संत रविदास जी से संबंधित कहानियाँ Sant Ravidas Ji ki Kahaniya

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संतरविदास जी की कहानियाँ
Sant Ravidas Ji ki Kahaniya

1. Chamde Ka Khargosh चमड़े का खरगोश -संत रविदास जी

एक बार गुरु रविदास की बुआ जब उनसे मिलने के लिए आईं तो उनके लिए एक सुंदर चमड़े का खरगोश ले आईं। उस खिलौने को पकड़कर, चारपाई पर बैठकर, बालक रविदास खेल रहे थे। खेलते-खेलते अपने चरण कमलों से वे उस खरगोश को दूर धकेलने लगे, जैसे उसे दौड़ने का संकेत दे रहे हों। इस दृश्य को देखकर बुआ और घर के सदस्य बहुत प्रसन्‍न हो रहे थे। जब बालक ने तीसरी बार पुन: उस चमड़े के बेजान खरगोश को अपने चरणों से दूर धकेला तो वह जीवंत हो उठा और वह सचमुच खरगोश बनकर आगे की ओर भागा। बालक को यह दृश्य देखकर अत्यंत प्रसन्‍नता हुई, परंतु उनके घरवाले इस दृश्य को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए, फिर वह खरगोश उछल-कूद करते हुए गुरु रविदास के समीप ही बैठ गया।

बालक रविदास उस खरगोश को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने पुन: उसे अपने चरण कमलों से धकेला, परंतु फिर वह खरगोश घरवालों के सामने से उछलते हुए बाहर की ओर दौड़ गया। इस बीच बालक रविदास के फूफा जब बाहर से आए तो सारा वृत्तांत सुनकर आश्चर्यचकित रह गए उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि उन्होंने स्वयं अपने हाथों से गुरुजी के लिए वह चमड़े का खिलौना बनाया था।
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2. Peeran Ditta Marasi Ki Irshya पीरां दित्ता मरासी की ईर्ष्या -संत रविदास जी

गुरु रविदास सबका भला चाहनेवाले महापुरुष थे। उनके हृदय में सबके लिए प्यार था। व्यक्ति चाहे किसी भी जाति का क्‍यों न हो, वे सबको सत्य का उपदेश देते थे। बुराइयों से हटाकर सत्य मार्ग पर जीवों को लगाना ही रविदास के जीवन का लक्ष्य था। उनके विचारों से प्रभावित होकर सभी वर्णों के लोग उनके पास श्रद्धापूर्वक आने लगे।

पीरां दित्ता मगासी को यह अच्छा न लगा और वह गुरु रविदास से ईर्ष्या करने लगा। उसने एक दिन नगर के बाहर एकांत में एक सभा बुलाई, समाज के कई गणमान्य लोग वहाँ आए, सबने पीरां दित्ता की बात सुनकर गुरु रविदास को मारने का विचार किया और इस विचार से सभा में उपस्थित सभी लोग सहमत हो गए। गुरु रविदास ज्यों ही उस सभा में पहुँचे तो कुछ लोग कटु वचन कहने लगे। गुरु रविदास ने उन लोगों से कहा कि आप बुरे वचन क्‍यों बोल रहे हैं? मुँह से पवित्र वचन बोलना चाहिए, जिनको सुनकर दूसरों का भला हो और अपना कल्याण हो। कटु वचन बोलने से क्या लाभ है? इसके अलावा मेरा आप लोगों से कोई विरोध नहीं है। मेरे लिए कोई धर्म अच्छा या बुरा नहीं है। अच्छे कर्म करने से पुरुष अच्छा कहा जाता है और बुरा करनेवाला और बुरा सोचनेवाला बुरा माना जाता है। विवेकी श्रोता तो गुरु रविदास के अमृत वचन सुनकर प्रभावित हो गए मगर जो दुष्ट प्रवृत्ति के थे, वे आक्रमण पर उतारू हो गए। ऐसा देखकर गुरु रविदास ने प्रभु को पुकारते हुए कहा-

राम गुसंईया जीअ के जीवना।
मोहि न बिसारहु में जनु तेरा।
मेरी हरहु विपति जन करहु सुभाई।
चरन न छाड़ओ सरीर कल जाई।
कहु रविदास परउ तेरी सांभा।
बेगि मिलहु जन करि न बिलंबा।

जब गुरु रविदास ने ऐसा कहा तो एक तेज प्रकाश निकला और सभी आश्चर्यचकित रह गए। वहाँ उपस्थित सभी लोग उनके चरणों में गिर पड़े।

3. Seth Ne Kiya Amrit Ka Tiraskar सेठ ने किया अमृत का तिरस्कार -संत रविदास जी

संत महापुरुष समस्त समाज के लिए होते हैं। उनका संबंध केवल एक जाति या वर्ण के साथ नहीं होता। वे सर्वहित के लिए और सबको सही राह पर चलने के लिए प्रेरणा देते हैं। गुरु रविदास के पवित्र जीवन और साधुता को देखते हुए चारों वर्णों के लोग सत्संग में आने लगे।
गुरु रविदास पवित्र आहार, पवित्र कर्म और पवित्र विचारों की बार-बार चर्चा करते थे।

एक दिन एक धनवान सेठ गुरु रविदास के सत्संग में आया। उसने अमीर-गरीब हर वर्ग के लोगों को गुरु रविदास का उपदेश सुनते हुए देखा। सेठ के मन पर यह सब देखकर प्रभाव पड़ा और वह भी सत्संग सुनने के लिए बैठ गया। गुरु रविदास ने कहा कि मनुष्य तन बहुत अनमोल है और यह तन बहुत दुर्लभ है-
दुलंभ जन्म पुनि फल पाइओ विरथा जात अविवेके।

इस अनमोल जन्म को प्रभु बंदगी में लगाकर सफल बनाना चाहिए। प्रभु भक्ति पर सब जातियों और वर्णों का अधिकार है। कोई किसी भी जाति या वर्ण का आदमी हो, वह प्रभु भक्ति में लीन होकर महान्‌ बन जाता है।

ब्राह्मन बैस सुद अरु खत्री।
डोम चंडार मलेछ मन सोइ।
होई पुनीत भगवंत भजन ते।
आपु तारि तारे कुल देइ ॥

भजन करनेवाला ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, क्षत्रिय, डोम, चंडाल और म्लेच्छ अथवा किसी भी जाति का हो, प्रभु की भक्ति के द्वारा भवसागर से पार हो सकता है और अपने परिजनों को भी उबार सकता है।

सत्संग समाप्त होने के बाद श्रद्धालुओं के बीच कठौती में से अमृत बाँटा गया, जिसमें गुरु रविदास चमड़ा भिगोते थे। सेठ ने चरणामृत तो ले लिया, परंतु उसे पीने के बजाय सिर के पीछे से फेंक दिया। चरणामृत का कुछ अंश उसके कपड़ों पर पड़ गया। सेठ ने घर जाकर कपड़ों को अपवित्र जानकर एक भंगी को दान कर दिया। भंगी ने ज्यों ही उन कपड़ों को धारण किया, उसका शरीर कांति से चमकने लगा और सेठ को कुष्ठ रोग हो गया। उधर सेठ ने हकीम और वैद्यों से बहुत दवाई कराई, पर कुष्ठ रोग ठीक नहीं हुआ। जब सेठ को ध्यान आया कि उसने किसी संत पुरुष का अनादर किया है, जिसके कारण उसे यह कष्ट उठाना पड़ रहा है तब वह दु:खी होकर गुरु रविदास की शरण में गया। उदार हृदय गुरु रविदास ने सेठ को क्षमा कर दिया और वह फिर से स्वस्थ हो गया।

4. Paras Bhent Karne Ki Katha पारस भेंट करने की कथा -संत रविदास जी

बरस सात को भयौं है जबही, नौधा भक्ति चलाई तब ही।
अस भगवन की सेवा करई, सतगुरु कहो सो सीव न तरई॥

गुरु रविदास जब सात वर्ष के हुए तो श्रदूधालु जन उनके पास आकर भक्ति का आनंद प्राप्त करने लगे।
बरस सात और चलि गइ्आ, बहुत प्रीति केसो सु भइआ।

ऐसी ही प्रभु भक्ति में सात वर्ष और व्यतीत हो गए। प्रभु से उनकी बहुत गहरी प्रीति लग गई। वे रोज सद्कर्मों में तत्पर रहते थे। अपने हाथों से मेहनत करके संगत में आए संतों की सेवा किया करते थे।

सीधो चाम मोलि ले आवे।
ताकी पनही अधिक बनावे।
टुटे फाटे जरवा जोरे।
समकति करे काहू न निहौरे।

गुरु रविदास स्वयं चमड़े के सुंदर-सुंदर जूते तैयार करते थे। कई बार संतों को तथा जनसाधारण को बिना कीमत लिये ही पनही भेंट कर दिया करते थे। इस ढंग से उन्होंने संदेश दिया कि सबको अपनी आजीविका के लिए तन-मन से मेहनत करनी चाहिए। संतों की संगत और सेवा करके हरि-भजन का लाभ लेना यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

बरस सात ऐसी विधि गईआ, केसो के मन उपजी दईआ।
तब हरि भक्त रूप धरि आयो, जन रविदास बहुत मन भायौ॥

गुरु रविदास जब 21 वर्ष के हो गए तो एक दिन प्रभु साधु के वेश में उनके पास आए गुरु रविदास उनके दर्शन कर बहुत प्रसन्‍न हुए। उन्होंने साधु के वेश में भगवान्‌ का प्रेमपूर्वक स्वागत किया और श्रद्धा के साथ आसन पर बिठाया। उन्होंने कहा--आपने बहुत कृपा की, दर्शन दिए, आज मेरे भाग्य धन्य हो गए। उन्होंने साधु के वेश में आए भगवान्‌ के चरणों को जल से धोया। इसके बाद एक घड़ी तक सत्संग हुआ, फिर भगवान्‌ को भोजन करवाया गया। भोजन के बाद आपसी चर्चा शुरू हो गई। हरि कहने लगे कि आपके पास कुछ संपत्ति तो दिखाई नहीं देती, आप अपना निर्वाह किस प्रकार करते हैं? तब गुरु रविदास ने कहा--

कोटि लक्ष्मी जाकै चरना।
दुष दारिद्र नहीं तिहे सरना॥

करोड़ों की गिनती में लक्ष्मी (धन) प्रभु के चरण में निवास करती है। उनकी शरण में गरीबी कैसे हो सकती है। यह उत्तर सुनकर प्रभु प्रसन्‍न हुए। प्रभु ने कहा-मेरी एक बात मानो तो तुम्हारी सारी गरीबी दूर हो जाएगी। मैं बचपन से ही वैरागी हूँ। जब मैं तुम्हारे घर आ रहा था तो रास्ते में मुझे एक पारस पत्थर मिला। यह मेरे लिए किसी काम का नहीं है। इसीलिए तुम्हें योग्य समझकर यह पत्थर देना चाहता हूँ। इस पारस पत्थर से जब लोहे का स्पर्श होता है, तो लोहा सोना बन जाता है। इससे सोना बनाकर सुंदर घर बनवाओ और आराम से जीवन व्यतीत करो। यह वचन सुनकर गुरु रविदास चुप हो गए।

घरी एक रविदास न बोल्य, हरि जी गाँठि ते पारस खोल्य।
तु जिनि माने डहकै हमको, निहचै कीया देत हैं तुमको ॥

तब प्रभु ने पारस गाँठ से निकाला और कहा कि तुम जैसा भी समझो, मैंने तुमको योग्य समझा है! इसीलिए यह पारस पत्थर मैं तुमको ही दूँगा। हरि ने पत्थर से एक सुई का स्पर्श किया तो वह सोने की हो गई। तब गुरु रविदास ने कहा कि इसको लेना तो दूर की बात है, इसकी तरफ कभी आँखें उठाकर भी नहीं देखूँगा। यदि सोने से ही सब काम बन जाए तो इतने सारे राजाओं ने राज्य क्‍यों छोड़े हैं। उन्होंने भिक्षा माँगकर अपना जीवन-निर्वाह किया है और कामना को दोष रूप कहा है।

तब हरि ने कहा कि कंचन को दोष मत दो। कंचन से बैकुंठ पुरी बनाई जा सकती है, तब गुरु रविदास ने कहा कि कंचन से बहुत पाप होते हैं और जीव नरक में जाता है।

यह सुनकर हरि ने कहा कि यह मेरी अमानत तुम अपने पास रख लो। मैं कुछ दिनों के लिए यात्रा पर निकला हूँ। वापस आकर इसे ले जाऊँगा।
तेरह महीने बीत गए मगर गुरु रविदास ने उस पत्थर की ओर आँखें उठाकर देखा तक नहीं।

जन रविदास न देखे काई।
पास तेरुवें बहुटयो आई॥
तब हरि ने लौटकर पूछा कि इस पारस को तुमने क्यों नहीं निकाला, इसमें क्या दोष है?

काहे स्वामी काढि न जीना, कौन दोष पारस को दीना।
जन रविदास कहे करि जोरे, मैं छाड़ियो पाथर कै मोरे॥

गुरु रविदास ने कहा कि यह पत्थर मेरे किसी काम का नहीं है। मेरे पास हरि के नाम का पारस है, जो सर्वश्रेष्ठ है--

पारस मोरे हरि को नामूं।
पत्थर सों मोहि नाहिं कामू।
दृष्टि पारस कंचन की रासी।
अवस सकल माया की पासी।
अंगीकार रविदास न कीनौ।
तब हरि अपनौ पारस लीनौ।

जब गुरु रविदास ने पारस को स्वीकार नहीं किया, तब हरि पारस लेकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।

5. Man Changa To Kathauti Mein Ganga मन चंगा तो कठौती में गंगा -संत रविदास जी

अवर कहो इतिहास को भगवनजस सुख दानि।
हरिद्वार यात्री मिल आए, तिन दर्शन जन केरे पाए।
तिनको पूछा लखि रविदासा, जाहु कहाँ तुमहीं सुख रासा।
ब्रह्मकुंड गंगा इस्नाना। नहावन चल तहाँ हम जाना।
तब रविदास बचन अस भाखे। कीजै काज हठी मन राखे।
ऐक छिसाय हमारा लीजै। मेरा गंगा की पहि दीजै।
हमरे नाम नलेहि पसारी। नहि दीजै तुम ऐसे गरी।

गुरु रविदास का नाम बनारस शहर और आसपास के इलाकों में बहुत प्रसिद्ध हो चुका था। एक बार कुछ यात्री पंडित गंगाराम के साथ हरिद्वार में कुंभ के पर्व पर ब्रह्मकुंड में स्नान करने जा रहे थे। जब वे बनारस पहुँचे तो उनके मन में प्रेम उमड़ आया कि गुरु रविदास से भेंट करके फिर आगे को चलेंगे। वे गुरु रविदास का निवास स्थान पूछकर सीर गोवर्धनपुर में पहुँच गए। सभी यात्री गुरु रविदास के दर्शन करके बहुत प्रसन्‍न हुए। गुरु रविदास ने पूछा कि कहिए, आप कहाँ जा रहे हैं? पंडित गंगाराम ने बताया कि हम हरिद्वार में कुंभ स्नान के लिए जा रहे हैं।

गुरु रविदास ने यात्रियों से कहा कि गंगाजी के लिए मेरी ओर से यह कसीरा ले जाओ और यह भेंट गंगाजी को तब देना जब वे हाथ निकालकर लें, नहीं तो इसे वैसे ही मत देना। गुरु रविदास की भेंट लेकर यात्रीगण हरिद्वार की तरफ रवाना हो गए।

कुछ दिनों में यात्रीगण हरिद्वार पहुँच गए। उन्होंने गंगाजी के तट पर यात्रियों की भारी भीड़ देखी। गंगा में स्नान करने के बाद पंडित गंगाराम ने कहा, “हे माता गंगाजी, आपके लिए एक कसीरा भेंट के रूप में रविदास ने भेजी है। माता, अपना हाथ बाहर निकालें और इस भेंट को स्वीकार करें।” यह सुनते ही गंगाजी प्रकट हो गई और हाथ बढ़ाकर उन्होंने कसीरा ले लिया। गंगाजी ने अपने हाथ का एक हीरे जड़ित कंगन गुरु रविदास के लिए भेंट किया और गंगाराम से कहा कि मेरी यह भेंट गुरु रविदास को पहुँचा देना।

ले कंगन अति हर्ष युत, देखत सब विसमाद।
ऐसे न कबहुं भयो, गंगा को प्रसादि॥

गंगाराम सहित सभी यात्री बहुत हैरान हुए कि इस प्रकार आज तक किसी को गंगाजी ने भेंट नहीं दी थी। गंगाजी के दर्शन करके और स्नान करके पंडित गंगाराम वापस अपने घर पहुँच गया। गंगाराम ने अपनी पत्नी को प्रत्यक्ष दर्शन की सारी कथा सुनाई और गंगाजी का दिया हुआ कंगन अपनी पत्नी को रखने के लिए दे दिया। कुछ दिनों के बाद पंडित गंगाराम की पत्नी ने कहा कि इस कंगन को बाजार में बेच दिया जाए। यह बड़ी कीमत में बिक जाएगा। पैसे लेकर अपना जीवन मजे से गुजारेंगे। हमें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहेगी।

जब पंडित गंगाराम वह कंगन बाजार में बेचने के लिए गया तो कंगन की जितनी कीमत थी, उसकी कीमत के बराबर किसी के पास धन नहीं था। जो भी सर्राफ कंगन को देखता था, वह हैरान हो जाता था और कहता था कि ऐसा कंगन हमने पहले कभी नहीं देखा।
तब कुटवारै सुध दई वाकै हाट बिकाए।
भुखन कंगन हाथ को बेचत जन इक आए॥

इस बात की खबर सिपाही के पास पहुँच गई कि एक आदमी बहुमूल्य कंगन बेचने की कोशिश कर रहा है। सिपाही गंगाराम को पकड़कर राजा के पास ले गए। राजा के पूछने पर गंगाराम ने सारी कथा कह सुनाई कि यह कंगन गंगा माता के हाथ का है, जिसे गंगा माता ने गुरु रविदास को पहुँचाने के लिए दिया था। सारी बातें सुनकर राजा चकित रह गया। राजा ने कहा कि गुरु रविदास को यहाँ बुलाया जाए और उनकी राय ली जाए, तब गुरु रविदास को सादर सभा में बुलाकर कंगन के बारे में पूछा गया।

गुरु रविदास ने कहा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। अभी एक बरतन में गंगा जल डालकर और कंगन उसमें डालकर ऊपर से कपड़ा देकर ढक दें। मन चंगा तो कठौती में गंगा। गंगाजी इस बात का फैसला कर देंगी। जैसा उन्होंने कहा, सारी सामग्री उसी ढंग से तैयार कर दी गई। तब गुरु रविदास ने गंगाजी को यह निर्णय करने के लिए कहा। जब कपड़ा बरतन से हटाया गया तो दो कंगन नजर आए। राजा और बाकी लोग यह देखकर बहुत प्रसन्‍न हुए। गुरु रविदास ने दोनों कंगन गंगाराम को दे दिए।

6. Angaji Ki Katha गंगाजी की कथा -संत रविदास जी

कन्या के रूप में गंगाजी का आना
एक बार गुरु रविदास ने एक भंडारा किया। इस भंडारे में कन्या के रूप में स्वयं गंगाजी आईं। कन्या के अलौकिक रूप पर एक राजा मोहित हो गया। उसने गुरु रविदास के पास संदेश भेजा कि इस लड़की के साथ मेरा विवाह करवा दो, नहीं तो तुम्हें दंडित किया जाएगा। गुरु रविदास ने जब यह बात गंगाजी से कही तो गंगाजी ने कहा, यह राजा है, यह सीधे ढंग से नहीं मानेगा और परेशान करेगा। इसको बारात लाने के लिए कह दीजिए। राजा धूमधाम से बारात लेकर गुरु रविदास के द्वार पर आया।

लड़की के रूप में गंगाजी सोलह श्रृंगार करके बाहर आई और कुंड में कूद गई, कुंड से जल की ऐसी धारा निकली जिसमें राजा और सारे बाराती डूब गए, सबको पता चल गया कि कन्या के रूप में स्वयं गंगाजी गुरु रविदास के पास आई थीं।

उलटी गंगा का बहाना
समयानुसार गुरु रविदास के पिता का देहांत हुआ तो उनकी अर्थी लेकर गुरु रविदास गंगा के किनारे अंतिम संस्कार करने के लिए पहुँचे। वहाँ पंडों ने अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं दी और कहा कि यहाँ से आधा मील पीछे आप यह क्रिया कर सकते हैं। सब लोग अर्थी को उठाकर आधा मील पीछे ले गए। उसी स्थान पर चिता बनाकर अग्नि दी गई। इतने में गंगाजी की एक बड़ी लहर उठी और वह चिता को अपनी लपेट में ले गई। वहाँ से गंगा का उलट प्रवाह आया था, इसलिए इस स्थान का नाम उलटी गंगा पड़ गया।

7. Mirabai Ki Kath मीराबाई की कथा -संत रविदास जी

मीराबाई के जन्मस्थान मेड़तियों के इतिहास एवं राठौरों के भाटों की बहियों द्वारा मीराजी का जन्म श्रावण सुदी एकम शुक्रवार संवत्‌ 1561 माना गया है। बचपन में मीरा की माता का देहांत हो गया था। मीरा इकलौती संतान थी। बाल्यकाल में मीरा को न भाई-बहन का साथ मिला, न माता-पिता का दुलार। उनके पिता रतन सिंह, राणा साँगा के साथ तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और युद्धों को लेकर व्यस्त रहते थे, अतः मीरा का लालन-पालन उनके दादाजी ने किया था। स्वभावत: मीरा के मानसपटल पर अपने दादा की भक्ति भावना का प्रभाव पड़ना ही था। संवत्‌ 1566 में राणा साँगा चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे। उनकी पत्नी रानी झाली झालावाड़ के राजा की कन्या रत्नकुँवरी भी प्रभु भक्त थी। वह संवत्‌ 1567-68 में काशी जाकर गुरु रविदास की शिष्या बन गई थी। चित्तौड़ के राणा साँगा के परिवार ने आश्रम बनाकर गुरु रविदास को भेंट किया। मेड़ता से मीरा के दादा चित्तौड़ स्थित आश्रम में गुरु रविदास का उपदेश सुनने के लिए आते थे।

रानी झाली का पुत्र कुँवर भोजराज अपनी माता के समान शांत और निश्छल प्रकृति का युवक था। उस समय कुँवर भोजराज की आयु 18 वर्ष थी। रानी झाली ने अपने पति राणा साँगा की सहमति एवं गुरु रविदास का आशीर्वाद लेकर कुँवर भोजराज के लिए मीरा का हाथ दादाजी से माँगा था। उन्हें भला क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों परिवार संबंध सूत्र में बँध गए। संवत्‌ 1573 में गुरु रविदास की उपस्थिति में कुँवर भोजराज और मीरा का विवाह संपन्न हुआ। मीरा की आयु उस समय 12 वर्ष की थी। इसके बाद ही मीरा ने अपने पति एवं अपनी सास रानी झाली की अनुमति से गुरु रविदास का शिष्यत्व ग्रहण किया।

समय परिवर्तनशील है। मीरा के भाग्य में गृहस्थ जीवन भोगना विधाता ने नहीं लिखा था। केवल 25 वर्ष की अल्पायु में 1580 में कुँवर भोजराज का अकस्मात्‌ देहांत हो गया। संवत्‌ 1585 में राणा साँगा का बाबर के साथ कानवाहा युद्ध में देहांत हो गया। राणा साँगा के पुत्रों रतनसिंह और विक्रमजीत के बीच चित्तौड़ की गद्दी हथियाने के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। मीरा और रानी झाली विधवा हो गई। रानी झाली पति की मौत के बाद किस अवस्था में रही, इतिहास इस संबंध में मौन है; परंतु मीरा का अपने गुरु रविदास के साथ अटूट संबंध जुड़ा रहा। कुंभ श्याम से सटे मीरा मंदिर के साथ गुरु रविदास छतरी का निर्माण संभवत: मीरा और रानी झाली के प्रयत्नों से तत्कालीन परिस्थितियों में ही संभव हो सका होगा। इस छतरी के नीचे गुरु रविदास के चरण चिह्न हैं और छत के निचले भाग में गुरु रविदास द्वारा बताए गए पंच-विकारों की प्रतिमा एक प्रस्तर शिला पर अंकित है।

राणा साँगा की मौत के बाद मीरा को पारिवारिक यातनाओं का सामना करना पड़ा। ऐसा भी कहा जाता हैं कि विक्रमजीत ने आधी रात के समय मीरा को चित्तौड़गढ़ के नीचे बहती हुई गांभीरी नदी में फेंकवा दिया, मगर मीरा सही सलामत रहीं।

मीरा अब भगवत्‌ भजन और साधु सेवा निडर होकर करने लगीं, परंतु राणा विक्रमजीत को उनके यहाँ साधुओं की भीड़ का जुटना पसंद नहीं था। उसने दो विश्वासपात्र युवतियों चंपा और चमेली को मीरा के पास तैनात कर दिया, ताकि वे मीरा को साधुओं के पास बैठने से रोकती रहें। मीराबाई की संगत के प्रभाव से उन दोनों पर भी गुरुभक्ति का रंग चढ़ गया और वे दोनों मीराबाई की सहायक बन गईं। यही दशा दूसरी दासियों की भी हुई, जो मीरा को वर्जित करने और चौकसी के काम पर तैनात की गईं। अंत में राणा ने यह कठिन काम अपनी बहन ऊदाबाई (मीरा की ननद) को सौंपा और वह कुछ समय तक अपने दायित्व का सतर्कतापूर्वक पालन करती रही। वह दिन में कई बार मीराबाई के महल में जाकर समझाती थी। अपने इन रिश्तेदारों के बर्ताव का वर्णन मीरा ने अपनी वाणी में भी किया है।

इसके पश्चात्‌ राणा ने मंत्रियों की सलाह के अनुसार मीरा को विष देकर मार डालने की योजना बनाई। मीराबाई को एक विष का कटोरा भरकर गुरु रविदास चरणामृत के नाम से पीने के लिए भेजा गया। ऊदाबाई इस भेद को जानती थी। उसने मीरा को सच्चाई बताते हुए विष पीने से मना किया, परंतु मीरा ने कहा जो पदार्थ गुरु रविदास के चरणामृत के नाम पर आया है, उसका परित्याग करना गुरुभक्ति के विरुद्ध है। इतना कहकर श्रद्धा के साथ मीरा ने विषपान किया, लेकिन मीराबाई सही सलामत रहीं। ऐसी भक्ति का कमाल देखकर ऊदाबाई भी उनकी सहायक बन गईं। एक बार राणा ने एक नाग पिटारी में बंद कर मीराबाई के पास भेजा कि यह तेरे लिए हीरों जड़ित हार है। मीरा ने प्रभु का स्मरण करते हुए पिटारी को खोला तो नाग हीरों का जड़ित हार बन गया।

गरल पटायों सो तो सीस जै चढ़ायऔ,
संग त्याग विष भारी ताकी घाट न संभारी है।
राणा नै लगायो चर, बैठे साधु ढिग ठर,
तब ही खबर कर मारों यहै धारी है।
राजे गिरिधारी लाल तिन्‍ही सों रंग जात
बोलत हँसत ख्याल कानपरी प्यारी है।
जाय के सुनाई भई अति चपलाई
आयों लिए तलवार दे किबार खोलि न्यारी है।
जाके संगि रंग मीजि करत प्रसंग नाना
कहाँ वह नर गयो, वेग दै बताइए।
आगे ही विराजै कुछ तो सो नाहि लाजै
अभै दैखि सुख साजै आँखैं खोलि दरसाइए।
भयोई खिसाणौ राणा लिखयौ चित्र भीत मानो
देख्यो हूँ प्रभाव एवै भाव मैं न भिघो जाई
बिना हरिकृपा कहौ कैसे करि पाइए।
विवई कुटिल एक भेष धरि साधु लियौ
कियौं यौं प्रसंग मौसौं अंग-अंग कीजिए।
आज्ञा भौंकी दईं आप जाल गिरिधारी
अहों सीस धरि जाई करि भोजन हूँ लीजिए।
संतनि समाज मैं बिछाय सेज बोलि लियौ
सेत मुख भयौ विषैभाव सब गयौ
नयौ पायन पै आप मोंको भक्तिदान दीजिए।

संवत्‌ 1603 में दवारिका स्थित रणछोड़ के मंदिर में नाचती गाती मीरा बेहोश होकर गिर पड़ीं और सदा के लिए अपने प्रियतम में समा गई।

8. Karmavati करमावती -संत रविदास जी

करमावती नाम की 60-65 वर्ष की महिला सीर गोवर्धनपुर में रहती थी। उसका बालक रविदास की दादी लखपती के साथ बहुत प्रेम था। दादी लखपती प्राय: अपने प्रिय पौत्र को लेकर उससे मिलने जाया करती थीं। करमावती स्वयं लखपती से मिलने के लिए नहीं आती थी, क्योंकि उसकी आँखों की रोशनी गए तीस वर्ष बीत चुके थे, परंतु फिर भी वह दिन भर चरखा चलाती थी। जब दादी लखपती करमावती के साथ बीते दिनों की बातें करतीं तो बालक रविदास उनके पास बैठकर सुनते रहते तथा करमावती के साथ हँसते-खेलते। लखपती जब उससे अंधेपन में चरखा कातने का कारण पूछती तो करमावती रो पड़ती और अपनी निर्धनता का वृत्तांत व घरेलू अभाव के बारे में खुलकर बताती। बालक रविदास यह सब सुनते तो उनका कोमल हृदय पिघल जाता।

एक दिन सुबह के समय करमावती चरखा कात रही थी। बालक रविदास अकेले ही उसके घर पहुँच गए। उन्होंने चुपचाप आकर उसकी धागे की टोकरी उठा ली और निकट ही खड़े हो गए। करमावती ने हाथ से टटोलकर धागे की टोकरी को देखा, परंतु उसे वह नहीं मिली। कुछ देर बाद बालक रविदास ने जब वह टोकरी उसी स्थान पर वापस रख दी जहाँ से उठाई थी, तब करमावती का हाथ उस टोकरी से लग गया। वह बहुत हैरान हुई, क्योंकि उसने पहले भी तो वहाँ हाथ लगाकर देखा था, करमावती को वहाँ किसी की उपस्थिति का एहसास हुआ, परंतु वह घबराई नहीं, क्योंकि प्राय: गाँव के बच्चे उसे सताया करते थे। फिर जब टोकरी में से धागा उठाकर वह कातने लगी। इतने में बालक रविदास ने तकले में से गलोटा खींच लिया। करमावती को तुरंत पता चल गया। जब बालक ने चरखा खींचा तो करमावती को क्रोध आया और उसने अपनी दोनों बाँहें फैलाकर बालक को पकड़ लिया और कहा, 'तुम कौन हो?'

बालक ने अपने दोनों हाथ करमावती की आँखों पर रखते हुए कहा, 'लो माता, तुम स्वयं देख लो, मैं कौन हूँ!'

करमावती शांत हो गई। जब करमावती ने आँखें खोलीं तो उसे सबकुछ दिखाई देने लगा। उसने बालक रविदास के सुंदर अलौकिक स्वरूप के दर्शन किए, फिर करमावती ने दोनों हाथ जोड़कर बालक रविदास को प्रणाम किया और कहने लगी, 'धन्य है वह माता, जिसने तुम्हें जन्म दिया है, धन्य है वह कुटुंब जिसमें तुमने जन्म लिया है।' इसके बाद करमावती ने घर की प्रत्येक वस्तु की ओर देखा और मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्‍न हुई। इतने में बालक रविदास वहाँ से चले गए।

करमावती बालक के पीछे-पीछे उनके घर पहुँच गई। उसने सारे परिवार को पूरी कहानी सुनाई। इस चमत्कार के बारे में सुनकर परिजनों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

9. Thakur Taarne Ki Katha ठाकुर तारने की कथा -संत रविदास जी

गुरु रविदास अपने पवित्र कार्यों एवं पावन चरित्र के प्रभाव से उस काल में अद्वितीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे। एक छोटी समझी जानेवाली जाति के महापुरुष का समाज में ऐसा प्रभाव देखकर कुछ लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे। वैसे लोगों को उनका यश अच्छा नहीं लग रहा था। उस युग के अनुरूप यह बात बिलकुल असहनीय थी।

ब्रह्मज्ञानी के रूप में और सत्य उपदेश देनेवाले सच्चे महापुरुष के रूप में वे लोग छोटी समझी जानेवाली जाति के आदमी को कैसे सहन कर सकते थे?

यह सब देखकर कुछ लोगों ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। इस विरोध के बारे में कई जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं, जिसका संकेत गुरु रविदास ने अपनी रचनाओं में दिया है।

गुरु रविदास प्रतिदिन अपनी कुटिया में सत्संग किया करते थे। धीरे-धीरे बहुत से लोग उनके जोवन व सत्संग से प्रभावित होकर कुटिया में आने लगे, गुरु रविदास ने कहा--

जन्म जाति कू छाड़ि कर करनी जात प्रधान,
इहयो वेद को धर्म है करै रविदास बखान।
ब्राह्मण खतरी वैश सूद रविदास जन्म तें नाहिं,
जो चाहे सुबरन कऊ पावई करमन माहिं।
रविदास जन्म के कारन होत न कोऊ नीच।
नर कू नीच करि डारि है ओछे करम की कीच॥

गुरु रविदास ने समाज को सही दिशा प्रदान करने हेतु सत्य का रास्ता दिखाया । उनका कहना था कि कोई प्राणी जन्म से शूद्र नहीं होता। किसी भी प्राणी की जाति को देखने से पहले उसके गुणों को देखना चाहिए।

रविदास ब्राह्मण मत पूजिए जऊ होवे गुन हीन।
पुजहिं चरन चंडाल के जऊ होवे गुन परवीन ॥

गुरु रविदास की तरह और संतों ने भी इस बात पर बल दिया कि जो ब्रह्म को जाननेवाला है, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है।

गुरु रविदास के सच्चे विचारों से प्रभावित होकर उस काल के कई राजा-रानी उनके शिष्य बन गए थे। यही कारण था कि उन्हें ईर्ष्या करनेवालों की साजिशों का भी सामना करना पड़ा था।

एक बार काशी नरेश वीर सिंह बघेला के पास कुछ लोगों ने शिकायत की कि आपके राज्य में एक शूद्र रविदास धर्मगुरु बनकर लोगों को उपदेश देता है, यह बात ठीक नहीं है। उपदेश देना तो ब्राह्मणों का काम है। यह शिकायत जब राजा ने सुनी तो राजा ने संदेश भेजकर गुरु रविदास को अपनी सभा में बुलाया और साथ ही विरोधी दल को भी। दोनों पक्षों के बीच शास्त्रार्थ करवाया। इस दृश्य को देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए। काफी लंबे समय तक चर्चा चलती रही। गुरु रविदास के तर्कों के सामने पंडितों का पक्ष निर्बल साबित हुआ। विरोधियों ने जब देखा कि उनका पक्ष निर्बल हो रहा है तो उन्होंने प्रयास किया कि कोई निर्णय न होने पाए। ऐसी स्थिति में जनता की इच्छा और राजा की आज्ञा के अनुसार फैसला हुआ कि सभी अपने-अपने ठाकुर को सभा में लाएँ। उनको गंगा में बहाकर फिर वापस बुलाने का आदेश मिला। निर्णय किया गया कि जिसके ठाकुर बुलाने पर ऊपर आ जाएँगे, उसको पूजा और उपदेश करने का अधिकार होगा। विजेता को सोने की पालकी में बिठाकर पूरे नगर में घुमाया जाएगा।

निर्धारित समय पर गंगा के किनारे बहुत सारे लोग यह लीला देखने के लिए पहुँचे। पंडितगण लकड़ी के ठाकुर लेकर आए और गुरु रविदास यत्थर की शिला उठा लाए, जिस पत्थर पर वे अपना दैनिक अनुष्ठान किया करते थे। पंडितगण यह देखकर मन-हो-मन खुश हो रहे थे कि हम इस मुकाबले में जीत जाएँगे और गुरु रविदास हार जाएँगे, क्योंकि पत्थर आसानी से पानी में डूब जाएगा।

काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी, सब लोग इंतजार में थे कि देखते हैं इस मुकाबले में कौन जीतता है। लोगों में उत्सुकता थी कि कब काशी नरेश वीर सिंह बघेला का आदेश होगा। समय देखते हुए राजा ने पहले पंडितों को आदेश दिया कि तुम अपने ठाकुर को गंगा में बहाओ और फिर वापस बुलाओ। राजा का आदेश पाकर पंडितों ने अपने लकड़ी के ठाकुर को गंगा की धारा में बहा दिया। इसके पश्चात्‌ पंडितगण मंत्रपाठ करते हुए ठाकुर को वापस बुलाने लगे। दूर-दूर से आए हुए लोग यह दृश्य देख रहे थे। काफी देर तक बुलाने पर भी जब लकड़ी के ठाकुर पानी के नीचे से ऊपर नहीं आए, तब काशी नरेश ने गुरु रविदास से कहा कि रविदासजी! आप भी अपने ठाकुर को गंगा में बहा दें और फिर उनको वापस बुलाएँ।

गुरु रविदास ने राजा का आदेश सुनकर प्रभु को याद किया कि प्रभुजी, मुझे केवल आप ही का सहारा है। इस कठिन घड़ी में मैंने आपको याद किया है। आप आकर दर्शन दीजिए और मेरी लाज रखिए। उन्होंने कहा-

जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा।
जउ तुम चाँद तउ हम भए है चकोरा।
माधवे तुम न तोरहु तउ हम नहीं तोरहि।
तुम सिउ तोरि कवन सिद्ध जोरहि।
जउ तुम दीवरा तउ हम बाती।
जउ तुम तीरथ तउ हम जाती।
साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी।
तुम सिउ जोरि अबर संगि तोरी।
जह जह जाउ तहा मेरी सेवा।
तुम सो ठाकुर अइस न देवा।
तुमरे भजन कहहि जम फाँसा।
भगति हेत गावै रविदासा।

जैसे पर्वत और मोर, चंद्रमा और चकोर, तीर्थ और यात्री का प्रेम है, ऐसी ही मेरी प्रीत आपसे है। इसके साथ ही वे प्रेम भाव से प्रभु दर्शन के लिए निवेदन करने लगे-

कूपु भरियो जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ।
ऐसा मेरा मनु बिखिया विमोहिआ कछु आरा पार न सूझ।
सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरसु दिखाइ जी।
मलिन भई मति माधवा तेरी गति लखी न जाइ।
करहु क्रिपा भ्रमु चूकई मै सुमति देहु समझाइ।
जोगीसर पावहि नही तुअ गुण कथनु अपार।

प्रेम भगति कै कारण कहु रविदास चमार।

उन्होंने विह्वल होकर यह पद भी कहा--

आयो आयो हौं देवाधिदेव तुम सरन आयो।
सकल सुख का मूल जा को नहीं समतूल।
सो चरन मूल पायो।
लिओ विविध जोनि वास जय को आगम त्रास
तुम्हरे भजन बिन भ्रमत फिर्यो।
माया मोह विषय संपर निकाम यह अति दुस्तर दूर तर्यो।
तुम्हारे नाम विसास छोडिए आन आस
संसारी धर्म मेरा मन न धीजै।
रविदास की सेवा मानहु देव पतित पावन नाम आजु प्रगट कीजै।

यह पद पूरा करने के बाद जब गुरु रविदास ने अपने नेत्र खोले तो देखा कि जल के ऊपर शिला रूपी ठाकुरजी लौट रहे हैं। लोग यह दृश्य देखकर जय-जयकार करने लगे। सभी ने गुरु रविदास को प्रणाम किया।

उन्होंने सबको उपदेश दिया कि हर जीव को अपनी इच्छा के अनुसार प्रभु की पूजा करने का अधिकार है। राजा ने भी उन्हें प्रणाम करते हुए विनती की कि आप मुझे अपना शिष्य बना लें।

10. Hirni Ki Raksha हिरनी की रक्षा -संत रविदास जी

गुरु रविदास कोमल हृदय के महापुरुष थे। एक बार लहरतारा तालाब जो कि कबीर की प्रकटस्थली है, उन दिनों वहाँ पर घना जंगल था, वहाँ एकांत रमणीय स्थान पर गुरु रविदास ध्यान की अवस्था में बैठे थे। आसपास प्रकृति का दृश्य मन को मोहित कर रहा था।

इसी समय एक हिरनी भागती हुई इधर निकल आई, जिसके पीछे शिकारी लगा हुआ था। वह हिरनी को मारने के लिए तैयार था। शिकारी ने हिरनी को अपने काबू में कर लिया था। हिरनी ने सोचा कि अब उसका जीवन मुश्किल में पड़ गया है और शिकारी उसे मार डालेगा। उसने सोचा कि अब वह अपने बच्चों से नहीं मिल सकती, दूध पिलाना तो बहुत दूर की बात है। हिरनी अपने मन में ऐसा सोचकर दुःखी हो रही थी। अपने बच्चों को याद कर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। यह देखकर शिकारी ने पूछा कि तेरी आँखों में आँसू आने का क्‍या कारण है? हिरनी ने कहा कि मुझे अपने बच्चों की याद आ रही है, इसलिए मेरी यह हालत है। शिकारी से हिरनी ने कहा--तू मुझे दो पल के लिए छोड़ दे, मैं अपने बच्चों को दूध पिलाकर तेरे पास आ जाऊँगी। शिकारी ने उत्तर दिया कि यदि कोई तुम्हारी जमानत देगा तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूँ। पास ही गुरु रविदास थे। उन्होंने शिकारी से कहा कि मैं इसकी जमानत देता हूँ और तेरे पास तब तक रहूँगा, जब तक हिरनी वापस नहीं आ जाती। शिकारी ने दो घड़ी के लिए हिरनी को छोड़ दिया।

हिरनी तेजी से भागती हुई अपने बच्चों के पास पहुँची। बच्चों ने जब देखा कि उनकी माता आ गई है, तो वे अपनी माता से लिपट गए। जब वे दूध पीने लगे तो उन्होंने देखा कि उनकी माता उदास है। बच्चों ने माता को उदास देखकर पूछा कि माताजी आपकी उदासी का क्या कारण है? हिरनी ने उन्हें सारी बात बताई। बच्चों ने कहा, माताजी, अब हम दूध नहीं पीएँगे, बल्कि आपके साथ जाएँगे। आपसे पहले हम अपनी जान दे देंगे, हमारे बाद ही आपकी बारी आएगी। हिरनी कुछ देर बाद अपने बच्चों के साथ जहाँ शिकारी और गुरुजी बैठे थे, वहाँ पहुँच गई। हिरनी ने शिकारी से कहा कि अब इन संत महापुरुष को छोड़ दो, हम दो घड़ी से पहले तुम्हारे पास पहुँच गए हैं। जब शिकारी ने हिरनी को मारने के लिए कटार का बार किया तो शिकारी का कटार वाला हाथ ऊपर ही रह गया। वह जड़ पत्थर के समान हो गया। उसकी अपनी आँखों के सामने मृत्यु नाचती हुई दिखाई देने लगी। जब उसको ऐसा आभास हुआ तो वह मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगा और बार-बार गुरु रविदास को प्रणाम करने लगा। उसने उनसे क्षमा माँगी। गुरु रविदास ने उसे भविष्य में शिकार करने से मना किया और उसे अपना शिष्य बना लिया।

11. Balak Ko Jiwandan बालक को जीवनदान -संत रविदास जी

काशी में एक विधवा सेठानी रहती थी। उस सेठानी का पहले बड़ा परिवार था। एक बार वे लोग तीर्थयात्रा को गए। दैवयोग से वहाँ नाव दुर्घटना हो गई, जिससे सारा परिवार पानी में डूब गया। केवल एक बहू बची रही, जो गर्भवती थी। रोती-चिल्लाती और कष्टों को सहतो हुई वह किसी तरह अपने घर आई और अकेली रहने लगी।

समय पाकर उसकी कोख से एक बच्चे ने जन्म लिया। बच्चे का मुँह देखकर वह बहुत खुश हुई, क्योंकि वही उसका एकमात्र सहारा था। बच्चा जब बड़ा होकर खेलने-कूदने लगा तो एक बार वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। सेठानी ने उपचार और पूजा-पाठ पर बहुत खर्च किया, किंतु लाभ कुछ भी नहीं हुआ। बच्चे का रोग दिन-प्रतिदिन भयंकर रूप धारण करता गया। वह हरेक से रो-रोकर कहती, मेरे बच्चे की जान बचाओ। किसी ने उसे गुरु रविदास का परिचय दिया।

वह बीमार बच्चे को लेकर गुरु रविदास के पास पहुँच गई, मगर वहाँ पहुँचते ही दैवयोग से उसका बच्चा मर गया फिर क्‍या था, सेठानी बिलख-बिलखकर रोने लगी। गुरु रविदास से उसका दुःख देखा नहीं गया। वह उस बच्चे के लिए प्रभु से प्रार्थना करने लगे, उनकी जीवनसंगिनी लोना बाई मृत बच्चे को गोद में लेकर बैठ गई और उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। गुरु रविदास ने बच्चे के मुँह में जल डाला तो वह जीवित हो उठा। प्रसन्‍न होकर सेठानी गुरु रविदास की परम भक्त बन गई।

12. Sheikh Ki Vinati शेख की विनती -संत रविदास जी

गुरु रविदास प्रतिदिन सत्संग किया करते थे। उनके भेदभाव रहित विचारों का संगत पर बहुत प्रभाव होता था। हिंदू-मुसलिम दोनों ही समुदाय के लोग उनके पास परमार्थ लाभ करने के लिए आते थे।

एक दिन की घटना है। एक शेख ने आकर कहा कि हमें भी प्रेम का रंग प्रदान कीजिए। गुरु रविदास जहाँ पर चमड़ा धो रहे थे, उस कुंभ का पानी लिया और शेख को दे दिया। शेख ने उससे ग्लानि की और छुपाकर वह पानी फेंक दिया। उस पानी का छींटा उसकी कमीज पर पड़ गया। घर जाकर उसने कमीज उतारकर नौकरानी को धोने के लिए दे दी।

नौकरानी जब कमीज को धोने लगी तो पानी का वह दाग नहीं उतर रहा था। बहुत प्रयत्न किया, परंतु दाग नहीं उतरा। इसके बाद नौकरानी उस कपड़े को मुँह में लेकर दाग को चूसने लगी। दाग को चूसते ही नौकरानी में अनेक शक्तियाँ प्रवेश कर गईं। उसके परिवर्तन के बारे में जानकर शेख पछताने लगा कि मुझसे यह कैसी भूल हो गई। इसके बाद शेख ने गुरु रविदास के पास जाकर क्षमा-याचना की और उनका शिष्य बन गया। गुरु रविदास ने उसको प्रभु बंदगी का संदेश सुनाया-

करि बंदगी छाड़ि मैं मेरा।
हिरदे नामु सम्हारि सबेरा।
जनमु सिरानो पंथु न सवारा।
साँझ परी दहदिस अंधियारा।
कहि रविदास निदानि दिवाने।
चेतसि नाहीं पुनीमा फरवाने।

13. Karmabai Ki Katha कर्माबाई की कथा -संत रविदास जी

कर्माबाई की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। दूर-दूर से संत उनसे मिलने के लिए आते थे। ऐसे ही एक रोज एक महापुरुष आए और कहने लगे कि कर्माबाई, हर रोज भगवान्‌ तुम्हारे घर भोजन करने के लिए आते हैं। तुम कैसे भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार करती हो? कर्माबाई ने अपने सीधे स्वभाव के अनुसार कहा कि मैं प्रभु का स्मरण करते-करते ही भोजन बनाती हूँ। खिचड़ी बनाती हूँ। जिस समय भोजन तैयार हो जाता है, परोसकर रख देती हूँ। भगवान्‌ आकर भोजन कर जाते हैं। महापुरुष कर्माबाई से कहने लगे कि तुम्हें भोजन करने से पहले स्नान करना चाहिए। जिन लकड़ियों के साथ आग जलाती हो उनको धोकर, सुखाकर और लेप करके फिर भोजन तैयार करना चाहिए। यह बात सुनकर कर्मा चिंतित हो गई कि मैंने तो कभी ऐसा सोचा ही नहीं।

कर्माबाई ने दूसरे दिन लकड़ियों को धोकर रख दिया, स्नान किया। चौके की सफाई की और भोजन तैयार करने लगीं। भगवान्‌ हर रोज की तरह नियत समय पर आए और देखा कि कर्मा ने भोजन अभी तैयार नहीं किया था। वे वापस चले गए। कुछ देर बाद कर्मा ने भोजन तैयार कर दिया और परोस दिया। भगवान्‌ आए और भोजन करने लगे। उनके हाथ और मुँह पर अभी खिचड़ी लगी हुई थी कि उसी समय स्वामी रामानंद के दरबार में भी भोजन तैयार करके भोग लगाने के लिए रख दिया गया और रामानंद ने भगवान्‌ को बुला लिया। अकसर ऐसा होता है कि भोजन तैयार कर कपड़े से ढक दिया जाता है और भगवान्‌ का आह्वान किया जाता है। जब भगवान्‌ जल्दी में आए तो रामानंद ने देखा कि भगवान्‌ के हाथ और मुँह पर खिचड़ी लगी हुई है। रामानंद ने पूछा कि प्रभु आप यह खिचड़ी कहाँ से खाकर आए हैं और आप आज इस रूप में कैसे आ गए? भगवान्‌ ने कहा कि मैं रोज कर्माबाई के पास खिचड़ी खाने जाता हूँ। आज किसी महापुरुष ने उसे बहका दिया जिस कारण उसने देर से खिचड़ी बनाई। उसने अभी हाथ धुलाए भी नहीं थे कि आपने याद कर लिया। मुझे उसी तरह उठकर आना पड़ा, हाथ-मुँह धोने का समय नहीं मिला। यह सुनकर स्वामी रामानंद दंग रह गए कि कर्माबाई के घर हर रोज भगवान्‌ खिचड़ी खाने जाते हैं। स्वामी रामानंद कर्माबाई के घर गए और कहा, 'आप हर रोज भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार करती हैं और भगवान्‌ हर रोज खिचड़ी खाने आपके घर आते हैं। आपने ऐसी क्या साधना की है, जिसके कारण भगवान्‌ आप पर इतने दयालु हैं?'

कर्माबाई ने कहा कि मैंने तो ऐसी कोई साधना नहीं की, गुरु रविदास की बताई हुई मर्यादा के अनुसार भगवान्‌ का स्मरण करती हूँ और भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार कर देती हूँ।

14. Rani Jhaali Ki Katha रानी झाली की कथा -संत रविदास जी

गुरु रविदास की महिमा सुनकर और पवित्र जीवन को देखकर बहुत से राजा-रानी उनके शिष्य बन गए थे। एक बार झाली नाम की रानी चित्तौड़ से गंगा स्नान के लिए काशी आई। उसने गुरु रविदास का नाम सुना तो दर्शन के लिए उनके आश्रम में गई। गुरु रविदास का उपदेश सुनकर उसका मन शांत हो गया।

रानी ने गुरु रविदास से प्रार्थना की कि मुझे अपनी शिष्या बना लीजिए। उन्होंने बार-बार रानी को मना किया कि मैं चमार हूँ और आप क्षत्रियवंशी हैं। आप किसी ब्राह्मण की शिष्या बन जाएँ। रानी झाली ने बहुत हठ किया और अपना संकल्प व्यक्त किया कि आपको ही गुरु बनाऊँगी। ऐसा किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगी। गुरु रविदास ने फिर कहा कि अपने से ऊँची जातिवाले का शिष्य होना चाहिए, तब झाली ने प्रार्थना की कि गुरु बनाने में जाति का कोई नियम नहीं है। केवल ब्रह्मज्ञानी गुरु का होना नियम है। जैसे शुकदेव स्वामी ने ब्राह्मण और संन्‍यासी होने पर भी क्षत्रिय और गृहस्थ राजा जनक को गुरु बनाया। झाली रानी को योग्य समझकर गुरु रविदास ने उसे अपनी शिष्या बना लिया।

कुछ दिनों के बाद गुरु से आज्ञा लेकर रानी चित्तौड़ लौट गई और अपने पति को सारा हाल सुनाया। रानी झाली के पति के मन में भी गुरु रविदास के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। रानी ने पति से अनुरोध किया कि वे गुरु रविदास को राजमहल में आमंत्रित कर सत्संग करवाएँ।

राणा कुंभा ने रानी की बात मानी और वजीरों को गुरु रविदास को बुलाने के लिए भेज दिया। गुरु रविदास को सम्मान सहित चित्तौड़ में बुलाया गया। चित्तौड़ में गुरु रविदास का प्रभावशाली सत्संग हुआ और सभी को भक्ति की प्रेरणा मिली। रानी ने इस अवसर पर भंडारा किया। दूर-दूर से ब्राह्मण समाज को आमंत्रित किया गया। यह भी कहा गया कि सबको एक-एक स्वर्ण की मोहर दक्षिणा में दी जाएगी। काफी लोग भंडारे में पहुँच गए। जब भंडारा तैयार हो गया तो पंक्तियों में सब लोग बैठ गए। उस समय जाति अभिमानी ब्राह्मणों ने सबको उकसाया कि चमार के चेले राजा-रानी का भोजन मत ग्रहण करो। पंक्तियों में से सभी ब्राह्मण उठकर खड़े हो गए। सबने कहा कि हम चमार के साथ भोजन नहीं करेंगे।

राणा कहे सुना रे भाई, मोरे तो मन इहै सुहाई।
करनी हीन सू मधिम सोई, करनी करे सो उत्तम होई।
उत्तिम मधिम करनी माहिं, मानव देह कहूँ उत्तिम नाहिं।
काम क्रोध लालच नौ द्वारा, ऐठी तन में सबै चमारा।
उत्तिम वही जिनूँ यो जीता, ब्राह्मण किने बालमीक कीता।
जाति-पाँति का नहीं अधिकारा, राम भजै सो उतरै पारा।
नाहिं कछु तुम्हारै सारै, उठी विप्र जाहू अपने द्वारै।
विप्र बहुरि मनि मंह दुषपावै, करोध करै रानी डरपावै।
तब विप्रों ने कहा पहले भोजन हम करेंगे। इसके पश्चात्‌ जैसी आपकी मरजी हो वैसा करें। तब राणा ने कहा:

राणी कहयो नाहिं मन धीजै,
गुरु पहल तुम्ह कौ क्यूँ दीजै।

इस प्रकार बहुत वाद-विवाद होने लगा। तब गुरु रविदास ने एक शिष्य को भेजा और कहा-
हमरे नाहि हारु अरु जीति।
इन्हकी तुम राखो रसनीति।
मुझे हार-जीत से कोई मतलब नहीं है। जैसे इनकी रीति है, उसके अनुसार ही इनको भोजन करवा दो।

गुरु रविदास की आज्ञा पाकर भोजन परोसा गया। गुरु रविदास विराट रूप धारण कर एक-एक विप्र के साथ बैठकर भोजन करने लगे।
सबहिं कै संग जीमन बैठा, इनि वापै उनि वापै डीठा।
सबको अचिरज भयो तमासा, जेते विप्र तेते रविदासा।
जितने विप्र बैठकर भोजन कर रहे थे, गुरु रविदास ने अपने उतने ही शरीर धारण किए। यह देखकर जाति अभिमानी ब्राह्मणों का सिर शर्म से झुक गया।

सबहिन के मनि उपजी लाजा, साध सतायौ किया अकाजा।
जे वे कोप करे हम ऊपरि, तो अब ही जाहिं सकल जरि बरि।
हम अपराधी वो जन पूरा, उनके साहिब रहत हजूरा।
इहे संत हम एसा पापी, भगतन सौ परि एसी थापी।
साचै हरि साँचै हरि जना, यौ पश्चाताप कियौ ब्राह्मणा।
धनि-धनि साहिब तू बड़ा अस बड़े तुम्हारे दास।

जाति-पाँति कुल कछु नहीं ब्राह्मण भये उदास।

सब विप्रों ने आपस में विचार करके गुरु रविदास का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। गुरु रविदास ने विप्रों से कहा कि प्रभु की भक्ति करो। सिमरन और भक्ति के बिना सारा संसार शूद्र है। विप्र कहने लगे -
विप्र कहें तू गुरु हमारा अपनी तोरि जनेऊ डारा।
माथै हाथ देहु अब स्वामी, इस सेवग तुम अंतर जामी।
जाति पाँति पूछो मति कोई, हरि को भजे सो हरि कै होई।


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