दूसरा सप्तक: भवानी प्रसाद मिश्र Doosara Saptak - Bhawani Prasad Mishra

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दूसरा सप्तक: भवानी प्रसाद मिश्र 
Doosara Saptak - Bhawani Prasad Mishra

कमल के फूल - भवानी प्रसाद मिश्र

फूल लाया हूँ कमल के।
क्या करूँ' इनका,
पसारें आप आँचल,
छोड़ दूँ;
हो जाए जी हल्का।
किन्तु होगा क्या कमल के फूल का?
 
कुछ नहीं होता
किसी की भूल का-
मेरी कि तेरी हो-
ये कमल के फूल केवल भूल हैं-
भूल से आँचल भरूँ ना
गोद में इनका सम्भाले
मैं वजन इनके मरूँ-ना!
 
ये कमल के फूल
लेकिन मानसर के हैं,
इन्हें हूँ बीच से लाया,
न समझो तीर पर के हैं।
 
भूल भी यदि है
अछती भूल है।
मानसर वाले
कमल के फूल हैं।
Bhawani-Prasad-Mishra

 

सतपुड़ा के जंगल - भवानी प्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से,
ऊँघते अनमने जंगल।
 
झाड़ ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
 
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनोने, घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
 
अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
 
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
 
अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल, 
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
 
इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फ़ूंस डाले
गोंड तगड़े और काले;
 
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूंज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, गोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।
 
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्ग़े और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर!
क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
 
उतर कर बहते अनेकों, 
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले, 
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल, 
लताओं के बने जंगल।

सन्नाटा - भवानी प्रसाद मिश्र

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,
फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको
तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे
मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।
 
कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,
कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं
मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ
मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।
 
कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,
कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता है
जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,
वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।
 
मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,
मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ
ये सर सर ये खड़ खड़ सब मेरी है
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।
 
मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,
जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना
और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के
अंधकार जिनसे होता है दूना।
 
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ
मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ
मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।
 
हाँ, यहाँ क़िले की दीवारों के ऊपर,
नीचे तलघर में या समतल पर या भू पर
कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,
जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।
 
तुम डरो नहीं, वैसे डर कहाँ नहीं है,
पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है
बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,
कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।
 
यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,
इतिहास बताता नहीं उसकी कहानी
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,
थी उसकी केवल एक यही नादानी!
 
यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,
यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है
वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।
 
शाम हुए रानी खिड़की पर आती,
थी पागल के गीतों को वह दुहराती
तब पागल आता और बजाता बंसी,
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।
 
किसी एक दिन राजा ने यह देखा,
खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा
यह भरा क्रोध में आया और रानी से,
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा-जोखा।
 
रानी बोली पागल को ज़रा बुला दो,
मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो
मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,
बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।
 
वो राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,
ऐसे जवाब से उसका कोई मेल नहीं था
रानी ऐसे बोली थी, जैसे इस 
बड़े किले में कोई जेल नहीं था।
 
तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी
हाँ, पागल की भी यहीं, रानी की भी यहीं,
राजा हँस कर बोला, रानी तू भूली थी।
 
किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,
हर जगह गूँजता था पागल का गाना
बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,
रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।
 
तब और बरस बीते, राजा भी बीते,
रह गये क़िले के कमरे रीते रीते
तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।
 
पर कभी-कभी जब वो पागल आ जाता है,
लाता है रानी को, या गा जाता है
तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर
एक अनजान सकता-सा छा जाता है।

बूँद टपकी एक नभ से - भवानी प्रसाद मिश्र

बूंद टपकी एक नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हँस दिया हो
हँस रही-सी आँख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा-सा कोई किसी की
आँख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रो के सह गया हो।
 
बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आँख उसकी जिस तरह
हँसती हुई-सी आँख चूमे
उस तरह मैंने उठाई आँख
बादल फट गया था
चंद्र पर आता हुआ-सा
अभ्र थोड़ा हट गया था।
 
बूँद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आँख मिलते ही
झरोखा बंद हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छंद हो ले
उस तरह
बादल सिमट कर
और पानी के हज़ारों बूंद
तब आए अचानक

मंगल-वर्षा - भवानी प्रसाद मिश्र

पीके फूटे आज प्यार के, पानी बरसा री।
हरियाली छा गयी, हमारे सावन सरसा री।
 
बादल आये आसमान मे,धरती फूली री,
अरी सुहागिन, भरी मांग में भूली -भूली री,
बिजली चमकी भाग सखी री, दादुर बोले री,
अंध प्राण सी बहे, उड़े पंछी अनमोले री,
 
छन-छन उडी हिलोर, मगन मन पागल दरसा री ।
पीके फूटे आज प्यार के, पानी बरसा री ।
 
फिसली-सी पगडण्डी,खिसली आँख लजीली री,
इन्द्र-धनुष रंग रंगी, आज मै सहज रंगीली री,
रुनझुन बिछिया आज, हिला-डुल मेरी बेनी री,
ऊँचे-ऊँचे पेंग, हिंडोला सरग नसेनी री,
 
और सखी सुन मोर! बिजन वन दीखे घर-सा री।
पीके फूटे आज प्यार के, पानी बरसा री।
 
फुर-फुर उड़ी फुहार अलक दल मोती छाये री,
खड़ी खेत के बीच किसानिन कजरी गाये री,
झर-झर झरना झरे ,आज मन प्राण सिहाये री,
कौन जन्म के पुण्य कि ऐसे शुभ दिन आये री,
 
रात सुहागिन गात मुदित मन साजन परसा री।
पीके फूटे आज प्यार के, पानी बरसा री।

टूटने का सुख - भवानी प्रसाद मिश्र

बहुत प्यारे बन्धनों को आज झटका लग रहा है,
टूट जायेंगे कि मुझ को आज खटका लग रहा है,
आज आशाएं कभी भी चूर होने जा रही हैं,
और कलियाँ बिन खिले कुछ चूर होने जा रही हैं ,
बिना इच्छा, मन बिना,
आज हर बंधन बिना,
इस दिशा से उस दिशा तक छूटने का सुख!
टूटने का सुख।
 
शरद का बादल कि जैसे उड़ चले रसहीन कोई,
किसी को आशा नहीं जिससे कि सो यशहीन कोई,
नील नभ में सिर्फ उड़ कर बिखर जाना भाग जिसका,
अस्त होने के क्षणों में है कि हाय सुहाग जिस का,
बिना पानी, बिना वाणी,
है विरस जिसकी कहानी,
सूर्य कर से किन्तु किस्मत फूटने का सुख!
टूटने का सुख ।
 
फूल श्लथ -बंधन हुआ, पीला पड़ा, टपका कि टूटा,
तीर चढ़ कर चाप पर, सीधा हुआ खिंच कर कि छूटा,
ये किसी निश्चित नियम, क्रम कि सरासर सीढियाँ हैं,
पाँव रख कर बढ़ रही जिस पर कि अपनी पीढियाँ हैं
बिना सीधी के बढ़ेंगे तीर के जैसे बढ़ेंगे,
इसलिए इन सीढियों के फूटने का सुख!
टूटने का सुख।

प्रलय - भवानी प्रसाद मिश्र

एक दिन होगी प्रलय भी;
मिट (मत) रहेगी झोपड़ी,
मिट जायेंगे नीलम-निलय भी।
 
सात है सागर किसी दिन
फैल एकाकार होंगे,
पंच तत्वों मे गये बीते
बिचारे चार होंगें,
धार मे बहना कहाँ का
अतल तक डुबकी लगेगी;
जागना तब व्यर्थ ही होगा,
अगर जगती जगेगी!
देखने की चीज़ होगी
मृत्यु की वैसी विजय भी।
एक दिन होगी प्रलय भी।
 
जब समुन्दर बढ़ रहा होगा,
बड़ी भगदड़ मचेगी,
और बडवानल निगोड़ी,
सामने आ कर नचेगी,
क्या बुझाएंगे फायर पम्प
मन मारे जलेंगे,
मौत रानी के यहाँ
उस दिन बड़े दीपक बलेंगे
लजा कर रह जायगी
उस रोज़ विद्युत् की अन्य भी।
एक दिन होगी प्रलय भी।
 
हर हिमालय श्रृंग पर
उठती लहर की ताल होगी,
और बर्फीली सतह
बडवाग्नि पीकर लाल होगी,
कल होंगी तारिणी गंगा,
तरनिजा व्याल होंगी;
और शिव होंगे न शंकर,
कंठगत नर-नाल होगी;
कर न पायेगा हमें आश्वस्त
जननी का अभय भी।
एक दिन होगी प्रलय भी !
 
हम की मिट्टी के खिलोने,
बूंद पड़ते गल मरेंगे!
हम की तिनके धार मे बहते,
शिखा छू जल मरेंगे;
नाश की किरणे कि द्वादश
सूर्य से श्रृंगार होगा;
कौन सा वह बुलबुला होगा
कि मत अंगार होगा—
किस तरह वरदा सफल
होंगी बहुत होकर सदय भी।
एक दिन होगी प्रलय भी!
 
वह प्रलय का एक दिन,
हर दिन सरकता आ रहा है;
काल गायक गीत धीमे ही
सही, पर गा रहा है;
उस महा संगीत का हर
प्राण में कम्पन चला है;
उस महा संगीत का स्वर,
प्राण पर अपने पाला है;
आँख मीचे चल रहा है जग
कि चलता है समय भी।
एक दिन होगी प्रलय भी!
 
इस दुखी संसार में जितना
बने हम सुख लुटा दें;
बन सके तो निष्कपट मृदु हास के,
दो कन जुटा दें;
दर्द कि ज्वाला जगायें ,नेह
भींगे गीत गायें;
चाहते हैं गीत गाते ही रहें
फिर रीत जायें;
यह कि तब पछतायगी अपनी
विवशता पर प्रलय भी।
मत रहे तब झोपड़ी
मिट जय फिर नीलम निलय भी!

असाधारण - भवानी प्रसाद मिश्र

तापित को स्निग्ध करे,
प्यासे को चैन दे;
सूखे हुए अधरों को
फिर से जो बैन दे
ऐसा सभी पानी है।
 
लहरों के आने पर,
काई-सा फटे नहीं;
रोटी के लालच मे
तोते-सा रटे नहीं
प्राणी वही प्राणी है।
 
लँगड़े को पाँव और
लूले को हाथ दे,
सत की संभार में
मरने तक साथ दे,
बोले तो हमेशा सच,
सच से हटे नहीं;
झूट के डराए से
हरगिज डरे नहीं।
सचमुच वही सच्चा है।
 
माथे को फूल जैसा
अपने को चढ़ा दे जो;
रूकती-सी दुनिया को
आगे बढा दे जो;
मरना वही अच्छा है।
 
प्राणी का वैसे और
दुनिया मे टोटा नहीं,
कोई प्राणी बड़ा नहीं
कोई प्राणी छोटा नहीं।

स्नेह-शपथ - भवानी प्रसाद मिश्र

हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन ;
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन ;
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख़्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल ।
मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह;
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह -
तो सख़्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो ;
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो ।
 
कितने भी गहरे रहें गर्त,
हर जगह प्यार जा सकता है ;
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है ;
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं ।
देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं ।
तो सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।
 
तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है;
है शपथ ग़लत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है;
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफ़त पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छाईं-छाईं ।
 
तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ :
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह ।
हैं शपथ तुम्हारे करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की ।
हे, सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम जरा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।

गीत-फ़रोश - भवानी प्रसाद मिश्र

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ;
मैं सभी क़िसिम के गीत
बेचता हूँ। 
 
जी, माल देखिए दाम बताऊँगा, 
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,  
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलाएगा; 
यह गीत पिया को पास बुलाएगा। 
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को 
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को;
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान। 
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान। 
मैं सोच-समझकर आखिर 
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 
 
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें, 
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था, 
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था। 
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है 
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है 
जी, यह मसान में भूख जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर 
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर।
मैं सीधे सादे और अटपटे,
गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। 
 
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ 
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें –
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें। 
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात, 
मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात 
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ? 
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा, 
हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा। 
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के 
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के। 
मैं नये पुराने सभी तरह के 
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ। 
 
जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ; 
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का, 
यह गीत पित्त का है, यह बादी का। 
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी – 
यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी। 
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत, 
यह दुकान से घर जाने का गीत, 
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात 
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात। 
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत, 
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत। 
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ 
गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ। 
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ – 
या भीतर जा कर पूछ आइये, आप। 
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर 
गीत बेचता हँ। 
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।

वाणी की दीनता - भवानी प्रसाद मिश्र

वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं
मिलती है कहने में
एक तल्लीनता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 
आस पास भूलता हूँ
जग भर में झूलता हूँ
सिन्धु के किनारे जैसे
कंकर शिशु बीनता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 
कंकर निराले नीले
लाल सतरंगी पीले
शिशु की सजावट अपनी
शिशु की प्रवीनता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 
भीतर की आहट भर
सजती है सजावट पर
नित्य नया कंकर क्रम
क्रम की नवीनता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 
वाणी को बुनने में
कंकर को चुनने में
कोई महत्व नहीं
कोई नहीं हीनता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 
केवल स्वभाव है
चुनने का चाव है
जीने की क्षमता है
मरने की क्षीणता !
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
 

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