भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविताएँ Bhawani Prasad Mishra Famous Poetry

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भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविताएँ 
Bhawani Prasad Mishra Famous Poetry

अच्छा अनुभव - भवानी प्रसाद मिश्र

मेरे बहुत पास
मृत्यु का सुवास
देह पर उस का स्पर्श
मधुर ही कहूँगा
उस का स्वर कानों में
भीतर मगर प्राणों में
जीवन की लय
तरंगित और उद्दाम
किनारों में काम के बँधा
प्रवाह नाम का
 
एक दृश्य सुबह का
एक दृश्य शाम का
दोनों में क्षितिज पर
सूरज की लाली
 
दोनों में धरती पर
छाया घनी और लम्बी
इमारतों की वृक्षों की
देहों की काली
 
दोनों में कतारें पंछियों की
चुप और चहकती हुई
दोनों में राशीयाँ फूलों की
कम-ज्यादा महकती हुई
 
दोनों में
एक तरह की शान्ति
एक तरह का आवेग
आँखें बन्द प्राण खुले हुए
 
अस्पष्ट मगर धुले हुऐ
कितने आमन्त्रण
बाहर के भीतर के
कितने अदम्य इरादे
कितने उलझे कितने सादे
 
अच्छा अनुभव है
मृत्यु मानो
हाहाकार नहीं है
कलरव है!

Bhawani-Prasad-Mishra
 

अँधेरी रात - भवानी प्रसाद मिश्र

अँधेरी रात
पी लेती है जैसे
छाया को
ऐसे पी लेता है
अर्थों को अँधेरा मन
 
तभी तो आज
हवा फागुन की
डालियों में अटक रही – सी है
और खटक रही- सी है
नयी आयी हुई ऊष्मा
अभी-अभी फूटी हुई कोंपलों को
बहुत दूर
दक्षिण की तरफ़
नीली है पहाड़ की चोटी
और लोटी- लोटी लग रही है
आँगन के पौधे की आत्मा
स्तब्ध इस शाम के
पाँवों पर

अनुत्तर योग - भवानी प्रसाद मिश्र

प्रार्थना का जवाब नहीं मिलता
हवा को हमारे शब्द
शायद आसमान में
हिला जाते हैं
मगर हमें उनका उत्तर नहीं मिलता
 
बंद नहीं करते
तो भी हम प्रार्थना
मंद नहीं करते हम
अपने प्रणिपातों की गति
 
धीरे धीरे
सुबह-शाम ही नहीं
प्रतिपल
प्रार्थना का भाव
हम में जागता रहे
ऐसी एक कृपा हमें मिल जाती है
 
खिल जाती है
शरीर की कँटीली झाड़ी
प्राण बदल जाते हैं
 
तब वे शब्दों का उच्चारण नहीं करते
तल्लीन कर देने वाले स्वर गाते हैं
इसलिए मैं प्रार्थना छोड़ता नहीं हूँ
उसे किसी उत्तर से जोड़ता नहीं हूँ!

अपने जन्म दिन पर - भवानी प्रसाद मिश्र

बस इतना मै हूँ
एक सामान्य-सा अहं
एक सकुचा-सकुचा-सा
सदभाव
 
बस इतना मै हूँ
औए चाहता हूँ
बने रहें
मेरे ये नगण्य तत्व
जितने हैं उतने
 
मेरे भीतर
और छुएं मेरे बाहर
दूसरों को
जगाएं उनमे
अपने-अपनेपन का भाव
जो कम हो अभिमान से
जो नम हो
प्यार से कुछ ज्यादा

अब के - भवानी प्रसाद मिश्र

मुझे पंछी बनाना अब के
या मछली
या कली
और बनाना ही हो आदमी
तो किसी ऐसे ग्रह पर
जहाँ यहाँ से बेहतर आदमी हो
कमी और चाहे जिस तरह की हो
पारस्परिकता की न हो।

अलस रस - भवानी प्रसाद मिश्र

जैसे दर्द चला जाता है
ऐसे चला गया
उत्साह का एक मौसम
 
और हमने आराम की साँस ली
की अब थोड़े दिनों तक
हमारी सुबह-शामों की ख़बर
हम नहीं रखेंगे
दूसरे रखेंगे
 
हम केवल पड़े  रहने का सुख
चखेंगे  हौले–हल्के
 
दुःख की तरह तीव्र
उत्साह का मौसम
चला जो गया है!

असंदिग्ध एक उजाला - भवानी प्रसाद मिश्र

असंदिग्ध एक उजाला
टूटा बिजली बन कर
शिखर पर मेरी दृष्टि के
और डर कर मैंने
बंद कर ली अपनी आँखें
 
जब खोली आँखें तो देखा
कि देख नहीं पातीं मेरी आँखें अब कुछ भी
सिवा उस असंदिग्ध उजाले के
और दिखता है वह भी
आँखों के आगे अँधेरा छा जाने पर
अंधेरे में तैरने वाली चिन्गारियों की तरह
 
असंदिग्ध यह उजाला
जो केवल अब चिंनगारियों में दिख़ता है
दिखा नहीं पाता कुछ भी!

आमीन, गुलाब पर ऐसा वक्त कभी न आये - भवानी प्रसाद मिश्र

गुलाब का फूल है
हमारा पढ़ा - लिखा
मैंने उसे काफी
उलट-पुलट कर देखा है
मुझे तो वह ऐसा ही दिखा
 
सबसे बड़ा सबूत
उसके गुलाब होने का यह है
कि वह गाँव में जाकर
बसने के लिए
तैयार नहीं है
 
गाँव में उसकी
प्रदर्शनी कौन कराएगा
वहाँ वह अपनी शोभा की
प्रशंसा किससे कराएगा
 
वह फूलने के बाद
किसी फसल में थोड़े ही
बदल जाता है
मूरख किसान को फूलने के बाद
फसल देने वाला ही तो भाता है
 
गाँव में इसलिए ठीक है
अलसी और सरसों और
तिली के फूल
जा नहीं सकते वहाँ कदापि
गुलाब और लिली के फूल
 
बुरा नहीं मानना चाहिए
इस गुलाब - वृत्ति का
गाँव वालों को
क्योंकि वहाँ रहना चाहिए
सिर्फ ऐसे हाथ-पाँव वालों को
 
जो बो सकते हैं
और काट सकते हैं
कुएँ खोद सकते हैं
खाई पाट सकते हैं
और फिर भी चुपचाप
समाजवाद पर भाषण सुनकर
वोट दे सकते हैं
गुलाब के फूल को
और फिर अपना सकते हैं
पूरे जोश के साथ अपनी उसी भूल को
 
याने जुट जा सकते हैं जो
उगाने में अलसी और
सरसों और तिली के फूल
गुलाब और लिली के फूल
तो भाई यहीं शांतिवन में रहेंगे
 
बुरा मानने की इसमें
कोई बात नहीं है
बीच-बीच में यह प्रस्ताव
कि गुलाब वहाँ जा कर
चिकित्सा करे या पढ़ाये
पेश करते रहने में हर्ज नहीं है
मगर साफ समझ लेना चाहिए
गुलाब का यह फर्ज नहीं है
कि गाँवों में जाकर खिले
अलसी और सरसों वगैरा से हिले-मिले
और खोये अपना आपा
ढँक जाये वहाँ की धूल से
सरापा
 
और वक्तन बवक्तन
अपनी प्रदर्शनी न कराये
आमीन, गुलाब पर ऐसा वक्त कभी न आये

आसमान ख़ुद - भवानी प्रसाद मिश्र

आसमान खुद
आसमान ख़ुद हवा बनकर
नहीं बहता जैसे
हवा उसमें बहती है
 
ऐसे जीवन भी
ख़ुद नहीं बन जाता मौत
मौत उसमें रहती है
कहीँ पहले से
 
और सिर उठाती है फिर
वक़्त पाकर
आसमान में चुप पड़ी हुई
हवा की तरह
 
आसमान खुद
हवा बनकर नहीं बहता!

आषाढ़ का पहला दिन - भवानी प्रसाद मिश्र

हवा का ज़ोर वर्षा की झड़ी, झाड़ों का गिर पड़ना
कहीं गरजन का जाकर दूर सिर के पास फिर पड़ना
उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना
ध्‍वजा की तरह बिजली का दिशाओं में फहर उठना
ये वर्षा के अनोखे दृष्‍य जिसको प्राण से प्‍यारे
जो चातक की तरह ताकता है बादल घने कजरारे
जो भूखा रहकर, धरती चीरकर जग को खिलाता है
जो पानी वक्‍त पर आए नहीं तो तिलमिलाता है
अगर आषाढ़ के पहले दिवस के प्रथम इस क्षण में
वही हलधर अधिक आता है, कालिदास के मन में
तू मुझको क्षमा कर देना।

इतने बहुत–से वसंत का - भवानी प्रसाद मिश्र

इतने बहुत–से वसंत का
क्या होगा
 
मेरे पास एक फूल है
इन रोज़–रोज़ के
तमाम सुखों का क्या होगा
मेरे पास एक भूल है
सदा की अछूती और टटकी
और मनहरण
 
पैताने बैठा है जिसके
जीवन
सिरहाने बैठा है जिसके
मरण!

इन सबका दुख गाओगे या नहीं - भवानी प्रसाद मिश्र

इस बार शुरू से धरती सूखी है
हवा भूखी है
वृक्ष पातहीन हैं
इस बार शुरू से ही नदियाँ क्षीण हैं,
पंछी दीन हैं
किसानों के चेहरे मलीन हैं
 
क्या करोगे इस बार
इन सबका दुख गाओगे या नहीं
पिछले बरस कुछ सरस भी था
इस बरस तो सरस कुछ नहीं दीखता
इस बार क्षीणता को
दीनता की मलीनता को,
भूख को वाणी दो
उलट-पुलट की संभावना को पानी दो

इस दुनिया को सँवारना - भवानी प्रसाद मिश्र

इस दुनिया को सँवारना अपनी चिता रचने जैसा है
और बचना इस दुनिया से अपनी चिता से बचने जैसा है
संभव नहीं है बचना चिता से इसलिए इसे रचो
और जब मरो तो इस संतोष से
कि सँवार चुके हैं हम अपनी चिता !

इसे जगाओ - भवानी प्रसाद मिश्र

भई, सूरज
ज़रा इस आदमी को जगाओ!
भई, पवन
ज़रा इस आदमी को हिलाओ!
यह आदमी जो सोया पड़ा है,
जो सच से बेखबर
सपनों में खोया पड़ा है।
भई पंछी,
इस‍के कोनों पर चिल्‍लओ!
भई सूरज! ज़रा इस आदमी को जगाओ,
वक्‍त पर जगाओ,
नहीं तो बेवक्‍त जगेगा यह
तो जो आगे निकल गए हैं
उन्‍हें पाने-
घबरा के भागेगा यह!
घबराना के भागना अलग है,
क्षिप्र गति अलग है,
क्षिप्र तो वह है
जो सही क्षण में सजग है।
सूरज, इसे जगाओ,
पवन, इसे हिलाओ,
पंछी, इसके कानों पर चिल्‍लाओ!

उठा लो - भवानी प्रसाद मिश्र

उठा लो
आत्मा का यह फूल
 
जो तूफ़ान के थपेड़े से
धूल में गिर गया है
उठा लो इसे
 
चुनना तो
वृंत पर से
हो सकता था
 
मगर अब वह
वृंत पर नहीं
धूल पर है
 
उठा लो
आत्मा का यह फूल
धूल पर से
 
धूल को
वृंत की तरह
दुख भी नहीं होगा
 
और चुने जाने का दर्द
नहीं होगा फूल को
उठा लो
 
आत्मा का यह फूल
जो तूफ़ान के थपेड़े से
धूल में गिर गया है!

उठो - भवानी प्रसाद मिश्र

बुरी बात है
चुप मसान में बैठे-बैठे
दुःख सोचना, दर्द सोचना !
शक्तिहीन कमज़ोर तुच्छ को
हाज़िर नाज़िर रखकर
सपने बुरे देखना !
टूटी हुई बीन को लिपटाकर छाती से
राग उदासी के अलापना !
 
बुरी बात है !
उठो, पांव रक्खो रकाब पर
जंगल-जंगल नद्दी-नाले कूद-फांद कर
धरती रौंदो !
जैसे भादों की रातों में बिजली कौंधे,
ऐसे कौंधो ।

उस दिन - भवानी प्रसाद मिश्र

उस दिन
आँखें मिलते ही
आसमान नीला हो गया था
और धरती फूलवती
 
चार आँखों का वह जादू
तुम्हें यहाँ से कैसे भेजूं?
आओ तो दिखाऊं
वह जादू
 
जादू जैसे
जँबूरे के बिना नहीं चलता
वैसे बिना तुम्हारे
अकेला मैं
न आसमान
नीला कर पाता हूँ
न धरती फूलवती!

उसे क्या नाम दूँ - भवानी प्रसाद मिश्र

उसे क्या नाम दूँ जिसे मैंने
अपनी बुद्धि के अँधेरे में देखा नहीं
छुआ
जिसने मेरे छूने का जवाब
छूने से दिया
 
और जिसने मेरी चुप्पी पर
अपनी चुप्पी की मोहर लगाई
जिसने मेरी बुद्धि के अँधेरे पर
मेरे मन की अँधेरे की
तहों पर तहें जमाईं
 
और फिर जगा दिया मुझे
ऐसे एक दिन में
जिसमें आकाश तारों से भी
भरा था
वातावरण जिसमें
दूब की तरह हरा था
और कोमल!

एक आगमन - भवानी प्रसाद मिश्र

आता है सूरज तो जाती है रात
किरणों ने झाँका है होगा प्रभात
नये भाव पंछी चहकते है आज
 
नए फूल मन मे महकते हैं आज
नये बागबां हम नये ढंग से
जगत को रंगेंगे नए रंग से
खिलाएंगे कड़ी के फल-फूल पात
 
करोड़ों कदम गम को कुचलेंगे जब
ख़ुशी की तरंगों में मचलेंगे जब
तो सूरज हँसेगा हँसेगी सबा
बदल जायेंगे आग पानी हवा
 
बढ़ाओ कदम लो चलाओ हाथ
आता है सूरज तो जाती है रात
किरणों ने झाँका है होगा प्रभात

एक और आसमान - भवानी प्रसाद मिश्र

मछली
उछली
 
उजली चाँदनी ने
उस पर हाथ फेरा
 
चाँदनी से भी
उजले पानी का
पानी पर
एक घेरा बन गया
 
मन गया मानो
नीचे धरती पर भी एक आसमान

एक बहुत ही तन्मय चुप्पी - भवानी प्रसाद मिश्र

एक बहुत ही तन्मय चुप्पी ऐसी
जो माँ छाती में लगाकर मुँह
चूसती रहती है दूध
मुझसे चिपककर पड़ी है
और लगता है मुझे
यह मेरे जीवन की
लगभग सबसे निविड़ ऐसी घड़ी है
जब मैं दे पा रहा हूँ
स्वाभाविक और सुख के साथ अपने को
किसी अनोखे ऐसे सपने को
जो अभी- अभी पैदा हुआ है
और जो पी रहा है मुझे
अपने साथ-साथ
जो जी रहा है मुझे!

एक क्षण के लिए - भवानी प्रसाद मिश्र

एक क्षण के लिए जब
अपने को आप जैसा पाया मैंने
आसमान तब
सिर पर उठाया मैंने
और दे मारा मैंने उसे
ज़मीन पर
हंसी आ गयी तब मुझे
उस क्षण यह सोचकर
कि कितना इसका शोर था
इसी में रात थी
इसी में भोर था
और अब यह
यों छार छार पड़ा है
 
आपके जैसा होने का मज़ा
ख़ासा बड़ा है
मगर एक क्षण के लिए
सदा तत्पर नहीं रह सकता मैं
इतने निरर्थक रण के लिए
जिसमें आसमान
सिर पर उठाना पड़ता हो
पटकना पड़ता हो जिसमें
सूरज को ज़मीन पर!

ऐसा भी होगा - भवानी प्रसाद मिश्र

इच्छाएँ उमडती हैं
तो थक जाता हूँ,
कभी एकाध इच्छा
थोडा चलकर
तुम्हारे सिरहाने रख जाता हूँ।
जब तुम्हारी आंख
खुलती है,
तो तुम उसे देखकर
सोचती हो,
यह कोई चीज-
तुम्हारी इच्छा से
मिलती-जुलती है।
कभी ऐसा भी होगा?
जबमेरी क्लांति,
कोई भी इच्छातुम्हारे सिरहाने तक रखने
नहीं जाएगी,
तब,
वहां के खालीपन को देखकर,
शायद तुम्हें याद आएगी
अपनी इच्छा से मिलती-जुलती मेरी किसी इच्छा की।

ऐसा हो जाता है - भवानी प्रसाद मिश्र

ऐसा हो जाता है कभी-कभी
जैसा आज हो गया
मेरा सदा मुट्ठी में
रहने वाला मन
चीरकर मेरी अंगुलियां
मेरे हाथ से निकल कर खो गया
गिरा नहीं है वह धरती पर
सो तो समझा हूँ
तब उड ही गया होगा वह
आसमान में
ढूंढूं कहां उसे इस बिलकुल
भासमान में
भटक रहा हूँ इसीलिए उसे खोजता हुआ
अबाबील में कोयल में सारिका में
चंदा में सूरज में मंगल में तारिका में!

कोई सागर नहीं है - भवानी प्रसाद मिश्र

कोई सागर नहीं है अकेलापन
न वन है
एक मन है अकेलापन
जिसे समझा जा सकता है
आर पार जाया जा सकता है जिसके
दिन में सौ बार
 
कोई सागर नहीं है
न वन है
बल्कि एक मन है
हमारा तुम्हारा अकेलापन!

गीत-निमंत्रण - भवानी प्रसाद मिश्र

चलो गीत गाओ, चलो गीत गाओ।
कि गा - गा के दुनिया को सर पर उठाओ।
 
अभागों की टोली अगर गा उठेगी
तो दुनिया पे दहशत बड़ी छा उठेगी
सुरा-बेसुरा कुछ न सोचेंगे गाओ
कि जैसा भी सुर पास में है चढ़ाओ।
 
अगर गा न पाए तो हल्ला करेंगे
इस हल्ले में मौत आ गई तो मरेंगे
कई बार मरने से जीना बुरा है
कि गुस्से को हर बार पीना बुरा है
 
बुरी ज़िन्दगी को न अपनी बचाओ
कि इज़्ज़त के पैरों पे इसको चढ़ाओ

चाँदनी से तरबतर - भवानी प्रसाद मिश्र

चांदनी से तरबतर वह रात
वन के वृक्ष
वृक्षों पर सटी बैठी हुई
झंकारवन्ती झिल्लियाँ
 
सब याद है
फिर न उतना सुख
न इतना दुख मिले
फ़रियाद है

छोटी छोटी कविताएँ - भवानी प्रसाद मिश्र

कोई भी काम
कर्तव्य बन जाता है उसी क्षण
जब हमें लगता है कि
वह उस निष्ठा का अंग है
जो जीवन के पहले क्षण से
हमारे संग है.
— — —–
हमारा सब कुछ
अपनी-अपनी जगह हो
तभी समझ सकते हैं
हम इतनी छोटी बात भी
जैसे एक और एक दो
— — —
अपने प्रति सख्त बनो
जिससे नरम बन सको
दूसरों के प्रति
अच्छी है अति यहीं
और कहीं नहीं
—  — —
खुल जाएँ अगर दृष्टि के द्वार
तो दिखने लगे सब कुछ
आँखों के सामने वैसा ही
जैसा वह है अनंत याने
तब फिर न दौड़ें
-फिरें हम कुछ भी पाने.
— — —
जो जितना ऊंचा चढ़ता है
उतना साबित कदम बनाना पड़ता है उसको
मौत का सबब बन सकती है एक पल मे
ऊंचाई पर लापरवाही

जंगल के राजा ! - भवानी प्रसाद मिश्र

जंगल के राजा, सावधान !
ओ मेरे राजा, सावधान !
कुछ अशुभ शकुन हो रहे आज।
जो दूर शब्द सुन पड़ता है,
वह मेरे जी में गड़ता है,
 रे इस हलचल पर पड़े गाज।
ये यात्री या कि किसान नहीं,
उनकी-सी इनकी बान नहीं,
चुपके चुपके यह बोल रहे।
यात्री होते तो गाते तो,
आगी थोड़ी सुलगाते तो,
ये तो कुछ विष-सा बोल रहे।
वे एक एक कर बढ़ते हैं,
लो सब झाड़ों पर चढ़ते हैं,
राजा ! झाड़ों पर है मचान।
जंगलके राजा, सावधान!
ओ मेरे राजा, सावधान!
राजा गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों तक मत जाना;
वे सब-के-सब हत्यारे हैं।
वे दूर बैठकर मारेंगे,
तुमसे कैसे वे हारेंगे,
माना, नख तेज़ तुम्हारे हैं।
"ये मुझको खाते नहीं कभी,
फिर क्यों मारेंगे मुझे अभी ?"
तुम सोच नहीं सकते राजा।
तुम बहुत वीर हो, भोले हो,
तुम इसीलिए यह बोले हो,
तुम कहीं सोच सकते राजा।
ये भूखे नहीं पियासे हैं,
वैसे ये अच्छे खासे हैं,
है 'वाह वाह' की प्यास इन्हें।
ये शूर कहे जायँगे तब,
और कुछ के मन भाएँगे तब,
है चमड़े की अभिलाष इन्हें,
ये जग के, सर्व-श्रेष्ठ प्राणी,
इनके दिमाग़, इनके वाणी,
फिर अनाचार यह मनमाना!
राजा, गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों तक मत जाना।
ज़रा आराम से
जाहिल के बाने
जूही ने प्यार किया
जैसा दिखता है
जैसे याद आ जाता है
झुर्रियों से भरता हुआ

तुम कागज पर लिखते हो - भवानी प्रसाद मिश्र

तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।
 
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पीसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।
 
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।
बापूजी ने कहा - बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।
 

तुम नहीं समझोगे - भवानी प्रसाद मिश्र

तुम नहीं समझोगे केवल किया हुआ
इसलिए अपने किये पर
वाणी फेरता हूँ
और लगता है मुझे
उस पर लगभग पानी फेरता हूँ
 
तब भी नहीं समझते तुम
तो मैं उलझ जाता हूँ
लगता है जैसे
नाहक अरण्य में गाता हूँ
 
और चुप हो जाता हूँ फिर
लजाकर
अपनी वाणी को
इस तरह स्वर से सजाकर!

तुमने जो दिया है - भवानी प्रसाद मिश्र

तुमने जो दिया है वह सब
हवा है प्रकाश है पानी है
छन्द है गन्ध है वाणी है
उसी के बल पर लहराता हूँ
ठहरता हूँ बहता हूँ झूमता हूँ
चूमता हूँ जग जग के काँटे
आया है जो कुछ मेरे बाँटे
देखता हूँ वह तो सब कुछ है
सुख दु:ख लहरें हैं उसकी
मैं जो कहता हूँ
समय किसी स्टेनो की तरह
उसे शीघ्र लिपि में लिखता हूँ
और फिर आकर
दिखा जाता है मुझे
दस्तखत कर देता हूँ
कभी जैसा का तैसा उसे
विस्मृति के दराज में धर देता हूँ।
तुमने मुझे जो कुछ दिया है वह सब
हवा है प्रकाश है पानी है।

तार के खंभे - भवानी प्रसाद मिश्र

एक सीध में दूर-दूर तक गड़े हुए ये खंभे
किसी झाड़ से थोड़े नीचे , किसी झाड़ से लम्बे ।
कल ऐसे चुपचाप खड़े थे जैसे बोल न जानें
किन्तु सबेरे आज बताया मुझको मेरी माँ ने -
इन्हें बोलने की तमीज है , सो भी इतना ज्यादा
नहीं मानती इनकी बोली पास-दूर की बाधा !
 
अभी शाम को इन्हीं तार के खंभों ने बतलाया
कल मामीजी की गोदी में नन्हा मुन्ना आया ।
और रात को उठा , हुआ तब मुझको बड़ा अचंभा -
सिर्फ बोलता नहीं , गीत भी गाता है यह खंभा !

तुम्हारी ओर से - भवानी प्रसाद मिश्र

तुम्हारी और से झिल्ली जो
मढ़ी गई है मेरे ऊपर
तन्तु जो तुम्हारा बाँधे है मुझे
इच्छा जो अचल है
तुमसे आच्छादित रहने की
 
आशा जो अविचल है मेरी
तुममें समा जाने की
 
कैसे उसे उतारूँ
कैसे उसे तोडूं कैसे उसे छोडूं
 
जोडूं कैसे अब इन सबको
अपने या पराये किसी छोर से
 
तुम्हारी और से जो मढ़ा गया है
नशा-सा चढ़ा गया है वह मुझ पर
 
ठगी सी बुद्धी को जगाऊँगा
तो कौन कह सकता है
लजाऊंगा नहीं
होश में आने पर!

तारों से भरा आसमान ऊपर - भवानी प्रसाद मिश्र

तारों से भरा आसमान ऊपर
हृदय से हरा आदमी भू पर
होता रहता हूं रोमांचित
वह देख कर यह छूकर ।
 

तो पहले अपना नाम बता दूँ - भवानी प्रसाद मिश्र

 
तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,
फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको
तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे
मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।
 
कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,
निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं
मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ
मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।
 
कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,
कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता है
जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,
वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।
 
मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,
मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ
यह सर सर यह खड़ खड़ सब मेरी है
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।
 
मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,
जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना
और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के
अंधकार जिनसे होता है दूना।
 
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ
मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ
मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।
 
हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपर,
नीचे तलघर में या समतल पर, भू पर
कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,
जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।
 
तुम डरो नहीं, डर वैसे कहाँ नहीं है,
पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है
बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,
कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।
 
यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,
इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,
थी उसकी केवल एक यही नादानी!
 
यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,
यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है
वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।
 
शाम हुए रानी खिड़की पर आती,
थी पागल के गीतों को वह दुहराती
तब पागल आता और बजाता बंसी,
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।
 
किसी एक दिन राजा ने यह देखा,
खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा
यह भरा क्रोध में आया और रानी से,
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।
 
रानी बोली पागल को जरा बुला दो,
मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो
मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,
बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।
 
वह राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,
ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं था
रानी ऐसे बोली थी, जैसे उसके
इस बड़े किले में कोई जेल नहीं था।
 
तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी
हाँ, पागल की भी यहीं, यहीं रानी की,
राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी।
 
किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,
हर जगह गूँजता था पागल का गाना
बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,
रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।
 
तब और बरस बीते, राजा भी बीते,
रह गये किले के कमरे कमरे रीते
तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।
 
पर कभी कभी जब पागल आ जाता है,
लाता है रानी को, या गा जाता है
तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर
अनजान एक सकता-सा छा जाता है।

दर्द की दवा - भवानी प्रसाद मिश्र

दर्द की दवा का असर
हवा हो जाये जब
 
तब जो दर्द लौट आया है
उसे नया मान लो
 
और उपाय भी उसका
नया खोजो कोई
 
विचारणीय मानो
मेरे इस सुझाव को
 
सहलाओ
नए ढंग से बार बार
पुराने घाव को
 
लाभ समझ में आयेंगे
कम-से-कम
पुराने घाव
पुराने नहीं हो पायेंगे!

दरिंदा - भवानी प्रसाद मिश्र

दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला
 
स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला
 
और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई
 
मानवता
थोड़ी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !

धरती का पहला प्रेमी - भवानी प्रसाद मिश्र

एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का
पहला प्रेमी कहा है
 
धरती को सूरज के बाद
और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा
 
जाने कितनी चीज़ों ने
उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा
 
कुछ तो उस पर
वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में
 
मगर एडिथ ने
उनका नाम नहींलिया
ठीक किया मेरी भी समझ में
 
प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने
 
प्रेमी के मन में
प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है
 
चाहते हैं सब धरती को
अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से
 
मगरप्रेमी में
एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है
 
रोज़ चला आता है
पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों
 
मगर वह लौटा देती है उसे
शाम तक शायद लाज के मारे
 
और चला जाता है सूरज
चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।

धरती पर तारे - भवानी प्रसाद मिश्र

गुस्से के मारे
सारे के सारे
आसमान के तारे
टूट पड़े धरती के ऊपर
झर-झर-झर-झर अगर
तो बतलाओ क्या होगा?
 
धरती पर आकाश बिछेगा
किरणों से हर कदम सिंचेगा
चंदा तक चढ़ने का
मतलब नहीं बचेगा
रूस बढ़ा या अमरीका
बढ़ने का मतलब नहीं बचेगा|
 
मगर एक मुश्किल आऐगी
कब जाएगी रात और
दिन कब आएगा?
कब मुर्गा बोलेगा
कब सूरज आएगा
कब बाज़ार भरेगा
कब हम जाएँगे सोने
कब जाएँगे लोग,
बढ़ेंगे कब किसान बोने
कब मां हमें उठाएगी
मूंह हाथ धुलेगा
जल्दी जल्दी भागेंगे हम यों कि
अभी स्कूल खुलेगा?
 
नाहक हैं सारे सवाल ये
हम सब चौबीसों घंटों
जागेंगे कूदेंगे खेलेंगे
हर तारे से बात करेंगे!
 
मगर दूसरे लोग-
बात उनकी क्या सोचें
उनसे कुछ भी नहीं बना
तो पापड़ बेलेंगे!

धीरज रखना भाई नीले आसमान - भवानी प्रसाद मिश्र

धीरज रखना
भाई नीले आसमान
फिर कोई बिजली मत गिरा देना
बिना घनों के
 
क्योंकि संकल्प हमारे मनों के
इस समय ज़रा अलग हैं
 
हम धूलिकणों के बने हुये
रसाल-फलों में
बदल रहे हैं अपने-अपने
छोटे-बड़े सपने
 
धीरज रखना
भाई नीले आसमान
फिर कोई बिजली मत गिरा देना
बिना घनों के

धुँधला है चन्द्रमा - भवानी प्रसाद मिश्र

धुंधला है चन्द्रमा
सोया है मैदान घास का
 ओढ़े हुए धुंधली–सी चाँदनी
 
और गंध घास की
फैली है मेरे आसपास और
जहाँ तक जाता हूँ वहां तक
 
चादर चाँदनी की आज मैली है
यों उजली है वो घास की इस गंध की अपेक्षा
हरहराते घास के इस छन्द की अपेक्षा
 
मन अगर भारी है
कट जायेगी आज की भी रात
कल की रात की तरह
जब आंसू टपक रहे हैं
कल की तरह
लदे वृक्षों के फल की तरह
और मैं हल्का हो रहा हूँ
आज का रहकर भी
कल का हो रहा हूँ

नए साल के लिए - भवानी प्रसाद मिश्र

कल हमारे चाँद सूरज और तारे
बदल जायेंगे लगेंगे अमित प्यारे
टूट जायेगा हमारा कड़ा घेरा
और होगा मुक्त कल पहला सबेरा
यह सबेरा सार्थक जिस बात से हो
काम वह अपना शुरू इस रात से हो

नये अर्थ की प्यास में - भवानी प्रसाद मिश्र

नये अर्थ की प्यास में डूब गया शब्द
मन का गोताख़ोर डूब गया उभरकर
भँवर में अविश्वास के
 
हुआ ही कुछ तो यह हुआ कि
उमड़ लिये धारा के ऊपर–ऊपर
संदर्भों के घन और फिर वे भी
झंझावत में उड़ गये
 
बरस लिये शायद जाकर किन्हीं
अनजाने मैदानों में
 
और छू गई अगर आकर ठंडी हवा
उन प्रांतरों की तो छटपटाये
नये अर्थों के लिए डूबे–डूबे शब्द
छूकर ठंडी हवा
 
पानी की लकीरें बनकर
रह गये डूबे–उभरे शब्द
 
सन्दर्भों भरी भँवरी से
वापिस ही नहीं हुए
मोती के लिए ताल तक पैठे हुए
मछुए!

नहीं बनेगा - भवानी प्रसाद मिश्र

तय करके
नहीं लिख सकते आप
तय करके लिखेंगे
तो आप जो कुछ लिखेंगे
उसमें
लय कुछ नहीं होगा
लीन कुछ नहीं होगा
एक शब्द
दूसरे शब्द को
आवाज देता है कई बार
और अन्यमनस्क सा
दूर पर खड़ा शब्द
घूम पड़ता है आवाज की तरफ
हरफ के अपना मन है
सुन लेते हैं वे
अपने मन की आवाजें
नहीं तो दे देते हैं अनसुनी
खींचे ही कोई शब्द को
तो खिंच जायेगा बेचारा
मगर
अन्तर समझें हल
खींच जाने
और खिंच जाने का !

निरापद कोई नहीं है - भवानी प्रसाद मिश्र

ना निरापद कोई नहीं है
न तुम, न मैं, न वे
न वे, न मैं, न तुम
सबके पीछे बंधी है दुम आसक्ति की!
 
आसक्ति के आनन्द का छंद ऐसा ही है
इसकी दुम पर
पैसा है!
 
ना निरापद कोई नहीं है
ठीक आदमकद कोई नहीं है
न मैं, न तुम, न वे
न तुम, न मैं, न वे
 
कोई है कोई है कोई है
जिसकी ज़िंदगी
दूध की धोई है
 
ना, दूध किसी का धोबी नहीं है
हो तो भी नहीं है!

परिवर्तन जिए - भवानी प्रसाद मिश्र

अनहोनी बातों की
आशा में जीना
कितना रोमांचकारी है
 
मैं उसी की आशा में
जी रहा हूँ
सोच रहा हूँ
हवा की ही नहीं
सूर्य किरनों की गति
मेरी कविता में आएंगी
मेरी वाणी
उन तूफ़ानों को गाएंगी
जो अभी उठे नहीं है
और जिन्हें उठना है
इसलिए कि
जड़ता नहीं
परिवर्तन जिए
 
बच्चे का भय
और बच्चे का कौतूहल
मेरी आंखों और
शब्दों से फूटे
तो टूटे
सामने खड़ा पहाड़
तयशुदा पक्की चाट्टानों का
 
कचूमर निकले
इसके टूटने से
मेरे तुम्हारे उसके
प्राणों का
तो एक अनहोनी हो जाए
मरते-मरते
जीने का मतलब निकले
फिसले-फिसले-फिसले
यह पहाड़ सामने का
काला
और तयशुदा
 
देखें हम
यह एक करिश्मा
साथ-साथ
और जुदा-जुदा!

पहली बातें - भवानी प्रसाद मिश्र

अब क्या होगा इसे सोच कर, जी भारी करने मे क्या है,
जब वे चले गए हैं ओ मन, तब आँखें भरने मे क्या है ।
जो होना था हुआ, अन्यथा करना सहज नहीं हो सकता,
पहली बातें नहीं रहीं, तब रो रो कर मरने मे क्या है?
 
सूरज चला गया यदि बादल लाल लाल होते हैं तो क्या,
लाई रात अंधेरा, किरनें यदि तारे बोते हैं तो क्या,
वृक्ष उखाड़ चुकी है आंधी, ये घनश्याम जलद अब जायें,
मानी ने मुहं फेर लिया है, हम पानी खोते हैं तो क्या?
 
उसे मान प्यारा है, मेरा स्नेह मुझे प्यारा लगता है,
माना मैनें, उस बिन मुझको जग सूना सारा लगता है,
उसे मनाऊं कैसे, क्योंकर, प्रेम मनाने क्यों जाएगा?
उसे मनाने में तो मेरा प्रेम मुझे हारा लगता है ।

पानी को क्या सूझी - भवानी प्रसाद मिश्र

मैं उस दिन
नदी के किनारे पर गया
तो क्या जाने
पानी को क्या सूझी
पानी ने मुझे
बूँद–बूँद पी लिया
 
और मैं
पिया जाकर पानी से
उसकी तरंगों में
नाचता रहा
 
ररत-भर
लहरों के साथ-साथ
सितारों के इशारे
बाँचता रहा!

पुकार कर - भवानी प्रसाद मिश्र

मुझे कोई हवा पुकार रही है
कि घर के बाहर निकलो
तुम्हारे बाहर आए बिना
एक समूची जाति एक समूची संस्कृति
हार रही है
 
मुझे कोई हवा पुकार रही है।
सोचता हूँ सुनने की शक्ति बची है
तो चल पड़ने की भी मिल जाएगी
अकेला भी निकल पड़ा पुकार कर
तो धरती हिल जाएगी।

पूछना है - भवानी प्रसाद मिश्र

सूरज ने
ऊपर
मेरे घर
की छत पर
हल
चला दिया है
 
और उतर कर
उसने नीचे
मेरे आँगन के
बिरवे पर
आता हुआ
फल
जला दिया है
 
इसीलिए
मेरे चौके में
सारी की सारी सब्ज़ी
बाज़ार की है
 
और खाते हैं
बाज़ार के ही लोग
बैठकर
मेरे चौके में
मैं बचा नहीं पाया
चौके का
बाज़ार हो जाना
 
क्योंकि
मचा नहीं पाया
घर में
बाज़ार वालों की
तरह
शोर
 
इसीलिए वे
नाराज़ हो गये
और नाराज़ होकर
उन्होने
मेरे घर को
बाज़ार कर दिया
 
यह बात तो
एक हद तक
समझ में
आती है
 
मगर समझ में
यह नहीं आया
कि सूरज ने
मेरे घर की छत पर
हल क्यों चला दिया
 
और उसने
नीचे उतर कर
मेरे आँगन के
बिरवे पर
आते हुए फल को
क्यों जला दिया
 
क्या करता मैं
इसे जानने के लिए
सिवा सूरज से
इसका सबब
पूछने के लिए
निकल पड़ता
 
चल पड़ता
इसीलिए उदय और अस्त के
धनी
अँचलों की ओर
 
पीठ देकर
बाज़ार के
शोर को !
("नीली रेखा तक" से)

बह नहीं रहे होंगे - भवानी प्रसाद मिश्र

बह नहीं रहे होंगे
रेवा के किनारे-किनारे
उन दिनों के
 
हमारे शब्द
दीपों की तरह
पड़े तो होंगे मगर
 
पहुँच कर वे
अरब-सागर के किनारे पर
कंकरों और शंखो और
सीपों की तरह!

बेदर्द - भवानी प्रसाद मिश्र

मैंने निचोड़कर दर्द
मन को
मानो सूखने के ख़याल से
रस्सी पर डाल दिया है
 
और मन
सूख रहा है
 
बचा-खुचा दर्द
जब उड़ जाएगा
तब फिर पहन लूँगा मैं उसे
 
माँग जो रहा है मेरा
बेवकूफ तन
बिना दर्द का मन !

भारतीय समाज - भवानी प्रसाद मिश्र

कहते हैं
इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा
पिछ्ले पचास वर्षों में किसी को
इतनी ज्यादा बारिश की याद नहीं है।
 
कहते हैं हमारे घर के सामने की नालियां
इससे पहले इतनी कभी नहीं बहीं
न तुम्हारे गांव की बावली का स्तर
कभी इतना ऊंचा उठा
न खाइयां कभी ऐसी भरीं, न खन्दक
न नरबदा कभी इतनी बढ़ी, न गन्डक।
 
पंचवर्षीय योजनाओं के बांध पहले नहीं थे
मगर वर्षा में तब लोग एक गांव से दूर दूर के गांवों तक
सिर पर सामान रख कर यों टहलते नहीं थे
और फिर लोग कहते हैं
जिंदगी पहले के दिनों की बड़ी प्यारी थी
सपने हो गये वे दिन जो रंगीनियों में आते थे
रंगीनियों में जाते थे
जब लोग महफिलों में बैठे बैठे
रात भर पक्के गाने गाते थे
कम्बख़्त हैं अब के लोग, और अब के दिन वाले
क्योंकि अब पहले से ज्यादा पानी गिरता है
और कम गाये जाते हैं पक्के गाने।
 
और मैं सोचता हूँ, ये सब कहने वाले
हैं शहरों के रहने वाले
इन्हें न पचास साल पहले खबर थी गांव की
न आज है
ये शहरों का रहने वाला ही
जैसे भारतीय समाज है।

महंगे-सस्ते - भवानी प्रसाद मिश्र

एक तरैया देखी जब
पांच ब्राहान न्योते तब
अरसराम, परसराम
तुलसी, गंगा, सालगराम!
अरसराम खाएँ अरसे तक
परसराम खाएँ परसे तक
तुलसी, तुलसीदल पर रहे
गंगा, गंगाजल पर रहे!
मगर अनूठे सालगराम
रहें ताकते सबके काम
इसका खाना उसका पीना
यही बन गया उसका जीना
 
पांच पांच भी सस्ते पड़े
पुन्न सहज मिल गए बड़े

महारथी - भवानी प्रसाद मिश्र

झूठ आज से नहीं
अनन्त काल से
रथ पर सवार है
और सच चल रहा है
पाँव-पाँव
 
नदी पहाड़ काँटे और फूल
और धूल
और ऊबड़-खाबड़ रास्ते
सब सच ने जाने हैं
 
झूठ तो
समान एक आसमान में उड़ता है
और उतर जाता है
जहाँ चाहता है
 
क्रमश: बदली है
झूठ ने सवारियाँ
 
आज तो वह सुपरसॉनिक पर है
 
और सच आज भी
पाँव-पाँव चल रहा है
 
इतना ही हो सकता है किसी-दिन
कि देखें हम
सच सुस्ता रहा है
थोड़ी देर छाँव में
और
 
सुपरसॉनिक किसी झँझट में पड़कर
जल रहा है

मेरा अपनापन - भवानी प्रसाद मिश्र

रातों दिन बरसों तक
मैंने उसे भटकाया
 
लौटा वह बार-बार
पार करके मेहराबें
समय की
मगर खाली हाथ
 
क्योंकि मैं उसे
किसी लालच में दौड़ाता था
दौड़ता था वह मेरे इशारे पर
और जैसा का तैसा नहीं
थका और मांदा
लौट आता था यह कहने
कि रहने दो मुझे
अपने पास
मैं हरा रहूंगा
जैसे तुम्हारे पाँवों के नीचे की घास
मैंने देख लिया है
तुमसे दूर कहीं कुछ है ही नहीं
हम दोनों मिलकर
पा सकेंगे उसे यहीं
जो कुछ पाने लायक है।

मेरे वृन्त पर - भवानी प्रसाद मिश्र

मेरे वृन्त पर
एक फूल खिल रहा है
उजाले की तरफ़ मुंह किये हुए
 
और उकस रहा है
एक कांटा भी
उसी की तरह
पीकर मेरा रस
मुंह उसका
अँधेरे की तरफ़ है I
 
फूल झर जाएगा
मुंह किए -किए
उजाले की तरफ़
काँटा
वृन्त के सूखने पर भी
वृन्त पर बना रहेगा

मैं क्या करूँगा - भवानी प्रसाद मिश्र

हवा वैसाख की
राशि राशि पत्ते
पेडो के नीचे के राशि राशि झरे बिखरे
सूखे फूल
लेकर चलेगी चल देगी
 
मुझको तो यह भी मयस्सर नही है
मैं क्या करूंगा वैसाख की दुपहिरया में
झरिया खनाती हुयी कोई बेटी भी
नही दिखेगी जब नदिया के तीर पर
मैं क्या लेकर उडूँगा प्राणो में
देय क्या भरूंगा मैं शब्दो के दोने में
अकमर्ठ बुढापे सा
दुबका रहँूगा क्या कोने में
 
तन के मन के
विस्तृत गगन के
ओर छोर ढांकने की इच्छा मेरी
आषाढ के मेघ की तरह नही
तो क्या
वैसाख जेठ की धूल की तरह भी
पूरी नही होगी
 
राशि राशि झरे बिखरे सूखे फूल
लेकर बहेगी हवा वैसाख की
मैं क्या करूंगा।

मैं क्यों लिखता हूँ - भवानी प्रसाद मिश्र

मैं कोई पचास-पचास बरसों से
कविताएँ लिखता आ रहा हूँ
अब कोई पूछे मुझसे
कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा
कविताएँ लिखने से
 
जैसे अभी दो मिनट पहले
जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था
तब काग़ज़ काग़ज़ था
मैं मैं था
और कलम कलम
मगर जब लिखने बैठा
तो तीन नहीं रहे हम
एक हो गए

मैं जो हूँ - भवानी प्रसाद मिश्र

वस्तुतः
मैं जो हूँ
मुझे वहीं रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेड़
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित भविष्य में
मैं जो हूँ मुझे वहीं रहना चाहिए
तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूँ
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फल बनने के लिए
मैं जो हूँ
मुझे वह बनना चाहिए
धारा हूँ अन्तः सलिला
तो मुझे कुएँ के रूप में
खनना चाहिए
ठीक जरूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूँ
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूँ
जो हूँ
वही होने से डर रहा हूँ

मैं तैयार नहीं था - भवानी प्रसाद मिश्र

मैं तैयार नहीं था सफ़र के लिए
याने सिर्फ़ चड्डी पहने था और बनियान
एकदम निकल पड़ना मुमकिन नहीं था
 
और वह कोई ऐसा बमबारी
भूचाल या आसमानी सुलतानी का दिन नहीं था
कि भाग रहे हों सड़क पर जैसे-तैसे सब
 
इसलिए मैंने थोड़ा वक़्त चाहा
कि कपड़े बदल लूँ
रख लूँ साथा में थोड़ा तोशा
मगर जो सफ़र पर चल पड़ने का
आग्रह लेकर आया था
उसने मुझे वक़्त नहीं दिया
और हाथ पकड़कर मेरा
लिए जा रहा है वह
जाने किस लम्बे सफ़र पर
कितने लोगों के बीच से
 
और मैं शरमा रहा हूँ
कि सफ़र की तैयारी से
नहीं निकल पाया
सिर्फ चड्डी पहने हूँ
और बनियान !
 

मैं फिर आऊंगा - भवानी प्रसाद मिश्र

गतिहीन समय ने
मुझे इस तरह फेंक दिया है
अपने से दूर
जिस तरह फेंक नहीं पाती हैं
चट्टान लहरों को
मैं समय तक आया था यों
कि उसे भी आगे बढाऊँ
 
मगर उसने
मुझे पीछे फेंक दिया है
मैं चला था जहाँ से
अलबत्ता वहां तक तो
नहीं ढकेल पाया है वह मुझे
 
और कुछ न कुछ मेरा
समय को भले नहीं
सरका पाया है आगे
 
ख़ुद कुछ आगे चला गया है उससे
लाँघकर उसे छिटक गये हैं
मेरे शब्द
मगर मैं उसे अब
समूचा लाँघकर
आगे बढ़ना चाहता हूँ
 
अभी नहीं हो रहा है उतना
इतना करना है मुझे
और इसके लिए
मैं फिर आऊँगा

यह कर्जे की चादर - भवानी प्रसाद मिश्र

पहले इतने बुरे नहीं थे तुम
याने इससे अधिक सही थे तुम
किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने
अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगों ने
या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने
तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया
तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया
छोटी बातों से सम्पर्क खो गया
धुनक-पींज कर , कात-बीन कर
अपनी चादर खुद न बनाई
 
बल्कि दूरसे कर्जे लेकर मंगाई
और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है
यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है ।
(१९५९ में लिखी यह कविता , विश्व बैंक से पहली
बार कर्जा लेने की बात उसी समय शुरु हुई थी।)
 

यह तो हो सकता है - भवानी प्रसाद मिश्र

यह तो हो सकता है 
कि थक जाऊं मैं लिखने-पढ़ने से
 
कवि की तरह दिखने से
अच्छा मानता हूँ मैं किसी का भी
किसान या बुनकर दिखना
 
गीत लिखने से अच्छा मानता हूँ मैं
लिखना फ़सलें ज़मीन के टुकड़े पर
 
अपने टुकड़े पर तरजीह देता हूँ
किसी और के पल-भर हँसने को
कमतर मानता हूँ तौल-तौल कर शब्द
ताने कसने को
 
या कहो उससे अच्छा मानता हूँ कमर कसना
विनोबा कहते थे दिल्ली में बसना
स्वर्गवासी हो जाने का पर्याय है
 
और पूछते थे
क्यों भवानी बाबू
इस पर तुम्हारी क्या राय है?

रास्ते पर - भवानी प्रसाद मिश्र

रास्ते पर चलते–चलते
भीड़ में जलते-जलते
अकेले हो जाने पर
हम राख हो जायेंगे
 
और अगर
कोई साख चाहेगा
तो हम इस तरह
अपनी राख से
अपने शानदार ज़माने की
साख हो जायेंगे
 

लफ्फा़ज़ मैं बनाम निराला - भवानी प्रसाद मिश्र

लाख शब्दों के बराबर है
एक तस्वीर !
मेरे मन में है एक ऐसी झाँकी
जो मेरे शब्दों ने कभी नहीं आँकी
शायद इसीलिए
कि, हो नही पाता मेरे किए
लाख शब्दों का कुछ-
न उपन्यास
न महाकाव्य !
तो क्या कूँची उठा लूँ
रंग दूँ रंगों में निराला को ?
आदमियों में उस सबसे आला को?
किन्तु हाय,
उसे मैंने सिवा तस्वीरों के
देखा भी तो नहीं है ?
कैसे खीचूँ, कैसे बनाऊँ उसे
मेरे पास मौलिक कोई
रेखा भी तो नहीं है ?
उधार रेखाएँ कैसे लूँ
इसके-उसके मन की !
मेरे मन पर तो छाप
उसकी शब्दों वाली है
जो अतीव शक्तिशाली है-
‘राम की शक्ति पूजा’
‘सरोज-स्मृति’
यहाँ तक कि ‘जूही की कली’
अपने भीतर की हर गली
इन्हीं से देखी है प्रकाशित मैंने,
और जहाँ रवि न पहुँचे
उसे वहाँ पहुँचने वाला कवि माना है,
फिर भी कह सकता हूँ क्या
कि मैंने निराला को जाना है ?
सच कहो तो बिना जाने ही
किसी वजह से अभिभूत होकर
मैंने उसे
इतना बड़ा मान लिया है-
कि अपनी अक्ल की धरती पर
उस आसमान का
चंदोबा तान लिया है
और अब तारे गिन रहा हूँ
उस व्यक्ति से मिलने की प्रतीक्षा में
न लिखूंगा हरफ, न बनाऊंगा तस्वी्र !
क्यों कि‍ हरफ असम्भव है, तस्वीर उधार
और मैं हूँ आदत से लाचार-
श्रम नहीं करूँगा
यहाँ तक
कि निराला को ठीक-ठीक जानने में
डरूँगा, बगलें झाँकूँगा,
कान में कहता हूँ तुमसे
मुझ से अब मत कहना
मैं क्या खाकर
उसकी तस्वीर आँकूँगा !

लाओ अपना हाथ - भवानी प्रसाद मिश्र

लाओ अपना हाथ मेरे हाथ में दो
नए क्षितिजों तक चलेंगे
 
हाथ में हाथ डालकर
सूरज से मिलेंगे
 
इसके पहले भी
चला हूं लेकर हाथ में हाथ
मगर वे हाथ
किरनों के थे फूलों के थे
सावन के
सरितामय कूलों के थे
 
तुम्हारे हाथ
उनसे नए हैं अलग हैं
एक अलग तरह से ज्यादा सजग हैं
वे उन सबसे नए हैं
सख्त हैं तकलीफ़देह हैं
जवान हैं
 
मैं तुम्हारे हाथ
अपने हाथों में लेना चाहता हूं
नए क्षितिज
तुम्हें देना चाहता हूं
खुद पाना चाहता हूं
 
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर
मैं सब जगह जाना चाहता हूं !
दो अपना हाथ मेरे हाथ में
नए क्षितिजों तक चलेंगे
साथ-साथ सूरज से मिलेंगे !
 

संग्रह के खिलाफ - भवानी प्रसाद मिश्र

हवा तेज़ बह रही है
और संग्रह जो मैं
मुर्त्तिब करना चाह रहा हूँ
उड़ा रही है उसके पन्ने
 
एक बूडा आदमी
चल रहा है सड़क पर
बदल दिया है उसका रंग
बत्ती के मटमैले उजाले ने
 
और कुत्ते उस पर भोंक रहे हैं
छाया लैम्पोस्ट की
साधिकार
आ कर पड़ी है
संग्रह के खुले पन्ने पर
 
हवा और कुत्ते और बूढ़ा आदमी
बत्ती और लैम्पोस्ट
सब
मानो मेरे संग्रह के खिलाफ हैं
 
जी नहीं होता
इस सब के बीच
लिखते रहने का
 
कुत्तों को भागों जाऊं
बूढ़े आदमी को
भीतर बुलाऊँ!

समकक्ष - भवानी प्रसाद मिश्र

कठिन है
अँधेरे को
आत्मा से
अलग करना
 
क्योंकि
दोनों कि आँख
आख़िर
उजाले
पर है!

स्वागत में - भवानी प्रसाद मिश्र

मन में
जगह है जितनी
 
उस सब में मैंने
फूल की
पंखुरियां
बिछा दी हैं यों
 
कि जो कुछ
मन में आए
 
मन उसे
फूल की पंखुरियों पर
सुलाए !

साधारण का आनन्द - भवानी प्रसाद मिश्र

सागर से मिलकर जैसे
नदी खारी हो जाती है
तबीयत वैसे ही
भारी हो जाती है मेरी
सम्पन्नों से मिलकर
 
व्यक्ति से मिलने का
अनुभव नहीं होता
ऐसा नहीं लगता
धारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंध
दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है
 
तो कहना चाहिए
सम्पन्न व्यक्ति
व्यक्ति नहीं है
वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति
नहीं है
 
कई बातों का जमाव है
सही किसी भी
अस्तित्व का अभाव है
मैं उससे मिलकर
अस्तित्वहीन हो जाता हूँ
 
दीनता मेरी
बनावट का कोई तत्व नहीं है
फिर भी धनाढ्य से मिलकर
मैं दीन हो जाता हूँ
 
अरति जनसंसदि का
मैंने इतना ही
अर्थ लगाया है
अपने जीवन के
समूचे अनुभव को
इस तथ्य में समाया है
 
कि साधारण जन
ठीक जन है
उससे मिलो जुलो
उसे खोलो
उसके सामने खुलो
वह सूर्य है जल है
 
फूल है फल है
नदी है धारा है
सुगंध है
स्वर है ध्वनि है छंद है
साधारण का ही जीवन में
आनंद है!

सुख का दुख - भवानी प्रसाद मिश्र

जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं।
 
यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है।
 
मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है।
 
बल्कि कहना चाहिये
खुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता।
 
मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इस पर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ।
 
तो चीख मार कर भागते हैं,
बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है।

सुबह हो गई है - भवानी प्रसाद मिश्र

सुबह हो गई है
मैं कह रहा हूँ सुबह हो गई है
मगर क्या हो गया है तुम्हें कि तुम सुनते नहीं हो
अपनी दरिद्र लालटेनें बार-बार उकसाते हुए
मुस्काते चल रहे हो
मानो क्षितिज पर सूरज नहीं तुम जल रहे हो
और प्रकाश लोगों को तुमसे मिल रहा है
यह तो तालाब का कमल है
वह तुम्हारे हाथ की क्षुद्र लालटेन से खिल रहा है
बदतमीज़ी बन्द करो
लालटेनें मन्द करो
बल्कि बुझा दो इन्हें एकबारगी
शाम तक लालटेनों में मत फँसाए रखो अपने हाथ
बल्कि उनसे कुछ गढ़ो हमारे साथ-साथ
हम जिन्हें सुबह होने की सुबह होने से पहले
खबर लग जाती है
हम जिनकी आत्मा नसीमे-सहर की आहट से
रात के तीसरे पहर जग जाती है
हम कहते हैं सुबह हो गई है।

हँसी आ रही है - भवानी प्रसाद मिश्र

हँसी आ रही है सवेरे से मुझको
कि क्या घेरते हो अंधेरे में मुझको!
 
बँधा है हर एक नूर मुट्ठी में मेरी
बचा कर अंधेरे के घेरे से मुझको!
 
करें आप अपने निबटने की चिंता
निबटना न होगा निबेरे से मुझको!
 
अगर आदमी से मोहब्बत न होती
तो कुछ फ़र्क पड़ता न टेरे से मुझको!
 
मगर आदमी से मोहब्बत है दिल से
तो क्यों फ़र्क पड़ता न टेरे से मुझको!
 
शिकायत नहीं क्यों कि मतलब नहीं है
न ख़ालिक न मालिक न चेरे से मुझको!

होने का दावा - भवानी प्रसाद मिश्र

अपने ही सही होने का दावा
दावानल है
फल है चारों तरफ धू-धू
चारों तरफ मैं-मैं
चारों तरफ तू-तू
 

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