Sumitranandan Pant-Khadi Ke Phool सुमित्रानंदन पंत-खादी के फूल

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Khadi Ke Phool Sumitranandan Pant
खादी के फूल सुमित्रानंदन पंत

1. अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर-सुमित्रानंदन पंत

अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर,
स्वर्ग रुधिर से मर्त्यलोक की रज को रँगकर!
टूट गया तारा, अंतिम आभा का दे वर,
जीर्ण जाति मन के खँडहर का अंधकार हर!

अंतर्मुख हो गई चेतना दिव्य अनामय
मानस लहरों पर शतदल सी हँस ज्योतिर्मय!
मनुजों में मिल गया आज मनुजों का मानव
चिर पुराण को बना आत्मबल से चिर अभिनव!

आओ, हम उसको श्रद्धांजलि दें देवोचित,
जीवन सुंदरता का घट मृत को कर अर्पित
मंगलप्रद हो देवमृत्यु यह हृदय विदारक
नव भारत हो बापू का चिर जीवित स्मारक!

बापू की चेतना बने पिक का नव कूजन,
बापू की चेतना वसंत बखेरे नूतन!

2. हाय, हिमालय ही पल में हो गया तिरोहित-सुमित्रानंदन पंत

हाय, हिमालय ही पल में हो गया तिरोहित
ज्योतिर्मय जल से जन धरणी को कर प्लावित!
हाँ, हिमाद्रि ही तो उठ गया धरा से निश्चित
रजत वाष्प सा अंतर्नभ में हो अंतर्हित!

आत्मा का वह शिखर, चेतना में लय क्षण में,
व्याप्त हो गया सूक्ष्म चाँदनी सा जन मन में!
मानवता का मेरु, रजत किरणों से मंडित,
अभी अभी चलता था जो जग को कर विस्मित
लुप्त हो गया : लोक चेतना के क्षत पट पर,
अपनी स्वर्गिक स्मृति की शाश्वत छाप छोड़कर!

आओ, उसकी अक्षय स्मृति को नींव बनाएँ,
उसपर संस्कृति का लोकोत्तर भवन उठाएँ!
स्वर्ण शुभ्र धर सत्य कलश स्वर्गोच्च शिखर पर
विश्व प्रेम में खोल अहिंसा के गवाक्ष वर!

3. आज प्रार्थना से करते तृण तरु भर मर्मर-सुमित्रानंदन पंत

आज प्रार्थना से करते तृण तरु भर मर्मर,
सिमटा रहा चपल कूलों को निस्तल सागर!
नम्र नीलिमा में नीरव, नभ करता चिंतन
श्वास रोक कर ध्यान मग्न सा हुआ समीरण!

क्या क्षण भंगुर तन के हो जाने से ओझल
सूनेपन में समा गया यह सारा भूतल?
नाम रूप की सीमाओं से मोह मुक्त मन
या अरूप की ओर बढ़ाता स्वप्न के चरण?

ज्ञात नहीं : पर द्रवीभूत हो दुख का बादल
बरस रहा अब नव्य चेतना में हिम उज्वल,
बापू के आशीर्वाद सा ही : अंतस्तल
सहसा है भर गया सौम्य आभा से शीतल!

खादी के उज्वल जीवन सौंदर्य पर सरल
भावी के सतरँग सपने कँप उठते झलमल!

4. हाय, आँसुओं के आँचल से ढँक नत आनन-सुमित्रानंदन पंत

हाय, आँसुओं के आँचल से ढँक नत आनन
तू विषाद की शिला, बन गई आज अचेतन,
ओ गाँधी की धरे, नहीं क्या तू अकाय-व्रण?
कौन शस्त्र से भेद सका तेरा अछेद्य तन?

तू अमरों की जनी, मर्त्य भू में भी आकर
रही स्वर्ग से परिणीता, तप पूत निरंतर!
मंगल कलशों से तेरे वक्षोजों में घन
लहराता नित रहा चेतना का चिर यौवन!
कीर्ति स्तंभ से उठ तेरे कर अंबर पट पर
अंकित करते रहे अमिट ज्योतिर्मय अक्षर!

उठ, ओ गीता के अक्षय यौवन की प्रतिमा,
समा सकी कब धरा स्वर्ग में तेरी महिमा!
देख, और भी उच्च हुआ अब भाल हिम शिखर
बाँध रहा तेरे अंचल से भू को सागर!

5. हिम किरीटिनी, मौन आज तुम शीश झुकाए-सुमित्रानंदन पंत

हिम किरीटिनी, मौन आज तुम शीश झुकाए
सौ वसंत हों कोमल अंगों पर कुम्हलाए!
वह जो गौरव शृंग धरा का था स्वर्गोज्वल,
टूट गया वह?—हुआ अमरता से निज ओझल!
लो, जीवन सौंदर्य ज्वार पर आता गाँधी,
उसने फिर जन सागर से आभा पुल बाँधी!

खोलो, माँ, फिर बादल सी निज कबरी श्यामल,
जन मन के शिखरों पर चमके विद्युत के पल!
हृदय हार सुरधुनी तुम्हारी जीवन चंचल,
स्वर्ण श्रोणि पर शीश धरे सोया विंध्याचल!
गज रदनों से शुभ्र तुम्हारे जघनों में घन
प्राणों का उन्मादन जीवन करता नर्तन!

तुम अनंत यौवना धरा हो, स्वर्गाकांक्षित,
जन को जीवन शोभा दो : भू हो मनुजोचित!

6. देख रहे क्या देव, खड़े स्वर्गोच्च शिखर पर-सुमित्रानंदन पंत

देख रहे क्या देव, खड़े स्वर्गोच्च शिखर पर
लहराता नव भारत का जन जीवन सागर?
द्रवित हो रहा जाति मनस का अंधकार घन
नव मनुष्यता के प्रभात में स्वर्णिम चेतन!

मध्ययुगों का घृणित दाय हो रहा पराजित,
जाति द्वेष, विश्वास अंध, औदास्य अपरिमित!
सामाजिकता के प्रति जन हो रहे जागरित
अति वैयक्तिकता में खोए, मुंड विभाजित!

देव, तुम्हारी पुण्य स्मृति बन ज्योति जागरण
नव्य राष्ट्र का आज कर रही लौह संगठन!
नव जीवन का रुधिर हृदय में भरता स्पंदन,
नव्य चेतना के स्वप्नों से विस्मित लोचन!

भारत की नारी ऊषा भी आज अगुंठित,
भारत की मानवता नव आभा से मंडित!

7. देख रहा हूँ, शुभ्र चाँदनी का सा निर्झर-सुमित्रानंदन पंत

देख रहा हूँ, शुभ्र चाँदनी का सा निर्झर
गाँधी युग अवतरित हो रहा इस धरती पर!
विगत युगों के तोरण, गुंबद, मीनारों पर
नव प्रकाश की शोभा रेखा का जादू भर!

संजीवन पा जाग उठा फिर राष्ट्र का मरण,
छायाएँ सी आज चल रहीं भू पर चेतन,-
जन मन में जग, दीप शिखा के पग धर नूतन
भावी के नव स्वप्न धरा पर करते विचरण!

सत्य अहिंसा बन अंतर्राष्ट्रीय जागरण
मानवीय स्पर्शों से भरते हैं भू के व्रण!
झुका तड़ित-अणु के अश्वों को, कर आरोहण,
नव मानवता करती गाँधी का जय घोषण!

मानव के अंतरतम शुभ्र तुषार के शिखर
नव्य चेतना मंडित, स्वर्णिम उठे हैं निखर!

8. देव पुत्र था निश्वय वह जन मोहन मोहन-सुमित्रानंदन पंत

देव पुत्र था निश्वय वह जन मोहन मोहन,
सत्य चरण धर जो पवित्र कर गया धरा कण!
विचरण करते थे उसके सँग विविध युग वरद
राम, कृष्ण, चैतन्य, मसीहा, बुद्ध, मुहम्मद!

उसका जीवन मुक्त रहस्य कला का प्रांगण
उसका निश्छल हास्य स्वर्ग का था वातायन!
उसके उच्चादर्शों से दीपित अब जन मन,
उसका जीवन स्वप्न राष्ट्र का बना जागरण!

Sumitranandan-Pant

विश्व सभ्यता की कृत्रिमता से हो पीड़ित
वह जीवन सारल्य कर गया जन में जागृत!
यांत्रिकता के विषम भार से जर्जर भू पर
मानव का सौंदर्य प्रतिष्ठित कर देवोत्तर!

आत्म दान से लोक सत्य को दे नव जीवन
नव संस्कृति की शिला रख गया भूपर चेतन!

9. देव, अवतरण करो धरा-मन में क्षण, अनुक्षण-सुमित्रानंदन पंत

देव, अवतरण करो धरा-मन में क्षण, अनुक्षण,
नव भारत के नवजीवन बन, नव मानवपन!
जाति ऐक्य के ध्रुव प्रतीक, जग वंद्य महात्मन्,
हिंदू मुस्लिम बढ़ें तुम्हारे युगल चरण बन!

भावी कहती कानों में भर गोपन मर्मर,-
हिंदू मुस्लिम नहीं रहेंगे भारत के नर!
मानव होंगे वे, नव मानवता से मंडित,
मध्य युगों की कारा से भू पर चल विस्तृत!

जाति द्वेष से मुक्त, मनुजता के प्रति जीवित,
विकसित होंगे वे, उच्चादर्शों से प्रेरित!
भू जीवन निर्माण करेंगे, शिक्षित जन मत,
बापू में हो युक्त, युक्त हो जग से युगपत्!

नव युग के चेतना ज्वार में कर अवगाहन
नव मन, नव जीवन-सौंदर्य करेंगे धारण!

10. दर्प दीप्त मनु पुत्र, देव, कहता तुमको युग मानव-सुमित्रानंदन पंत

दर्प दीप्त मनु पुत्र, देव, कहता तुमको युग मानव,
नहीं जानता वह, यह मानव मन का आत्म पराभव!
नहीं जानता, मन का युग मानव आत्मा का शैशव,
नहीं जानता मनु का सुत निज अंतर्नभ का वैभव!

जिन स्वर्गिक शिखरों पर करते रहे देव नित विचरण,
जिस शाश्वत मुख के प्रकाश से भरते रहे दिशा क्षण,
आज अपरिचित उससे जन, ओढ़े प्राणों का जीवन,
मन की लघु डगरों में भटके, तन को किए समर्पण!

वे मिट्टी-से आज दबाए मुँह में ममता के तृण
नहीं जानते वे, रज की काया पर देवों का ऋण!
ज्योति चिह्न जो छोड़ गये जन मन में बुद्ध महात्मन्
वे मानव की भावी के उज्वल पथ दर्शक नूतन!

मनोयंत्र कर रहा चेतना का नव जीवन ग्रंथित,
लोकोत्तर के सँग देवोत्तर मनुज हो रहा विकसित!

11. प्रथम अहिंसक मानव बन तुम आये हिंस्र धरा पर-सुमित्रानंदन पंत

प्रथम अहिंसक मानव बन तुम आये हिंस्र धरा पर,
मनुज बुद्धि को मनुज हृदय के स्पर्शों से संस्कृत कर!
निबल प्रेम को भाव गगन से निर्मम धरती पर धर
जन जीवन के बाहु पाश में बाँध गये तुम दृढ़तर!
द्वेष घृणा के कटु प्रहार सह, करुणा दे प्रेमोत्तर
मनुज अहं के गत विधान को बदल गए, हिंसा हर!

घृणा द्वेष मानव उर मे संस्कार नहीं हैं मौलिक,
वे स्थितियों की सीमाएँ हैं : जन होंगे भौगोलिक!
आत्मा का संचरण प्रेम होगा जन मन के अभिमुख,
हृदय ज्योति से मंडित होगा हिंसा स्पर्धा का मुख!

लोक अभीप्सा के प्रतीक, नव स्वर्ग मर्त्य के परिणय,
अग्रदूत बन भव्य युग पुरुष के आए तुम निश्वय!
ईश्वर को दे रहा जन्म युग मानव का संघर्षण,
मनुज प्रेम के ईश्वर, तुम यह सत्य कर गए घोषण!

12. सूर्य किरण सतरंगों की श्री करतीं वर्षण-सुमित्रानंदन पंत

सूर्य किरण सतरंगों की श्री करतीं वर्षण
सौ रंगों का सम्मोहन कर गए तुम सृजन,-
रत्नच्छाया सा, रहस्य शोभा से गुंफित,
स्वर्गोन्मुख सौंदर्य प्रेम आनंद से श्वसित!

स्वप्नों का चंद्रातप तुम बुन गए, कलाधर,
विहँस कल्पना नभ से, भाव-जलद-पर रँगकर,
रहस प्रेरणा की तारक ज्वाला से स्पंदित
विश्व चेतना सागर को कर रंग ज्वार स्मित!

प्राण शक्ति के तड़ित मेघ से मंद्र भर स्तनित
जन भू को कर गए अग्नि बीजों से गर्भित,
तुम अखंड रस पावस का जीवन प्लावन भर
जगती को कर अजर हृदय यौवन से उर्वर!

आज स्वप्न पथ से आते तुम मौन धर चरण,
बापू के गुरुदेव, देखने राष्ट्र जागरण!

13. राजकीय गौरव से जाता आज तुम्हारा अस्थि फूल रथ-सुमित्रानंदन पंत

राजकीय गौरव से जाता आज तुम्हारा अस्थि फूल रथ,
श्रद्धा मौन असंख्य दृगों से अंतिम दर्शन करता जन पथ!
हृदय स्तब्ध रह जाता क्षण भर, सागर को पी गया ताम्र घट?
घट घट में तुम समा गए, कहता विवेक फिर, हटा तिमिर पट!
बाँध रही गीले आँचल में गंगा पावन फूल ससंभ्रम,
भूत भूत में मिलें, प्रकृति क्रम : रहे तुम्हारे सँग न देह भ्रम!

अमर तुम्हारी आत्मा, चलती कोटि चरण धर जन में नूतन,
कोटि नयन नवयुग तोरण बन, मन ही मन करते अभिनंदन!
भूल क्षणिक भस्मांत स्वप्न यह, कोटि कोटि उर करते अनुभव
बापू नित्य रहेंगे जीवित भारत के जीवन में अभिनव!

आत्मज होते महापुरुष : वे अगणित तन कर लेते धारण,
मृत्यु द्वार कर पार, पुनर्जीवित हो, भू पर करते विचरण!
राजोचित सम्मान तुम्हें देता, युग सारथि, जन मन का रथ,
नव आत्मा बन उसे चलाओ, ज्योतित हो भावी जीवन पथ!

14. लो, झरता रक्त प्रकाश आज नीले बादल के अंचल से-सुमित्रानंदन पंत

लो, झरता रक्त प्रकाश आज नीले बादल के अंचल से,
रँग रँग के उड़ते सूक्ष्म वाष्प मानस के रश्मि ज्वलित जल से!
प्राणों के सिंधु हरित पट से लिपटी हँस सोने की ज्वाला,
स्वप्नों की सुषमा में सहसा निखरा अवचेतन अँधियाला!

आभा रेखाओं के उठते गृह, धाम, अट्ट, नवयुग तोरण,
रुपहले परों की अप्सरियाँ करतीं स्मित भाव सुमन वर्षण!
दिव्यात्मा पहुँची स्वर्गलोक, कर काल अश्व पर आरोहण,
अंतर्मन का चैतन्य जगत करता बापू का अभिनंदन!

नव संस्कृति की चेतना शिला का न्यास हुआ अब भू-मन में,
नव लोक सत्य का विश्व संचरण हुआ प्रतिष्ठित जीवन में!
गत जाति धर्म के भेद हुए भावी मानवता में चिर लय,
विद्वेष घृणा का सामूहिक नव हुआ अहिंसा से परिचय!

तुम धन्य युगों के हिंसक पशु को बना गए मानव विकसित,
तुम शुभ्र पुरुष बन आए, करने स्वर्ण पुरुष का पथ विस्तृत!

15. बारबार अंतिम प्रणाम करता तुमको मन-सुमित्रानंदन पंत

बारबार अंतिम प्रणाम करता तुमको मन
हे भारत की आत्मा, तुम कब थे भंगुर तन?
व्याप्त हो गए जन मन में तुम आज महात्मन्
नव प्रकाश बन, आलोकित कर नव जग-जीवन!
पार कर चुके थे निश्वय तुम जन्म औ’ निधन
इसीलिए बन सके आज तुम दिव्य जागरण!
श्रद्धानत अंतिम प्रणाम करता तुमको मन
हे भारत की आत्मा, नव जीवन के जीवन!

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