Halahal Harivansh Rai Bachchan हलाहल हरिवंशराय बच्चन

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

Halahal Harivansh Rai Bachchan
हलाहल हरिवंशराय बच्चन

1. जगत-घट को विष से कर पूर्ण - Harivansh Rai Bachchan

जगत-घट को विष से कर पूर्ण
किया जिन हाथों ने तैयार,
लगाया उसके मुख पर, नारि,
तुम्‍हारे अधरों का मधु सार,

नहीं तो देता कब का देता तोड़
पुरुष-विष-घट यह ठोकर मार,
इसी मधु को लेने को स्‍वाद
हलाहल पी जाता संसार!

2. जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़ - Harivansh Rai Bachchan

जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़
प्रलय हो जाएगा तत्‍काल,
मगर सुमदिर, सुंदरि, सु‍कुमारि,
तुम्‍हारा आता मुझको ख्‍याल;

न तुम होती, तो मानो ठीक,
मिटा देता मैं अपनी प्‍यास,
वासना है मेरी विकराल,
अधिक पर, अपने पर विश्‍वास!
HarivanshRaiBachchan

3. हिचकते औ' होते भयभीत - Harivansh Rai Bachchan

हिचकते औ' होते भयभीत
सुरा को जो करते स्‍वीकार,
उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहार
हलाहल बनकर देता मार;

मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूम
हलाहल पी जाते सह्लाद,
उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍त
अमर मदिरा का मादक स्‍वाद।

4. हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त - Harivansh Rai Bachchan

हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त
नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,
अमृत भी मुझको अस्‍वीकार
अगर कुंठित हो मेरा मान;

दृगों में मोती की निधि खोल
चुकाया था मधुकण का मोल,
हलाहल यदि आया है यदि पास
हृदय का लोहू दूँगा तोल!

5. कि जीवन आशा का उल्‍लास - Harivansh Rai Bachchan

कि जीवन आशा का उल्‍लास,
कि जीवन आशा का उपहास,
कि जीवन आशामय उद्गार,
कि जीवन आशाहीन पुकार,

दिवा-निशि की सीमा पर बैठ
निकालूँ भी तो क्‍या परिणाम,
विहँसता आता है हर प्रात,
बिलखती जाती है हर शाम!

6. जगत है चक्‍की एक विराट - Harivansh Rai Bachchan

जगत है चक्‍की एक विराट
पाट दो जिसके दीर्घाकार-
गगन जिसका ऊपर फैलाव
अवनि जिसका नीचे विस्‍तार;

नहीं इसमें पड़ने का खेद,
मुझे तो यह करता हैरान,
कि घिसता है यह यंत्र महान
कि पिसता है यह लघु इंसान!

7. रहे गुंजित सब दिन, सब काल - Harivansh Rai Bachchan

रहे गुंजित सब दिन, सब काल
नहीं ऐसा कोई भी राग,
रहे जगती सब दिन सब काल
नहीं ऐसी कोई भी आग,

गगन का तेजोपुंज, विशाल,
जगत के जीवन का आधार
असीमित नभ मंडल के बीच
सूर्य बुझता-सा एक चिराग।

8. नहीं है यह मानव का हार - Harivansh Rai Bachchan

नहीं है यह मानव का हार
कि दुनिया यह करता प्रस्‍थान,
नहीं है दुनिया में वह तत्‍व
कि जिसमें मिल जाए इंसान,

पड़ी है इस पृथ्‍वी पर हर कब्र,
चिता की भूभल का हर ढेर,
कड़ी ठोकर का एक निशान
लगा जो वह जाता मुँह फेर।

9. हलाहल और अमिय, मद एक - Harivansh Rai Bachchan

हलाहल और अमिय, मद एक,
एक रस के ही तीनों नाम,
कहीं पर लगता है रतनार,
कहीं पर श्‍वेत, कहीं पर श्‍याम,

हमारे पीने में कुछ भेद
कि पड़ता झुक-झुक झुम,
किसी का घुटता तन-मन-प्राण,
अमर पद लेता कोई चूम।

10. सुरा पी थी मैंने दिन चार - Harivansh Rai Bachchan

सुरा पी थी मैंने दिन चार
उठा था इतने से ही ऊब,
नहीं रुचि ऐसी मुझको प्राप्‍त
सकूँ सब दिन मधुता में डूब,

हलाहल से की है पहचान,
लिया उसका आकर्षण मान,
मगर उसका भी करके पान
चाहता हूँ मैं जीवन-दान!

11. देखने को मुट्ठीभर धूलि - Harivansh Rai Bachchan

देखने को मुट्ठीभर धूलि
जिसे यदि फँको उड़ जाय,
अगर तूफ़ानों में पड़ जाय
अवनि-अम्‍बर के चक्‍कर खय,

किन्‍तु दी किसने उसमें डाल
चार साँसों में उसको बाँध,
धरा को ठुकराने की शक्‍त‍ि,
गगन को दुलराने की साध!

12. उपेक्षित हो क्षिति के दिन रात - Harivansh Rai Bachchan

उपेक्षित हो क्षिति के दिन रात
जिसे इसको करना था, प्‍यार,
कि जिसका होने से मृदु अंश
इसे था उसपर कुछ अधिकार,

अहर्निश मेरा यह आश्‍चर्य
कहाँ से पाकर बल विश्‍वास,
बबूला मिट्टी का लघुकाय
उठाए कंधे पर आकाश!

13. आसरा मत ऊपर का देख - Harivansh Rai Bachchan

आसरा मत ऊपर का देख,
सहारा मत नीचे का माँग,
यही क्‍या कम तुझको वरदान
कि तेरे अंतस्‍तल में राग;

राग से बाँधे चल आकाश,
राग से बाँधे चल पाताल,
धँसा चल अंधकार को भेद
राग से साधे अपनी चाल!

14. कहीं मैं हो जाऊँ लयमान - Harivansh Rai Bachchan

कहीं मैं हो जाऊँ लयमान,
कहाँ लय होगा मेरा राग,
विषम हालाहल का भी पान
बढ़ाएगा ही मेरा आग,

नहीं वह मिटने वाला राग
जिसे लेकर चलती है आग,
नहीं वह बुझने वाली आग
उठाती चलती है जो राग!

15. और यह मिट्टी है हैरान - Harivansh Rai Bachchan

और यह मिट्टी है हैरान
देखकर तेरे अमित प्रयोग,
मिटाता तू इसको हरबार,
मिटाने का इसका तो ढोंग,

अभी तो तेरी रुचि के योग्‍य
नहीं इसका कोई आकार,
अभी तो जाने कितनी बार
मिटेगा बन-बनकर संसार!

16. पहुँच तेरे अधरों के पास - Harivansh Rai Bachchan

पहुँच तेरे अधरों के पास
हलाहल काँप रहा है, देख,
मृत्‍यु के मुख के ऊपर दौड़
गई है सहसा भय की रेख,

मरण था भय के अंदर व्‍याप्‍त,
हुआ निर्भय तो विष निस्‍तत्‍त्‍व,
स्‍वयं हो जाने को है सिद्ध
हलाहल से तेरा अमरत्‍व!

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