सही सोच के अभाव की समस्या - जितेन्द्र माथुर

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सही सोच के अभाव की समस्या -जितेन्द्र माथुर

आज भारत में भौतिक समस्याओं से इतर जो एक वैचारिक समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, वह है अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रति उपेक्षा तथा उन्हें समझने की प्रवृत्ति का अभाव। यह समस्या जिन बड़ी समस्याओं को जन्म देती है, वे हैं आपसी ग़लतफ़हमियां, मनमुटाव तथा वैमनस्य । प्राचीन भारतीय परंपरा विविध प्रकार के विचारों, विचारधाराओं तथा ज्ञान के विनिमय को प्रोत्साहित करती थी जिसमें भिन्न विचार रखने वालों के प्रति किसी भी प्रकार की असहिष्णुता नहीं होती थी । साथ ही किसी भी प्रकार की संवादहीनता को भी पांव नहीं पसारने दिया जाता था। आज वह बात नहीं रही । सही सोच वाले तथा तार्किक एवं वैज्ञानिक ढंग से विचार करने वाले लोग कम होते जा रहे हैं और उनसे भी कम होते जा रहे हैं वे लोग जो दूसरों के विचारों को सुनना तो दूर, सहना भी गवारा कर सकें। यह प्रवृत्ति संपूर्ण समाज में फैलती जा रही है जिसका परिणाम है औरों के प्रति घृणा जो कई बार हिंसक स्वरूप धारण कर लेती है तथा कानून-व्यवस्था की समस्या में परिवर्तित हो जाती है । 

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इकतरफ़ा सोच जो सामने वाले के नज़रिये को न समझे और न ही समझना चाहे, मानव और समाज दोनों ही के विकास में बाधक हो जाती है । हमारे शास्त्रों में तो कहा गया है कि एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात् एक ही सत्य या तथ्य को विद्वान लोग भिन्न-भिन्न ढंग से कहते हैं। ऐसे में तो किसी को ग़लत समझने की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि भिन्न कोण से देखने पर वही बात भिन्न ढंग से दिखाई देती है लेकिन उसकी वास्तविकता परिवर्तित नहीं होती । समझदार व्यक्ति को भिन्न कोण से देखना भी आना चाहिए और दूसरे व्यक्ति द्वारा की जा रही उसी बात की व्याख्या को ध्यान देकर समझना भी आना चाहिए । यह सहिष्णुता ही सामाजिक सौहार्द्र को बनाए रखती है जो अंततः सामाजिक एकता का ही नहीं बल्कि वैचारिक विकास का भी पथ-प्रशस्त करती है । इसके लिए आवश्यक है पूर्वाग्रहों एवं रूढ़ियों से मुक्त होकर सोचना, लोगों को खांचों में बांटकर न देखना तथा आधी-अधूरी जानकारियों के आधार पर धारणाएं न बनाना । अधूरे ज्ञान को तो अज्ञान से भी अधिक हानिकारक माना गया है। और दुर्भाग्यवश आज हमारे देश में अधूरी तथा अपुष्ट सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। फ़ेक न्यूज़ समाज को तोड़ रही है। हमें इससे बचना है क्योंकि जब हम बिना किसी किस्म की जल्दबाज़ी के खुले दिमाग़ से किसी बात पर विचार करते हैं तो  भ्रम में नहीं पड़ते, गुमराह नहीं होते, उन बातों पर विश्वास नहीं करते जिनका अस्तित्व ही नहीं है। 

दूसरे के नज़रिये को न समझने के साथ ही जुड़ी हुई है उसके साथ संवाद के अभाव की समस्या। हमारे देश में आज विभिन्न समुदायों के मध्य जो ग़लतफ़हमियां पैदा हो गई हैं, उनका एक बहुत बड़ा कारण है संवादहीनता। संवादहीनता अच्छे-से-अच्छे रिश्तों को बिगाड़ देती है, स्थापित संबंधों में दरारें डाल देती है, मज़बूत व्यवस्थाओं को कमज़ोर कर देती है। किसी भी मानवीय संबंध या संस्था में संवादहीनता या कम्यूनिकेशन गैप के प्रवेश करते ही उस संबंध या संस्था के पतन की नींव पड़ जाती है और आज हमारे देश में यह एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। आज भारत में विभिन्न समुदाय ही नहीं, विभिन्न महत्वपूर्ण संस्थाएं भी तथा लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभ भी इस समस्या से ग्रस्त हो चुके हैं । वे परस्पर संवाद या तो करते नहीं या फिर कटुतापूर्ण टिप्पणियों के माध्यम से करते हैं। ऐसे में संविधान द्वारा स्थापित आदर्श व्यवस्थाएं, समुदायों के आपसी संबंध, संपूर्ण समाज और समूचा राष्ट्र ही कमज़ोर हो जाते हैं जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है विशेषतः तब जबकि एक ओर देश की सीमाओं पर संकट मंडरा रहा है तो दूसरी ओर देश की अर्थव्यवस्था में अनेक कारणों से उत्तरोत्तर गिरावट आती जा रही है। एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं - हम आपस में लड़ बैठे तो देश को कौन संभालेगाकोई बाहर वाला अपने घर से हमें निकालेगा। क्या हम ऐसा होने देना गवारा कर सकते हैं? नहीं न? अतः आइए, संवादहीनता से बाहर निकलें, खुले मस्तिष्क से उनसे संवाद करें जो कि हमारी ही तरह इस देश और समाज से जुड़े हैं, उनकी बात को समझें, उनके नज़रिये को समझें और व्यक्तिपरक ढंग से नहीं वरन वस्तुपरक ढंग से सोचें अर्थात् विरोध करें तो विचारों का करें, व्यक्तियों का नहीं। इसी में समाज और राष्ट्र का कल्याण निहित है। हमें वाल्तेयर की इस उक्ति को कभी नहीं भूलना चाहिए - हो सकता है, मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं लेकिन विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा।  

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