Jaan Nisar Akhtar - Nazmein

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

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जाँ निसार अख़्तर - नज़्में(toc) 

ख़ामोश आवाज़ - Jaan Nisar Akhtar

(एक साल के बाद जब जां निसार 'सफ़िया' के मज़ार
पर पहुंचे तो यह नज़्म उन्होंने 'सफ़िया' की मनोव्यथा
प्रकट करते लिखी। इस नज़्म कुल ४७ बन्द हैं )
 
कितने दिन में आए हो साथी
मेरे सोते भाग जगाने
मुझ से अलग इस एक बरस में
क्या क्या बीती तुम पे न जाने
 
देखो कितने थक से गए हो
कितनी थकन आँखों में घुली है
आओ तुम्हारे वास्ते साथी
अब भी मिरी आग़ोश खुली है
 
चुप हो क्यूँ? क्या सोच रहे हो
आओ सब कुछ आज भुला दो
आओ अपने प्यारे साथी
फिर से मुझे इक बार जिला दो
 
बोलो साथी कुछ तो बोलो
कब तक आख़िर आह भरूँगी
तुम ने मुझ पर नाज़ किए हैं
आज मैं तुम से नाज़ करूँगी
 
आओ मैं तुम से रूठ सी जाऊँ
आओ मुझे तुम हँस के मना लो
मुझ में सच-मुच जान नहीं है
आओ मुझे हाथों पे उठा लो
 
तुम को मेरा ग़म है साथी
कैसे अब इस ग़म को भुलाऊँ
अपना खोया जीवन बोलो
आज कहाँ से ढूँड के लाऊँ
 
ये न समझना मेरे साजन
दे न सकी मैं साथ तुम्हारा
ये न समझना मेरे दिल को
आज तुम्हारा दुख है गवारा
 
ये न समझना मैं ने तुम से
जान के यूँ मुँह मोड़ लिया है
ये न समझना मैं ने तुम से
दिल का नाता तोड़ लिया है
 
ये न समझना तुम से मैं ने
आज किया है कोई बहाना
दुनिया मुझ से रूठ चुकी है
साथी तुम भी रूठ न जाना
 
आज भी साजन मैं हूँ तुम्हारी
आज भी तुम हो मेरे अपने
आज भी इन आँखों में बसे हैं
प्यारे के अनमिट गहरे सपने
 
दिल की धड़कन डूब भी जाए
दिल की सदाएँ थक न सकेंगी
मिट भी जाऊँ फिर भी तुम से
मेरी वफ़ाएँ थक न सकेंगी
 
ये तो पूछो मुझ से छुट कर
तेरे दिल पर क्या क्या गुज़री
तुम बिन मेरी नाव तो साजन
ऐसी डूबी फिर न उभरी
 
एक तुम्हारा प्यार बचा है
वर्ना सब कुछ लुट सा गया है
एक मुसलसल रात कि जिस में
आज मिरा दम घुट सा गया है
 
आज तुम्हारा रस्ता तकते
मैं ने पूरा साल बिताया
कितने तूफ़ानों की ज़द पर
मैं ने अपना दीप जलाया
 
तुम बिन सारे मौसम बीते
आए झोंके सर्द हवा के
नर्म गुलाबी जाड़े गुज़रे
मेरे दिल में आग लगा के
 
सावन आया धूम मचाता
घिर-घिर काले बादल छाए
मेरे दिल पर जम से गए हैं
जाने कितने गहरे साए
 
चाँद से जब भी बादल गुज़रा
दिल से गुज़रा अक्स तुम्हारा
फूल जो चटके मैं ने जाना
तुम ने शायद मुझ को पुकारा
 
आईं बहारें मुझ को मनाने
तुम बिन मैं तो मुँह न बोली
लाख फ़ज़ा में गीत से गूँजे
लेकिन मैं ने आँख न खोली
 
कितनी निखरी सुब्हें गुज़रीं
कितनी महकी शामें छाईं
मेरे दिल को दूर से तकने
जाने कितनी यादें आईं
 
इतनी मुद्दत ब'अद तो प्रीतम
आज कली हृदय की खिली है
कितनी रातें जाग के साजन
आज मुझे ये रात मिली है
 
बोलो साथी कुछ तो बोलो
कुछ तो दिल की बात बताओ
आज भी मुझ से दूर रहोगे
आओ मिरे नज़दीक तो आओ
 
आओ मैं तुम को बहला लूँगी
बैठ तो जाओ मेरे सहारे
आज तुम्हें क्यूँ ग़म है बोलो
आज तो मैं हूँ पास तुम्हारे
 
अच्छा मेरा ग़म न भुलाओ
मेरा ग़म हर ग़म में समोलो
इस से अच्छी बात न होगी
ये तो तुम्हें मंज़ूर है बोलो
 
मेरे ग़म को मेरे शाएर
अपने जवाँ गीतों में रचा लो
मेरे ग़म को मेरे शाएर
सारे जग की आग बना लो
 
मेरे ग़म की आँच से साथी
चौंक उठेगा अज़्म तुम्हारा
बात तो जब है लाखों दिल को
छू ले अपने प्यार का धारा
 
मैं जो तुम्हारे साथ नहीं हूँ
दिल को मत मायूस करो तुम
तुम हो तन्हा तुम हो अकेले
ऐसा क्यूँ महसूस करो तुम
 
आज हमारे लाखों साथी
साथी हिम्मत हार न जाओ
आज करोड़ों हाथ बढ़ेंगे
एक ज़रा तुम हाथ बढ़ाओ
 
अच्छा अब तो हँस दो साथी
वर्ना देखो रो सी पड़ूँगी
बोलो साथी कुछ तो बोलो
आज मैं सच-मुच तुम से लड़ूँगी
 
जाग उठी लो दुनिया मेरी
आई हँसी वो लब पे तुम्हारे
देखो देखो मेरी जानिब
दौड़ पड़े हैं चाँद सितारे
 
झिलमिल झिलमिल किरनें आईं
मुझ को चंदन-हार पहनाने
जगमग जगमग तारे आए
फिर से मेरी माँग सजाने
 
आईं हवाएँ झाँझ बजाती
गीतों मोरा अंगना जागा
मोरे माथे झूमर दमका
मोरे हाथों कंगना जागा
 
जाग उठा है सारा आलम
जाग उठी है रात मिलन की
आओ ज़मीं की गोद में साजन
सेज सजी है आज दुल्हन की
 
आओ जाती रात है साथी
प्यार तुम्हारा दिल में भर लूँ
आओ तुम्हारी गोद में साजन
थक कर आँखें बंद सी कर लूँ
 
उट्ठो साथी दूर उफ़ुक़ का
नर्म किनारा काँप उठा है
मेरे दिल की धड़कन बन कर
सुब्ह का तारा काँप उठा है
 
दिल की धड़कन डूब के रह जा
जागी नबज़ो थम सी जाओ
फिर से मेरी बे-नम आँखो
पत्थर बन कर जम सी जाओ
 
मेरे ग़म का ग़म न करो तुम
अच्छा अब से ग़म न करूँगी
मेरे इरादों वाले साथी
जाओ मैं हिम्मत कम न करूँगी
 
तुम को हँस कर रुख़्सत कर दूँ
सब कुछ मैं ने हँस के सहा है
तुम बिन मुझ में कुछ न रहेगा
यूँ भी अब क्या ख़ाक रहा है
 
देखो! कितने काम पड़े हैं
अच्छा अब मत देर करो तुम
कैसे जम कर रह से गए हो
इतना मत अंधेर करो तुम
 
बोलो तुम को कैसे रोकूँ
दुनिया सौ इल्ज़ाम धरेगी
ऐसे पागल प्यार को साथी
सारी ख़िल्क़त नाम धरेगी
 
आओ मैं उलझे बाल संवारूँ
मुझ से कोई काम तो ले लो
फिर से गले इक बार लगा के
प्यार से मेरा नाम तो ले लो
 
अच्छा साथी! जाओ सिधारो
अब की इतने दिन न लगाना
प्यासी आँखें राह तकेंगी!
साजन जल्दी लौट के आना
 
लेकिन ठहरो, ठहरो साथी
दिल को ज़रा तय्यार तो कर लूँ
आओ मिरे परदेसी साजन!
आओ मैं तुम को प्यार तो कर लूँ
('जाविदां' से )

महकती हुई रात - Jaan Nisar Akhtar

(अपनी शादी की सालगिरह (२५ दिसम्बर १९५२) पर लिखी नज़्म)
 
ये तेरे प्यार की ख़ुश्बू से महकती हुई रात
अपने सीने में छुपाये तेरे दिल की धड़कन
आज फिर तेरी अदा से मेरे पास आई है
 
अपनी आँखों में तेरी ज़ुल्फ़ का डाले काजल
अपनी पलकों में सजाये हुए अरमानो के ख्वाब
अपने आँचल पे तमन्ना के सितारे टाँके
गुनगुनाती हुई यादों की लवें जाग उठी
कितने गुज़रे हुए लम्हों के चमकते जुगनू
दिल को हाले में लिए नाच रहे हैं कब से
 
कितने लम्हे जो तेरी ज़ुल्फ़ के साये के तले
ग़र्क़ होकर तेरी आँखों के हसीं सागर में
ग़म-ऐ-दौराँ से बहुत दूर गुज़ारे मैंने
 
कितने लम्हे की तेरी प्यार भरी नज़रों ने
किस सलीक़े से सजाई मेरे दिल की महफ़िल
किस क़रीने से सिखाया मुझे जीने का शऊर
 
कितने लम्हे की हसीं नर्म सुबक आँचल से
तुने बढ़कर मेरे माथे का पसीना पोंछा
चांदनी बन गयी राहों की कड़ी धुप मुझे
 
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-ज़ीस्त के तूफानों में
जिंदगानी की जलाये हुए बाग़ी मशाल
तू मेरा अजम-ऐ-जवाँ बनकर मेरे साथ रही
 
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-दिल से उभर कर हमने
इक नयी सुबह-ऐ-मुहब्बत की लगन अपनाई
सारी दुनिया के लिए, सारे ज़माने के लिए
 
इन्ही लम्हों के गुल-आवेज़ शरारों का तुझे
गूंधकर आज कोई हार पहना दूं, आ आ
चूमकर मांग तेरी तुझको सजा दूं, आ आ

तजज़िया - Jaan Nisar Akhtar

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी जब पास तू नहीं होती
ख़ुद को कितना उदास पाता हूँ
गुम से अपने हवास पाता हूँ
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक ख़मोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ़्तुगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी रह रह के मेरे कानों में
गूँजती है तिरी हसीं आवाज़
जैसे नादीदा कोई बजता साज़
हर सदा नागवार होती है
इन सुकूत-आश्ना तरानों में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
इस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
 
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
उस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

ख़ाक-ए-दिल - Jaan Nisar Akhtar

(सफ़िया के इंतकाल पर लखनऊ से लौटते हुए)
 
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं
आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ
 
दफ़्न है देख मेरा अहद-ए-बहाराँ तुझ में
दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग
मेरी शादाब तमन्ना के महकते हुए ख़्वाब
मेरी बेदार जवानी के फ़िरोज़ाँ मह ओ साल
मेरी शामों की मलाहत मिरी सुब्हों का जमाल
मेरी महफ़िल का फ़साना मिरी ख़ल्वत का फ़ुसूँ
मेरी दीवानगी-ए-शौक़ मिरा नाज़-ए-जुनूँ
 
मेरे मरने का सलीक़ा मिरे जीने का शुऊर
मेरा नामूस-ए-वफ़ा मेरी मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम मिरे नग़्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट मिरे गीतों का सिंगार
लखनऊ अपना जहाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को
 
अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
दफ़्न हैं इस में मोहब्बत के ख़ज़ाने कितने
एक उनवान में मुज़्मर हैं फ़साने कितने
इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़
अपने बच्चों के लड़कपन को कलेजे से लगाए
अपने खिलते हुए मासूम शगूफ़ों के लिए
बंद आँखों में बहारों के जवाँ ख़्वाब बसाए
 
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
एक साथी भी तह-ए-ख़ाक यहाँ सोती है
अरसा-ए-दहर की बे-रहम कशाकश का शिकार
जान दे कर भी ज़माने से न माने हुए हार
अपने तेवर में वही अज़्म-ए-जवाँ-साल लिए
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
देख इक शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र जलती है
 
जगमगाता है अगर कोई निशान-ए-मंज़िल
ज़िंदगी और भी कुछ तेज़ क़दम चलती है
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़्वाब-गह-ए-नाज़ पे कल मौज-ए-सबा
ले के नौ-रोज़-ए-बहाराँ की ख़बर आएगी
सुर्ख़ फूलों का बड़े नाज़ से गूँथे हुए हार
कल इसी ख़ाक पे गुल-रंग सहर आएगी
कल इसी ख़ाक के ज़र्रों में समा जाएगा रंग
कल मेरे प्यार की तस्वीर उभर आएगी
 
ऐ मिरी रूह-ए-चमन ख़ाक-ए-लहद से तेरी
आज भी मुझ को तिरे प्यार की बू आती है
ज़ख़्म सीने के महकते हैं तिरी ख़ुश्बू से
वो महक है कि मिरी साँस घुटी जाती है
मुझ से क्या बात बनाएगी ज़माने की जफ़ा
मौत ख़ुद आँख मिलाते हुए शरमाती है
 
मैं और इन आँखों से देखूँ तुझे पैवंद-ए-ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं हाए नहीं हाए नहीं
कोई ऐ काश बुझा दे मिरी आँखों के दिए
छीन ले मुझ से कोई काश निगाहें मेरी
ऐ मिरी शम-ए-वफ़ा ऐ मिरी मंज़िल के चराग़
आज तारीक हुई जाती हैं राहें मेरी
तुझ को रोऊँ भी तो क्या रोऊँ कि इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थम से गए हैं मेरे
 
फिर भी इस अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल से मुझे
कोई आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता है
आज सोता ही तुझे छोड़ के जाना होगा
नाज़ ये भी ग़म-ए-दौराँ का उठाना होगा
ज़िंदगी देख मुझे हुक्म-ए-सफ़र देती है
इक दिल-ए-शोला-ब-जाँ साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तू ने कभी अज़्म-ए-जवाँ बख़्शा था!
मैं वही अज़्म-ए-जवाँ साथ लिए जाता हूँ
 
चूम कर आज तिरी ख़ाक-ए-लहद के ज़र्रे
अन-गिनत फूल मोहब्बत के चढ़ाता जाऊँ
जाने इस सम्त कभी मेरा गुज़र हो कि न हो
आख़िरी बार गले तुझ को लगाता जाऊँ
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना

आख़िरी मुलाक़ात - Jaan Nisar Akhtar

मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं
 
दो पाँव बने हरियाली पर
एक तितली बैठी डाली पर
कुछ जगमग जुगनू जंगल से
कुछ झूमते हाथी बादल से
ये एक कहानी नींद भरी
इक तख़्त पे बैठी एक परी
कुछ गिन गिन करते परवाने
दो नन्हे नन्हे दस्ताने
कुछ उड़ते रंगीं ग़ुबारे
बब्बू के दुपट्टे के तारे
ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का
ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं
 
अलसाई हुई रुत सावन की
कुछ सौंधी ख़ुश्बू आँगन की
कुछ टूटी रस्सी झूले की
इक चोट कसकती कूल्हे की
सुलगी सी अँगीठी जाड़ों में
इक चेहरा कितनी आड़ों में
कुछ चाँदनी रातें गर्मी की
इक लब पर बातें नरमी की
कुछ रूप हसीं काशानों का
कुछ रंग हरे मैदानों का
कुछ हार महकती कलियों के
कुछ नाम वतन की गलियों के
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं
 
कुछ चाँद चमकते गालों के
कुछ भँवरे काले बालों के
कुछ नाज़ुक शिकनें आँचल की
कुछ नर्म लकीरें काजल की
इक खोई कड़ी अफ़्सानों की
दो आँखें रौशन-दानों की
इक सुर्ख़ दुलाई गोट लगी
क्या जाने कब की चोट लगी
इक छल्ला फीकी रंगत का
इक लॉकेट दिल की सूरत का
रूमाल कई रेशम से कढ़े
वो ख़त जो कभी मैं ने न पढ़े
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
में ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं
 
कुछ उजड़ी माँगें शामों की
आवाज़ शिकस्ता जामों की
कुछ टुकड़े ख़ाली बोतल के
कुछ घुँगरू टूटी पायल के
कुछ बिखरे तिनके चिलमन के
कुछ पुर्ज़े अपने दामन के
ये तारे कुछ थर्राए हुए
ये गीत कभी के गाए हुए
कुछ शेर पुरानी ग़ज़लों के
उनवान अधूरी नज़्मों के
टूटी हुई इक अश्कों की लड़ी
इक ख़ुश्क क़लम इक बंद घड़ी
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं
 
कुछ रिश्ते टूटे टूटे से
कुछ साथी छूटे छूटे से
कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें
कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें
कुछ आँसू छलके छलके से
कुछ मोती ढलके ढलके से
कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से
कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से
कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में
कुछ भटकी भटकी आशाएँ
कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं
ये ग़ैर नहीं सब अपने हैं
मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

आख़िरी लम्हा - Jaan Nisar Akhtar

तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो
मेरा इक पाँव जब रिकाब में है
दिल की धड़कन है डूबने के क़रीब
साँस हर लहज़ा पेच-ओ-ताब में है
टूटते बे-ख़रोश तारों की
आख़िरी कपकपी रुबाब में है
कोई मंज़िल न जादा-ए-मंज़िल
रास्ता गुम किसी सराब में है
तुम को चाहा किया ख़यालों में
तुम को पाया भी जैसे ख़्वाब में है
तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो
मेरा इक पाँव जब रिकाब में है
 
मैं सोचता था कि तुम आओगी तुम्हें पा कर
मैं इस जहान के दुख-दर्द भूल जाऊँगा
गले में डाल के बाँहें जो झूल जाओगी
मैं आसमान के तारे भी तोड़ लाऊँगा
 
तुम एक बेल की मानिंद बढ़ती जाओगी
न छू सकेंगी हवादिस की आँधियाँ तुम को
मैं अपनी जान पे सौ आफ़तें उठा लूँगा
छुपा के रक्खूँगा बाँहों के दरमियाँ तुम को
 
मगर मैं आज बहुत दूर जाने वाला हूँ
बस और चंद नफ़स को तुम्हारे पास हूँ मैं
तुम्हें जो पा के ख़ुशी है तुम उस ख़ुशी पे न जाओ
तुम्हें ये इल्म नहीं किस क़दर उदास हूँ मैं
क्या तुम को ख़बर इस दुनिया की क्या तुम को पता इस दुनिया का
मासूम दिलों को दुख देना शेवा है इस दुनिया का
ग़म अपना नहीं ग़म इस का है कल जाने तुम्हारा क्या होगा
परवान चढ़ोगी तुम कैसे जीने का सहारा क्या होगा
आओ कि तरसती बाँहों में इक बार तो तुम को भर लूँ मैं
कल तुम जो बड़ी हो जाओगी जब तुम को शुऊर आ जाएगा
कितने ही सवालों का धारा एहसास से टकरा जाएगा
सोचोगी कि दुनिया तबक़ों में तक़्सीम है क्यूँ ये फेर है क्या
इंसान का इंसाँ बैरी है ये ज़ुल्म है क्या अंधेर है क्या
ये नस्ल है क्या ये ज़ात है क्या ये नफ़रत की तालीम है क्यूँ
दौलत तो बहुत है मुल्कों में दौलत की मगर तक़्सीम है क्यूँ
तारीख़ बताएगी तुम को इंसाँ से कहाँ पर भूल हुई
सरमाए के हाथों लोगों की किस तरह मोहब्बत धूल हुई
सदियों से बराबर मेहनत-कश हालात से लड़ते आए हैं
छाई है जो अब तक धरती पर उस रात से लड़ते आए हैं
दुनिया से अभी तक मिट न सका पर राज इजारा-दारी का
ग़ुर्बत है वही अफ़्लास वही रोना है वही बेकारी का
मेहनत की अभी तक क़द्र नहीं मेहनत का अभी तक मोल नहीं
ढूँडे नहीं मिलतीं वो आँखें जो आँखें हो कश्कोल नहीं
सोचा था कि कल इस धरती पर इक रंग नया छा जाएगा
इंसान हज़ार बरसों की मेहनत का समर पा जाएगा
जीने का बराबर हक़ सब को जब मिलता वो पल आ न सका
जिस कल की ख़ातिर जीते-जी मरते रहे वो कल आ न सका
लेकिन ये लड़ाई ख़त्म नहीं ये जंग न होगी बंद कभी
सौ ज़ख़्म भी खा कर मैदाँ से हटते नहीं जुरअत-मंद कभी
 
वो वक़्त कभी तो आएगा जब दिल के चमन लहराएँगे
मर जाऊँ तो क्या मरने से मिरे ये ख़्वाब नहीं मर जाएँगे
ये ख़्वाब ही मेरी दौलत हैं ये ख़्वाब तुम्हें दे जाऊँगा
इस दहर में जीने मरने के आदाब तुम्हें दे जाऊँगा
मुमकिन है कि ये दुनिया की रविश पल भर को तुम्हारा साथ न दे
काँटों ही का तोहफ़ा नज़्र करे फूलों की कोई सौग़ात न दे
मुमकिन है तुम्हारे रस्ते में हर ज़ुल्म-ओ-सितम दीवार बने
सीने में दहकते शोले हों हर साँस कोई आज़ार बने
ऐसे में न खुल कर रह जाना अश्कों से न आँचल भर लेना
ग़म आप बड़ी इक ताक़त है ये ताक़त बस में कर लेना
हो अज़्म तो लौ दे उठता है हर ज़ख़्म सुलगते सीने का
जो अपना हक़ ख़ुद छीन सके मिलता है उसे हक़ जीने का
लेकिन ये हमेशा याद रहे इक फ़र्द की ताक़त कुछ भी नहीं
जो भी हो अकेले इंसाँ से दुनिया की बग़ावत कुछ भी नहीं
तन्हा जो किसी को पाएँगे ताक़त के शिकंजे जकड़ेंगे
सौ हाथ उठेंगे जब मिल कर दुनिया का गरेबाँ पकड़ेंगे
इंसान वही है ताबिंदा उस राज़ से जिस का सीना है
औरों के लिए तो जीना ही ख़ुद अपने लिए भी जीना है
 
जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है
हर शर के बावजूद ये दुनिया हसीन है
दरिया की तुंद बाढ़ भयानक सही मगर
तूफ़ाँ से खेलता हुआ तिनका हसीन है
सहरा का हर सुकूत डराता रहे तो क्या
जंगल को काटता हुआ रस्ता हसीन है
दिल को हिलाए लाख घटाओं की घन-गरज
मिट्टी पे जो गिरा है वो क़तरा हसीन है
दहशत दिला रही हैं चटानें तो क्या हुआ
पत्थर में जो सनम है वो कितना हसीन है
रातों की तीरगी है जो पुर-हौल ग़म नहीं
सुब्हों का झाँकता हुआ चेहरा हसीन है
हों लाख कोहसार भी हाएल तो क्या हुआ
पल पल चमक रहा है जो तेशा हसीन है
लाखों सऊबतों का अगर सामना भी हो
हर जोहद हर अमल का तक़ाज़ा हसीन है
 
चमन से चंद ही काँटे मैं चुन सका लेकिन
बड़ी है बात जो तुम रंग-ए-गुल निखार सको
ये दूर दौर-ए-जहाँ काश तुम को रास आए
तुम इस ज़मीन को कुछ और भी सँवार सको
अमल तुम्हारा ये तौफ़ीक़ दे सके तुम को
कि ज़िंदगी का हर इक क़र्ज़ तुम उतार सको
 
सफ़र हयात का आसान हो ही जाता है
अगर हो दिल को सहारा किसी की चाहत का
वो प्यार जिस में न हो अक़्ल ओ दिल की यक-जेहती
किसी तरीक़ से जज़्बा नहीं मोहब्बत का
हज़ारों साल में तहज़ीब-ए-जिस्म निखरी है
बजा कि जिंस तक़ाज़ा है एक फ़ितरत का
 
तुम्हें कल अपने शरीक-ए-सफ़र को चुनना है
वो जिस से तुम को मोहब्बत मिले रिफ़ाक़त भी
हज़ार एक हों दो ज़ेहन मुख़्तलिफ़ होंगे
ये बात तल्ख़ है लेकिन है ऐन-फ़ितरत भी
बहुत हसीन है ज़ेहनी मुफ़ाहमत लेकिन
बड़ी अज़ीम है आदर्श की हिफ़ाज़त भी
 
कभी ये गुल भी नज़र को फ़रेब देते हैं
हर एक फूल में तमईज़-ए-रंग-ओ-बू रखना
ख़याल जिस का गुज़र-गाह-ए-सद-बहाराँ है
हर इक क़दम उसी मंज़िल की आरज़ू रखना
कोई भी फ़र्ज़ हो ख़्वाहिश से फिर भी बरतर है
तमाम उम्र फ़राएज़ की आबरू रखना
 
तुम एक ऐसे घराने की लाज हो जिस ने
हर एक दौर को तहज़ीब ओ आगही दी है
तमाम मंतिक़ ओ हिकमत तमाम इल्म ओ अदब
चराग़ बन के ज़माने को रौशनी दी है
जिला-वतन हुए आज़ादी-ए-वतन के लिए
मरे तो ऐसे कि औरों को ज़िंदगी दी है
 
ग़म-ए-हयात से लड़ते गुज़ार दी मैं ने
मगर ये ग़म है तुम्हें कुछ ख़ुशी न दे पाया
वो प्यार जिस से लड़कपन के दिन महक उट्ठें
वो प्यार भी मैं तुम्हें दो घड़ी न दे पाया
मैं जानता हूँ कि हालात साज़गार न थे
मगर मैं ख़ुद को तसल्ली कभी न दे पाया
 
ये मेरी नज़्म मिरा प्यार है तुम्हारे लिए
ये शेर तुम को मिरी रूह का पता देंगे
यही तुम्हें मिरे अज़्म ओ अमल की देंगे ख़बर
यही तुम्हें मिरी मजबूरियाँ बता देंगे
कभी जो ग़म के अँधेरे में डगमगाओगी
तुम्हारी राह में कितने दिए जला देंगे
 
अब मिरे पास और वक़्त नहीं
साँस हर लहज़ा इज़्तिराब में है
लर्ज़ां लर्ज़ां कोई धुँदलका सा
डूबते ज़र्द आफ़्ताब में है
मौत को किस लिए हिजाब कहें
किस को मालूम क्या हिजाब में है
 
जिस्म-ओ-जाँ का ये आरज़ी रिश्ता
कितना मिलता हुआ हुबाब में है
आज जो है वो कल नहीं होगा
आदमी कौन से हिसाब में है
ख़ुद ज़माने बदलते रहते हैं
ज़िंदगी सिर्फ़ इंक़लाब में है
 
आओ आँखों में डाल दो आँखें
रूह अब नज़'अ के अज़ाब में है
थरथराता हुआ तुम्हारा अक्स
कब से इस दीदा-ए-पुर-आब में है
 
रौशनी देर से आँखों की बुझी जाती है
ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं देता मुझ को
एक चेहरा मिरे चेहरे पे झुका आता है
कौन है ये भी सुझाई नहीं देता मुझ को
सिर्फ़ सन्नाटे की आवाज़ चली आती है
और तो कुछ भी सुनाई नहीं देता मुझ को
 
आओ उस चाँद से माथे को ज़रा चूम तो लूँ
फिर न होगा तुम्हें ये प्यार नसीब आ जाओ
आख़िरी लम्हा है सीने पे मिरे सर रख दो
दिल की हालत हुई जाती है अजीब आ जाओ
न अइज़्ज़ा न अहिब्बा न ख़ुदा है न रसूल
कोई इस वक़्त नहीं मेरे क़रीब आ जाओ
तुम तो क़रीब आ जाओ!

एहसास - Jaan Nisar Akhtar

मैं कोई शे'र न भूले से कहूँगा तुझ पर
फ़ायदा क्या जो मुकम्मल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फ़ाज़ के साँचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूँ के तेरे हुस्न की तोहीन न हो
 
हर मुसव्विर ने तेरा नक़्श बनाया लेकिन
कोई भी नक़्श तेरा अक्से-बदन बन न सका
लब-ओ-रुख़्सार में क्या क्या न हसीं रंग भरे
पर बनाए हुए फूलों से चमन बन न सका
 
हर सनम साज़ ने मर-मर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ़्तार कहाँ से लाता
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पहना दी लेकिन
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता
 
शाइरों ने तुझे तमसील में लाना चाहा
एक भी शे'र न मोज़ूँ तेरी तस्वीर बना
तेरी जैसी कोई शै हो तो कोई बात बने
ज़ुल्फ़ का ज़िक्र भी अल्फ़ाज़ की ज़ंजीर बना
 
तुझको को कोई परे-परवाज़ नहीं छू सकता
किसी तख़्यील में ये जान कहाँ से आए
एक हलकी सी झलक तेरी मुक़य्यद करले
कोई भी फ़न हो ये इमकान कहाँ से आए
 
तेर शायाँ कोईपेरायाए-इज़हार नहीं
सिर्फ़ वजदान में इक रंग सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फ़क़त दिल में उतर सकती है

बगूला - Jaan Nisar Akhtar

जून का तपता महीना तिम्तिमाता आफ़्ताब
ढल चुका है दिन के साँचे में जहन्नम का शबाब
दोपहर इक आतिश-ए-सय्याल बरसाती हुई
सीना-ए-कोहसार में लावा सा पिघलाती हुई
वो झुलसती घास वो पगडंडियाँ पामाल सी
नहर के लब ख़ुश्क से ज़र्रों की आँखें लाल सी
चिलचिलाती धूप में मैदान को चढ़ता बुख़ार
आह के मानिंद उठता हल्का हल्का सा ग़ुबार
देख वो मैदान में है इक बगूला बे-क़रार
आँधियों की गोद में हो जैसे मुफ़लिस का मज़ार
चाक पर जैसे बनाए जा रहे हों ज़लज़ले
या जुनूँ तय कर रहा हो गर्दिशों के मरहले
ढालना चाहे ज़मीं जिस तरह कोई आसमाँ
जैसे चक्कर खा के निकले तोप के मुँह से धुआँ
मिल रहा हो जिस तरह जोश-ए-बग़ावत को फ़राग़
जंग छिड़ जाने पे जैसे एक लीडर का दिमाग़
ख़शमगीं अबरू पे डाले ख़ाक-आलूदा नक़ाब
जंगलों की राह से आए सफ़ीर-ए-इंक़लाब
यूँ बगूले में हैं तपते सुर्ख़ ज़र्रे बे-क़रार
जिस तरह अफ़्लास के दिल में बग़ावत के शरार
कस क़दर आज़ाद है ये रूह-ए-सहरा ये भी देख
कस तरह ज़र्रों में है तूफ़ान बरपा ये भी देख
उठ बगूले की तरह मैदान में गाता निकल
ज़िंदगी की रूह हर ज़र्रे में दौड़ाता निकल

गर्ल्स कॉलेज की लारी - Jaan Nisar Akhtar

फ़ज़ाओं में है सुब्ह का रंग तारी
गई है अभी गर्ल्स कॉलेज की लारी
गई है अभी गूँजती गुनगुनाती
ज़माने की रफ़्तार का राग गाती
लचकती हुई सी छलकती हुई सी
बहकती हुई सी महकती हुई सी
वो सड़कों पे फूलों की धारी सी बनती
इधर से उधर से हसीनों को चुनती
झलकते वो शीशों में शादाब चेहरे
वो कलियाँ सी खुलती हुई मुँह अंधेरे
वो माथे पे साड़ी के रंगीं किनारे
सहर से निकलती शफ़क़ के इशारे
किसी की अदा से अयाँ ख़ुश-मज़ाक़ी
किसी की निगाहों में कुछ नींद बाक़ी
किसी की नज़र में मोहब्बत के दोहे
सखी री ये जीवन पिया बिन न सोहे
ये खिड़की का रंगीन शीशा गिराए
वो शीशे से रंगीन चेहरा मिलाए
ये चलती ज़मीं पे निगाहें जमाती
वो होंटों में अपने क़लम को दबाती
ये खिड़की से इक हाथ बाहर निकाले
वो ज़ानू पे गिरती किताबें सँभाले
किसी को वो हर बार तेवरी सी चढ़ती
दुकानों के तख़्ते अधूरे से पढ़ती
कोई इक तरफ़ को सिमटती हुई सी
किनारे को साड़ी के बटती हुई सी
वो लारी में गूँजे हुए ज़मज़मे से
दबी मुस्कुराहट सुबुक क़हक़हे से
वो लहजों में चाँदी खनकती हुई सी
वो नज़रों से कलियाँ चटकती हुई सी
सरों से वो आँचल ढलकते हुए से
वो शानों से साग़र छलकते हुए से
जवानी निगाहों में बहकी हुई सी
मोहब्बत तख़य्युल में बहकी हुई सी
वो आपस की छेड़ें वो झूटे फ़साने
कोई उन की बातों को कैसे न माने
फ़साना भी उन का तराना भी उन का
जवानी भी उन की ज़माना भी उन का

हसीं आग - Jaan Nisar Akhtar

तेरी पेशानी-ए-रंगीं में झलकती है जो आग
तेरे रुख़्सार के फूलों में दमकती है जो आग
तेरे सीने में जवानी की दहकती है जो आग
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
तेरी आँखों में फ़रोज़ाँ हैं जवानी के शरार
लब-ए-गुल-रंग पे रक़्साँ हैं जवानी के शरार
तेरी हर साँस में ग़लताँ हैं जवानी के शरार
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
हर अदा में है जवाँ आतिश-ए-जज़्बात की रौ
ये मचलते हुए शोले ये तड़पती हुई लौ
आ मिरी रूह पे भी डाल दे अपना परतव
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम
कैसी धुँदली मिरी राहें हैं तुझे क्या मालूम
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
आ कि ज़ुल्मत में कोई नूर का सामाँ कर लूँ
अपने तारीक शबिस्ताँ को शबिस्ताँ कर लूँ
इस अँधेरे में कोई शम्अ फ़रोज़ाँ कर लूँ
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
बार-ए-ज़ुल्मात से सीने की फ़ज़ा है बोझल
न कोई साज़-ए-तमन्ना न कोई सोज़-ए-अमल
आ कि मशअल से तिरी मैं भी जला लूँ मशअल
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

हव्वा की बेटी - Jaan Nisar Akhtar

शिद्दत-ए-इफ़्लास से जब ज़िंदगी थी तुझ पे तंग
इश्तिहा के साथ थी जब ग़ैरत ओ इस्मत की जंग
घात में तेरी रहा ये ख़ुद-ग़रज़ सरमाया-दार
खेलता है जो बराबर नौ-ए-इंसाँ का शिकार
रफ़्ता रफ़्ता लूट ली तेरी मता-ए-आबरू
ख़ूब चूसा तेरी रग रग से जवानी का लहू
खेलते हैं आज भी तुझ से यही सरमाया-दार
ये तमद्दुन के ख़ुदा तहज़ीब के पर्वरदिगार
सामने दुनिया के तुफ़ करते हैं तेरे नाम पर
ख़ल्वतों में जो तिरे क़दमों पे रख देते हैं सर
रास्ते में दिन को ले सकते नहीं तेरा सलाम
रात को जो तेरे हाथों से चढ़ा जाते हैं जाम
तेरे कूचा से जिन्हें हो कर गुज़रना है गुनाह
गर्म उन की साँस से रहती है तेरी ख़्वाब-गाह
महफ़िलों में तुझ से कर सकते नहीं जो गुफ़्तुगू
तेरे आँचल में बंधी है उन की झूटी आबरू
 
पेट की ख़ातिर अगर तू बेचती है जिस्म आज
कौन है नफ़रत से तुझ को देखने वाला समाज

लौह-ए-मज़ार - Jaan Nisar Akhtar

ढल चुका दिन और तेरी क़ब्र पर
देर से बैठा हुआ हूँ सर-निगूँ
रूह पर तारी है इक मुबहम सुकूत
अब वो सोज़-ए-ग़म न वो साज़-ए-जुनूँ
मुस्तक़िल महसूस होता है मुझे
जैसे तेरे साथ मैं भी दफ़्न हूँ

मौहूम अफ़्साने - Jaan Nisar Akhtar

वो अफ़्साने किया है चाँद तारों का सफ़र जिन में
ये दुनिया एक धुँदली गेंद आती है नज़र जिन में
वो जिन में मुल्क-ए-बर्क़-ओ-बाद तक तस्ख़ीर होता है
जहाँ इक शब में सोने का महल तामीर होता है
अछूते-साहिलों के वो सहर-आलूद वीराने
तिलिस्मी-क़स्र में गुमनाम शहज़ादी के अफ़्साने
 
वो अफ़्साने जो रातें चाँद के बरबत पे गाती हैं
वो अफ़्साने जो सुब्हें रूह के अंदर जगाती हैं
फ़ज़ा करती है जिन मौहूम अफ़्सानों की तामीरें
भटकते अब्र में जिन की मिलीं मुबहम सी तस्वीरें
सर-ए-साहिल जो बहती शम्अ की लौ गुनगुनाती है
दिमाग़ ओ दिल में जिन से इक किरन सी दौड़ जाती है
 
वो अफ़्साने जो दिल को बे-कहे महसूस होते हैं
जो होंटों की हसीं गुलनार मेहराबों में सोते हैं
किसी की नर्गिस-ए-शरसार के मुबहम से अफ़्साने
किसी की ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-बार के बरहम से अफ़्साने
वो जिन को इस तरह कुछ जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ सुनाती है
कि जैसे ख़्वाब में भूली हुई इक याद आती है
रहा हूँ गुम इन्ही मौहूम अफ़्सानों की बस्ती में
इन्ही दिलकश मगर गुमनाम रूमानों की बस्ती में
किसी ने तोड़ डाला ये तिलिस्म-ए-कैफ़-ओ-ख़्वाब आख़िर
मिरी आँखों के आगे आए शमशीर ओ शबाब आख़िर

मज़दूर औरतें - Jaan Nisar Akhtar

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चेहरों पे ख़ाक धूल के पोंछे हुए निशाँ
तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मैले फटे लिबास हैं महरूम-ए-शास्त-ओ-शू
तू और इत्र ओ अम्बर ओ मुश्क ओ अबीर ओ ऊद
मज़दूर के भी ख़ून की आती है इस में बू
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तन ढाँकने को ठीक से कपड़ा नहीं है पास
तू और हरीर ओ अतलस ओ कम-ख़्वाब ओ परनियाँ
चुभता नहीं बदन पे तिरे रेशमी लिबास
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चाँदी का कोई गंझ न सोने का कोई तार
तू और हैकल-ए-ज़र ओ आवेज़ा-ए-गुहर
सीने पे कोई दम भी धड़कता है तेरा हार
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
सदियों से हर निगाह है फ़ाक़ों की रहगुज़र
तू और ज़ियाफ़तों में ब-सद-नाज़ जल्वा-गर
किस के लहू से गर्म है ये मेज़ की बहार
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तारीक मक़बरों से मकाँ इन के कम नहीं
तू और ज़ेब-ओ-ज़ीनत-ए-अलवान-ए-ज़र-निगार
क्या तेरे क़स्र-ए-नाज़ की हिलती नहीं ज़मीं
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मेहनत ही उन का साज़ है मेहनत ही उन का राग
तू और शुग़्ल-ए-रामिश-ओ-रक़्स-ओ-रबाब-ओ-रंग
क्या तेरे साज़ में भी दहकती है कोई आग
गुलनार देखती हैं ये मज़दूर औरतें
मेहनत पे अपने पेट से मजबूर औरतें

रौशनियाँ - Jaan Nisar Akhtar

आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
कितने आरिज़ की झलकियाँ अब तक
दिल में सीमीं वरक़ लुटाती हैं
कितने हीरा-तराश जिस्मों की
बिजलियाँ दिल में कौंद जाती हैं
कितनी तारों से ख़ुश-नुमा आँखें
मेरी आँखों में मुस्कुराती हैं
कितने होंटों की गुल-फ़िशाँ आँचें
मेरे होंटों में सनसनाती हैं
कितनी शब-ताब रेशमी ज़ुल्फ़ें
मेरे बाज़ू पे सरसराती हैं
कितनी ख़ुश-रंग मोतियों से भरी
बालियाँ दिल में टिमटिमाती हैं
कितनी गोरी कलाइयों की लवें
दिल के गोशों में जगमगाती हैं
कितनी रंगीं हथेलियाँ छुप कर
धीमे धीमे कँवल जलाती हैं
कितनी आँचल से फूटती किरनें
मेरे पहलू में रसमसाती हैं
कितनी पायल की शोख़ झंकारें
दिल में चिंगारियाँ उड़ाती हैं
कितनी अंगड़ाइयाँ धनक बन कर
ख़ुद उभरती हैं टूट जाती हैं
कितनी गुल-पोश नक़्रई बाँहें
दिल को हल्क़े में ले के गाती हैं
आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
अपने इस जल्वा-गर तसव्वुर की
जाँ-फ़ज़ा दिलकशी से ज़िंदा हूँ
इन ही बीते जवान लम्हों की
शोख़-ताबिंदगी से ज़िंदा हूँ
यही यादों की रौशनी तो है
आज जिस रौशनी से ज़िंदा हूँ
आओ मैं तुम से ए'तिराफ़ करूँ
मैं इसी शाइरी से ज़िंदा हूँ

ज़िंदगी - Jaan Nisar Akhtar

तमतमाए हुए आरिज़ पे ये अश्कों की क़तार
मुझ से इस दर्जा ख़फ़ा आप से इतनी बेज़ार
मैं ने कब तेरी मोहब्बत से किया है इंकार
 
मुझ को इक लम्हा कभी चैन भी आया तुझ बिन
इश्क़ ही एक हक़ीक़त तो नहीं है लेकिन
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
 
सोच दुनिया से अलग भाग के जाएँगे कहाँ
अपनी जन्नत भी बसाएँ तो बसाएँगे कहाँ
अम्न इस आलम-ए-अफ़्कार में पाएँगे कहाँ
 
फिर ज़माने से निगाहों का चुराना कैसा
इश्क़ की ज़िद में फ़राएज़ को भुलाना कैसा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
 
तीर-ए-इफ़्लास से कितनों के कलेजे हैं फ़िगार
कितने सीनों में है घुटती हुई आहों का ग़ुबार
कितने चेहरे नज़र आते हैं तबस्सुम का मज़ार
 
इक नज़र भूल के उस सम्त भी देखा होता
कुछ मोहब्बत के सिवा और भी सोचा होता
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
 
रंज-ए-ग़ुर्बत के सिवा जब्र के पहलू भी तो हैं
जो टपकते नहीं आँखों से वो आँसू भी तो हैं
ज़ख़्म खाए हुए मज़दूर के बाज़ू भी तो हैं
 
ख़ाक और ख़ून में ग़लताँ हैं नज़ारे कितने
क़ल्ब-ए-इंसाँ में दहकते हैं शरारे कितने
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
 
अरसा-ए-दहर पे सरमाया ओ मेहनत की ये जंग
अम्न ओ तहज़ीब के रुख़्सार से उड़ता हुआ रंग
ये हुकूमत ये ग़ुलामी ये बग़ावत की उमंग
 
क़ल्ब-ए-आदम के ये रिसते हुए कोहना नासूर
अपने एहसास से है फ़ितरत-ए-इंसाँ मजबूर
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
 
आप को बंद ग़ुलामी से छुड़ाना है हमें
ख़ुद मोहब्बत को भी आज़ाद बनाना है हमें
इक नई तर्ज़ पे दुनिया को सजाना है हमें
 
तू भी आ वक़्त के सीने में शरारा बन जा
तू भी अब अर्श-ए-बग़ावत का सितारा बन जा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

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