Biography Guru Sant Ravidas Ji संत गुरु रविदास जी जीवन परिचय

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संत/गुरु रविदास जी जीवन परिचय
Biography Guru/Sant Ravidas Ji

गुरु रविदास जी का व्यक्तित्व

संत रविदास अथवा रैदास एवं किंचित उच्चारण भेद के साथ इसी से मिलनेवाले अनेक नाम देश के विभिन्‍न भागों में प्रचलित हैं। सर्वप्रथम इस विषय में निर्णय की आवश्यकता है कि यह एक ही संत के विभिन्‍न नाम हैं या एक से अधिक संतों का व्यक्तित्व एक ही व्यक्ति पर आरोपित हो गया है। इस संबंध में मिलनेवाले विभिन्‍न नाम हैं
रविदास, रैदास, रादास, रुद्रदास, सईदास, रयिदास, रोहीदास, रोहिदास, रूहदास, रमादास, रामदास, हरिदास। इनमें से रविदास तथा रैदास दो नाम तो ऐसे हैं, जो दोनों ही संत रैदास की रचनाओं में उपलब्ध होते हैं। शेष नाम उनकी रचनाओं में कहीं नहीं मिलते। वे सभी नाम विभिन्‍न अन्य लेखकों या अन्य व्यक्तियों के द्वारा उनके लिए प्रयोग किए गए हैं। गुरुग्रंथ साहिब में रविदास नाम से एक श्लोक तथा चालीस पद संकलित हैं। इस रचनाकार के विषय में काशी का निवासी तथा जाति से चमार होने का वर्णन मिलता है, किंतु साथ ही ग्रंथ साहिब में ही अन्य स्थलों पर ऐसे भी पद मिलते हैं; जिनमें काशी के निवासी चमार रैदास का प्रसंग मिलता है। इससे हम इस निर्णय पर सरलतापूर्वक पहुँच सकते हैं कि ग्रंथ साहिब के रविदास तथा रैदास एक ही व्यक्ति थे।
Ravidas
'संत रैदास की वाणी' में 87 पद तथा 3 साखियों का संकलन 'रैदास' के नाम से हुआ है, जिनमें से लगभग सभी में 'रैदास' नाम की छाप भी मिलती है। 'रैदासजी की वाणी' में पद तथा साखियों का किंचित पाठभेद के साथ गुरुग्रंथ साहिब में संकलित रचनाओं से लगभग पूर्ण साम्य है। अत: यह बात पुष्ट हो जाती है कि रैदास तथा रविदास एक ही व्यक्ति थे। भक्त पचीसी के लेखक खेमदास ने रैदास को 'रयदास' लिखा है। डॉ. सुरेंद्रनाथ गुप्त ने रविदास को 'रुइदास' लिखा है। यह 'रैदास' का बँगला उच्चारण भी हो सकता है। 'रुइदास' भी रैदास का बँगला उच्चारण में रूपांतर ही ज्ञात होता है। 'भगवान्‌ रैदास की सत्यकथा' में उस पुस्तक के पाठभेद के साथ दो नाम मिलते हैं-'रयिदास' और “रोहीदास', जिनमें अंतर करने की आवश्यकता नहीं है और इन दोनों ही नामों को रैदास ही समझना चाहिए। 'रैदास रामायण' के मुखपृष्ठ पर 'रहदास रामायण' लिखा मिलता है, किंतु अंदर 'रयदास रामायण' लिखा है। अत: इन दो नामों में भी अंतर नहीं किया जाना चाहिए और इन्हें एक ही व्यक्ति रविदास के भिन्‍न नाम समझना चाहिए।

प्रचलित विश्वास के अनुसार, मीरा रविदास की शिष्या थीं। मीरा की एक पंक्ति में प्रयुक्त होने के कारण रविदास के एक नाम 'रोहीदास' का और प्रयोग माना जाता है। केवल एक स्थल पर रोहीदास के प्रयोग से संत का नाम रोहीदास मानना अनुपयुक्त है। मीरा ने दूसरे अनेक स्थलों पर गुरु के रूप में 'रैदास' नाम से ही उनका स्मरण किया है। संभव है गीत-लय या पाठभेद के कारण मीरा ने उनका नाम असमान लिया हो। संत तुकाराम, रानाडे तथा विनोबा भावे के मतानुसार भी संत रैदास को ही लोग रोहीदास कहते हैं।

'भगवान्‌ रविदास की सत्यकथा' में कुछ स्थलों पर रविदास को रामदास भी कहा गया है। कुछ सिख चमार भी अपने को रामदासी कहते हैं। भारत के बहुधा चमार अपने को रविदासी या रैदासी कहते हैं। इससे कतिपय लेखकों की यह धारणा बनी है कि रविदास का एक नाम रामदास भी था; किंतु यह तर्कसंगत नहीं है। संत रविदास के सभी अनुयायी अपने को हिंदू ही मानते हैं और अब तक रविदास के अनुयायी होने के कारण उनमें से किसी ने कोई अन्य धर्म स्वीकार नहीं किया है, फिर रामदास नाम के अनेक धर्मगुरु हुए हैं-रामदास कबीरपंथी, सिखों के चतुर्थ गुरु रामदास, धामी संप्रदाय के अनुयायी रामदास, मलूकपंथी आदि। अत: रामदास या रामदासी चमारों के आधार पर उस रामदास को मूल रविदास के व्यक्तित्व तक लाना गलत होगा। रविदास को रामदास कहने का यह भी कारण हो सकता है कि रविदास के विषय में स्वामी रामानंद के शिष्य होने की अनुश्रुति भी चली आ रही है। यह भी हो सकता है कि यह कोई और व्यक्ति रहा हो और रामदास रविदास न रहे हों। वैसे केवल रामानंद के शिष्य होने के कारण रविदास को रामदास कहना तर्कसंगत नहीं होगा।

संत रविदास का एक नाम हरिदास भी कहा जाता है। इस भ्रम का एक आधार यह भी हो सकता है कि वियोगी हरि द्वारा संपादित 'संत सुधा सार' में संत रविदास की एक साखी में अंतिम शब्द हरिदास आया है। संभव है उससे यह अनुमान लगाया गया हो कि रविदास का एक नाम हरिदास भी रहा हो, किंतु वस्तुत: उस स्थल पर हरिदास शब्द का प्रयोग हरि के दास अर्थात्‌ भगवान्‌ के भक्त के रूप में किया गया है, न कि रैदास के किसी दूसरे नाम के लिए। वैसे रविदास की उच्चता सिद्ध करने के लिए उनको हरिदास कहने की चेष्टा बाद में की गई हो, यह दूसरी बात है। गांधीजी ने भी अंत्यजों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया है, फिर उपर्युक्त साखी नाभादास कृत भक्तमाल के दूसरे रूप में मिलती है। भक्तमाल में उसी साखी के अंतिम शब्द हरिदास के स्थान पर रैदास ही दिया गया है। वस्तुतः मूल रूप में वह नाम रविदास ही था। बाद में उनके अनुयायियों के द्वारा ही अपभ्रंश रूप में यह नाम 'रैदास' हो गया। इस बात का समर्थन 'रैदासजी की बानी' के संपादक द्वारा भी 'रैदासजी का जीवन-चरित्र' लिखते समय किया गया है। इस विषय में बाहरी साक्ष्य के रूप में सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण 'गुरुग्रंथ साहिब' में आए धन्ना भगत के एक पद को लिया जा सकता है, जिसमें उन्होंने संत रैदास को रविदास के ही नाम से पुकारा है। भक्त मालकार ने भी रैदास नाम ही प्रयोग किया है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संत रैदास का मूल नाम 'रविदास' ही था, जो कि उच्चारण-भेद से रैदास भी हो गया। अन्य सभी नाम विभिन क्षेत्रों में उच्चारण भेद अथवा अन्य भावों के आरोप से बनते रहे। इन सभी नामों के विभिन्‍न परिवर्तित रूपों को देखने से इतना तो निश्चित हो ही जाता है कि संत रविदास का प्रसिद्धि क्षेत्र अवश्य ही बहुत विस्तृत रहा है और वे संपूर्ण भारत में मान्य संत रहे हैं।

जीवन-वृत्त

गुरु रविदास के जीवन-वृत्त से संबंधित उपलब्ध सामग्री

गुरु रविदास के जीवन को पूर्णतः प्रकाश में लाने के लिए यद्यपि हमें न तो पूर्णरूपेण अंतःसाक्ष्य ही उपलब्ध होते हैं और न कोई ऐसे निर्णायक बहि:साक्ष्य प्रमाण ही आधिकारिक रूप से उपलब्ध होते हैं, जिनके आधार पर गुरु रविदास के जीवन-वृत्त को पूर्णरूपेण प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया जा सके, किंतु फिर भी जो भी अंतःसाक्ष्य और कुछ बहि:साक्ष्य प्रमाण अब तक उपलब्ध हो सके हैं, उनका वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर हम रविदास के जीवन से संबंधित कुछ तथ्यों की जानकारी अवश्य उपलब्ध कर सकते हैं।

जहाँ तक अंतःसाक्ष्य प्रमाणों का प्रश्न है, गुरु रविदास ने अन्य संत एवं भक्त कवियों की ही भाँति अपने विषय में विशेष कुछ परिचय नहीं दिया है, बस उनके द्वारा रचे गए कतिपय पदों के द्वारा हमें केवल उनकी जाति, कुल, परिवार, निवास स्थान, प्रारंभिक काल में अपमानपूर्ण जीवन, परवर्ती जीवन में सम्मान एवं जीवनयापन की विधि पर ही प्रकाश पड़ता है। गुरु रविदास के द्वारा लिखे गए कतिपय पदों में कुछ महान्‌ संतों एवं भक्तों का भी प्रसंग आया है, जिससे गुरु रविदास के जीवनकाल के विषय में भी कुछ तथ्य सामने आ सकते हैं। जिन महान्‌ संतों का उल्लेख रविदास ने इतने सम्मानपूर्वक किया है या तो वे गुरु रविदास के जीवनकाल में ही उनसे अधिक सम्मानित और प्रसिद्ध हो चुके थे या स्वर्गवासी हो चुके थे अर्थात्‌ रविदास से पहले जन्म ले चुके थे। कुछ संतों ने भी रविदास का नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है। उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार इस विषय में भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उन संतों के काल में रविदास पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके थे या स्वर्गवासी हो चुके थे अर्थात्‌ वे गुरु रविदास से आयु में कनिष्ठ रहे होंगे।

कुछ परवर्ती धार्मिक साहित्य तथा अन्य धर्माचार्यों ने भी रविदास के जीवन पर प्रकाश डाला है। कतिपय आधुनिक विद्वानों ने भी रविदास के जीवन के विषय में कुछ खोजें की हैं। संपूर्ण बहि:साक्ष्य सामग्री को हम निम्नलिखित श्रेणियों में बाँट सकते हैं--

(क) समकालीन अथवा तथाकथित समकालीन संतों एवं विचारों की रचना में रविदास से संबंधित आए हुए प्रसंग।
(ख) धार्मिक साहित्य।
(ग) परिचयी साहित्य तथा भक्तमाल।
(घ) अनुश्रुतियाँ तथा किंवदंतियाँ।
(ग) परवर्ती विद्वानों के विचार।

(क) इस सूची में प्रमुखत: दो ही संत-भक्त आ सकते हैं। एक तो धन्ना भगत तथा दूसरी मीरा। यद्यपि यह विवादास्पद है कि मीरा गुरु रविदास की समकालीन थीं, किंतु एक बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ मीरा को रविदास का समकालीन मानते हैं। साथ ही विद्वान धन्ना भगत को भी रविदास का समकालीन बताते हैं, रविदास को धन्ना भगत का समकालीन बतानेवालों की संख्या अधिक है। अन्य बहि:साक्ष्य प्रमाणों की तुलना में इन दो संतों की रचनाओं को, इस विषय में हम अधिक प्रामाणिक आधार मानकर चल सकते हैं। धन्ना भगत ने गुरु रविदास का नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है और उनको नामदेव, सैन नाई व कबीर साहब के ही समकक्ष माना है। मीराबाई ने भी रविदास का नाम बड़े सम्मान से अपने गुरु के रूप में लिया है।

(ख) जहाँ तक धार्मिक साहित्य का प्रश्न है, उसे दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है। प्रथम आधार तो उपलब्ध साहित्य की प्राचीनता या रविदास से समकालीनता है और द्वितीय आधार रविदासी संप्रदाय से संबद्धता या उससे इतरता है। प्रथम कोटि के साहित्य में यद्यपि यह बात कह सकना तो कठिन है कि कौन सा साहित्य कितना प्राचीन अथवा समकालीन है, वरन्‌ संभावना यही अधिक है कि यह साहित्य बाद में ही रविदास के जीवन पर आरोपित दृष्टिकोणों के प्रकाश में लिखा गया है। इस कोटि में पाँच पुस्तकें उपलब्ध होती हैं; जो रविदास की समकालीन और पुरानी होने का दावा करती हैं। ये पाँच पुस्तकें हैं--'रैदास रामायण', 'कबीर-रैदास संवाद', 'काशी माहात्म्य', 'भविष्य पुराण' और 'रैदास पुराण'। इनमें 'रैदास रामायण' रविदासी संप्रदाय के ही भक्त बख्शीदास की रची हुई है। 'कबीर-रैदास संवाद' श्रीसैनी का लिखा हुआ है। सैनी कबीर पंथी थे। दोनों पुस्तकों में ही रचनाकारों ने अपने-अपने संप्रदाय के प्रवर्तकों को अधिक विद्वान तथा प्रभावशाली सिद्ध करने की चेष्टा की है, फिर भी इन पूर्वग्रहों को यदि निकाल दिया जाए तो भी संत रविदास के जीवन-वृत्त तथा उनकी विचारधारा पर इन पुस्तकों से कुछ-न-कुछ प्रकाश अवश्य पड़ता है। 'रैदास पुराण' भी परवर्ती रचना ज्ञात होती है, किंतु उसका उपयोग भी कुछ सीमा तक किया जा सकता है। भविष्य पुराण तथा काशी माहात्म्य अवश्य परंपरागत ब्राह्मण धर्म की पुस्तकें हैं, किंतु उनसे भी हमें कुछ तथ्यों की उपलब्धि होती है तथा उनसे कुछ तथ्यों की पुष्टि होती है।

आधुनिक कालीन रचनाओं में हीरालाल कुरील दूबारा 'भगवान्‌ रैदास की सत्य कथा' तथा रामदास शास्त्रपाठी की लिखी हुई 'श्री भगवान्‌ रैदास का सत्य स्वभाव' है। इन रचनाओं में भी संप्रदाय जैसा पूर्वग्रह तथा अतिरंजनाएँ अधिक मिलती हैं, किंतु इनसे भी रविदास के जीवन से संबंधित तथ्यों पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

(ग) जहाँ तक परिचयी साहित्य का संबंध है, रविदास के जीवन से संबंधित परिचयी स्वामी अनंतदास ने लिखी है। इसमें रविदास के जीवन से संबंधित अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया गया है। संभव है कि इन अतिरंजनाओं का उद्देश्य तत्कालीन समाज में रविदास का महत्त्व बढ़ाना रहा हो, किंतु परिचयी साहित्य जब अन्य प्रमाणों की पुष्टि प्राप्त कर लेता है, तब उसके कुछ तथ्य अवश्य विश्वसनीय बन जाते हैं।

भक्‍तमाल (मूल रचना नाभादास, टीका प्रियादास) में भी रविदास के जीवन की कल्पित घटनाओं का चमत्कारपूर्ण ढंग से वर्णन किया गया है। उसमें भी कुछ अतिशयोक्तियाँ और सांप्रदायिक अतिरंजना ज्ञात होती है, किंतु उसमें वर्णित घटनाओं से परिचयी में वर्णित घटनाओं और जनश्रुतियों से प्राप्त घटनाओं का साम्य प्राय: एक सा बैठ जाता है।

(घ) जनश्रुतियाँ तथा किंवदंतियाँ यद्यपि किसी भी कथा अथवा जीवनी का ऐतिहासिक आधार नहीं होतीं और उनमें अतिरंजना तथा जनमानस की भावनाओं का काल्पनिक आरोप अधिक होता है, किंतु सर्व प्रचलित किंवदंतियों को भी अगर विवेकपूर्ण रीति से निर्वाचित किया जाए तो हम कुछ तथ्यों पर पहुँच सकते हैं। गुरु रविदास से संबंधित जो किंवदंतियाँ तथा जनश्रुतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें स्थान भेद तथा पात्रभेद के अनुसार रविदास के व्यक्तित्व का अतिमूल्यन और अवमूल्यन दोनों ही करने की चेष्टा हुई, किंतु हम इस अतिमूल्यन- अवमूल्यन के आरोप को हटाकर कुछ तथ्य निकाल सकते हैं और यदि एक सी ही जनश्रुति सब स्थलों पर प्रचलित मिलती है, तो वह तुलनात्मक रूप से कुछ अधिक विश्वसनीय बन जाती है।

गुरु रविदास के जीवन से संबंधित प्रचलित जनश्रुतियों को हम तीन कोटियों में बाँट सकते हैं-


1. प्रथम कोटि की जनश्रुतियाँ वे हैं, जो उनके जन्मकाल के विषय में होनेवाली चमत्कारपूर्ण घटनाओं और उनके पूर्वजन्म से संबंध रखती हैं। इन सभी जनश्रुतियों में गुरु रविदास को चमार के घर जन्म लेते हुए भी मूल रूप में उनका चमार न होना सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। इन जनश्रुतियों का प्रसंग तो गुरु रविदास के जीवनकाल का वर्णन करते समय किया जाएगा। यहाँ बताना आवश्यक लगता है कि यह प्रयास जिसके अनुसार गुरु रविदास को मूल रूप से चमार न होना सिद्ध करने की चेष्टा की गई है, इसे अवांछनीय प्रयास या एक साजिश कहा जा सकता है।

2. द्वितीय प्रकार की जनश्रुतियों में वे जनश्रुतियाँ हैं; जिनका संबंध गुरु रविदास के साधनापूर्ण जीवन और उसके परिणामस्वरूप उनके विभिन्‍न प्रकार से सम्मानित होने से है। इन जनश्रुतियों में अनेक स्थानों पर कर्मकांडी ब्राह्मणों तथा पाखंडियों पर जन मान्यता के अनुसार रविदास की विजय ही अधिक दिखाई गई है।

3. तृतीय प्रकार की जनश्रुतियाँ रविदास के त्यागपूर्ण जीवन तथा उनके संत स्वभाव से संबंधित हैं। हो सकता है कि इन जनश्रुतियों में अतिरंजना या कल्पना की मात्रा अधिक हो, किंतु इन जनश्रुतियों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि तत्कालीन युग में गुरु रविदास एक महान्‌ त्यागी तथा निस्पृह संत माने जाते थे।

गुरु रविदास के जीवन तथा कृतित्व पर कतिपय विदुवानों ने आधुनिक काल में भी प्रकाश डाला है, जिनमें प्रमुख नाम इस प्रकार कहे जा सकते हैं:-डॉ. रामकुमार वर्मा, पंडित परशुराम चतुर्वेदी, पंडित भुवनेश्वर मिश्र, रामानंद शास्त्री, डॉ.संगमलाल पांडेय, पद्मावती शबनम, प्रो. तारकनाथ अग्रवाल, वियोगी हरि, रामचंद्र कुरील, महंत सकलदास, महंत रामदासजी शास्त्रपाठी, कलियुगी रविदासजी, विलियम हेल्टिंगन और रैदास वाणी के संपादक।

गुरु रविदास का जीवनकाल तथा तिथि निर्णय

गुरु रविदास के जीवनकाल का निर्णय कर सकने के लिए हमें कोई अंतः साक्ष्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। कुछ बहि:साक्ष्य प्रमाण अवश्य उपलब्ध होते हैं, किंतु ये बहि:साक्ष्य भी हमें किसी अंतिम प्रामाणिकता पर नहीं पहुँचाते, इसलिए हम रविदास के जीवन के विषय में तुलना की दृष्टि से ही कुछ तथ्यों के आधार पर निर्णय लेकर उनके जीवनकाल को प्रकाश में ला सकते हैं। विभिन्‍न बहि:साक्ष्य प्रमाणों के आधार पर हम जिन धारणाओं पर पहुँच सकते हैं, प्रारंभिक रूप से वे निम्नलिखित कही जा सकती हैं-

(1) गुरु रविदास कबीर के समकालीन थे। इसी धारणा का एक पक्ष यह भी है कि वे रामानंद के शिष्य थे; तब हमें मानना पड़ेगा कि रामानंद उनके समय में जीवित थे।
(2) गुरु रविदास मीराबाई के गुरु थे अर्थात्‌ मीराबाई के समकालीन थे, चाहे वे उनसे आयु में कितने ही बड़े क्यों न रहे हों।
(3) गुरु रविदास धन्‍ना भगत के समकालीन होकर उनसे पर्याप्त ज्येष्ठ थे।

उपलब्ध अनुश्रुतियों के आधार पर मीरा के रैदास की शिष्या होने की संभावना अधिक दिखती है। बहि:साक्ष्य प्रमाण भी इसका समर्थन करते हैं।

मीरा ने रविदास का गुरुभाव से अपने पदों में अनेक स्थलों पर स्मरण किया है और अब वे पद आधिकारिक रूप से मीरा के माने जा चुके हैं। इन पदों के प्रकाश में रविदास के मीरा का गुरु होने की संभावना उत्पन्न होती है। इस विषय में कतिपय विद्वानों दुवारा एक आपत्ति उठाई गई है। मीरा ने धन्ना भगत का भी नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है। जैसे वे कोई एक बहुत ही सिद्ध अथवा पौराणिक महान पुरुष हों। मीरा के धन्‍ना भगत का इस भाव से उल्लेख करने का तात्पर्य विद्वानों ने यह निकाला है कि धन्ना भगत मीरा के समय में जीवित नहीं थे तथा दिवंगत हो चुके थे। अब धन्ना भगत ने रविदास का नाम भी बड़े सम्मान से लिया है। इससे यह भी निश्चित होता है कि रविदास धन्ना भगत से पर्याप्त ज्येष्ठ रहे होंगे और रविदास धन्ना के साधना काल तक पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके होंगे। अब इन विद्वानों के मतानुसार जब धन्ना भगत ही मीरा के काल तक जीवित न थे, तब रविदास जो कि धन्ना से भी ज्येष्ठ सिद्ध होते हैं, उनके मीरा के काल तक जीवित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस आधार पर कतिपय विद्वानों ने रविदास को मीरा का गुरु मानने से इनकार किया है।

रविदास के लिए मीरा के गुरु भाव से कहे गए पदों को प्रक्षिप्त न मानते हुए भी विद्वान मानते हैं कि वह रविदास जिनके विषय में मीरा ने गुरुभाव से पद कहे हैं, मूल रविदास न होकर रविदासी संप्रदाय के ही कोई अन्य महापुरुष रहे होंगे और उनका अनुमान है कि यह महापुरुष भक्तमाल में वर्णित बौद्धदास रविदास हो सकते हैं, किंतु इसका कोई पुष्ट प्रमाण सामने नहीं आया है। जहाँ तक मीरा के द्वारा अपने से ज्येष्ठ धन्ना भगत का सम्मानपूर्वक उल्लेख और धन्ना भगत के द्वारा गुरु रविदास के सम्मान का उल्लेख आने का प्रश्न उपस्थित करके इस कड़ी को इतना लंबा ले जाने का प्रश्न है कि मीरा का रविदास की शिष्या होने की संभावना ही समाप्त हो जाए, असंगत होगा। फिर जब रविदास को मीरा ने गुरु भाव से स्वयं ही अपने पदों में स्मरण किया है; तब इसके विपरीत केवल अनुमानित संभावना के आधार पर हम इस तथ्य को ठुकरा दें, यह अनुचित होगा। रविदास को मीरा का गुरु मानने के पक्ष में ही अधिक सशक्त प्रमाण मिलते हैं। मीरा के द्वारा धन्ना भगत के उल्लेख तथा धन्ना भगत द्वारा रविदास के उल्लेख से हम इनकार नहीं कर सकते और इस परस्पर सम्मान की परंपरा की कड़ी से हम इतना समझ सकते हैं कि धन्ना भगत मीरा से ज्येष्ठ रहे होंगे और वे मीरा के काल तक पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके होंगे। इसीलिए मीरा ने उनका स्मरण ससम्मान किया है। यह भी संभव हो सकता है कि यह ज्येष्ठता पच्चीस-तीस वर्ष की भी हो सकती है। यही अंतर धन्ना भगत और रविदास के बीच भी हो सकता है। इस प्रकार यदि हम रविदास, धन्‍ना भगत और मीरा के बीच की कड़ी को अधिक महत्त्व ही दें तो रविदास मीरा से लगभग पचास-साठ वर्ष ज्येष्ठ होकर भी मीरा के गुरु तथा उनके समकालीन हो सकते हैं।

विद्वानों ने मीरा का काल संवत्‌ 1560 से 1603 तक माना है। उस दशा में हम रविदास का जन्मवर्ष लगभग संवत्‌ 1500 मान सकते हैं।

अब दूसरी संभावनाओं, रविदास का कबीर के समकालीन तथा रामानंद के शिष्य होने का प्रश्न उठता है। जहाँ तक रविदास का कबीर के समकालीन होने का प्रश्न है, वह बिलकुल संभव है। इस विषय में भक्‍तमालकार का छंद जिसमें उन्होंने कबीर, रविदास आदि सभी को रामानंद का शिष्य बताया है, रविदास की परिचयी, कबीर-रैदास संवाद तथा रैदास रामायण सभी का समर्थन मिलता है। विद्वानों ने कबीर का जन्मवर्ष सन्‌ 1455 माना है। रविदास के जन्म के विषय में उल्लिखित अनुमानित वर्ष से कबीर के अनुमानित जन्मवर्ष में इतना अंतर भी नहीं है कि जिससे कबीर और रविदास का एक-दूसरे के समय में जीवित रहना असंभव ज्ञात होता हो। यह संभव है कि कबीर अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर हों, तब रविदास की साधना प्रारंभिक अवस्था में हो। इसका समर्थन रविदास के ही पदों में मिली विभिन्‍न पंक्तियों से होता है। एक स्थल पर रविदास ने कबीर को सम्मानपूर्वक स्मरण करते हुए उनके सदेह स्वर्ग पधारने की भी बात कही है। इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि रविदास कबीर से कनिष्ठ तथा आयु में छोटे थे और कबीर जब अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर रहे होंगे, तब रविदास का साधनाकाल चल रहा होगा।

इस विषय में कतिपय विद्वानों ने एक संशय उत्पन्न किया है कि रविदास कबीर से आयु में बड़े थे। इसके समर्थन में उन्होंने कबीर की एक पंक्ति उद्धत की है; जिसमें उन्होंने रविदास को एक श्रेष्ठ संत कहा है। वह पंक्ति कबीर की रचनाओं में बहुत से पाठों में नहीं मिलती है। अत: इस पंक्ति को प्रक्षिप्त भी माना जा सकता है। यदि इस पंक्ति को प्रक्षिप्त न भी मानें तो इससे रविदास तथा कबीर को समकालीन मानकर कबीर के हृदय में रविदास के लिए आदरभाव का परिचय तो मिल सकता है, किंतु इससे रविदास के कबीर से आयु में ज्येष्ठ होने का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। दूसरी ओर यदि रविदास को हम कबीर से ज्येष्ठ मान लेते हैं, तो रविदास के मीरा के गुरु होने की संभावना कम हो जाती है, जिसके पक्ष में अधिक पुष्ट तर्क मिलते हैं। रविदास के कबीर से भी ज्येष्ठ होने की कल्पना तभी उठ सकती है, जब हम रविदास की आयु को असामान्य रूप से लंबा मान लें।

जहाँ तक रविदास के रामानंद के समकालीन होने अथवा उनके शिष्य होने का प्रश्न उठता है, उसकी संभावना अत्यंत बिरल है। जनश्रुतियों में ही इस बात का उल्लेख मिलता है।
रविदास की जन्मतिथि निर्धारित करने में यदि हम किसी विशेष वर्ष पर भी न पहुँचे तो भी संभावनाओं के निकट अवश्य पहुँच जाते हैं और यह संभावना संवत्‌ 1500 के लगभग ही मानी जाती है।

संत रविदास जी का जन्मदिन

रविदास के जन्मदिन के विषय में संप्रदाय में विश्वास किया जाता है कि उनका जन्मदिन रविवार और तिथि माघी पूर्णिमा थी। इसी दिन सारे देश में रविदासी भाई उनकी जन्मतिथि प्रतिवर्ष मनाते हैं। किसी अन्य प्रमाण के अभाव में हमें माघी पूर्णिमा को ही रविदास की जन्मतिथि मान लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।

संत रविदास जी का जन्मस्थान

सामान्यतः रविदास पंथी भाई रविदास के जन्मस्थान के विषय में एकमत नहीं हैं। इस विषय में विभिन्‍न मत चलते हैं। इन संपूर्ण मतों को यदि शीर्षकबद्ध किया जाए तो इन मतों को हम दो शीर्षकों में रख सकते हैं-

(1) रविदास पश्चिमी उत्तर प्रदेश के निवासी थे। पश्चिमी प्रदेश में भी अनेक संभावनाएँ सामने उभर आई हैं
(क) पश्चिमी उत्तर प्रदेश के।
(ख) गुजरात-राजस्थान के।
(ग) राजस्थान में मेवाड़ के।
(घ) राजस्थान में माण्डोगढ़ या मंडावर के निवासी।

(2) रविदास पूर्वी प्रदेश, बनारस के आसपास के रहनेवाले थे। इस मत में भी दो संभावनाएँ सामने आती हैं-
(क) रविदास बनारस के निवासी थे।
(ख) रविदास बनारस के पास ही महुआडीह के निवासी थे।

गुरु रविदास के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के निवासी होने की कल्पना रविदास महासभा के कुछ अनुयायियों द्वारा की गई है। उनका कथन है कि गुरु रविदास पश्चिमी उत्तर प्रदेश के निवासी थे और काशी का सांस्कृतिक महत्त्व सुनकर बाद में वे वहाँ जाकर रहने लगे थे। ये अनुयायी अपने समर्थन में किसी भूतपूर्व रविदासी महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता के पद से दिए गए लाला लाजपत राय के भाषण का उल्लेख करते हैं, किंतु इस विचार का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं दिया जा सका है।

गुरु रविदास के गुजरात व राजस्थान की ओर के होने के विचार को कुछ समर्थन अवश्य मिलता है। इस संबंध में अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं--

(क) गुजरात, राजस्थान की ओर गुरु रविदास के अनुयायियों की संख्या अधिक पाई जाती है।
(ख) भाषा की दृष्टि से गुरु रविदास की रचनाओं में उधर की भाषा के पर्याप्त शब्द व प्रयोग पाए जाते हैं।
(ग) राजस्थान के चित्तौड़ में श्री कुंभनश्यामजी का मंदिर तथा रविदासजी की छतरी बनी हुई है। बताया जाता है कि यह स्थान रविदासजी का ही था और छतरी उसी स्थल पर बनी है, जहाँ गुरु रविदास का स्वर्गवास हुआ था।
(घ) राजस्थान में ही माण्डोगढ़ में रविदास का प्रसिद्ध कुंड और रविदास कुटी पाई जाती है, जिससे भी यह विचार उत्पन्न हो सकता है कि संत रविदास राजस्थान में ही इस प्रदेश के निवासी रहे होंगे।

जहाँ तक गुजरात-राजस्थान की ओर रविदासी अनुयायियों की संख्या अधिक होने के आधार पर गुरु रविदास को उस क्षेत्र का मानने का प्रश्न है, इस तर्क को अंतिम और प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। केवल अनुयायियों की संख्या का बाहुलय किसी प्रवर्तक के ही प्रदेश का प्रमाण नहीं होता। हाँ, अनुयायियों की संख्या में राजस्थान के अधिक अनुयायी होने का यह परिणाम अवश्य निकाला जा सकता है कि रविदास का प्रभाव उस क्षेत्र में किसी कारण अधिक रहा होगा या वे अपने जीवनकाल में पर्याप्त समय वहाँ रहे होंगे। मौखिक परंपरा से एक बड़े काल तक 'बानी' रूप में चले आनेवाले गुरु रविदास के काव्य में राजस्थान और गुजरात की ओर की शब्दावली भी अधिक आ गई होगी। यह भी सत्य है कि संतों का भ्रमण तथा पर्यटन अत्यंत विस्तृत था, उनकी भाषा किसी एक विशेष क्षेत्र से बँधकर नहीं चली है, उसमें स्थानीय परिवर्तन तथा स्वरूप सदा आते रहे हैं।

चित्तौड़ में श्रीकुंभनश्याम का मंदिर तथा रविदास की छतरी और माण्डोगढ़ में रविदास कुटी तथा कुंड आदि का अस्तित्व इस बात के अंतिम प्रमाण नहीं हो सकते कि गुरु रविदास उस क्षेत्र के निवासी थे। यह स्थल तो रविदास के पर्यटन के बीच कभी उधर पहुँचने की स्मृति में भी श्रद्धालु भक्तों द्वारा बनवाए जा सकते हैं। श्रीकुंभनश्याम के मंदिर तथा रविदास की छतरी के विषय में प्रसिद्ध है कि रानी झाली या मीरा, जो भी रही हों, ने रविदासजी के आगमन के उपलक्ष्य में यह स्थल बनवाए थे।

गुरु रविदास का जन्म राजस्थान के माण्डोगढ़ में हुआ था, इस पक्ष में 'रैदास रामायण' की एक पंक्ति दी जाती है, किंतु यह विचार तो उस पंक्ति के साथ ही जुड़ी उससे पहले की पंक्ति से कहा जाता है, जिसमें उस स्थान को स्पष्टत: काशी के पास बताया गया है।

अब रविदास के जन्मस्थान से संबंधित संभावनाओं में काशी अथवा काशी के आसपास के ही किसी स्थल की संभावना शेष रह जाती है। इस पक्ष में रविदास के ही पदों में अंत:साक्ष्य प्रमाण स्पष्ट रूप में उपलब्ध हैं, जिनमें कि गुरु रविदास ने अपने परिवारवालों को बनारस के आसपास ढोर ढोने का पेशा करनेवाला बताया है। इस तर्क के विरुद्ध भी कहा जा सकता है कि उन्होंने इस स्थल पर अपनी जाति और कुटुंबवालों का परिचय दिया है कि वे बनारस के आसपास ढोर ढोने का पेशा करते पाए जाते हैं। इस पंक्ति से यह सिद्ध नहीं होता कि रविदास भी यहाँ के निवासी थे। अभी तक उपलब्ध तुलनात्मक रूप से महत्त्वपूर्ण प्रमाणों के आधार पर 'बनारस के आसपास' ही गुरु रविदास का जन्मस्थान ज्ञात होता है।

गुरु रविदास के काशी से संबंध रखने के बारे में दो अन्य बहि:साक्ष्य प्रमाणों से भी कुछ सांकेतिक समर्थन मिल सकता है। 'काशी माहात्म्य' नामक ग्रंथ में प्रसंग आता है कि उस स्थान पर शंकराचार्य ने एक शूद्र से शास्त्रार्थ किया था। यह शूद्र कौन था, इस विषय में वहाँ कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है, किंतु इस प्रसंग को ही जब हम एक दूसरे स्थल पर, भविष्य पुराण में उल्लिखित पाते हैं, तब इस प्रसंग के स्पष्टीकरण की ओर कुछ संकेत मिल जाता है। भविष्य पुराण के चतुर्थ खंड में प्रसंग आता है कि सूर्य के द्वितीय पुत्र पिंगलापति ने मानदास चर्मकार के यहाँ जन्म लिया, जिसका नाम रविदास रखा गया। रविदास ने काशी में कबीर से वाद-विवाद किया। उन्हें पराजित करने के बाद वे शंकराचार्य के पास आए। दोनों में एक दिन और एक रात लगातार शास्त्रार्थ होता रहा। अंत में रविदास पराजित हुए, पराजित होकर उन्होंने शंकराचार्य को प्रणाम किया और रामानंद के पास जाकर उनसे दीक्षा ली। कहने की आवश्यकता नहीं कि हो सकता है कि यह शंकराचार्य आदि शंकराचार्य न होकर उनकी ही किसी गद्दी के तत्कालीन उत्तराधिकारी होंगे। इसका तात्पर्य यह है कि रविदास नामक किसी चर्मकार का शास्त्रार्थ काशी में शंकराचार्य या शंकराचार्य के किसी उत्तराधिकारी से हुआ था और वह चर्मकार पर्याप्त तेजस्वी तथा विद्वान्‌ भी माना जाता था, जिसकी विद्‌वता का समर्थन उस पर सूर्य पुत्र होने की कल्पना के आरोप से मिल जाता है। भविष्य पुराण के इस प्रसंग को साथ रखकर देखते हुए काशी माहात्म्य में आए प्रसंग के स्पष्ट होने का कुछ संकेत मिल जाता है कि काशी माहात्म्य में शास्त्रार्थ करनेवाले चर्मकार भी संभवत: रविदास ही होंगे। इस निर्णय के विपरीत कोई विशेष प्रमाण अथवा प्रसंग भी नहीं मिलता।
इस प्रकार गुरु रविदास के विषय में उनके काशी से ही सर्वाधिक संबंध होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि काशी में भी वह कौन सा स्थल था, गुरु रविदास जहाँ के निवासी थे। इस विषय में दो विचार सामने आते हैं, प्रथम तो काशी का गोपाल मंदिर तथा दूसरा बनारस कैंट के पास ही लगभग दो मील पश्चिम ग्रांड ट्रंक रोड पर स्थित ग्राम मांडूर, जिसका प्राचीन नाम महुआडीह बताया जाता है।

काशी में स्थित गोपाल मंदिर को बड़े विश्वास के साथ रविदासजी का जन्मस्थल बताया जाता है। इस मंदिर के तहखाने में, जिसे तुलसी गुफा कहा जाता है, 'गुरु रविदास के द्वारा प्रयोग में लाई जानेवाली वस्तुएँ' भी सुरक्षित रखी बताई जाती हैं। भक्तों का कथन है कि यह मंदिर रविदासजी ने स्वयं बनवाया था। संभव है कि यह बात भी सत्य हो और रविदास का आश्रम या स्थान वहाँ रहा हो, किंतु रविदास का जन्म मांडूर ग्राम में होने के पक्ष में पर्याप्त प्रमाण मिलता है। रैदास रामायण की उल्लिखित पंक्तियाँ जिनमें रैदास के काशी के निकट मांडूर में जन्म लेने का वर्णन मिलता है, पर्याप्त प्रामाणिक ज्ञात होती है। मांडूर में प्राचीनकाल में चर्मकारों की बहुत बड़ी बस्ती भी रही थी।

महुआडीह के पक्ष में एक तर्क और उपस्थित होता है। भविष्य पुराण में जो शंकराचार्य तथा रविदास के शास्त्रार्थ का प्रसंग आया है, उस शास्त्रार्थ का स्थान काशी के नगरद्वार के बाहर बताया जाता है। इस 'नगरद्वार के बाहर' शब्द से माहुआडीह स्थान की पुष्टि होती है, क्योंकि यह गाँव काशी के लगभग पश्चिमी सीमा पर बाहर ही कहा जा सकता है। काशी महात्म्य में भी शंकराचार्य से शूद्र के शास्त्रार्थ का जो प्रसंग आता है, उस शास्त्रार्थ का स्थल भी महुआडीह ही बताया गया है। इस प्रकार गुरु रविदास के निवास स्थान अथवा पारिवारिक स्थान होने के संबंध में सर्वाधिक सबल प्रमाण महुआडीह के पक्ष में ही मिलते हैं। यह हो सकता है कि प्रसिद्धि के उपरांत उन्होंने अपना कोई स्थान काशी मुख्य नगर में भी बनवाया हो, वह स्थान गोपाल मंदिर भी माना जा सकता है। वैसे गुरु रविदास के नाम से तालाब, मंदिर, छतरी आदि देश में विभिन्‍न स्थानों पर उपलब्ध होती है और प्रत्येक स्थल पर श्रद्धालु भक्त उसी स्थल को गुरु रविदास का जन्म स्थान बताते पाए जाते हैं।

गुरु रविदास की जाति तथा कुटुंब

प्रमाणों के आधार पर यह बात पूरी तरह सिद्ध हो चुकी है कि गुरु रविदास का जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने ही पदों में अनेक स्थानों पर अपने चर्मकार होने की बार-बार घोषणा की है। इस विषय में रविदास की परवर्ती प्रसिद्धि तथा सर्वप्रियता को देखते हुए उनकी जाति से संबंधित अनेक कथानक चल गए हैं।

भक्तमाल में रविदास को पूर्वजन्म का ब्राह्मण बताकर कथा इस प्रकार दी गई है--स्वामी रामानंद का एक शिष्य था जो कि नित्य भीख लाता था और स्वामी रामानंदजी उसके द्वारा लाई गई भिक्षा से ही भोग लगाया करते थे। कुटी के पास ही एक बनिया रहा करता था। उसने स्वामीजी से अनेक बार भिक्षा लेने के लिए कहा था, किंतु स्वामी रामानंद ने कभी स्वयं उसके यहाँ से भिक्षा नहीं ली थी और शिष्यों को भी उसके यहाँ से भिक्षा लेने से मना कर दिया था। एक दिन अधिक वर्षा होने के कारण शिष्य भिक्षा लेने के लिए कहीं बाहर नहीं जा सका और कुटी के पास रहनेवाले उसी बनिए के यहाँ से भीख ले ली। उसी भिक्षा से तैयार हुई सामग्री से जब रामानंदजी भोग लगाने बैठे, तब उनके ध्यान में भगवान्‌ की मूर्ति ही नहीं आई। स्वामीजी ने ज्ञात किया तो इसका कारण उनको स्पष्ट हुआ कि भोग का अन्न उसी बनिए के यहाँ से आया था, जिसके यहाँ से वे भिक्षा ग्रहण नहीं करते थे। छानबीन करने पर पता चला कि वह बनिया एक चर्मकार के साथ व्यापार करता था। स्वामीजी को भोग के समय भगवान्‌ के ध्यान में न आने का संपूर्ण कारण स्पष्ट हो गया और उन्होंने उस शिष्य को शाप दिया, 'जा तू चमार के घर जन्म ले और उस शिष्य ने एक चमार के घर जन्म लिया।' रविदासजी के पूर्व-जन्म की वार्त्ता ऐसी ही है। इसी से आपने चमार के घर जन्म लिया।

भक्तमाल के अनुसार, आगे चलकर इसी बालक ने पूर्वजन्म की स्मृति के कारण अपनी माता के स्तन का दुग्धपान भी नहीं किया था और जब रामानंद ने आकर उपदेश दिया, तब इस बालक ने दूध पिया। रविदास के पूर्वजन्म में ब्राह्मण होने से संबंधित एक और कथा भकक्‍तमाल में ही वर्णित की गई है। भक्तमाल के अनुसार, रानी झाली ने गुरु रविदास को ससम्मान बुलाया था और उनके आगमन में एक भोज दिया था। कर्मकांडी ब्राह्मणों ने रविदास के सम्मान में दिए जाने के कारण इस भंडारे में से भोजन ग्रहण करने से इनकार कर दिया था, इसीलिए झाली रानी ने उनको अलग से सीधा दिया। जिस समय ब्राह्मण वर्ग अपने हाथ से बनाया भोजन खाने अलग बैठा, उस समय उन्होंने हर ब्राह्मण के साथ पंक्ति में दोनों ओर रविदास को बैठे पाया। इस पर ब्राह्मण वर्ग बहुत लज्जित हुआ। उसने रविदास से आकर क्षमा माँगी, तब रविदास ने अपनी त्वचा चीरकर उसके नीचे सोने का जनेऊ दिखाकर पूर्वजन्म में अपने ब्राह्मण होने का परिचय दिया था।

अनंतदास ने भी रविदास को पूर्वजन्म में ब्राह्मण माना है। उनकी कथानुसार, रविदास ने पूर्वजन्म में ब्राह्मण होकर भी मांस खाया था। इसलिए इस जन्म में उनको चमार के घर जन्म लेना पड़ा।

रैदास रामायण में भी रैदास को 'विपलग गोत्र अस सूर्य दासी' कहकर द्विज ही सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। भविष्य पुराण में रविदास को पूर्वजन्म का सूर्यवंशी कहा गया है। उसकी कथा इस प्रकार दी गई है- एक बार शनि, राहु तथा केतु का कोप शीत करने के लिए सूर्य ने अपने दो पुत्रों को इस पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए भेजा, एक पुत्र इड़ापति बसाई के घर जन्मा जिसका नाम बाद में सधना हुआ और दूसरा पुत्र मानदास चमार के घर जन्मा जो बाद में रैदास हुआ।

पूर्वजन्म में रविदास को ब्राह्मण या द्विज सिद्ध करने के लिए कही गई इन विभिन्न कथाओं तथा जनश्रुतियों में कितनी वैज्ञानिकता है, यह तो प्रश्न ही पृथक्‌ है। इन संपूर्ण मनगढ़ंत रचनाओं के पीछे एकमात्र यही मनोवृत्ति कार्य करती दिखाई देती है कि उच्चतम भक्त बनने का अधिकार मात्र ब्राह्मण या द्विज को ही है। जब रविदास नाम का एक चर्मकार किसी भी प्रकार इतना सम्मानित भक्त बन गया तो उस मनोवृत्ति ने इन कथाओं को जन्म दे डाला जिससे यह सिद्ध हो सके कि रविदास पूर्वजन्म में ब्राह्मण थे, तभी वे इतने ऊँचे भक्त हो सके।

विचारणीय विषय है कि जिस पुरोहितवाद, थोथे कर्मकांड तथा वर्ण व्यवस्था के नाम पर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध उसमें सुधार लाने के लिए संपूर्ण संत विचारधारा खड़ी हुई थी, जिस संत विचारधारा में व्यक्ति- लिंग-भेद से स्वतंत्र अनेक भक्त केवल अपनी भक्ति तथा साधना मात्र के बल पर महान्‌ सिद्ध पुरुष माने गए, उसी संत परंपरा के महान्‌ भक्त रविदास की सफलता के कारण उनके पूर्व जन्म के ब्राह्मण होने में खोजने की चेष्टा संपूर्ण आंदोलन की आत्मा को समाप्त करने का प्रयास तथा सामाजिक अन्याय को जीवित रखने की साजिश ही कही जा सकती है। स्मरणीय है कि संत कबीर के लिए भी एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होने की बात कही गई है। गुरु रविदास वस्तुत: एक चमार परिवार में ही जन्मे थे। विद्वानों ने भी उन्हें चमार मानकर, चमारों की एक उपजाति 'चमकटैया' में उत्पन्न हुआ बताया है। चमार जाति की यह उपशाखा आज भी उत्तर प्रदेश में पाई जाती है।

गुरु रविदास के माता-पिता तथा परिवार

गुरु रविदास के माता-पिता के नाम के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है, फिर भी जनश्रुतियों तथा सांप्रदायिक सूचनाओं के आधार पर उनके माता-पिता के विषय में कुछ प्रकाश पड़ता है।

भविष्य पुराण में रविदास के पिता का नाम मानदास बताया गया है। गुजराती साहित्य में भी कहीं-कहीं रविदास के गुरु का नाम माणदास बताया गया है। रैदास पुराण में रैदास का जन्म अमैथुनी रूप में माता के हाथ के फफोले से माना गया है। रैदास पुराण में उनकी माता का नाम भगवती कहा गया है। रैदास रामायण में रैदास के पूर्वजों का दो पीढ़ी तक परिचय दिया गया है। रैदास के पिता तथा माता का नाम राहू और कर्मा माना गया है। राहू के पिता का नाम हरिनंद तथा माता का नाम चतरकोर माना गया है। 'श्री रविदास भगवान्‌ का सत्य स्वभाव' के लेखक ने रविदास के पिता का नाम सत्यानंद और माता का नाम संतकुमारी बताया है।

जहाँ तक रैदास पुराण में दी गई सूचना का प्रश्न है, यह नितांत अविश्वसनीय सी लगती है। भविष्य पुराण तथा श्री भगवान्‌ रविदास का सत्य स्वभाव का भी महत्त्व एक कल्पना प्रधान पौराणिक ग्रंथ से अधिक नहीं है। रैदास रामायण में भी बहुधा काल्पनिक बातों का ही वर्णन मिलता है।

गुरु रविदास की पत्नी का नाम 'लीणा' या 'लोना' बताया जाता है, ब्रिग्स ने भी रविदास की पत्नी का नाम 'लोना' ही बताया है। रैदास रामायण में भी रैदास की पत्नी का नाम 'लोना' होने की पुष्टि मिलती है। लोना चमारों की चमकटैया उपजाति में उत्पन्न हुई थी। रविदास स्वयं भी चमार जाति की चमकटैया उपजाति में उत्पन्न हुए थे। इस तथ्य से भी इस बात की पुष्टि होती है कि रविदास की पत्नी का नाम लीणा या लोना ही था। चमार जाति में लोना देवी एक देवी मानी जाती हैं। स्त्रियाँ आज भी अपने बालकों की सुरक्षा की लोना से याचना करती हैं, बीमारी के समय उसके नाम की पूजा होती है तथा जादू-टोने, झाड़-फूँक आदि में उनके नाम के मंत्र मिलते हैं। चमार जाति में कदाचित्‌ लोकजीवन में लोणा का स्थान इतना पूज्य इसीलिए बन गया होगा कि वे रविदास जैसे महापुरुष की पत्नी थीं।

रविदास का कोई पुत्र नहीं था, इस विषय में कोई आधिकारिक सूचना नहीं मिलती। कुछ लोगों के मतानुसार रविदासजी का एक पुत्र था जिसका नाम विजयदास था।

गुरु रविदास का बाल्यकाल और शिक्षा-दीक्षा

जहाँ तक प्रमाण मिलता है, रविदास की प्रवृत्ति बचपन से ही संतों-भकतों जैसी थी। कहा जाता है कि बालक रविदास ने बारह वर्ष की अवस्था में सीताराम की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसको पूजना आरंभ कर दिया था।

शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में तो संतों में अपवाद स्वरूप ही कदाचित्‌ किसी की कोई लौकिक शिक्षा हुई हो, अन्यथा सभी ने गुरु कृपा, सत्संग, पर्यटन तथा वातावरण एवं अंतः ज्ञान से ही सीखा था। गुरु रविदास की भी कोई विशेष शिक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने स्वयं भी अपने मन को केवल हरि की ही पाठशाला में पढ़ने का संकेत दिया है।

चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पन्दरास।
दुख्रियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रविदास ॥
संत कर्मदास

भारत के प्रसिद्ध शहर बनारस के नजदीक माघ सुदी 15 पूर्णिमा संवत्‌ 1433 को पिता संतोष के घर और माता कलसी देवी की कोख से गाँव सीर गोवर्धनपुर में गुरु रविदास का जन्म हुआ, आपके दादा का नाम कालूराम जस्मल था और दादी का नाम लखपती था।

गुरु रविदासजी का आगमन दुनिया के इतिहास में एक अलौकिक घटना थी, जिसका उद्देश्य जहाँ सदियों से जाति-भेद का शिकार हुई मानवता को मुक्ति प्रदान करना था, वहीं मानवता के विरोधियों को मानवता का पाठ पढ़ाकर समाज में एकता, समानता, आपसी मेलजोल और प्रभु के नाम का पवित्र उपदेश देना था। किंवदंती है कि गुरु रविदास के जन्म के समय अदुभुत प्रकाश चारों तरफ फैल गया था। आँखों की कम रोशनीवाली दाई की आँखें उस प्रकाश की वजह से ठीक हो गई थीं। दाई ने गुरु रविदास के माता-पिता को बधाई देते हुए कहा कि उसके हाथों अनेक बच्चों ने जन्म लिया, परंतु आज तक उसने ऐसा बालक नहीं देखा था। इस बच्चे के सभी अंग तेज से भरपूर हैं। यह बालक आपके नाम को दुनिया में रोशन करेगा। बालक का नाम रविदास रखा गया। जिसका अर्थ है-जैसे सूर्य अँधेरे को दूर कर सारी दुनिया को रोशनी देता है, वैसे ही गुरु रविदास के बचपन के समय के चमत्कारों के बारे में कई जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। एक जनश्रुति इस प्रकार है-

एक बार गुरु रविदास की बुआ जब उनसे मिलने के लिए आईं तो उनके लिए एक सुंदर चमड़े का खरगोश ले आईं। उस खिलौने को पकड़कर, चारपाई पर बैठकर, बालक रविदास खेल रहे थे। खेलते-खेलते अपने चरण कमलों से वे उस खरगोश को दूर धकेलने लगे, जैसे उसे दौड़ने का संकेत दे रहे हों। इस दृश्य को देखकर बुआ और घर के सदस्य बहुत प्रसन्‍न हो रहे थे। जब बालक ने तीसरी बार पुन: उस चमड़े के बेजान खरगोश को अपने चरणों से दूर धकेला तो वह जीवंत हो उठा और वह सचमुच खरगोश बनकर आगे की ओर भागा। बालक को यह दृश्य देखकर अत्यंत प्रसन्‍नता हुई, परंतु उनके घरवाले इस दृश्य को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए, फिर वह खरगोश उछल-कूद करते हुए गुरु रविदास के समीप ही बैठ गया।

बालक रविदास उस खरगोश को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने पुन: उसे अपने चरण कमलों से धकेला, परंतु फिर वह खरगोश घरवालों के सामने से उछलते हुए बाहर की ओर दौड़ गया। इस बीच बालक रविदास के फूफा जब बाहर से आए तो सारा वृत्तांत सुनकर आश्चर्यचकित रह गए उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि उन्होंने स्वयं अपने हाथों से गुरुजी के लिए वह चमड़े का खिलौना बनाया था।

बालक रविदास अभी केवल पाँच वर्ष के ही थे कि उनकी माता कलसी देवी का देहांत हो गया। इस दुःख के कारण उनके पिता संतोषदासजी के मन को बहुत ठेस लगी।

समय का चक्र घूमता रहा। गुरु रविदास जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनके कोमल स्वभाव व सुंदर व्यक्तित्व से सभी प्रभावित हुए।

गुरु रविदास के चमत्कार से संबंधित एक और अनुश्रुति प्रचलित है: करमावती नाम की 60-65 वर्ष की महिला सीर गोवर्धनपुर में रहती थी। उसका बालक रविदास की दादी लखपती के साथ बहुत प्रेम था। दादी लखपती प्राय: अपने प्रिय पौत्र को लेकर उससे मिलने जाया करती थीं। करमावती स्वयं लखपती से मिलने के लिए नहीं आती थी, क्योंकि उसकी आँखों की रोशनी गए तीस वर्ष बीत चुके थे, परंतु फिर भी वह दिन भर चरखा चलाती थी। जब दादी लखपती करमावती के साथ बीते दिनों की बातें करतीं तो बालक रविदास उनके पास बैठकर सुनते रहते तथा करमावती के साथ हँसते-खेलते। लखपती जब उससे अंधेपन में चरखा कातने का कारण पूछती तो करमावती रो पड़ती और अपनी निर्धनता का वृत्तांत व घरेलू अभाव के बारे में खुलकर बताती। बालक रविदास यह सब सुनते तो उनका कोमल हृदय पिघल जाता।

एक दिन सुबह के समय करमावती चरखा कात रही थी। बालक रविदास अकेले ही उसके घर पहुँच गए। उन्होंने चुपचाप आकर उसकी धागे की टोकरी उठा ली और निकट ही खड़े हो गए। करमावती ने हाथ से टटोलकर धागे की टोकरी को देखा, परंतु उसे वह नहीं मिली। कुछ देर बाद बालक रविदास ने जब वह टोकरी उसी स्थान पर वापस रख दी जहाँ से उठाई थी, तब करमावती का हाथ उस टोकरी से लग गया। वह बहुत हैरान हुई, क्योंकि उसने पहले भी तो वहाँ हाथ लगाकर देखा था, करमावती को वहाँ किसी की उपस्थिति का एहसास हुआ, परंतु वह घबराई नहीं, क्योंकि प्राय: गाँव के बच्चे उसे सताया करते थे। फिर जब टोकरी में से धागा उठाकर वह कातने लगी। इतने में बालक रविदास ने तकले में से गलोटा खींच लिया। करमावती को तुरंत पता चल गया। जब बालक ने चरखा खींचा तो करमावती को क्रोध आया और उसने अपनी दोनों बाँहें फैलाकर बालक को पकड़ लिया और कहा, 'तुम कौन हो?'

बालक ने अपने दोनों हाथ करमावती की आँखों पर रखते हुए कहा, 'लो माता, तुम स्वयं देख लो, मैं कौन हूँ!'

करमावती शांत हो गई। जब करमावती ने आँखें खोलीं तो उसे सबकुछ दिखाई देने लगा। उसने बालक रविदास के सुंदर अलौकिक स्वरूप के दर्शन किए, फिर करमावती ने दोनों हाथ जोड़कर बालक रविदास को प्रणाम किया और कहने लगी, 'धन्य है वह माता, जिसने तुम्हें जन्म दिया है, धन्य है वह कुटुंब जिसमें तुमने जन्म लिया है।' इसके बाद करमावती ने घर की प्रत्येक वस्तु की ओर देखा और मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्‍न हुई। इतने में बालक रविदास वहाँ से चले गए।

करमावती बालक के पीछे-पीछे उनके घर पहुँच गई। उसने सारे परिवार को पूरी कहानी सुनाई। इस चमत्कार के बारे में सुनकर परिजनों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

गुरु रविदास की उदासियाँ/यात्राएँ

गुरु रविदास ने भारतवर्ष में मानवता का मार्गदर्शन करने के लिए कई वर्षों तक यात्राएँ कीं, परंतु छुआछूत का बोलबाला होने के कारण उनके सभी स्मृति चिह्न मिटा दिए गए।

समाज को जात-पाँत, भेदभाव, निरक्षरता, पाखंड, स्त्रियों की दुर्दशा, अंधविश्वास और कुरीतियों से मुक्ति दिलाने के लिए गुरु रविदास ने कई यात्राएँ कीं। वे यात्राएँ इस प्रकार थीं-

उदासी-1

1. रानीपुर, मालपी, माधोपुर, भागलपुर, नारायणगढ़, कालपी और नागपुर।
2. बरहानपुर, बीजापुर एवं भोपाल।
3. चंदेही, झाँसी, होड़, बूँदी तथा उदयपुर।
4. जोधपुर, अजमेर और बंबई।
5. अमरकोट, हैदराबाद, काठियावाड़ और बंबई।
6. बंबई से कराची, जैसलमेर, जोधपुर तथा बहावलपुर।
7, कालाबाग कोहाढ, दर्रा खैबर, जलालाबाद।
8. जलालाबाद से काफरस्तान तथा फिर वहाँ से श्रीनगर।
9. डलहौजी से गोरखपुर (नाथों के साथ वार्त्तालाप) फिर काशीपुर।

उदासी-2

काशीपुर से गोरखपुर और फिर वहाँ से प्रतापगढ़, शाहजहानपुर और तत्पश्चात्‌ वे हिमालय पर्वत पर चले गए। उन्होंने अपनी सारी संगत को वापस लौटा दिया तथा आदेश किया कि उनका पुत्र उनकी अनुपस्थिति में गुरुदीक्षा देगा तथा वे स्वयं काफी समय के बाद वापस लौटेंगे।

इन यात्राओं के दौरान गुरु रविदास ने बहुत से क्रांतिकारी परिवर्तन किए। उनके चरणों में गिरकर बहुत से पापियों ने अपने दुष्कर्मों से मुक्ति प्राप्त की।

उदासी-3

अरब देशों की यात्रा के दौरान गुरु रविदास ने विभिन्‍न धर्मगुरुओं के साथ वार्त्तलाप किया और अनगिनत लोगों को उपदेश प्रदान किया।
गुरु रविदास की वाणी में प्रयुक्त विभिन्‍न स्थानों के नाम एवं विवरण से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। उनकी रचना 'बेगमपुरा सहर को नाउ' में अंकित, 'आबादान' शब्द पर विचार करें तो उनकी अरब देशों की यात्रा के संकेत मिलते हैं।


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