रश्मि महादेवी वर्मा Rashmi Mahadevi Verma

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रश्मि - महादेवी वर्मा
Rashmi - Mahadevi Verma | mahadevi verma ki rachna Rashmi (toc)

रश्मि - mahadevi verma

चुभते ही तेरा अरुण बान!

बहते कन कन से फूट फूट,

मधु के निर्झर से सजल गान।

इन कनक रश्मियों में अथाह,

लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;

बुदबुद से बह चलते अपार,

उसमें विहगों के मधुर राग;

बनती प्रवाल का मृदुल कूल,

जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान।

 

नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,

बन गए इन्द्रधनुषी वितान;

दे मृदु कलियों की चटक, ताल,

हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;

धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात,

दुहराते अलि निशि-मूक तान।

 

सौरभ का फैला केश-जाल,

करतीं समीरपरियां विहार;

गीलीकेसर-मद झूम झूम,

पीते तितली के नव कुमार;

मर्मर का मधु-संगीत छेड़,

देते हैं हिल पल्लव अजान!

 

फैला अपने मृदु स्वप्न पंख,

उड़ गई नींदनिशि क्षितिज-पार;

अधखुले दृगों के कंजकोष--

पर छाया विस्मृति का खुमार;

रंग रहा हृदय ले अश्रु हास,

यह चतुर चितेरा सुधि विहान!

rashmi-mahadevi-verma

सुधि - mahadevi verma

किस सुधिवसन्त का सुमनतीर,

कर गया मुग्ध मानस अधीर?

 

वेदना गगन से रजतओस,

चू चू भरती मन-कंज-कोष,

अलि सी मंडराती विरह-पीर!

 

मंजरित नवल मृदु देहडाल,

खिल खिल उठता नव पुलकजाल,

मधु-कन सा छलका नयन-नीर!

अधरों से झरता स्मितपराग,

प्राणों में गूँजा नेह-राग,

सुख का बहता मलयज समीर!

 

घुल घुल जाता यह हिमदुराव,

गा गा उठते चिर मूक भाव,

अलि सिहर सिहर उठता शरीर!

शून्यता में निद्रा की बन,

उमड़ आते ज्यों स्वप्निल घन;

पूर्णता कलिका की सुकुमार,

छलक मधु में होती साकार;

 

हुआ त्यों सूनेपन का भान,

प्रथम किसके उर में अम्लान?

और किस शिल्पी ने अनजान,

विश्व प्रतिमा कर दी निर्माण?

काल सीमा के संगम पर,

मोम सी पीड़ा उज्जवल कर।

 

उसे पहनाई अवगुण्ठन,

हास औ’ रोदन से बुन-बुन!

 

कनक से दिन मोती सी रात,

सुनहली सांझ गुलाबी प्रात;

मिटाता रंगता बारम्बार,

कौन जग का यह चित्राधार?

 

शून्य नभ में तम का चुम्बन,

जला देता असंख्य उडुगण;

बुझा क्यों उनको जाती मूक,

भोर ही उजियाले की फूंक?

 

रजतप्याले में निद्रा ढाल,

बांट देती जो रजनी बाल;

उसे कलियों में आंसू घोल,

चुकाना पड़ता किसको मोल?

 

पोछती जब हौले से वात,

इधर निशि के आंसू अवदात;

उधर क्यों हंसता दिन का बाल,

अरुणिमा से रंजित कर गाल?

कली पर अलि का पहला गान,

थिरकता जब बन मृदु मुस्कान,

विफल सपनों के हार पिघल,

ढुलकते क्यों रहते प्रतिपल?

 

गुलालों से रवि का पथ लीप,

जला पश्चिम मे पहला दीप,

विहँसती संध्या भरी सुहाग,

दृगों से झरता स्वर्ण पराग;

उसे तम की बढ़ एक झकोर,

उड़ा कर ले जाती किस ओर?

 

अथक सुषमा का स्रजन विनाश,

यही क्या जग का श्वासोच्छवास?

 

किसी की व्यथासिक्त चितवन,

जगाती कण कण में स्पन्दन;

गूँथ उनकी सांसो के गीत,

कौन रचता विराट संगीत?

 

प्रलय बनकर किसका अनुताप,

डुबा जाता उसको चुपचाप,

 

आदि में छिप जाता अवसान,

अन्त में बनता नव्य विधान;

सूत्र ही है क्या यह संसार,

गुंथे जिसमें सुखदुख जयहार?

गीत-1 - mahadevi verma

क्यों इन तारों को उलझाते?

अनजाने ही प्राणों में क्यों,

आ आ कर फिर जाते?

 

पल में रागों को झंकृत कर,

फिर विराग का अस्फुट स्वर भर,

मेरी लघु जीवन वीणा पर,

क्या यह अस्फुट गाते?

 

लय में मेरा चिर करुणा-धन,

कम्पन में सपनों का स्पन्दन,

गीतों में भर चिर सुख, चिर दुख,

कण कण में बिखराते!

 

मेरे शैशव के मधु में घुल,

मेरे यौवन के मद में ढुल,

मेरे आँसू स्मित में हिल मिल,

मेरे क्यों न कहाते?

दुःख - mahadevi verma

रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;

इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता।

 

उसमें मर्म छिपा जीवन का,

एक तार अगणित कम्पन का,

एक सूत्र सबके बन्धन का,

संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता।

 

वह उर में आता बन पाहुन,

कहता मन से, अब न कृपण बन,

मानस की निधियां लेता गिन,

दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता।

 

यह जग है विस्मय से निर्मित,

मूक पथिक आते जाते नित,

नहीं प्राण प्राणों से परिचित,

यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता।

 

मृगमरीचिका के चिर पथ पर,

सुख आता प्यासों के पग धर,

रुद्ध हृदय के पट लेता कर,

गर्वित कहता ’मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’।

 

दुख के पद छू बहते झर झर,

कण कण से आँसू के निर्झर,

हो उठता जीवन मृदु उर्वर,

लघु मानस में वह असीम जग को आमन्त्रित कर लाता।

अतृप्ति - mahadevi verma

चिर तृप्ति कामनाओं का

कर जाती निष्फल जीवन,

बुझते ही प्यास हमारी

पल में विरक्ति जाती बन।

 

पूर्णता यही भरने की

ढुल, कर देना सूने घन;

सुख की चिर पूर्ति यही है

उस मधु से फिर जावे मन।

 

चिर ध्येय यही जलने का

ठंढी विभूति बन जाना;

है पीड़ा की सीमा यह

दुख का चिर सुख हो जाना!

 

मेरे छोटे जीवन में

देना न तृप्ति का कणभर;

रहने दो प्यासी आँखें

भरतीं आंसू के सागर।

 

तुम मानस में बस जाओ

छिप दुख की अवगुण्ठन से;

मैं तुम्हें ढूँढने के मिस

परिचित हो लूँ कण कण से।

 

तुम रहो सजल आँखों की

सित असित मुकुरता बन कर;

मैं सब कुछ तुम से देखूँ

तुमको न देख पाऊँ पर!

 

चिर मिलन विरह-पुलिनों की

सरिता हो मेरा जीवन;

प्रतिपल होता रहता हो

युग कूलों का आलिंगन!

 

इस अचल क्षितिज रेखा से

तुम रहो निकट जीवन के;

पर तुम्हें पकड़ पाने के

सारे प्रयत्न हों फीके।

 

द्रुत पंखोंवाले मन को

तुम अंतहीन नभ होना;

युग उड़ जावें उड़ते ही

परिचित हो एक न कोना!

 

तुम अमरप्रतीक्षा हो मैं

पग विरहपथिक का धीमा;

आते जाते मिट जाऊँ

पाऊँ न पंथ की सीमा।

 

तुम हो प्रभात की चितवन

मैं विधुर निशा बन आऊँ;

काटूँ वियोग-पल रोते

संयोग-समय छिप जाऊँ!

 

आवे बन मधुर मिलन-क्षण

पीड़ा की मधुर कसक सा;

हँस उठे विरह ओठों में—

प्राणों में एक पुलक सा।

 

पाने में तुमको खोऊँ

खोने में समझूँ पाना;

यह चिर अतृप्ति हो जीवन

चिर तृष्णा हो मिट जाना!

 

गूँथे विषाद के मोती

चाँदी की स्मित के डोरे;

हों मेरे लक्ष्य-क्षितिज की

आलोक तिमिर दो छोरें।

जीवन दीप - mahadevi verma

किन उपकरणों का दीपक,

किसका जलता है तेल?

किसकी वृत्ति, कौन करता

इसका ज्वाला से मेल?

 

शून्य काल के पुलिनों पर-

जाकर चुपके से मौन,

इसे बहा जाता लहरों में

वह रहस्यमय कौन?

 

कुहरे सा धुँधला भविष्य है,

है अतीत तम घोर ;

कौन बता देगा जाता यह

किस असीम की ओर?

 

पावस की निशि में जुगनू का-

ज्यों आलोक-प्रसार।

इस आभा में लगता तम का

और गहन विस्तार।

 

इन उत्ताल तरंगों पर सह-

झंझा के आघात,

जलना ही रहस्य है बुझना -

है नैसर्गिक बात !

कौन है? - mahadevi verma

कुमुद-दल से वेदना के दाग़ को,

पोंछती जब आंसुवों से रश्मियां;

चौंक उठतीं अनिल के निश्वास छू,

तारिकायें चकित सी अनजान सी;

तब बुला जाता मुझे उस पार जो,

दूर के संगीत सा वह कौन है?

 

शून्य नभ पर उमड़ जब दुख भार सी,

नैश तम में, सघन छा जाती घटा;

बिखर जाती जुगनुओं की पांति भी,

जब सुनहले आँसुवों के हार सी;

तब चमक जो लोचनों को मूंदता,

तड़ित की मुस्कान में वह कौन है?

 

अवनि-अम्बर की रुपहली सीप में,

तरल मोती सा जलधि जब काँपता;

तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से,

ज्योत्सना के रजत पारावार में

सुरभि वन जो थपकियां देता मुझे,

नींद के उच्छवास सा, वह कौन है?

 

जब कपोलगुलाब पर शिशु प्रात के

सूखते नक्षत्र जल के बिन्दु से;

रश्मियों की कनक धारा में नहा,

मुकुल हँसते मोतियों का अर्घ्य दे;

स्वप्न शाला में यवनिका डाल जो

तब दृगों को खोलता वह कौन है?

जीवन - mahadevi verma

तुहिन के पुलिनों पर छबिमान,

किसी मधुदिन की लहर समान;

स्वप्न की प्रतिमा पर अनजान,

वेदना का ज्यों छाया-दान;

 

विश्व में यह भोला जीवन

स्वप्न जागृति का मूक मिलन,

बांध अंचल में विस्मृतिधन,

कर रहा किसका अन्वेषण?

 

धूलि के कण में नभ सी चाह,

बिन्दु में दुख का जलधि अथाह,

एक स्पन्दन में स्वप्न अपार,

एक पल असफलता का भार;

 

सांस में अनुतापों का दाह,

कल्पना का अविराम प्रवाह;

यही तो है इसके लघु प्राण,

शाप वरदानों के सन्धान!

 

भरे उर में छबि का मधुमास,

दृगों में अश्रु अधर में हास,

ले रहा किसका पावसप्यार,

विपुल लघु प्राणों में अवतार?

 

नील नभ का असीम विस्तार,

अनल के धूमिल कण दो चार,

सलिल से निर्भर वीचि-विलास

मन्द मलयानिल से उच्छ्वास,

 

धरा से ले परमाणु उधार,

किया किसने मानव साकार?

दृगों में सोते हैं अज्ञात

निदाघों के दिन पावस-रात;

 

सुधा का मधु हाला का राग,

व्यथा के घन अतृप्ति की आग।

छिपे मानस में पवि नवनीत,

निमिष की गति निर्झर के गीत,

 

अश्रु की उर्म्मि हास का वात,

कुहू का तम माधव का प्रात।

हो गये क्या उर में वपुमान,

क्षुद्रता रज की नभ का मान,

 

स्वर्ग की छबि रौरव की छाँह,

शीत हिम की बाड़व का दाह?

और—यह विस्मय का संसार,

अखिल वैभव का राजकुमार,

 

धूलि में क्यों खिलकर नादान,

उसी में होता अन्तर्धान?

काल के प्याले में अभिनव,

ढाल जीवन का मधु आसव,

 

नाश के हिम अधरों से, मौन,

लगा देता है आकर कौन?

बिखर कर कन कन के लघुप्राण,

गुनगुनाते रहते यह तान,

 

“अमरता है जीवन का ह्रास,

मृत्यु जीवन का परम विकास”।

दूर है अपना लक्ष्य महान,

एक जीवन पग एक समान;

 

अलक्षित परिवर्तन की डोर,

खींचती हमें इष्ट की ओर।

छिपा कर उर में निकट प्रभात,

गहनतम होती पिछली रात;

 

सघन वारिद अम्बर से छूट,

सफल होते जल-कण में फूट।

स्निग्ध अपना जीवन कर क्षार,

दीप करता आलोक-प्रसार;

 

गला कर मृतपिण्डों में प्राण,

बीज करता असंख्य निर्माण।

सृष्टि का है यह अमिट विधान,

एक मिटने में सौ वरदान,

नष्ट कब अणु का हुआ प्रयास,

विफलता में है पूर्ति-विकास।

आह्वान - mahadevi verma

फूलों का गीला सौरभ पी

बेसुध सा हो मन्द समीर,

भेद रहे हों नैश तिमिर को

मेघों के बूँदों के तीर।

 

नीलम-मन्दिर की हीरक—

प्रतिमा सी हो चपला निस्पन्द,

सजल इन्दुमणि से जुगनू

बरसाते हों छबि का मकरन्द।

 

बुदबुद को लड़ियों में गूंथा

फैला श्यामल केश-कलाप,

सेतु बांधती हो सरिता सुन—

सुन चकवी का मूक विलाप।

 

तब रहस्यमय चितवन से-

छू चौंका देना मेरे प्राण,

ज्यों असीम सागर करता है

भूले नाविक का आह्वान।

वे दिन - mahadevi verma

नव मेघों को रोता था

जब चातक का बालक मन,

इन आँखों में करुणा के

घिर घिर आते थे सावन!

 

किरणों को देख चुराते

चित्रित पंखों की माया,

पलकें आकुल होती थीं

तितली पर करने छाया!

 

जब अपनी निश्वासों से

तारे पिघलातीं रातें,

गिन गिन धरता था यह मन

उनके आँसू की पाँतें।

 

जो नव लज्जा जाती भर

नभ में कलियों में लाली,

वह मृदु पुलकों से मेरी

छलकाती जीवन-प्याली।

 

घिर कर अविरल मेघों से

जब नभमण्डल झुक जाता,

अज्ञात वेदनाओं से

मेरा मानस भर आता।

 

गर्जन के द्रुत तालों पर

चपला का बेसुध नर्तन;

मेरे मनबालशिखी में

संगीत मधुर जाता बन।

 

किस भांति कहूँ कैसे थे

वे जग से परिचय के दिन!

मिश्री सा घुल जाता था

मन छूते ही आँसू-कन।

 

अपनेपन की छाया तब

देखी न मुकुरमानस ने;

उसमें प्रतिबिम्बित सबके

सुख दुख लगते थे अपने।

 

तब सीमाहीनों से था

मेरी लघुता का परिचय;

होता रहता था प्रतिपल

स्मित का आँसू का विनिमय।

 

परिवर्तन पथ में दोनों

शिशु से करते थे क्रीड़ा;

मन मांग रहा था विस्मय

जग मांग रहा था पीड़ा!

 

यह दोनों दो ओरें थीं

संसृति की चित्रपटी की;

उस बिन मेरा दुख सूना

मुझ बिन वह सुषमा फीकी।

 

किसने अनजाने आकर

वह लिया चुरा भोलापन?

उस विस्मृति के सपने से

चौंकाया छूकर जीवन।

 

जाती नवजीवन बरसा

जो करुणघटा कण कण में,

निस्पन्द पड़ी सोती वह

अब मन के लघु बन्धन में!

 

स्मित बनकर नाच रहा है

अपना लघु सुख अधरों पर;

अभिनय करता पलकों में

अपना दुख आँसू बनकर।

 

अपनी लघु निश्वासों में

अपनी साधों की कम्पन;

अपने सीमित मानस में

अपने सपनों का स्पन्दन!

 

मेरा अपार वैभव ही

मुझसे है आज अपरिचित;

हो गया उदधि जीवन का

सिकता-कण में निर्वासित।

 

स्मित ले प्रभात आता नित

दीपक दे सन्ध्या जाती;

दिन ढलता सोना बरसा

निशि मोती दे मुस्काती।

 

अस्फुट मर्मर में, अपनी

गति की कलकल उलझाकर,

मेरे अनन्तपथ में नित-

संगीत बिछाते निर्झर।

 

यह साँसें गिनते गिनते

नभ की पलकें झप जातीं;

मेरे विरक्तिअंचल में

सौरभ समीर भर जातीं।

 

मुख जोह रहे हैं मेरा

पथ में कब से चिर सहचर!

मन रोया ही करता क्यों

अपने एकाकीपन पर?

 

अपनी कण कण में बिखरीं

निधियाँ न कभी पहिचानीं;

मेरा लघु अपनापन है

लघुता की अकथ कहानी।

 

मैं दिन को ढूँढ रही हूँ

जुगनू की उजियाली में;

मन मांग रहा है मेरा

सिकता हीरक प्याली में!

आशा - mahadevi verma

वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

धुँधली रेखायें खोईं,

चमक उठेंगे इन्द्रधनुष से

मेरे विस्मृति के घन में।

 

झंझा की पहली नीरवता—

सी नीरव मेरी साधें,

भर देंगी उन्माद प्रलय का

मानस की लघु कम्पन में।

 

सोते जो असंख्य बुदबुद से

बेसुध सुख मेरे सुकुमार,

फूट पड़ेंगे दुखसागर की

सिहरी धीमी स्पन्दन में।

 

मूक हुआ जो शिशिर-निशा में

मेरे जीवन का संगीत,

मधु-प्रभात में भर देगा वह

अन्तहीन लय कण कण में।

मेरा पता - mahadevi verma

स्मित तुम्हारी से छलक यह ज्योत्स्ना अम्लान,

जान कब पाई हुआ उसका कहां निर्माण!

 

अचल पलकों में जड़ी सी तारकायें दीन,

ढूँढती अपना पता विस्मित निमेषविहीन।

 

गगन जो तेरे विशद अवसाद का आभास,

पूछ्ता ’किसने दिया यह नीलिमा का न्यास’।

 

निठुर क्यों फैला दिया यह उलझनों का जाल,

आप अपने को जहां सब ढूँढते बेहाल।

 

काल-सीमा-हीन सूने में रहस्यनिधान!

मूर्तिमत कर वेदना तुमने गढ़े जो प्राण;

 

धूलि के कण में उन्हें बन्दी बना अभिराम,

पूछते हो अब अपरिचित से उन्हीं का नाम!

 

पूछ्ता क्या दीप है आलोक का आवास?

सिन्धु को कब खोजने लहरें उड़ी आकाश!

 

धड़कनों से पूछ्ता है क्या हृदय पहिचान?

क्या कभी कलिका रही मकरन्द से अनजान?

 

क्या पता देते घनों को वारि-बिन्दु असार?

क्या नहीं दृग जानते निज आँसुवों का भार?

 

चाह की मृदु उंगलियों ने छू हृदय के तार,

जो तुम्हीं में छेड़ दी मैं हूँ वही झंकार?

 

नींद के नभ में तुम्हारे स्वप्नपावस-काल,

आँकता जिसको वही मैं इन्द्रधनु हूँ बाल।

 

तृप्तिप्याले में तुम्हीं ने साध का मधु घोल,

है जिसे छलका दिया मैं वही बिन्दु अमोल।

 

तोड़ कर वह मुकुर जिसमें रूप करता लास,

पूछ्ता आधार क्या प्रतिबिम्ब का आवास?

 

उर्म्मियों में झूलता राकेश का अभास,

दूर होकर क्या नहीं है इन्दु के ही पास?

 

इन हमारे आँसुवों में बरसते सविलास--

जानते हो क्या नहीं किसके तरल उच्छवास?

 

इस हमारी खोज में इस वेदना में मौन,

जानते हो खोजता है पूर्ति अपनी कौन?

 

यह हमारे अन्त उपक्रम यह पराजय जीत,

क्या नहीं रचता तुम्हारी सांस का संगीत?

 

पूछ्ते फिर किसलिए मेरा पता बेपीर!

हृदय की धड़कन मिली है क्या हृदय को चीर?

गीत (2) - mahadevi verma

अलि अब सपने की बात,

हो गया है वह मधु का प्रात:!

 

जब मुरली का मृदु पंचम स्वर,

कर जाता मन पुलकित अस्थिर,

कम्पित हो उठता सुख से भर,

नव लतिका सा गात!

 

जब उनकी चितवन का निर्झर,

भर देता मधु से मानस-सर,

स्मित से झरतीं किरणें झर झर,

पीते दृग - जलजात!

 

मिलन-इन्दु बुनता जीवन पर,

विस्मृति के तारों से चादर,

विपुल कल्पनाओं का मंथर,

बहता सुरभित वात।

 

अब नीरव मानस-अलि गुंजन,

कुसुमित मृदु भावों का स्पंदन,

विरह-वेदना आई है बन,

तम तुषार की रात!

पहिचान - mahadevi verma

किसी नक्षत्रलोक से टूट

विश्व के शतदल पर अज्ञात,

ढुलक जो पड़ी ओस की बूँद

तरल मोती सा ले मृदु गात;

 

नाम से जीवन से अनजान,

कहो क्या परिचय दे नादान।

 

किसी निर्मम कर का अघात

छेड़ता जब वीणा के तार,

अनिल के चल पंखों के साथ

दूर जो उड़ जाती झंकार;

 

जन्म ही उसे विरह की रात,

सुनावे क्या वह मिलनप्रभात।

 

चाह शैशव सा परिचयहीन

पलकदोलों में पलभर झूल,

कपोलों पर जो ढुल चुपचाप

गया कुम्हला आँखों का फूल;

 

एक ही आदि अन्त की साँस--

कहे वह क्या पिछला इतिहास!

 

मूक हो जाता वारिद घोष

जगा कर जब सारा संसार,

गूँजती टकराती असहाय

धरा से जो प्रतिध्वनि सुकुमार;

 

देश का जिसे न निज का भान,

बतावे क्या अपनी पहिचान!

 

सिन्धु को क्या परिचय दे देव!

बिगड़ते बनते वीचि-विलास;

क्षुद्र हैं मेरे बुदबुद प्राण

तुम्हीं में सृष्टि तुम्हीं में नाश!

 

मुझे क्यों देते हो अभिराम!

थाह पाने का दुस्कर काम?

 

जन्म ही जिसको हुआ वियोग

तुम्हारा ही तो हूँ उच्छवास;

चुरा लाया जो विश्व-समीर

वही पीड़ा की पहली सांस!

 

छोड़ क्यों देते बारम्बार,

मुझे तम से करने अभिसार?

 

छिपा है जननी का अस्तित्व

रुदन में शिशु के अर्थविहीन;

मिलेगा चित्रकार का ज्ञान

चित्र की ही जड़ता में लीन;

 

दृगों में छिपा अश्रु का हार,

सुभग है तेरा ही उपहार!

अलि से - mahadevi verma

इन आँखों ने देखी न राह कहीं,

इन्हें धोगया नेह का नीर नहीं;

करती मिट जाने की साध कभी,

इन प्राणों को मूक अधीर नहीं;

अलि छोड़ी न जीवन की तरिणी,

उस सागर में जहां तीर नहीं!

कभी देखा नहीं वह देश जहां,

प्रिय से कम मादक पीर नहीं!

 

जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ,

उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं;

जो हुआ जल दीपकमय उससे,

कभी पूछी निबाह की रीति नहीं;

मतवाले चकोर से सीखी कभी,

उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं;

तू अकिंचन भिक्षुक है मधु का,

अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं!

 

पथ में नित स्वर्ण-पराग बिछा,

तुझे देख जो फूली समाती नहीं;

पलकों से दलों में घुला मकरन्द,

पिलाती कभी अनखाती नहीं

किरणों में गुँथीं मुक्तावलियाँ,

पहनाती रही सकुचाती नहीं;

अब भूल गुलाब में पंकज की,

अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं!

 

करते करुणा-घन छांह वहां,

झुलसाया निदाघ सा दाह नहीं;

मिलती शुचि आँसुओं की सरिता,

मृगवारि का सिन्धु अथाह नहीं;

हँसता अनुराग का इन्दु सदा,

छलना की कुहू का निबाह नहीं;

फिरता अलि भूल कहाँ भटका,

यह प्रेम के देश कि राह नहीं!

उपालम्भ - mahadevi verma

दिया क्यों जीवन का वरदान?

इसमें है स्मृतियों की कम्पन;

सुप्त व्यथाओं का उन्मीलन;

स्वप्नलोक की परियां इसमें

भूल गईं मुस्कान!

 

इसमें है झंझा का शैशव;

अनुरंजित कलियों का वैभव;

मलयपवन इसमें भर जाता

मृदु लहरों के गान!

 

इन्द्रधनुष सा घन-अंचल में;

तुहिनबिन्दु सा किसलय दल में;

करता है पल पल में देखो

मिटने का अभिमान!

 

सिकता में अंकित रेखा सा;

वात-विकम्पित दीपशिखा था,

काल-कपोलों पर आँसू सा

ढुल जाता हो म्लान!

निभृत मिलन - mahadevi verma

सजनि कौन तम में परिचित सा, सुधि सा, छाया सा, आता?

सूने में सस्मित चितवन से जीवन-दीप जला जाता!

 

छू स्मृतियों के बाल जगाता,

मूक वेदनायें दुलराता,

हृतंत्री में स्वर भर जाता,

बन्द दृगों में, चूम सजल सपनों के चित्र बना जाता।

 

पलकों में भर नवल नेह-कन,

प्राणों में पीड़ा की कसकन,

स्वासों में की कम्पन,

सजनि! मूक बालक मन को फिर आकुल क्रन्दन सिखलाता।

 

घन तम में सपने सा आकर,

अलि कुछ करुण स्वरों में गाकर,

किसी अपरिचित देश बुलाकर,

पथ-व्यय के हित अंचल में कुछ बांध अश्रु के कन जाता!

सजनि कौन तम में परिचित सा सुधि सा छाया सा आता?

दुविधा - mahadevi verma

कह दे माँ क्या अब देखूँ !

 

देखूँ खिलती कलियाँ या

प्यासे सूखे अधरों को,

तेरी चिर यौवन-सुषमा

या जर्जर जीवन देखूँ !

 

देखूँ हिम-हीरक हँसते

हिलते नीले कमलों पर,

या मुरझायी पलकों से

झरते आँसू-कण देखूँ!

 

सौरभ पी पी कर बहता

देखूं यह मन्द समीरण,

दुख की घूँटें पीती या

ठंडी साँसों को देखूँ !

 

खेलूं परागमय मधुमय

तेरी वसंत छाया में,

या झुलसे संतापों से

प्राणों का पतझर देखूँ !

 

मकरन्द-पगी केसर पर

जीती मधुपरियाँ ढूँढूं,

या उरपंजर में कण को

तरसे जीवनशुक देखूँ!

 

कलियों की घन-जाली में

छिपती देखूँ लतिकाएँ

या दुर्दिन के हाथों में

लज्जा की करूणा देखूँ !

 

बहलाऊँ नव किसलय के-

झूले में अलिशिशु तेरे,

पाषाणों में मसले या

फूलों से शैशव देखूँ!

 

तेरे असीम आंगन की

देखूँ जगमग दीवाली,

या इस निर्जन कोने के

बुझते दीपक को देखूँ !

 

देखूँ विहगों का कलरव

घुलता जल की कलकल में,

निस्पन्द पड़ी वीणा से

या बिखरे मानस देखूँ!

 

मृदु रजतरश्मियां देखूँ

उलझी निद्रा-पंखों में,

या निर्निमेष पलकों में

चिन्ता का अभिनय देखूँ!

 

तुझ में अम्लान हँसी है

इसमें अजस्र आंसू-जल,

तेरा वैभव देखूँ या

जीवन का क्रन्दन देखूँ !

मैं और तू - mahadevi verma

तुम हो विधु के बिम्ब और मैं

मुग्धा रश्मि अजान,

जिसे खींच लाते अस्थिर कर

कौतूहल के बाण !

 

कलियों के मधुप्यालों से जो

करती मदिरा पान,

झाँक, जला देती नीड़ों में

दीपक सी मुस्कान।

 

लोल तरंगों के तालों पर

करती बेसुध लास,

फैलातीं तम के रहस्य पर

आलिंगन का पाश।

 

ओस धुले पथ में छिप तेरा

जब आता आह्वान,

भूल अधूरा खेल तुम्हीं में

होता अन्तर्धान !

 

तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं

चंचल सी अवदात,

अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो

कूलों पर अज्ञात;

 

हिम-शीतल अधरों से छूकर

तप्त कणों की प्यास,

बिखराती मंजुल मोती से

बुद्बुद में उल्लास,

 

देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में

करते अनुसन्धान,

श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा

जिसके बालक प्राण !

 

तम परिचित ऋतुराज मूक मैं

मधु-श्री कोमलगात,

अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती

आ तुषार की रात;

 

पीत पल्लवों में सुन तेरी

पद्ध्वनि उठती जाग,

फूट फूट पड़ता किसलय मिस

चिरसंचित अनुराग;

 

मुखरित कर देता मानस-पिक

तेरा चितवन-प्रात;

छू मादक निःश्वास पुलक—

उठते रोओं से पात !

 

फूलों में मधु से लिखती जो

मधुघड़ियों के नाम,

भर देती प्रभात का अंचल

सौरभ से बिन दाम;

 

‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती

आ संतप्त बयार,

मिल तुझमें उड़ जाता जिसका

जागृति का संसार !

 

स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की

तुम निद्रा के तार,

जिसमें होता इस जीवन का

उपक्रम उपसंहार;

 

पलकों से पलकों पर उड़कर

तितली सी अम्लान,

निद्रित जग पर बुन देती जो

लय का एक वितान;

 

मानस-दोलों में सोती शिशु

इच्छाएँ अनजान,

उन्हें उड़ा देती नभ में दे

द्रुत पंखों का दान !

 

सुखदुख की मरकत-प्याली से

मधु-अतीत कर पान,

मादकता की आभा से छा

लेती तम के प्राण;

 

जिसकी साँसे छू हो जाता

छाया जग वपुमान,

शून्य निशा में भटके फिरते

सुधि के मधुर विहान;

 

इन्द्रधनुष के रंगो से भर

धुँधले चित्र अपार,

देती रहती चिर रहस्यमय

भावों को आकार !

 

जब अपना संगीत सुलाते

थक वीणा के तार,

धुल जाता उसका प्रभात के

कुहरे सा संसार !

 

फूलों पर नीरव रजनी के

शून्य पलों के भार,

पानी करते रहते जिसके

मोती के उपहार;

 

जब समीर-यानों पर उड़ते

मेघों के लघु बाल,

उनके पथ पर जो बुन देता

मृदु आभा के जाल;

 

जो रहता तम के मानस से

ज्यों पीड़ा का दाग,

आलोकित करता दीपक सा़

अन्तर्हित अनुराग।

 

जब प्रभात में मिट जाता

छाया का कारागार,

मिल दिन में असीम हो जाता

जिसका लघु आकार;

 

मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं

जैसे रश्मि प्रकाश;

मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों

घन से तड़ित्-विलास;

 

मुझे बाँधने आते हो लघु

सीमा में चुपचाप,

कर पाओगे भिन्न कभी क्या

ज्वाला से उत्ताप ?

उनसे - mahadevi verma

विहग-शावक से जिस दिन मूक,

पड़े थे स्वप्ननीड़ में प्राण;

अपरिचित थी विस्मृति की रात,

नहीं देखा था स्वर्णविहान।

 

रश्मि बन तुम आए चुपचाप,

सिखाने अपने मधुमय गान;

अचानक दीं वे पलकें खोल,

हृदय में बेध व्यथा का बान--

हुए फिर पल में अन्तर्धान!

 

रंग रही थी सपनों के चित्र,

हृदयकलिका मधु से सुकुमार;

अनिल बन सौ सौ बार दुलार,

तुम्हीं ने खुलवाये उर-द्वार।

 

--और फिर रहे न एक निमेष,

लुटा चुपके से सौरभ-भार;

रह गई पथ में बिछ कर दीन,

दृगों की अश्रुभरी मनुहार--

मूक प्राणों की विफल पुकार!

 

विश्ववीणा में कब से मूक,

पड़ा था मेरा जीवनतार;

न मुखरित कर पाईं झकझोर--

थक गईं सौ सौ मलयबयार।

 

तुम्हीं रचते अभिनव संगीत,

कभी मेरे गायक इस पार;

तुम्हीं ने कर निर्मम आघात

छेड़ दी यह बेसुध झंकार--

और उलझा डाले सब तार!

रहस्य - mahadevi verma

न थे जब परिवर्तन दिनरात,

नहीं आलोक तिमिर थे ज्ञात;

व्याप्त क्या सूने में सब ओर,

एक कम्पन थी एक हिलोर?

 

न जिसमें स्पन्दन था न विकार,

न जिसका आदि न उपसंहार!

सृष्टि के आदि में मौन,

अकेला सोता था वह कौन?

 

स्वर्णलूता सी कब सुकुमार,

हुई उसमें इच्छा साकार?

उगल जिसने तिनरंगे तार,

बुन लिया अपना ही संसार!

 

बदलता इन्द्रधनुष सा रंग,

सदा वह रहा नियति के संग;

नहीं उसको विराम विश्राम,

एक बनने मिटने का काम!

 

सिन्धु की जैसे तप्त उसांस,

दिखा नभ में लहरों का लास,

घात प्रतिघातों की खा चोट,

अश्रु बन फिर आ जाती लौट।

 

बुलबुले मृदु उर के से भाव,

रश्मियों से कर कर अपनाव,

यथा हो जाते जलमयप्राण--

उसी में आदि वही अवसान!

 

धरा की जड़ता ऊर्वर बन,

प्रकट करती अपार जीवन;

उसी में मिलते वे द्रुततर,

सीचने क्या नवीन अंकुर?

 

मृत्यु का प्रस्तर सा उर चीर,

प्रवाहित होता जीवननीर;

चेतना से जड़ का बन्धन,

यही संसृति की हृत्कम्पन!

 

विविध रंगों के मुकुर सँवार,

जड़ा जिसने यह कारागार;

बना क्या बन्दी वही अपार,

अखिल प्रतिबिम्बों का अधार?

 

वक्ष पर जिसके जल उडुगण,

बुझा देते असंख्य जीवन;

कनक औ’ नीलम-यानों पर,

दौड़ते जिस पर निशि-वासर,

 

पिघल गिरि से विशाल बादल,

न कर सकते जिसको चंचल;

तड़ित की ज्वाला घन-गर्जन,

जगा पाते न एक कम्पन;

 

उसी नभ सा क्या वह अविकार--

और परिवर्तन का आधार?

पुलक से उठ जिसमें सुकुमार,

लीन होते असंख्य संसार!

स्मृति - mahadevi verma

कहीं से, आई हूँ कुछ भूल!

कसक कसक उठती सुधि किसकी?

रुकती सी गति क्यों जीवन की?

क्यों अभाव छाये लेता

विस्मृतिसरिता के कूल?

 

किसी अश्रुमय घन का हूँ कन,

टूटी स्वरलहरी की कम्पन,

या ठुकराया गिरा धूलि में

हूँ मैं नभ का फूल।

 

दुःख का युग हूँ या सुख का पल,

करुणा का घन या मरु निर्जल,

जीवन क्या है मिला कहां

सुधि भूली आज समूल।

 

प्याले में मधु है या आसव,

बेहोशी है या जागृति नव,

बिन जाने पीना पड़ता है

ऐसा विधि प्रतिकूल!

उलझन - mahadevi verma

अलि कैसे उनको पाऊँ?

वे आँसू बनकर मेरे,

इस कारण ढुल ढुल जाते,

इन पलकों के बन्धन में,

मैं बांध बांध पछताऊँ।

 

मेघों में विद्युत सी छवि,

उनकी बनकर मिट जाती,

आँखों की चित्रपटी में,

जिसमें मैं आंक न पाऊँ।

 

वे आभा बन खो जाते,

शशि किरणों की उलझन में;

जिसमें उनको कण कण में

ढूँढूँ पहिचान न पाऊँ।

 

सोते सागर की धड़कन--

बन, लहरों की थपकी से;

अपनी यह करुण कहानी,

जिसमें उनको न सुनाऊँ।

 

वे तारक बालाओं की,

अपलक चितवन बन आते;

जिसमें उनकी छाया भी,

मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ।

 

वे चुपके से मानस में,

आ छिपते उच्छवासें बन;

जिसमें उनको सांसो में,

देखूँ पर रोक न पाऊँ।

 

वे स्मृति बनकर मानस में,

खटका करते हैं निशिदिन;

उनकी इस निष्ठुरता को,

जिसमें मैं भूल न जाऊँ।

प्रश्न - mahadevi verma

अश्रु ने सीमित कणों में बांध ली,

क्या नहीं घन सी तिमिर सी वेदना?

क्षुद्र तारों से पृथक संसार में,

क्या कहीं अस्तित्व है झंकार का?

 

यह क्षितिज को चूमनेवाला जलधि,

क्या नहीं नादान लहरों से बना?

क्या नहीं लघु वारि-बूँदों में छिपी,

वारिदों की गहनता गम्भीरता?

 

विश्व में वह कौन सीमाहीन है?

हो न जिसका खोज सीमा से मिला!

क्यों रहोगे क्षुद्र प्राणों में नहीं,

क्या तुम्हीं सर्वेश एक महान हो?

विनिमय - mahadevi verma

छिपाये थी कुहरे सी नींद,

काल का सीमा का विस्तार;

एकता में अपनी अनजान,

समाया था सारा संसार।

 

मुझे उसकी है धुँधली याद,

बैठ जिस सूनेपन के कूल,

मुझे तुमने दी जीवनबीन,

प्रेमशतदल का मैंने फूल।

 

उसी का मधु से सिक्त पराग,

और पहला वह सौरभ-भार;

तुम्हारे छूते ही चुपचाप,

हो गया था जग में साकार।

 

और तारों पर उंगली फेर,

छेड़ दी जो मैंने झंकार,

विश्व-प्रतिमा में उसने देव!

कर दिया जीवन का संचार।

 

हो गया मधु से सिन्धु अगाध,

रेणु से वसुधा का अवतार;

हुआ सौरभ से नभ वपुमान,

और कम्पन से बही बयार।

 

उसी में घड़ियां पल अविराम,

पुलक से पाने लगे विकास;

दिवस रजनी तम और प्रकाश,

बन गए उसके श्वासोच्छवास।

 

उसे तुमने सिखलाया हास,

पिन्हाये मैंने आँसू-हार;

दिया तुमने सुख का साम्राज्य,

वेदना का मैंने अधिकार!

 

वही कौतुक—रहस्य का खेल,

बन गया है असीम अज्ञात;

हो गई उसकी स्पन्दन एक,

मुझे अब चकवीं की चिर रात!

 

तुम्हारी चिरपरिचित मुस्कान,

भ्रान्त से कर जाती लघु प्राण;

तुम्हें प्रतिपल कण कण में देख,

नहीं अब पाते हैं पहिचान!

 

कर रहा है जीवन सुकुमार,

उलझनों का निष्फल व्यापार;

पहेली की करते हैं सृष्टि,

आज प्रतिपल सांसों के तार।

 

विरह का तम हो गया अपार

मुझे अब वह आदान प्रदान;

बन गया है देखो अभिशाप,

जिसे तुम कहते थे वरदान!

देखो ! - mahadevi verma

तेरी आभा का कण नभ को,

देता अगिणत दीपक दान;

दिन को कनक राशि पहनाता,

विधु को चाँदी-सा परिधान;

 

करुणा का लघु बिन्दु युगों से,

भरता छलकाता नव घन;

समा न पाता जग के छोटे,

प्याले में उसका जीवन।

 

तेरी महमा की छाया-छवि,

छू होता वागीश अपार;

नील गगन पा लेता घन-सा,

तम-सा अन्तहीन विस्तार।

 

सुषमा का कण एक खिलाता,

राशि-राशि फूलों के वन;

शत शत झंझावात प्रलय-

बनता पल में भू-संचालन!

 

सच है कण का पार न पाया,

बन बिगड़े असंख्य संसार;

पर न समझना देव हमारी-

लघुता है जीवन की हार !

 

लघु प्राणों के कोने में

खोयी असीम पीड़ा देखो;

आयो हे निस्सीम ! आज

इस रजकण की महिमा देखो !

पपीहे के प्रति - mahadevi verma

जिसको अनुराग सा दान दिया,

उससे कण मांग लजाता नहीं;

अपनापन भूल समाधि लगा,

यह पी का विहाग भुलाता नहीं;

नभ देख पयोधर श्याम घिरा,

मिट क्यों उसमें मिल जाता नहीं?

वह कौन सा पी है पपीहा तेरा,

जिसे बांध हृदय में बसाता नहीं!

 

उसको अपना करुणा से भरा,

उर सागर क्यों दिखलाता नहीं?

संयोग वियोग की घाटियों में

नव नेह में बांध झुलाता नहीं;

संताप के संचित आँसुवों से,

नहलाके उसे तु धुलाता नहीं;

अपने तमश्यामल पाहुन को,

पुतली की निशा में सुलाता नहीं!

 

कभी देख पतंग को जो दुख से

निज, दीपशिखा को रुलाता नहीं;

मिल ले उस मीन से जो जल की,

निठुराई विलाप में गाता नहीं;

कुछ सीख चकोर से जो चुगता

अंगार, किसी को सुनाता नहीं;

अब सीख ले मौन का मन्त्र नया,

यह पी पी घनों को सुहाता नहीं।

अन्त - mahadevi verma

विश्व-जीवन के उपसंहार!

तू जीवन में छिपा, वेणु में ज्यों ज्वाला का वास,

तुझ में मिल जाना ही है जीवन का चरम विकास,

पतझड़ बन जग में कर जाता

नव वसंत संचार!

 

मधु में भीने फूल प्राण में भर मदिरा सी चाह,

देख रहे अविराम तुम्हारे हिमअधरों की राह,

मुरझाने को मिस देते तुम

नव शैशव उपहार!

 

कलियों में सुरभित कर अपने मृदु आँसू अवदात,

तेरे मिलन-पंथ में गिन गिन पग रखती है रात,

नवछबि पाने हो जाती मिट

तुझ में एकाकार!

 

क्षीण शिखा से तम में लिख बीती घड़ियों के नाम,

तेरे पथ में स्वर्णरेणु फैलाता दीप ललाम,

उज्ज्वलतम होता तुझसे ले

मिटने का अधिकार।

 

घुलनेवाले मेघ अमर जिनकी कण कण में प्यास,

जो स्मृति में है अमिट वही मिटनेवाला मधुमास—

तुझ बिन हो जाता जीवन का

सारा काव्य असार!

 

इस अनन्त पथ में संसृति की सांसें करतीं लास,

जाती हैं असीम होने मिट कर असीम के पास,

कौन हमें पहुँचाता तुझ बिन

अन्तहीन के पार?

 

चिर यौवन पा सुषमा होती प्रतिमा सी अम्लान,

चाह चाह थक थक कर हो जाते प्रस्तर से प्राण,

सपना होता विश्व हासमय

आँसूमय सुकुमार!

मृत्यु से - mahadevi verma

प्राणों के अन्तिम पाहुन!

चांदनी-धुला, अंजन सा, विद्युतमुस्कान बिछाता,

सुरभित समीर पंखों से उड़ जो नभ में घिर आता,

वह वारिद तुम आना बन!

 

ज्यों श्रान्त पथिक पर रजनी छाया सी आ मुस्काती,

भारी पलकों में धीरे निद्रा का मधु ढुलकाती,

त्यों करना बेसुध जीवन!

 

अज्ञातलोक से छिप छिप ज्यों उतर रश्मियां आती,

मधु पीकर प्यास बुझाने फूलों के उर खुलवातीं,

छिप आना तुम छायातन!

 

कितनी करुणाओं का मधु कितनी सुषमा की लाली,

पुतली में छान धरी है मैने जीवन की प्याली,

पी कर लेना शीतल मन!

 

हिम से जड़ नीला अपना निस्पन्द हृदय ले आना,

मेरा जीवनदीपक धर उसको सस्पन्द बनाना,

हिम होने देना यह मन!

 

कितने युग बीत गए इन निधियों का करते संचय,

तुम थोड़े से आँसू दे इन सबको कर लेना क्रय,

अब हो व्यापार-विसर्जन!

 

है अन्तहीन लय यह जग पल पल है मधुमय कम्पन,

तुम इसकी स्वरलहरी में धोना अपने श्रम के कण,

मधु से भरना सूनापन!

 

पाहुन से आते जाते कितने सुख के दुख के दल,

वे जीवन के क्षण क्षण में भरते असीम कोलाहल,

तुम बन आना नीरव क्षण!

 

तेरी छाया में दिव को हँसता है गर्वीला जग,

तू एक अतिथि जिसका पथ है देख रहे अगणित दृग,

सांसों में घड़ियाँ गिन गिन।

जब - mahadevi verma

नींद में सपना बन अज्ञात!

गुदगुदा जाते हो जब प्राण,

ज्ञात होता हँसने का मर्म

तभी तो पाती हूँ यह जान,

 

प्रथम छूकर किरणों की छांह

मुस्करातीं कलियाँ क्यों प्रात;

समीरण का छूकर चल छोर

लोटते क्यों हँस हँस कर पात!

 

प्रथम जब भर आतीं चुपचाप

मोतियों से आँखें नादान,

आँकती तब आँसू का मोल

तभी तो आ जाता यह ध्यान;

 

घुमड़ घिर क्यों रोते नवमेघ

रात बरसा जाती क्यों ओस,

पिघल क्यों हिम का उर अवदात

भरा करता सरिता के कोष।

 

मधुर अपना स्पन्दन का राग

मुझे प्रिय जब पड़ता पहिचान!

ढूँढती तब जग में संगीत

प्रथम होता उर में यह भान;

 

वीचियों पर गा करुण विहाग

सुनाता किसको पारावार;

पथिक सा भटका फिरता वात

लिए क्यों स्वरलहरी का भार!

 

हृदय में खिल कलिका सी चाह

दृगों को जब देती मधुदान,

छलक उठता पुलकों से गात

जान पाता तब मन अनजान;

 

गगन में हँसता देख मयंक

उमड़ती क्यों जलराशि अपार

पिघल चलते विधुमणि के प्राण

रश्मियाँ छूते ही सुकुमार।

 

देख वारिद की धूमिल छांह

शिखीशावक क्यों होता भ्रान्त;

शलभकुल निज ज्वाला से खेल

नहीं फिर भी क्यों होता श्रान्त!

क्रय - mahadevi verma

चुका पायेगा कैसे बोल!

मेरा निर्धन सा जीवन तेरे वैभव का मोल।

 

अंचल से मधुभर जो लातीं

मुस्कानों में अश्रु बसातीं

बिन समझे जग पर लुट जातीं

उन कलियों को कैसे ले यह फीकी स्मित बेमोल!

 

लक्ष्यहीन सा जीवन पाते,

घुल औरों की प्यास बुझाते,

अणुमय हो जगमय हो जाते,

जो वारिद उनमें मत मेरा लघु आँसू-कन घोल!

 

भिक्षुक बन सौरभ ले आता,

कोने कोने में पहुँचाता,

सूने में संगीत बहाता,

जो समीर उससे मत मेरी निष्फल सांसें तोल!

 

जो अलसाया विश्व सुलाते,

बुन मोती का जाल उढाते,

थकते पर पलकें न लगाते,

क्यों मेरा पहरा देते वे तारक आँखें खोल?

 

पाषाणों की शय्या पाता,

उन पर गीले गान बिछाता,

नित गाता, गाता ही जाता,

जो निर्झर उसको देगा क्या मेरा जीवन लोल?

समाधि से - mahadevi verma

बीते वसन्त की चिर समाधि!

जगशतदल से नव खेल, खेल

कुछ कह रहस्य की करुण बात,

उड़ गई अश्रु सा तुझे डाल

किसके जीवन से मिलन रात?

 

रहता जिसका अम्लान रंग-

तू मोती है या अश्रु हार?

 

किस हृदयकुंज में मन्द मन्द

तू बहती थी बन नेह-धार?

कर गई शीत की निठुर रात

छू कब तेरा जीवन तुषार?

 

पाती न जगा क्यों मधु-बतास

हे हिम के चिर निस्पन्द भार?

 

जिस अमर काल का पथ अनन्त

धोते रहते आँसू नवीन,

क्या गया वही पदचिन्ह छोड़

छिपकर कोई दु:खपथिक दीन?

 

जिसकी तुझमें है अमिट रेख

अस्थिर जीवन के करुण काव्य!

 

कब किसका सुखसागर अथाह

हो गया विरह से व्यथित प्राण?

तू उड़ी जहाँ से बन उसाँस

फिर हुई मेघ सी मूर्तिमान!

 

कर गया तुझे पाषाण कौन

दे चिर जीवन का निठुर शाप?

 

किसने जाता मधुदिवस जान

ली छीन छाँह उसकी अधीर?

रच दी उसको यह धवल सौध

ले साधों की रज नयन-नीर;

 

जिसका न अन्त जिसमें न प्राण

हे सुधि के बन्दीगृह अजान!

 

वे दृग जिनके नव नेहदीप

बुझकर न हुए निष्प्रभ मलीन;

वह उर जिसका अनुरागकुंज

मुँदकर न हुआ मधुहीन दीन;

 

वह सुषमा का चिरनीड़ गात

कैसे तू रख पाती सँभाल!

 

प्रिय के मानस में हो विलीन

फिर धड़क उठे जा मूक प्राण;

जिसने स्मृतियों में हो सजीव

देखा नवजीवन का विहान;

 

वह जिसको पतझर थी वसन्त

क्या तेरा पाहुन है समाधि?

 

दिन बरसा अपनी स्वर्णरेणु

मैली करता जिसकी न सेज;

चौंका पाती जिसके न स्वप्न

निशि मोती के उपहार भेज;

 

क्या उसकी है निद्रा अनन्त

जिसकी प्रहरी तू मूकप्राण?

क्यों - mahadevi verma

सजनि तेरे दृग बाल!

चकित से विस्मृति से दृगबाल—

 

आज खोये से आते लौट,

कहाँ अपनी चंचलता हार?

झुकी जातीं पलकें सुकुमार,

कौन से नव रहस्य के भार?

 

सरल तेरा मृदु हास!

अकारण वह शैशव का हास—

 

बन गया कब कैसे चुपचाप,

लाजभीनी सी मृदु मुस्कान।

तड़ित सी जो अधरों की ओट,

झाँक हो जाती अन्तर्धान।

 

सजनि वे पद सुकुमार!

तरंगों से द्रुतपद सुकुमार—

सीखते क्यों चंचलगति भूल,

भरे मेघों की धीमी चाल?

 

तृषित कन कन को क्यों अलि चूम,

अरुण आभा सी देते ढाल?

 

मुकुर से तेरे प्राण,

विश्व की निधि से तेरे प्राण

 

छिपाये से फिरते क्यों आज,

किसी मधुमय पीड़ा का न्यास?

सजल चितवन में क्यों है हास,

अधर में क्यों सस्मित निश्वास?

कभी - mahadevi verma

अश्रु-सिक्त रज से किसने

निर्मित कर मोती-सी प्याली,

इन्द्रधनुष के रंगों से

चित्रित कर मुझको दे डाली,

 

मैंने मधुर वेदनाओं की

उसमें जो मदिरा ढाली,

फूटी-सी पड़ती है उसकी

फेनिल, विद्रुम सी लाली!

 

सुख-दुख की बुद्बुद्-सी लड़ियाँ

बन बन उसमें मिट जातीं,

बूँद बूँद होकर भरती वह

भरकर छलक-छलक जातीं!

इस आशा से मैं उसमें

बैठी हूँ निष्फल सपने घोल,

कभी तुम्हारे सस्मित अधरों-

को छू वे होंगे अनमोल!

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