या मनवाओगे

 

किसने वस्ल का सूरज देखा, किस पर हिज्र की रात ढली

गेसुओंवाले कौन थे क्या थे, उनको क्या जतलाओगे

 

’फ़ैज़’ दिलों के भाग में है घर बसना भी, लुट जाना भी

तुम उस हुस्न के लुत्फ़ो-करम पर कितने दिन इतराओगे

 

कहीं तो कारवाने-दर्द की मंज़िल ठहर जाए -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कहीं तो कारवाने-दर्द की मंज़िल ठहर जाये

किनारे आ लगे उमरे-रवां या दिल ठहर जाये

 

अमौ कैसी कि मौजे-ख़ूं अभी सर से नहीं गुज़री

गुज़र जाये तो शायद बाजुए-कातिल ठहर जाये

 

कोई दम बादबाने-कशती-ए-सहबा को तह रक्खो

ज़रा ठहरो ग़ुबारे-ख़ातिरे-महफ़िल ठहर जाये

 

खुमे-साकी में जुज़ ज़हरे-हलाहल कुछ नहीं बाकी

जो हो महफ़िल में इस इकराम के काबिल ठहर जाये

 

हमारी ख़ामशी बस दिल में लब तक एक वकफ़ा है

य' तूफ़ां है जो पल-भर बर-लबे-साहिल ठहर जाये

 

निगाहे-मुंतज़िर कब तक करेगा आईनाबन्दी

कहीं तो दशते-ग़म में यार का महमिल ठहर जाये

 

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

 

न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में

नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही

 

यही बहुत है कि सालिम है दिल का पैराहन

ये चाक-चाक गरेबान बेरफ़ू ही सही

 

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो

नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

 

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल

किसी के वादा-ए-फ़र्दा से गुफ़्तगू ही सही

 

दयार-ए-ग़ैर में महरम गर नहीं कोई

तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

 

न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

न किसी पे ज़ख़म अयां कोई, न किसी को फ़िकर रफ़ू की है

न करम है हम पे हबीब का, न निगाह हम पे अदू की है

 

सफ़े-ज़ाहदां है तो बेयकीं, सफ़े-मयकशां है तो बेतलब

न वो सुबह विरदो-वज़ू की है, न वो शाम जामो-सुबू की है

 

न ये ग़म नया न सितम नया कि तिरी जफ़ा का गिला करें

ये नज़र थी पहले भी मुज़तरिब, ये कसक तो दिल में कभू की है

 

कफ़े-बाग़बां पे बहारे-गुल का है करज़ पहले से बेशतर

कि हरेक फूल के पैरहन में नमूद मेरे लहू की है

 

नहीं ख़ौफ़े-रोज़े-सियह हमें कि है 'फ़ैज़' ज़रफ़े-निगाह में

अभी गोशागीर वो इक किरन जो लगन उस आईनारू की है

 

वक़्फ़े-उमीदे-दीदे-यार है दिल -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वक़्फ़े-उमीदे-दीदे-यार है दिल

फ़स्ले-गुल और सोगवार है दिल

 

जानता है कि वो न आएँगे

फिर भी मसरूफ़े-इन्तज़ार है दिल

 

वजहे-रंजो-अलम सही लेकिन

ख़्वाबे-उल्फ़त की यादगार है दिल

 

आप मुजरिमे-जफ़ा न बनें

हमने माना गुनाहगार है दिल

 

’फ़ैज़’ अंजामे-आशिक़ी मालूम

इस क़दर है कि बेक़रार है दिल

अनिल बिस्वास के लिए -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हरेक हर्फ़े-तमन्ना इस इज़्तिरार में है

कि फिर नसीब हो दरबारे-यारे-बंदः नवाज़

हर इक ग़ज़ल का सफ़ीना इस इंतज़ार में है

कि आए मिस्ले-सबा फिर अनील की याद

 

और फिर एक दिन यूँ ख़िज़ाँ आ गई -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

और फिर इक दिन यूं ख़िज़ां आ गई

आबनूसी तनों के बरहना शजर

सरनिगूं सफ़-ब-सफ़ पेशे-दीवारो-दर

और चारों तरफ़ इनके बिख़रे हुए

ज़रद पत्ते दिलों के सरे-रहगुज़र

जिसने चाहा वो गुज़रा इनहें रौंदकर

और किसी ने ज़रा-सी फ़ुग़ां भी न की

इनकी शाख़ों से ख़वाबो ख़यालों के सब नग़मागर

जिनकी आवाज़ गरदन का फन्दा बनी

जिससे जिस दम वो ना-आशना हो गये

आप ही आप सब ख़ाक में आ गिरे

और सैयाद ने ज़ह कमां भी न की

ऐ ख़ुदा-ए-बहारां ज़रा रहम कर

सारी मुरदा रगों को नुमू बख़श दे

सारे तिशना दिलों को लहू बख़श दे

कोई इक पेड़ फिर लहलहाने लगे

कोई इक नग़मागर चहचहाने लगे

 

बालीं पे कहीं रात ढल रही है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बालीं पे कहीं रात ढल रही है

या शम्‍अ पिघल रही है

पहलू में कोई चीज़ जल रही है

तुम हो कि मेरी जान निकल रही है

दश्ते-ख़िज़ाँ में -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दश्ते-ख़िज़ाँ में जिस दम फैले

रुख़्सते-फ़स्ले-गुल की ख़ुशबू

सुभ के चश्मे पर जब पहुँचे

प्यास का मारा रात का आहू

यादों के ख़ाशाक में जागे

शौक़ के अंगारों का जादू

शायद पल-भर को लौट आए

उम्रे-गुज़िश्ता, वस्ले-मनो-तू

बेरूत, मई, १९८२

एक गीत दर्द के नाम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ऐ हमारी सारी रातों को

दर्द देने वाले

और दिल जलाने वाले

ऐ हमारी अंखड़ियों को

बेख़्वाबियों के साग़र

सरे-शब पिलाने वाले

किसी रहगुज़र पे इक दिन

भीगी हुई सहर में

तू हमें कहीं मिला था

और हमने तरस खाकर

इक जाम मुलतफ़ित का

अपने दिलो-जिगर का

इक मुज़तरब-सा गोशा

तेरी नज़र कर दिया था

वो दिन और आज का दिन

इक पल को साथ अपना

तूने कभी न छोड़ा

 

दुनिया की वुसअतों में

गलियों में रास्तों में

तू साथ ही हमारे

जिस उदास सुबह इक दिन

तू हमें कहीं मिला था

ऐ काश हमने तुझ को

कुछ भी दिया न होता

ऐ दिल जलाने वाले

बेख़्वाबियों के साग़र

हम को पिलाने वाले

गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कैसे मुमकिन है यार मेरे

मजनूँ तो बनो लेकिन तुमसे

इक संग न रस्मो-राह करे

हो कोहकनी का दावा भी

सर फोड़ने की हिम्मत भी न हो

हर इक को बुलाओ मक़तल में

और आप वहाँ से भाग रहो

बेहतर तो यही है जान मेरी

जिस जा सर धड़ की बाज़ी हो

वो इश्क़ की हो या ज़ंग की हो

गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह

 

वरना अपने आपे में रहो

लाज़िम तो नहीं है हर कोई

मंसूर बने फ़रहाद बने

अलबत्ता इतना लाज़िम है

सच जान के जो भी राह चुने

बस एक उसी का हो के रहे

गीत-अब क्या देखें राह तुम्हारी -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़िल्म : जागो हुआ सवेरा

अब क्या देखें राह तुम्हारी

बीत चली है रात

छोड़ो

छोड़ो ग़म नी बात

थक गये आंसू

थक गई अंखियां

गुज़र गई बरसात

बीत चली है रात

 

छोड़ो

छोड़ो ग़म नी बात

कब से आस लगी दर्शन की

कोई न जाने बात

कोई न जाने

बीत चली है रात

छोड़ो ग़म नी बात

 

तुम आओ तो मन में उतरे

फूलों की बारात

बीत चली है रात

अब क्या देखें राह तुम्हारी

बीत चली है रात

गीत-हम तेरे पास आये -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़िल्म : सुख का सपना

हम तेरे पास आये

सारे भरम मिटा कर

सब चाहतें भुला कर

कितने उदास आये

हम तेरे पास जाकर

क्या-क्या न दिल दुखा है

क्या-क्या बही हैं अंखियां

क्या-क्या न हम पे बीती

क्या-क्या हुए परीशां

हम तुझसे दिल लगा कर

तुझसे नज़र मिला कर

कितने फ़रेब खाये

अपना तुझे बना कर 

 

हम तेरे पास आये

सारे भरम मिटा कर

थी आस आज हम पर कुछ होगी मेहरबानी

हल्का करेंगे जी को सब हाले-दिल ज़बानी

तुझको सुना-सुना कर

आंसू बहा-बहा कर

 

कितने उदास आये

हम तेरे पास जाकर

हम तेरे पास आये

सारे भरम मिटा कर

गीत-कोई दीप जलाओ -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बुझ गया चंदा, लुट गया घरवा, बाती बुझ गई रे

दैया राह दिखाओ

मोरी बाती बुझ गई रे, कोई दीप जलाओ

रोने से कब रात कटेगी, हठ न करो, मन जाओ

मनवा कोई दीप जलाओ

काली रात से ज्योती लाओ 

 

अपने दुख का दीप बनाओ

हठ न करो, मन जाओ

मनवा कोई दीप जलाओ

गीत- मंज़िलें मंज़िलें -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़िल्म : कसम उस वक़्त की

शौके-दीदार की मंज़िलें

हुस्ने-दिदार की मंज़िलें, प्यार की मंज़िलें

प्यार की बेपनह रात की मंज़िलें

कहकशानों की बारात की मंज़िलें

 

बलन्दी की, हिम्मत की, परवाज़ की

जोशे-परवाज़ की मंज़िलें

राज़ की मंज़िलें

ज़िन्दगी की कठिन राह की मंज़िलें

बलन्दी की, हिम्मत की, परवाज़ की मंज़िलें

जोशे-परवाज़ की मंज़िलें

राज़ की मंज़िलें

 

आन मिलने के दिन

फूल खिलने के दिन

वक़्त के घोर सागर में सुबह की

शाम की मंज़िलें

चाह की मंज़िलें

आस की, प्यास की

हसरते-यार की

प्यार की मंज़िलें

मंज़िलें, हुस्ने-आलम के गुलज़ार की मंज़िलें, मंज़िलें 

 

मौज-दर-मौज ढलती हुई रात के दर्द की मंज़िलें

चांद-तारों के वीरान संसार की मंज़िलें

 

अपनी धरती के आबाद बाज़ार की मंज़िलें

हक के इरफ़ान की

नूरे-अनवार की

वस्ले-दिलदार की

कौलो-इकरार की मंज़िलें

मंज़िलें, मंज़िलें

गीत : पंखी राजा मीठा बोल -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

पंखी राजा रे पंखी

राजा मीठा बोल

जोत जगी हर मन में

भँवरा गूँजा, डाली झूमे

बस्ती, बाड़ी, बन में 

 

नदिया रानी रे

नदिया रानी मीठा बोल

मीठा बोल

घाट लगी हर नाव

रात गई सुख जागा

पायल बाँधो, नाचो, गाओ

घाट लगी हर नाव

नदिया रानी मीठा बोल

 

सुन्दर गोरी रे

सुन्दर गोरी मीठा बोल

जीवे रूप जवानी

बात करे तो फूल खिलें

अँखियाँ एक कहानी

जैसे दूर से तारा चमके

चमके रूप जवानी

जीवे रूप जवानी 

 

जोत जगी हर मन में

पंखी राजा मीठा बोल

नदिया रानी मीठा बोल

सुन्दर गोरी मीठा बोल

गीत : सुखी रहे तेरी रात -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सुखी रहे तेरी रात चंदा सुखी रहे तेरी रात

दूर है चैन की नगरी चंदा दूर है सुख का गाँव

जाने कैसे राह कटेगी हारे थक-थक पाँव

ओट में बैठे बैरी चंदा थाम ले मेरा हाथ

सुखी रहे तेरी रात

 

तेरी दया से दीप जला है इस पापन के द्वारे

जाने कैसे भाग जगे हैं भूल गए दुख सारे

मन काँपे जी धड़के, चंदा छूट न जाए साथ

सुखी रहे तेरी रात

 

हम्द -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मलिकए-शहरे-ज़िन्दगी तेरा

शुक्र किस तौर से अदा कीजे

दौलते-दिल का कुछ शुमार नहीं

तंगदस्ती का क्या गिला कीजे

 

जो तिरे हुस्न के फ़कीर हुए

उनको तशवीशे रोज़गार कहां

दर्द बेचेंगे गीत गायेंगे

इससे ख़ुशवक़्त कारोबार कहां

 

जाम छलका तो जम गई महफ़िल

मिन्नते-लुत्फ़े-ग़मगुसार किसे

अश्क टपका तो खिल गया गुलशन

रंजे-कमज़रफ़ीए-बहार किसे 

 

ख़ुशनशीं हैं कि चश्मे-दिल की मुराद

दैर में हैं न ख़ानकाह में हैं

हम कहां किस्मत आज़माने जायें

हर सनम अपनी बारगाह में है

 

कौन ऐसा ग़नी है जिससे कोई

नकदे-शमसो-कमर की बात करे

जिसको शौके-नबरद हो हमसे

जाए तसख़ीरे-कायनात करे

 

जून, 1959

इंक़लाब-ए-रूस -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(रूसी क्रान्ति की 50 वीं वर्षगाँठ पर)

मुर्ग़े-बिस्मिल के मानिंद शब तिलमिलाई

उफ़क-ता-उफ़क

सुब्‍हे-महशर की पहली किरन जगमगाई

तो तारीक आँखों से बोसीदा पर्दे हटाए गए

दिल जलाए गए

तबक़-दर-तबक़

आसमानों के दर

यूँ खुले हफ़्त अफ़लाक आईना से हो गए

शर्क़ ता ग़र्ब सब क़ैदख़ानों के दर

 

आज वा हो गए

क़स्रे-जम्हूर की तरहे-नौ के लिए

आज नक़्शे-कुहन सब मिटाए गए

सीना-ए-वक़्त से सारे ख़ूनी कफ़न

आज के दिन सलामत उठाए गए

आज पा-ए-ग़ुलामाँ में ज़ंज़ीरे-पा

ऐसी छनकी कि बाँगे-दिरा बन गई

दस्ते-मज़लूम में हथकड़ी की कड़ी

ऐसी चमकी कि तेग़े-क़ज़ा बन गई

इकबाल -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ज़माना था कि हर फ़रद इंतज़ारे-मौत करता था

अमल की आरज़ू बाकी न थी बाज़ू-ए-इनसां में

बिसाते-दहर पर गोया सुकूते-मरग तारी था

सदा-ए-नौहाख़्वां तक भी न थी इस बज़्मे-वीरां में

 

रगे-मशरिक में ख़ूने-ज़िन्दगी थम-थम के चलता था

ख़िज़ां का रंग था गुलज़ारे-मिल्लत की बहारों में

फ़ज़ा की गोद में चुप थे सितेज़-अंगेज़ हंगामे

शहीदों की सदाएं सो रही थीं कारज़ारों में 

 

सुनी वामन्दा-ए-मंज़िल ने आवाज़े-दार आख़िर

तिरे नग़मों ने तोड़ डाला सिहरे-ख़ामोशी

मये-ग़फ़लत के माते ख़्वाबे-दैरीना से जाग उट्ठे

ख़ुद-आगाही से बदली कलबो-जां की ख़ुदफ़रामोशी

 

उरूके-मुर्दा मशरिक में ख़ूने-ज़िन्दगी दौड़ा

फ़सुरदा मुश्ते-ख़ाकिसतर से फिर लाखों शरर निकले

ज़मीं से नूर यां ता आसमां परवाज़ करते थे

ये ख़ाकी ज़िन्दातर ता बन्दातर ता इन्दातर निकले

 

नबूदो-बूद के सब राज़ तूने फिर से बतलाये

हर इक कतरे को वुसअत दे के दरिया कर दिया तूने

हर इक फ़ितरत को तूने उसके इमकानात जतलाये

हर इक ज़ररे को हमदोशो-सुरैया कर दिया तूने

 

फ़रोग़े-आरज़ू की बसतियां आबाद कर डालीं

जुज़ाने-ज़िन्दगी को आतिशे-दोशीं से भर डाला

तिलिसमे-कुन से तेरा लुकमा-ए-जां-सोज़ क्या कम है

कि तूने सदहज़ार अफ़यून्यों को मर्द कर डाला

ख़्वाबे-परीशाँ -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हां ख़्वाहिश कि बीमार मेरे तनहा दिल ने

इक ख़्वाब सभी ख़्वाबों की तरह प्यारा देखा

लेकिन मेरे सब ख़्वाबों की तरह

ये ख़्वाब भी बे-मानी निकला

ये ख़्वाब कि बन जाऊंगा किसी दिन

बोरडिंग का मानीटर मैं 

 

हैरत कि हुआ ऐसा ही मगर

थी किस को ख़बर

इस मोड़ पे आके बख़ते-रसा सो जायेगा

ज़ीनों की सदा आसेब-ज़दा

हम्माम में ग़म की गर्द अटी

और एक नहूसत का पैकर

मीनार घड़ी

हर घंटा कराही वक़्त के लम्बे रस्ते पर

आवाज़ थकन में डूबी हुई थी

मैं, गुरमुख सिंह सुनता ही रहा

 

सुन-सुन के मगर ये कहना पड़ा

ये ख़्वाब भी कितना मोहमल था

मदह -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(हसीन शहीद सुहरवरदी मरहूम ने रावलपिंडी

साजिश केस में मुलज़िमों की जानिब से वकालत

की थी। मुकद्दमे के ख़ात्मे पर उनहें यह सिपासनामा

पेश किया गया)" किस तरह बयां हो तिरा पैराया-ए-तकरीर

गोया सरे-बातिल पे चमकने लगी शमशीर

वो ज़ोर है इक लफ़्ज़ इधर नुतक से निकला

वां सीना-ए-अग़ियार में पैवस्त हुए तीर

गर्मी भी है ठंडक भी रवानी भी सुकूं भी

तासीर का क्या कहिये, है तासीर-सी तासीर

एजाज़ उसी का है कि अरबाबे-सितम की

अब तक कोई अंजाम को पहुंची नहीं तदबीर

इतराफ़े-वतन में हुआ हक बात का शोहरा

हर एक जगह मकरो-रिया की हुई तशहीर

रौशन हुए उम्मीद से रुख़ अहले-वफ़ा के

पेशानी-ए-आदा पे सियाही हुई तहरीर 

 

हुररीयते-आदम की रहे सख़्त के रहगीर

ख़ातिर में नहीं लाते ख़्याले-दमे-ताज़ीर

कुछ नंग नहीं रंजे-असीरी कि पुराना

मर्दाने-सफ़ाकेश से है रिश्ता-ए-ज़ंजीर

कब दबदबा-ए-जबर से दबते हैं कि जिनके

ईमान-ओ-यकीं दिल में किये रहते हैं तनवीर

मालूम है इनको कि रिहा होगी किसी दिन

ज़ालिम के गरां हाथ से मज़लूम की तकदीर

आख़िर को सरअफ़राज़ हुआ करते हैं अहरार

आख़िर को गिरा करती है हर जौर की तामीर

हर दौर में सर होते हैं कसरे-जमो-दार

हर अहद में दीवारे-सितम होती है तसख़ीर

हर दौर मैं मलऊन शकावत है शिमर की

हर अहद में मसऊद है कुर्बानी-ए-शब्बीर

करता है कल्म अपने लबो-नुतक की ततहीर

पहुंची है सरे-हर्फ़ दुआ अब मिरी तहरीर

हर काम में बरकत हो हर इक कौल में कूवत

हर गाम पे हो मंज़िले-मकसूद कदमगीर

हर लहज़ा तेरा ताली-ए-इकबाल सिवा हो

हर लहज़ा मददगार हो तदबीर की तकदीर

हर बात हो मकबूल, हर इक बोल हो बाला

कुछ और भी रौनक में बढ़े शोला-ए-तकरीर

हर दिन हो तेरा लुत्फ़े-ज़बां और ज़ियादा

अल्लाह करे ज़ोरे-बयां और ज़ियादा

 

मरसिया-ए-इमाम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रात आई है शब्बीर पे यलग़ारे-बला है

साथी न कोई यार न ग़मख़्वार रहा है

मूनिस है तो इक दर्द की घनघोर घटा है

मुशफ़िक है तो इक दिल के धड़कने की सदा है

 

तनहाई की, ग़ुरबत की, परेशानी की शब है

ये ख़ाना-ए-शब्बीर की वीरानी की शब है

 

दुश्मन की सिपह ख़्वाब में मदहोश पड़ी थी

पल-भर को किसी की न इधर आंख लगी थी

हर एक घड़ी आज क्यामत की घड़ी थी

ये रात बहुत आले-मुहंमद पे कड़ी थी

 

रह-रहके बुका अहले-हरम करते थे ऐसे

थम-थम के दिया आख़िरे-शब जलता है जैसे

 

इक गोशे में इन सोख़्ता सामानों के सलार

इन ख़ाक-ब-सर, ख़ानमां वीरानों के सरदार

तिशना लबो-दरमांदा-ओ-मजबूरो-दिल-अफ़गार

इस शान से बैठे थे शहे-लश्करे-अहरार 

 

मसनद थी, न ख़िलअत थी, न ख़ुद्दाम खड़े थे

हां तन पे जिधर देखिए, तो ज़ख़्म सजे थे

 

कुछ ख़ौफ़ था चेहरे पे, न तशवीश ज़रा थी

हर एक अदा मज़हरे-तसलीमो-रज़ा थी

हर एक निगह शाहदे-इकरारे-वफ़ा थी

हर जुम्बिशे-लब मुनकिरे-दस्तूरे-जफ़ा थी

 

पहले तो बहुत प्यार से हर फ़र्द को देखा

फिर नाम ख़ुदा का लिया और यूं हुए गोया

 

अलहमद, करीब आया ग़मे-इश्क का साहिल

अलहमद, कि अब सुबहे-शहादत हुई नाज़िल

बाज़ी है बहुत सख़्त मियाने-हको-बातिल

वो ज़ुल्म में कामिल हैं तो हम सबर में कामिल

 

बाज़ी हुई अंजाम मुबारक हो अज़ीज़ो

बातिल हुआ नाकाम, मुबारक हो अज़ीज़ो

 

फिर सुबह की लौ आई रुख़े-पाक पे चमकी

और एक किरन मक़तले-ख़ून्नाक पे चमकी

नेज़े की अनी थी ख़सो-ख़ाशाक पे चमकी

शमशीर बरहना थी कि अफ़लाक पे चमकी 

 

दम-भर के लिए आईना-रू हो गया सहरा

ख़ुरशीद जो उभरा तो लहू हो गया सहरा

 

पा बांधे हुए हमले को आई सफ़े-आदा

था सामने एक बन्दा-ए-हक यक्का-ओ-तनहा

हरचन्द कि हर इक था उधर ख़ून का प्यासा

ये रौब का आलम था कि कोई पहलू न करता

 

की आने में ताख़ीर जो लैला-ए-कज़ा ने

ख़ुतबा किया इर्शाद इमामे-शुहदा ने

 

फ़र्माया कि क्यूं दर-पए-आज़ार हो लोगो

हक वालों से क्यों बर सरे-पैकार हो लोगो

वल्लाह कि मुजरिम हो, गुनहगार हो लोगो

मालूम है कुछ किस के तरफ़दार हो लोगो

 

क्यूं आप के आकायों में और हम में ठनी है

मालूम है किस वासते इस जां पे बनी है

 

सतवत न हुकूमत न हशम चाहिए हमको

औरंग न अफ़सर, न अलम चाहिए हमको

ज़र चाहिए, न मालो-दिरम चाहिए हमको

जो चीज़ भी फ़ानी है, वो कम चाहिए हमको 

 

सरदारी की ख़्वाहश है न शाही की हवस है

इक हर्फ़े-यकीं दौलते-ईमां हमें बस है

 

तालिब हैं अगर हम तो फ़क़्त हक के तलबगार

बातिल के मुकाबिल में सदाकत के परसतार

इन्साफ़ के, नेकी के, मुरव्वत के तरफ़दार

ज़ालिम के मुख़ालिफ़ हैं तो बेकस के मददगार

 

जो ज़ुल्म पे लानत न करे, आप लईं है

जो जबर का मुनकिर नहीं, वो मुनकिरे-दीं है

 

ता-हशर ज़माना तुम्हें मक्कार कहेगा

तुम अहद-शिकन हो, तुम्हें गद्दार कहेगा

जो साहबे-दिल है हमें अबरार कहेगा

जो बन्दा-ए-हुर है, हमें अहरार कहेगा

 

नाम ऊंचा ज़माने में हर अन्दाज़ रहेगा

नेज़े पे भी सर अपना सर-अफ़राज रहेगा 

 

कर ख़त्म सुख़न, महवे-दुआ हो गये शब्बीर

फिर नारा-ज़नां महवे-विग़ा हो गये शब्बीर

कुर्बाने-रहे-सिदको-सफ़ा हो गये शब्बीर

ख़ेमों में था कोहराम, जुदा हो गये शब्बीर

 

मरकब पे तने-पाक था और ख़ाक पे सर था

उस ख़ाक तले जन्नते-फ़िरदौस का दर था

मेरे देस के नौनिहालों के नाम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वो गुंचे जो शबनम की इक बून्द

खिलखिलाने की उम्मीद लेकर

हमेशा तरसते रहे

वो लालो-गुहर

जिन्हें गुदड़ियों के अंधेरे से बाहर

चमकते हुए दिन की हर इक किरन

जगमगाने से पहलू बचाती रही

जिनके नन्हें दिलों के कटोरों में

महरो-मोहब्बत का रस

कोई टपकानेवाला न था

जिनकी मरहूम आंखें

उनकी मांयों की सूरत

मिरे देस की सारी मांयों की सूरत

आनेवाले दिनों में

हंसी के उजालों की रह तक रही हैं

 

मुनीज़ा की सालगिरह -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इक मुनीज़ा हमारी बेटी है

जो बहुत ही प्यारी बेटी है

 

हम ही कब उसको प्यार करते हैं

सब के सब उसको प्यार करते हैं

 

कैसे सब को न आये प्यार उस पर

है वही तो हमारी डिक्टेटर

 

प्यार से जो भी जी चुरायेगा

वोह ज़रूर उससे मार खायेगा

 

ख़ैर येह बात तो हंसी की है

वैसे सचमुच बहुत वोह अच्छी है

 

फूल की तरह उसकी रंगत है

चांद की तरह उसकी सूरत है

 

जब वोह ख़ुश हो के मुस्कुराती है

चांदनी जग में फैल जाती है 

 

पढ़ने लिखने में ख़ूब काबिल है

खेलने कूदने में कामिल है

 

उमर देखो तो आठ साल की है

अक़्ल देखो तो साठ साल की है

 

फिर वोह गाना भी अच्छा गाती है

गर्चे तुम को नहीं सुनाती है

 

बात करती है इस कदर मीठी

जैसे डाली पे कूक बुलबुल की

 

हां कोई उसको जब सताता है

तब ज़रा गुस्सा आ ही जाता है

 

पर वोह जलदी से मन भी जाती है

कब किसी को भला सताती है

 

है शिगुफ़ता बहुत मिज़ाज उसका

सारा उमदा है काम काज उसका 

 

है मुनीज़ा की आज सालगिरह

हर तरफ़ शोर है मुबारक का

 

चांद तारे दुआएं देते हैं

फूल उसकी बलाएं लेते हैं

 

बाग़ में गा रही है येह बुलबुल

"तुम सलामत रहो मुनीज़ा गुल"

 

अंमी अब्बा भी और बाजी भी

आंटीयां और बहन भाई भी

 

आज सब उसको प्यार करते हैं

मिल के सब बार बार करते हैं

 

 

 

फिर यूं ही शोर हो मुबारक का

आए सौ बार तेरी सालगिरह

 

सौ तो क्या सौ हज़ार बार आये

यूं कहो, बेशुमार बार आये

 

लाये हर बार अपने साथ ख़ुशी

और हम सब कहा करें यूं ही

 

येह मुनीज़ा हमारी बेटी है

येह बहुत ही प्यारी बेटी है

 

नात -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(फ़ारसी रचना)" ऐ तू कि हसत हर दिले-महज़ूं सराए तू

आवुरदा-अम सराये दिगर अज़ बराए तू।1।

 

ख़्वाजा ब-तख़्ते-बन्दा-ए-तशवीशे-मुलको-माल

बर ख़ाक रशके-ख़ुसरवे-दौरां गदाए तू।2।

 

आं जा कसीदा-ख़्वानी-ए-लज़्ज़ाते सीमो-ज़र

ईं जा फ़कत हदीसे-निशाते-लकाए तू।3।

 

आतश-फ़शां ज़े कहरो-मलामत ज़बाने-शैख़

अज़ असके-तर ज़े दर्दे-ग़रीबां रिदाए तू।4।

 

बायद कि ज़ालिमाने-जहां-रा सदा कुनद

रोज़े-ब-सूये-अदलो-इनायत सदाए तू।5।

 

(1. तू वह है, जिसने हर दुखी दिल में अपना

घर बना लिया है। मैं तुम्हारे लिए एक ओर सराय

ले कर आया हूँ।

2. यह हाकिम ताकत और माल की चिंता में

लीन हैं, परन्तु इस धरती के अब के हाकिम तेरे

इस भिखारी के साथ ईर्ष्या करते हैं।

 

3. वह लोग सोने-चाँदी की शान के प्रशंसक हैं

और यहाँ मेरे पास तुम्हारे मुँह की सुंदरता से मिलने

वाले आनंद के सिवा कुछ नहीं है।

4. शेख की जुबान से गुस्से और निंदा के अंगारे भड़क

रहे हैं, जब कि तेरी चादर को ग़रीबों की आंखों में से

बहने वाली दर्द भरी तरल धारा भिगो रही है।

5. दुनिया के ज़ालिमों को सुना देना चाहिए कि एक दिन

उन को न्याय और सदभावना की तरफ़ आना ही पड़ेगा।)

 

नज्र -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तरबज़ारे-तख़य्युल शौके-रंगीकार की दुनिया

मिरे अफ़कार की जन्नत, मिरे अशआर की दुनिया

 

शबे-महताब की सहर आफ़रीं मदहोश मौसीकी

तुम्हारी दिलनशीं आवाज़ में आराम करती है

बहार आग़ोश में बहकी हुई रंगीनीयां लेकर

तुम्हारे ख़न्दा-ए-गुलरेज़ को बदनाम करती है

 

तुम्हारी अम्बरीं ज़ुल्फ़ों में लाखों फ़ितने आवारा

तुम्हारी हर नज़र से सैंकड़ों सागर छलकते हैं

तुम्हारा दिल हसीं जज़बों से यूं आबाद है गोया

शफ़क ज़ारे-जवानी में फ़रिश्ते रक़्स करते हैं

 

जहाने-आरज़ू ये बेरुख़ी देखी नहीं जाती

कि शौके-दीद को तुम इस तरह बेसूद कर डालो

बहशते-रंगो-बू रानाईयां महदूद कर डालो

नहीफ़ आंखों में इतनी दिलकशी देखी नहीं जाती

 

प्याम-ए-तजदीद -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अहदे-उलफ़त को मुद्दतें गुज़रीं

दौरे-राहत को मुद्दतें गुज़रीं

मिसले-तस्वीरे-यास है दुनिया

हाय कितनी उदास है दुनिया

फिर तुझे याद कर रहा हूं मैं

 

कितने बेकैफ़ रोज़ो-शब हैं कि तू

वजहे-तजईने-महरो-माह नहीं

हसरते-दीद खो चुका हूं मैं

आह मैं और तेरी चाह नहीं

इस तसन्नो से थक गया हूं मैं

 

आ मुझे फिर शुमार में ले

यादे-दोशीन मत जगा प्यारी

बे-वफ़ाई का ज़िक्र रहने दे

मेरे शिकवों की फ़िक्र रहने दे

आ, गुज़शता को भूल जा प्यारी

आ मुझे फिर कनार में ले

 

दर्दे-अहदे-फ़िराक रो डालूं

दिल के दैरीना दाग़ धो डालूं

 

सेहरा -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सजायो बज़्म दरे-मयकदा कुशादा करो

उठायो साज़े-तरब, एहतमामे-बादा करो

जलायो चांद सितारे, चिराग़ काफ़ी नहीं

येह शब है जशन की शब रौशनी ज़ियादा करो

 

सजायो बज़्म कि रंजो-अलम के ज़ख़्म सिले

बिसाते-लुत्फ़ो-मुहब्बत पे आज यार मिले

दुआ को हाथ उठायो कि वक़्ते-नेक आया

रुख़े-अज़ीज़ पे सेहरे के आज फूल खिले

उठायो हाथ कि येह वक़्ते-ख़ुश मुदाम रहे

शबे-निशातो-बिसाते-तरब दवाम रहे

तुम्हारा सहन मुनव्वर हो मिसले-सहने-चमन

और इस चमन में बहारों का इंतज़ाम रहे

 

वापस लौट आई है बहार -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जाग उठी सरसों की किरनें

वापस लौट आई है बहार

पौधे संवरे, सबज़ा निखरा

धुल गये फूलों के रुख़सार

वापस लौट आई है बहार

 

सहमे-से अफ़सुरदा चेहरे

उन पर ग़म की गर्द वही

ज़ोरो-सितम वैसे के वैसे

सदियों के दुख-दर्द वही

और वही बरसों के बीमार

वापस लौट आई है बहार

 

ग़म के तपते सहरायों में

धुंधली-सी राहत की चमक

या बेजां हाथों से हटकर

सिमटे-से आंचल की झलक

दिल की शिकसतों के अम्बार

वापस लौट आई है बहार

यार अग़ियार हो गए हैं -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

यार अग़ियार हो गए हैं

और अग़ियार मुसिर हैं कि वो सब

यारे-ग़ार हो गए हैं

अब कोई नदीमे-बासफ़ा नहीं है

सब रिन्द शराबख़्वार हो गए हैं  

 

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Faiz Ahmed Faiz) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!