ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी ! - अहमद फ़राज़ Zindagi! E Zindagi! Ahmed Faraz

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ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी ! - अहमद फ़राज़
Zindagi! E Zindagi! Ahmed Faraz

जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी - अहमद फ़राज़

जिससे ये तबीयत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी
 
तन्हाई में रोते हैं कि यूँ दिल के सुकूँ हो
ये चोट किसी साहिब-ए-महफ़िल से लगी थी
 
ए दिल तेरे आशोब ने फिर हश्र जगाया
बे दर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी
 
खिलक़त का अजब हाल था उस कू-ए-सितम में
साए की तरह दामने-कातिल से लगी थी
 
उतरा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया
जब कश्ती-ए-जाँ मौत के साहिल से लगी थी
 
Ahmed-Faraz

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है - अहमद फ़राज़

 
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
के हमको तेरा नहीं इंतज़ार अपना है
 
मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं
के जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है
 
वो दूर हो तो बजा तर्क-ए-दोस्ती का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार अपना है
 
ज़माने भर के दुखों को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे के इक ग़मगुसार अपना है
 
"अहमद फ़राज़" राहत-ए-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिस के हाथ से सीनाफ़िग़ार अपना है
 

अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे - अहमद फ़राज़

अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे
आग है शह्र की हवा जैसे
 
शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल-बुझा जैसे
 
मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तू जुदा हुआ जैसे
 
इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम
मैं शरीक़े-सफ़र न था जैसे
 
अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे
 
इत्तिफ़ाक़न भी ज़िंदगी में ‘अहमद फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ‘ज़िया’ जैसे
 

फिर उसी राहगुज़र पर शायद - अहमद फ़राज़

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
 
जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद
 
जिन के हम मुन्तज़िर रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद
 
अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद
 
जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर शायद
 
जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं "अहमद फ़राज़"
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद
 

बेनियाज़-ए-ग़म-ए-पैमान-ए-वफ़ा हो जाना - अहमद फ़राज़

बेनियाज़-ए-ग़म-ए-पैमान-ए-वफ़ा हो जाना
तुम भी औरों की तरह मुझ से जुदा हो जाना
 
मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें
तुम भी पाबस्ता-ए-ज़ंज़ीर-ए-हिना हो जाना
 
ख़ल्क़ की संगज़नी मेरी ख़ताओं का सिला
तुम तो मासूम हो तुम दूर ज़रा हो जाना
 
अब मेरे वास्ते तरियक़ है इल्हाद का ज़हर
तुम किसी और पुजारी के ख़ुदा हो जाना

पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे - अहमद फ़राज़

पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ाके मुझे
जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे
 
जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिले
फ़रेब तो दो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे
 
नशे से कम तो नहीं याद-ए-यार  का आलम
कि ले उड़ा है कोई दोश पर हवा के मुझे
 
मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गये आईना दिखा के मुझे
 
तुम्हारे बाम से अब कम नहीं है रिफ़अते-दार
जो देखना हो तो देखो नज़र उठा के मुझे
 
खिँची हुई है मेरे आँसुओं में इक तस्वीर
'फराज़' देख रहा है वो मुस्कुरा के मुझे
 

जब तेरी याद के जुगनू चमके - अहमद फ़राज़

जब तेरी याद के जुगनू चमके
देर तक आँख में आँसू चमके
 
सख़्त तारीक है दिल की दुनिया
ऐसे आलम में अगर तू चमके
 
हमने देखा सरे-बाज़ारे-वफ़ा
कभी मोती कभी आँसू चमके
 
शर्त है शिद्दते-अहसासे-जमाल
रंग तो रंग है ख़ुशबू चमके
 
आँख मजबूर-ए-तमाशा है ‘अहमद फ़राज़
एक सूरत है कि हरसू चमके
 

ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे - अहमद फ़राज़

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे
 
अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
 
मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे
 
तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे
 
कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे
 
आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं "अहमद फ़राज़"
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे
 

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ - अहमद फ़राज़

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
 
कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
 
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मे-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
 
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फा है तो ज़माने के लिए आ
 
माना के मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
 
जैसे तुम्हे आते हैं न आने के बहाने
वैसे ही किसी रोज न जाने के लिए
 
इक उम्र से हूँ लज्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ऐ-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ
 
अब तक दिल-ऐ-ख़ुशफ़हम को तुझ से है उम्मीदें
ये आखिरी शम्अ भी बुझाने के लिए आ
 

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे - अहमद फ़राज़

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेह्र कि रोने के बहाने माँगे
 
अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे
 
यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए
अब यही तर्के-तल्लुक़ के बहाने माँगे
 
हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
खल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे
 
ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ानेमाँगे
 
दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-"अहमद फ़राज़"
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
 

न हरीफ़े जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इंतज़ार कोई तो हो - अहमद फ़राज़

न हरीफ़े-जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इन्तज़ार कोई तो हो
किसे बज़्मे-शौक़ में लाएँ हम दिले-बेक़रार कोई तो हो
 
किसे ज़िन्दगी है अज़ीज़ अब किसे आरज़ू-ए-शबे-तरब
मगर ऐ निगारे-वफ़ा- तलब तिरा एतिबार कोई तो हो
 
कहीं तारे-दामने-गुल मिले तो य मान लें कि चमन खिले
कि निशान फ़स्ले-बहार का सरे-शाख़सार कोई तो हो
 
ये उदास-उदास-से बामो-दर , ये उजाड़-उजाड़-सी रहगुज़र
चलो हम नहीं न सही मगर सरे-कू-ए-यार कोई तो हो
 
ये सुकूने-जाँ की घड़ी ढले तो चराग़े-दिल ही न बुझ चले
वो बला से हो ग़मे-इश्क़ या ग़मे-रोज़गार कोई तो हो
 
सरे-मक़्तले-शबे-आरज़ू रहे कुछ तो इश्क़ की आबरू
जो नहीं अदू तो 'अहमद फ़राज़' तू कि नसीबे-दार कोई तो हो
 

ख़ामोश हो क्यों दादे-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते - अहमद फ़राज़

ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते
बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते
 
वहशत का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ तो नहीं है
मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते
 
इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है
ऐ चारागरो! दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते
 
मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते
 
रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी
रहबर हो तो मन्ज़िल का पता क्यूँ नहीं देते
 
क्या बीत गई अब के "अहमद फ़राज़" अहल-ए-चमन पर
यारान-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यूँ नहीं देते
 

दिल बहलता है कहाँ अंजुम-ओ-महताब से भी - अहमद फ़राज़

दिल बहलता है कहाँ अंजुम-ओ-महताब से भी
अब तो हम लोग गए दीदा-ए-बेख़्वाब से भी
 
रो पड़ा हूँ तो कोई बात ही ऐसी होगी
मैं के वाक़िफ़ था तेरे हिज्र के आदाब से भी
 
कुछ तो उस आँख का शेवा है खफ़ा हो जाना
और कुछ भूल हुई है दिल-ए-बेताब से भी
 
ऐ समंदर की हवा तेरा करम भी मालूम
प्यास साहिल की तो बुझती नहीं सैलाब से भी
 
कुछ तो उस हुस्न को जाने है ज़माना सारा
और कुछ बात चली है मेरे एहबाब से भी
 

वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया - अहमद फ़राज़

वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया
कि तेरी बात की और तेरा नाम भी न लिया
 
ख़ुशा वो लोग कि महरूम-ए-इल्तिफ़ात रहे
तेरे करम को ब-अंदाज़े-सादगी न लिया
 
तुम्हारे बाद कई हाथ दिल की सम्त बढ़े
हज़ार शुक्र गिरेबाँ को हमने सी न लिया
 
तमाम मस्ती-ओ-तिश्नालबी के हंगामे
किसी ने संग उठाया किसी ने मीना लिया
 
‘अहमद फ़राज़’ ज़ुल्म है इतनी ख़ुद-ऐतमादी भी
कि रात भी थी अँधेरी चराग़ भी न लिया
 

ज़ख़्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं - अहमद फ़राज़

ज़ख़्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं
 
क्या क़यामत है के जिन के लिये रुक रुक के चले
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं
 
कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं
 
ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी
ग़म्ज़ा-ओ-अशवा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं
 
जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें
हम जिसे छू न सकें उस को ख़ुदा कहते हैं
 
क्या त'अज्जुब है के हम अहले-तमन्ना को "अहमद फ़राज़"
वो जो महरूम-ए-तमन्ना हैं बुरा कहते हैं
 

वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर - अहमद फ़राज़

वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर
जाने किस देस गए ख़्वाब हमारे लेकर
 
छाओं में बैठने वाले ही तो सबसे पहले
पेड़ गिरता है तो आ जाते हैं आरे लेकर
 
वो जो आसूदा-ए-साहिल हैं इन्हें क्या मालूम
अब के मौज आई तो पलटेगी किनारे लेकर
 
ऐसा लगता है के हर मौसम-ए-हिज्राँ में बहार
होंठ रख देती है शाख़ों पे तुम्हारे लेकर
 
शहर वालों को कहाँ याद है वो ख़्वाब फ़रोश
फिरता रहता था जो गलियों में गुब्बारे लेकर
 
नक़्द-ए-जान सर्फ़ हुआ क़ुल्फ़त-ए-हस्ती में 'अहमद फ़राज़'
अब जो ज़िन्दा हैं तो कुछ सांस उधारे लेकर
 

किसी से दिल की हिक़ायत कभी कहा नहीं की - अहमद फ़राज़

किसी से दिल की हिक़ायत कभी कहा नहीं की,
वगर्ना ज़िन्दगी हमने भी क्या से क्या नहीं की,
 
हर एक से कौन मोहब्बत निभा सकता है,
सो हमने दोस्ती-यारी तो की वफ़ा नहीं की,
 
शिकस्तगी में भी पिंदारे-दिल सलामत है,
कि उसके दर पे तो पहुंचे मगर सदा नहीं की,
 
शिक़ायत उसकी नहीं है के उसने ज़ुल्म किया,
गिला तो ये है के ज़ालिम ने इंतेहा नहीं की,
 
वो नादेहंद अगर था तो फिर तक़ाज़ा क्या,
के दिल तो ले गया क़ीमत मगर अदा नहीं की,
 
अजीब आग है चाहत की आग भी के ‘अहमद फ़राज़’,
कहीं जला नहीं की और कहीं बुझा नहीं की,
 

कल हमने बज़्में यार में क्या-क्या शराब पी - अहमद फ़राज़

कल हमने बज़्में यार में क्या-क्या शराब पी
सहरा की तश्नगी थी सो दरिया शराब पी
 
अपनों ने तज दिया हैं तो गैरों में जा के बैठ
ऐ खानमा खराब न तनहा शराब पी
 
तू हमसफ़र नहीं हैं तो क्या सैर-ऐ-गुलिस्तान
तू हुम्सबू नहीं हैं तो फिर क्या शराब पी
 
दो सूरतें हैं यारों दर्द-ऐ-फिराक की
या उस के ग़म में टूट के रो, या शराब पी
 
इक मेहरबां बुजुर्ग ने ये मशवरा दिया
दुःख का कोई इलाज़ नहीं जा शराब पी
 
बादल गरज रहा था इधर, मोह्तासीब उधर
फिर जब तलक ये उकदा, न सुलझा शराब पी
 
इक तू के तेरे दर पे हैं रिन्दों के जमघटे
इक रोज़ इस फ़कीर के घर आ, शराब पी
 
दो जाम उनके नाम भी ऐ-पीरे-मैकदा
जिन रफ़्तगाँ के साथ हमेशा शराब पी
 
कल हमसे अपना यार ख़फा हो गया "अहमद फ़राज़"
शायद के हमने हद से ज्यादा शराब पी
 

ये जान कर भी कि दोनों के रास्ते थे अलग - अहमद फ़राज़

ये जानकर भी कि दोनों के रास्ते थे अलग
अजीब हाल था जब उससे हो रहे थे अलग
 
ये हर्फ़-ओ-लफ्ज़ है दुनिया से गुफ़्तगू के लिए
किसी हम हमसुख़नी के मकालमे थे अलग
 
ख़याल उनका भी आया कभी तुझे जानाँ
जो तुझे दूर तुझसे दूर जी रहे थे अलग
 
हमीं नहीं थे, हमारी तरह के और भी लोग
अज़ाब में थे जो दुनिया से सोचते थे अलग
 
अकेलेपन की अज़ीयत का अब गिला कैसा
'फराज़' ख़ुद ही तो औरों से हो गए थे अलग
 

मैं तो मकतल में भी - अहमद फ़राज़

मैं तो मकतल में भी किस्मत का सिकंदर निकला
कुर्रा-ए-फाल मेरे नाम का अक्सर निकला
 
था जिन्हे जोम वो दरया भी मुझी मैं डूबे
मैं के सहरा नज़र आता था समंदर निकला
 
मैं ने उस जान-ए-बहारां को बुहत याद किया
जब कोई फूल मेरी शाख-ए-हुनर पर निकला
 
शहर वल्लों की मोहब्बत का मैं कायल हूँ मगर
मैं ने जिस हाथ को चूमा वोही खंजर निकला
 
तू यहीं हार गया था मेरे बुज़दिल दुश्मन
मुझसे तनहा के मुक़ाबिल तेरा लश्कर निकला
 
मैं के सहरा-ए-मुहब्बत का मुसाफ़िर हूँ 'अहमद फ़राज़'
एक झोंका था कि ख़ुशबू के सफ़र पर निकला
 

साक़िया एक नज़र जाम से पहले-पहले - अहमद फ़राज़

साक़िया एक नज़र जाम से पहले-पहले
हम को जाना है कहीं शाम से पहले-पहले
 
ख़ुश हो ऐ दिल! के मुहब्बत तो निभा दी तूने
लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले-पहले
 
अब तेरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं
कितनी रग़बत थी तेरे नाम से पहले-पहले
 
सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले-पहले
 
कितना अच्छा था कि हम भी जिया करते थे 'अहमद फ़राज़'
ग़ैर-मारूफ़-से गुमनाम-से पहले-पहले
 

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे - अहमद फ़राज़

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
 
वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
 
ये लोग तज़्क़िरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे
 
मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
 
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे
 
जो हमसफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है "अहमद फ़राज़"
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊँ उसे
 

आशिक़ी बेदिली से मुश्किल है - अहमद फ़राज़

आशिक़ी बेदिली से मुश्किल है
फिर मुहब्बत उसी से मुश्किल है
 
इश्क़ आग़ाज़ ही से मुश्किल है
सब्र करना अभी से मुश्किल है
 
हम आसाँ हैं और हमारे लिये
दुश्मनी दोस्ती से मुश्किल है
 
जिस को सब बे-वफ़ा समझते हों
बेवफ़ाई उसी से मुश्किल है
 
एक दो दूसरे से सहेल न जान
हर कोई हर किसी से मुश्किल है
 
तू बा-ज़िद है तो जा "अहमद फ़राज़" मगर
वापसी उस गली से मुश्किल है
 

ख़ुदकलामी - अहमद फ़राज़

  ख़ुदकलामी
 
देखे ही नहीं वो लबो-रुख़सार वो ग़ेसू
बस एक खनकती हुई आवाज़ का जादू
हैरान परेशाँ लिए फिरता है तू हर सू
पाबंदे- तसव्वुर नहीं वो जल्वा-ए-बेताब
हो दूर तो जुगनू है क़रीब आए तो ख़ुशबू
लहराए तो शोला है छ्नक जाए तो घुँघरू
बाँधे हैं निगाहोँ ने सदाओं के भी मंज़र
वो क़हक़हे जैसी भरी बरसात में कू-कू
जैसे कोई क़ुमरीसरे-शमशाद लबे-जू
ऐ दिल तेरी बातों में कहाँ तक कोई आए
जज़्बात की दुनिया में कहाँ सोच के पहलू
कब आए है फ़ित्राक़में वहशतज़दा आहू
माना कि वो लबहोंगे शफ़क़-रंगो-शरर ख़ू
शायद कि वो आरिज़हों गुले-तर से भी ख़ुशरू
दिलकश ही सही हल्क़-ए-ज़ुल्फ़ो-ख़मो-अबरू
पर किसको ख़बर किसका मुक़द्दरहै ये सब कुछ
ख़्वाबों की घटा दूर बरस जाएगी और तू
लौट आएगा लेकर फ़क़त आहें फ़क़त आँसू
 

नींद - अहमद फ़राज़

 नींद
सर्द पलकों की सलीबों से उतारे हुए ख़्वाब
रेज़ा -रेज़ाहैं मिरे सामने शीशों की तरह
जिन के टुकड़ों की चुभन,जिनके ख़राशों की जलन
उम्र-भर जागते रहने की सज़ा देती है
शिद्दते-कर्बसे दीवाना बना देती है
 
आज इस क़ुर्बके हंगामवो अहसासकहाँ
दिल में वो दर्द न आँखों में चराग़ों का धुवाँ
और सलीबों से उतारे हुए ख़्वाबों की मिसाल
जिस्म गिरती हुई दीवार की मानिंदनिढाल
तू मिरे पास सही ऐ मिरे आज़ुर्दा-जमाल
 

इज़्हार - अहमद फ़राज़

पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ
तो ये न समझ कि मेरी हस्ती
बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा है
तहक़ीर से यूँ न देख मुझको
ऐ संगतराश!
तेरा तेशा
मुम्किन है कि ज़र्बे-अव्वली से
पहचान सके कि मेरे दिल में
जो आग तेरे लिए दबी है
वो आग ही मेरी ज़िंदगी है
 
हमदर्द - अहमद फ़राज़
ऐ दिल उन आँखों पर न जा
जिनमें वफ़ूरे-रंजसे
कुछ देर को तेरे लिए
आँसू अगर लहरा गए
 
ये चन्द लम्हों की चमक
जो तुझको पागल कर गई
इन जुगनुओं के नूरसे
चमकी है कब वो ज़िन्दगी
जिसके मुक़द्दरमें रही
सुबहे-तलब से तीरगी
 
 
किस सोच में गुमसुम है तू
ऐ बेख़बर! नादाँन बन
तेरी फ़सुर्दा रूहको
चाहत के काँटों की तलब
और उसके दामन में फ़क़त
हमदर्दियों के फूल हैं.
 

ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी - अहमद फ़राज़

मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ
और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी !
 
जब तलक रोशन हैं आँखों के फ़सुर्दाताक़चे
नील-गूँ होंठों से फूटेगी सदा की रोशनी
जिस्म की गिरती हुई दीवार को थामे हुए
मोम के बुत आतिशी चेहरे,सुलगती मूरतें
मेरी बीनाई की ये मख़्लूक़ ज़िन्दा है अभी
और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी !
 
हो तो जाने दे मिरे लफ़्ज़ों को मा’नी से तही
मेरी तहरीरें, धुएँ की रेंगती परछाइयाँ
जिनके पैकर अपनी आवाज़ों से ख़ाली बे-लहू
मह्व हो जाने तो दे यादों से ख़्वाबों की तरह
रुक तो जाएँ आख़िरी साँसों की वहशी आँधियाँ
फिर हटा लेना मिरे माथे से तू भी अपना साथ
मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ
और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी !
 

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी - अहमद फ़राज़

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी
 
मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद
वो भी रुक रुक के चल रही है अभी
 
मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास
वो भी लगता है सोचती है अभी
 
दिल की वारफ़तगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी
 
गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं
फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी
 
कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता
बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी
 
ख़ुद-कलामी में कब ये नशा था
जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी
 
क़ुरबतें लाख खूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
 
फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब
किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी
 
सुबह नारंज के शिगूफ़ों की
किसको सौगात भेजती है अभी
 
रात किस माह -वश की चाहत में
शब्नमिस्तान सजा रही है अभी
 
मैं भी किस वादी-ए-ख़याल में था
बर्फ़ सी दिल पे गिर रही है अभी
 
मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख़्म
दाग़ शायद कोई कोई है अभी
 
दूर देशों से काले कोसों से
कोई आवाज़ आ रही है अभी
 
ज़िन्दगी कु-ए-ना-मुरादी से
किसको मुड़ मुड़ के देखती है अभी
 
इस क़दर खीच गयी है जान की कमान
ऐसा लगता है टूटती है अभी
 
ऐसा लगता है ख़ल्वत-ए-जान में
वो जो इक शख़्स था वोही है अभी
 
मुद्दतें हो गईं 'अहमद फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी थी, वही है अभी
 
नौवारिद - नया आने वाला, ज़ूद-शनास - जल्दी पहचानने वाला
वारफतगी - खोया खोयापन, इज्तिनाब - घृणा, अलगाव
सुपुर्दगी - सौंपना, खुदकलामी - खुद से बातचीत, शिगूफ़े- फूल, कलियां
 
 
चश्मे-पुर-खूं - खून से भरी हुई आँख
आबे-जमजम - मक्के का पवित्र पानी
अबस - बेकार, सानी - बराबर, दूसरा
कामत - लम्बे शरीर वाला (यहाँ कयामत-ज़ुल्म ढाने वाले से मतलब है)
 

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का - अहमद फ़राज़

मुन्तज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का
बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का
 
रात क्या सोये कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का
 
जाने तू किस आलम में बिछड़ा है कि तेरे बग़ैर
आज तक हर लफ़्ज़ फ़रियादी मेरी तहरीर का
 
जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे
मैं ने वो आलम भी देखा है तेरी तस्वीर का
 
किस तरह पाया तुझे फिर किस तरह खोया तुझे
मुझ सा मुन्किर भी तो क़ाइल हो गया तक़दीर का
 
इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या के ये बे-मेहेर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम देते हैं जू-ए-शीर का
 
जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है "अहमद फ़राज़"
सि-सिला टूटा नहीं दर्द की ज़ंजीर का
 

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें - अहमद फ़राज़

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
 
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें
 
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
 
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
 
आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
 
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है "अहमद फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
 

अफ़ई की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स भी - अहमद फ़राज़

अफ़ई की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स भी
ऐ ज़ह्रे-ग़मे-यार बहुत हो चुकी बस भी
 
ये हब्स तो जलती हुई रुत में भी गराँ है
ऐ ठहरे हुए अब्रे-क़रम अब तो बरस भी
 
आईने-ख़राबात मुअत्तल है तो कुछ रोज़
ऐ रिन्दे-बलानोशो-तही-जाम तरस भी
 
सय्यादो-निगहबाने-चमन पर है ये रौशन
आबाद हमीं से है नशे-मन भी क़फ़स भी
 
महरूमी-ए-जावेद गुनहगार न कर दे
बढ़ जाती है कुछ ज़ब्ते-मुसलसल से हवस भी
 

दिल भी बुझा हो, शाम की परछाईयाँ भी हों - अहमद फ़राज़

दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों
 
आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों
 
हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों
 
दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों
 
पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "अहमद फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों
 

क्यों तबियत कहीं ठहरती नहीं - अहमद फ़राज़

क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं
दोस्ती तो उदास करती नहीं
 
हम हमेशा के सैर-चश्म सही
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं
 
शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं
 
ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन!
इतनी आसानियों से मरती नहीं
 
जिस तरह तुम गुजारते हो अहमद फ़राज़
जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं
 

ये तबियत है तो ख़ुद आज़ार बन जायेंगे हम - अहमद फ़राज़

ये तबियत है तो ख़ुद आज़ार बन जायेंगे हम
चारागर रोयेंगे और ग़मख़्वार बन जायेंगे हम
 
हम सर-ए-चाक-ए-वफ़ा हैं और तेरा दस्त-ए-हुनर
जो बना देगा हमें ऐ यार बन जायेंगे हम
 
क्या ख़बर थी ऐ निगार-ए-शेर तेरे इश्क़ में
दिलबरान-ए-शहर के दिलदार बन जायेंगे हम
 
सख़्त जान हैं पर हमारी उस्तवारी पर न जा
ऐसे टूटेंगे तेरा इक़रार बन जायेंगे हम
 
और कुछ दिन बैठने दो कू-ए-जानाँ में हमें
रफ़्ता रफ़्ता साया-ए-दीवार बन जायेंगे हम
 
इस क़दर आसाँ न होगी हर किसी से दोस्ती
आश्नाई में तेरा मयार बन जायेंगे हम
 
मीर-ओ-ग़ालिब क्या के बन पाये नहीं फ़ैज़-ओ-फ़िराक़
ज़म ये था रूमी-ओ-अतार बन जायेंगे हम
 
देखने में शाख़-ए-गुल लगते हैं लेकिन देखना
दस्त-ए-गुलचीं के लिये तलवार बन जायेंगे हम
 
हम चिराग़ों को तो तारीकी से लड़ना है "अहमद फ़राज़"
गुल हुए पर सुबह के आसार बन जायेंगे हम

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