शहदाबा - मुनव्वर राना | Shahdaba - Munnawar Rana

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

Munnawar-Rana

शहदाबा - मुनव्वर राना | Shahdaba - Munnawar Rana

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया - मुनव्वर राना

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया
 
अहबाब का सुलूक भी कितना अजीब था
नहला धुला के मिट्टी को मिट्टी पे रख दिया
 
आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी
सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया
 
फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी
मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया
 
दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया
 
अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते
जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया
 
घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को
बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया
 
पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर
क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया - मुनव्वर राना

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया
तेरी कलाई से ये कड़ा भी उतर गया
 
वो मुतमइन बहुत है मिरा साथ छोड़ कर
मैं भी हूँ ख़ुश कि क़र्ज़ मिरा भी उतर गया
 
रुख़्सत का वक़्त है यूँही चेहरा खिला रहे
मैं टूट जाऊँगा जो ज़रा भी उतर गया
 
बेकस की आरज़ू में परेशाँ है ज़िंदगी
अब तो फ़सील-ए-जाँ से दिया भी उतर गया
 
रो-धो के वो भी हो गया ख़ामोश एक रोज़
दो-चार दिन में रंग-ए-हिना भी उतर गया
 
पानी में वो कशिश है कि अल्लाह की पनाह
रस्सी का हाथ थामे घड़ा भी उतर गया
 
वो मुफ़्लिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैं ने जब
चूल्हे से ख़ाली हाथ तवा भी उतर गया
 
सच बोलने में नश्शा कई बोतलों का था
बस ये हुआ कि मेरा गला भी उतर गया
 
पहले भी बे-लिबास थे इतने मगर न थे
अब जिस्म से लिबास-ए-हया भी उतर गया

महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो - मुनव्वर राना

महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
आँखों से बहने दीजिए पानी ही क्यूँ न हो
 
नश्शे का एहतिमाम से रिश्ता नहीं कोई
पैग़ाम उस का आए ज़बानी ही क्यूँ न हो
 
ऐसे ये ग़म की रात गुज़रना मुहाल है
कुछ भी सुना मुझे वो कहानी ही क्यूँ न हो
 
कोई भी साथ देता नहीं उम्र-भर यहाँ
कुछ दिन रहेगी साथ जवानी ही क्यूँ न हो
 
इस तिश्नगी की क़ैद से जैसे भी हो निकाल
पीने को कुछ भी चाहिए पानी ही क्यूँ न हो
 
दुनिया भी जैसे ताश के पत्तों का खेल है
जोकर के साथ रहती है रानी ही क्यूँ न हो
 
तस्वीर उस की चाहिए हर हाल में मुझे
पागल हो सर-फिरी हो दिवानी ही क्यूँ न हो
 
सोना तो यार सोना है चाहे जहाँ रहे
बीवी है फिर भी बीवी पुरानी ही क्यूँ न हो
 
अब अपने घर में रहने न देंगे किसी को हम
दिल से निकाल देंगे निशानी ही क्यूँ न हो

ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे - मुनव्वर राना

ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे
मेरी मर्ज़ी से उड़ाने लगा सय्याद मुझे
 
मैं हूँ सरहद पे बने एक मकाँ की सूरत
कब तलक देखिए रखता है वो आबाद मुझे
 
एक क़िस्से की तरह वो तो मुझे भूल गया
इक कहानी की तरह वो है मगर याद मुझे
 
कम से कम ये तो बता दे कि किधर जाएगी
कर के ऐ ख़ाना-ख़राबी मिरी बर्बाद मुझे
 
मैं समझ जाता हूँ इस में कोई कमज़ोरी है
मेरे जिस शे'र पे मिलती है बहुत दाद मुझे

किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ - मुनव्वर राना

किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
मैं इस सुरंग से निकलूँ तू आब-जू हो जाऊँ
 
बड़ा हसीन तक़द्दुस है उस के चेहरे पर
मैं उस की आँखों में झाँकूँ तो बा-वज़ू हो जाऊँ
 
मुझे पता तो चले मुझ में ऐब हैं क्या क्या
वो आइना है तो मैं उस के रू-ब-रू हो जाऊँ
 
किसी तरह भी ये वीरानियाँ हों ख़त्म मिरी
शराब-ख़ाने के अंदर की हाव-हू जाऊँ
 
मिरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र-भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ
 
कमी ज़रा सी भी मुझ में न कोई रह जाए
अगर मैं ज़ख़्म की सूरत हूँ तो रफ़ू हो जाऊँ
 
नए मिज़ाज के शहरों में जी नहीं लगता
पुराने वक़्तों का फिर से मैं लखनऊ हो जाऊँ

अच्छी से अच्छी आब-ओ-हवा के बग़ैर भी - मुनव्वर राना

अच्छी से अच्छी आब-ओ-हवा के बग़ैर भी
ज़िंदा हैं कितने लोग दवा के बग़ैर भी
 
साँसों का कारोबार बदन की ज़रूरतें
सब कुछ तो चल रहा है दुआ के बग़ैर भी
 
बरसों से इस मकान में रहते हैं चंद लोग
इक दूसरे के साथ वफ़ा के बग़ैर भी
 
अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं रहा
मरने लगे हैं लोग क़ज़ा के बग़ैर भी
 
हम बे-क़ुसूर लोग भी दिलचस्प लोग हैं
शर्मिंदा हो रहे हैं ख़ता के बग़ैर भी
 
चारागरी बताए अगर कुछ इलाज है
दिल टूटने लगे हैं सदा के बग़ैर भी

दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह - मुनव्वर राना

दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
 
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
क़द बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह
 
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर तुलसी की चौपाई की तरह
 
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह

फिर हवा सिर्फ़ चराग़ों का कहा करती है - मुनव्वर राना

फिर हवा सिर्फ़ चराग़ों का कहा करती है
जब दवा कुछ नहीं करती तो दुआ करती है
 
इक समंदर है जो शहर को निगल जाता है
इक नदी है जो समंदर का भला करती है
 
तुम कभी उसको भुलाने की न कोशिश करना
ये दवा और भी ज़ख्मों को हरा करती है
 
कोशिशें करती चली आई है दुनिया लेकिन
उम्र वह पूंजी है ..जो रोज घटा करती है
 
यूँ तो अब उसको सुझाई नहीं देता लेकिन
माँ अभी तक मेरे चेहरे को पढ़ा करती है
 
मां की सब आदतें बेटी में चली आयी हैं
मैं तो सो जाता हूं लेकिन वो जगा करती है

फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे - मुनव्वर राना

फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे
इज़्ज़त के साथ दुनिया से रुख़्सत करो मुझे
 
मैं ने तो तुम से की ही नहीं कोई आरज़ू
पानी ने कब कहा था कि शर्बत करो मुझे
 
कुछ भी हो मुझ को एक नई शक्ल चाहिए
दीवार पर बिछाओ मुझे छत करो मुझे
 
जन्नत पुकारती है कि मैं हूँ तिरे लिए
दुनिया ब-ज़िद है मुझ से कि जन्नत करो मुझे

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया - मुनव्वर राना

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया
तेरी कलाई से ये कड़ा भी उतर गया
 
वो मुतमइन बहुत है मिरा साथ छोड़ कर
मैं भी हूँ ख़ुश कि क़र्ज़ मिरा भी उतर गया
 
रुख़्सत का वक़्त है यूँही चेहरा खिला रहे
मैं टूट जाऊँगा जो ज़रा भी उतर गया
 
बेकस की आरज़ू में परेशाँ है ज़िंदगी
अब तो फ़सील-ए-जाँ से दिया भी उतर गया
 
रो-धो के वो भी हो गया ख़ामोश एक रोज़
दो-चार दिन में रंग-ए-हिना भी उतर गया
 
पानी में वो कशिश है कि अल्लाह की पनाह
रस्सी का हाथ थामे घड़ा भी उतर गया
 
वो मुफ़्लिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैं ने जब
चूल्हे से ख़ाली हाथ तवा भी उतर गया
 
सच बोलने में नश्शा कई बोतलों का था
बस ये हुआ कि मेरा गला भी उतर गया
 
पहले भी बे-लिबास थे इतने मगर न थे
अब जिस्म से लिबास-ए-हया भी उतर गया

अड़े कबूतर उड़े ख़याल - मुनव्वर राना

इक बोसीदा मस्जिद में
दीवारों मेहराबों पर
और कभी छत की जानिब
मेरी आँखें घूम रही हैं
जाने किस को ढूँड रही हैं
मेरी आँखें रुक जाती हैं
लोहे के उस ख़ाली हुक पर
जो ख़ाली ख़ाली नज़रों से
हर इक चेहरा देख रहा है
इक ऐसे इंसान का शायद
जो इक पंखा ले आएगा
लाएगा और दूर करेगा
मस्जिद की बे-सामानी को
ख़ाली हुक की वीरानी पर
मैं ने जब उस हुक को देखा
मेरी नन्ही फूल सी बेटी
मेरी आँखों में दौड़ आई
भोली माँ ने उस की
अपनी प्यारी राज-दुलारी बेटी के
दोनों कानों को
अपने हाथों से छेद दिया है
फूलों जैसे कानों में फिर
नीम के तिनके डाल दिए हैं
उम्मीदों आसों के सहारे
दिल ही दिल में सोच रही है
जब हम को अल्लाह हमारा
थोड़ा सा भी पैसा देगा
बेटी के कानों में उस दिन
बालियाँ होंगी बुंदे होंगे
मैं ने अनथक मेहनत कर के
पंखा एक ख़रीद लिया है
मस्जिद के इस ख़ाली हुक को
मैं ने पंखा सौंप दिया है
हुक में पंखा देख के मुझ को
होता है महसूस कि जैसे
मेरी बेटी बालियाँ पहने
घर की छत पर घूम रही है

आख़िरी सच - मुनव्वर राना

चेहरे तमाम धुँदले नज़र आ रहे हैं क्यूँ
क्यूँ ख़्वाब रतजगों की हवेली में दब गए
है कल की बात उँगली पकड़ कर किसी की मैं
मेले मैं घूमता था खिलौनों के वास्ते
जितने वरक़ लिखे थे मिरी ज़िंदगी ने सब
आँधी के एक झोंके में बिखरे हुए हैं सब
मैं चाहता हूँ फिर से समेटूँ ये ज़िंदगी
बच्चे तमाम पास खड़े हैं बुझे बुझे
शोख़ी न जाने क्या हुई रंगत कहाँ गई
जैसे किताब छोड़ के जाते हुए वरक़
जैसे कि भूलने लगे बच्चा कोई सबक़
जैसे जबीं को छूने लगे मौत का अरक़
जैसे चराग़ नींद की आग़ोश की तरफ़
बढ़ने लगे अँधेरे की ज़ुल्फ़ें बिखेर कर
भूले हुए हैं होंट हँसी का पता तलक
दरवाज़ा दिल का बंद हुआ चाहता है अब
क्या सोचना कि फूल से बच्चों का साथ है
अब मैं हूँ अस्पताल का बिस्तर है रात है

उकताए हुए बदन - मुनव्वर राना

उम्र की ढलती हुई दोपहर में
ठंडी हवा के झोंके का एहसास भी
आदमी को ताज़ा-दम कर देता है
और अगर सच-मुच ख़ुनुक हवाएँ
थकन-नसीब जिस्म से खेलने लगें
तो शब की तारीकी ख़िज़ाब जैसी दिखाई देती है
आस-पास गर्दिश करता हुआ सन्नाटा
आरज़ूओं की गहमागहमी से गूँजने लगता है
ख़्वाब ताबीरों की तलाश में भटकने लगते हैं
बदन की उक्ताहटें चौपाल के शोर-शराबे में डूब जाती हैं
ढलते हुए सूरज की लाली से सुहाग जोड़े की ख़ुशबू
आने लगती है
लेकिन ख़्वाबीदा आरज़ूओं की शाहराह से गुज़रते हुए
लोग
अपनी मंज़िल का पता भूल जाते हैं
इसी पता भूलने को समाज
धर्म और मज़हब की आड़ ले कर
ऐसी बे-हूदा गालियाँ देता है
जो तवाइफ़ों के मोहल्लों में भी नहीं
सुनाई देतीं

ख़ुद-कलामी - मुनव्वर राना

क्या ज़रूरी है कि हम फ़ोन पे बातें भी करें
क्या ज़रूरी है कि हर लफ़्ज़ महकने भी लगे
क्या ज़रूरी है कि हर ज़ख़्म से ख़ुशबू आए
क्या ज़रूरी है वफ़ादार रहें हम दोनों
क्या ज़रूरी है दवा सारी असर कर जाए
क्या ज़रूरी है कि हर ख़्वाब हम अच्छा देखें
क्या ज़रूरी है कि जो चाहें वही हो जाए
क्या ज़रूरी है कि मौसम हो हमारा साथी
क्या ज़रूरी है सफ़र में कहीं साया भी मिले
क्या ज़रूरी है तबस्सुम यूँही मौजूद रहे
क्या ज़रूरी है हर इक राह में जुगनू चमकीं
क्या ज़रूरी है कि अश्कों को रवानी भी मिले
क्या ज़रूरी है कि मिलना ही मुक़द्दर ठहरे
क्या ज़रूरी है कि हर रोज़ मिलें हम दोनों
हम जहाँ गाँव बसाएँ वहाँ इक झील भी हो
क्या ज़रूरी है मोहब्बत तिरी तकमील भी हो

पत्थर के होंट - मुनव्वर राना

कल रात
बारिश से जिस्म
और आँसुओं से
चेहरा भीग रहा था
उस के ग़म की पर्दा-दारी
शायद ख़ुदा भी करना चाहता था
लेकिन धूप निकलने के ब'अद
जिस्म तो सूख गया
लेकिन आँखों ने
क़ुदरत का कहना मानने से
भी
इंकार कर दिया
उस के उदास
होंट पत्थर के हो गए थे
और पत्थर मुस्कुरा नहीं सकते

भिकारी - मुनव्वर राना

उस की बनाई हुई हर तस्वीर
अख़बारों की ख़बर बन जाती है
उस की हर पेंटिंग को इनआमात ललचाई हुई नज़रों से देखते हैं
उस के ब्रश से रंगों का रंग खिल जाता है
वो क़ुदरत के हर नज़्ज़ारे को
अपने रंग और ब्रश से क़ैद कर लेता है
लेकिन
उस की बीवी की कोख में
कोई तस्वीर नहीं होती
उस के ब्रश से आँगन की किलकारियां ना-वाक़िफ़ हैं
शायद इस मुसव्विर से
काएनात का सब से बड़ा मुसव्विर नाराज़ है

मेरे स्कूल - मुनव्वर राना

मेरे स्कूल मिरी यादों के पैकर सुन ले
मैं तिरे वास्ते रोता हूँ बराबर सुन ले
तेरे उस्तादों ने मेहनत से पढ़ाया है मुझे
तेरी बेंचों ने ही इंसान बनाया है मुझे
ना-तराशीदा सा हीरा था तराशा तू ने
ज़ेहन-ए-तारीक को बख़्शा है उजाला तू ने
इल्म की झील का तैराक बनाया है मुझे
ख़ौफ़ को छीन के बेबाक बनाया है मुझे
तुझ से शफ़क़त भी मिली तुझ से मोहब्बत भी मिली
दौलत-ए-इल्म मिली मुझ को शराफ़त भी मिली
शफ़्क़तें ऐसी मिली हैं मुझे उस्तादों की
परवरिश करता हो जैसे कोई शहज़ादों की
तेरी चाहत में मैं इस दर्जा भी खो जाता था
तेरी बेंचों पे ही कुछ देर को सो जाता था

लिपस्टिक - मुनव्वर राना

उस की हर बात
हर इशारे
हर किनाए को मैं आसानी से
समझ लेता था
लेकिन पता नहीं क्यूँ उस ने
मेरे लिखे हुए पुराने ख़ुतूत में
सोए हुए बे-क़ुसूर लफ़्ज़ों को
अपनी लाल रंग की लिपस्टिक से
हरा करने की कोशिश की है
क्यूँ

सफ़ेद सच - मुनव्वर राना

उस की उँगलियाँ हमेशा सच बोलती हैं
बड़ा यक़ीन था उसे अपनी उँगलियों पर
उन के सच्चे होने पर भी बड़ा नाज़ था
वो हमेशा अपनी उँगलियों को
बातों बातों में चूम लेती थी
एक दिन नादानी में उस ने
अपनी उँगलियाँ मेरे होंटों पर रख दीं
उस दिन से उस की उँगलियाँ सच नहीं बोलतीं
सिर्फ़ झूट बोलती हैं

एहतिसाबे गुनाह - मुनव्वर राना

एक दिन अचानक उसने पूछा
तुम्हें गिनती आती है
मैंने कहा हां
उसने पूछा पहाड़े
मैंने कहा हां ! हां !
फिर उसने फ़ौरन ही पूछा
हिसाब भी आता होगा
मैंने गुरुर से अपनी डिग्रियों के नाम लिए
उसने कहा बस ! बस !
अब मुझसे किये हुए वादों
की गिनती बता दो
मैं तुम्हे मुआफ कर दूंगी

ओल्ड गोल्ड - मुनव्वर राना

लायक़ औलादें
अपने बुज़ुर्गों को
ड्राइंगरूम के क़ीमती सामान की तरह रखती हैं
उन्हें पता है कि एंटीक को
छुपा कर नहीं रखा जाता
उन्हें सजाया जाता है

सिन्धु सदियों से हमारे देश की पहचान है - मुनव्वर राना

सिन्धु सदियों से हमारे देश की पहचान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
पेड़-पौधों के हरे पत्तों को चमकाती हुई
फूल पर लेकिन कटोरों रंग ढलकाती हुई
अप्सरा उतरे जमीं पर ऐसे इठलाती हुई
पत्थरों से बात करती बोलती गाती हुई
अपनी लहरों में छिपाए बांसुरी की तान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
चांद तारे पूछते हैं रात भर बस्ती का हाल
दिन में सूरज ले के आ जाता है एक सोने का थाल
खुद हिमालय कर रहा है इस नदी की देखभाल
अपने हाथों से ओढ़ाया है इसे कुदरत ने शाल
कतरा-कतरा इस नदी का फौजियों की शान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
देश के दुख-सुख से इसका आज का रिश्ता नहीं
इसका पानी साफ है शफ्फाफ है खारा नहीं
आपने हैरत है अब तक इस तरफ देखा नहीं
जो सियासत ने बनाया है ये वो नक्शा नहीं
जो हमें कुदरत ने बख्शा है ये वो सम्मान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
सिन्धु को केवल नदी हरगिज न कहना चाहिए
देश की रग-रग में इसको रोज बहना चाहिए
कम से कम एक दिन यहां पर आके रहना चाहिए
जिन्दगी दु:ख भी अगर बख्शे तो सहना चाहिए
जिसने पानी पी लिया है सिन्धु का धनवान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
हर सिपाही दुश्मनों से जंग करता है यहां
जर्रा-जर्रा मौसमों से जंग करता है यहां
जिस्म ठंडी नागिनों से जंग करता है यहां
रोज मौसम हौसलों से जंग करता है यहां
देश पर कुर्बान होना फौजियों की शान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
बर्फ रेगिस्तान है लद्दाख जैसे करबला
बर्फ को पानी बना देता है लेकिन हौसला
नफरतों के बीज बोना है सियासी मशगला
आओ मिल-जुल कर करें हम लोग अब ये फैसला
देश पर दिल भी हमारा जान भी कुर्बान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
इस नदी को देश की हर एक कहानी याद है
इसको बचपन याद है इसको जवानी याद है
ये कहीं लिखती नहीं है मुंह जुबानी याद है
ऐ सियासत तेरी हर एक मेहरबानी याद है
अब नदी को कौन बतलाए ये पाकिस्तान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
रास्ता तकती है सिन्धु ऐसे सर खोले हुए
जैसे कोई रो रहा हो चश्मे तर खोले हुए
जैसे चिड़िया सो रही हो अपने पर खोले हुए
मुनतजिर बेटे की जैसे मां हो घर खोले हुए
जिनके बेटे फौज में हैं उनका ये बलिदान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।
 
था कहां तक देश कल तक ये बताती है हमें
अपने आईने में ये माजी दिखाती है हमें
जान देना मुल्क पर सिन्धु सिखाती है हमें
मां की तरह अपने सीने से लगाती है हमें
जख्म है छाती पे लेकिन होंठ पर मुस्कान है
ये नदी गुजरे जहां से समझो हिन्दुस्तान है।

सोनिया गाँधी - मुनव्वर राना

रुख़सती होते ही मां-बाप का घर भूल गयी।
भाई के चेहरों को बहनों की नज़र भूल गयी।
घर को जाती हुई हर राहगुज़र भूल गयी,
मैं वो चिडि़या हूं कि जो अपना शज़र भूल गयी।
 
मैं तो भारत में मोहब्बत के लिए आयी थी,
कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी।
 
नफ़रतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना,
जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना।
सर से बच्चों के मेरे बाप का साया छीना,
मुझसे गिरजा भी लिया, मुझसे शिवाला छीना।
 
अब ये तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती,
मैं वो बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती।
 
आग नफ़रत की भला मुझको जलाने से रही,
छोड़कर सबको मुसीबत में तो जाने से रही,
ये सियासत मुझे इस घर से भगाने से रही।
उठके इस मिट्टी से, ये मिट्टी भी तो जाने से रही।
 
सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,
सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं।
 
अपने घर में ये बहुत देर कहाँ रहती है,
घर वही होता है औरत जहाँ रहती है।
कब किसी घर में सियासत की दुकाँ रहती है,
मेरे दरवाज़े पर लिख दो यहाँ मां रहती है।
 
हीरे-मोती के मकानों में नहीं जाती है,
मां कभी छोड़कर बच्चों को कहाँ जाती है?
 
हर दुःखी दिल से मुहब्बत है बहू का जिम्मा,
हर बड़े-बूढ़े से मोहब्बत है बहू का जिम्मा
अपने मंदिर में इबादत है बहू का जिम्मा।
 
मैं जिस देश आयी थी वही याद रहा,
हो के बेवा भी मुझे अपना पति याद रहा।
 
मेरे चेहरे की शराफ़त में यहाँ की मिट्टी,
मेरे आंखों की लज़ाजत में यहाँ की मिट्टी।
टूटी-फूटी सी इक औरत में यहाँ की मिट्टी।
 
कोख में रखके ये मिट्टी इसे धनवान किया,
मैंन प्रियंका और राहुल को भी इंसान किया।
 
सिख हैं, हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,
ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं।
यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी है,
यहाँ का पानी भी है, पानी पर जमीं काई भी है।
 
भाई-बहनों से किसी को कभी डर लगता है,
सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है।
 
हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,
हर इक फूल को तितली चमन समझती है।
हमारे दुःख को ये ख़ाके-वतन समझती है।
 
मैं आबरु हूँ तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,
मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो।

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Munawwar Rana) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!