ज़रा सा क़तरा कहीं - वसीम बरेलवी Zara sa katra kahi - Wasim Barelvi

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ज़रा सा क़तरा कहीं - वसीम बरेलवी
Zara sa katra kahi - Wasim Barelvi

जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है,
समंदरो ही के लहजे में बात करता है।

खुली छतों के दियें कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।
Wasim-Barelvi
ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी,
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है।

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है।

जमीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती,
जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है।

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