यशोधरा मैथिलीशरण गुप्त Yashodhara Maithilisharan Gupt

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

 

मैथिलीशरण गुप्त यशोधरा
Maithili Sharan Gupt Yashodhara

मैथिलीशरण गुप्त-राहुल-जननि | Maithili Sharan Gupt

1
चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!
रोता है, अब किसके आगे?
 
तुझे देख पाते वे रोता,
मुझे छोड़ जाते क्यों सोता?
अब क्या होगा? तब कुछ होता,
सोकर हम खोकर ही जागे!
चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!
 
बेटा, मैं तो हूं रोने को,
तेरे सारे मल धोने को,
हंस तू, है सब कुछ होने को,
भाग्य आयेंगे फिर भी भागे,
चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!
 
तुझको क्षीर पिला कर लूंगी,
नयन-नीर ही उनको दूंगी,
पर क्या पक्षपातिनि हूंगी?
मैंने अपने सब रस त्यागे।
चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!
2
चेरी भी वह आज कहां, कल थी जो रानी,
दानी प्रभु ने दिया उसे क्यों मन यह मानी?
अबला जीवन, हाय ! तुम्हारी यही कहानी--
आँचल में है दूध और आँखों में पानी!
मेरा शिशु संसार वह
दूध पिये, परिपुष्ट हो,
पानी के ही पात्र तुम
प्रभो, रुष्ट या तुष्ट हो ।
Yashodhara-Maithilisharan-Gupt
3
यह छोटा सा छौंना!
कितना उज्जवल, कैसा कोमल, क्या ही मधुर सलौंना!
क्यों न हंसूं-रोऊँ-गाऊँ मैं, लगा मुझे यह टौंना,
आर्यपुत्र, आओ, सचमुच मैं दूंगी चन्द-खिलौंना!
4
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!
कठिन पन्थ, दूर पार, और यह अंधेरी!
 
सजनी, उलटी बयार,
वेग धरे प्रखर धार,
पद-पद पर विपद-वार,
रजनी घन-घेरी ।
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!
 
जाना होगा परन्तु,
खींच रहा कौन तन्तु ?
गरज रहे घोर जन्तु,
बजती भय-भेरी ।
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!

समय हो रहा सम्पन्न,
अपने वश कौन यत्न ?
गांठ में अमूल्य रत्न,
बिसरी सुध मेरी ।
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!
 
भव का यह विभव साथ,
थाती पर किन्तु हाथ ।
ले लें कब लौट नाथ ?
सौंप बचे चेरी।
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!
 
इस निधि के योग्य पात्र
यदि था यह तुच्छ गात्र,
तो यही प्रतीति मात्र
दैव, दया तेरी।
जीर्ण तरी, भूरि-भार, देख, अरी, एरी!
5
दैव बनाये रक्खे
राहुल; बेटा, विचित्र तेरी क्रीड़ा,
तनिक बहल जाती है
उसमें मेरी अधीर पीड़ा-व्रीड़ा।
6
किलक अरे, मैं नेंक निहारूँ,
इन दाँतों पर मोती वारूँ!
 
पानी भर आया फूलों के मुंह में आज सवेरे,
हाँ, गोपा का दूध जमा है राहुल! मुख में तेरे।
लटपट चरण, चाल अटपट-सी मनभायी है मेरे,
तू मेरी अंगुली धर अथवा मैं तेरा कर धारूं?
इन दाँतों पर मोती वारूँ!
 
आ, मेरे अवलम्ब, बता क्यों 'अम्ब-अम्ब' कहता है?
पिता, पिता कह, बेटा, जिनसे घर सूना रहता है!
दहता भी है, बहता भी है, यह भी सब सहता है ।
फिर भी तू पुकार, किस मुंह से हा! मैं उन्हें पुकारूँ?
इन दाँतों पर मोती वारूँ!
7
आली, चक्र कहाँ चलता है?
सुना गया भूतल ही चलता, भानु अचल जलता है ।
आली, चक्र कहाँ चलता है?
 
कटते हैं हम आप घूम कर, निर्वश-निर्बलता है,
दिनकर-दीप द्वीप शलभों को पल-पल में छलता है ।
आली, चक्र कहाँ चलता है?
 
कुशल यही, वह दिन भी कटता, जो हमको खलता है,
साधक भी इस बीच सिद्धि को ले कर ही टलता है ।
आली, चक्र कहाँ चलता है?
गोपा गलती है, पर उसका राहुल तो पलता है,
अश्रु-सिक्त आशा का अंकुर देखूँ कब फलता है ?
आली, चक्र कहाँ चलता है?
8
ओ माँ, आंगन में फिरता था
कोई मेरे संग लगा,
आया ज्यों ही मैं अलिन्द में
छिपा, न जाने कहाँ भगा!"
 
"बेटा, भीत न होना, वह था
तेरा ही प्रतिबिम्ब जगा।"
"अम्ब भीति क्या?" "मृषा भ्रांन्ति वह,
रह तू रह तू प्रीति-पगा ।"
9
ठहर, बाल-गोपाल कन्हैया ।
राहुल, राजा भैया।
 
कैसे धाऊँ, पाऊँ तुझको हार गयी मैं दैया,
सह्द दूध प्रस्तुत है बेटा, दुग्ध-फेन-सी शैया ।
 
तू ही एक खिवैया, मेरी पड़ी भंवर में नैया,
आ, मेरी गोदी में आ जा, मैं हूँ दुखिया मैया ।
 
"मैया है तू अथवा मेरी दो थन वाली गैया?
रोने से यह रिस ही अच्छी, तिलीलिली ता थैया?
10
"तब कहता था-'लोभ न दे' अब
चन्द-खिलौने की रट क्यों?"
"तब कहती थी-'दूंगी बेटा!'
मां, अब इतनी खटपट क्यों?"
 
"कह तो झुठ-मूठ बहला दूं? पर वह होगी छाया,
मुझको भी शैशव में शशि की थी ऐसी ही माया।
किन्तु प्रसू बन कर अब मैंने उसको तुझमें पाया,
पिता बनेगा, तभी पायगा तू वह धन मनभाया ।"
 
"अम्ब, पुत्र ही अच्छा यह मैं,
झेलूँ इतनी झंझट क्यों?"
"पुत्र हुआ, तो पिता न होगा?
यह विरक्ति ओ नटखट! क्यों?"
11
"अम्ब यह पंछी कौन, बोलता है मीठा बड़ा,
जिसके प्रवाह में तू डूबती है बहती ।"
"बेटा, यह चातक है ।" "मां, क्या कहता है यह?"
"पी-पी, किन्तु दूध की तुझे क्या सुध रहती?"
"और यह पंछी कौन बोला वाह!" "कोयल है"
"मां, क्यों इस कूक की तू हूक-सी है सहती?
कहती उमंग से है मेरे संग संग अहो!
'कहो-कहो' किन्तु तू कहानी नहीं कहती!"
12
"नहीं पियूँगा, नहीं पियूँगा; पय हो चाहे पानी ।"
"नहीं पियेगा बेटा, यदि तू सुन चुका कहानी ।"
"तू न कहेगी तो कह लूँगा मैं अपनी मनमानी,
सुन, राजा वन में रहता था, घर रहती थी रानी!"
"और हठी बेटा रटता था-नानी-नानी-नानी!"
"बात काटती है तू? अच्छा, जाता हूं मैं मानी।"
"नहीं-नहीं, बेटा आ तूने यह अच्छी हठ ठानी,
सुन कर ही पीना, सोना मत, नयी कहूं कि पुरानी?"
13
"व्यर्थ गल गया मेरा-
रसाल, मैंने स्वयं नहीं चक्खा था,
माँ, चुन कर सौ-सौ में
इसे पिता के लिए बना रक्खा था ।
 
"वह जड़ फल सड़ जावे,
पर चेतन भावना तभी वह तेरी
अर्पित हुई उन्हें है,
वत्स यहीं मति तथा यही गति मेरी ।
14
"निष्फल दो-दो वार गयी,
हार गयी माँ, हार गयी!
 
आगे आगे अम्ब जहाँ,
मैं पीछे चुपचाप वहाँ!
खोज फिरी तू कहाँ-कहाँ,
फिर कर क्यों न निहार गयी ?
हार गयी माँ, हार गयी!
 
यहाँ, पिता की मूर्ति यही-
मेरे-तेरे बीच रही ।
तू इसकी ही देख बही
सुध ही शोध बिसार गयी
हार गयी माँ, हार गयी!
 
अब की तू छिप देख कहीं,
पर लेना नि:श्वास नहीं,
पकड़ा दें जो तुझे वहीं।"
"बेटा, मैं यह वार गयी,
हार गयी माँ, हार गयी!
15
"अम्ब तात कब आयँगे?"
"धीरज धर बेटा, अवश्य हम उन्हें एक दिन पायँगे ।
 
मुझे भले ही भूल जायें वे तुझे क्यों न अपनायँगे,
कोई पिता न लाया होगा, वह पदार्थ वे लायँगे।"
 
"माँ, तब पिता-पुत्र हम दोनों संग-संग फिर जायँगे ।
देना तू पाथेय, प्रेम से विचर विचर कर खायँगे।
 
पर अपने दूने-सूने दिन तुझको कैसे भायँगे ?"
"हा राहुल! क्या वैसे दिन भी इस धरती पर धायँगे?
 
देखूंगी बेटा, मैं, जो भी भाग्य मुझे दिखलायँगे,
तो भी तेरे सुख के ऊपर मेरे दु:ख न छायँगे!"
16
राहुल-
अम्ब, मेरी बात कैसे तुझ तक जाती है ?
 
यशोधरा-
बेटा, वह वायु पर बैठ उड़ आती है ।
 
राहुल-
होंगे जहाँ तात क्या न होगा वायु मां, वहां ?
 
यशोधरा-
बेटा जगत्प्राण वायु, व्यापक नहीं कहाँ ?

राहुल-
क्यों अपनी बात वह ले जाता वहाँ नहीं ?
 
यशोधरा-
निज ध्वनि फैल कर लीन होती है यहीं!
 
राहुल-
और उनकी भी वहीं ? फिर क्या बढ़ाई है ?

मैथिलीशरण गुप्त-यशोधरा | Maithili Sharan Gupt

सबने शरीर-शक्ति मित की ही पाई है ।
मन ही के माप से मनुष्य बड़ा-छोटा है,
और अनुपात से उसीके खरा-खोटा है ।
साधन के कारण ही तन की महत्ता है,
किन्तु शुद्ध मन की निरुद्ध कहाँ सत्ता है?
करते हैं साधन विजन में वे तन से,
किन्तु सिद्धि लाभ होगा मन से, मनन से ।
देख निज, नेत्र कर्ण जा पाते नहीं वहाँ,
सूक्ष्म मन किन्तु दौड़ जाता है कहाँ-कहाँ ?
वत्स, यही मन जब निश्चलता पाता है
आ कर इसी में तब सत्य समा जाता है।
 
राहुल-
तो मन ही मुख्य है मां?
 
यशोधरा-
बेटा, स्वस्थ देह भी,
योग्य अधिवासी के लिए हो योग्य गेह भी।
17
राहुल-
विहग-समान यदि अम्ब, पंख पाता मैं
एक ही उड़ान में तो ऊँचे चढ़ जाता मैं।
मण्डल बना कर मैं घूमता गगन में,
और देख लेता पिता बैठे किस वन में ।
कहता मैं-तात, उठो, घर चलो, अब तो,
चौंक कर अम्ब, मुझे देखते वे तब तो,
कहते- "तू कौन है?" तो नाम बतलाता मैं ।
और सीधा मार्ग दिखा शीघ्र उन्हें लाता मैं ।
मेरी बात मानते हैं मान्य पितामह भी,
मानते अवश्य उसे टालते न वह भी।
किन्तु बिना पंखों के विचार सब रीते हैं
हाय! पक्षियों से भी मनुष्य गये-बीते हैं ।
हम थलवासी जल में तो तैर जाते हैं
किन्तु पक्षियों की भांति उड़ नहीं पाते हैं।
मानवों को पंख क्यों विधाता ने नहीं दिये ?

यशोधरा-
पंखों के बिना ही उड़ें चाहें तो, इसीलिए!
 
राहुल-
पंखों के बिना ही अम्ब ?
 
यशोधरा-
और नहीँ?
 
राहुल-
कैसे माँ ?
 
यशोधरा-
भूल गया?
 
राहुल-
ओहो! हनूमान उड़े जैसे माँ!
क्योंकर उड़े वे भला ?
 
यशोधरा-
बेटा, योग बल से ।
राहुल-
मैं भी योग साधना करूंगा अम्ब, कल से।
18
राहुल-
तेरा मुँह पहले बड़ा था? अम्ब, कह तू।
 
यशोधरा-
राहुल, क्या पूछता है, बेटा, भला यह तू?
 
राहुल-
"रह गया तेरा मुंह छोटा" यही कह के,
दादी जी अभी तो अम्ब, रोई रह-रह के।
 
यशोधरा-
राहुल, तू कहता है- ' 'खा चुका हूँ इतना!"
किन्तु मुझे लगता है, खाया अभी कितना!
बेटा, यही बात मेरी और दादी जी की है,
होती परितृप्ति कभी जननी के जी की है?
 
राहुल-
रोई किन्तु क्यों वे अम्ब,
 
यशोधरा-
उनके वियोग से,
वंचित हूँ जिनके बिना मैं राज-भोग से ।

राहुल-
माँ, वही तो! छोटा मुंह कहने को तेरा है
दैन्य और दर्प जहाँ दोनों का बसेरा है ।
चाहे मुँह छोटा रहे, किन्तु बड़ा भोला है,
छोटी और खोटी बात वह कब बोला है ।
और तेरी आँखें तो बड़ी हैं अम्ब, तब भी?
 
यशोधरा-
बेटा, तुझे देख परिपूर्ण हैं वे अब भी ?
 
राहुल-
अम्ब, जब तात यहां लौट कर आयँगे,
और वे भी तेरा मुँह छोटा बतलायँगे,
तो मैं, सुन, उनसे कहूँगा बस इतना-
मुँह जितना हो किन्तु मानी मन कितना?
19
"माँ कह एक कहानी।"
 
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"
 
"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ-हाँ यही कहानी।"
 
"गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"
 
चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"
 
"मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"
 
हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गई बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी।"
"सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"
 
राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लँ तेरी बानी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
 
कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।"
20
सो, अपने चंचलपन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
 
पुष्कर सोता है निज सर में,
भ्रमर सो रहा है पुष्कर में,
गुंजन सोया कभी भ्रमर में,
सो, मेरे गृह-गुंजन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
 
तनिक पार्श्व-परिवर्तन कर ले,
उस नासा पुट को भी भर ले ।
उभय पक्ष का मन तू हर ले,
मेरे व्यथा-विनोदन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
 
रहे मंद ही दीपक माला,
तुझे कौन भय कष्ट कसाला?
जाग रही है मेरी ज्वाला,
सो, मेरे आश्वासन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!

ऊपर तारे झलक रहे हैं,
गोखों से लग ललक रहे हैं,
नीचे मोती ढलक रहे हैं,
मेरे अपलक दर्शन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
 
तेरी साँसों का सुस्पन्दन,
मेरे तप्त हृदय का चन्दन!
सो, मैं कर लूं जी भर क्रन्दन!
सो, उनके कुल नन्दन, सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
 
खेले मन्द पवन अलकों से,
पोंछूं मैं उनको पलकों से।
छद-रद की छवि की छलकों से
पुलक-पूर्ण शिशु यौवन सो!
सो, मेरे अंचल-धन, सो!
यशोधरा
1
निशि की अंधेरी जवनिके, चुप चेतना जब सो रही,
नेपथ्य में तेरे, न जाने, कौन सज्जा हो रही!
 
मेरी नियति नक्षत्र मय ये बीज अब भी बो रही,
मैं भार फल की भावना का व्यर्य ही क्यों ढो रही?
 
भर हर्ष में भी, शोक में भी, अश्रु, संसृति रो रही,
सुख-दुख दोनों दृष्टियों से सृष्टि सुध-बुध खो रही!
 
मैं जागती हूँ और अपनी दृष्टि अब भी धो रही,
खेला गई सो तो गई, वेला रहे वह, जो रही।
2
उलट पड़ा यह दिव रत्नाकर
पानी नीचे ढलक बहा,
तारक-रत्नहार सखि, उसके
खुले हृदय पर झलक रहा ।
"निर्दय है या सदय हृदय वह?"
मैंने उससे ललक कहा ।
हंस बोला-"ग्रह चक्र देख लो!"
पर न उठे ये पलक हहा!
3
पवन, तू शीतल मन्द-सुगन्ध ।
इधर-किधर आ भटक रहा है? उधर-उधर, ओ अन्ध!
तेरा भार सहें न सहें ये मेरे अबल-स्कन्ध,
किन्तु बिगाड़ न दें ये साँसें तेरा बना प्रबन्ध!
4
मेरे फूल, रहो तुम फूले ।
तुम्हें झुलाता रहे समीरन झौंटे देकर झूले ।
तुम उदार दानी हो, घर की दशा सहज ही भूले,
क्षमा, कभी यह उष्णपाणि भी भूल तुम्हें यदि छूले ।
5
प्रकट कर गई धन्य रस-राग तू!
पौ, फट कर भी निरुपाय ।
भरे है अपने भीतर आग तू!
री छाती, फटी न हाय!
6
यह प्रभात या रात है घोर तिमिर के साथ,
नाथ, कहाँ हो हाय तुम ? मैं अदृष्ट के हाथ!
 
नहीं सुधानिधि को भी छोड़ा,
काल-करों ने घर अम्बर में सारा सार निचोड़ा!
 
टपक पड़ा कुछ इधर-उधर जो अमृत वहाँ से थोड़ा,
दूब-फूल-पत्तों ने पुट में बूंद-बूंद कर जोड़ा ।
 
मेरे जीवन के रस तूने यदि मुझसे मुंह मोड़ा,
तो कह, किस तृष्णा के माथे वह अपना घट फोड़ा?
 
मेरी नयन-मालिके! माना, तूने बन्धन तोड़ा,
पर तेरा मोती न बने हा! प्रिय के पथ का रोड़ा ।
7
अब क्या रक्खा है रोने में?
इन्दुकले, दिन काट शून्य के किसी एक कोने में ।
 
तेरा चन्द्रहार वह टूटा,
किसने हाय, क्या घर लूटा ?
अर्णव सा दर्पण भी छूटा,
खोना ही; खोने में !
अब क्या रक्खा है रोने में ?
 
सृष्टि किन्तु सोते से जागी,
तपें तपस्वी, रत हों रागी,
सभी लोक-संग्रह के भागी,
उगना भी, बोने में ।
अब क्या रक्खा है रोने में ?
वेला फिर भी तुझे भरेगी,
संचय करके व्यय न करेगी?
अमृत पिये है तू न मरेगी,
सब होगा, होने में ।
अब क्या रक्खा है रोने में ?
 
सफल अस्त भी तेरा आली,
घिरे बीच में यदि न घनाली।
जागे एक नई ही लाली-
तपे खरे सोने में ।
अब क्या रक्खा है रोने में ?
 

यशोधरा प्रस्तावना >> यशोधरा भाग (2) मैथिलीशरण गुप्त >>

 
 

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

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