Hindi Kavita
हिंदी कविता
Collection of Nida Fazli Shayari and Ghazal
अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो - Nida Fazli
अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो
यूँ भी न कर सको तो फिर घर में ख़ुदा ख़ुदा करो
शोहरत भी उस के साथ है दौलत भी उस के हाथ है
ख़ुद से भी वो मिले कभी उस के लिए दुआ करो
देखो ये शहर है अजब दिल भी नहीं है कम ग़ज़ब
शाम को घर जो आऊँ मैं थोड़ा सा सज लिया करो
दिल में जिसे बसाओ तुम चाँद उसे बनाओ तुम
वो जो कहे पढ़ा करो जो न कहे सुना करो
मेरी नशिस्त पे भी कल आएगा कोई दूसरा
तुम भी बना के रास्ता मेरे लिए जगह करो
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये - Nida Fazli
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये
बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं - Nida Fazli
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला - Nida Fazli
अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला
हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला
उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला
दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला
इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला
आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में - Nida Fazli
आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में
सदियाँ गुज़र गई हैं इसी इंतिज़ार में
छिड़ते ही साज़-ए-बज़्म में कोई न था कहीं
वो कौन था जो बोल रहा था सितार में
ये और बात है कोई महके कोई चुभे
गुलशन तो जितना गुल में है उतना है ख़ार में
अपनी तरह से दुनिया बदलने के वास्ते
मेरा ही एक घर है मिरे इख़्तियार में
तिश्ना-लबी ने रेत को दरिया बना दिया
पानी कहाँ था वर्ना किसी रेग-ज़ार में
मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं
वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया - Nida Fazli
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया
खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया
बात बहुत मा'मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया
आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही - Nida Fazli
आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही
जब तलक है ख़ूबसूरत है चलो यूँ ही सही
हम कहाँ के देवता हैं बेवफ़ा वो हैं तो क्या
घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही
वो नहीं तो कोई तो होगा कहीं उस की तरह
जिस्म में जब तक हरारत है चलो यूँ ही सही
मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
भूल थी अपनी फ़रिश्ता आदमी में ढूँडना
आदमी में आदमिय्यत है चलो यूँ ही सही
जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं
दुनिया-दारी भी ज़रूरत है चलो यूँ ही सही
इंसान हैं हैवान यहाँ भी है वहाँ भी - Nida Fazli
इंसान हैं हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी
ख़ूँ-ख़्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं
हर शहर बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी
हिन्दू भी सुकूँ से है मुसलमाँ भी सुकूँ से
इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
रहमान की रहमत हो कि भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी
उठता है दिल-ओ-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी
उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ - Nida Fazli
उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ
रात के बा'द दिन आज के बा'द कल जो हुआ सो हुआ
जब तलक साँस है भूक है प्यास है ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल खेत की ओर चल जो हुआ सो हुआ
ख़ून से तर-ब-तर कर के हर रहगुज़र थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह फिर से चूल्हे में जल जो हुआ सो हुआ
जो मरा क्यूँ मरा जो लुटा क्यूँ लुटा जो जला क्यूँ जला
मुद्दतों से हैं ग़म इन सवालों के हल जो हुआ सो हुआ
मंदिरों में भजन मस्जिदों में अज़ाँ आदमी है कहाँ
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल जो हुआ सो हुआ
उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा - Nida Fazli
उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा
इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा
प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली
जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा
मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की
उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा
एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा
उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है - Nida Fazli
उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है
जो हुआ वो न हुआ होता ये ग़म बाक़ी है
अब न वो छत है न वो ज़ीना न अंगूर की बेल
सिर्फ़ इक उस को भुलाने की क़सम बाक़ी है
मैं ने पूछा था सबब पेड़ के गिर जाने का
उठ के माली ने कहा उस की क़लम बाक़ी है
जंग के फ़ैसले मैदाँ में कहाँ होते हैं
जब तलक हाफ़िज़े बाक़ी हैं अलम बाक़ी है
थक के गिरता है हिरन सिर्फ़ शिकारी के लिए
जिस्म घायल है मगर आँखों में रम बाक़ी है
एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा - Nida Fazli
एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा
दुख सुख का ये जंतर-मंतर जितना तेरा उतना मेरा
गेहूँ चावल बाँटने वाले झूटा तौलें तो क्या बोलें
यूँ तो सब कुछ अंदर बाहर जितना तेरा उतना मेरा
हर जीवन की वही विरासत आँसू सपना चाहत मेहनत
साँसों का हर बोझ बराबर जितना तेरा उतना मेरा
साँसें जितनी मौजें उतनी सब की अपनी अपनी गिनती
सदियों का इतिहास समुंदर जितना तेरा उतना मेरा
ख़ुशियों के बटवारे तक ही ऊँचे नीचे आगे पीछे
दुनिया के मिट जाने का डर जितना तेरा उतना मेरा
कच्चे बख़िये की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं - Nida Fazli
कच्चे बख़िये की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं
लोग मिलते हैं मगर मिल के बिछड़ जाते हैं
यूँ हुआ दूरियाँ कम करने लगे थे दोनों
रोज़ चलने से तो रस्ते भी उखड़ जाते हैं
छाँव में रख के ही पूजा करो ये मोम के बुत
धूप में अच्छे भले नक़्श बिगड़ जाते हैं
भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बे-ख़याली में कई शहर उजड़ जाते हैं
कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत - Nida Fazli
कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत
सोच से ही सारी उलझन है जीते जाओ सोचो मत
लिखा हुआ किरदार कहानी में ही चलता फिरता है
कभी है दूरी कभी मिलन है जीते जाओ सोचो मत
नाच सको तो नाचो जब थक जाओ तो आराम करो
टेढ़ा क्यूँ घर का आँगन है जीते जाओ सोचो मत
हर मज़हब का एक ही कहना जैसा मालिक रक्खे रहना
जब तक साँसों का बंधन है जीते जाओ सोचो मत
घूम रहे हैं बाज़ारों में सरमायों के आतिश-दान
किस भट्टी में कौन ईंधन है जीते जाओ सोचो मत
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है - Nida Fazli
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी
हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है
उस को भूले बरसों गुज़रे लेकिन आज न जाने क्यूँ
आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारन धमकाया है
उस बस्ती से छुट कर यूँ तो हर चेहरे को याद किया
जिस से थोड़ी सी अन-बन थी वो अक्सर याद आया है
कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें कीं
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता - Nida Fazli
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता
चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
कभी बादल, कभी कश्ती, कभी गर्दाब लगे - Nida Fazli
कभी बादल, कभी कश्ती, कभी गर्दाब लगे
वो बदन जब भी सजे कोई नया ख्वाब लगे
एक चुप चाप सी लड़की, न कहानी न ग़ज़ल
याद जो आये कभी रेशम-ओ-किम्ख्वाब लगे
अभी बे-साया है दीवार कहीं लोच न ख़म
कोई खिड़की कहीं निकले कहीं मेहराब लगे
घर के आँगन मैं भटकती हुई दिन भर की थकन
रात ढलते ही पके खेत सी शादाब लगे
कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं - Nida Fazli
कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से
भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से
काला अम्बर पीली धरती या अल्लाह - Nida Fazli
काला अम्बर पीली धरती या अल्लाह
हा-हा हे-हे ही-ही-ही-ही या अल्लाह
कर्गिल और कश्मीर ही तेरे नाम हों क्यूँ
भाई बहन महबूबा बेटी या अल्लाह
पीर पयम्बर को अब और न ज़हमत दे
चूल्हा चक्की रोटी सब्ज़ी या अल्लाह
घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में
कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह
तू ही फूल सितारा सावन हरियाली
और कभी तू नागा-साकी या अल्लाह
किसी भी शहर में जाओ कहीं क़याम करो - Nida Fazli
किसी भी शहर में जाओ कहीं क़याम करो
कोई फ़ज़ा कोई मंज़र किसी के नाम करो
दुआ सलाम ज़रूरी है शहर वालों से
मगर अकेले में अपना भी एहतिराम करो
हमेशा अम्न नहीं होता फ़ाख़्ताओं में
कभी-कभार उक़ाबों से भी कलाम करो
हर एक बस्ती बदलती है रंग-रूप कई
जहाँ भी सुब्ह गुज़ारो उधर ही शाम करो
ख़ुदा के हुक्म से शैतान भी है आदम भी
वो अपना काम करेगा तुम अपना काम करो
किसी से ख़ुश है किसी से ख़फ़ा ख़फ़ा सा है - Nida Fazli
किसी से ख़ुश है किसी से ख़फ़ा ख़फ़ा सा है
वो शहर में अभी शायद नया नया सा है
न जाने कितने बदन वो पहन के लेटा है
बहुत क़रीब है फिर भी छुपा छुपा सा है
सुलगता शहर नदी ख़ून कब की बातें हैं
कहीं कहीं से ये क़िस्सा सुना सुना सा है
सरों के सींग तो जंगल की देन होते हैं
वो आदमी तो है लेकिन डरा डरा सा है
कुछ और धूप तो हो ओस सूख जाने तक
वो पेड़ अब के बरस भी हरा हरा सा है
कुछ तबीअ'त ही मिली थी ऐसी - Nida Fazli
कुछ तबीअ'त ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
जिस को चाहा उसे अपना न सके जो मिला उस से मोहब्बत न हुई
जिस से जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फ़साना बदला
रस्म-ए-दुनिया को निभाने के लिए हम से रिश्तों की तिजारत न हुई
दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा न लगा
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसी से ये शिकायत न हुई
छोड़ कर घर को कहीं जाने से घर में रहने की इबादत थी बड़ी
झूट मशहूर हुआ राजा का सच की संसार में शोहरत न हुई
वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना न मिला
दोस्ती की तो निभाई न गई दुश्मनी में भी अदावत न हुई
कुछ दिनों तो शहर सारा अजनबी सा हो गया - Nida Fazli
कुछ दिनों तो शहर सारा अजनबी सा हो गया
फिर हुआ यूँ वो किसी की मैं किसी का हो गया
इश्क़ कर के देखिए अपना तो ये है तजरबा
घर मोहल्ला शहर सब पहले से अच्छा हो गया
क़ब्र में हक़-गोई बाहर मंक़बत क़व्वालियाँ
आदमी का आदमी होना तमाशा हो गया
वो ही मूरत वो ही सूरत वो ही क़ुदरत की तरह
उस को जिस ने जैसा सोचा वो भी वैसा हो गया
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई - Nida Fazli
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई
फिर यूँ हुआ कि वक़्त का पाँसा पलट गया
उम्मीद जीत की थी मगर मात हो गई
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई
वो आदमी था कितना भला कितना पुर-ख़ुलूस
उस से भी आज लीजे मुलाक़ात हो गई
रस्ते में वो मिला था मैं बच कर गुज़र गया
उस की फटी क़मीस मिरे साथ हो गई
नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई
कोई किसी की तरफ़ है कोई किसी की तरफ़ - Nida Fazli
कोई किसी की तरफ़ है कोई किसी की तरफ़
कहाँ है शहर में अब कोई ज़िंदगी की तरफ़
सभी की नज़रों में ग़ाएब था जो वो हाज़िर था
किसी ने रुक के नहीं देखा आदमी की तरफ़
तमाम शहर की शमएँ उसी से रौशन थीं
कभी उजाला बहुत था किसी गली की तरफ़
कहीं की भूक हो हर खेत उस का अपना है
कहीं की प्यास हो जाएगी वो नदी की तरफ़
न निकले ख़ैर से अल्लामा क़ौल से बाहर
'यगाना' टूट गए जब चले ख़ुदी की तरफ़
कोई किसी से ख़ुश हो और वो भी बारहा हो - Nida Fazli
कोई किसी से ख़ुश हो और वो भी बारहा हो ये बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो ये बात तो ग़लत है
वो चाँद रहगुज़र का साथी जो था सफ़र था मो'जिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रौशन वो मो'जिज़ा हो ये बात तो ग़लत है
है बात उस की अच्छी लगती है दिल को सच्ची फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उस का हादिसा है मेरा भी तजरबा हो ये बात तो ग़लत है
दरिया है बहता पानी हर मौज है रवानी रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है इतना ही वाक़िआ हो ये बात तो ग़लत है
ये युग है कारोबारी हर शय है इश्तिहारी राजा हो या भिकारी
शोहरत है जिस की जितनी इतना ही मर्तबा हो ये बात तो ग़लत है
कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को है - Nida Fazli
कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को है
आते जाते रात और दिन में कुछ तो जी बहलाने को है
चलो यहाँ से अपनी अपनी शाख़ों पे लौट आए परिंदे
भूली-बिसरी यादों को फिर तन्हाई दोहराने को है
दो दरवाज़े एक हवेली आमद रुख़्सत एक पहेली
कोई जा कर आने को है कोई आ कर जाने को है
दिन भर का हंगामा सारा शाम ढले फिर बिस्तर प्यारा
मेरा रस्ता हो या तेरा हर रस्ता घर जाने को है
आबादी का शोर-शराबा छोड़ के ढूँडो कोई ख़राबा
तन्हाई फिर शम्अ जला कर कोई हर्फ़ सुनाने को है
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है - Nida Fazli
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है
इतनी ख़ूँ-ख़ार न थीं पहले इबादत-गाहें
ये अक़ीदे हैं कि इंसान की तन्हाई है
तीन चौथाई से ज़ाइद हैं जो आबादी में
उन के ही वास्ते हर भूक है महँगाई है
देखे कब तलक बाक़ी रहे सज-धज उस की
आज जिस चेहरा से तस्वीर उतरवाई है
अब नज़र आता नहीं कुछ भी दुकानों के सिवा
अब न बादल हैं न चिड़ियाँ हैं न पुर्वाई है
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया - Nida Fazli
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया
हर काम में हमेशा कोई काम रह गया
छोटी थी उम्र और फ़साना तवील था
आग़ाज़ ही लिखा गया अंजाम रह गया
उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए
दहशत-गरों के हाथ में इस्लाम रह गया
उस का क़ुसूर ये था बहुत सोचता था वो
वो कामयाब हो के भी नाकाम रह गया
अब क्या बताएँ कौन था क्या था वो एक शख़्स
गिनती के चार हर्फ़ों का जो नाम रह गया
गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला - Nida Fazli
गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़-धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रौशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूटों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आ कर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई 'मीरा' दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किस की जान का दुश्मन क्यूँ हो
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया - Nida Fazli
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
इक इश्क़ नाम का जो परिंदा ख़ला में था
उतरा जो शहर में तो दुकानों में बट गया
पहले तलाशा खेत फिर दरिया की खोज की
बाक़ी का वक़्त गेहूँ के दानों में बट गया
जब तक था आसमान में सूरज सभी का था
फिर यूँ हुआ वो चंद मकानों में बट गया
हैं ताक में शिकारी निशाना हैं बस्तियाँ
आलम तमाम चंद मचानों में बट गया
ख़बरों ने की मुसव्वरी ख़बरें ग़ज़ल बनीं
ज़िंदा लहू तो तीर कमानों में बट गया
घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे - Nida Fazli
घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे
इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे
शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते
बहते दरिया से जहाँ होगे ठहर जाओगे
हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे
पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा'नी सी
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे
चाँद से फूल से या मेरी ज़बाँ से सुनिए - Nida Fazli
चाँद से फूल से या मेरी ज़बाँ से सुनिए
हर जगह आप का क़िस्सा है जहाँ से सुनिए
क्या ज़रूरी है कि हर पर्दा उठाया जाए
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए
सब को आता नहीं दुनिया को सजा कर जीना
ज़िंदगी किया है मोहब्बत की ज़बाँ से सुनिए
कौन पढ़ सकता है पानी पे लिखी तहरीरें
किस ने क्या लिक्खा है ये आब-ए-रवाँ से सुनिए
चाँद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की ख़ुशी
ये कहानी किसी मस्जिद की अज़ाँ से सुनिए
चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं - Nida Fazli
चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं
घोंसले बन के टूट जाते हैं दाग़ शाख़ों पे चहचहाते हैं
आने वाले बयाज़ में अपनी जाने वालों के नाम लिखते हैं
सब ही औरों के ख़ाली कमरों को अपनी अपनी तरह सजाते हैं
मौत इक वाहिमा है नज़रों का साथ छुटता कहाँ है अपनों का
जो ज़मीं पर नज़र नहीं आते चाँद तारों में जगमगाते हैं
ये मुसव्विर अजीब होते हैं आप अपने हबीब होते हैं
दूसरों की शबाहतें ले कर अपनी तस्वीर ही बनाते हैं
यूँ ही चलता है कारोबार-ए-जहाँ है ज़रूरी हर एक चीज़ यहाँ
जिन दरख़्तों में फल नहीं आते वो जलाने के काम आते हैं
जब किसी से कोई गिला रखना - Nida Fazli
जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना
यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना
मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना
मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना
जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी - Nida Fazli
जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी
मिट्टी उस की पानी उस का
जैसी चाही शक्ल बना दी
छोटा लगता था अफ़्साना
मैं ने तेरी बात बढ़ा दी
जब भी सोचा उस का चेहरा
अपनी ही तस्वीर बना दी
तुझ को तुझ में ढूँढ के हम ने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी
जब से क़रीब हो के चले ज़िंदगी से हम - Nida Fazli
जब से क़रीब हो के चले ज़िंदगी से हम
ख़ुद अपने आइने को लगे अजनबी से हम
कुछ दूर चल के रास्ते सब एक से लगे
मिलने गए किसी से मिल आए किसी से हम
अच्छे बुरे के फ़र्क़ ने बस्ती उजाड़ दी
मजबूर हो के मिलने लगे हर किसी से हम
शाइस्ता महफ़िलों की फ़ज़ाओं में ज़हर था
ज़िंदा बचे हैं ज़ेहन की आवारगी से हम
अच्छी भली थी दुनिया गुज़ारे के वास्ते
उलझे हुए हैं अपनी ही ख़ुद-आगही से हम
जंगल में दूर तक कोई दुश्मन न कोई दोस्त
मानूस हो चले हैं मगर बम्बई से हम
जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं - Nida Fazli
जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं
मेरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है
मुझे सम्भाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं
मेरे मिज़ाज में बे-मानी उलझनें हैं बहुत
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं
कहीं पुकार न ले गहरी वादियों का सबूत
किसी मक़ाम पे आकर ठहर न जाऊँ मैं
न जाने कौन से लम्हे की बद-दुआ है ये
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं
जाने वालों से राब्ता रखना - Nida Fazli
जाने वालों से राब्ता रखना
दोस्तो रस्म-ए-फ़ातिहा रखना
घर की ता'मीर चाहे जैसी हो
उस में रोने की कुछ जगह रखना
मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिए
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना
जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाइयाँ बचा रखना
उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना
जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया - Nida Fazli
जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया
चार घरों के एक मोहल्ले के बाहर भी है आबादी
जैसी तुम्हें दिखाई दी है सब की वही नहीं है दुनिया
घर में ही मत उसे सजाओ इधर उधर भी ले के जाओ
यूँ लगता है जैसे तुम से अब तक खुली नहीं है दुनिया
भाग रही है गेंद के पीछे जाग रही है चाँद के नीचे
शोर भरे काले नारों से अब तक डरी नहीं है दुनिया
जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे - Nida Fazli
जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे
उसे उम्र सारी हमारी लगे
उजाला सा है उस के चारों तरफ़
वो नाज़ुक बदन पाँव भारी लगे
वो ससुराल से आई है माइके
उसे जितना देखो वो प्यारी लगे
हसीन सूरतें और भी हैं मगर
वो सब सैकड़ों में हज़ारी लगे
चलो इस तरह से सजाएँ उसे
ये दुनिया हमारी तुम्हारी लगे
उसे देखना शेर-गोई का फ़न
उसे सोचना दीन-दारी लगे
जो भला है उसे बुरा मत कर - Nida Fazli
जो भला है उसे बुरा मत कर
ख़ुद से भी बारहा मिला मत कर
ये है बस्ती उदास लोगों की
क़हक़हा मार कर हिंसा मत कर
बाग़ है दिल फ़रेब दोनों से
फूल को ख़ार से जुदा मत कर
रोज़ की ला'न-ता'न ठीक नहीं
घर में आईने को रखा मत कर
चेहरा मोहरा बदलता रहता है
इतनी जल्दी भी फ़ैसला मत कर
जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता - Nida Fazli
जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता
हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में
सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता
कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी-कार हो ऐसा नहीं होता
कहीं तो कोई होगा जिस को अपनी भी ज़रूरत हो
हर इक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता
सिखा देती हैं चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रस्ता सदा दुश्वार हो ऐसा नहीं होता
ज़मीं दी है तो थोड़ा सा आसमाँ भी दे - Nida Fazli
ज़मीं दी है तो थोड़ा सा आसमाँ भी दे
मिरे ख़ुदा मिरे होने का कुछ गुमाँ भी दे
बना के बुत मुझे बीनाई का अज़ाब न दे
ये ही अज़ाब है क़िस्मत तो फिर ज़बाँ भी दे
ये काएनात का फैलाव तो बहुत कम है
जहाँ समा सके तन्हाई वो मकाँ भी दे
मैं अपने आप से कब तक किया करूँ बातें
मिरी ज़बाँ को भी कोई तर्जुमाँ भी दे
फ़लक को चांद-सितारे नवाज़ने वाले
मुझे चराग़ जलाने को साएबाँ भी दे
ज़िहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला - Nida Fazli
ज़िहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला
जिसे निगाह मिली उस को इंतिज़ार मिला
वो कोई राह का पत्थर हो या हसीं मंज़र
जहाँ भी रास्ता ठहरा वहीं मज़ार मिला
कोई पुकार रहा था खुली फ़ज़ाओं से
नज़र उठाई तो चारों तरफ़ हिसार मिला
हर एक साँस न जाने थी जुस्तुजू किस की
हर इक दयार मुसाफ़िर को बे-दयार मिला
ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला
ठहरे जो कहीं आँख तमाशा नज़र आए - Nida Fazli
ठहरे जो कहीं आँख तमाशा नज़र आए
सूरज में धुआँ चाँद में सहरा नज़र आए
रफ़्तार से ताबिंदा उमीदों के झरोके
ठहरूँ तो हर इक सम्त अँधेरा नज़र आए
साँचों में ढले क़हक़हे सोची हुई बातें
हर शख़्स के काँधों पे जनाज़ा नज़र आए
हर राहगुज़र रास्ता भूला हुआ बालक
हर हाथ में मिट्टी का खिलौना नज़र आए
खोई हैं अभी मैं के धुँदलकों में निगाहें
हट जाए ये दीवार तो दुनिया नज़र आए
जिस से भी मिलें झुक के मिलें हँस के हों रुख़्सत
अख़्लाक़ भी इस शहर में पेशा नज़र आए
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