Sahir Ludhianvi Talkhiyan

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तल्खियाँ साहिर लुधियानवी(toc)

रद्दे-अमल /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

चन्द कलियाँ निशात की चुनकर
मुद्दतों महवे-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूँ

एक मंज़र /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

उफक के दरीचे से किरणों ने झांका
फ़ज़ा तन गई, रास्ते मुस्कुराये
 
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख्सारों ने घूँघट उठाये
 
परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके
पुरअसरार लै में रहट गुनगुनाये
 
हसीं शबनम-आलूद पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज पेड़ों के साए
 
वो दूर एक टीले पे आँचल सा झलका
तसव्वुर में लाखों दिए झिलमिलाये

एक वाकया /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अंधियारी रात के आँगन में ये सुबह के कदमों की आहट
ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की हल्की धुन्धलाहट
 
गाडी में हूँ तनहा महवे-सफ़र और नींद नहीं है आँखों में
भूले बिसरे रूमानों के ख्वाबों की जमीं है आँखों में
 
अगले दिन हाँथ हिलाते हैं, पिचली पीतें याद आती हैं
गुमगश्ता खुशियाँ आँखों में आंसू बनकर लहराती हैं
 
सीने के वीरां गोशों में, एक टीस-सी करवट लेती है
नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है
 
वो राहें ज़हन में घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूँ
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूँ

यकसूई /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अहदे-गुमगश्ता की तस्वीर दिखाती क्यों हो?
एक आवारा-ए-मंजिल को सताती क्यों हो?
 
वो हसीं अहद जो शर्मिन्दा-ए-ईफा न हुआ
उस हसीं अहद का मफहूम जलाती क्यों हो?
 
ज़िन्दगी शोला-ए-बेबाक बना लो अपनी
खुद को खाकस्तरे-खामोश बनाती क्यों हो?
 
मैं तसव्वुफ़ के मराहिल का नहीं हूँ कायल
मेरी तस्वीर पे तुम फूल चढ़ाती क्यों हो
 
कौन कहता है की आहें हैं मसाइब का इलाज़
जान को अपनी अबस रोग लगाती क्यों हो?
 
एक सरकश से मुहब्बत की तमन्ना रखकर
खुद को आईने के फंदे में फंसाती क्यों हो?
 
मै समझता हूँ तकद्दुस को तमद्दुन का फरेब
तुम रसूमात को ईमान बनती क्यों हो?
 
जब तुम्हे मुझसे जियादा है जमाने का ख़याल
फिर मेरी याद में यूँ अश्क बहाती क्यों हो?
 
तुममे हिम्मत है तो दुनिया से बगावत कर लो
वरना माँ बाप जहां कहते हैं शादी कर लो

शाहकार /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मुसव्विर मैं तेरा शाहकार वापस करने आया हूं
अब इन रंगीन रुख़सारों में थोड़ी ज़िदर्यां भर दे
हिजाब आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियां भर दे
लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़महिल कर दे
नुमाया रग-ए-पेशानी पे अक्स-ए-सोज़-ए-दिल कर दे
तबस्सुम आफ़रीं चेहरे में कुछ संजीदापन कर दे
जवां सीने के मखरुती उठाने सरिनगूं कर दे
घने बालों को कम कर दे, मगर रख्शांदगी दे दे
नज़र से तम्कनत ले कर मिज़ाज-ए-आजिजी दे दे
मगर हां बेंच के बदले इसे सोफ़े पे बिठला दे
यहां मेरे बजाए इक चमकती कार दिखला दे

नज़रे-कालिज /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

ऐ सरज़मीन-ए-पाक़ के यारां-ए-नेक नाम
बा-सद-खलूस शायर-ए-आवारा का सलाम
 
ऐ वादी-ए-जमील मेंरे दिल की धडकनें
आदाब कह रही हैं तेरी बारगाह में
 
तू आज भी है मेरे लिए जन्नत-ए-ख़याल
हैं तुझ में दफन मेरी जवानी के चार साल
 
कुम्हलाये हैं यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी के फूल
इन रास्तों में दफन हैं मेरी ख़ुशी के फूल
 
तेरी नवाजिशों को भुलाया न जाएगा
माजी का नक्श दिल से मिटाया न जाएगा
 
तेरी नशात खैज़-फ़ज़ा-ए-जवान की खैर
गुल हाय रंग-ओ-बू के हसीं कारवाँ की खैर
 
दौर-ए-खिजां में भी तेरी कलियाँ खिली रहे
ता-हश्र ये हसीं फज़ाएँ बसी रहे
 
हम एक ख़ार थे जो चमन से निकल गए
नंग-ए-वतन थे खुद ही वतन से निकल गए
 
गाये हैं फ़ज़ा में वफाओं के राग भी
नगमात आतिशें भी बिखेरी है आग भी
 
सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं
बरसों नए निजाम के नक्शे बनाए हैं
 
नगमा नशात-रूह का गाया है बारहा
गीतों में आंसूओं को छुपाया है बारहा
 
मासूमियों के जुर्म में बदनाम भी हुए
तेरे तुफैल मोरिद-ए-इलज़ाम भी हुए
 
इस सरज़मीन पे आज हम इक बार ही सही
दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही
 
लेकिन हम इन फ़ज़ाओं के पाले हुए तो हैं
गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं!
 
लुधियाना गवर्नमेंट कॉलेज 1943

माअजूरी /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

खलवत-ओ-जलवत में तुम मुझसे मिली हो बरहा
तुमने क्या देखा नहीं, मैं मुस्कुरा सकता नहीं
 
मैं की मायूसी मेरी फितरत में दाखिल हो चुकी
ज़ब्र भी खुद पर करूं तो गुनगुना सकता नहीं
 
मुझमे क्या देखा की तुम उल्फत का दम भरने लगी
मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं
 
रूह-अफज़ा है जुनूने-इश्क के नगमे मगर
अब मै इन गाये हुए गीतों को गा सकता नहीं
 
मैंने देखा है शिकस्ते-साजे-उल्फत का समां
अब किसी तहरीक पर बरबत उठा सकता नहीं
 
तुम मेरी होकर भी बेगाना ही पाओगी मुझे
मैं तुम्हारा होकर भी तुम में समा सकता नहीं
 
गाये हैं मैंने खुलूसे-दिल से भी उल्फत के गीत
अब रियाकारी से भी चाहूं तो गा सकता नहीं
 
किस तरह तुमको बना लूं मैं शरीके ज़िन्दगी
मैं तो अपनी ज़िन्दगी का भार उठा सकता नहीं
 
यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे
अब मैं शम्मा-ए-आरजू की लौ बढ़ा सकता नहीं

खाना-आबादी /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

(एक दोस्त की शादी पर)
 
तराने गूंज उठे हैं फजां में शादियानों के
हवा है इत्र-आगीं, ज़र्रा-ज़र्रा मुस्कुराता है
 
मगर दूर, एक अफसुर्दा मकां में सर्द बिस्तर पर
कोई दिल है की हर आहट पे यूँ ही चौंक जाता है
 
मेरी आँखों में आंसू आ गए नादीदा आँखों के
मेरे दिल में कोई ग़मगीन नग्मे सरसराता है
 
ये रस्मे-इन्किता-इ-अहदे-अल्फत, ये हवाते-नौ
मोहब्बत रो रही है और तमद्दुन मुस्कुराता है
 
ये शादी खाना-आबादी हो, मेरे मोहतरिम भाई
मुबारिक कह नहीं सकता मेरा दिल कांप जाता है

सरज़मीने-यास /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

जीने से दिल बेज़ार है
हर सांस एक आज़ार है
 
कितनी हज़ीं है ज़िंदगी
अंदोह-गीं है ज़िंदगी
 
वी बज़्मे-अहबाबे-वतन
वी हमनवायाने-सुखन
 
आते हैं जिस दम याद अब
करते हैं दिल नाशाद अब
 
गुज़री हुई रंगीनियां
खोई हुई दिलचस्पियां
 
पहरों रुलाती हैं मुझे
अक्सर सताती हैं मुझे
 
वो जामजमे वो चह्चहे
वो रूह-अफ़ज़ा कहकहे
 
जब दिल को मौत आई न थी
यूं बेहिसी छाई न थी
 
वो नाज़नीनाने-वतन
ज़ोहरा- ज़बीनाने-वतन
 
जिन मे से एक रंगीं कबा
आतिश-नफ़स आतिश-नवा
 
करके मोहब्बत आशना
रंगे अकीदत आशना
 
मेरे दिले नाकाम को
खूं-गश्ता-ए-आलाम को
 
दागे-ज़ुदाई दे गई
सारी खुदाई ले गई
 
उन साअतों की याद मे
उन राहतों की याद मे
 
मरमूम सा रहता हूं मैं
गम की कसक सहता हूं मैं
 
सुनता हूं जब अहबाब से
किस्से गमे-अय्याम के
 
बेताब हो जाता हूं मैं
आहों मे खो जाता हूं मैं
 
फ़िर वो अज़ीज़-ओ-अकरबा
जो तोड कर अहदे-वफ़ा
 
अहबाब से मुंह मोड कर
दुनिया से रिश्ता तोड कर
 
हद्दे-उफ़ से उस तरफ़
रंगे-शफ़क से उस तरफ़
 
एक वादी-ए-खामोश की
एक आलमे-बेहोश की
 
गहराइयों मे सो गये
तारिकियों मे खो गये
 
उन का तसव्वुर नागाहां
लेता है दिल में चुटकियां
 
और खूं रुलाता है मुझे
बेकल बनाता है मुझे
 
वो गांव की हमजोलियां
मफ़लूक दहकां-ज़ादियां
 
जो दस्ते-फ़र्ते-यास से
और यूरिशे-इफ़लास से
 
इस्मत लुटाकर रह गई
खुद को गंवा कर रह गई
 
गमगीं जवानी बन गई
रुसवा कहानी बन गई
 
उनसे कभी गलियों मे जब
होता हूं मैं दोचार जब
 
नज़रें झुका लेता हूं मैं
खुद को छुपा लेता हूं मैं
 
कितनी हज़ीं है ज़िदगी
अन्दोह-गीं है ज़िंदगी

शिकस्त /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैनें
 
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें
 
जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैनें
 
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है
 
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है
 
मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं
 
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
 
एक यख़बस्ता उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश
 
रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमन्गों का ख़रोश
 
(जीस्त=ज़िंदगी, नाशाद=ग़मग़ीन,उत्साहहीन, हरीरी मलबूस=
रेशमा कपड़े का टुकड़ा, आरिज़=गाल और होंठों के अंग,
शुआ=किरण, गुलशुदा=बुझ चुकी,मृतप्राय, शम्मा=आग,
तज़दीद=फिर से जाग उठना, अफ़सुर्दा=मुरझाई हुई,
कुम्हलाई हुई, तसव्वुर=ख़याल,विचार,याद, यख़बस्ता=
जमी हुई, मुहीत=फैला हुआ, गिराँबार=तनी हुई,कसी हुई,
सलासिल=ज़ंजीर, दरमान्दा=असहाय,बेसहारा)

किसी को उदास देखकर /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

तुम्हे उदास सी पाता हूं मैं कई दिन से,
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम?
 
वो शोखियां वो तबस्सुम वो कहकहे न रहे
हर एक चीज को हसरत से देखती हो तुम।
 
छुपा-छुपा के खमोशी मे अपनी बेचैनी,
खुद अपने राज़ की तशहीर बन गई हो तुम।
 
मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो,
उम्मीद क्या है बस इक पेशो-पस है कुछ भी नहीं।
 
मेरी हयात की गमगीनियों क गम न करो,
गमे-हयात गमे-यक-नफ़स है कुछ भी नहीं।
 
तुम अपने हुस्न की र‍अनाईयों पे रहम करो,
वफ़ा फ़रेब है तूले-हवस है कुछ भी नहीं।
 
मुझे तुम्हारे तगाफ़ुल से क्यों शिकायत हो,
मेरी फ़ना मेरे एहसास क तकाज़ा है।
 
मै जानता हूं कि दुनिया क खौफ़ है तुमको,
मुझे खबर है, ये दुनिया अज़ीब दुनिया है।
 
यहां हयात के पर्दे मे मौत पलती है,
शिकस्ते-साज की आवाज रुहे-नग्मा है।
 
मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज़ नहीं,
मेरे खयाल की दुनिया मे मेरे पास हो तुम।
 
ये तुमने ठीक कहा है, तुम्हे मिला ना करूं
मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम?
 
खफ़ा न होन मेरी ज़ुर्रते-तखातुब पर
तुम्हे खबर है मेरी जिंदगी की आस हो तुम?
 
मेरा तो कुच भी नहीं है, मै रो के जी लूंगा,
मगर खुदा के लिये तुम असीरे-गम न रहो,
 
हुआ ही क्या जो तुम को जमने से छीन लिया
यहां पे कौन हुआ है किसी का, सोचो तो,
 
मुझे कसम है मेरी दुख भरी जवानी की
मै खुश हूं, मेरी मुहब्बत के फ़ूल ठुकरा दो।
 
मै अपनी रूह की हर एक खुशी मिटा लूंगा,
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता।
 
मै खुद को मौत के हांथों मे सौंप सकता हूं,
मगर ये बारे-मसाइब उठा नहीं सकता।
 
तुम्हारे गम के सिवा और भी तो गम हैं मुझे
निजात जिनमे मै इक लहज़ा पा नहीं सकता।
 
ये ऊंचे ऊंचे मकानों के ड्योढियों के तले,
हर एक गाम पे भूखे भिखारियों की सदा।
 
हर एक घर मे ये इफ़लास और भूख का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आहो बका।
 
ये करखानों मे लोहे क शोरो-गुल जिसमे,
है दफ़्न लाखों गरीबो की रूह का नग्मा।
 
ये शाहराहों पे रंगीन साडियों की झलक,
ये झोपडों मे गरीबों की बेकफ़न लाशें।
 
ये माल-रोड पे कारों की रेल-पेल का शोर,
ये पटरियों पे गरीबों के ज़र्द-रू बच्चे।
 
गली-गली मे ये बिकते हुए जवां चेहरे,
हसीन आंखों मे अफ़सुर्दगी सी छाई हुई।
 
ये जंग और ये मेरे वतन के शोख जवां,
खरीदी जाती है उठती जवानियां जिनकी।
 
ये बात-बात पे कनूनों-जाब्ते की गिरफ़्त,
ये ज़िल्लतें, ये गुलामी, ये दौरे मज़बूरी।
 
ये गम बहुत है मेरी ज़िन्दगी मिटाने को,
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो।
 
फ़िर न कीजे मीरी गुस्ताख-निगाही का गिला
देखिये आपने फ़िर प्यारे से देखा मुझको।

मेरे गीत /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है
 
मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है
मेरी फ़ितरत को ख़ूँरेज़ी के अफ़सानों से रग़्बत है
मेरी दुनिया में कुछ वक्त नहीं है रक़्स-ओ-नग़्में की
मेरा महबूब नग़्मा शोर-ए-आहंग-ए-बग़ावत है
 
मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को
मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ
तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं
तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिल्मिलाता हूँ
कोई ख़्वाबों में ख़्वाबीदा उमंगों को जगाती है
तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूँ
 
मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़ारों से उल्फ़त है
मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता
मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने
मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता
जवाँ हूँ मैं जवानी लग़्ज़िशों का एक तूफ़ाँ है
मेरी बातों में रन्ग-ए-पारसाई हो नहीं सकता
 
मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूँ भूक के मारे किसानों को
ग़रीबों को, मुफ़लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को
सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को
हुकूमत के तशद्दुद को, अमारत के तकब्बुर को
किसी के चिथड़ों को और शहन्शाही ख़ज़ानों को
 
तो दिल ताब-ए-निशात-ए-बज़्म-ए-इश्रत ला नहीं सकता
मैं चाहूँ भी तो ख़्वाब-आवार तराने गा नहीं सकता
 
(सरकश=सरचढ़े, जंग-ओ-जदल=युद्ध और संघर्ष, कैफ़=शांति,
खूँरेजी=खूनखराबा, रग्बत=स्नेह, रक्स=नृत्य, आहंग=आलाप,
तसव्वुर=खयाल, सोज=जलन, शिद्दत=तेज, उल्फत=प्रेम,
नग्मासराई=नग्में गाने वाला, फ़कत=केवल,सिर्फ़, मुफ़लिस=
गरीब, तकब्बुर=मगरूर,गुमान, ताब-ए-निशात=खुशी की जलन,
बज़्म-ए-इश्रत=समाज की भीड़ या महफ़िल)

अशआर-1 /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

हरचन्द मेरी कुव्वते-गुफ़्तार है महबूस,
खामोश मगर तब‍अए-खुद‍आरा नहीं होती।
 
मा‍अमूरा-ए-एहसास मे है हश्र-सा बर्पा,
इन्सान को तज़लील गंवारा नहीं होती।
 
नालां हूं मै बेदारी-ए-एहसास के हाथों,
दुनिया मेरे अफ़कार की दुनिया नहीं होती।
 
बेगाना-सिफ़त जादा-ए-मंज़िल से गुज़र जा,
हर चीज़ सजावारे-नज़ारा नहीं होती।
 
फ़ितरत की मशीयत भी बडी चीज है लेकिन,
फ़ितरत कभी बेबस का सहारा नहीं होती।

सोचता हूँ /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

सोचता हूँ कि मुहब्बत से किनारा कर लूँ
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ
 
सोचता हूँ कि मुहब्बत है जुनून-ए-रसवा
चंद बेकार-से बेहूदा ख़यालों का हुजूम
एक आज़ाद को पाबंद बनाने की हवस
एक बेगाने को अपनाने की सइ-ए-मौहूम
सोचता हूँ कि मुहब्बत है सुरूर-ए-मस्ती
इसकी तन्वीर में रौशन है फ़ज़ा-ए-हस्ती
 
सोचता हूँ कि मुहब्बत है बशर की फ़ितरत
इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूँ कि मुहब्बत से है ताबिंदा हयात
आप ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है
 
सोचता हूँ कि मुहब्बत पे कड़ी शर्त हैं
इक तमद्दुन में मसर्रत पे बड़ी शर्त हैं
 
सोचता हूँ कि मुहब्बत है इक अफ़सुर्दा सी लाश
चादर-ए-इज़्ज़त-ओ-नामूस में कफ़नाई हुई
दौर-ए-सर्माया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती
दरगह-ए-मज़हब-ओ-इख़्लाक़ से ठुकराई हुई
 
सोचता हूँ कि बशर और मुहब्बत का जुनूँ
ऐसी बोसीदा तमद्दुन से है इक कार-ए-ज़बूँ
 
सोचता हूँ कि मुहब्बत न बचेगी ज़िंदा
पेश-अज़-वक़्त की सड़ जाये ये गलती हुई लाश
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फ़त होकर
अपने सीने में करूँ जज़्ब-ए-नफ़रत की तलाश
 
और सौदा-ए-मुहब्बत से किनारा कर लूँ
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ

नाकामी /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मैने हरचन्द गमे-इश्क को खोना चाहा,
गमे-उल्फ़त गमे-दुनिया मे समोना चाहा!
 
वही अफ़साने मेरी सिम्त रवां हैं अब तक,
वही शोले मेरे सीने में निहां हैं अब तक।
 
वही बेसूद खलिश है मेरे सीने मे हनोज़,
वही बेकार तमन्नायें जवां हैं अब तक।
 
वही गेसू मेरी रातो पे है बिखरे-बिखरे,
वही आंखें मेरी जानिब निगरां हैं अब तक।
 
कसरते-गम भी मेरे गम का मुदावा न हुई,
मेरे बेचैन खयालों को सुकूं मिल ना सका।
 
दिल ने दुनिया के हर एक दर्द को अपना तो लिया,
मुज़महिल रूह को अंदाजे-जुनूं मिल न सका।
 
मेरी तखईल का शीराजा-ए-बरहम है वही,
मेरे बुझते हुए एहसास का आलम है वही।
 
वही बेजान इरादे वही बेरंग सवाल,
वही बेरूह कशाकश वही बेचैन खयाल।
 
आह! इस कश्म्कशे-सुबहो-मसा का अंजाम
मैं भी नाकाम, मेरी स‍यी-ए-अमला भी नाकाम॥

मुझे सोचने दे /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़,
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना|
 
जिन्दगी तल्ख़ सही, जहर सही, सम ही सही,
दर्दो-आजार सही, ज़ब्र सही, गम ही सही|
 
लेकिन इस दर्दो-गमो-ज़ब्र की वुसअत को तो देख,
जुल्म की छाँव में दम तोड़ती खलकत को तो देख,
 
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना,
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़
 
जलसा-गाहों में ये दहशतज़दा सहमे अम्बोह,
रहगुज़ारों पे फलाकतज़दा लोगो के गिरोह|
 
भूख और प्यास से पजमुर्दा सियहफाम ज़मीं,
तीरा-ओ-तार मकां मुफलिसों-बीमार मकीं|
 
नौ-ए-इंसान में ये सरमाया-ओ-मेहनत का तज़ाद,
अम्नो-तहजीब के परचम तले कौमों का फसाद|
 
हर तरफ आतिशो-आहन का ये सैलाबे-अजीम,
नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम|
 
लहलहाते हुए खेतों पे जबानी का समाँ
और दहकान के छप्पर में न बत्ती न धुवां|
 
ये फलक-बोस मिलें दिलकशीं-सीली बाज़ार,
ये गलाज़त पे झपटते गुए भूखे नादार|
 
दूर साहिल पे वो शफ्फाक मकानों की कतार,
सरसराते हुए पर्दों में सिमटते गुलज़ार|
 
दरो-दीवार पे अनवार का सैलाबे-रवां,
जैसे एक शायरे मदहोश के ख़्वाबों का जहां|
 
ये सभी क्यों है? ये क्या है? मुझे कुछ सोचने दे,
कौन इंसान का खुदा है? मुझे कुछ सोचने दे|
 
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना|
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़||

सुबहे-नौरोज़ /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

फूट पड़ी मशरिक से किरने
हाल बना माज़ी का फ़साना, गूंजा मुस्तकबिल का तराना
भेजे हैं एहबाब ने तोहफ़े, अटे पड़े हैं मेज़ के कोने
दुल्हन बनी हुई हैं राहें
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
निकली है बंगले के दर से
इक मुफ़लिस दहकान की बेटी, अफ़सुर्दा, मुरझाई हुई-सी
जिस्म के दुखते जोड़ दबाती, आँचल से सीने को छुपाती
मुट्ठी में इक नोट दबाये
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
भूके, ज़र्द, गदागर बच्चे
कार के पीछे भाग रहे हैं, वक़्त से पहले जाग उठे हैं
पीप भरी आँखें सहलाते, सर के फोड़ों को खुजलाते
वो देखो कुछ और भी निकले
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
 
(सुबहे-नौरोज़=नव-दिवस का प्रभात, माज़ी=अतीत,
मुस्तकबिल=भविष्य, एहबाब=मित्र, साल-ए-नौ=नववर्ष के,
दहकान=किसान, गदागर=भिखारी)

गुरेज़ /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मिरा जुनून-ए-वफ़ा है ज़वाल-आमादा
शिकस्त हो गया तेरा फ़ुसून-ए-ज़ेबाई
उन आरज़ूओं पे छाई है गर्द-ए-मायूसी
जिन्हों ने तेरे तबस्सुम में परवरिश पाई
फ़रेब-ए-शौक़ के रंगीं तिलिस्म टूट गए
हक़ीक़तों ने हवादिस से फिर जिला पाई
सुकून-ओ-ख़्वाब के पर्दे सरकते जाते हैं
दिमाग़-ओ-दिल में हैं वहशत की कार-फ़रमाई
वो तारे जिनमें मोहब्बत का नूर ताबाँ था
वो तारे डूब गए ले के रंग-ओ-रानाई
सुला गई थीं जिन्हें तेरी मुल्तफ़ित नज़रें
वो दर्द जाग उठे फिर से ले के अंगड़ाई
अजीब आलम-ए-अफ़्सुर्दगी है रू-बा-फ़रोग़
न जब नज़र को तक़ाज़ा न दिल तमन्नाई
तिरी नज़र तिरे गेसू तिरी जबीं तिरे लब
मिरी उदास-तबीअत है सब से उकताई
मैं ज़िंदगी के हक़ाएक़ से भाग आया था
कि मुझ को ख़ुद में छुपाए तिरी फ़ुसूँ-ज़ाई
मगर यहाँ भी तआ'क़ुब किया हक़ाएक़ ने
यहाँ भी मिल न सकी जन्नत-ए-शकेबाई
हर एक हाथ में ले कर हज़ार आईने
हयात बंद दरीचों से भी गुज़र आई
 
मिरे हर एक तरफ़ एक शोर गूँज उठा
और उस में डूब गई इशरतों की शहनाई
कहाँ तलक करे छुप-छुप के नग़्मा-पैराई
वो देख सामने के पुर-शिकोह ऐवाँ से
किसी किराए की लड़की की चीख़ टकराई
वो फिर समाज ने दो प्यार करने वालों को
सज़ा के तौर पर बख़्शी तवील तन्हाई
फिर एक तीरा-ओ-तारीक झोंपड़ी के तले
सिसकते बच्चे पे बेवा की आँख भर आई
वो फिर बिकी किसी मजबूर की जवाँ बेटी
वो फिर झुका किसी दर पर ग़ुरूर-ए-बरनाई
वो फिर किसानों के मजमे' पे गन-मशीनों से
हुक़ूक़-याफ़ता तबक़े ने आग बरसाई
सुकूत-ए-हल्क़ा-ए-ज़िंदाँ से एक गूँज उठी
और इस के साथ मिरे साथियों की याद आई
नहीं नहीं मुझे यूँ मुल्तफ़ित नज़र से न देख
नहीं नहीं मुझे अब ताब-ए-नग़्मा-पैराई
मिरा जुनून-ए-वफ़ा है ज़वाल-आमादा
शिकस्त हो गया तेरा फुसून-ए-ज़ेबाई

चकले /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के
कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
ये पुर-पेच गलियाँ ये बे-ख़्वाब बाज़ार
ये गुमनाम राही ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे ये सौदों पे तकरार
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
तअफ़्फ़ुन से पुर नीम-रौशन ये गलियाँ
ये मसली हुई अध खिली ज़र्द कलियाँ
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
वो उजले दरीचों में पायल की छन छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन धन
ये बे-रूह कमरों में खाँसी की ठन ठन
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
ये गूँजे हुए क़हक़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़ सी खिड़कियों पर
ये आवाज़े खिंचते हुए आँचलों पर
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
ये फूलों के गजरे ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें ये गुस्ताख़ फ़िक़रे
ये ढलके बदन और ये मदक़ूक़ चेहरे
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
ये भूकी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पाँव ज़ीनों की जानिब
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
यहाँ पीर भी आ चुके हैं जवाँ भी
तनौ-मंद बेटे भी अब्बा मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहन भी है माँ भी
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोधा की हम-जिंस राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत ज़ुलेख़ा की बेटी
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं
बुलाओ ख़ुदायान-ए-दीं को बुलाओ
ये कूचे ये गलियाँ ये मंज़र दिखाओ
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ को लाओ
सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं

ताजमहल /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
 
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
 
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
 
मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा
 
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता
 
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उन के लिये तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
 
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतल-क़ुलहुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतूँ
सीना-ए-दहर के नासूर हैं, कुहना नासूर
जज़्ब है जिसमें तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ
 
मेरी महबूब ! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील
 
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
 
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
 
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
 
(मज़हर-ए-उल्फ़त=प्रेम का द्योतक, वादी-ए-रंगीं=
रमणीय स्थान, अक़ीदत=श्रद्धा, बज़्म-ए-शाही=
बादशाहों के दरबार, सब्त=अंकित, सतवत-ए-शाही=
राजसी वैभव, पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा=प्रेम के
विज्ञापन के परदे के पीछे, मक़ाबिर=मक़बरों,
तारीक=अंधेरे, सादिक़=पवित्र, तशहीर=विज्ञापन,
मुफ़लिस=निर्धन, फ़सीलें=परिकोटे, हिसार=क़िले,
मुतल-क़ुलहुक्म=आदेश देने में स्वतन्त्र, सुतूँ=
खम्भे, सीना-ए-दहर=संसार के वक्षस्थल के,
कुहना=पुराने, जज़्ब=समाया हुआ है, अजदाद=
पूर्वजों, सन्नाई=कारीगरी, जमील=सुन्दर,
बेनाम-ओ-नमूद=अनाम और बिना निशान के,
क़ंदील=मोमबती, चमनज़ार=उद्यान, मुनक़्क़श=
नक़्क़ाशी किए हुए)

लम्हा-ए-गनीमत /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मुस्करा ऐ ज़मीने-तीरा-ओ-तार
सर उठा, ऐ दबी हुई मखलूक
 
देख वो मगरिब्री उफ़ुक के करीब
आंधियां पेचो-ताब खाने लगीं
और पुराने कमार-खाने मे
कुहना शातिर बहम उलझने लगे
 
कोई तेरी तरफ़ नहीं निगरां
ये गिराबार सर्द ज़ंज़ीरें
जंग-खुर्द हैं, आहनी ही सही
आज मौका है, टूट सकती है
 
फ़ुर्सते-यक-नफ़स गनीमत जान
सर उठा ऐ दबी हुई मखलूक

तुलूअ-ए-इश्तराकियत /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे ऐवां कांप रहे हैं
मजदूरों के बिगड़े तेवर देख के सुल्तां कांप रहे हैं
जागे हैं अफलास के मारे उठ्ठे हैं बेबस दुखियारे
सीनों में तूफां का तलातुम आंखों में बिजली के शरारे
चौक-चौक पर गली गली में सुर्ख फरेरे लहराते हैं
मजलूमों के बागी लश्कर सैल-सिफत उमड़े आते हैं
शाही दरबारों के दर से फौजी पहरे खत्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक और मुहमिल दावे खत्म हुए हैं
शोर मचा है बाजारों में, टूट गए दर जिंदानों के
वापस मांग रही है दुनिया गस्बशुदा हक इंसानों के
रुस्वा बाजारू खातूनें हक-ए-निसाई मांग रही हैं
सदियों की खामोश जबानें सहर-नवाई मांग रही हैं
रौंदी कुचली आवाजों के शोर से धरती गूंज उठी है
दुनिया के अन्याय नगर में हक की पहली गूंज उठी है
जमा हुए हैं चौराहों पर आकर भूखे और गदागर
एक लपकती आंधी बन कर एक भभकता शोला होकर
कांधों पर संगीन कुदालें होंठों पर बेबाक तराने
दहकानों के दल निकले हैं अपनी बिगड़ी आप बनाने
आज पुरानी तदबीरों से आग के शोले थम न सकेंगे
उभरे जज्बे दब न सकेंगे, उखड़े परचम जम न सकेंगे
राजमहल के दरबानों से ये सरकश तूफां न रुकेगा
चंद किराए के तिनकों से सैले-बे-पायां न रुकेगा
कांप रहे हैं जालिम सुल्तां टूट गए दिल हब्बारों के
भाग रहे हैं जिल्ले-इलाही मुंह उतरे हैं गद्दारों के
एक नया सूरज चमका है, एक अनोखी जू बारी है
खत्म हुई अफराद की शाही, अब जम्हूर की सालारी है.

फ़नकार /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ
आज दुक्कान पे नीलाम उठेगा उन का
तू ने जिन गीतों पे रखी थी मोहब्बत की असास
आज चाँदी के तराज़ू में तुलेगी हर चीज़
मेरे अफ़्कार मिरी शाइरी मेरा एहसास
जो तिरी ज़ात से मंसूब थे उन गीतों को
मुफ़लिसी जिंस बनाने पे उतर आई है
भूक तेरे रुख़-ए-रनगीं के फ़सानों के एवज़
चंद अशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है
देख इस अरसा-ए-गह-ए-मेहनत-ओ-सरमाया में
मेरे नग़्मे भी मिरे पास नहीं रह सकते
तेरे जल्वे किसी ज़रदार की मीरास सही
तेरे ख़ाके भी मिरे पास नहीं रह सकते
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ
मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

कभी कभी /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
 
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
 
अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता
 
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता
 
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
 
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से
महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से
 
न कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी
 
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

फ़रार /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासाँ हूँ मैं
अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे
अपनी बे-कार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ
अपनी बे-सूद उमीदों पे नदामत है मुझे
 
मेरे माज़ी को अंधेरे में दबा रहने दो
मेरा माज़ी मिरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
मेरी उम्मीदों का हासिल मिरी काविश का सिला
एक बे-नाम अज़िय्यत के सिवा कुछ भी नहीं
 
कितनी बे-कार उमीदों का सहारा ले कर
मैं ने ऐवान सजाए थे किसी की ख़ातिर
कितनी बे-रब्त तमन्नाओं के मुबहम ख़ाके
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की ख़ातिर
 
मुझ से अब मेरी मोहब्बत के फ़साने न कहो
मुझ को कहने दो कि मैं ने उन्हें चाहा ही नहीं
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं
मैं ने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं
 
मुझ को कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ
इश्क़ नाकाम सही ज़िंदगी नाकाम नहीं
इन को अपनाने की ख़्वाहिश उन्हें पाने की तलब
शौक़-ए-बेकार सही सई-ए-ग़म-ए-अंजाम नहीं
 
वही गेसू वही नज़रें वही आरिज़ वही जिस्म
मैं जो चाहूँ तो मुझे और भी मिल सकते हैं
वो कँवल जिन को कभी उन के लिए खिलना था
उन की नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं

कल और आज /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

आज भी बूंदें बरसेंगी
आज भी बादल छाये हैं
 
और कवि इस सोच में है
 
बस्‍ती पे बादल छाये हैं, पर ये बस्‍ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा, लेकिन धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्‍हड़ टोली दहकाओं (किसानों) की
धरती से फुटेगी मेहनत फाकाकश इंसानों की
फसलें काट के मेहनतकश गल्‍ले के ढेर लगाएंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूंजी ले जाएंगे
बुढ़े दहकाओं के घर बनिये की कुर्की आएगी
और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेची जाएगी
आज भी जनता भूखी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिमझिम बरखा होगी
कल भी बारिश बरसी थी
 
आज भी बादल छाये हैं
आज भी बूंदें बरसेंगी
 
और कवि सोच रहा है...

हिरास /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

तेरे होंठों पे तबस्सुम की वो हलकी-सी लकीर
मेरे तख़ईल में रह-रह के झलक उठती है
यूं अचानक तिरे आरिज़ का ख़याल आता है
जैसे ज़ुल्मत में कोई शम्अ भड़क उठती है
 
तेरे पैराहने-रंगीं की ज़ुनुंखेज़ महक
ख़्वाब बन-बन के मिरे ज़ेहन में लहराती है
रात की सर्द ख़ामोशी में हर इक झोकें से
तेरे अनफ़ास, तिरे जिस्म की आंच आती है
 
मैं सुलगते हुए राज़ों को अयां तो कर दूं
लेकिन इन राज़ों की तश्हीर से जी डरता है
रात के ख्वाब उजाले में बयां तो कर दूं
इन हसीं ख़्वाबों की ताबीर से जी डरता है
 
तेरी साँसों की थकन, तेरी निगाहों का सुकूत
दर- हक़ीकत कोई रंगीन शरारत ही न हो
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम, वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो
 
सोचता हूँ कि तुझे मिलके मैं जिस सोच में हूँ
पहले उस सोच का मकसूम समझ लूं तो कहूं
मैं तिरे शहर में अनजान हूँ, परदेसी हूँ
तिरे अल्ताफ़ का मफ़हूम समझ लूं तो कहूं
 
कहीं ऐसा न हो, पांओं मिरे थर्रा जाए
और तिरी मरमरी बाँहों का सहारा न मिले
अश्क बहते रहें खामोश सियह रातों में
और तिरे रेशमी आंचल का किनारा न मिले
 
(तबस्सुम=मुस्कराहट, ख़ईल=कल्पना में,
आरिज़=कपोल, ज़ुल्मत में=अँधेरे में, पैराहन=
लिबास, ज़ुनुंखेज़=उन्माद-भरी, ज़ेहन=मस्तिष्क,
अनफ़ास=श्वासों, अयां=प्रकट, तश्हीर=विज्ञापन,
ख़्वाबों की ताबीर=स्वप्न-फल, सुकूत=मौन,
तकल्लुम=बातचीत का ढंग, मकसूम=परिणाम,
अल्ताफ़ का=कृपाओं का, मफ़हूम=अर्थ,
मरमरी=संगमरमर की बनी)

इसी दोराहे पर /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
 
और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा
 
फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही
 
बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहनो-तसव्वुर ने मगर
दिल में इक शोला-ए-बेनाम-सा लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेज़ार तबीयत को भी प्यार आ ही गया
 
अपनी बदली हुई नज़रों के तकाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़हूम समझ सकता हूँ
तेरे ज़रकार दरीचों को बुलंदी की क़सम
अपने इकदाम का मकसूम समझ सकता हूँ
 
अब न इन ऊँचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
इसी सर्माया-ओ-इफ़लास के दोराहे पर
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
 
(अहद=प्रतिज्ञा, ब-ई-हाले-तबाह=यों तबाह-हाल
होने पर भी, फ़ुन्सूकार=जादू-भरी, ज़ेहनो-तसव्वुर=
मस्तिष्क तथा कल्पना, शोला-ए-बेनाम-सा=
अनाम–सा शोला, मफ़हूम=अर्थ, ज़रकार=स्वर्णिम,
इकदाम का मकसूम=कदम बढ़ाने का परिणाम,
सर्माया-ओ-इफ़लास=धन तथा निर्धनता)

एक तस्वीरे-रंग /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मैं ने जिस वक़्त तुझे पहले-पहल देखा था
तू जवानी का कोई ख़्वाब नज़र आई थी
हुस्न का नग़्म-ए-जावेद हुई थी मालूम
इश्क़ का जज़्बा-ए-बेताब नज़र आई थी
 
ऐ तरब-ज़ार जवानी की परेशाँ तितली
तू भी इक बू-ए-गिरफ़्तार है मालूम न था
तेरे जल्वों में बहारें नज़र आती थीं मुझे
तू सितम-ख़ुर्दा-ए-इदबार है मालूम न था
 
तेरे नाज़ुक से परों पर ये ज़र-ओ-सीम का बोझ
तेरी परवाज़ को आज़ाद न होने देगा
तू ने राहत की तमन्ना में जो ग़म पाला है
वो तिरी रूह को आबाद न होने देगा
 
तू ने सरमाए की छाँव में पनपने के लिए
अपने दिल अपनी मोहब्बत का लहू बेचा है
दिन की तज़ईन-ए-फ़सुर्दा का असासा ले कर
शोख़ रातों की मसर्रत का लहू बेचा है
 
ज़ख़्म-ख़ुर्दा हैं तख़य्युल की उड़ानें तेरी
तेरे गीतों में तिरी रूह के ग़म पलते हैं
सुर्मगीं आँखों में यूँ हसरतें लौ देती हैं
जैसे वीरान मज़ारों पे दिए जुलते हैं
 
इस से क्या फ़ाएदा रंगीन लिबादों के तले
रूह जलती रहे घुलती रहे पज़मुर्दा रहे
होंट हँसते हों दिखावे के तबस्सुम के लिए
दिल ग़म-ए-ज़ीस्त से बोझल रहे आज़ुर्दा रहे
 
दिल की तस्कीं भी है आसाइश-ए-हस्ती की दलील
ज़िंदगी सिर्फ़ ज़र-ओ-सीम का पैमाना नहीं
ज़ीस्त एहसास भी है शौक़ भी है दर्द भी है
सिर्फ़ अन्फ़ास की तरतीब का अफ़्साना नहीं
 
उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है
एक लम्हा जो तिरी रूह में वुसअत भर दे
एक लम्हा जो तिरे गीत को शोख़ी दे दे
एक लम्हा जो तिरी लय में मसर्रत भर दे

एहसासे-कामरां /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

उफके-रूस से फूटी है नई सुब्ह की जौ
शब का तारीक जिगर चाक हुआ जाता है
तीरगी जितना संभलने के लिए रुकती है
सुर्ख सैल और भी बेबाक हुआ जाता है
 
सामराज अपने वसीलों पे भरोसा न करे
कुहना जंजीरों की झनकार नहीं रह सकती
जज्बए-नफरते-जम्हूर की बढ़ती रौ में
मुल्क और कौम की दीवार नहीं रह सकती
 
संगो-आहन की चटानें हैं अवामी जज्बे
मौत के रेंगते सायों से कहो कट जाएं
करवटें ले के मचलने को है सैले-अनवार
तीरा-ओ-तार घटाओं से कहो छंट जाएं
 
सालहा-साल के बेचैन शरारों का खरोश
एक नई जीस्त का दर बाज किया चाहता है
अज्मे-आजादि-ए-इंसां-ब-हजारां जबरूत
एक नए दौर का आगाज किया चाहता है
 
बरतर-अकवाम के माजूर खुदाओं से कहो
आखिरी बार जरा अपना तराना दुहराएं
और फिर अपनी सियासत पे पशेमां होकर
अपने नापाक इरादों का कफन ले आएं
 
सुर्ख तूफान की मौजों को जकड़ने के लिए
कोई जंजीरे-गिरां काम नहीं आ सकती
रक्स करती हुई किरनों के तलातुम की कसम
अर्सए-दहर पे अब शाम नहीं छा सकती

ख़ुदकुशी से पहले /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

उफ़ ये बेदर्द सियाही ये हवा के झोंके
किस को मालूम है इस शब की सहर हो कि न हो
इक नज़र तेरे दरीचे की तरफ़ देख तो लूँ
डूबती आँखों में फिर ताब-ए-नज़र हो कि न हो
 
अभी रौशन हैं तिरे गर्म शबिस्ताँ के दिए
नील-गूँ पर्दों से छनती हैं शुआएँ अब तक
अजनबी बाँहों के हल्क़े में लचकती होंगी
तेरे महके हुए बालों की रिदाएँ अब तक
 
सर्द होती हुई बत्ती के धुएँ के हमराह
हाथ फैलाए बढ़े आते हैं ओझल साए
कौन पोंछे मिरी आँखों के सुलगते आँसू
कौन उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाए
 
आह ये ग़ार-ए-हलाकत ये दिए का महबस
उम्र अपनी इन्ही तारीक मकानों में कटी
ज़िंदगी फ़ितरत-ए-बे-हिस की पुरानी तक़्सीर
इक हक़ीक़त थी मगर चंद फ़सानों में कटी
 
कितनी आसाइशें हँसती रहीं ऐवानों में
कितने दर मेरी जवानी पे सदा बंद रहे
कितने हाथों ने बुना अतलस-ओ-कमख़्वाब मगर
मेरे मल्बूस की तक़दीर में पैवंद रहे
 
ज़ुल्म सहते हुए इंसानों के इस मक़्तल में
कोई फ़र्दा के तसव्वुर से कहाँ तक बहले
उम्र भर रेंगते रहने की सज़ा है जीना
एक दो दिन की अज़िय्यत हो तो कोई सह ले
 
वही ज़ुल्मत है फ़ज़ाओं पे अभी तक तारी
जाने कब ख़त्म हो इंसाँ के लहू की तक़्तीर
जाने कब निखरे सियह-पोश फ़ज़ा का जौबन
जाने कब जागे सितम-ख़ुर्दा बशर की तक़दीर
 
अभी रौशन हैं तिरे गर्म शबिस्ताँ के दिए
आज मैं मौत के ग़ारों में उतर जाऊँगा
और दम तोड़ती बत्ती के धुएँ के हमराह
सरहद-ए-मर्ग-ए-मुसलसल से गुज़र जाऊँगा

ये किसका लहू है? /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
 
ये जलते हुए घर किसके हैं
ये कटते हुए तन किसके है,
तकसीम के अंधे तूफ़ान में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं,
बदबख्त फिजायें किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं,
 
कुछ हम भी सुने, हमको भी सुना.
 
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
 
किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म के दामन चाक करें,
किस तरह के हैं ये देश भगत
जो बसते घरों को खाक करें,
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करें,
 
आँखे तो उठा, नज़रें तो मिला.
 
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
 
जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्जत क्या होगी,
जिस दीन के हाथों लाज लूटे
उस दीन की कीमत क्या होगी,
इन्सान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी,
 
ये वेद हटा, कुरआन उठा.
 
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा

मेरे गीत तुम्हारे हैं /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

अब तक मेरे गीतों में उम्मीद भी थी पसपाई भी
मौत के क़दमों की आहट भी, जीवन की अंगड़ाई भी
मुस्तकबिल की किरणें भी थीं, हाल की बोझल ज़ुल्मत भी
तूफानों का शोर भी था और ख्वाबों की शहनाई भी
 
आज से मैं अपने गीतों में आतश–पारे भर दूंगा
मद्धम लचकीली तानों में जीवन–धारे भर दूंगा
जीवन के अंधियारे पथ पर मशअल लेकर निकलूंगा
धरती के फैले आँचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा
आज से ऐ मज़दूर-किसानों! मेरे राग तुम्हारे हैं
फ़ाकाकश इंसानों! मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं
जब तक तुम भूके-नंगे हो, ये शोले खामोश न होंगे
जब तक बे-आराम हो तुम, ये नगमें राहत कोश न होंगे
 
मुझको इसका रंज नहीं है लोग मुझे फ़नकार न मानें
फ़िक्रों-सुखन के ताजिर मेरे शे’रों को अशआर न मानें
मेरा फ़न, मेरी उम्मीदें, आज से तुमको अर्पन हैं
आज से मेरे गीत तुम्हारे दुःख और सुख का दर्पन हैं
 
तुम से कुव्वत लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊँगा
तुम परचम लहराना साथी, मैं बरबत पर गाऊंगा
आज से मेरे फ़न का मकसद जंजीरें पिघलाना है
आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊंगा

नूरजहाँ की मज़ार पर /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जमहूर की क़बर
कितने गुमगुश्ता फ़सानों का पता देती है
कितने ख़ूरेज़ हक़ायक़ से उठाती है नक़ाब
कितनी कुचली हुइ जानों का पता देती है
 
कैसे मग़्रूर शहन्शाहों की तस्कीं के लिये
सालहासाल हसीनाओं के बाज़ार लगे
कैसे बहकी हुई नज़रों की तय्युश के लिये
सुर्ख़ महलों में जवाँ जिस्मों के अम्बार लगे
 
कैसे हर शाख से मुंह बंद महकती कलियाँ
नोच ली जाती थीं तजईने=हरम की खातिर
और मुरझा के भी आजादन हो सकती थीं
जिल्ले-सुबहान की उल्फत के भरम की खातिर
 
कैसे इक फर्द के होठों की ज़रा सी जुम्बिश
सर्द कर सकती थी बेलौस वफाओं के चिराग
लूट सकती थी दमकते हुए माथों का सुहाग
तोड़ सकती थी मये-इश्क से लबरेज़ अयाग
 
सहमी सहमी सी फ़िज़ाओं में ये वीराँ मर्क़द
इतना ख़ामोश है फ़रियादकुना हो जैसे
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाख़्वाँ हो जैसे
 
तू मेरी जाँ हैरत-ओ-हसरत से न देख
हम में कोई भी जहाँ नूर-ओ-जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़िके ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मेरा सात है ज़न्जीर नहीं
 
(मगरूर=घमंडी, तस्कीं=संतोष,चैन,
तकदीस=पवित्रता)

जागीर /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

फिर उसी वादी-ए-शादाब में लौट आया हूँ
जिस में पिन्हाँ मिरे ख़्वाबों की तरब-गाहें हैं
मेरे अहबाब के सामान-ए-ताय्युश के लिए
शोख़ सीने हैं जवाँ जिस्म हसीं बाँहें हैं
सब्ज़ खेतों में ये दुबकी हुई दोशीज़ाएँ
इन की शिरयानों में किस किस का लहू जारी है
किस में जुरअत है कि इस राज़ की तशहीर करे
सब के लब पर मिरी हैबत का फ़ुसूँ तारी है
हाए वो गर्म ओ दिल-आवेज़ उबलते सीने
जिन से हम सतवत-ए-आबा का सिला लेते हैं
जाने उन मरमरीं जिस्मों को ये मरियल दहक़ाँ
कैसे इन तेरह घरोंदों में जनम देते हैं
ये लहकते हुए पौदे ये दमकते हुए खेत
पहले अज्दाद की जागीर थे अब मेरे हैं
ये चारा-गाह ये रेवड़ ये मवेशी ये किसान
सब के सब मेरे हैं सब मेरे हैं सब मेरे हैं
इन की मेहनत भी मिरी हासिल-ए-मेहनत भी मिरा
इन के बाज़ू भी मिरे क़ुव्वत-ए-बाज़ू भी मिरी
मैं ख़ुदावंद हूँ उस वुसअत-ए-बे-पायाँ का
मौज-ए-आरिज़ भी मिरी निकहत-ए-गेसू भी मिरी
मैं उन अज्दाद का बेटा हूँ जिन्हों ने पैहम
अजनबी क़ौम के साए की हिमायत की है
उज़्र की साअत-ए-नापाक से ले कर अब तक
हर कड़े वक़्त में सरकार की ख़िदमत की है
ख़ाक पर रेंगने वाले ये फ़सुर्दा ढाँचे
इन की नज़रें कभी तलवार बनी हैं न बनीं
इन की ग़ैरत पे हर इक हाथ झपट सकता है
इन के अबरू की कमानें न तनी हैं न तनीं
हाए ये शाम ये झरने ये शफ़क़ की लाली
मैं इन आसूदा फ़ज़ाओं में ज़रा झूम न लूँ
वो दबे पाँव इधर कौन चली जाती है
बढ़ के उस शोख़ के तर्शे हुए लब चूम न लूँ

मादाम /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

आप बेवजह परेशान-सी क्यों हैं मादाम?
लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होँगे
मेरे अहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी
मेरे माहौल में इन्सान न रहते होँगे
 
नूर-ए-सरमाया से है रू-ए-तमद्दुन की जिला
हम जहाँ हैं वहाँ तहज़ीब नहीं पल सकती
मुफ़लिसी हिस्स-ए-लताफ़त को मिटा देती है
भूख आदाब के साँचे में नहीं ढल सकती
 
लोग कहते हैं तो, लोगों पे ताज्जुब कैसा
सच तो कहते हैं कि, नादारों की इज़्ज़त कैसी
लोग कहते हैं=मगर आप अभी तक चुप हैं
आप भी कहिए ग़रीबो में शराफ़त कैसी
 
नेक मादाम ! बहुत जल्द वो दौर आयेगा
जब हमें ज़ीस्त के अदवार परखने होंगे
अपनी ज़िल्लत की क़सम, आपकी अज़मत की क़सम
हमको ताज़ीम के मे'आर परखने होंगे
 
हम ने हर दौर में तज़लील सही है लेकिन
हम ने हर दौर के चेहरे को ज़िआ बक़्शी है
हम ने हर दौर में मेहनत के सितम झेले हैं
हम ने हर दौर के हाथों को हिना बक़्शी है
 
लेकिन इन तल्ख मुबाहिस से भला क्या हासिल?
लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होँगे
मेरे एहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी
मेरे माहौल में इन्सान न रहते होँगे
 
वजह बेरंगी-ए-गुलज़ार कहूँ या न कहूँ
कौन है कितना गुनहगार कहूँ या न कहूँ
 
(जिला=प्रकाश, लताफ़त=रुसवाई, ज़ीस्त=
ज़िन्दगी, ताज़ीम=महानता,बड़प्पन, मे'आर=
मानक,स्टैंडर्ड, तज़लील=अनादर करना,
ज़िआ=प्रकाश, मुबाहिस=विवाद)

आज /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

साथियो! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
चाँद, तारों, बहारों के सपने बुने
हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा
आरज़ूओं के ऐवां सजाता रहा
मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहा
आज लेकिन मिरे दामने-चाक में
गर्दे-राहे-सफ़र के सिवा कुछ नहीं
मेरे बरबत के सीने में नग्मों का दम घुट गया है
तानें चीखों के अम्बार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूँ, नग्मा नहीं हूँ
और नग्मे की तख्लाक का साज़ों-सामां
साथियों! आज तुमने भसम कर दिया है
और मैं, अपना टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ
मेरे चारों तरफ मौत की वहशतें नाचती हैं
और इंसान की हैवानियत जाग उठी है
बर्बरियत के खूंख्वार अफ़रीत
अपने नापाक जबड़ो को खोले
खून पी-पी के गुर्रा रहे हैं
बच्चे मांओं की गोद में सहमे हुए हैं
इस्मतें सर-बरह् ना परीशान हैं
हर तरफ़ शोरे-आहो-बुका है
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में
आग और खून के हैजान मैं
सरनिगूं और शिकस्ता मकानों के
मलबे से पुर रास्तों पर
अपने नग्मों की झोली पसारे
दर-ब-दर फिर रहा हूँ-
मुझको अम्न और तहजीब की भीक दो
मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नै
मेरे मजरुह होंटो को फिर सौंप दो
साथियों ! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
इन्किलाब और बग़ावत के नगमे अलापे
अजनबी राज के ज़ुल्म की छाओं में
सरफ़रोशी के ख्वाबीदा ज़ज्बे उभारे
इस सुबह की राह देखी
जिसमें इस मुल्क की रूह आज़ाद हो
आज जंज़ीरे-महकूमियत कट चुकी है
और इस मुल्क के बह्रो-बर, बामो-दर
अजनबी कौम के ज़ुल्मत-अफशां फरेरे की मनहूस
छाओं से आज़ाद हैं
खेत सोना उगलने को बेचैन हैं
वादियां लहलहाने को बेताब हैं
कोहसारों के सीने में हैजान है
संग और खिश्त बेख्वाब-ओ-बेदार हैं
इनकी आँखों में ता’मीर के ख्वाब हैं
इनके ख्वाबों को तक्मील का रुख दो
मुल्क की वादियां,घाटियों,
औरतें, बच्चियां-
हाथ फैलाए खैरात की मुन्तिज़र हैं
इनको अमन और तहज़ीब की भीक दो
मांओं को उनके होंटों की शादाबियां
नन्हें बच्चों को उनकी ख़ुशी बख्श दो
मुल्क की रूह को ज़िन्दगी बख्श दो
मुझको मेरा हुनर, मेरी लै बख्श दो
मेरे सुर बख्श दो, मेरी नै बख्श दो
आज सारी फ़जा है भिकारी
और मैं इस भिकारी फ़जा में
अपने नगमों की झोली पसरे
दर-ब–दर फिर रहा हूं
मुझको फिर मेरा खोया हुआ साज़ दो
मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहूंगा
 
(आरज़ूओं के ऐवां=कामनाओं के महल,
मुगन्नी=गायक, दामने-चाक में=फटे दामन
में, तख्लाक=रचना, वहशतें=वीभत्सताएँ,
हैवानियत=पशुता, बर्बरियत=बर्बरता,
अफ़रीत=राक्षस, इस्मतें=सतीत्व, बरह्ना=
नंगे, शोरे-आहो-बुका=आहों और विलाप का
शोर, हैजान=प्रचंडता, सरनिगूं=सिर झुकाए,
शिकस्ता=टूटे-फूटे, मजरुह=घायल, सरफ़रोशी=
बलिदान, ख्वाबीदा=सोये हुए, महकूमियत=
दासता, बह्रो-बर=समुद्र और धरती, बामो-दर=
छत और द्वार, ज़ुल्मत-अफशां=अन्धकार
फ़ैलाने वाले, फरेरे=झंडे, कोहसारों=पहाड़ों,
संग और खिश्त=पत्थर और ईंट,
बेख्वाब-ओ-बेदार=जागरूक, ता’मीर=निर्माण,
तक्मील=पूर्णता, मुन्तिज़र=प्रतीक्षित,
शादाबियां=खुशियाँ, फ़जा=वातावरण)

नया सफ़र है पुराने चराग़ गुल कर दो /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

फ़रेब-ए-जन्नत-ए-फ़र्दा के जाल टूट गए
हयात अपनी उमीदों पे शर्मसार सी है
चमन में जश्न-ए-वरूद-ए-बहार हो भी चुका
मगर निगाह-ए-गुल-ओ-लाला सोगवार सी है
फ़ज़ा में गर्म बगूलों का रक़्स जारी है
उफ़ुक़ पे ख़ून की मीना छलक रही है अभी
कहाँ का महर-ए-मुनव्वर कहाँ की तनवीरें
कि बाम-ओ-दर पे सियाही झलक रही है अभी
फ़ज़ाएँ सोच रही हैं कि इब्न-ए-आदम ने
ख़िरद गँवा के जुनूँ आज़मा के क्या पाया
वही शिकस्त-ए-तमन्ना वही ग़म-ए-अय्याम
निगार-ए-ज़ीस्त ने सब कुछ लुटा के क्या पाया
भटक के रह गईं नज़रें ख़ला की वुसअत में
हरीम-ए-शाहिद-ए-राना का कुछ पता न मिला
तवील राहगुज़र ख़त्म हो गई लेकिन
हनूज़ अपनी मसाफ़त का मुंतहा न मिला
सफ़र-नसीब रफ़ीक़ो क़दम बढ़ाए चलो
पुराने राह-नुमा लौट कर न देखेंगे
तुलू-ए-सुब्ह से तारों की मौत होती है
शबों के राज-दुलारे इधर न देखेंगे

मताअ-ए-गैर /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

मेरे ख़्वाबों के झरखों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है की नही
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नही
 
चार दिन की ये रिफ़ाकत जो रिफ़ाकत भी नही
उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
ज़िन्दगी यूँ तो हमेशा से परेशां सी थी
अब तो हर सांस गिराँ-बार हुई जाती है
 
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आती है
कभी अपनी सी कभी गैर नज़र आई है
कभी इखलास की मूरत कभी हरजाई है
 
प्यार पर बस तो नही है मेरा लेकिन फिर भी
तू बतादे कि तुझे प्यार करूँ या ना करूँ
तूने खुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इज़हार करूँ या ना करूँ
 
तू किसी और के दामन कि काली है लेकिन
मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की कसम
तेरी पलकें मेरी आँखों पे झुकी रहती हैं
 
तेरे हाथों की हरारत तेरी साँसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं ताखील की बाहें तुझको
सार्ड रातों को सुलगती हुई तन्हाई में
 
तेरा अल्ताफ-ओ-करम एक हकीकत है मगर
ये हकीकत भी हकीकत में फ़साना ना ही ना हो
तेरी माणूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ून करने का एक और बहाना ही ना हो
 
कौन जाने मेरे इमरोज़ का फ़र्दा क्या है
कुर्बतें बढ़के पशेमाँ भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीन नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती हैं
 
मेरी दरमान्दा जवानी के तमन्नाओं के
मुज़्महिल ख्वाब की ताबीर बतादे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्तां भी हैं वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बतादे मुझको

आवाज़े-आदम /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

दबेगी कब तलक आवाज़-ए-आदम हम भी देखेंगे
रुकेंगे कब तलक जज़्बात-ए-बरहम हम भी देखेंगे
चलो यूँही सही ये जौर-ए-पैहम हम भी देखेंगे
दर-ए-ज़िंदाँ से देखें या उरूज-ए-दार से देखें
तुम्हें रुस्वा सर-ए-बाज़ार-ए-आलम हम भी देखेंगे
ज़रा दम लो मआल-ए-शौकत-ए-जम हम भी देखेंगे
ये ज़ोम-ए-क़ुव्वत-ए-फ़ौलाद-ओ-आहन देख लो तुम भी
ब-फ़ैज़-ए-जज़्बा-ए-ईमान-ए-मोहकम हम भी देखेंगे
जबीन-ए-कज-कुलाही ख़ाक पर ख़म हम भी देखेंगे
मुकाफ़ात-ए-अमल तारीख़-ए-इंसाँ की रिवायत है
करोगे कब तलक नावक फ़राहम हम भी देखेंगे
कहाँ तक है तुम्हारे ज़ुल्म में दम हम भी देखेंगे
ये हंगाम-ए-विदा-ए-शब है ऐ ज़ुल्मत के फ़रज़ंदो
सहर के दोश पर गुलनार परचम हम भी देखेंगे
तुम्हें भी देखना होगा ये आलम हम भी देखेंगे

इंतज़ार /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

चाँद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है
 
दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्बत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर
हम तेरा इंतज़ार करते हैं
 
इन बहारों के साये में आजा
फिर मुहब्बत जवाँ रहे न रहे
ज़िंदगी तेरे नामुरादों पर
कल तलक मेहरबां रहे न रहे
 
रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की गर्द में ना खो जाएँ
आ तेरे ग़म में जागती आँखे
कम से कम एक रात सो जाएँ
 
चाँद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है

तेरी आवाज़ /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें
रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कमबख़्त को नींद आ जाए
 
देर तक आंखों में चुभती रही तारों की चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में
 
यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे
 
शहद सा घुल गया तल्ख़ाबा-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में
 
तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग़्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख़्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है
 
रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुक़ूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर
 
तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा
 
अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार
मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में
ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में
 
अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी
 
तेरे नग़्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे

खूबसूरत मोड़ /तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी

चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से
 
तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की
तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं
 
तआरुफ़ रोग बन जाए तो उसको भूलना बेहतर
तआलुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
 
चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Sahir Ludhianvi) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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