श्री कृष्ण पर कविताएं नज़ीर अकबराबादी Poems on Shri Krishna Nazeer

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श्री कृष्ण पर कविताएं नज़ीर अकबराबादी
Poems on Shri Krishna Nazeer Akbarabadi

1. श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में - नज़ीर अकबराबादी

है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला !
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इसरारे हक़ीक़त यों खोले ।
तौहीद के वह मोती रोले ।
सब कहने लगे ऐ सल्ले अला ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

सरसब्ज़ हुए वीरानए दिल ।
इस में हुआ जब तू दाखिल ।
गुलज़ार खिला सहरा-सहरा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

फिर तुझसे तजल्ली ज़ार हुई ।
दुनिया कहती तीरो तार हुई ।
ऐ जल्वा फ़रोज़े बज़्मे-हुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मुट्ठी भर चावल के बदले ।
दुख दर्द सुदामा के दूर किए ।
पल भर में बना क़तरा दरिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

जब तुझसे मिला ख़ुद को भूला ।
हैरान हूँ मैं इंसा कि ख़ुदा ।
मैं यह भी हुआ, मैं वह भी हुआ ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी ।
हर गुल में तेरे रुख़सार की बू ।
घूँघट जो खुला सखियों ने कहा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

azeer-Akbarabadi

दिलदार ग्वालों, बालों का ।
और सारे दुनियादारों का ।
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इस हुस्ने अमल के सालिक ने ।
इस दस्तो जबलए के मालिक ने ।
कोहसार लिया उँगली पे उठा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मन मोहिनी सूरत वाला था ।
न गोरा था न काला था ।
जिस रंग में चाहा देख लिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

तालिब है तेरी रहमत का ।
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा ।
तू बहरे करम है नंद लला ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

(ग़नी,=बेपरवाह, इसरार=भेद,
तौहीद=एक ईश्वर को मानना,
गुलज़ार=बाग़, सहरा-सहरा=
जंगल-जंगल, तजल्ली=नूर, ज़ार=
भरपूर, फ़रोज़े=रौशन करने वाले,
बज़्मे-हुदा=सत्य की महफिल,
ख़ुर्शीद=सूरज, रुख़सार=गाल,
नबी=पैग़म्बर, सीरत=स्वभाव,
अमल=काम, सालिक=साधक,
दसतो जबलए=जंगल और पहाड़,
कोहसार=पहाड़, तालिब=इच्छुक,
नाचीज़=तुच्छ, बहरे करम=दया,
का सागर)

2. जनम कन्हैया जी - नज़ीर अकबराबादी

है रीत जनम की यों होती, जिस घर में बाला होता है।
उस मंडल में हर मन भीतर सुख चैन दोबाला होता है॥
सब बात बिथा की भूले हैं, जब भोला-भाला होता है।
आनन्द मंदीले बाजत हैं, नित भवन उजाला होता है॥
यों नेक नछत्तर लेते हैं, इस दुनियां में संसार जनम।
पर उनके और ही लच्छन हैं जब लेते हैं अवतार जनम॥1॥

सुभ साअ़त से यों दुनियां में अवतार गरभ में आते हैं।
जो नारद मुनि हैं ध्यान भले सब उनका भेद बताते हैं।
वह नेक महूरत से जिस दम इस सृष्टि में जन्मे जाते हैं।
जो लीला रचनी होती है वह रूप यह जा दिखलाते हैं॥
यों देखने में और कहने में, वह रूप तो बाले होते हैं।
पर बाले ही पन में उनके उपकार निराले होते हैं॥2॥

यह बात कही जो मैंने, अब यों समझो इसको ध्यान लगा।
है पण्डित पुस्तक बीच लिखा, था कंस जो राजा मथुरा का॥
धन ढेर बहुत बल तेज निपट, सामान अनेक और डील बड़ा।
गज और तुरंग अच्छे नीके अम्बारी होदे जीन सजा॥
जब बन ठन ऊंचे हस्ती पर, वह पापी आन निकलता था।
सब साज़ झलाझल करता था, और संग कटक दल चलता था॥3॥

एक रोज़ जो अपने भुज बल पर, वह कंस बहुत मग़रूर हुआ।
और हंस कर बोला दुनियां में, है दूजा कौन बली मुझ सा॥
एक बान लगाकर पर्बत को, चाहूं तो अभी दूं पल में गिरा।
इस देस के बड़ बल जितने हैं, है कौन जो मुझसे होवे सिवा॥
जो दुष्ट कोई आ जुद्ध करे, कब मो पर वाका ज़ोर चले।
वह सामने मेरे ऐसा हो, जों चींटी हाथी पांव तले॥4॥

वह ऐसे ऐसे कितने ही, जो बोल गर्व के कहता था।
सब लोग सभा के सुनते थे, क्या ताब जो बोले कोई ज़रा॥
था एक पुरुष वह यों बोला, तू भूला अपने बल पर क्या?।
जो तेरा मारन हारा है, सो वह भी जनम अब लेवेगा॥
तू अपने बल पर हे मूरख, इस आन अबस अहंकार किया।
वह तुझको मार गिरावेगा यों, जैसे भुनगा मार लिया॥5॥

यह बात सुनी जब कंस ने वां, तब सुनकर उसके होश उड़े।
भय मन के भीतर आन भरा और बोल गरब सिगरे बिसरे॥
यों पूछा वह किस देस में है और कौन भवन आकर जन्मे।
कौन उसके मात पिता होवे, जो पालें उसको चाहत से॥
वह बोला मथुरा नगरी में, एक रोज़ जनम वह पावेगा।
जब स्याना होगा तब तुझको एक पल में मार गिरावेगा॥6॥

यह बात सुनाई कंस को फिर, फिर आठ लकीरें वां खींची।
बसुदेव पिता का नाम कहा, और देवकी माता ठहराई॥
उन आठ लकीरों की बातें, फिर कंस को उसने समझाई।
सब छोरा छोरी देवकी के, हैं जग में होते आठ यों ही॥
बल तेज गरब में तूने तो, सब कारज ज्ञान बिसारा है।
जो पाछे रेखा खींची है, वह तेरा मारन हारा है॥7॥

इस बात को सुनकर कंस बहुत, तब मन में अपने घबराया।
जब नारद मुनि उस पास गए, तब उनसे उसने भेद कहा॥
तब नारद मुनि ने भी उसको, कुछ और तरह से समझाया।
फिर कंस को वां इस बात सिवा कुछ और न मारग बन आया॥
जो अपनी जान बचाने का कर सोच यह उसने फंद किया।
बुलवा बसुदेव और देवकी को, एक मन्दिर भीतर बंद किया॥8॥

जब कै़द किया उन दोनों को, तब चौकीदार दिये बिठला।
एक आन न निकसन पावे यह, फिर उन सबको यह हुक्म दिया॥
सामान रसोई का जो था सब उनके पास दिया रखवा।
और द्वार दिये उस मन्दिर के, तब भारी ताले भी जड़वा॥
हुशियार लगे यों रहने वां नित चौकी के देने हारे।
क्या ताब जो कोठे छज्जे पर एक आन परिन्दा पर मारे॥9॥

भय बैठा था जो कंस के मन वह भर कर नींद न सोता था।
कुछ बात सुहाती ना उसको नित अपनी पलक भिगोता था॥
उस मन्दिर में उन दोनों के, जब कोई बालक होता था।
कंस आन उसे झट मारे था, मन मात पिता का रोता था॥
इक मुद्दत तक उन दोनों का, उस मन्दिर में यह हाल रहा।
जो बालक उनके घर जन्मा, सो मारता वह चंडाल रहा॥10॥

फिर आया वाँ एक वक़्त ऐसा जो आए गर्भ में मनमोहन।
गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्रीकिशन, किशोर न कंवल नयन॥
घनश्याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुन्दर श्याम बरन।
प्रभुनाथ बिहारी कान्ह लला, सुखदाई, जग के दुःख भंजन॥
जब साअत परगट होने की, वां आई मुकुट धरैया की।
अब आगे बात जनम की है, जै बोलो किशन कन्हैया की॥11॥

था नेक महीना भादों का, और दिन बुध, गिनती आठन की।
फिर आधी रात हुई जिस दम और हुआ नछत्तर रोहिनी भी॥
सुभ साअत नेक महूरत से, वां जनमे आकर किशन जभी।
उस मन्दिर की अंधियारी में, जो और उजाली आन भरी॥
बसुदेव से बोली देवकी जी, मत डर भय मन में ढेर करो।
इस बालक को तुम गोकुल में, ले पहुंचो और मत देर करो॥12॥

जो उसके तुम ले जाने में, यां टुक भी देर लगाओगे।
वह दुष्ट इसे भी मारेेगा, पछताते ही रह जाओगे॥
इस आन संभल कर तुम, इसको जो गोकुल में पहुंचाओगे।
इस बात में यह फल पाओगे, जो इसकी जान बचाओगे॥
वां गोकुल वासी जो इसको, ले अपनी गोद संभालेगा।
कुछ नाम वह इसका रख लेगा और मेहर दया से पालेगा॥13॥

जो हाल यह वां जा पहुंचेगा, तो इसका जी बच जावेगा।
जो करम लिखी है तो फिर भी, मुख हमको आन दिखावेगा॥
जिस घर के बीच पलेगा यह, वह घर हमको बतलावेगा।
हम इससे मिलने जावेंगे, यह हमसे मिलने आवेगा॥
नाम काम हमें कुछ दावा से न झगड़ा और परेखे से।
जब देखने को मन भटके गा, सुख पावेंगे उसके देखे से॥14॥

है आधी रात अभी तो यां ले जाओ इसे तुम हाल उधर।
लिपटा लो अपनी छाती से, दे आओ जाके और के घर॥
मन बीच उन्हों के था यह डर, दिन होवेगा तो कंस आकर।
एक आन में उसको मारेगा, रह जावेंगे हम आंसू भर॥
यह बात न थी मालूम उन्हें यह बालक जग निस्तारेगा।
कब मार सकेगा कंस इसे, यह कंस को आपही मारेगा॥15॥

जब देवकी ने बसदेव से वां, रो रो कर तब यह बात कही।
वह बोले क्यों कर ले जाऊं, है बाहर तो चौकी बैठी॥
और द्वार लगे हैं ताले कुल, कुछ बात नहीं मेरे बस की।
तब देवकी बोली "ले जाओ मन ईश्वर की रख आस अभी"॥
वह बालक को जब ले निकले, सब सांकर पट पट छूट गए।
थे ताले जितने द्वार लगे, उस आन झड़ाझड़ टूट गए॥16॥

जब आए चौकीदारों में तब वां भी यह सूरत देखी।
सब सोते पाए उस साअत, हर आन जो देते थे चौकी॥
जब सोता देखा उन सबको, हो निरभै निकले वां से भी।
फिर आए जमना तीर ज्योंहीं, फिर जमना देखी बहुत चढ़ी॥
यह सोच हुआ मन बीच उन्हें, पैर इस जल में कैसे धरिए।
है रैन अंधेरी संग बालक, इस बिपता में अब क्या करिए॥17॥

यों मन में ठहरा फिर चलिए, फिर आप ही मन मज़बूत हुआ।
भगवान दया पर आस लगा, वां जमना जी पर ध्यान धरा॥
यह जों जों पांव बढ़ाते थे, वह पानी चढ़ता आता था।
यह बात लगी जब होने वां, बसुदेव गए मन में घबरा॥
तब पांव बढ़ाए बालक ने जो आपसे और भीगे जल में।
जब जमना ने पग चूम लिये, जा पहुंचे पार वह इक पल में॥18॥

जब आन बिराजे गोकुल में, सब फाटक वां भी पाए खुले।
तब वां से चलते चलते, वह फिर नन्द के द्वारे आ पहुंचे॥
वां नन्द महल के द्वारे भी, सब देखे पट-पट द्वार खुले।
जो चौकी वाले सोते थे, अब कौन उन्हें रोके टोके॥
जब बीच महल के जा पहुंचे, सब सोते वां घर वाले थे।
हर चार तरफ़ उजियाली थी, जों सांझ में दीवे बाले थे॥19॥

इक और अचम्भा यह देखो, जो रात जनम श्रीकिशन की थी।
उस रात जशोदा के घर भी जन्मी थी यारो इक लड़की॥
वां सोते देख जशोदा को और बदली कर इस बालक की।
उस लड़की को वह आप उठा, ले निकले आये मथुरा जी॥
जब लड़की लाए मन्दिर में, सब ताले मन्दिर लाग उठे।
जो चौकी देने वाले थे, फिर वह भी उस दम जाग उठे॥20॥

जब भोर हुई तब घबरा कर, सुध कंस ने ली उस मन्दिर की।
जब ताले खुलवा बीच गया, तब लड़की जन्मी एक देखी॥
ले हाथ फिराया चक्कर दे तो पटके, वह बिन पटके ही।
यों जैसे बिजली कौंदे हैं जब छूट हवा पर जा पहुंची॥
यह कहती निकली "ऐ मूरख, क्या तूने सोच बिचारा है।
वह जीता अब तो सीस मुकुट, जो तेरा मारन हारा है"॥21॥

जब कंस ने वां यह बात सुनी, मन बीच बहुत सा लजियाया।
जो कारज होने वाला है, वह टाले से कब है टलता॥
सौ फ़िक्र करो, सौ पेच करो, सौ बात सुनाओ, हासिल क्या।
हर आन वही यां होना है, जो माथे के है बीच लिखा॥
हैं कहते बुद्धि जिसे अब यां, वह सोच बड़े ठहराती है।
तक़दीर के आगे पर यारो, तदबीर नहीं काम आती है॥22॥

अब नन्द के घर की बात सुनो, वां एक अचम्भा यह ठहरा।
जो रात को जन्मी थी लड़की और भोर को देखा तो लड़का॥
घुड़नाले छूटी नाच हुआ, और नोबत का गुल शोर मचा।
फिर किशन गरग ने नाम रखा, सब कुनबे के मिल बैठे आ॥
नंद और जसोदा और कवात, करने वां हेरा फेर लगे।
पकवान मिठाई मेवे के, नर नारी आगे ढेर लगे॥23॥

सब नारी आई गोकुल की और पास पड़ोसिन आ बैठीं।
कुछ ढोल मज़ीरे लाती थीं, कुछ गीत जचा के गाती थीं॥
कुछ हर दम मुख इस बालक का बलिहारी होकर देख रहीं।
कुछ थाल पंजीरी के रखतीं, कुछ सोंठ सठौरा करतीं थीं॥
कुछ कहती थी "हम बैठे हैं नेग आज के दिन का लेने को"।
कुछ कहतीं "हम तो आए हैं, आनन्द बधावा देने को"॥24॥

कोई घुट्टी बैठी गरम करे, कोई डाले इस्पन्द और भूसी।
कोई लायी हंसली और खडुवे, कोई कुर्ता टोपी मेवा घी॥
कोई देखे रूप उस बालक का, कोई माथा चूमे मेहेर भरी।
कोई भोंवों की तारीफ़ करे कोई आंखों की, कोई पलकों की॥
कोई कहती उम्र बड़ी होवे, ऐ बीर! तुम्हारे बालक की।
कोई कहती ब्याह बहू लाओ, इस आस मुरादों वाले की॥25॥

कोई कहती बालक खू़ब हुआ ऐ बहना! तेरी नेक रती।
यह बाले उनको मिलते हैं, जो दुनियां में हैं बड़ भागी॥
इस कुनबे को भी शान बढ़ी और भाग खड़े इस घर के भी।
यह बातें सबकी सुन सुनकर, यह बात जसोदा कहती थी॥
ऐ बीर! यह बालक जो ऐसा, अब मेरे घर में जन्मा है।
कुछ और कहूं मैं क्या तुमसे, भगवान को मोपे कृपा है॥26॥

थी कोने कोने खु़शवक़्ती और तबले ताल खनकते थे।
कोई नाच रही, कोई कूद रही, कोई हंस-हंस के कुछ रूप सजे॥
हर चार तरफ आनन्दें थीं, वां घर में नंद-जसोदा के।
कुछ आंगन बीच बिराजें थीं, कोई बैठी कोठे और छज्जे॥
सौ खू़बी और खु़श हाली से दिखलाती थी सामान खड़ी।
सच बात है बालक होने की, है दुनियां में आनन्द बड़ी॥27॥

फिर और खु़शी की बात हुई जब रीत हुई दधिकांदों की।
रखवाई दूध की मटकी भर और डाली हल्दी बहुतेरी॥
यह इस पर फेंके भर-भर कर, वह उस पर डाले घड़ी-घड़ी।
कोई पीछे मुख और बाहन को कोई सिखरनी फेंकें और मठड़ी॥
इस विधि की भी रंग रलियों में रूप और हुआ नर-नारी का।
और तन के अबरन यों भीगे ज्यों रंग हो केसर क्यारी का॥28॥

सुख मंडल में यह धूम मची, और बाहर नेगी जोगी भी।
कुछ नाचें भांड भगतिए भी, कुछ हिजड़े पावें बेल बड़ी॥
आनन्द बधावे बाज रहे, नरसिंगे सुरना और तुरई।
रंगीन सुनहरे पालने भी ले हाथ खड़े कितने बिरती॥
हर आन उठाती थीं मानिक, क्या गिनती रूपे-सोने की।
नंद और जसोदा ने ऐसी, की शादी बालक होने की॥29॥

जो नेगी-जोगी थे उनको उस आन निपट खु़श हाल किया।
पहराये बागे रेशम के, और ज़र भी बख़्शा बहुतेरा॥
और जितने नाचने वाले, असबाब उन्हें भी खू़ब दिया।
मेहमान जो घर में आए थे, सब उनका भी अरमान रखा॥
दिन-रात छटी के होने तक, मन खु़श किया लोग-लुगाई का।
भर थाल रुपे और मोहरें दीं, जब नेग चुकाया दाई का॥30॥

नंद और जसोदा बालक को, वां हाथों छांव में थे रखते।
नित प्यार करें तन मन वारें, सुनहरी अबरन गहने बाँके॥
जी बहलाते मन परचाते और खू़ब खिलौने मंगवाते।
हर आन झुलाते पालने में, वह ईधर और ऊधर बैठे॥
कर याद "नज़ीर" अब हर साअत, उस पालने और उस झूले की।
आनन्द से बैठो चैन करो, जय बोलो कान्ह झंडूले की॥31॥
(साअ़त=पल, खु़शवक़्ती=शुभ समय, असबाब=सामान)

3. बालपन-बाँसुरी बजैया का - नज़ीर अकबराबादी

यारो सुनो ! ये दधि के लुटैया का बालपन ।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।
मोहन-सरूप निरत करैया का बालपन ।
बन-बन के ग्‍वाल गौएँ चरैया का बालपन ।।

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।1।।

ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे ।
वरना वह आप माई थे और आप बाप थे ।।
परदे में बालपन के यह उनके मिलाप थे ।
जोती सरूप कहिए जिन्‍हें सो वह आप थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।2।।

उनको तो बालपन से न था काम कुछ ज़रा ।
संसार की जो रीति थी उसको रखा बचा ।।
मालिक थे वो तो आपी उन्‍हें बालपन से क्‍या ।
वाँ बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक सा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।3।।

मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ याँ सरे ।
चाहे वह नंगे पाँव फिरे या मुकुट धरे ।।
सब रूप हैं उसी के वह जो चाहे सो करे ।
चाहे जवाँ हो, चाहे लड़कपन से मन हरे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।4।।

बाले हो ब्रज राज जो दुनियाँ में आ गए ।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गए ।।
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गए ।
इक यह भी लहर थी कि जहाँ को जता गए ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।5।।

यूँ बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला ।
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था ।।
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या ।
क्या जाने अपने खेलने आए थे क्या कला ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।6।।

राधारमन तो यारो अजब जायेगौर थे ।
लड़कों में वह कहाँ है, जो कुछ उनमें तौर थे ।।
आप ही वह प्रभू नाथ थे आप ही वह दौर थे ।
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।7।।

वह बालपन में देखते जिधर नज़र उठा ।
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा ।।
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ ।
दंडवत ही वह करता था माथा झुका झुका ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।8।।

परदा न बालपन का वह करते अगर ज़रा ।
क्‍या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता ।।
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका ।
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।9।।

मोहन, मदन, गोपाल, हरी, बंस, मन हरन ।
बलिहारी उनके नाम पै मेरा यह तन बदन ।।
गिरधारी, नंदलाल, हरि नाथ, गोवरधन ।
लाखों किए बनाव, हज़ारों किए जतन ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।10।।

पैदा तो मधु पुरी में हुए श्याम जी मुरार ।
गोकुल में आके नन्द के घर में लिया क़रार ।।
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार ।
माई जसोदा पीती थी पानी को वार वार ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।11।।

जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल ब्रज राज ।
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज ।।
सुन्दर जो नारियाँ थीं वे करती थीं कामो-काज ।
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिज़ाज ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।12।।

बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे ।
और ख़ूबरू को देखके हँस-हँस चिमटते थे ।।
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बँटते थे ।
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।13।।

अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयाँ करूँ ।
या मीठी बातें मुँह से निकलना बयाँ करूँ ।।
या बालकों में इस तरह से पलना बयाँ करूँ ।
या गोदियों में उनका मचलना बयाँ करूँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।14।।

पाटी पकड़ के चलने लगे जब मदन गोपाल ।
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल ।।
बासुक चरन छूने को चले छोड़ कर पताल ।
अकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।15।।

थी उनकी चाल की जो अ़जब, यारो चाल-ढाल ।
पाँवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल ।।
चलते ठुमक-ठुमक के जो वह डगमगाती चाल ।
थांबे कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।16।।

पहने झगा गले में जो वह दखिनी चीर का ।
गहने में भर रहा गोया लड़का अमीर का ।।
जाता था होश देख के शाही वज़ीर का ।
मैं किस तरह कहूँ इसे चॊरा अहीर का ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।17।।

जब पाँवों चलने लागे बिहारी न किशोर ।
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर ।।
मुँह हाथ दूध से भरे कपड़े भी शोर-बोर ।
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।18।।

करने लगे यह धूम, जो गिरधारी नन्द लाल ।
इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल बाल ।।
माखन दही चुराने लगे सबके देख भाल ।
की अपनी दधि की चोरी घर घर में धूम डाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।19।।

थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा ।
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा ।।
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया ।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।20।।

कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना ।
गोली में हो तो उसमें भी जा मुँह को बोरना ।।
ऊँचा हो तो भी कांधे पै चढ़ कर न छोड़ना ।
पहुँचा न हाथ तो उसे मुरली से फोड़ना ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।21।।

गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहाँ ।
और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले हाँ ।।
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियाँ ।
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूँटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।22।।

गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा ।
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूसे लगा-लगा ।।
चिल्लाते गाली देते, मचल जाते जा बजा ।
हर तरह वाँ से भाग निकलते उड़ा छुड़ा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।23।।

ग़ुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर ।
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर ।।
जो आपी लाके धरती वह माखन कटोरी भर ।
ग़ुस्सा वह उनका आन में जाता वहीं उतर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।24।।

उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं ।
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं ।।
ज़ाहिर में उनके हाथ से वह ग़ुल मचाती थीं ।
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।25।।

कहतीं थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाएँगे ।
श्रीकिशन इसी बहाने हमें मुँह दिखाएँगे ।।
और जो हमारे घर में यह माखन न पाएँगे ।
तो उनको क्या गरज़ है यह काहे को आएँगे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।26।।

सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर ।
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर ।।
देता है हमको गालियाँ फिर फाड़ता है चीर ।
छोड़े दही न दूध, न माखन, मही न खीर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।27।।

माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियाँ ।
और कान्ह को डराती उठा बन की साँटियाँ ।।
जब कान्हा जी जसोदा से करते यही बयाँ ।
तुम सच न जानो माता, यह सारी हैं झूटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।28।।

माता कभी यह मेरी छुंगलियाँ छुपाती हैं ।
जाता हूँ राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं ।।
आप ही मुझे रुठातीं हैं आपी मनाती हैं ।
मारो इन्हें ये मुझको बहुत सा सताती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।29।।

माता कभी यह मुझको पकड़ कर ले जाती हैं ।
गाने में अपने साथ मुझे भी गवाती हैं ।।
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं ।
आप ही तुम्हारे पास यह फ़रयादी आती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।30।।

एक रोज़ मुँह में कान्ह ने माखन झुका दिया ।
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुँह बना दिया ।।
मुँह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया ।
एक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया ।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।31।।

थे कान्ह जी तो नंद जसोदा के घर के माह ।
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह ।।
उनको जो देखता था सो कहता था वाह-वाह ।
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।32।।

सब मिलकर यारो किशन मुरारी की बोलो जै ।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै ।।
दधिचोर गोपी नाथ, बिहारी की बोलो जै ।
तुम भी ‘नज़ीर’ किशन बिहारी की बोलो जै ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।33।।
(तिफ़्ल=बच्चा, जाये गौर=विचार करने योग्य,
क़रार=ठहराव, निसार=न्यौछावर, निहाल=समृद्ध,
फ़रयादी=गुहार लेकर)

4. बाँसुरी - नज़ीर अकबराबादी

जब मुरलीधर ने मुरली को अपनी अधर धरी।
क्या-क्या प्रेम प्रीति भरी इसमें धुन भरी॥
लै उसमें राधे-राधे की हर दम भरी खरी।
लहराई धुन जो उसकी इधर और उधर ज़री॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥1॥

कितने तो उसकी सुनने से धुन हो गए धनी।
कितनों की सुध बिसर गई जिस दम बह धुन सुनी॥
कितनों के मन से कल गई और व्याकुली चुनी।
क्या नर से लेके नारियां, क्या कूढ़ क्या गुनी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥2॥

जिस आन कान्हा जी को यह बंसी बजावनी।
जिस कान में वह आवनी वां सुध भुलावनी॥
हर मन की होके मोहनी और चित लुभावनी।
निकली जहां धुन, उसकी वह मीठी सुहावनी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥3॥

जिस दिन से अपनी बंशी वह श्रीकिशन ने सजी।
उस सांवरे बदन पे निपट आन कर फबी॥
नर ने भुलाया आपको, नारी ने सुध तजी।
उनकी उधर से आके वह बंसी जिधर बजी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥4॥

ग्वालों में नंदलाल बजाते वह जिस घड़ी।
गौऐं धुन उसकी सुनने को रह जातीं सब खड़ी॥
गलियों में जब बजाते तो वह उसकी धुन बड़ी।
ले ले के इतनी लहर जहां कान में पड़ी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥5॥

बंसी को मुरलीधर जी बजाते गए जिधर।
फैली धुन उसकी रोज़ हर एक दिल में कर असर॥
सुनते ही उसकी धुन की हलावत इधर उधर।
मुंह चंग और नै की धुनें दिल से भूल कर॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥6॥

बन में अगर बजाते तो वां थी यह उसकी चाह।
करती धुन उसकी पंछी बटोही के दिल में राह॥
बस्ती में जो बजाते तो क्या शाम क्या पगाह।
पड़ते ही धुन वह कान में बलिहारी होके वाह॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥7॥

कितने तो उसकी धुन के लिए रहते बेक़रार।
कितने लगाए कान उधर रखते बार-बार॥
कितने खड़े हो राह में कर रहते इन्तिज़ार।
आए जिधर बजाते हुए श्याम जी मुरार॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥8॥

मोहन की बांसुरी के मैं क्या क्या कहं जतन।
लय उसकी मन की मोहनी धुन उसकी चित हरन॥
उस बांसुरी का आन के जिस जा हुआ बजन।
क्या जल पवन "नज़ीर" पखेरू व क्या हिरन॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥9॥
(हलावत=मिठास)

5. खेलकूद कन्हैया जी का (कालिय-दमन) - नज़ीर अकबराबादी

तारीफ़ करूं मैं अब क्या क्या उस मुरली अधर बजैया की।
नित सेवा कुंज फिरैया की और बन बन गऊ चरैया की॥
गोपाल बिहारी बनवारी दुख हरना मेहर करैया की॥
गिरधारी सुन्दर श्याम बरन और हलधर जू के भैया की॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥1॥

एक रोज़ खु़शी से गेंद तड़ी की, मोहन जमुना तीर गए।
वां खेलन लागे हंस-हंस के, यह कहकर ग्वाल और बालन से॥
जो गेंद पड़े जा जमना में फिर जाकर लावे जो फेकें।
वह आपी अन्तरजामी थे क्या उनका भेद कोई पावे॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥2॥

वां किशन मदन मनमोहन ने सब ग्वालन से यह बात कही।
और आपही से झट गेंद उठा उस काली दह में डाल दई॥
फिर आपही झट से कूद पड़े और जमुना जी में डुबकी ली।
सब ग्वाल सखा हैरान रहे, पर भेद न समझें एक रई॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥3॥

यह बात सुनी ब्रज बासिन ने, तब घर घर इसकी धूम मची।
नंद और जसोदा आ पहुंचे, सुध भूल के अपने तन मन की॥
आ जमुना पर ग़ुल शोर हुआ और ठठ बंधे और भीड़ लगी।
कोई आंसू डाले हाथ मले, पर भेद न जाने कोई भी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥4॥

जिस दह में कूदे मन मोहन, वां आन छुपा था एक काली।
सर पांव से उनके आ लिपटा, उस दह के भीतर देखते ही॥
फन मारे कई और ज़ोर किये और पहरों तक वां कुश्ती की।
फुंकारे ली बल तेज किये, पर किशन रहे वां हंसते ही॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥5॥

जब काली ने सो पेच किये फिर एक कला वां श्याम ने की।
इस तौर बढ़ाया तन अपना जो उसका निकसन लागा जी॥
फिर नाथ लिया उस काली को एक पल भर भी ना देर लगी।
वह हार गया और स्तुति की, हर नागिन भी फिर पांव पड़ी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥6॥

उस दह में सुन्दर श्याम बरन उस काली को जब नाथ चुके।
ले नाथ को उसकी हाथ अपने, हर फन के ऊपर निरत गए॥
कर अपने बस में काली को मुसकाने मुरली अधर धरे।
जब बाहर आये मनमोहन, सब खु़श हो जय जय बोल उठे॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥7॥

थे जमुना पर उस वक़्त खड़े, वां जितने आकर नर नारी।
देख उनको सब खु़श हाल हुए, जब बाहर निकले बनवारी॥
दुख चिन्ता मन से दूर हुए आनन्द की आई फिर बारी।
सब दर्शन पाकर शाद हुए और बोले जय जय बलिहारी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥8॥

नंद ओर जसोदाा के मन में, सुध भूली बिसरी फिर आई।
सुख चैन हुए दुख भूल गए कुछ दान और पुन की ठहराई॥
सब ब्रज बासिन के हिरदै में आनन्द ख़ुशी उस दम छाई।
उस रोज़ उन्होंने यह भी "नज़ीर" एक लीला अपनी दिखलाई॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥9॥

6. कन्हैया जी की रास - नज़ीर अकबराबादी

क्या आज रात फ़रहतो इश्रत असास है।
हर गुल बदन का रंगींओज़र्री लिबास है॥
महबूब दिलबरों का हुजूम आस पास है।
बज़्मेतरब है ऐश है फूलों की बास है॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥1॥

बिखरे पड़ें हैं फ़र्श पे मुक़्कैश और ज़री।
बजते हैं ताल घुंघरुओं मरदंग खंजरी॥
सखियाँ फिरें हैं ऐसी कि जूं हूर और परी।
सुन सुन के उस हुजूम में मोहन की बांसरी॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥2॥

आए हैं धूम से जो तमाशे को गुल बदन।
गोया कि खिल रहे हैं गुलों के चमन-चमन॥
करते हैं नृत्य कुंज बिहारी व सद बरन।
और घुंघरुओं की सुन के सदाएँ छनन छनन॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥3॥

पहुंचे हैं आस्मां तईं मरदंग की गमक।
आवाज़ घुंघरुओं की क़यामत झनक झनक॥
करती है मस्त दिल को मुकुट की हर एक झलक।
ऐसा समां बंधा है कि हर दम ललक ललक॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥4॥

हलक़ा बनाके किशन जो नाचे हैं हाथ जोड़।
फिरते हैं इस मजे़ से कि लेते हैं दिल मरोड़॥
आकर किसी को पकड़े हैं, दे हैं किसी को छोड़।
यह देख देख किशन का आपस में जोड़ जोड़॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥5॥

नाचे हैं इस बहार से बन ठन के नंद लाल।
सर पर मुकुट बिराजे हैं, पोशाक तन में लाल॥
हंसते हैं छेड़ते हैं हर एक को दिखा जमाल।
सखियों के साथ देख के यह कान्ह जी का हाल॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥6॥

है रूप किशन जी का जो देखो अजब अनूप।
और उनके साथ चमके है सब गोपियों का रूप॥
महताबियां छूटें हैं गोया खिल रही है धूप।
इस रोशनी में देख के वह रूप और सरूप॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥7॥

हंसती हुई जो फिरती हैं साथ उनके गोपियां।
हैं राधा उनमें ऐसी कि तारों में चन्द्रमा॥
करती है कृष्ण जी से हर एक आन, आन बां।
आपस में उनके रम्ज़ोइशारात का करके ध्यां॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥8॥

यूं यक तरफ़ खु़शी से जो करते हैं नृत्य कान्ह।
और यक तरफ़ को राधिका जी बा हज़ार शान॥
आपस में गोपियों के खुले हैं निशान बान।
दिल से पसन्द करके उस अन्दाज का समान॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥9॥

गर मान-लीला देखो तो दिल से है पुर बहार।
और राधे जी का रूठना और किशन की पुकार॥
बाहम कब्त का पढ़ना व अन्दोहे बे शुमार।
इस हिज्र इस फ़िराक़ पे, सौ जी से हो निसार॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥10॥

लीला यहां तलक हैं कहां तक लूं उनका नाम।
करते हैं किशन राधे बहम उनका इख़्तिताम॥
दर्शन उन्होंके देख के हैं मस्त ख़ासो आम।
दंडौत करके बादएफ़र्हत के पी के जाम॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥11॥

इस शहर में ‘नज़ीर’ जो बेकस ग़रीब है।
रहता है मस्त हाल में अपने बगै़र मै॥
शब कोा गया था रास में कुछ करके राह तै।
जाकर जो देखता है तो वां सच है, करके जै॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥12॥
(फ़रहतो-इश्रत=आनन्द-प्रसन्नता, रंगींओज़र्री=
भड़कीला और सुनहरा, बज़्मेतरब=खुशी की
महफ़िल, रम्ज़ोइशारात=रहस्य और संकेत,
बाहम कब्त=तिरस्कार भरी शिकायत,
इख़्तिताम=समाप्ति, बादएफ़र्हत=आनन्द-मदिरा)

7. ब्याह कन्हैया का - नज़ीर अकबराबादी

जहां में जिस वक़्त किशन जी की, अवस्था सुध बुध की यारो आई।
संभाला होश और हुए सियाने, वह बालपन की अदा भुलाई॥
हुआ क़द उनका कुछ इस तरह से, कि कु़मरी जिसकी फ़िदा कहाई।
निकालीं तर्जे़ फिर और ही कुछ, बदन की सज धज नई बनाई॥
हुए खु़शी नंद अपने मन में बहुत हुई खु़श जशोदा माई॥1॥

जो सुध संभाली तो किशन क्या क्या, लगे फिर अपनी छबें दिखाने।
जगह-जगह पर लगे ठिठकने, अदा से बंसी लगे बजाने॥
वह बिछड़ी गौओं को साथ लेकर, लगे खु़शी से बनों में जाने।
जो देखा नंद और जसोदा ने यह कि श्याम अब तो हुए सियाने॥
यह ठहरी दोनों के मन में आकर करें अब उनकी कहीं सगाई॥2॥

फिर आप ही वह यह मन में सोचे कि इनकी अब ऐसी जा हो निस्बत।
बड़ा हो घर दर, बड़े हों सामां, बहुत हो दौलत, बहुत हो हश्मत॥
हमारे गोकुल में है जो ख़ूबी, इसी तरह की हो उसकी हुर्मत।
वह लड़की जिससे कि हो सगाई, सो वह भी ऐसी हो खूबसूरत॥
हैं जैसे सुन्दर किशोर मोहन नवल दुलारे, कंुवर कन्हाई॥3॥

कई जो नारी वह बूढ़ियां थीं, जसोदा जी ने उन्हें बुलाया।
किसी को ईधर किसी को उधर सगाई ढूंढ़न कहीं भिजाया॥
जो भेद था अपने मन के भीतर, सो उन सभों के तईं जताया।
फिरीं बहुत ढूंढ़ती वह नारी यह थाा जसोदा ने जो सुनाया॥
न देखा वैसा घर इक उन्होंने न वैसी कोई दुलारी पाई॥4॥

वह नारियां जब यूंही आई तो बोली यूं और एक नारी।
है वह जो बरसाना इसमें हैगी बृषभानु की नवल दुलारी॥
है राधिका नाम उसका कहते बहुत है सुन्दर निपट पियारी।
कही यह मैंने तो बात तुमसे अब आगे मर्ज़ी जो हो तुम्हारी॥
करो सगाई लगन की उस जा कि इसमें हैगी बहुत भलाई॥5॥

यह सुन जसोदा ने जब खु़शी हो उधर को नारी कई पठाई।
चलीं वह गोकुल से दिल में खु़श हो वहीं वह बरसाने बीच आई॥
जहां वह घर कि बयां किया था वह नारियां सब उधर को धाई।
उन्होंने आदर बहुत सा करके मन्दिर के भीतर वह सब बिठाई॥
जो बैठी यह तो लगीं सुनाने, इधर उधर की बहुत बड़ाई॥6॥

जो कह चुकीं यह इधर उधर की तो फिर सगाई की बात खोली।
बड़े हो तुम भी, बड़े हैं वह भी, यह बात होवे तो खू़ब होगी॥
है जैसा सुन्दर उन्होंका लड़का, तुम्हारी सुन्दर है वैसी लड़की।
इधर भी दौलत उधर भी हश्मत, खुशी व खूबी तरह तरह की॥
उन्होंने अपनी बहुत जमाई, पर उनके दिल में न कुछ समाई॥7॥

जो राधिका की वह मां थीं कीरत यह सुनके बातें वह बोलीं हँस कर।
वह ऐसे क्या हैं जो अब हमारे जस और दौलत के हों बराबर॥
हैं जैसे वह तो सो ऐसे हैंगे हमारे घर के तो कितने चाकर।
हम अपनी लड़की उन्हें न देंगे, वह ऐसा क्या घर वह ऐसा क्या बर॥
करो हमारे न घर में तुम यां, अब इस सगाई की तब कहाई॥8॥

सुना जब उन नारियों ने यह तो चलीं इधर से वह शर्म खायी।
बहुत ही मन में हो सुस्त अपने, वह फिरके गोकुल के बीच आई॥
सुनी जो बातें थी वां उन्होंने, वह सब जसोदा को आ सुनाई।
यह बातें सुनकर जसोदा मन में बहुत ख़फ़ा हो बहुत लजाई॥
सिवाय ख़फगी[4] के आगे कुछ वां, जसोदा माई से बन न आई॥9॥

जब उस सगाई न होने से वां बुरा जसोदा ने मन में माना।
तो भेद उनका कला से अपनी यह बिन जताये ही हरि ने जाना॥
कहा यह मन में कि कोई लीला को चाहिए अब उधर दिखाना।
बना के मोहन सरूप नित प्रति ही खू़ब बरसाने बीच जाना॥
गए वही हरि फिर उस मकां में और अपनी बंसी वह जा बजाई॥10॥

बजी जो मोहन की बांसुरी वां तो धुन कुछ इसकी अजब ही निकली।
पड़ी वह जिस-जिस के कान में आ, उसे सुध अपने बदन की बिसरी॥
भुलाई बंसी ने कुछ तो सुध-बुध, उधर झलक जो सरूप की थी।
हर एक तरफ़ को हर एक मकां पर, झलक वह हरि की कुछ ऐसी झमकी॥
कि जिसकी हर एक झलक के देखे, तमाम बस्ती वह जगमगाई॥11॥

सहेलियों संग राधिका जी, कहीं उधर को जो आन निकली।
सरूप देखा वह किशन जी का, उधर से उनकी सुनी वह मुरली॥
जूं ही वहाँ राधिका जी आई, सो ऐसी मोहन ने मोहनी की।
दिखाया अपना सरूप ऐसा, कि उनकी सूरत को देखते ही॥
इधर तो राधा के होश खोये, हर एक सहेली की सुध भुलाई॥12॥

दिखाके रूप और बजा के मुरली, फिर आये गोकुल में नंद लाला।
फिर एक कला की वह कितने दिन में, कि राधा गोरी को माँदा डाला॥
बहुत दवाऐं उन्होंने की वां, पै फ़ायदे ने न सर निकाला।
फिर आप मोहन ने बैद बनकर, दवा की थैली को वां संभाला॥
पुकारे बरसाने बीच जाकर कि अच्छी करते हैं हम दवाई॥13॥

इधर थे हारे दवाएं करके, सुनी उन्होंने जो बात उनकी।
बुलाके जल्दी मन्दिर के भीतर दिखाई राधा जो वह दुखी थी॥
उन्होंने वा कुछ दवा भी दी और दिखाए कुछ छू छू मंतरे भी।
पढ़ंत क्या थी वह एक कला थी, हुई वहीं अच्छी राधिका जी॥
हर एक ने की वाह-वाह हर दम, और अपनी गर्दन बहुत झुकाई॥14॥

हुई जो चंगी वह राधिका जी, तो सब मन्दिर में खु़शी बिराजी।
वह वृषभानु और सभी कुटुम के, यह बात मन बीच आके ठहरी॥
कि राधिका की सगाई इनसे करें तो हैगी यह बात अच्छी।
जो रस्म होती सगाई की है, वह सब उन्होंने खु़शी से कर दी॥
"नज़ीर" कहते हैं इस तरह से हुई है श्री किशन की सगाई॥15॥
(निस्बत=सम्बन्ध,रिश्ता, हश्मत=मान सम्मान,
हुर्मत=सम्मान, ख़फगी=अप्रसन्नता)

8. दसम कथा (रुक्मनी का ब्याह) - नज़ीर अकबराबादी

ऐ दोस्तो! यह हाल सुनो ध्यान रख ज़रा।
और हर तरफ़ से ध्यान के तईं टुक इधर को ला॥
चर्चा है इसका वास्ते सबके तईं भला।
कहता हूं मैं यह अगले ज़माने का माजरा।
है नाम इस बयान का यारो दसम कथा॥1॥

सुकदेव ने कथा यह पहले परीक्षत से है कही।
उसने सुनी तो उसका हुआ दिल बहुत खु़शी॥
फिर भीकम एक राजा मन्दिर की थी मन्दिरी।
थे पांच बेटे उसके बहुत सुन्दर और बली॥
घर बार उसका दौलतोहश्मत से भर रहा॥2॥

बेटा बड़ा था सो उसका रुकम था नाम।
और रुक्मनी है बेटी बहुत खू़ब ख़राम॥
रूप और सरूप उसमें थे सर पांव से तमाम।
सखियों सहेलियों में वह रहती थीं खु़श ख़राम॥
गहना लिबास तन पै बहुत था झमक रहा॥3॥

नारद मुनि इक दिन आये जहां पर थी रुक्मनी।
और उससे बात उन्होंने वह श्री किशन की कही॥
लीला सुनाई वह सभी रूप और सरूप की।
जब रुक्मनी ने खू़बी वह श्रीकिशन की सुनी॥
सुनते ही उनकी हो गई जी जान से फ़िदा॥4॥

ठहरी यह रुक्मनी के वहीं दिल में आन कर।
बरनी जभी मैं जाऊं मिले जब वह मुझको बर॥
दिन रात ध्यान अपना लगी रखने वह उधर।
आंखों को अपनी करने लगी आंसुओं से तर॥
बेचैन दिल में रहने लगी सब से ही ख़फ़ा॥5॥

छुपती नहीं छुपाये से सूरत जो चाह की।
सखियां सहेलियां जो थीं और लड़कियां सभी॥
देखी जो रुक्मनी की उन्होंने यह बेकली।
जाना कि रुक्मनी का लगा साथ हरि के जी॥
कहने लगीं उन्हीं की वह बातें बना बना॥6॥

बोलीं वह सब कृश्न तो अवतार हैं बड़े।
जो खू़बियां हैं उनमें कहां तक कोई कहे॥
रूप और सरूप उनके की क्या क्या सिफ़त करे।
लीला हुई है उनसे जो हों कब वह और से॥
मां देवकी है उनकी वह वसुदेव जी पिता॥7॥

जन्मे वह मधुपुरी में तो जब आधी रात थी।
बसुदेव उनको ले चले गोकुल उसी घड़ी॥
जमुना ने उनके छू के चरन जल्द राह दी।
पहुंचे जो घर में नंद जसोदा के कान्ह जी॥
सब नेगियों ने नेग बधाई का वां लिया॥8॥

बसुदेव जी ने भेजा गरग पण्डिता को वां।
जो नाम उनका जाके वहां पर करे बयां॥
सुभ नाम जो कि होवे बयां कर उसे अयां।
गोकुल में आ मिसर ने बहुत होके शादमां॥
उनका श्रीकृष्न नाम बहुत सोध कर रखा॥9॥

थे बालपन में झूलते हर दम कृष्ण जी।
जब कंस ने यह पूतना भेजी कि लेवे जी॥
उसने जो छाती ज़हर भरी उनके मुंह में दी।
मुंह लगते ही उन्होंने वह जान उसकी खेंच ली॥
उसके पिरान कढ़ गए और कुछ न बस चला॥10॥

कागासुर आया दृष्ट लिया उसको मार भी।
फिर तृनावर्त्त की भी हवा दूर की सभी॥
सकटासुर आया उसकी भी गाड़ी उलट ही दी।
आया सिरीधर उसकी भी मट्टी ख़राब की॥
जितने वह दुष्ट आये सभों को उलट दिया॥11॥

फिर पांव चलने लगे जो धरती पै नंदलाल।
आये वह जिनकी गोद में उनको किया निहाल॥
स्याने हुए तो साथ लिये अपने ग्वाल बाल।
मुरली की धुन सुनाके किया सबका जी निहाल॥
गौएं चराई बन में वह बंसी बजा-बजा॥12॥

धमका के ग्वालिनों से लिये दूध और दही।
खाने खिलाए उनको जो थे साथ में सभी॥
जब ग्वालिनों ने आके जसोदा से यह कही।
झिड़का उन्होंने सांटी उठाकर जो उस घड़ी॥
त्रिलोक खोल मुंह उन्हें हरि ने दिखा दिया॥13॥

जमला व अर्जुन और वह दो देवता जो थे।
दो ताड़ बन गए थे किसी के सराप से॥
मुद्दत तलक वह बन में यूंही थे खड़े हुए।
लीला से अपनी कृश्न ने उस बन में आन के॥
वैसा ही देवता उन्हें एक पल में कर दिया॥14॥

राछस बहुत जो किशन पै आने लगे वहां।
नंद और जसोदा की लगी देख उनसे जाने जां॥
लेकर कुटुम सब अपना जो वे खु़र्द और कलां।
आकर वह वृन्दावन के लगे रहने दरमियां॥
गोकुल का बास सबने उसी दिन से फिर तजा॥15॥

ले ग्वाल बाल जाने लगे श्याम मन हरन।
गौऐं लगे चराने जहां है यह गोवरधन॥
वां भी बधासुर आया बकासुर भी बगुला बन।
मारा और उसकी चोंच को चीरा समेत तन॥
आया अधासुर उसके भी सर को उड़ा दिया॥16॥

दिखलाई अपनी हरि ने जो लीला वह बछ हरन।
देख उसको सबने चूम लिये कृश्न के चरन॥
ढिंग राक्षस आया फिर जो बनाकर वह मक्रोफ़न।
मारा उसे भी हरि ने जहां है यह ताल बन॥
काली को दह में नाथ किया नीर निरमला॥17॥

गौऐं खड़े चराते थे बन में जो श्याम जी।
उस बन में एक दिन जूं ही आग आन कर लगी॥
सब ग्वाल बाल छक रहे गौऐं खड़ी सभी।
लीला से वां भी हरि ने वह देख उनकी बेबसी॥
उस आग से सभों को लिया आन में बचा॥18॥

फिर की जो लीला चीर हरन हरि ने खू़ब तर।
सुरपति ने फिर वह कोप किया उनपे आन कर॥
पर्वत को वां उठा लिया बंसी ऊपर अधर।
फिर सर्द समय में श्याम ने ली नारियां सुन्दर॥
मुरली बजा के नृत्य किया रास को बना॥19॥

मारा वह सांप पांव पे लिपटा जो नंद के।
लीं गोपियां छुड़ा वहीं फिर शंख चूड़ से॥
हरका सुर और केशी व भौमासुर आ गए।
अपने से मक्र हरि से उन्होंने बहुत किये॥
हरि ने उन्हें भी मार के भू पर दिया गिरा॥20॥

एक रोज़ वृन्दावन से ले आये उन्हें जो वां।
चलने को साथ उनके हटीं सब वह गोपियां॥
जमना में फिर नहाये जो एक रोज़ शादमां।
हरि ने दिखाये वां उन्हें लीला से यह निशां॥
जो हरि ही हरि दिखाई दिये उनको जा बजा॥21॥

जब वृन्दावन में आये तो धोबी को कंस के।
मारा वहीं और उसके लिये चीर जितने थे॥
सूजी से ले लिबास दिये फिर बहुत उसे।
चन्दन जो कुब्जा लाई तो खु़श होके श्याम ने॥
सब खो दिया जहां तईं कुबड़ापन उसका था॥22॥

ड्योढ़ी पे आये जब तो वह तोड़ा धनुष के तईं।
रंग भूमि में गिरा दिया परबल को बर जमीं॥
दर्शन दिये वह राजा जो कै़दी थे सहमगी।
फिर कंस के भी केस पकड़ खींच कर वहीं॥
सर उसका एक इशारे में तन से जुदा किया॥23॥

फिर आये वां जहां थे वह बसुदेव देवकी।
चरनों पै सीस रख के बहुत सी असीस ली॥
यह बातें हरि की सुनके वहां रुक्मनी ने भी।
चाहा यही कि देखूं मैं सूरत कृश्न की॥
बेताबोबेक़रार लगी रहने सुख गवा॥24॥

उसको यह बातें कृश्न की खु़श आई थीं सभी।
सुनती वह साथियों से उन्हीं को घड़ी घड़ी॥
मां बाप रुक्मनी के भी और चारों भाई भी।
बर रुक्मनी के हों वही थे चाहते यही॥
पर रुक्म जो बड़ा था सो पसंद उसको यह न था॥25॥

रखता था नाम उसका तो जदु बंस है जनम।
कांधे पे उसके कामरी रहती है दम ब दम॥
गौवें चराता फिरता है बन बन में रख क़दम।
दौलत में और ज़ात में उससे बड़े हैं हम॥
शिशुपाल चन्देरी का जो बर हो तो है भला॥26॥

यह बातें वां रुकम से जो सुनती थी रुक्मनी।
बेकल बहुत वह होती थी और दिल में कुढ़ती थी॥
जब बेकली बहुत हुई और रह सका न जी।
एक चिट्ठी अपने हाल की हरि के तईं लिखी॥
बाम्हन के हाथ द्वारिका में दी वहीं भिजा॥27॥

बाम्हन जो हरि की ड्योढ़ी पे आ पहुंचा राह से।
देखा तो वहां है चेरी और चाकर बहुत खड़े॥
जाने में थे मन्दिर के जो दरबान रोकते।
सुनकर ख़बर यह हरि ने बुलाया वही उसे॥
परनाम करके ऊंचे मकां पर दिया बिठा॥28॥

बाम्हन की विनती करके लगे कहने किशन जी।
तुमने हमारे हाल पै कृपा बड़ी यह की॥
उसने जबानी कहके जो अहवाल था सभी।
फिर रुक्मनी की चिट्ठी जो लाया सो हरि को दी॥
हरि ने पढ़ा उसे तो यह अहवाल था लिखा॥29॥

"ऐ ब्रजराज" "कृष्ण" "मनोहर" मदन गोपाल।
मैं दर्शनों की आपके मुस्ताक़ हूं कमाल॥
दिन रात तुमसे मिलने को रहती हूं मैं निढाल।
दर्शन से अपने मुझको भी आकर करो निहाल॥
सब ध्यान में तुम्हारे ही रहता है मन लगा॥30॥

शिशुपाल ब्याहने को मेरे अब तो आता है।
सब राजे और साथ जरासंध लाता है॥
यह ग़म तो मेरे दिल को निहायत सताता है।
इस अपनी बेबसी पै मुझे रोना आता है॥
तुम हरि हो मेरे मन की करो दूर सब बिथा॥31॥

ऐ किशन जी तुम आओ कि अब वक़्त है यही।
अपने चरन से लाज रखो मेरी इस घड़ी॥
हरि ने वह चिट्ठी पढ़के मंगा रथ वह जगमगी।
होकर सवार जल्द चले वां से किशन जी॥
बाम्हन भी अपने साथ वह रथ में लिया बिठा॥32॥

शिशुपाल इसमें आन के पहुंचा शिताब वां।
अगवानी उसकी लेने को भीकम गया वो बाँ॥
बाजे मंदीले घर में लगीं गाने नारियां।
आंखों में रुक्मनी के यह आंसू हुए रवां॥
सुन्दरि का मुंह वह आंसू के बहने से भर गया॥33॥

जो जो वह हरि के आने में वां देर होती थी।
कोठे पर अपने रुक्मनी वां चढ़के रोती थी॥
तकती थी हरि की राह न खाती न सोती थी।
बेकल की तरह फिरती थी और होश खोती थी॥
कुछ रुक्मनी को रोने सिवा बन न आता था॥34॥

कहती थी क्यूं यह कृष्ण मुरारी ने देर की।
मोहन नवल किशोर बिहारी ने देर की॥
ब्रज राज, रूप, मुकुट संवारी ने देर की।
या चाह के असर यह हमारी ने देर की॥
बाम्हन जो मैंने भेजा था वह भी नहीं फिरा॥35॥

इसमें मुकन्दपुर के जो हरि आये अनक़रीब।
झलके कलस वह रथ के, हुई रोशनी अजीब॥
खु़श रुक्मनी का जी हुआ जूं गुल से अंदलीब।
बोली खुशी हो मन में कि, जागे मेरे नसीब॥
बाम्हन ने भी वह आने को हरि के दिया सुना॥36॥

बन ठन के जब ख़ुशी से वह पूजा के तईं चली।
साथ उसके नारियां, चलीं गाती बहुत ख़ुशी॥
सुन्दरि की जाती पांव की पायल जो बाजती।
रूप और सरूप उसका बयां क्या करे कोई॥
पहुंची खु़शी से वां जहां थी पूजने की जा॥37॥

जिस जिसको पूजा वां यही उसने किया बयां।
किरपा करो जो मुझको मिलें ब्रज राज यां॥
लेने को दर्सन उसके हुई हूं मैं नीमज़ां।
जल्दी मिलाओ तुम जो रहे लाज मेरी यां॥
हर देवता से वह यही करती थी इल्तिजा॥38॥

जब देवी देवता की यह परिक्रमा दे चुकी।
सुन्दरि दुलारी आगे को चल कर ठिठक रही॥
इस वास्ते कहीं मुझे दर्शन दे किशन जी।
तो देख वह सरूप मेरी होवे ज़िन्दगी॥
बच जावे जी यह लाज भी मेरे रहे बजा॥39॥

सुन्दर नवेली रूप का मैं क्या करूं बयां।
मुख वां झमक रहा था कि जूं माह आसमां॥
पोशाक भी बदन पै चमकती थी ज़रफ़िशां।
सर से पांव से भरी थी वह गहने के दरमियां॥
क्या वस्फ़ उसका हो सके जे़बोनिगार का॥40॥

देखा जो मुकन्दपुर के लोगों ने हरि को वां।
सब दर्शन उनके पाके हुए जी में शादमां॥
आपस में सब वह कहते थे नर और नारियां।
बर रुकमनी के यह हों तो हर मन को सुख हो यां॥
हर दम इसी मुराद की मांगें थे सब दुआ॥41॥

भीकम जो हरि के लेने को आया बहुत खु़शी।
दर्शन जो हरि के पाये तो विनती बहुत सी की॥
इतने में रुकमनी जो थी हरि के लिए खड़ी।
दर्शन जो पाये आगया वां उसके जी में जी॥
हरि ने पकड़ के हाथ लिया रथ में वां बिठा॥42॥

शिशुपाल अपने लेके कटक आ गया वहां।
बान उसके हरि ने काट भगाया उसे निदाँ॥
आया रुकम जो बान धनुक लेके और सनां।
उसको भी हरि ने बांध लिया काट उसकी बाँ॥
विनती से रुकमनी ने दिया उसका जी छुटा॥43॥

शिशुपाल का भी हरि ने दिया पल में गरब खो।
जो था गुरूर उसका सो सब डाला दम में धो॥
आया रुकम वली जो बहुत करके गरब को।
बालों से उसके हाथ बंधे और रहा वह रो॥
सच कहते हैं कि गरब है, जग में बहुत बुरा॥44॥

जब रुकमनी से कहने लगे हंस के वां यह हरि।
शिशुपाल को गरब ने किया सब में ख़्वारतर॥
खोया रुकम को और जरासंघ को उधर।
आये थे जिस गरब से वह लड़ने को अब इधर॥
आखि़र उसी गरब ने दिया उनका सर झुका॥45॥

शिशुपाल और रुकम का हुआ जब यह हाल वां।
बलदेव जी ने उनके कटक सब भगाए वां॥
ले रुकमनी को हरि हुए फिर द्वारिका वाँ।
जब आन पहुंचे खु़श हुए सब नर व नारियां॥
देखा जमाल उनका तो पाया बहुत भला॥46॥

फिर देवकी जो आई बहुत होके खु़श इधर।
पानी पिया उन्होंने वहीं हरि पे वार कर॥
सब नारियां भी आन के बैठीं इधर उधर।
जितना सहन था घर का रहा सब वह उनसे भर॥
शादी के बाजे बजने लगे शोरो गुल मचा॥47॥

सब द्वारिका में धूम यह शादी की मच गई।
बाजे, मजीरे तबले दमामें और तुरई॥
दर पर बरातियों की बहुत भीड़ आ लगी।
सोभा से द्वारा पर वह बंधन बार भी बंधी॥
पण्डित बुला सगुन से वह फेरे दिये फिरा॥48॥

बैठे थे द्वारका के वहां, खु़र्द और कबीर।
होते थे राग रंग खु़शी थे जवानों पीर॥
सामान थे हज़ारों ही शादी के दिलपज़ीर।
जो खू़बियां हुई सो वह क्या क्या कहे "नज़ीर"॥
इस ठाठ से वह ब्याह अ़जब कृष्ण का हुआ॥49॥
(माजरा=कथा,कहानी,किस्सा, दौलतोहश्मत=धन-
सम्मान, शादमां=प्रसन्न, खु़र्द और कलां=छोटे-बड़े,
मक्रोफ़न=धोखा और चतुराई, लिबास=वस्त्र,
बेताबोबेक़रार=बेचैन, जबानी=मौखिक, मुस्ताक़=
अभिलाषी, कमाल=अत्याधिक, शिताब=शीघ्र,
अनक़रीब=समीप, अंदलीब=बुलबुल, नसीब=भाग्य,
नीमज़ां=अर्द्धमुई, ज़रफ़िशां=सुनहरी, वस्फ़=प्रशंसा,
जे़बोनिगार=सुन्दरता, सनां=तीर,भाला, ख़्वारतर=
अपमानित, खु़र्द और कबीर=छोटे और बड़े,
जवानों पीर=युवक और वृद्ध, दिलपज़ीर=मनोरम)

9. हरि की तारीफ़ - नज़ीर अकबराबादी 

मैं क्या क्या वस्फ़ कहुं, यारो उस श्याम बरन अवतारी के।
श्रीकृष्ण, कन्हैया, मुरलीधर मनमोहन, कुंज बिहारी के॥
गोपाल, मनोहर, सांवलिया, घनश्याम, अटल बनवारी के।
नंद लाल, दुलारे, सुन्दर छबि, ब्रज, चंद मुकुट झलकारी के॥
कर घूम लुटैया दधि माखन, नरछोर नवल, गिरधारी के।
बन कुंज फिरैया रास रचन, सुखदाई, कान्ह मुरारी के॥
हर आन दिखैया रूप नए, हर लीला न्यारी न्यारी के।
पत लाज रखैया दुख भंजन, हर भगती, भगता धारी के॥
नित हरि भज, हरि भज रे बाबा, जो हरि से ध्यान लगाते हैं।
जो हरि की आस रखते हैं, हरि उनकी आस पुजाते हैं॥1॥

जो भगती हैं सो उनको तो नित हरि का नाम सुहाता है।
जिस ज्ञान में हरि से नेह बढ़े, वह ज्ञान उन्हें खु़श आता है॥
नित मन में हरि हरि भजते हैं, हरि भजना उनको भाता है।
सुख मन में उनके लाता है, दुख उनके जी से जाता है॥
मन उनका अपने सीने में, दिन रात भजन ठहराता है।
हरि नाम की सुमरन करते हैं, सुख चैन उन्हें दिखलाता है॥
जो ध्यान बंधा है चाहत का, वह उनका मन बहलाता है।
दिल उनका हरि हरि कहने से, हर आन नया सुख पाता॥
हरि नाम के ज़पने से मन को, खु़श नेह जतन से रखते हैं।
नित भगति जतन में रहते हैं, और काम भजन से रखते हैं॥2॥

जो मन में अपने निश्चय कर हैं, द्वारे हरि के आन पड़े।
हर वक़्त मगन हर आन खु़शी कुछ नहीं मन चिन्ता लाते॥
हरि नाम भजन की परवाह है, और काम उसी से हैं रखते।
है मन में हरि की याद लगी, हरि सुमिरन में खुश हैं रहते॥
कुछ ध्यान न ईधर ऊधर का, हरि आसा पर हैं मन धरते।
जिस काम से हरि का ध्यान रहे, हैं काम वही हर दम करते॥
कुछ आन अटक जब पड़ती है, मन बीच नहीं चिन्ता करते।
नित आस लगाए रहते हैं, मन भीतर हरि की किरपा से॥
हर कारज में हरि किरपा से, वह मन में बात निहारत हैं।
मन मोहन अपनी किरपा से नित उनके काज संवारत हैं॥3॥

श्री कृष्ण की जो जो किरपा हैं, कब मुझसे उनकी हो गिनती।
हैं जितनी उनकी किरपाएं, एक यह भी किरपा है उनकी॥
मज़कूर करूं जिस किरपा का, वह मैंने हैं इस भांति सुनी।
जो एक बस्ती है जूनागढ़, वां रहते थे महता नरसी॥
थी नरसी की उन नगरी में, दूकान बड़ी सर्राफे की।
व्योपार बड़ा सर्राफ़ी का था, बस्ता लेखन और बही॥
था रूप घना और फ़र्श बिछा, परतीत बहुत और साख बड़ी।
थे मिलते जुलते हर एक से और लोग थे उनसे बहुत ख़ुशी॥
कुछ लेते थे, कुछ देते थे, और बहियां देखा करते थे।
जो लेन देन की बातें थीं, फिर उनका लेखा करते थे॥4॥

दिन कितने में फिर नरसी का, श्री कृष्ण चरन से ध्यान लगा।
जब भगती हरि के कहलाये, सब लेखा जोखा भूल गया॥
सब काज बिसारे काम तजे हरि नांव भजन से लागा।
जा बैठे साधु और संतों में, नित सुनते रहते कृष्ण कथा॥
था जो कुछ दुकां बीच रखा, वह दरब जमा और पूंजी का।
मद प्रेम के होकर मतवाले, सब साधों को हरि नांव दिया॥
हो बैठे हरि के द्वारे पर सब मीत कुटुम से हाथ उठा।
सब छोड़ बखेड़े दुनियां के, नित हरि सुमरन का ध्यान लगा॥
हरि सुमरन से जब ध्यान लगा, फिर और किसी का ध्यान कहां।
जब चाहत की दूकान हुई, फिर पहली वह दूकान कहां॥5॥

क्या काम किसी से उस मन को, जिस मन को हरि की आस लगी।
फिर याद किसी की क्या उसको, जिस मन ने हरि की सुमरन की॥
सुख चैन से बैठे हरि द्वारे, सन्तोख मिला आनन्द हुई।
व्योपार हुआ जब चाहत का, फिर कैसी लेखन और बही॥
न कपड़े लत्ते की परवा, न चिन्ता लुटिया थाली की।
जब मन को हरि की पीत हुई, फिर और ही कुछ तरतीब हुई॥
धुन जितनीं लेन और देन की थी, सब मन को भूली और बिसरी।
नित ध्यान लगा हरि किरपा से, हर आन खु़शी और ख़ुश वक्ती॥
थी मन में हरि की पीत भरी, और थैले करके रीते थे।
कुछ फ़िक्र न थी, सन्देह न था, हरि नाम भरोसे जीते थे॥6॥

नित मन में हरि की आस धरे, ख़ुश रहते थे वां वो नरसी।
एक बेटी आलख जन्मी थी, सो दूर कहीं वह ब्याही थी॥
और बेटी के घर जब शादी, वां ठहरी बालक होने की।
तब आई ईधर उधर से सब नारियां इसके कुनबे की॥
मिल बैठी घर में ढोल बजा, आनन्द ख़ुशी की धूम मची।
सब नाचें गायें आपस में, है रीत जो शादी की होती॥
कुछ शादी की खु़श वक़्ती थी, कुछ सोंठ सठोरे की ठहरी।
कुछ चमक झमक थी अबरन की कुछ ख़ूबी काजल मेंहदी की॥
है रस्म यही घर बेटी के, जब बालक मुंह दिखलाता है।
तब सामाँ उसकी छोछक का ननिहाल से भी कुछ जाता है॥7॥

वां नारियां जितनी बैठी थीं, समध्याने में आ नरसी के।
जब नरसी की वां बेटी से, यह बोलीं हंस कर ताना दे॥
कुछ रीत नहीं आई अब तक, ऐ लाल तुम्हारे मैके से।
और दिल में थी यह जानती सब वह क्या हैं और क्या भेजेंगे॥
तब बोली बेटी नरसी की, उन नारियों के आकर आगे।
वह भगती हैं, बैरागी हैं, जो घर में था सो खो बैठे॥
वह बोलीं कुछ तो लिख भेजो, यह बोली क्या उनको लिखिए।
कुछ उनके पास धरा होता, तो आप ही वह भिजवा देते॥
जो चिट्ठी में लिख भेजूँगी, वह बांच उसे पछतावेंगे।
एक दमड़ी उनके पास नहीं, वह छोछक क्या भिजवावेंगे॥8॥

उन नारियों को भी करनी थी, उस वक़्त हंसी वां नरसी की।
बुलवा के लिखैया जल्दी से, यह बात उन्होंने लिखवा दी॥
सामान हैं जितने छोछक के, सब भेजो चिट्ठी पढ़ते ही।
सब चीजे़ इतनी लिखवाई, बन आएं न उनसे एक कमी॥
कुछ जेठ जिठानी का कहना, कुछ बातें सास और ननदों की।
कुछ देवरानी की बात लिखी, कुछ उनकी जो जो थे नेगी॥
थी एक टहलनी घर की जो सब बोलीं, तू भी कुछ कहती।
वह बोली उनसे हंस कर वां ‘मंगवाऊं’ क्या मैं पत्थर जी’॥
वह लिखना क्या था वां लोगो, मन चुहल हंसी पर धरना था।
इन चीज़ों के लिख भेजने से, शर्मिन्दा उनको करना था॥9॥

जब चिट्ठी नरसी पास गई, तब बांचते ही घबराय गए।
लजियाए मन में और कहा यह हो सकता है क्या मुझ से॥
यह एक नहीं बन आता है, हैं जो जो चिट्ठी बीच लिखे।
है यह तो काम काठेन इस दम, वां क्यूंकर मेरी लाज रहे॥
वह भेजे इतनी चीज़ों को, यां कुछ भी हो मक़दूर जिसे।
कुछ छोटी सी यह बात नहीं, इस आन भला किससे कहिये॥
इस वक़्त बड़ी लाचारी है, कुछ बन नहीं आता क्या कीजे।
फिर ध्यान लगा हरि आसा पर, और मन को धीरज अपने दे॥
वह टूटी सी एक गाड़ी थी, चढ़ उस पर बे विसवास चले।
सामान कुछ उनके पास न था, रख श्याम की मन में आस चले॥10॥

हरि नाम भरोसा रख मन में, चल निकले वां से जब नरसी।
गो पल्ले में कुछ चीज़ न थी, पर मन में हरि की आसा थी॥
थी सर पर मैली सी पगड़ी, और चोली जामे की मसकी।
कुछ ज़ाहिर में असबाब न था, कुछ सूरत भी लजियाई सी॥
थे जाते रस्ते बीच चले, थी आस लगी हरि किरपा की।
कुछ इस दम मेरे पास नहीं, वां चाहिएं चीजे़ं बहुतेरी॥
वां इतना कुछ है लिख भेजा, मैं फ़िक्र करूं अब किस किस की।
जो ध्यान में अपने लाते थे, कुछ बात वहीं बन आती थी॥
जब उस नगरी में जा पहुंचे, सब बोले नरसी आते हैं।
और लाने की जो बात कहो, एक टूटी गाड़ी लाते हैं॥11॥

कोई बात न आया पूछने को, जाके देखा नरसी को।
और जितना जितना ध्यान किया, कुछ पास न देखा उनके तो॥
जब बेटी ने यह बात सुनी, कह भेजा क्या क्या लाये हो?
जो छोछक के सामान किये, सब घर में जल्दी भिजवा दो॥
दो हंस-हंस अपने हाथों से, यां देना है अब जिस जिस को।
यह बोले तब उस बेटी से, हरि किरपा ऊपर ध्यान धरो॥
था पास क्या बेटी अब लाने को कुछ मत पूछो।
कुछ ध्यान जो लाने का होवे, "श्री कृष्ण कहो" "श्री कृष्ण कहो"॥
इस आन जो हरि ने चाहा है, एक पल में ठाठ बनावेंगे।
है जो जो यां से लिख भेजा, एक आन में सब भिजवा देंगे॥12॥

श्रीकृष्ण भरोसे जब नरसी, यह बात जो मुंह से कह बैठे।
क्या देखते हैं वां आते ही, सब ठाठ वह उस जा आ पहुंचे॥
कुछ छकड़ों पर असबाब कसे, कुछ भैसों पर कुछ ऊँट लदे।
थे हंसली खडु़ए सोने के, और ताश की टोपी और कुर्ते॥
कुल कपड़ों पर अंबार हुए और ढेर किनारी गोटों के।
कुछ गहनें झमकें चार तरफ़, कुछ चमके चीर झलाझल के॥
था नेग में देना एक जिसे, सो उसको बीस और तीस दिये।
अब वाह वाह की एक धूम मची ओर शोर अहा! हा! के ठहरे॥
थी वह जो टहलनी उनके हां वह भोली जिस दम ध्यान पड़ी।
सो उसके लिए फिर ऊपर से एक सोने की सिल आन पड़ी॥13॥

वां जिस दम हरि की किरपा ने, यूं नरसी की तब लाज रखी।
उस नगरी भीतर घर-घर में तब नरसी की तारीफ़ हुई॥
बहुतेरे आदर मान हुए, और नाम बड़ाई की ठहरी।
जो लिख भेजी थी ताने से, हरि माया से वह सांच हुई।
सब लोग कुटम के शाद हुए, खुश वक़्त हुई फिर बेटी भी।
वह नेगी भी खु़श हाल हुए, तारीफें कर कर नरसी की॥
वां लोग सब आये देखने, को, और द्वारे ऊपर भीड़ लगी।
यह ठाठ जो देखे छोछक के, सब बस्ती भीतर धूम पड़ी।
जो हरि काम रखें उनका फिर पूरा क्यूं कर काम न हो।
जो हर दम हरि का नाम भजें, फिर क्यूंकर हरि का नाम न हो॥14॥

श्रीकृष्ण ने वां जब पूरी की, सब नरसी के मन की आसा।
एक पल में कर दी दूर सभी, जो उनके मन की थी चिन्ता॥
यह ऐसी छोछक ले जाते, सो इनमें था मक़दूर यह क्या।
यह आदर मान वहां पाते, यह इनसे कब हो सकता था॥
जो हरि किरपा ने ठाठ किया, वह एक न इनसे बन आता।
यह इतनी जिसकी धूम मची, सो ठाठ वह था हरि किरपा का।
यह किरपा उन पर होती है, जो रखते हैं हरि की आसा।
हरि किरपा का जो वस्फ़ कहूं, वह बातें हैं सब ठीक बजा॥
है शाह "नज़ीर" अब हर दम वह, जो हरि के नित बलिहारी हैं।
श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण बडे़ अवतारी हैं।15॥
(वस्फ़=गुण,प्रशंसा, मज़कूर=चर्चा,जिक्र,वर्णन, शादी=ख़ुशी,
शाद=प्रसन्न, मक़दूर=सामर्थ्य)

10. श्रीकृष्ण व नरसी मेहता - नज़ीर अकबराबादी

दुनियां के शहरों में मियां, जिस जिस जगह बाज़ार हैं।
किस किस तरह के हैं हुनर, किस किस तरह के कार हैं॥
कितने इसी बाज़ार में, ज़र के ही पेशेवार हैं।
बैठें हैं कर कर कोठियां, ज़र के लगे अम्बार हैं॥
सब लोग कहते हैं उन्हें, यह सेठ साहूकार हैं॥1॥

हैं फ़र्श कोठी में बिछे, तकिये लगे हैं ज़रफ़िशां।
बहियां खुलीं हैं सामने लिखते हैं लक्खी कारवां॥
कुछ पीठ की कुछ पर्त की, आती हैं बातें दरमियां।
लाखों की लिखते दर्शनी, सौ सैकड़ों की हुंडियां॥
क्या क्या मिती और सूद की, करते सदा तक़रार हैं॥2॥

कुछ मोल मज़कूर है, कुछ ब्याज का है ठक ठका।
फैलावटें घर बीच की बीजक का चर्चा हो रहा॥
दल्लाल हुंडी पीठ के बाम्हन परखिये सुध सिवा।
आढ़त बिठाते हर जगह, चिट्ठी लिखाते जा बजा॥
कुछ रखने वाले के पते, कुछ जोग के इक़रार हैं॥3॥

थोड़ी सी पूंजी जिनके है, बैठे हैं वह भी मिलके यां।
ईधर टके दस बीस के, ऊधर धरी हैं कौड़ियां॥
और जो हैं हद टुट पूंजिये वह कौड़ियों की थैलियां।
कांधों पै रख जाते हैं वां, लगती जहां हैं गुदड़ियां॥
देखा तो यह सब पेट के, धन्धें हैं और बिस्तार हैं॥4॥

है यह जो सर्राफ़ा मियां, हैं इनमें कितने और भी।
हित के परेखे का दरब, चाहत की चोखी अशरफ़ी॥
जो ज्ञानी ध्यानी हैं बड़े, कहते उन्हीं को सेठ जी।
धन ध्यान के कुछ ढेर हैं, कोठी भी है कोठी बड़ी॥
मन के प्रेम और प्रीत का करते सदा व्योपार हैं॥5॥

हैं रूप दर्शन आस के, चित के रूपे मन में भरे।
हुंडी लिखें उस साह को, जाते ही जो पल में मिले॥
लेखन से लेखा चाह का, चित की सूरत में लिख रहे।
जिस लोक में है मन लगा, उस बास की बंसनी बजे॥
नित प्रेम की हों बीच में, बहियां धरीं दो चार हैं॥6॥

बीजक लगाते हैं जहां, धोका नहीं पज़ता ज़रा।
जिस बात की मद्दें लिखें, वह ठीक पड़ती हैं सदा॥
है जमा दिल हर बात से, मन अस्ल मतलब से लगा।
हाजत तक़ाजे की नहीं, लेना सब आता है चला॥
जो बात करने जोग हैं, उसमें बड़े हुशियार हैं॥7॥

रहते हैं खु़श जी में सदा, दिल गीर कुछ रहते नहीं।
व्योपार करते हैं बड़े, हर आन रहते हैं वहीं॥
झगड़ा नहीं करते ज़रा, गुस्सा नहीं होते कहीं।
मत की सुनी से मन लगा, सुख चैन है जी के तईं॥
खोटे मिलत से काम क्या, उनके खरे हितकार हैं॥8॥

करते हैं नित उस काम को, जो है समाया ज्ञान में।
जो ध्यान है मन में बंधा, रहते हैं खुश उस ध्यान में॥
सन्देह का पैसा टका, रखते नहीं दूकान में।
नित मन की सुमरन साध कर, हर वक़्त में हर आन में॥
जिस नार का आधार है, उससे लगाये नार हैं॥9॥

जिस मन हरन महबूब से, मन की लगाई चाह है।
सब लेन की और देन की, उनको उसी से राह है॥
जो दिल की लेखन से लिखा, उससे वही आगाह है।
उनको उसी से साख है, उनकी वही एक राह है॥
कौड़ी से लेकर लाख तक, उनके वही व्योपार हैं॥10॥

इस भेद का ऐ दोस्तों, इस बात में देखो पता।
थे नरसी महता एक जो, सर्राफ़ी करते थे सदा॥
महफू़ज थे खु़श हाल थे, दूकान में ज़र था भरा।
श्री कृष्ण जी के ध्यान में, रहता था उनका मन लगा॥
सुन लो यह उनकी प्रीत और परतीत के अबकार हैं॥11॥

जूं जूं बढ़ा हिरदै में मत, मधु प्रेम का प्याला पिया।
पैसा टका जो पास था, सब साधु सन्तों को दिया॥
सब कुछ तजा हरि ध्यान में, और नाम हरि का ले लिया।
नित दास मतवाले बने, हरि का भजन हरदम किया॥
परघट किये सब देह पर जो नेह के आसार हैं॥12॥

सब तज दिया हरि ध्यान में, यह पीत का ठहरा जतन।
करते भजन श्रीकृष्ण का, हर हाल में रहते मगन॥
नरसी की परसी हो गई, देकर मदनमोहन को मन।
चाहत में सांवल साह की, अपना भुलाया तन बदन॥
सब भगत बातें साथ लीं, जो इष्ट में दरकार हैं॥13॥

दिन रात की माला फिरी श्रीकृष्ण जी श्रीकृष्ण जी।
ठहरा जु़बां पर हर घड़ी, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी॥
कहता सदा सीने में जी, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी।
जाते जहां कहते यही, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी॥
जो प्रेम के पूरे हुए, उनके यही अतवार हैं॥14॥

कहते हैं यू एक देस में, रहते जो कितने साधु थे।
वह दर्शनों के वास्ते जब द्वारिका जी को चले॥
आ पहुंचे उस गारी में जब, नरसी जहां थे हित भरे।
उतरे खु़शी से आन कर, और वां कई दिन तक रहे॥
पूजा भजन करने लगे, साधुओं के जो अतवार हैं॥15॥

वह साधु जो उतरे थे वां, कुछ थे रूपे उनके कने।
चाहा उन्होंने दर्शनी, हुंडी लिखा लें सेठ से॥
लेवें रुपे हुंडी दिखा, जब द्वारिका में पहुंच के।
कारज संवारें धरम के, जो नेक नामी वां मिले॥
करते हैं कारज प्रेम के, जाके जो उस दरबार हैं॥16॥

लोगों से जब इस बात का, साधुओं ने वां चर्चा किया।
और हर किसी के उस घड़ी, घर पूछा साहूकार का॥
उस छोटी नगरी में बड़ा, नरसी का यह व्योपार था।
श्रीकृष्ण जी की चाह में बैठे थे सब अपना गवां॥
मुफ़्लिस से कब वह काम हों, करते जो अब ज़रदार हैं॥17॥

कितने जो ठट्ठे बाज़ थे जिस दम उन्होंने यह सुना।
दिल में हंसी की राह से, साधुओं से यूं जाकर कहा॥
एक नरसी महता है बड़े, सर्राफ़ यां के वाह! वा।
तुम दर्शनी हुंडी जो है, लो हाथ से उनके लिखा॥
है साख उनकी यां बड़ी, जितने यह साहूकार हैं॥18॥

वह साधु क्या जानें कि यां, यह करते हैं हमसे हंसी।
लेकर रूपे और पूछने, आये बहुत होकर खु़शी॥
नरसी के आये पास जब, यह दिल की बात अपने कही।
लिख दो हमें किरपा से तुम, इस वक़्त हुंडी दर्शनी॥
हम द्वारिका को आजकल जल्दी से चलने हार हैं॥19॥

नरसी ने यूं सुनकर कहा, मैं तो ग़रीब अदना हूं जी।
साधू मेरी दूकान तो मुद्दत से है ख़ाली पड़ी॥
ने है मेरी आड़त कहीं, ने मीत मेरा है कोई।
ने पास मेरे लेखनी, ने एक टूटी सी बही॥
यह बात वां कहिये जहां, नित हुंडियां हर बार हैं॥20॥

जाकर लिखाओ और से, परतीत साधू क्या मेरी।
है मेरे पड़ रहने को यां, टूटी सी अब एक झोपड़ी॥
तन पर मेरे कपड़ा नहीं, ने घर में थाली, करछली।
मैं तो सिड़ी, ख़व्ती सा हूं, क्या साख मेरी बात की॥
सब नाम रखते हैं, मुझे जो मेरे नातेदार हैं॥21॥

यह बात सुनकर साधु वां, नसी से बोले उस घड़ी।
लिख दो हमें किरपा से तुम, हमको यह हुंडी दर्शनी॥
कर याद सांवल साह की, नरसी ने वां हुंडी लिखी।
साधुओं ने हुंडी लेके वां से द्वारिका की राह ली॥
कहते चले लेने रुपै, अब वां तो बेतकरार हैं॥22॥

लोगों ने जाना अब बहुत, नरसी की ख़्वारी होवेगी।
लिख दी उन्होंने अब ज़ो यां, काहे को यह हुंडी पटी॥
यह द्वारिका से साधु यां, आवेंगे फिर कर जिस घड़ी।
पकड़ेंगे उनको आनकर, लोगों में होवेगी हंसी॥
खोये हैं पति इन्सान की, झूठे जो कारोबार हैं॥23॥

नरसी ने वह लेकर रुपै, रख ध्यान हरि की आस का।
थे जितने साधु और संत वां, सबको लिया उस दम बुला॥
पूरी कचौरी और दही, शक्कर, मिठाई भी मंगा।
सबको खिलाया कितने दिन, और सब ग़रीबों से कहा॥
मन मानता खाओ पियो, यह जो लगे अंबार हैं॥24॥

बर्फ़ी, जलेबी और लड्डू, सबको वहां बरता दिये।
जब सोच आया मन में यूं, होता है क्या अब देखिये॥
वह साधु हुंडी दर्शनी, ले द्वारका में जब गये।
कोठी को सांवल साह की, वां ढूंढते हर जा फिरे॥
हम जिनको हैं यां ढूंढते, यां वह नहीं ज़िनहार हैं॥25॥

बे आस होकर जिस घड़ी, वह साधु बैठे सर झुका।
इतने में देखा दूर से, एक रथ है वां जाता चला॥
कलसी झमकती जगमगा, छतरी सुनहरी ख़ुशनुमा।
एक शख़्स बैठा उसमें है, सांवल बरन मोहन अदा॥
रथ की झलक से उसकी वां, रौशन अजब अनवार है॥26॥

वह साधु देख उस ठाठ को, कुछ मन में घबरा से गये।
जल्दी उठे और सामने, रथ के हुए आकर खड़े॥
पूछा उन्होंने कौन हो, तब साधु यूं कहने लगे।
नरसी की हुंडी दर्शनी, है जोग सांवल साह के॥
सी हमको वह मिलते नहीं, अब हम बहुत नाचार हैं॥27॥

यह कहके हुंडी दर्शनी, जिस दम उन्होंने दी दिखा।
श्रीकृष्ण जी ने प्यार से, हर हर्फ़ हुंडी का पढ़ा॥
जितने रुपै थे वां लिखे, वह सब दिये उनको दिला।
वह ख़ुश हुए जब कृष्ण ने, यूं हंस के साधुओं से कहा॥
यह अब जिन्होंने है लिखी, हम उनसे रखते प्यार हैं॥28॥

अब जो मिलोगे उनसे तुम, कहियो हमारी ओर से।
जो थे रुपै तुमने लिखे, वह हमने सब उनको दिये॥
यह काम क्या तुमने किया, थोड़े रुपै जो अब लिखे।
आगे को अब समझो यही, इतने रुपै क्या चीज़ थे॥
लाखों लिखोगे तुम अगर, देने को हम तैयार हैं॥29॥

वह साधु अपने ले रुपे, फिर शहर के भीतर गए।
कारज जो करने थे उन्हें, मन मानते वह सब किये॥
फिर द्वारिका से चलके वह, नरसी की नगरी में गये।
नरसी से लोगों ने कहा, नरसी बहुत दिल में डरे॥
दूंगा कहां से मैं रुपे, यह तो बिपत के भार हैं॥30॥

जब साधु मिलने को गये, नरसी वहीं छुपने लगे।
वह मिनतियां करने लगे, और पांव नरसी के छुए॥
परशाद लाये और रुपे, कुछ रूबरू उनके धरे।
और जो सन्देसा था दिया, सब वह बचन उनसे कहे॥
नरसी ने जाना कृष्ण की किरपा के यह असरार हैं॥31॥

मन में जो नरसी खु़श हुए, सब साधु यूं कहने लगे।
सब हमने भर पाये रुपे, और हरि के दर्शन भी किये॥
हुंडी बड़ी लिखते रहो, हरि ने कहा है आप से।
नरसी यह बोले उनसे वां, अब किससे हो किरपा सके॥
जो जो कहा सब ठीक है, वह तो महा औतार हैं॥32॥

नरसी की सांवल साह ने जब इस तरह की पत रखी।
और यूं कहा आगे को तुम, लिखते रहो हुंडी बड़ी॥
बलिहारी नरसी हो गए, श्रीकृष्ण ने कृपा यह की।
जिसको "नज़ीर" ऐसों की है, जी जान से चाहत लगी॥
वह सब तरह हर हाल में, उसके निबाहन हार हैं॥33॥
(ज़रफ़िशां=सुनहरी, तक़रार=विवाद, मज़कूर=वर्णन,
हाजत=आवश्यकता, तक़ाजे=बार-बार कहना, महफू़ज=
सुरक्षित, मुफ़्लिस=ग़रीब, ज़रदार=धनवान, बेतकरार=
निर्विवाद, ख़्वारी=अपमान, ख़ुशनुमा=सुन्दर, शख़्स=
व्यक्ति, अनवार=तेज,प्रकाश, हर्फ़=अक्षर, असरार=
भेद,रहस्य)

11. सुदामा चरित - नज़ीर अकबराबादी

हर दम सुदामा याद करे कृष्ण मुरारी।
रहता है मस्त हाले दलिद्दर में भारी॥
और दिल में किसी आन नहीं सोच बिचारी।
करता है गुजर मांग के वह भीख भिखारी॥
हर आन दिल में कहता है धन है तू बिहारी॥ हरदम ॥1॥

देखो सुदामा तन पै तो साबुत न चीर है।
फेंटा बंधा है सिर के ऊपर सो भी लीर है॥
जामे के टुकड़े उड़ गये दामन धजीर है।
गर जिस्म उसका देखो तो दुर्बल हक़ीर है॥
सौ पेवंदों से सी सी के धोती को सुधारी॥ हरदम ॥ 2॥

जागह तवे की ठीकरा हैगा दराड़ दार।
लुटिया है एक छोटी सी सो भी है छेददार॥
लोहे की करछी तिसके भी फटे हुए किनार।
पेवन्ददार हांडी रसोई का यह सिंगार॥
पथरौटा फूटा तिसको भी थाती सी सुधारी॥ हरदम ॥3॥

छप्पर पै गौर कीजिये चलनी सा हो रहा।
तिसको भी घास पात से सारा रफ़ू किया॥
फूटी दिवार चारों तरफ़ जो खंडहर पड़ा।
स्यारों ने घर किया वहां पंछी ने घोंसला॥
अब ऐसी झोंपड़ी जो सुदामा ने सुधारी॥ हरदम ॥4॥

गोशे के बीच अपने लिए ख़्वाबगाह करी।
पाये दिवार लकड़ी लगा खाट सी धरी॥
तिस पर है फर्श ओढ़ने को गेंहू की नरी।
सोवे हैं रात उस पै जपें मुंह से उठ हरी॥
साधुओं के बीच रह के उमर अपनी गुज़ारी॥ हरदम॥5॥

उनको जब इस तरह से हुआ दर्द दुख कमाल।
एक रोज दिल में स्त्री के यों हुआ ख़्याल॥
हैंगे क़दीम यार तुम्हारे मदन गुपाल।
जाओ उन्हों के पास करेंगे बहुत निहाल॥
तुमसे उन्हों से गहरी हमेशा है यारी॥ हरदम॥6॥

औरत की बात सुनके सुदामा दिया जवाब।
तुमको है ज़र की चाह, वह पानी का जो हुबाब॥
कहने लगी जब स्त्री हमको कहां है ताब।
जब देखा हाल आपका हमने निपट खराब॥
तब अर्ज़ की है जाने की, तक़सीर हमारी॥ हरदम॥7॥

उनपे मुकुट जड़ाऊ है और सिर मेरा खाली।
कुंडल है उनके कानों में मुझपै नहीं बाली॥
उनपै पीतंबर हैगा मैं कमली रखूं काली।
वे हैं बड़े तुम छोटे यों बोली वह घर वाली॥
क़दमों में उनके जाओं ख़बर लेंगे तुम्हारी॥ हरदम॥8॥

तेरी यह बात ख़ूब मैं समझा हूं नेकतर।
अब हाल पर तू मेरे नहीं करती है नज़र॥
वे तीन लोकनाथ हैं मुझसे मिले क्यों कर।
फिर जन कहे हैं जाओ वहां तुम जो बेख़तर॥
हर एक तरह से खड़ी समझावे है नारी॥ हरदम॥9॥

ज़र बिन धरम करम नहीं होता है कुछ यहां।
ज़र बिन नहीं मिले हैं आदर किसी मकां॥
ज़र से जो ऐस चाहो मिले हें जहां तहां।
तुम हरि के पास जाओ कहै कामिनी वहां॥
बख़्सेंगे ज़र बहुत सा तुम्हें वे गिरवरधारी॥ हरदम॥10॥

ज़र के लिए तो दिल में हज़ारों फ़िकर करें।
ज़र के लिए तो यार से हरगिज़ नहीं मिलें॥
इससे भला है मरना नहीं जाके कुछ कहैं।
उसही का नाम दिल में सदा अपने हम जपें॥
है विर्त अपनी मांगना हर रोज़ बज़ारी॥ हरदम॥11॥

देकर जवाब स्त्री कहती है वे हैं स्याम।
लाखों उन्होंने भगतों के अपने किये हैं काम॥
यह बात जाके पूछ लो नहीं ख़ास है, यह आम।
मानो हमारी सीख उधर को करो पयाम॥
इस बात से दिल में कभी हूजे नहीं आरी॥ हरदम॥12॥

वे जादोंनाथ हैंगे बड़े कृष्ण कन्हाई।
क्या लीजे भेंट घर में नहीं दे हैं दिखाई॥
जब स्त्री पड़ोस से एक तौफ़ा ले आई।
चादर में चौतह चावलों की किनकी बंधाई॥
फिर की है सुदामा ने जो चलने की तैयारी॥ हरदम॥13॥

ले बग़ल में बिरंज सुदामा वहां चले।
रस्ते में शाम जब हुई एक शहर में बसे॥
वहां से द्वारिका रखा श्रीकृष्ण ने उसे।
सोते हुए सुदामा सबेरे जभी उठे॥
चारों तरफ़ से द्वारका सोने की निहारी॥ हरदम॥14॥

दिल में कहै सुदामा यह देखू हूं मैं क्या ख़्वाब।
जब कृष्ण जी नज़र पड़े करने लगा हिजाब॥
हरि ने जो अपने पास बुलाया वहीं शिताब।
चरनों को धोके सिरपै चढ़ाया सभों ने आब॥
दरसन को मिलके आई हैं रानी जो थीं सारी॥ हरदम॥15॥

खु़श होके सुदामा से कृष्ण उठ लिपट गए।
दोनों के गले मिलते ही आनंद सुख भए॥
मिलते हैं कब किसी को ह्यां भागों से आ गए।
आदर से आप ले गए सिंहासन पर नए॥
जब छेम कुसल पूछी रही वह न नदारी॥ हरदम॥16॥

नहाने को उनके बास्ते पानी गरम किया।
भोजन अनेक तरह का तैयार कर लिया॥
स्नान ध्यान करके सुदामा ने जल पिया।
बागा तरह तरह का सुदामा को जब दिया॥
उनमें लगा है बादला गोटा और किनारी॥ हरदम॥17॥

श्रीकृष्ण बोले दो जो हमें दीना है भाभी।
यह बात सुन सुदामा ने गांठ और भी दाबी॥
हरि ने चला के हाथ वहीं खेंच ली आपी।
दो मुट्ठी मुंह में डालते धरती सभी कांपी॥
और तीसरी के भरते ही रुकमनि जी पुकारी॥ हरदम॥18॥

ताना दिया फिर वोंही कि देखे तुम्हारे यार।
आए हैं मांगते हुए ऐसे ख़राब ख़्वार॥
तिर्लोक दे चुकोगे कुछ अपना भी है सुमार।
श्रीकृष्ण बोले तुमको क्या अपना करो जो कार॥
यह मंगता नहीं हैगा सुन प्रान पियारी॥ हरदम॥19॥

ऐसे निहंग लाड़ले देखे कहीं कहीं।
ख़ुश है यह अपने हाल में परवाह इन्हें नहीं।
कुछ मिल गया तो खाया नहीं बिस्तरा ज़मीं।
एक दममें चाहे जो मिलें इनको है क्या कमी॥
ये जब के यार हैंगे कोई यार न थारी॥ हरदम॥20॥

श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा को बुलवा कहा पुकार।
सोने के महल ख़ूब सुदामा के हों तैयार।
एक दममें बाग़ो महल बनाए बहार दार।
कोठे किवाड़ खिड़कियां छज्जे बहारदार॥
चौबारे मीने बंगले जड़ाऊ हैं अटारी॥ हरदम॥21॥

फिर गुफ़्तगू में बात लड़कपन की चलाई।
वह दिन भी तुमको याद है कुछ या नहीं भाई॥
भेजा गुरू ने लकड़ी को मेंह आंधी ले आई।
मुट्ठी चने की बैठ वहां तुमने जो खाई॥
और हमने रात काटी है पी पानी वह खारी॥ हरदम॥22॥

कुछ दिन सुदामा कृष्ण के ह्वां द्वारका रहे।
पटरानी भाई बंधु सभी टहल में लगे॥
घर घर दिखाई द्वारिका सब संग हरि फिरे।
मांगी बिदा सुदामा ने चलने की कृष्ण से॥
सब आन के हाज़िर हुए जो जो थे दरबारी॥ हरदम॥23॥

पहुंचावने सुदामा को जादों चले सारे।
बलदेव कृष्ण दोनों भये पांवो नियारे॥
और संग साथ बली बड़े जोधा जो भारे।
नग्गर शहर सभी हुआ आ शहर दुआरे॥
होते विदा के सबने किया चश्मों को जारी॥ हरदम॥24॥

रुख़सत हुआ सुदामा वहां सेति जब चला॥
जब राह बीच आया हुआ सोच यह बड़ा॥
औरत कहेगी लाए हो क्या मुझको दो दिखा।
इस जिंदगी से मौत भली क्या कहेंगे जा॥
किस वास्ते वह रांड़ बहुत हैगी खहारी॥ हरदम॥25॥

यह सोच करते करते पुरी पास आ गई।
देखे तो घर न छप्पर आफ़त बड़ी भई॥
ने ब्राह्मनी निशान न घर क्या कहूं दई।
दीना हमें सो देखा करी घात यह नई॥
वह भी लिया यह मार अज़ब भीतरी मारी॥ हरदम॥26॥

फिरता महल के गिर्द सुदामा नज़र पड़ी।
देखें तो एक स्त्री कोठे पे है खड़ी॥
वह वहां से बुलावे सुदामा को हर घड़ी।
दिल में सुदामा कहै यह रानी है कोई बड़ी॥
जाऊं जो घर में मारेंगे दरबान हज़ारी॥ हरदम॥27॥

क्या बार-बार मुझको बुलाये है क्या सबब।
शायद मुझे पसंद किया अपने दिल में अब॥
इतने में वह महल से उतर पास आई जब।
कहने लगी यह देखो विभव है उन्हीं की सब॥
माया यह हरि की देख हमें ऐसी बिसारी॥ हरदम॥28॥

फिर बांह पकड़ ले गई चौकी पे बिठाया।
खुशबू लगा उबटन मला ख़ूब न्हिलाया॥
ले टहलुए ने खूब पितंबर जो पहराया।
पूजा करी सुदामा ने हरि ध्यान लगाया॥
खि़दमत में चेरियां खड़ी ले हाथ में झारी॥ हरदम॥29॥

नित उठ सुदामा अपन करें येही खटकरम।
और पुन्न दान पूजा करें उसका जो धरम॥
हरि बिन नहीं तो जाने कोई उसका अब मरम।
कई दिन गुज़ारे इस तरह भोजन किये गरम॥
सोवे यह हरि के ध्यान में खा पान सुपारी॥ हरदम॥30॥

इस तरह जो ‘नज़ीर’ रहें हरि के ध्यान में।
यह भक्ति जोग हैगा कठिन कर धियान में॥
यह बात है लिखी हुई वेद औ पुरान में।
श्रीकृष्ण नाम ले ले हरेक आन आन में॥
बैकुंठ धाम पावें जो हैं हरि के पुजारी॥ हरदम॥31॥
(दुर्बल-हक़ीर=निर्बल-तुच्छ, गोशे=कोना, ख़्वाबगाह=
सोने का स्थान, हुबाब=पानी का बुलबुला, ताब=
शक्ति, तक़सीर=ख़ता,त्रुटि, नेकतर=अत्यधिक भली,
बेख़तर=निर्भय, ज़र=धन, बिरंज=चावल, हिजाब=
लज्जा,छुपना, शिताब=शीघ्र, गुफ़्तगू=बात-चीत,
रुख़सत=बिदा, सबब=कारण)


(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Nazeer Akbarabadi) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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