Muktak and Rubaiyan Uday Bhanu Hans मुक्तक और रुबाइयाँ उदयभानु हंस

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हिंदी कविता

Uday-Bhanu-Hans

Muktak and Rubaiyan Uday Bhanu Hans
मुक्तक और रुबाइयाँ उदयभानु हंस

1. मुक्तक और रुबाइयां - उदयभानु हंस

अब और नहीं समय गँवाना है तुम्हें,
दुख सह के भी कर्त्तव्य निभाना है तुम्हें
यौवन में बड़ी शक्ति है यह मत भूलो
हर बूँद से तूफान उठाना है तुम्हें

अंगों पै है परिधान फटा क्या कहने
बिखरी हुई सावन की घटा क्या कहने
ये अरुण कपोलों पे ढलकते आँसू
अंगार पै शबनम की छटा क्या कहने

आकाश के फूलों से न श्रृंगार करो
तुम स्वर्ग नहीं, भू को नमस्कार करो
भगवान को दिन-रात रिझाने वालो
भगवान के बन्दों से भी कुछ प्यार करो

क्यों प्यार के वरदान सहन हो न सके
क्यों मिलन के अरमान सहन हो न सके
ऐ दीप शिखा ! क्यों तुझे अपने घर में
इक रात के मेहमान सहन हो न सके

जब कवि का हृदय भाव-प्रवण होता है,
अनुभूति का भी स्रोत गहन होता है
लहराने लगे बिन्दु में ही जब सिन्धु,
वास्तव में वही सृजन का क्षण होता है

जब भाव के सागर में ज्वार आता है,
अभिव्यक्ति को मन कवि का छटपटाता है
सीपी से निकलते हैं चमकते मोती
संवेदना से ही सृजन का नाता है

तुम घृणा, अविश्वास से मर जाओगे
विष पीने के अभ्यास से मर जाओगे
ओ बूंद को सागर से लड़ाने वालों
घुट-घुट के स्वयं प्यास से मर जाओगे

तुम एकता का दीप जलाकर देखो,
हाथों में "तिरंगे" को उठाकर देखो
चल देगा सकल देश तुम्हारे पीछे
इक बार कदम आगे बढ़ाकर देखो

प्यार दशरथ है सहज विश्वासी,
जबकि दुनिया है मंथरा दासी,
किन्तु ऐश्वर्य की अयोध्या में,
मेरा मन है भरत-सा संन्यासी

पंछी ये समझते हें चमन बदला है,
हँसते हैं सितारे कि गगन बदला है
शमशान की कहती है मगर खामोशी
है लाश वही सिर्फ कफ़न बदला है

मंझधार से बचने के सहारे नहीं होते,
दुर्दिन में कभी भी सितारे नहीं होते
हम पार भी जायें तो भला जायें किधर से,
इस प्रेम की सरिता के किनारे नहीं होते

मैं आग को छू लेता हूँ चन्दन की तरह
हर बोझ उठा लेता हूँ कंगन की तरह
यह प्यार की मदिरा का नशा है, जिसमें
कांटा भी लगे फूल के चुम्बन की तरह

मैं साधु से आलाप भी का लेता हूँ
मंदिर में कभी जाप भी का लेता हूँ
मानव से कहीं देव न बन जाऊँ मैं
यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ

मैं सूर्य की हर धुँधली किरण बदलूँगा
बदनाम हवाओं का चलन बदलूँगा
रंगीन बहारों को मनाने के लिए
मैं शूल का तन फूल का मन बदलूँगा

मैं सृजन का आनन्द नहीं बेचूँगा
मैं हृदय का मकरन्द नहीं बेचूँगा
मैं भूख से मर जाऊँगा हँसते-हँसते
रोटी के लिए छन्द नहीं बेचूँगा

यह ताज नहीं, रूप की अंगड़ाई है
ग़ालिब की ग़ज़ल पत्थरों ने गाई है
या चाँद की अल्बेली दुल्हन चुपके से
यमुना में नहाने को चली आई है

यदि कंस का विष-अंश अभी बाकी है,
तो कृष्ण का भी वंश अभी बाकी है
माना कि सभी ओर अँधेरा छाया
पर ज्योति का कुछ अंश अभी बाकी है

यौवन के समय प्रेम की क्या बात न हो
क्या दिन ही रहे और कभी रात न हो
संभव भी कहीं है यह भला सोचो तो
सावन का महीना हो, पर बरसात न हो

हम शूल को भी फूल बना सकते हैं
प्रतिकूल को अनुकूल बना सकते हैं
हम मस्त वो माँझी हैं जो मँझधारों में
हर लहर को भी कूल बना सकते हैं

हर झोंपडी आनन्द-विहीना क्यों है
हर आँख में सावन का महीना क्यों है
ऐ देश के धनियो ! यह कभी सोचा है
मजदूर के माथे पे पसीना क्यों है

हँसता हुआ मधुमास भी तुम देखोगे
मरुथल की कभी प्यास भी तुम देखोगे
सीता के स्वयंवर पै न झूमो-इतना
कल राम का वनवास भी तुम देखोगे

हिन्दी तो सकल जनता की अभिलाषा है,
संकल्प है, सपना है, सबकी आशा है
भारत को एक राष्ट्र बनाने के लिए
हिन्दी ही एकमात्र सही भाषा है

हिन्दी में कला ही नहीं, विज्ञान भी है,
राष्ट्रीय एकता की ये पहचान भी है
हिन्दी में तुलसी, सूर या मीरा ही नहीं
उसमें रहीम, जायसी, रसखान भी है

2. दीवाली पर रुबाइयाँ - उदयभानु हंस

सब ओर ही दीपों का बसेरा देखा,
घनघोर अमावस में सवेरा देखा।
जब डाली अकस्मात नज़र नीचे को,
हर दीप तले मैंने अँधेरा देखा।।

तुम दीप का त्यौहार मनाया करते,
तुम हर्ष से फूले न समाया करते।
क्या उन्हें भी देखा है इसी अवसर पर,
जो दीप नहीं, दिल हैं जलाया करते।।

हम घर को दीपों से सजा लेते हैं,
इतना भी न अनुमान लगा लेते हैं।
इस देश में कितने ही अभागे हैं, जो
घर फूँक के दीवाली मना लेते हैं।।

इक दृष्टि बुझे दीप पे जो डाली थी,
कुछ भस्म पतंगों की पड़ी काली थी।
पूछा जो किसी से तो वह हँस कर बोला,
मालूम नहीं? रात को दीवाली थी।।

कैसा प्रकाश पर्व है यह दीवाली?
जलते हैं दिये रात मगर है काली।
तुम देश के लोगों की दशा मत पूछो,
उजला है वेष जेब मगर है खाली।।

हे लक्ष्मी! तुम्हें माँ हैं पुकारा करते,
तुमको हैं सभी पुत्र रिझाया करते।
पर प्यार धनी से है न निर्धन से तुम्हें,
ये भेद नहीं माँ को सुहाया करते।।

दीवाली में हर्षित हैं सभी हलवाई,
फुलझड़ियों पटाखों से हवा गरमाई।
बच्चों की माँग पूरी करेंगे कैसे?
मुँह बाये खड़ी शहर में है महँगाई।।

कुछ यों प्रकाश पर्व मना कर देखें,
अज्ञान-तमस को भी मिटा कर देखो।
माटी के सदा दिये जलाने वालों,
मन के भी कभी दिये जलाकर देखो।।


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