बुनी हुई रस्सी - भवानी प्रसाद मिश्र Buni Hui Rassi - Bhawani Prasad Mishra

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बुनी हुई रस्सी - भवानी प्रसाद मिश्र 
Buni Hui Rassi - Bhawani Prasad Mishra

बुनी हुई रस्सी - भवानी प्रसाद मिश्र

 
बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती हैं
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
 
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
 
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !
Bhawani-Prasad-Mishra
 

जबड़े जीभ और दाँत - भवानी प्रसाद मिश्र

 
जबड़े जीभ और दाँत
जबड़े जीभ और दाँत दिल छाती और आँत
और हाथ पाँव और अँगुलियाँ और नाक
और आँख और आँख की पुतलियाँ
तुम्हारा सब-कुछ जाँचकर देख लिया गया है
और तुम जँच नहीं रहे हो
लोगों को लगता है
जीवन जितना
नचाना चाहता है तुम्हें
तुम उतने नच नहीं रहे हो
 
जीवन किसी भी तरह का इशारा दे
और नाचे नहीं आदमी उस पर तो यह
आदमी की कमी मानी जाती है इसलिए
जबड़े जीभ और दाँत दिल छाती और आँत
तमाम चीज़ों को इस लायक बनाना है
वे इसीलिए जाँची जा रही हैं
और तुम्हें डालकर रखा गया है बिस्तरे पर
 
यह सब तुम्हारे भले कि लिए है
इस तरह तुम नाचने में समर्थ बनाए जाओगे
यानी जब घर आओगे अस्पताल से
तब सब नाचेंगे कि तुम
हो गए नाचने लायक!
 

धरती उठाती है - भवानी प्रसाद मिश्र

 
धरती उठाती है मुझे ऊपर
आकाश
ताकता है नीचे भू पर ऐसे
जैसे अंक में लेना चाहता है
निश्शंक
 
मगर उसकी आँखों में
हिचक है थोड़ी-सी
 
यों कि धरती उछाल तो रही है मुझे ऊपर
मगर फिर से अंक में लेने के लिए मुझे
 
आकाश की गोद में
देने के लिए नहीं!

आराम से भाई ज़िन्दगी - भवानी प्रसाद मिश्र

 
आराम से भाई ज़िन्दगी
जरा आराम से
 
तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाश्त नहीं होती अब
इतना कसकर किया गया आलींगन
जरा ज़्यादा है जर्जर इस शरीर को
 
आराम से भाई जिन्दगी
जरा आराम से
तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं
ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या
महल-अटारियों पर भी
 
न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना
बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिलकुल ही पास बैठकर
 
और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे
जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर
 
जो हो जाएंगे राख
छूकर सबेरे की किरन
 
सुबह हुए जाना है मुझे
आराम से भाई जिन्दगी
जरा आराम से !
 

कुछ नहीं हिला उस दिन - भवानी प्रसाद मिश्र

 
कुछ नहीं हिला उस दिन
न पल न प्रहर न दिन न रात
 
सब निक्ष्चल खड़े रहे
ताकते हूए अस्पताल के परदे
और दरवाजे और खिड़कीयाँ
और आती-जाती लड़कियाँ
जिन्हे मैं सिस्टर नहीं कहना चाहता था
कहना ही पड़ता था तो पुकारता था बेटी कहकर
 
और दूसरे दिन जब हिले
पल और प्रहर और दिन और रात
तब सब एक साथ बदल गये मान
अस्पताल के परदे और दरवाजे
और खिड़कियाँ और
कमरे में आती-जाती लड़कियाँ
सिरहाने खड़ी मेरी पत्नी
पायताने बैठा मेरा बेटा
अब तक की गुमसुम मेरी लड़की
और बाहर के तमाम झाड़
शरीर के भीतर की नसें
मन के भीतर के पहाड़
 
ऐसा होता है समय कभी कितना सोता है
कभी कितना जागता है
लगता है कभी कितना हो गया है स्थिर
कभी कितना भागता है!

चिकने लम्बे केश - भवानी प्रसाद मिश्र

 
चिकने लम्बे केश
काली चमकीली आँखें
खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का
फूलों ही जैसी सुगन्ध शरीर की
समयों के अन्तराल चीरती हूई
अधीरता इच्छा की
याद आती हैं ये सब बातें
अधैर्य नहीं जागता मगर अब
इन सबके याद आने पर
 
न जागता है कोई पक्ष्चात्ताप
जीर्णता के जीतने का
शरीर के इस या उस वसन्त के बीतने का
 
दुःख न्हीं होता
उलटे एक परिपूर्णता-सी
मन में उतरती है
 
जैसे मौसम के बीत जाने पर
दुःख नहीं होता
उस मौसम के फूलों का !
 

विस्मृति की लहरें - भवानी प्रसाद मिश्र

 
विस्मृति की लहरें
ऊँची उठ रही हैं
इति की यह तटिनी
बाढ़ पर है अब
 
ढह रही हैं मन से घटनाएँ
छोटी-बडी यादें और चेहरे
जिनका मैं सब-कुछ जानता था
जिन्हें मैं लगभग पर्याय मानता था
अपने होने का
 
सब किनारे के वृक्षों की तरह
गिर-गिरकर बहते जा रहे हैं
मेरी इति की धार में
दूर-दूर से व्यक्ति-वृक्ष
आ रहे हैं और
मैं उन्हें हल्का-हल्का
पहचान रहा हूँ
 
जान रहा हूँ बीच-बीच में
कि इति की तटिनी
बाढ़ पर है
ऊँची उठ रही हैं
विस्मृति की लहरें !
 

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