Suryakant Tripathi Nirala-Asanklit Kavitayen सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला-असंकलित कविताएँ

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Asanklit Kavitayen Suryakant Tripathi Nirala
असंकलित कविताएँ सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

1. रचना की ऋजु बीन बनी तुम (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

रचना की ऋजु बीन बनी तुम ।
ऋतु के नयन, नवीन बनी तुम ।
पल्लव के उर कुसुम-हार सित,
गन्ध, पवन-पावन विहार नित,
मिलित अन्त नभ नील विकल्पित,
एक-एक से तीन बनी तुम ।
रचना की ऋजु बीन बनी तुम ।

चपल बाल-क्रीड़ा अब अवसित,
यौवन के वन मदन नहीं श्रित,
प्रौढ़ प्राण से शाश्वत विगलित,
तुम जानो, कब लीन बनी तुम ।
रचना की ऋतु बीन बनी तुम ।

2. मेघ मल्लार (1)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

अयि सजल-जलद-बदने !
सुख-सदने, सुख-सदने !

तुम हहर-हहरकर हर-हरकर
बहती हो सर-सर पहर-पहर
भरती हो जीवन अजर-अमर
सित हंसपंक्ति-रदने !

सहज सरोरुह के वन विकसित
मानसरोवर पर जब सुहसित,
सिन्धु-ब्रह्मपुत्रादि उल्लसित,
नदि-नद मद-मदने ।

3. मेघ मल्लार (2)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

श्याम घटा घन घिर आयी।
पुरवायी फिर फिर आयी।
suryakant-tripathi
बिजली कौंध रही है छन-छन,
काँप रहा है उपवन-उपवन,
चिडियाँ नीड़-नीड़ में नि:स्वन,
सरित-सजलता तिर आयी।

गृहमुख बून्दों के दल टूटे,
जल के विपुल स्रोत थल छूटे,
नव-नव सौरभ के दव फूटे,
श्री जग-तरु के सिर आयी ।

4. उमड़-घुमड़-घन (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

उमड़-घुमड़-घन
सावन आये।
मन-मन के
मनभावन आये ।

मोर शोर करते हैं वन में,
नाच रहे हैं फिर निर्जन में,
दादुर की रट भी छन-छन में,
विपुल-बलाक की धावन आये ।

बूंदों की रिमझिम फुहार है,
पवन-अवनि, फिर-फिर बुहार है,
खगकुल की पुलकित गुहार है,
पुर के पाहुन पावन आये।

5. छाये बादल काले काले (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

छाये बादल काले काले ।
मँडलाये, आये, मतवाले।

फुफकारें फुहार विष की हैं,
सन-सन धुन सुनिए रिस की हैं,
रैन विरहिनी की सिसकी हैं,
दिन आँसू के नाले नाले ।

लहरों की बहरें भगती हैं,
उर-उर छवि-छवि से जगती हैं,
दिन को सपने-सी लगती हैं,
कितने सुख के पाले पाले ।

6. रस की बूंदें बरसो (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

रस की बूंदें बरसो,
नव घन !
पावन सावन सरसो,
नव घन !

कमलों के वन वारि-विमोचन,
छा लो गगन बलाहक-वाहन,
धान-जुवार-उड़द, अरहर-धन
धारन कर कर हरसो, नव घन !

खेत निराती ग्राम-कामिनी
नभ-नयनों दमकती दामिनी
लखकर लौटी वास भामिनी,
सुख-समीर तन परसो, नव घन !

7. बिजली का जीवन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

जावक चरणों से जब शिंजन
होता है गृह के रुचिरांगन
कंपते हैं तरु तरुणों के तन ।

छुटकर सम्पुट से कोटि सुमन
भर देते हैं केशर के कण
आर्द्रा के छा जाते हैं घन,
ढक जाता है नैदाघ तपन ।

स्वर से होता है सन्दीपन,
बनता है बिजली का जीवन,
बुझ-बुझकर होता है चेतन,
तम से जैसे रज, संवेदन ।

8. सौरभ के रभस बसो, जीवन (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सौरभ के रभस बसो, जीवन !
वारिद की बूंद खसो, जीवन !

केशर के शर स्वप्निल उपशम
वेधो ऊषा के प्रस्फुट क्रम;
सोओ मलयानिल के विभ्रम,
दल के कर कमल कसो, जीवन !

भौरों के मदगंजित गुंजन
गाओ वन-वन उपवन-उपवन
छाओ नभ सुमन-सुमन कण-कण
भरकर तट सुघट गसो, जीवन !

9. क्यों निर्जन में हो (गीत)-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

क्यों निर्जन में हो?
नवजीवन, अविकच तन ;
भ्रमितानन से ओ !

नयन तुम्हारे नये नये,
छोर छोड़कर चले गये,
किसे खोजते ये उनए ?
एक बार देखो !

अब न किसी के तुम होगे ?
साथ किसे अब तुम दोगे ?
हाथ किसी का न गहोगे ?
बात भी हमें दो !

10. वन्दना-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वन्दन करूँ चरण,
जननि, हो भाव की
भूमि पर अवतरण !

विमल पलकें खुलें
मोह के पटल से,
कमल जैसे नयन
तुलें ज्योतिर्हसे,
देश दश दिशावधि
कटे कारावरण !

स्तव के स्तवक, वर्ण-
रेणु के, शरण के,
स्रोत पर बह चलें
जन्म के, मरण के;
पृथा पर अमृत का
क्षार से हो क्षरण !

11. शरत् पंकजलक्षणा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सखी री, खंजन वन आये;
सरसीरुह छाये !

हरसिंगार के हार पड़े हैं ;
शशि के मुख असि-नयन गड़े हैं ;
पहरे शाल रसाल खड़े हैं ;
तारक मुसकाये ।

धान पके, सोने की बाली ;
पानी भरी अगहनी आली;
छाई बाजरे की नभ लाली;
कास-कुसुम भाये ।

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