Jo Kare So Joker Ashok Chakradhar जो करे सो जोकर अशोक चक्रधर

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Jo Kare So Joker Ashok Chakradhar
जो करे सो जोकर अशोक चक्रधर

1. घाव बड़े गहरे/हमरे हाकिम बहरे के बहरे अशोक चक्रधर

(जिसका हुकुम चले वह हाकिम, सुनवाई न
होने पर मजबूरों का पद-गायन)
 
गुल
गुलशन
गुलफ़ाम कहां!
हम तो
ग़ुलाम ठहरे!!
हाकिम
बहरे के बहरे!!!
 
किसके आगे दिल को खोलें,
कौन सुनेगा किस को बोलें,
किसे सुनाएं कड़वा किस्सा
बांटे कौन दर्द में हिस्सा?
 
कहने भर को लोकतंत्र है,
यहां लुटेरा ही स्वतंत्र है,
खाद नहीं बन पाई खादी
पनप नहीं पाई आज़ादी।
 
भर-भर के भरमाया हमको,
खादी खा गई दीन-धरम को,
भाई चर गए भाईचारा
तोड़ दिया विश्वास हमारा।
 
नेता अपने भोले-भाले
ऊपर भोले अन्दर भाले
डरते हैं अब रखवालों से
घायल हैं उनके भालों से।
 
घाव बड़े गहरे
हाकिम बहरे के बहरे।
 
गुल
गुलशन
गुलफ़ाम कहां!
हम तो
ग़ुलाम ठहरे!!
हाकिम
बहरे के बहरे!!!
ashok-chakradhar
 

2. लाश में अटकी आत्मा अशोक चक्रधर

(एक जीवन में कितनी ही बार मारा जाता है
आदमी, क्षमाभाव उसे जीवित रखता है)
 
आत्मा अटकी हुई थी लाश में,
लोग जुटे थे हत्यारे की तलाश में।
सबको पता था कि हत्यारा कौन था,
लाश हैरान थी कि हर कोई मौन था।
परिवार के लोगों के लिए
आत्महत्या का मामला था,
ऐसा कहने में ही कुछ का भला था।
अच्छा हुआ मर गया,
एक पोस्ट खाली कर गया।
अचानक पड़ोसियों में
सहानुभूति की एक लहर दौड़ी
उन्होंने उठाई हथौड़ी।
सारी कील निकालकर खोला ताबूत।
पोस्टमार्टम में एक भी नहीं था
आत्महत्या का सबूत।
उन्होंने मृतक के पक्ष में
चलाया हस्ताक्षर अभियान,
सारे पड़ोसी करुणानिधान।
काम हो रहा था नफ़ीस,
कम होने लगी लाश की टीस।
सबके हाथों में पर्चे थे,
पर्चों में मृतक के गुणों के चर्चे थे।
अजी मृतक का कोई दोष नहीं था,
आरोपकर्ताओं में
बिलकुल होश नहीं था।
हस्ताक्षर बरसने लगे,
लाश के जीवाश्म सरसने लगे।
और जब अंत में मुख्य हत्यारे ने भी
उस पर्चे पर हस्ताक्षर कर दिया,
तो लाश आत्मा से बोली—
अब इस शरीर से जा मियां!
तेरी सज्जनता के सिपाहियों ने
पकड़ लिया है हत्यारे को।
परकाया प्रवेश के लिए
ढूंढ अब किसी और सहारे को।
भविष्य का रास्ता साफ़ कर,
हत्यारों को माफ़ कर।

3. दोनों घरों में फ़रक है अशोक चक्रधर

(घर साफ़-सुथरा रखें तो आंगन
में ख़ुशियां थिरकती हैं।)
 
फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फ़रक है।
 
हवा एक में साफ़ बहे,
पर दूजे में है गन्दी,
दूजे घर में नहीं
गन्दगी पर कोई पाबंदी।
यहां लगता है कि जैसे नरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
 
पहले घर में साफ़-सफ़ाई,
ये घर काशी काबा,
यहां न कोई रगड़ा-टंटा,
ना कोई शोर शराबा।
इसी घर में सुखों का अरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
गंदी हवा नीर भी गंदा,
दिन भर मारामारी,
बिना बुलाए आ जातीं,
दूजे घर में बीमारी।
इस घर का तो बेड़ा ग़रक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
 
गर हम चाहें
अच्छी सेहत,
जीवन हो सुखदाई,
तो फिर घर के आसपास,
रखनी है ख़ूब सफ़ाई।
साफ़ घर में ख़ुशी की थिरक है।
 
फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फरक है।

4. यारा प्यारा तेरा गलियारा अशोक चक्रधर

(एक सूफ़िया कलाम,
यार के गलियारे के नाम)
 
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
गलियारे में अम्बर उतरा
ऐसा सबद उचारा।
 
गलियारे में हल्ला है
पट शायद खुले तुम्हारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में उतरे तारे
झिलमिल झिलमिल सारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में ख़ुश्बू तेरी
उस ख़ुश्बू ने मारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में चूड़ी खनकी
समझा उसे इशारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में फूल खिला है
मैं भंवरा मतवारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में रंग भर गए
नैन चला पिचकारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में सब दुखियारे
मैं इकला सुखियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में झलक दिखाई
भाग गया अंधियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
 
गलियारे में धूप न आवै
रूप करै उजियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

5. छोड़ना अशोक चक्रधर

जब वो जीवित था
तो उसने मुझे
कई बार छोड़ा,
और मर कर
उसने मुझे
कहीं का नहीं छोड़ा,
क्योंकि मेरे लिए
कुछ भी नहीं छोड़ा।
वैसे
बहूत ऊंची-ऊंची छोड़ता था।

6. दरवाज़े पर घंटी अशोक चक्रधर

जैसे ही कोई
दरवाजे पर घंटी बजाता है
मैं हाथ में फाइल उठा लेता हूं।
 
ऐसा क्यों?
 
मुझे उससे नहीं मिलना होता है
तो कहता हूं- दुर्भाग्य है
अफसोस, मैं अभी-अभी
बाहर जा रहा हूं
फिर कभी मिलेंगे?
 
और अगर कोई ऐसा आए
जिससे आप मिलना चाहें?
 
तो कहता हूं
आइए आइए
क्या सौभाग्य है
अभी-अभी बाहर से लौटा हूं।

7. ओ स्वयंनिर्मित स्वयंभू अशोक चक्रधर

(सभी आत्मालोचना करें तो कवि क्यों नहीं)
 
ओ कवि!
समझता तू रहा
ख़ुद को स्वयंभू।
सातवें आकाश की भी
आठवीं मंज़िल पहुंच
जो लिख दिया
सो ठीक मैंने लिख दिया
यह मानता अब तक रहा तू!
 
ओ स्वयंनिर्मित स्वयंभू!
छोड़ अपनी ठाठ की यह
आठवीं मंज़िल
उतर नीचे,
देख आगे देख पीछे।
 
इधर भी गर्दन घुमा
तू उधर का भी ले नज़ारा
और फिर से पढ़ उसे
जो लिख दिया है ढेर सारा।
बात उनसे कर
जिन्होंने पढ़ा उसको
सुना उसको
गुनगुनाया है उसे
या आचरण में गुना उसको।
 
वे निरीक्षक हैं
परीक्षक हैं
समीक्षक हैं।
पूछ उनसे
कहां तू हल्का हुआ था
उठ गया यूं ही हवा में
बेवजह लटका हुआ था।
 
ढ़ूंढ उनको
पढ़ रहे औ’ सुन रहे तुझको
निरंतर जो,
मिलें चाहे सड़क पर
या गली में या कि एअरपोर्ट हो।

8. प्याज का एक पहाड़ा  अशोक चक्रधर

प्याज़ एकम प्याज़,
प्याज़ एकम प्याज़।
 
प्याज़ दूनी दिन दूनी,
कीमत इसकी दिन दूनी।
 
प्याज़ तीया कुछ ना कीया,
रोई जनता कुछ ना कीया।
 
प्याज़ चौके खाली,
सबके चौके खाली।
 
प्याज़ पंजे गर्दन कस,
पंजे इसके गर्दन कस।
 
प्याज़ छक्के छूटे,
सबके छक्के छूटे।
 
प्याज़ सत्ते सत्ता कांपी,
इस चुनाव में सत्ता कांपी।
 
प्याज़ अट्ठे कट्टम कट्टे,
खाली बोरे खाली कट्टे।
 
प्याज़ निम्मा किसका जिम्मा,
किसका जिम्मा किसका जिम्मा।
 
प्याज़ धाम बढ़ गए दाम,
बढ़ गए दाम बढ़ गए दाम।
 
जिस प्याज़ को
हम समझते थे मामूली,
उससे बहुत पीछे छूट गए
सेब, संतरा, बैंगन, मूली।
 
प्याज़ ने बता दिया कि
जनता नेता सब
उसके बस में हैं आज,
बहुत भाव खा रही है
इन दिनों प्याज़।

9. यहीं बजना है जीवन संगीत अशोक चक्रधर

(यहीं जड़ों और उड़ानों के बीच
हमें निरंतर मंजना है)
 
चलना होगा
धरती की चाल से आगे
निकलना होगा जड़ों से
फूटकर अंकुराते हुए ऊपर,
भू पर।
 
फिर है अनंत आकाश
चाहे जितना बढ़ें,
लेकिन बढ़ने की
सीमा तय करती हैं जड़ें।
धरती भी शामिल होती है
जड़ की योजनाओं में
क्योंकि वृक्ष को
पकडक़र तो वही रखती है,
एक सीमा तक ही
बढ़ाती है वृक्ष को
क्योंकि फलों का स्वाद चखती है।
 
डाल पर बैठा परिन्दा
ऊंचाइयों से जुड़ेगा,
अपनी ऊर्जाभर उड़ेगा।
उसे वृक्ष नहीं रोकता
रोकती हैं जड़ें,
पंख जब मुश्किल में पडें,
तो उन्हें इसी बात को
समझना है,
कि धरती पर
जड़ों और उड़ानों के बीच
निरंतर मंजना है।
 
यहीं बजना है जीवन संगीत
यहीं समय का रथ सजना है,
यहीं चलना है उसे
इस चिंता के बिना
कि समय के अनेक रथों में
एक रथ बादल भी है
जिसका काम
उड़ने के साथ-साथ गरजना है।

10. अरजी कहां लगाऊं? अशोक चक्रधर

(भक्त की अरदास कि काम कैसे बने)
 
प्रभु जी!
अरजी कहां लगाऊं?
 
हर खिड़की पर
झिड़की पाई
कैसे काम बनाऊं?
कल आना कल आना,
सुनि-सुनि
मैं कैसे कल पाऊं?
 
बेकल भयौ
न कल जब आवै
बरबस कलह बढ़ाऊं।
कलह बढ़ै,
पर काम न हौवै,
सिर धुनि धुनि पछताऊं।
 
खाय कसम
अब रार न करिहौं
पुनि-पुनि मिलिबे जाऊं।
फाइन की
लाइन में भगवन
दिनभर धक्का खाऊं।
 
साहब ने
साहब ढिंग भेज्यौ,
साहब के गुन गाऊं।
गुन सुनि कै
साहब नहिं रीझ्यौ,
अब का जुगत लगाऊं?
रिश्वत पंथ दिखायौ
प्रभु जी,
चरनन वारी जाऊं।
 
प्रभु जी,
अरजी पुन: लगाऊं,
प्रभु जी,
अरजी पुन: लगाऊं!

11. लो कल्लो बात अशोक चक्रधर

(ग़ज़ल कहते वक़्त शायर अपने
अश’आर की संख्या गिनता है)
 
पुण्य ही कर रहा इन दिनों पाप रे!
शब्द देने लगे शाप रे!
चौबे जी बोले—
बाप रे, बाप रे, बाप रे!
 
लो कल्लो बात,
ये तो शेर हो गया,
श्रीमानजी बड़बड़ात।
 
अब लो! शेर नंबर दो—
जो कहीं भी नहीं छप सके,
छाप रे, छाप रे, छाप रे!
 
दृश्य गमगीन! शेर नंबर तीन—
ये धरा हो रही गोधरा,
कांप रे, कांप रे, कांप रे!
 
काफ़िया है उदार, शेर नबंर चार—
और कितनी बढ़ीं दूरियां?
नाप रे, नाप रे, नाप रे!
सांच को क्या आंच! शेर नंबर पाँच—
लाल रंग की थी गुजरात में
भाप रे, भाप रे, भाप रे।
 
इंतेहा तो ये है, शेर नंबर छै—
शख़्स वो जल रहा सामने
ताप रे, ताप रे, ताप रे।
 
आगे सुनो तात, शेर नंबर सात—
और कितना वो नीचे गिरा,
माप रे, माप रे, माप रे।
 
क्यों है उनका ठाठ? इस पर लो नंबर आठ—
पुण्य ही कर रहा इन दिनों,
पाप रे, पाप रे, पाप रे।
 
अब क्यों बनाएं सौ? अंतिम है नंबर नौ—
अब तो कर मित्र सद्भाव का,
जाप रे, जाप रे, जाप रे।

12. यौवन भारी बोझ अशोक चक्रधर

(दुमदार दोहों में जीवन के छोटे-छोटे दृश्य)
 
कली एक भंवरे कई,
परदे पायल पीक,
सामंती रंग-रीत की,
यह मुजरा तकनीक,
अभी तक क्यों ज़िन्दा है,
मुल्क यह शर्मिन्दा है।
 
उमर कटे खलिहान में,
यौवन भारी बोझ,
बापू सोए चैन से,
ताड़ी पीकर रोज,
हाथ कब होंगे पीले,
कहां हैं छैल-छबीले?
 
थाम लिया पिस्तौल ने,
तस्कर के घर चोर,
तस्कर बोला— बावले!
क्यों डरता घनघोर?
प्रमोशन होगा राजा,
हमारे दल में आजा।
 
नयनों के घन सघन हैं,
बरस पड़े ग़मनाक,
पापा ने इस उम्र में,
क्यों दे दिया तलाक?
स्वार्थ ने हाय दबोचा,
न मेरा कुछ भी सोचा।
 
घटीं हृदय की दूरियां,
मिटे सभी अवसाद,
मन नंदन-वन हो गया,
इन छुअनों के बाद,
प्यार से प्रियतम सींचे,
रंगीले बाग़-बगीचे।
 
तानपुरा निर्जीव है,
तन पूरा संगीत,
दरबारी आसावरी,
गाओ कोई गीत,
तुम्हारी आंखें प्यासी।
सुनाएं भीमपलासी।

13. हां रात में हमने पी अशोक चक्रधर

(पीने वाले को जीने का बहाना
चाहिए जीने वाले को पीने का)
 
हां रात में हमने पी!
कुछ खुशी मिले हमको, इस नाते शुरू करी,
पर चली दुखों की आरी,
जो बनी घनी दुखकारी।
 
पी, सोचा रिश्तों में हों मीठे संपर्की,
पर कुछ ही पल के बाद,
हम करने लगे विवाद।
 
पी, इस इच्छा से हम, मज़बूत करें मैत्री,
पर कहां रहा खुश मन,
हम बन बैठे दुश्मन।
 
पी, लगी ज़रूरत सी, हौसला बुलंदी की,
पर ज्यों ज्यों जाम भरे,
हम खुद से ख़ूब डरे।
 
पी, सबको बतला कर, सेहत के कारण ली,
पर हाय नतीजा भारी,
बढ़ गईं और बीमारी।
 
पी, सोचा पल दो पल, हों बात मधुरता की,
पर लब नाख़ून हुए,
भावों के ख़ून हुए।
 
पी, सुलझाएं मसले, कुछ ऐसी कोशिश की।
हमने क्या मार्ग चुना,
बढ़ गए वो कई गुना।
 
पी, जीवन स्वर्ग बने, कुछ ऐसी चाहत थी,
पर सब कुछ बेड़ागर्क,
हर ओर दिखा बस नर्क।
 
नींदों की राहत की चाहत में ही पी ली,
पर स्वप्न हो गए भंग,
प्रात: टूटा हर अंग।
 
हां रात में हमने पी!

14. बोलते हैं रंग अशोक चक्रधर

(होली पर तरह-तरह के रंग बोलने लगते हैं)
 
रंग बोलते हैं, हां जी, रंग बोलते हैं।
रंग जाती गोरी
गोरी के अंग बोलते हैं।
 
बम भोले जय जय शिवशंकर
चकाचक्क बनती है,
लाल-लाल छन्ने में भैया
हरी-हरी छनती है। वैसे नहीं बोलते
पीकर भंग बोलते हैं।
 
रंग विहीन, हृदय सूने
और बड़े-बड़े बैरागी,
हृदयहीन, गमगीन, मीन
या वीतरागिये त्यागी, घट में पड़ी
कि साधू भुक्खड़ नंग बोलते हैं।
 
हल्ला ऐसा हल्ला दिल की
मनहूसी हिल जाए,
रूसी-रूसी फिरने वाली
कलियों सी खिल जाए। आओ खेलें—
साली-जीजा संग बोलते हैं।
 
होली तो हो ली, अब
बोलो रंग छुड़ाएं कैसे?
कैरोसिन मंगवाओ
बढ़ गए कैरोसिन के पैसे। होली हो ली
महंगाई के रंग बोलते हैं।
 
ढोलक नहीं बजाओ
ख़ाली पेट बजाओ यारो,
दरवाज़े पर खाली डिब्बे
टीन सजाओ यारो! कुचले हुए पेट के
कुचल रंग बोलते हैं।
 
रंग बोलते हैं,
हां जी, रंग बोलते हैं।
रंग जाती गोरी
गोरी के अंग बोलते हैं।

15. रामस्वरूप अशोक चक्रधर

दरोगा जी
आश्चर्य में जकड़े गए,
जब सिपाही ने बताया
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।
 
दरोगा जी बोले
ये क्या रगड़ा है ?
रामस्वरूप ने चोरी की
तो फलस्वरूप को क्यों पकड़ा है?
 
सिपाही बार-बार दोहराए
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए
दरोगा भी लगातार
उस पर अकड़े गए।
 
दृश्य देख कर
मैं अचंभित हो गया,
लापरवाही के अपराध में
भाषा-ज्ञानी सिपाही
निलंबित हो गया।
 

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