Aankhon Bhar Akash - Nida Fazli

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हिंदी कविता

Aankhon Bhar Akash Nida Fazli
आँखों भर आकाश निदा फ़ाज़ली(toc)

यह बात तो ग़लत है - Nida Fazli

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो ग़लत है
 
वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफ़र का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रोशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो ग़लत है
 
है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादसा है मेरा भी तजुर्बा हो
यह बात तो ग़लत है
 
दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकया हो
यह बात तो ग़लत है
 
वे युग है कारोबारी, हर शय है इश्तहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो ग़लत है
 

जब भी दिल ने दिल को सदा दी - Nida Fazli

जब भी दिल ने दिल को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी...
 
मिट्टी तेरी, पानी तेरा
जैसी चाही शक्ल बना दी
 
छोटा लगता था अफ्साना
मैंने तेरी बात बढ़ा दी
 

सोचने बैठे जब भी उसको - Nida Fazli

सोचने बैठे जब भी उसको
अपनी ही तस्वीर बना दी
 
ढूँढ़ के तुझ में, तुझको हमने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी
 

ऐसा नहीं होता - Nida Fazli

जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता
 
हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में
सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता
 
कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता
 
nida-fazli

सिखा देती है चलना - Nida Fazli

सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता
 
कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो
हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता
 

मौत की नहर - Nida Fazli

प्यार, नफ़रत, दया, वफ़ा एहसान
क़ौम, भाषा, वतन, धरम, ईमान
उम्र गोया...
चट्टान है कोई
जिस पर इन्सान कोहकन की तरह
मौत की नहर...
खोदने के लिए,
सैकड़ों तेशे
आज़माता है
हाथ-पाँव चलाये जाता है
 

देखा गया हूँ - Nida Fazli

देखा गया हूँ मैं कभी सोचा गया हूँ मैं
अपनी नज़र में आप तमाशा रहा हूँ मैं
 
मुझसे मुझे निकाल के पत्थर बना दिया
जब मैं नहीं रहा हूँ तो पूजा गया हूँ मैं
 
मैं मौसमों के जाल में जकड़ा हुआ दरख़्त
उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं
 
ऊपर के चेहरे-मोहरे से धोखा न खाइए
मेरी तलाश कीजिए, गुम हो गया हूँ मैं
 

बूढ़ा मलबा - Nida Fazli

हर माँ
अपनी कोख से
अपने शौहर को जन्मा करती है
मैं भी अब
अपने कन्धों से
बूढ़े मलवे को ढो-ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कुँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा।
 

बैसाखियाँ - Nida Fazli

(एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर देखकर)
 
आओ हम-तुम
इस सुलगती खामुशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गढ़े में छोड़ जाएँ
 
कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !
 

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी - Nida Fazli

बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की
 
रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।
 
खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
 

मन बैरागी - Nida Fazli

मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है
 
औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है
 
जब-जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनियादारी है
 
ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल परी न फूल गली
यह मत पूछो, वह अच्छा है या अच्छी नादारी
 
जो चेहरा देखा वह तोड़ा, नगर-नगर वीरान किए
पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेज़ारी है।
 

फ़क़त चन्द लम्हे - Nida Fazli

बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास के लान पर बैठ जाएँ
चटखता है मेरी भी रग-रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप-चुप खड़ी हो
न मैं तुमसे वाक़िफ़
न तुम मूझसे वाक़िफ़
नई सारी बातें, नए सारे किस्से
चमकते हुए लफ़्ज, चमकीले लहज़े
फ़क़त चन्द लम्हे
न मैं अपने दु:ख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ
 

किताबघर की मौत - Nida Fazli

ये रस्ता है वही
तुम कह रहे हो
यहाँ तो पहले जैसा कुछ नहीं है!
 
दरख्तों पर न वो चालाक बन्दर
परेशाँ करते रहते थे
जो दिन भर
 
न ताक़ों में छुपे सूफी कबूतर
जो पढ़ते रहते थे
तस्बीह दिन भर
 
न कडवा नीम इमली के बराबर
जो घर-घर घूमता था
वैद बन कर
 
कई दिन बाद
तुम आए हो शायद?
ये सूरज चाँद वाला बूढ़ा अम्बर
बदल देता है
चेहरे हों या मंज़र
 
ये आलीशान होटल है
जहाँ पर
यहाँ पहले किताबों की
दुकां थी.....
 

खेल - Nida Fazli

आओ
कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ
मिट्टी को बादल में गूँथें
चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ
 
किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ
 
कुछ दिन इनसे जी बहलाएँ
और यह जब मैले हो जाएँ
 
दाढ़ी चोटी तिलक सभी को
तोड़-फोड़ के गड़-मड़ कर दें
मिली हुई यह मिट्टी फिर से
अलग-अलग साँचों में भर दें
 
- चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ
 
दाढ़ी में चोटी लहराए
चोटी में दाढ़ी छुप जाए
किसमें कितना कौन छुपा है
कौन बताए
 

दो खिड़कियाँ - Nida Fazli

आमने-सामने दो नई खिड़कियाँ
 
जलती सिगरेट की लहराती आवाज में
सुई-डोरे के रंगीन अल्फाज़ में
मशवरा कर रहीं हैं कई रोज़ से
 
शायद अब
बूढ़े दरवाजे सिर जोड़कर
वक़्त की बात को वक़्त पर मान लें
बीच की टूटी-फूटी गली छोड़कर
खिड़कियों के इशारों को पहचान लें
 

एक तस्वीर - Nida Fazli

सुबह की धूप
खुली शाम का रूप
फ़ाख़्ताओं की तरह सोच में डूबे तालाब
अज़नबी शहर के आकाश
धुंधलकों की किताब
पाठशाला में
चहकते हुए मासूम गुलाब
 
घर के आँगन की महक
बहते पानी की खनक
सात रंगों की धनक
 
तुम को देखा तो नहीं है लेकिन
मेरी तन्हाई में
ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं
वह
तुम जैसी है
 

तुमसे मिली नहीं है दुनिया - Nida Fazli

जितनी बुरी कही जाती है
उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद
तुमसे मिली नहीं है दुनिया
 
चार घरों के एक मुहल्ले
के बाहर भी है आबादी
जैसी तुम्हें दिखाई दी है
सबकी वही नहीं है दुनिया
 
घर में ही मत इसे सजाओ,
इधर-उधर भी ले के जाओ
यूँ लगता है जैसे तुमसे
अब तक खुली नहीं है दुनिया
 
भाग रही है गेंद के पीछे
जाग रही है चाँद के नीचे
शोर भरे काले नारों से
अब तक डरी नहीं है दुनिया
 

दो सोचें - Nida Fazli

सुबह जब अख़बार ने मुझसे कहा
ज़िन्दगी जीना
बहुत दुश्वार है
 
सरहदें फिर शोर-गुल करने लगीं
ज़ंग लड़ने के लिए
तैयार है
 
दरमियाँ जो था ख़ुदा अब वो कहाँ
आदमी से आदमी
बेज़ार है
 
पास आकर एक बच्चे ने कहा
आपके हाथों में जो
अख़बार है
इस में मेले का भी
बाज़ार है
 
हाथी, घोड़ा, भालू
सब होंगे वहाँ
हाफ डे है आज
कल इतवार है
 

वक़्त से पहले - Nida Fazli

यूँ तो
हर रिश्ते का अंज़ाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है
 
तुमसे
वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन-
शाख हो सब्ज़ तो
हस्सास फ़ज़ा होती है
हर कली ज़ख़्म की सूरत ही
ज़ुदा होती है
 
तुमने
बेकार ही मौसम को सताया
वर्ना-
फुल जब खिल के महक जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद
शाख से गिर जाता है
 

इतनी पी जाओ - Nida Fazli

इतनी पी जाओ
कि कमरे की सियह ख़ामोशी
इससे पहले कि कोई बात करे
तेज नोकीले सवालात करे
इतनी पी जाओ
कि दीवारों के बेरंग निशान
इससे पहले कि
कोई रूप भरें
माँ बहन भाई की तस्वीर करें
मुल्क तक़्सीम करें
इससे पहलें कि उठें दीवारें
खून से माँग भरें तलवारें
यूँ गिरो टूट के बिस्तर पे अँधेरा खो जाए
जब खुले आँख सवेरा हो जाए
इतनी पी जाओ!
 

बेख़बरी - Nida Fazli

पड़ोसी के बच्चे को क्यों डाँटती हो
शरारत तो बच्चों का शेवा रहा है
 
बिचारी सुराही का क्या दोष इसमें
कभी ताजा पानी भी ठण्डा हुआ है
 
सहेली से बेकार नाराज़ हो तुम
दुपट्टे पे धब्बा तो कल का पड़ा है
 
रिसाले को झुँझला के क्यों फेंकती हो
बिना ध्यान के भी कोई पढ़ सका है
 
किसी जाने वाले को आख़िर ख़बर क्या
जहाँ लड़कियाँ होंठ कम खोलतीं हैं
 
परिन्दों की परवाज़ में डोलतीं हैं
महक बन के हर फूल में बोलतीं हैं
 

क़ौमी एकता - Nida Fazli

यह तवाइफ़
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसीलिए
दुनिया को ज़्यादा जानती है
 
-उसके कमरे में
हर मज़हब के भगवान की
एक-एक तस्वीर लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तक़रीरों की तरह नुमाइशी नहीं
 
उसका दरवाजा
रात गए तक
हिन्दू
मुस्लिम
सिख
इसाई
हर ज़ात के आदमी के लिए खुला रहता है।
 
ख़ुदा जाने
उसके कमरे की-सी कुशादगी
मस्ज़िद
और
मन्दिर के आँगनों में कब पैदा होगी!
 

एक ही ग़म - Nida Fazli

अगर कब्रिस्तान में
अलग-अलग
कत्बे न हों
तो हर कब्र में
एक ही ग़म सोया हुआ होता है
 
-किसी माँ का बेटा
किसी भाई की बहन
किसी आशिक की महबूबा
 
तुम-
किसी कब्र पर भी
फ़ातिहा पढ़ के चले आओ
 

एक बात - Nida Fazli

उसने
अपना पैर खुजाया
अँगूठी के नग को देखा
उठ कर
ख़ाली जग को देखा
चुटकी से एक तिनका तोड़ा
चारपाई का बान मरोड़ा
 
भरे-पुरे घर के आँगन
कभी-कभी वह बात!
जो लब तक
आते-आते खो जाती है
कितनी सुन्दर हो जाती है!
 

बस का सफ़र - Nida Fazli

मैं चाहता हूँ
यह चौकोर धूप का टुकड़ा
उलझ रहा है जो बालो में
इसको सुलझा दूँ
यह दाएँ बाजू पर
नन्ही-सी इक कली-सा निशान
जो अबकी बार दुपट्टा उड़े
तो सहला दूँ
खुली किताब को हाथों से छीनकर रख दूँ
ये फ़ाख़्ताओं से दो पाँव
गोद में भर लूँ
 
कभी-कभी तो सफ़र ऐसे रास आते हैं
ज़रा सी देर में दो घंटे बीत जाते हैं
 

एक मुलाकात - Nida Fazli

नीम तले दो जिस्म अजाने,
चम-चम बहता नदिया जल
उड़ी-उड़ी चेहरे की रंगत,
खुले-खुले ज़ुल्फ़ों के बल
दबी-दबी कुछ गीली साँसें,
झुके-झुके-से नयन-कँवल
 
नाम उसका? दो नीली आँखें
ज़ात उसकी? रस्ते की रात
मज़हब उसका? भीगा मौसिम
पता? बहारों की बरसात!
 

भोर - Nida Fazli

गूँज रही हैं
चंचल चकियाँ
नाच रहे हैं सूप
आँगन-आँगन
छम-छम छम-छम
घँघट काढ़े रूप
 
हौले-हौले
बछिया का मुँह चाट रही है गाय
धीमे-धीमे
जाग रही है
आड़ी-तिरछी धूप!
 

सर्दी - Nida Fazli

कुहरे की झीनी चादर में
यौवन रूप छिपाए
चौपालों पर
मुस्कानों की आग उड़ाती जाए
 
गाजर तोड़े
मूली नोचे
पके टमाटर खाए
गोदी में इक भेड़ का बच्चा
आँचल में कुछ सेब
धूप सखी की उँगली पकड़े
इधर-उधर मँडराए
 

पहला पानी - Nida Fazli

छन-छन करती टीन की चादर
सन-सन बजते पात
पिंजरे का तोता
दोहराता
रटी-रटाई बात
 
मुट्ठी में दो जामुन
मुँह में
एक चमकती सीटी
आँगन में चक्कर खाती है
छोटी-सी बरसात!
 

मोरनाच - Nida Fazli

देखते-देखते
उसके चारों तरफ
सात रंगों का रेशम बिखरने लगा
 
धीमे-धीमे कई खिड़कियाँ सी खुलीं
फड़फड़ाती हुई फ़ाख़्ताएँ उड़ीं
बदलियाँ छा गईं
 
बिजलियों की लकीरें चमकने लगीं
सारी बंजर ज़मीनें हरी हो गईं
 
नाचते-नाचते
मोर की आँख से
पहला आँसू गिरा
खूबसूरत सजीले परों की धनक
टूटकर टुकड़ा-टुकड़ा बिखरने लगी
फिर फ़ज़ाओं से जंगल बरसने लगा
देखते-देखते
 

एक दिन - Nida Fazli

सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराये
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम
थकी हारी मां जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाये।
 

पैदाइश - Nida Fazli

बन्द कमरा
छटपटाता घुप अँधेरा
और
दीवारों से टकराता हुआ
मैं...!
मुन्तज़िर हूँ मुद्दतों से
अपनी पैदाइश के दिन का
अपनी माँ के पेट से
निकला हूँ जब से
मैं
खुद अपने पेट के अन्दर पड़ा हूँ!
 

फुरसत - Nida Fazli

मैं नहीं समझ पाया आज तक इस उलझन को
खून में हरारत थी, या तेरी मोहब्बत थी
क़ैस हो कि लैला हो, हीर हो कि राँझा हो
बात सिर्फ़ इतनी है, आदमी को फुरसत थी
 

सलीक़ा - Nida Fazli

देवता है कोई हम में
न फरिश्ता कोई
छू के मत देखना
हर रंग उतर जाता है
मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाक़ातों में मर जाता है
 

सहर - Nida Fazli

सुनहरी धूप की कलियाँ खिलाती
घनी शाखों में चिड़ियों को जगाती
हवाओं के दुपट्टे को उड़ाती
 
ज़रा-सा चाँद माथे पर उगा के
रसीले नैन कागज से सजाके
चमेली की कली बालों में टाँके
 
सड़क पर नन्हे-नन्हे पाँव धरती
मज़ा ले-ले के बिस्कुट को कुतरती
 
सहर मक़तब में पढ़ने जा रही है
धुँदलकों से झगड़ने जा रही है
 

दोपहर - Nida Fazli

जिस्म लाग़र, थका-थका चेहरा
हर तबस्सुम पे दर्द का पहरा
 
हिप्स पर पूरी बेंत की जाली
जेब में गोल मेज़ की ताली
हाथ पर रोशनाई की लाली
 
उड़ती चीलों का झुण्ड तकती हुई
तपते सूरज से सर को ढँकती हुई
कुछ न कुछ मुँह ही मुँह में बकती हुई
 
खुश्क आँखों पर पानी छपका कर
पीले हाथी का ठूँठ सुलगा कर
 
दोपहर चाय पीने बैठी है
चाक दामन के सीने बैठी है
 

म्यूज़ियम - Nida Fazli

सलाखें ही सलाखें
अनगिनत छोटे-बड़े ख़ाने
हर इक ख़ाना नया चेहरा
हर इक चेहरा नई बोली
कबूतर
लोमड़ी
तितली
हिरण, पत्थर, किरण, नागिन
 
क्भी कुछ रंग सा झमके
कभी शोले-सा बल खाये
कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी दरिया सा लहराए
सिमटते, फैलते, फुँकारते, उड़ते हुए साए
 
न जाने कौन है वह
चलता-फिरता म्यूज़ियम जैसा
शबाहत से तो कोई आदमी मालूम होता है
 

नक़ाबें - Nida Fazli

नीली, पीली, हरी, गुलाबी
मैंने सब रंगीन नक़ाबें
अपनी ज़ेबों में भर ली हैं
अब मेरा चेहरा नंगा है
बिल्कुल नंगा
अब!
मेरे साथी ही
पग-पग
मुझ पर
पत्थर फेंक रहे हैं
शायद वह
मेरे चेहरे में अपने चेहरे देख रहे हैं
 

संसार - Nida Fazli

फैलती धरती
खुला आकाश था
मैं...
चाँद, सूरज, कहकशाँ, कोह्सार, बादल
लहलहाती वादियाँ, सुनसान जंगल
मैं ही मैं
फैला हुआ था हर दिशा में
जैसे-जैसे
आगे बढ़ता जा रहा हूँ
टूटता, मुड़ता, सिकुड़ता जा रहा हूँ
कल
ज़मीं से आस्माँ तक
मैं ही मैं था
आज
इक छोटा-सा कमरा बन गया हूँ
 

जंग - Nida Fazli

सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद
जंग!
बे-घर बे-सहारा
सर्द ख़ामोशी की आँधी में बिखर के
ज़र्रा-ज़र्रा फैलती है
तेल
घी
आटा
खनकती चूड़ियों का रूप भर के
बस्ती-बस्ती डोलती है
 
दिन-दहाड़े
हर गली-कूचे में घुसकर
बंद दरवाजों की साँकल खोलती है
मुद्दतों तक
जंग!
घर-घर बोलती है
सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद
 

कितने दिन बाद - Nida Fazli

कितने दिन बाद मिले हो
चलो इस शहर से दूर
किसी जंगल के किनारे
किसी झरने के क़रीब
टूटते पानी को पीकर देखें
भागते-दौड़ते लम्हों से चुरा कर कुछ वक़्त
सिर्फ़ अपने लिए जी कर देखें
कोई देखे न हमें
कोई न सुनने पाए
तुम जो भी चाहे कहो
मैं भी बिला ख़ौफ़ो-ख़तर
उन सभी लोगों की तनक़ीद करूँ
जिन से मिलकर मुझे हर रोज़ खुशी होती है
 

रुख़्सत होते वक़्त - Nida Fazli

रुख़्सत होते वक़्त
उसने कुछ नहीं कहा
लेकिन एयरपोर्ट पर
अटैची खोलते हुए
मैंने देखा
मेरे कपड़ों के नीचे
उसने
अपने दोनों बच्चों की तस्वीर छुपा दी है
तअज्जुब है
छोटी बहन होकर भी
उसने मुझे माँ की तरह दुआ दी है।
 

जब भी घर से बाहर जाओ - Nida Fazli

जब भी घर से बाहर जाओ
तो कोशिश करो...जल्दी लौट आओ
जो कई दिन घर से ग़ायब रहकर
वापस आता है
वह ज़िन्दगी भर पछताता है
घर... अपनी जगह छोड़ कर चला जाता है।
 

आत्मकथा - Nida Fazli

किसी को टूट के चाहा, किसी से खिंच के रहे
दुखों की राहतें झेलीं, खुशी के दर्द सहे
कभी बगूला से भटके
कभी नदीं से बहे
कहीं अँधेरा, कहीं रोशनी, कहीं साया
तरह-तरह के फ़रेबों का जाल फैलाया
पहाड़ सख्त था, वर्षों में रेत हो पाया।
 

चौथा आदमी - Nida Fazli

बैठे-बैठे यूँ ही क़लम लेकर
मैंने काग़ज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप... के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
उस गोल दायरे के क़रीब
अपना छोटा नाम टाँक दिया
मेरे उठते ही मेरे बच्चे ने
पूरे काग़ज़ को ले के फाड़ दिया।
 

मुहब्बत - Nida Fazli

पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से ज़िस्म में तबदील हुई
और फिर ज़िस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको...
कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त-बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है, बिछा लेता है।
 

हैरत है - Nida Fazli

घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कुराती है
मुझ को हैरत है जाने क्यों दुनिया
काब-ओ-सोमनाथ जाती है।
 

खुदा ख़ामोश है - Nida Fazli

बहुत से काम हैं
लिपटी हुई धरती को फैला दें
दरख़्तों को उगाएँ, डालियों पर फूल महका दें
पहाड़ों को क़रीने से लगाएँ
चाँद लटकाएँ
ख़लाओं के सरों पे नीलगूँ आकाश फैलाएँ
सितारों को करें रौशन
हवाओं को गति दे दें
फुदकते पत्थरों को पंख देकर नग़्मगी दे दें
लबों को मुस्कुराहट
अँखड़ियों को रोशनी दे दें
सड़क पे डोलती परछाइयों को ज़िन्दगी दे दें
खुदा ख़ामोश है,
तुम आओ तो तख़लीक़ हो दुनिया
मैं इतने सारे कामों को अकेले कर नहीं सकता
 

लफ्ज़ों का पुल - Nida Fazli

मस्ज़िद का गुम्बद सूना है
मन्दिर की घण्टी ख़ामोश
जुज़दानों में लिपटे सारे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग गुलाबी
नीले
पीले
कहीं नहीं हैं
तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा ग़ार
लफ्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तन्हा
मैं भी तन्हा।
 

जो हुआ वो हुआ किसलिए - Nida Fazli

जो हुआ वो हुआ किसलिए
हो गया तो गिला किसलिए
 
काम तो हैं ज़मीं पर बहुत
आसमाँ पर खुदा किसलिए
 
एक ही थी सुकूँ की जगह
घर में ये आइना किसलिए
 

दर्द पुराना है - Nida Fazli

मेरे तेरे नाम नये हैं, दर्द पुराना है
यह दर्द पुराना है
 
आँसू हर युग का अपराधी
हर आँगन का चोर
कोई न थामे दामन इसका
घूमे चारों ओर
गुम-सुम हैं संसार-कचहरी, चुप-चुप थाना है
यह दर्द पुराना है
 
जो जी चाहे वह हो जाए
कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का
समझौता होता है
जैसे-तैसे दिन करना है, रात बिताना है
यह दर्द पुराना है
 

जब वह आते हैं - Nida Fazli

सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
पहला-पहला प्यार हमारा, हम डर जाते हैं
 
तेरी बाँहों में झूमी पुरवाई
मैं कब बोली
जब जब बरखा आई तूने खेली
आँख-मिचौली
ऐसी-वैसी बातों को कब मुख पर लाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
 
निर्धन के घर में पैदा होना है
जीवन खोना
सूनी माँग सजाने वाले माँगें
चाँदी-सोना
हमसाए ही हमसायों के राज़ छिपाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
 

तुझ बिन मुझको - Nida Fazli

तुझ बिन मुझको
कैसे-कैसे छेडे काली रात
 
कुटिया पीछे चूड़ी खनकी
दो आवाज़ें साथ
जामुन पर
छम से आ बैठी
कोई पुरानी बात
सूने आँगन “कौन बताओ”
रेशम-रेशम हाथ
 
नील गगन
बादल के टुकड़े
क्या-क्या रूप बनाएँ
उड़ता आँचल
खुलता जूड़ा
लोरी गाती बाँहें
जलता चूल्हा, भरी कढ़ाई
कनी सजी बरसात
 

कोई नहीं है आने वाला - Nida Fazli

कोई नहीं है आने वाला
फिर भी कोई आने को है
आते-जाते रात और दिन में
कुछ तो जी बहलाने को है
 
चलो यहाँ से, अपनी-अपनी
शाखों पर लौट आए परिन्दे
भूली-बिसरी यादों को फिर
ख़ामोशी दोहराने को है
 
दो दरवाजे, एक हवेली
आमद, रुख़सत एक पहेली
कोई जाकर आने को है
कोई आकर जाने को है
 
दिन भर का हंगामा सारा
शाम ढले फिर बिस्तर प्यारा
मेरा रस्ता हो या तेरा
हर रस्ता घर जाने को है
 
आबादी का शोर शराबा
छोड़ के ढूँढो कोई ख़राबा
तन्हाई फिर शम्मा जला कर
कोई लफ़्जा सुनाने को है
 

बहुत मैला है ये सूरज - Nida Fazli

बहुत मैला है ये सूरज
किसी दरिया के पानी में
उसे धोकर सजाएँ फिर
 
गगन में चाँद भी
कुछ धुँधला-धुँधला है
मिटा के इस के सारे दाग-धब्बे
जगमगाएँ फिर
 
हवाएं सो रहीं हैं पर्वतों पर
पाँव फैलाए
जगा के इन को नीचे लाएँ
पेड़ों में बसाएँ फिर
 
धमाके कच्ची नींदों में
उड़ा देते हैं बच्चों को
धमाके खत्म कर के
लोरियों को गुनगुनाएँ फिर
 
वो जबसे आई है
यूँ लग रहा है
अपनी ये दुनिया
जो सदियों की अमानत है
जो हम सब की विरासत है
पुरानी हो चुकी है
इसमें अब
थोड़ी मरम्मत की ज़रूरत है
 
(अपनी बेटी तहरीर के जन्म-दिन पर)
 

रस्ते में नोकीली घाम - Nida Fazli

झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम
 
चाय के प्यालों में माथे की शिकनें
सिमटी हुई कुर्सियाँ
सरहद, सिपाही, गेंहूँ, कबूतर
अख़बार की सुर्खियाँ
सिगरेट की डिबिया में बन्दी सवेरा
लोकल के डिब्बों में शाम
 
लड़ता-झगड़ता कोई किसी से
बेबात कोई हँसे
सागर किनारे लहरों पर कोई
कंकर से हमला करे
लम्बी सी रस्सी पे कपड़े ही कपड़े
कपड़ों के कोनों में नाम
 
झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम
 

जीवन शोर भरा सन्नाटा - Nida Fazli

जीवन शोर भरा सन्नाटा
ज़ंजीरों की लंबाई तक सारा सैर-सपाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
 
हर मुट्ठी में उलझा रेशम
डोरे भीतर डोरा
बाहर सौ गाँठों के ताले
अंदर कागज़ कोरा
कागज़, शीशा, परचम, तारा
हर सौदे में घाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
 
चारों ओर चटानें घायल
बीच में काली रात
रात के मुँह में सूरज
सूरज में कैदी सब हाथ
नंगे पैर अक़ीदे सारे
पग-पग लागे काँटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा

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