मेले, खेल-तमाशे नज़ीर अकबराबादी Mele Khel-Tamashe Nazeer Akbarabadi

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

Nazeer-Akbarabadi

मेले, खेल-तमाशे नज़ीर अकबराबादी
Mele Khel-Tamashe Nazeer Akbarabadi

(खेल-तमाशे पर कविता,मेले पर कविता)

1. हज़रत सलीम चिश्ती का उर्स - नज़ीर अकबराबादी

है यह मजमां निको, सिरिश्ती का।
ज़िक्र क्या यां गुनाह की ज़िश्ती का।
बहर है आरिफ़ों की किश्ती का।
फ़ख्र है हर्फ़े-सर नविश्ती का।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

बागे़ जन्नत है आज यह दरगाह।
फूल फूले हैं फ़ैज़ के दिलख़्वाह।
देखो रिज़वां बहार यां की वाह।
दिल में कहता है दम बदम वल्लाह।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

सहन दरगाह है बाग़ और बुस्तां।
और वहीं ज़य्यार सब गुलो रेहां।
जी में सब फूल फूल हो शादां।
यही कहते हैं हर घड़ी हर आं।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

बसकि खिल्क़त भरी है लालों लाल।
घर मकां है गुलों से मालामाल।
हुस्न राग और मशाइख़ों के हाल।
भीड़, गुल, शोर और क़ालमक़ाल।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

खिल रहा है चमन जो फ़ैज़ भरा।
झरना गोया है हौजे़ कौसर का।
कु़दसियां देख वह बहिश्त सरा।
सब पुकारे हैं यूं "अहा! हा! हा!।"
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

कितने दरगह में फै़ज उठाते हैं।
कितने झरने में जा नहाते हैं।
कितने नज़रों नियाज लाते हैं।
कितने खु़श हो यही सुनाते हैं।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

उर्स दरगाह के जो देखे वाह।
और ही गुल खिले हैं ख़ातिरख़्वाह।
बुलबुलों की तरह चहक कर आह।
सब यही कह रहे हैं करके निगाह।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

है बहम दूर दूर का आलम।
सब्जो सुर्खो सफ़ेदी ज़र्द बहम।
सब खु़शी होके जूं गुल शबनम।
देखे सैरें यह कहते हैं हर दम।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

भीड़, अम्बोह ख़ल्क की तक़सीर।
बादशाहो गदाओ मीरो वज़ीर।
तिफ़्लो पीरो जबां गरीबो, फ़क़ीर।
पर सभी की जुबां पे यह तक़रीर।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

कितने वां सीमतन भी फिरते हैं।
गुंचलब गुलबदन भी फिरते हैं।
शोख़ गुलपैरहन भी फिरते हैं।
दिलरुबा दिल शिकन भी फिरते हैं।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

कितने नज़रों से ज़ख्मी होते हैं।
कितने दिल अपना मुफ़्त खोते हैं।
कितने उल्फ़त के तुख़्म बोते हैं।
कितने मोती खड़े पिरोते हैं।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥

जा नशीं हैं जो साहिबे मसनद।
आरिफ़ुल हक़ मियां अली अहमद।
उनकी खू़बी नज़ीर है बेहद।
सब पुकारें हैं ख़ल्क़ बेहदो अद।
रश्क है गुलशने बहिश्ती का।
उर्स हज़रत सलीम चिश्ती का॥
(मजमां=झुंड, निको=उत्तम,श्रेष्ठ,
सिरिश्ती=स्वभाव वाले, अच्छे स्वभाव
वाले, ज़िश्ती=बुराई, आरिफ़ों=ब्रह्मज्ञानी,
सूफी, हर्फ़े-सर=भाग्य का लेख, रश्क=
स्पर्धा, बहिश्त=जन्नत, फ़ैज़=लाभ,
दिलख़्वाह=मर्जी के मुताबिक, रिज़वां=
जन्नत के दरोगा, बुस्तां=बाग़, ज़य्यार=
ज़्यारत करने वाले, गुलो रेहां=खुशबूदार,
शादां=खुश, मशाइख़ों=पीर और सूफी
लोग, क़ालमक़ाल=लम्बी-चौड़ी बातचीत,
फ़ैज़=लाभ,उपकार, हौजे़ कौसर=स्वर्ग
का एक हौज़, कु़दसियां=फरिश्ते, सरा=
मकान, ख़ातिरख़्वाह=मनचाहा, बहम=
आपस में, तिफ़्ल=बच्चा, सीमतन=
चांदी जैसे शरीर वाले, गुंचलब=कली
जैसे होंठों वाले, गुलपैरहन=गुलाब के
फूल जैसे कपड़े पहनने वाले, दिल
शिकन=दिल को तोड़ने वाले, तुख़्म=
बीज, जा नशीं=उत्तराधिकारी,
आरिफ़ुल हक़=ईश्वर को पहचानने
वाले,ब्रह्मज्ञानी, मियां अली अहमद=
नज़ीर अकबराबादी के ज़माने में
हज़रत सलीम चिश्ती की दरगाह,
फतेहपुर सीकरी, के जानशीं मियां
अली मुहमद साहब थे, अद=गिनना,
बेहदो अद अत्यधिक,बेशुमार)

2. बल्देव जी का मेला - नज़ीर अकबराबादी

क्या वह दिलबर कोई नवेला है?
नाथ है, और कहीं वह चेला है।
मोतिया हैं, चंबेली बेला है।
भीड़ अम्बोह है, अकेला है।
शहरी, क़स्बाती और गंवेला है।
ज़र5 अशर्फी है, पैसा, धेला है।
एक क्या-क्या वह खेल खेला है।
भीड़ है ख़ल्क़तों का रेला है।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥1॥

है कहीं यार और कहीं अग़यार।
कहीं आशिक़ है, और कहीं दिलदार।
कहीं बस्ती है और कहीं गुलज़ार।
कहीं जंगल है, और कहीं बाज़ार।
वही भगती है, और वही औतार।
उसकी लीलाएं किससे हों इज़हार।
आप आता है देखने को बहार।
आप कहता है यूं पुकार पुकार।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥2॥

है कहीं राम, और कहीं लक्ष्मन।
कहीं कछ-मछ है और कहीं रावन।
कहीं बाराह, कहीं मदनमोहन।
कहीं बल्देव और कहीं श्रीकिशन।
सब सरूपों में हैं उसी के जतन।
कहीं नरसिंह है सह नारायन।
कहीं निकला है सैर को बनबन।
कहीं कहता फिरे हैं यूं बन-बन।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥3॥

आज मेले का यां जो है सामान।
आये हैं दूर-दूर से इंसान।
कोई दर्शन, कोई दुआएं मान।
सबकी होती हैं मुश्किलें आसान।
हर तरफ खिल रहे गुलो रेहान।
हार, बद्धी मिठाई और पकवान।
भीड़-अम्बोह, गु़ल दुकान-दुकान।
और यही शोर, हर घड़ी, हर आन।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥4॥

हर तरफ़ हुस्न की पुकारें हैं।
दिल रुवा सौ बरन संवारे हैं।
इक तरफ़ नौबतें झनकारें हैं।
झांझ, मरदंग रासधारें हैं।
कहीं आशिक़ नज़ारे मारे हैं।
सौ निगाहों की जीत हारें हैं।
सैर है, दीद है, बहारें हैं।
करके ‘जै’ जै यही पुकारे हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥5॥

इतने लोगों के ठठ लगे हैं आ।
जो कि तिल धरने की नहीं है जा।
लेके मंदिर से दो-दो कोस लगा।
बाग़ों बन भर रहे हैं सब हर जा।
है हजारों बिसाती और सौदा।
लाखों बिकते हैं गहने और माला।
भीड़, अम्बोह और धरम धक्का।
जिस तरफ़ देखिए अहा! हा! हा!
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥6॥

बसकि उमड़े हैं ख़ल्क़तों के दल
जा बजा भर रहे हैं जड़ जंगल।
चौक़ बाजार, फौज, और दंगल।
जंगलों में है मच रहे मंगल।
कोई अम्बोह में रहा है कुचल।
कोई धक्कों में कररहा दल मल।
कितने करते हैं जस्त कूद उछल।
कितने कहते हैं मोरछल झल-झल।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥7॥

हैं हज़ारों ही जिन्स के हट्टे।
मोती, मूंगा और आरसी बट्टे।
पेड़ें, लड्डू, जलेबी और गट्टे।
कोले, नारंगी, संगतरे, खट्टे।
कोई तो कर रहा है छल बट्टे।
कोई चढ़ाता है खीर के चट्टे।
पुर है मन्दिर के कोठे और अट्टे।
बूढ़े, लड़के, जवान और कट्टे।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥8॥

लोग चारों तरफ के आते हैं।
आके ऐशो-तरब मनाते हैं।
दिल से सब दर्शनों को जाते हैं।
अपने दिल की मुराद पाते हैं।
झांझ, मरदंग, दफ़ बजाते हैं।
रास मंडल भजन सुनाते हैं।
दिल में फूले नहीं समाते हैं।
सब यह हंस-हंस के कहते जाते हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥9॥

हर तरफ़ गुल बदन रंगीले हैं।
नुक पलक, गुंचा लब, सजीले हैं।
बात के तिरछे और कटीले हैं।
दिल के लेने को सब हठीले हैं।
खु़श्क तर, नर्म, सूखे, गीले हैं।
टेढ़े, बलदार और नुकीले हैं।
जोड़े भी सुर्ख, सब्ज, पीले हैं।
प्यार, उल्फ़त, बहाने, हीले हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥10॥

ख़ल्क आती है सब जुड़ी जबड़ी।
चीज़ रखते हैं बांध कर जकड़ी।
कोई दौड़े है हाथ ले लकड़ी।
‘दौड़ियो चोर ले चला गठड़ी’।
जेब कतरी, कहीं गई पकड़ी।
कहीं लूटी दुकान और हटड़ी।
चोर ने ताक ली कहीं पगड़ी।
सौ तमाशे, हंसी, खुशी, फ़कड़ी।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥11॥

नाज़नीं हैं वह सांवरी, गोरी।
जिनकी नाजुक हर एक परी पोरी।
करके चितवन निगाह की डोरी।
दिल को छीने हैं सब बरा ज़ोरी।
धूम, नाज़ो-अदा झकाझोरी।
ब्रज में जैसी मच रही होरी।
घूंघटों में हैं कर रही चोरी।
चोरी कैसी कि साफ़ सिर ज़ोरी।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥12॥

कुंड पर ही नहान होते हैं।
जिसमें गंगा वरन के सोते हैं।
पानी ले हाथ मुंह को धोते हैं।
कितने कंठी खड़े पिरोते हैं।
कितने जाकर बनों में सोते हैं।
बन्दरों में चनों को बोते हैं।
इन बहारों में होश खोते हैं।
सौ मजे, सौ तमाशे होते हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥13॥

कोई आकर बहाने और मिससे।
मिल रहा है, मिला है दिल जिससे।
होते हैं आ मिलाप जिस तिस से।
लड़ रहा है कोई कहीं रिस से।
कोई खोया गया है मज्लिस से।
कौन चिल्लाए पूछिए किस से।
कोहनी, ब़ाजू में लग रहे घिस्से।
और धक्का पेल, और धमांधिस्से।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥14॥

नाच और राग के खड़ाके हैं।
घुंघरू और ताल के झनाके हैं।
नक़लें, किस्से, कहानी, साके हैं।
खंड दोहरे, कवित, कथा के हैं।
कहीं आगोश के लपाके हैं।
कहीं बोसों केसौ झपाके हैं।
थरथरी, दांत पर कड़ाके हैं।
तिस पै जाड़े के सौ झड़ाके हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥15॥

सहन मन्दिर का सबसे है आला।
उसका गुम्बद है आलमे बाला।
हो रहा झांकियों का उजियाला।
पर्दे जैसे हैं चांद पर हाला।
है कोई दर्शनों का मतवाला।
कोई जपता है ध्यान में माला।
कोई दण्डवतें कर रहा लाला।
कोई जै जै करे है धन वाला।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥16॥

हैं जो मन्दिर में आप वह लालन।
हर घड़ी में बदल रहे अभरन।
नई पोशाक, और नये भोजन।
नई झांकी है, और नये दर्शन।
आरती की कहीं मची ठन-ठन।
कहीं घंटों की हो रही छन-छन।
ताल, मरदंग, झांझ की झन-झन।
ख़ास परशाद मिश्री और माखन।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥17॥

कोई चंचल चले है ठुमकी चाल।
कुछ वह पतली कमर, वह लम्बे बाल।
आंखों में हुस्न के नशे, रंग लाल।
मिश्री, माखन के हाथों ऊपर थाल।
कुछ वह पोशाक, कुछ वह हुस्नो जमाल।
मालिनों का ज़्यादा उनसे कमाल।
डाल दें हार का गले में जाल।
बद्धी होकर, लें साफ़ दिल को निकाल।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥18॥

बस कि आते हैं राजा औ रानी।
और लाखों हैं रानी और नानी।
भीड़, अम्बोह की फरावानी।
और हुजूमों की लाख तुग़्यानी।
पालकी, हाथी, घोड़े, रथ बानी।
जोगी, बैरागी, ज्ञानी और ध्यानी।
कुछ नहीं मौल-तोल क्या मानी।
पानी का दूध, दूध का पानी।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥19॥

कितने कच्चे हैं, कितने पक्के हैं।
ओंगे मुंह, और उछाल छक्के हैं।
चोर, नट-खट हैं, और उचक्के हैं।
दूध, खोया, मलाई, चक्के हैं।
भीड़, अम्बोह और भड़क्के हैं।
धूम धोंसों की और धड़क्के हैं।
पालकी, हाथी, घोड़े, ढक्के हैं।
सौ तमाशे हैं सौ झमक्के हैं।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥20॥

लाखों बैठे बिसाती और मनिहार।
अपना सब गर्म कर रहे बाज़ार।
चूड़ी, बगडी की इक तरफ़ झंकार।
नौगरी पोथ, अंगूठी, छल्ले हार।
टूटे पड़ते गंवारी और गंवार।
जिस गंवारी को चलिये धक्का मार।
गिर के दे गाली, यूं कहे है पुकार।
"कैसो इठला चले हैं दाढ़ी जार।"
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥21॥

मिट्टी ओर काठ के खिलौने ढ़ेर।
कोई लेवे है कोई देवे फेर।
कोई कुम्हारी के कर रहा हथफेर।
कोई काछिन के चुन रहा है बेर।
कोई कुंजड़िन से लड़ रहा मुंह फेर।
कोई बनिये को मारता है सेर।
गाली, डुक मारकूट, सांझ सबेर।
लाठी-पाठी है, शोर-गुल, अंधेर।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥22॥

सैकड़ों रंग-रंग की छड़ियां।
फूल गेंदों के हार की लड़ियां।
कहीं छूटें अनार, फुलझड़ियां।
कहीं खिलती हैं, दिल की गुलझड़ियां।
कहीं उल्फ़त से अंखड़ियां लड़ियां।
कहीं बाहें गले में है पड़ियां।
ऐश इश्रत की लुट रही धड़ियां।
दाल मोठें मंगोड़ी और बड़ियां।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥23॥

लग रही भीड़ इस क़दर ठठ हो।
राह आगे को और न पीछे को।
जो जहां था, वहीं फंसा फिर वो।
जिसको खींचे हैं, गिर पड़े हैं सो।
बैठे कहते हैं खाके धक्कों को।
"जै महाराज राम-राम भजो"।
और गंवार दल पुकार कर "हो-हो"!
अब तो लठवारो है लगाने को।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥24॥

क्या कची है बहार "जै बल्देव"।
ऐश के कारोबार "जै बल्देव"।
धूम लैलो-निहार "जै बल्देव"।
हर कहीं आश्कार "जै बल्देव"।
हर जुबां पर हज़ार "जै बल्देव"।
दम बदम यादगार "जै बल्देव"।
कह "नज़ीर" अब पुकार "जै बल्देव"।
सब कहो एक बार "जै बल्देव"।
रंग है रूप है, झमेला है।
ज़ोर बल्देव जी का मेला है॥25॥
(अम्बोह=समूह,भीड़, क़स्बाती=कस्बे
का, गंवेला=गांव का रहने वाला,
अग़यार=‘गैर’ का बहुवचन, इज़हार=
प्रकट,जाहिर, कछ-मछ=कच्छपावतार-
मत्स्यावतार, भीड़-अम्बो=भीड़भाड़,
गु़ल=कोलाहल,शोर, हट्टे=हाट बाजार,
पुर=भरे हुए, ऐशो-तरब=आनन्द,
रिस=क्रोध,गुस्सा, आगोश=ग़ोद,
बगल मिलना, आलमे बाला=आकाश,
देवलोक तक, चांद पर हाला=चांद के
चारों ओर पड़ने वाला घेरा,मंडल,
तुग़्यानी=बाढ़, ओंगे मुंह=सुस्त मुंह
वाले, नौगरी=हाथ में पहनने का
गहना जिसमें नौ कंगूरेदार दाने
पाट में गुंथे रहते हैं, पोथ=कांच के
सूराखदार छोटे-छोटे दाने जो
मोतियों की तरह होते हैं, दाढ़ीजार=
कुपित होने पर ग्रामीण स्त्रियों
द्वारा पुरुषों को दी जाने वाली
गाली, लैलो-निहार=रात दिन,
आश्कार=व्यक्त,ज़ाहिर)

3. कंस का मेला - नज़ीर अकबराबादी

जो हो कहीं तमाशा वह देखना बजा है।
ख़ूबी का देख लेना, हर तौर पर बजा है॥
अम्बोह खु़श दिली का हर आन दिलकुशा है।
जो सैर हो खु़शी की, वह देखनी रवा है॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥1॥

आते हैं लोग जिस दम कपड़े बदल-बदल कर।
बाज़ार में फ़राहम होते हैं घर से चलकर।
गाते हैं कितने होली, क्या-क्या संभल-संभल कर।
कितने हैं डफ़ बजाते, हर दम उछल-उछल कर॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥2॥

बोली में अपनी कितने कुछ-कुछ हैं गीत गाते।
कुछ कूद-कूद लम्बे हाथों को हैं बढ़ाते॥
चकफेरियों से कितने हैं मोरछल हिलाते।
हरदम हंसी खु़शी से फूले नहीं समाते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥3॥

कुछ स्वांग अच्छे-अच्छे हैं हर तरफ़ से बाते।
गहने झमकते उनके, और रूप जगमगाते॥
कुछ होलियां खुशी से हैं साथ उनके गाते।
मृदंग ताल, तबले मिल-मिल के हैं बजाते।
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥4॥

कुछ हैं दुकां में खुशदिल, कुछ बैठकों में हंसते।
अम्बोह कोठे-कोठे और भीड़ छज्जे-छज्जे॥
बाज़ार में खुशी के होते हैं जब यह नक्शे।
हर सू हुजूम लोगों के ठठ हैं लगते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥5॥

यह ठाठ हर तरफ़ को हैं आन कर झलकते।
घिच-पिच यह कुछ कि जिससे हैं हर क़दम ठिठकते॥
आशिक निगाहें भर-भर महबूबों को हैं तकते।
देखो जिधर, उधर को हैं हुस्न के झमकते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥6॥

होकर सवार इसमें निकले हैं जब कन्हैया।
होता है फिर तो ज़ाहिर नक़्शा अजब तरह का॥
हौदे में बैठ जाते हैं, सर पर मुकुट झलकता।
होते हैं शोर हर दम जय बोलने के क्या-क्या॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥7॥

निकले हैं आके जिमदम श्रीकिशन, मुकुट धारी।
मोहन, गुपाल, नंदन, प्रभु, नवल बिहारी॥
जाती हैं झाकियों में जब उनकी छबि निहारी।
जै हर क़दम पे क्या-क्या बोले हैं बारी-बारी॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥8॥

हैं साथ में जो उनके बनकर सवार चलते।
बाजों के शोरगुल से घोड़े भी हैं उछलते॥
दोनों तरफ़ रुपहले क्या-क्या चंवर हैं झलते।
यों दर्शन अपना देते हैं मुरलीधर निकलते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥9॥

माथे मुकुट विराजे, मुखड़े पै छूटीं अलकें।
रूप और सरूप ऐसा, जो देख झुकें पलकें॥
पोशाक जगमगाती, कुंदन की जैसे ढलकें।
आती हैं हर तरफ़ से क्या-क्या मुकुट की झलकें॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥10॥

होता है ठाठ यां तो मौजूद इस निमत का।
अब वां की बात सुनिए रुकते हैं कंस जिस जा॥
तन कंस का भी चकला क़द भी बहुत बड़ा सा।
तेगो सिपर संभाले टीले पै रखते हैं ला॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥11॥

होते हैं गिर्द उसके लोगों के ठठ जो आकर।
कुछ बैठते, कुछ उठते, फिरते हैं इधर उधर॥
पैकार भी हैं फिरते, सब खोमचों को भर कर।
गट्टे, गंडेली, मेवे, फल, बूट बेल, गाजर॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥12॥

हैं पान भी मुहैया, और हार भी गलों के।
हुक़्के़ भी जा ब़जा हैं, और आब के कटोरे॥
सुर्मा भी लाते हर जा, और ताड़ के पपैये।
खूंबां के साथ हर दम हैं इश्क़बाज़ फिरते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥13॥

फिरते हैं एक तरफ़ को महबूब भी रंगीले।
चीरे सुनहरे बांधे, या सुर्ख, या कि पीले॥
कुछ नाज़ के सजीले, कुछ आन के हठीले।
क्या-क्या बहार उस दम होती है टीले-टीले॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥14॥

कहता है कोई "प्यारे! ईधर निगाह कीजै"।
कहता है कोई "ऐ जां! दुश्नाम हंस के दीजै"॥
कहता है कोई "हुक़्क़ा हाथों से मेरे पीजै"।
कहता है कोई "जो कुछ दरकार हो सो कीजै"॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥15॥

क्या-क्या हंसी-खुशी की होती हैं बातें हर जा।
ठहरा है हर तरफ को ऐशो तरब का चर्चा॥
कुछ हैं खिलौने बिकते, कुछ हो रहा तमाशा।
क्या-क्या हुजूम, क्या-क्या होते हैं ठठ अहा हा॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥16॥

फिर उसमें जब कन्हैया हैं, इक तरफ़ को आते।
और एक छड़ी उठाकर हैं कंस को गिराते॥
लोग उस घड़ी का नक़्शा जिस दम हैं देख पाते।
क्या-क्या "नज़ीर" उस दम है शोरो-गुल मचाते॥
होली के बाद ठहरा यह मेला कंस का है।
एक पहर भर की यह ही मेले की वाह-वाह है॥17॥
(अम्बोह=भीड़, दिलकुशा=रमणीक,दिल को आनन्द
देने वाला, रवा=उचित, फ़राहम=एकत्र,इकट्ठा, सू=ओर,
तरफ, बूट=चने का हरा पौधा,दाना, ताड़ के पपैये=
ताड़ के पत्ते को गोल मोड़ कर बनाया हुआ बच्चों
का मुंह से बजाने का बाजा, दुश्नाम=गाली)

4. लल्लू जगधर का मेला - नज़ीर अकबराबादी

है धूम आज यारो क्या! आगरे के अन्दर।
ख़ल्क़त के ठठ बंधे हैं हर एक तरफ़ से आकर॥
गुल, शोर, सैर, चर्चा अम्बोह के सरासर।
क्या सैर मच रही है, सुनता है मेरे दिलवर॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥1॥

रोज़ा में ताजगंज के अम्बोह हो रहा है।
महबूब गुलरुखों का इक बाग सा लगा है॥
माजून और मिठाई, कोला है, संगतरा है।
इक दम का यह नज़ारा ऐ यारो! वाह-वाह है॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥2॥

ओढ़े है साल कोई महबूब शोख लाला।
चीरा ज़री का सर पर या सुर्ख़ है दुशाला॥
माशूक़ गुलबदन है आशिक है दीद वाला।
लग्गड़ पिला के हरदम कहता है हुक्का वाला॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥3॥

हर जा कदम कदम पर गुलज़ार बन रहे हैं।
नातें, कहानी, किस्से हर जा बखन रहे हैं॥
सुल्फ़ों के दम हैं उड़ते सब्जी भी छन रहे हैं।
हर भंग के कदह पर यह शोर ठन रहे हैं॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥4॥

गज़रों का हर तरफ़ को बाज़ार लग रहा है।
गन्ने, सिंघाड़े, मूली, तरबूज भी धरा है॥
अदना चबैने वाला परमल जो बेचता है।
वह भी चला जो घर से कहता यही चला है॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥5॥

जो खू़बरू तवायफ़ है हुस्न की घमंडी।
सीना लगे से जिसके हो जाय छाती ठंडी॥
देख आश्ना का चहरा और घेरदार बंडी।
हर दम यह उससे हंस हंस कहती है शोख़ रंडी॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥6॥

रंडी जो अचपली है टुक दीद की लड़ारी।
कुछ लोग उसके आगे कुछ आश्ना पिछाड़ी॥
रथवान से कहे हैं सुन ओ! मियां पहाड़ी।
क्या ऊंगता है जल्दी लो हांक अपनी गाड़ी॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥7॥

है हुस्न की जो अपने सरशार बाई नूरन।
जिसका मिलाप यारो सौ बाइयों का चूरन॥
हैं यार उनके मिर्ज़ा और या कि शेख घूरन।
मिन्नत से कह रहे हैं सुनती हैं वो ज़हूरन॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥8॥

दो रंडियां तवायफ़ जोबन है जिनका बाला।
बरसे हैं जिनके मुंह पर सर पांव से छिनाला॥
कोई कहे है "ऐ है" काफ़िर ने मार डाला।
कोई पुकारता है ओ! नौ बहार लाला॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥9॥

जो गुलबदन चले हैं सीना उठा उठाके।
क़फ़दों की खटखटाहट पाज़ेब के झनाके॥
आती हैं धज बनाके जब आश्ना के आगे।
कहता है वह अहा! हा! ओ चित लगन अदा के॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥10॥

जो नौ बहार रंडी टुक हुश्न की है काली।
बाला हिलाके हरदम दे हैं हर एक को गाली॥
देख उस परी का बाला औ कुरतियों की जाली।
हर एक पुकारता है ओ आ जा! बाले वाली!
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥11॥

कोई आश्ना से अपने लड़ती है खु़द पसंदी।
हरगिज़ न जावे यां से बिन रुपए के बंदी॥
वह दे है आठ आने लेती नहीं यह गंदी।
कहता है जब तो जलकर क्या चल रही है ख़दी॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥12॥

रस्ते में गर किसी जा दो लड़ रहे हैं झड़वे।
करते हैं गाली दे-दे आपस में भड़वे-भड़वे॥
कोई उसको रोकता है चल छोड़ मुझको भड़वे।
कोई उसको कह रहा है क्या लड़ रहा है भड़वे॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥13॥

जो हीजड़े ज़नाने आए हैं करके हल्ले।
हाथों में महदियां हैं और पोर-पोर छल्ले॥
जो उनके आश्ना हैं देख उनको होके झल्ले।
हँस-हँस पुकारते हैं ओ! जानी प्यारे छल्ले?
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥14॥

कोई उनसे कह रहा है ऐ! नौ बहार काहू!
तेरी तो झावनी ने दिल कर दिया है मजनूं॥
वह सुन के बात उसकी मटका के आंखें कर हू।
ताली बजाके हर आँ कहता है "क्या है मामूं"॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥15॥

जो आश्ना हैं अपने लोंडे के इश्क़ मारे।
फिरते हैं शाद दिल में लोंडे को घेर घारे॥
लाते हैं लड्डू पेड़े कर हुस्न के नज़ारे।
हर शोख गुलबदन से कहते हैं यों "कि प्यारे"॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥16॥

हर आन सुर्माबाला सुर्मा सवारता है।
औ प्यारी आंखड़ियों से आशिक़ को मारता है॥
सक़्क़ा जो छुल लगाकर पानी को ढालता है।
वह भी कटोरे डनका हरदम पुकारता है॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥17॥

इस्हाक़ शाह जो आशिक़ इक रिंद आ रहे हैं।
हर शोख गुलबदन से आँखें मिला रहे हैं॥
लोग उनके रेख़्तों पर गर्दन हिला रहे हैं।
वह भी हर इक सुखुन पर यह ही सुना रहे हैं॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥18॥

क़ब्बाल या अताई जो गीत जोड़ता है।
मुंहचंग, ढमढमी से लच्छे ही छोड़ता है॥
जब गतगिरी में लाकर आवाज़ मोड़ता है।
वह भी उसी के ऊपर ला तान तोड़ता है॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥19॥

मुफ़्लिस ग़रीब अदना कुछ होवे या न होवे।
आया है देखने को तो ग़म को दिल से धोवे॥
कहता चला है दिल से कोई रात भूका सोवे।
धेले की कौड़ियों में चल होनी हो सो होवे॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥20॥

ढलाई रोशनी से मामूर हो रही है।
घर जगमगा अटारी पुर नूर हो रही है॥
हर ईंट ईंट उसकी सिन्दूर हो रही है।
यह बात तो जहां में मशहूर हो रही है॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥21॥

नौ कारख़ाने वाले नौबत को सज रहे हैं।
रंडी कहरवा नाचे धोंसे गरज रहे हैं॥
इस बात पै तो यारो नक्कारे बज रहे हैं।
आये हैं जो भी यां पर सब होश तज रहे हैं॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥22॥

यह भीड़ है कि रस्ता घोड़े को, न बहल को।
हो दल के दल जहां पर क्या दोष है कुचल को॥
निकले हैं मारधक्के जब चीर फाड़ दल को।
सब उस घड़ी हैं कहते ललकार इस मसल को॥
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥23॥

होता है बरसवें दिन यह आगरे में मेला।
मुद्दत से लल्लू जगधर है नाम उसका ठहरा॥
सौ भीड़ और भड़के अम्बोह और तमाशा।
हरदम "नज़ीर" भी अब कहता है यों अहा! हा!
टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर।
धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर॥24॥
(दीद वाला=दर्शन दीदार,दर्शन करने वाला,
नातें=हज़रत मुहम्मद साहब की छन्दोबद्ध
स्तुति,स्तुतिगान, कदह=चषक,पानपात्र,
प्याला, आश्ना=मित्र)

5. आगरे की तैराकी - नज़ीर अकबराबादी

जब पैरने की रुत में दिलदार पैरते हैं।
आशिक़ भी साथ उनके ग़मख़्वार पैरते हैं।
भोले सियाने, नादां, हुशियार पैरते हैं।
पीरो जबां, व लड़के, अय्यार पैरते हैं।
अदना ग़रीबो-मुफ़्लिस, ज़रदार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥1॥

झरने से लेके यारो सहजानकाता व नाला।
छतरी से बुर्ज खू़नी दारा का चोंतरा क्या।
महताब बाग़, सैयद तेली, किला व रोज़ा।
गुल शोर की बहारें अम्बोह सैर दरिया।
हर इक मकां में होकर हुशियार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥2॥

बागे़ हकीम, और जो शिवदास का चमन है।
उनमें जगह जगह पर मजलिस है, अंजुमन है।
मेवा, मिठाई, खाने और नाच दिल लगन है।
कुछ पैरने की धूमें कुछ ऐश का चलन है।
इश्रत में मस्त होकर हर बार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥3॥

बरसात में जो आकर चढ़ता है खू़ब दरिया।
हर जा खुरी व चादर बन्द और नांद चकवा।
मेड़ा, भंवर, उछालन, चक्कर समेट माला।
बेंडा घमीर, तख़्ता, कस्सी, पछाड़, कर्रा।
वां भी हुनर से अपने हुशियार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥4॥

तिरबेनी में अहा हा होती हैं क्या बहारें।
ख़ल्क़त के ठठ हज़ारों पैराक की क़तारें।
पैरें, नहावें, उछलें, कूदें, लड़ें, पुकारें।
ले ले वह छींट, ग़ोते खा-खा के हाथ मारें।
क्या-क्या तमाशे कर-कर इज़हार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥5॥

जमुना के पाट गोया सहने-चमन हैं बारे।
पैराक उसमें पैरें, जैसे कि चांद तारे।
मुंह चांद के से टुकड़े, तन गोरे प्यारे-प्यारे।
परियों से भर रहे हैं मंझधार और किनारे।
कुछ वार पैरते हैं, कुछ पार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥6॥

कितने खड़े ही पैरें अपना दिखा के सीना।
सीना चमक रहा है हीरे का जूं नगीना।
आधे बदन पै पानी आधे पै है पसीना।
सर्वो का यह चला है गोया कि एक क़रीना।
दामन कमर पे, बांधे दस्तार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥7॥

जाते हैं उनमें कितने पानी पै साफ़ सोते।
कितनों के हाथ पिंजरे, कितनों के सर पै तोते।
कितने पतंग उड़ाते, कितने सुई पिरोते।
हुक्कों का दम लगाते, हंस-हंस के शाद होते।
सौ-सौ तरह का कर-कर बिस्तार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥8॥

कुछ नाच की बहारें पानी के कुछ किनारे।
दरिया में मच रहे हैं इन्दर के सौ अखाड़े।
लबरेज़ गुलरुखों से दोनों तरफ़ करारे।
बजरे व नाव, चप्पू, डोंगे बने निवाड़े।
इन झमघटों से होकर सरशार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥9॥

नावों में वह जो गुलरू नाचों में छक रहे हैं।
जोड़े बदन में रंगीं, गहने भभक रहे हैं।
तानें हवा में उड़तीं, तबले खड़क रहे हैं।
ऐशो-तरब की धूमें, पानी छपक रहे हैं।
सौ ठाठ के, बनाकर अतवार, पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥10॥

हर आन बोलते हैं सय्यद कबीर की जै।
फिर उसके बाद अपने उस्ताद पीर की जै।
मोर-ओ-मुकुट कन्हैया, जमुना के तीर की जै।
फिर ग़ोल के सब अपने खुर्दो-कबीर की जै।
हरदम यह कर खु़शी की गुफ़्तार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥11॥

क्या-क्या "नज़ीर" यां के हैं पैरने के बानी।
हैं जिनके पैरने की मुल्कों में आन मानी।
उस्ताद और ख़लीफ़ा, शागिर्द, यार जानी।
सब खु़श रहें - "है जब तक जमुना के बीच पानी"।
क्या-क्या हंसी-खु़शी से हर बार पैरते हैं।
इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैरते हैं॥12॥
(पीरो=वृद्ध, अय्यार=चालाक,तेज, अदना=
साधारण,छोटे, मुफ़्लिस=ग़रीब, ज़रदार=
मालदार, अंजुमन=सभा, खुरी=इतना तेज़
बहने वाला पानी जिसके विरुद्ध नाव न
चल या चढ़ सके, चादर=ऊपर से गिरती
हुई पानी की चौड़ी धार, बन्द=ऐसा बांध
जहाँ पानी रुका हुआ हो, नांद=अधिक
पानी का गहरा चौड़ा वृत्त, चकवा=स्थित
अधिक जल, घमीर=गहरा पानी जिसकी
थाह न मिले, तख़्ता=सीधा खड़ा हुआ
पानी, कर्रा=बहते हुए पानी का थपेड़ा,
इज़हार=प्रकट, सहने-चमन=बाग़ का सहन,
सर्वो=सर्व का सीधा और सुन्दर वृक्ष,
क़रीना=क्रम, दस्तार=पगड़ी, शाद=खुश,
लबरेज़=भरे हुए, गुलरुखों=सुन्दर
व्यक्तियों से, बजरे=एक प्रकार की बड़ी
और पटी हुई नाव, निवाड़े=बिना पाल
की छोटी नाव, सरशार=मस्त, गुलरू=
सुन्दर मुख वाले, ऐशो-तरब=विलासता,
अतवार=ढंग, ग़ोल=झुंड, खुर्दो-कबीर=
छोटे-बड़े, बानी=आविष्कारक,शुरुआत
करने वाले)

6. कनकौए और पतंग (निर्जला) - नज़ीर अकबराबादी

यां जिन दिनों में होता है आना पतंग का।
ठहरे हैं हर मकां में बनाना पतंग का।
होता है कसरतों से मांगना पतंग का।
करता है शाद दिल को उड़ाना पतंग का।
क्या! क्या! कहूं मैं शोर मचाना पतंग का॥1॥

उड़ना दोबाज का है वह शोख़ी की दस्तगाह।
देखे तो बाज़ जु़र्रे को हो इसकी दिल से चाह।
शिकरे की बाज़ आवे न उस जा कभी निगाह।
बहरी कुही भी देख यह कहती हैं वाह-वाह।
ऐसा है नाज़ो हुस्न दिखाना पतंग का॥2॥

हर लहज़ा इस बहार से उड़ता है ललपरा।
बुलबुल समझ के गुल जिसे हो जावे मुब्तिला।
घायल के उड़ने की भी सिफ़त अब कहूं मैं क्या।
घायल जो इश्क़ के हैं यह कहते हें बरमला।
है दिल में खू़ब शौक़ बढ़ाना पतंग का॥3॥

उड़ना लंगोटिये का है ऐसा कुछ अर्जुमन्द।
गोशे से जिसको देखने आवे लंगोट बन्द।
और चांद तारे की भी चमक चांद से दो चन्द।
उड़ना पहाड़िये का भी है इस क़दर बुलन्द।
उखड़े तो फिर फ़लक पै हो पाना पतंग का॥4॥

हैं मौज दरिया की भी कुछ ऐसी चढ़ाइयां।
मौजें गोया खु़शी के तलातुम में आइयां।
बूयें इलाएचे की हवा में समाइयां।
झंडी को देखे तो कुछ ऐसी उंचाईयां।
मुश्किल है वां से जाके फिर आना पतंग का॥5॥

बगले के उड़ने में भी वह खू़बी है आश्कार।
मछली निगाह की देख के हो जिसको बेक़रार।
पन्ने केमोल का भी दो पन्ना है खु़श निगार।
धय्यड भी अबलके़ को चढ़ाता है बार बार।
चंचल पन इस क़दर है जताना पतंग का॥6॥

उड़ना गिलहरिये का भी मैं क्या करूं बयां।
देखें दरख़्त पर जिसे चढ़कर गिलहरियां।
और है दुधारिये की भी कुछ और आनबां।
हैरां हो जिससे तेगे़ निगाहें परीरुखां।
फिर किस तरह न दिल हो दिवाना पतंग का॥7॥

उड़ता है इस तरीक़ से है वह जो मांग दार।
होता है जिसपे गौहरे दिल देख कर निसार।
ख़रबूज़िये की कांप का झुकना यह लाल दार।
और पेंदी पान की भी कुछ इस तौर की बहार।
गोया हवा में गुल है खिलाना पतंग का॥8॥

बमना भी अपनी देता है जिस वक़्त खूबी खोल।
निकले हैं वाह-वाह के हर इक जुबां से बोल।
और है दो कोनिये की भी इक-इक अदा अमोल।
उड़ता है कुलसिरे में भी शीराज़ियों का ग़ोल।
जीधर है नोक झोक दिखाना पतंग का॥9॥

चुपके भी वस्फ़ करने में चुपका रहूं मैं क्या।
शर्मिन्दा हो कबूतरे चुप जिस से दायमा।
ग़ायब है ककड़ी उड़ने पे ककड़ी का मर्तबा।
चौकन्नी चुरचलें हों उड़े जबकि चौघड़ा।
इस ज़ोर से हवा पे है जाना पतंग का॥10॥

उड़ते हैं इस हिजूम से कनकौए चमचके।
कौआ पकड़ने से गोया कौए हैं उड़ रहे।
छोटी भी तुक्कल ऐसी कि नख़ से फ़क़त उड़े।
झंझाव हैं मढ़ाव में कुछ इस क़दर बड़े।
लाज़िम है गर कहीं उन्हें लाना पतंग का॥11॥

महबूब भी उड़ाते हैं इस ढब से तुक्कलें।
जिनकी अदाओं आन दिलों की कलें छलें।
मिलने से दस्तो पा के जो गै़रों से दिल मिलें।
अश्शाक़ क्यों न रश्क से फिर इस तरह जलें।
हो जिस तरह से शम्मा पे आना पतंग का॥12॥

पतली कमर को मोड़े हैं जिस वक़्त कज कुलाह।
बाहें दराज करते हैं लबझप से ख़्वाह मख़्वाह।
यह शक्ल देखकर कोई कहता है वाह वाह।
अब इस तरफ़ लड़ेगी भला काहे को निगाह।
दिल में तो रूप रहा है लड़ाना पतंग का॥13॥

लाता है फेर फार के तुक्कल जो अपनी वां।
कहता है कोई उनसे ख़बरदार हो, मियां।
अब पेच पड़ने को हैं न दो इतनी ठुमकियां।
घबरा के कन्ने इसके न फंसने दो मेरी जां।
अच्छा नहीं है मुफ़्त कटाना पतंग का॥14॥

गर पेच पड़ गए तो यह कहते हैं देखियो।
रह रह इसी तरह से न अब दीजै ढील को।
"पहले तो यूं क़दम के तई "औ मियां" रखो।
फिर एक रगड़ा देके अभी इसको काट दो।
हैगा इसी में फ़तह का पाना पतंग का॥15॥

और जो किसी से अपनी तुक्कल को लें बचा।
यानी है मांझा खूब मंझा उस की डोर का।
करता है वाह वाह कोई शोर गुल मचा।
कोई पुकारता है कि ऐ! जां! कहूं मैं क्या।
अच्छा है तुमको याद बचाना पतंग का॥16॥

लड़ते हैं जिस मकां में पतंग आन कर यहां।
होता बड़ा हुजूम है ग्यारस के रोज वां।
डोरों की गोली और पतंगें बहुत अयां।
सौ सौ खड़े इकट्ठें उड़ाते हैं शादमां।
उस दिन बड़ा हुनर है जताना पतंग का॥17॥

कटता है जो पतंग तो फिर लूटने उसे।
दो-दो हज़ार दौड़ते हैं, छोटे और बड़े।
काग़ज़ ज़रा सा मिलता है या टुकड़े कांप के।
जब इस तरह की सैर भला आन कर पड़े।
फिर सोचिये तो क्या है ठिकाना पतंग का॥18॥

इस आगरे में यह भी तमाशा है दिलपज़ीर।
होते हैं देख शाद जिसे खु़र्द और कबीर।
क्यों कर न दिल पतंग की हो डोर में असीर।
खूंबां के देखने के लिए क्या मियां नज़ीर।
है यह भी एक तरफ़ा बहाना पतंग का॥19॥
(कसरतों=अधिकता, दोबाज=वह पतंग जिसके
दोनों बाजू असल रंग के खिलाफ लगाए गए हैं,
बाज़ जुर्रा=नर बाज़, शिकरे=बाज़से छोटी एक
शिकारी चिड़िया, बहरी कुही=बाज़बहरी एक
किस्म की शिकारी चिड़िया,इसे कुट्टी भी कहा
जाता है, ललपरा=लाल परों वाली पतंग,
घायल=विशेष रंग की पतंग, बरमला=सामने,
मुंह पर, लंगोटिये=पतंग जिसके बीच में पट्टी
लगी होती है, अर्जुमन्द=सफल, गोशे=एकान्त,
लंगोट बन्द=लंगोटवारी,पहलवान एक प्रकार
की पतंग, पहाड़िये=बड़ी किस्म की एक पतंग,
रंग बिरंगी कागज की पट्टियों से बनी हुई पतंग,
मौज=लहरें, तलातुम=लहरों का उफ़ान, बगले=
सफेद रंग की पतंग, अबलके़=दो रंगा,सफेद
और काली या सफेद और लाल रंग की पतंग,
परीरुखां=परियों जैसी शक्ल सूरत वाली,
निसार=कुर्बान, वस्फ़=प्रशंसा, तुक्कल=विशेष
प्रकार का कनकौआ जिसमें दो कांर्पे लगी
होती हैं ऊंची,स्थिर, रश्क=प्रतिस्पर्द्धा, अयां=
स्पष्ट,ज़ाहिर, शादमां=प्रसन्नचित्त,दिलपज़ीर=
दिल पसंद, खु़र्द=छोटा, कबीर=बड़ा, असीर=
बंदी,कै़दी)

7. कबूतरबाज़ी - नज़ीर अकबराबादी

है आलमे बाज़ी में जो मुम्ताज़ कबूतर।
और शौक़ के ताइर से हैं अम्बाज़ कबूतर।
भाते हैं बहुत हमको यह तन्नाज़ कबूतर।
मुद्दत से जो समझें हमें हमराज़ कबूतर।
फिर हमसे भला क्योंकि रहें बाज़ कबूतर॥1॥

हैवान हैं गरचे अजब अन्दाज के पर हैं।
सूरत में परीवार तो सीरत में बशर हैं।
आवाज़ से वाक़िफ़ हैं इशारों से ख़बर हैं।
परवाज़ में हमशहपरे अनक़ाए नज़र हैं।
क्या गोले हों, और क्या हों गिरहबाज़ कबूतर॥2॥

क्या बुलबुलों, कुमरीओ चहे पिदड़ियों पिद्दे।
चंडूल, अगिन, लाल, बए अबलके़, तोते।
क्या तूतियो मैना व पबई तीतरो शिकरे।
तायर हैं ग़रज़ बाज़ीए अश़ग़ाल के जितने।
की ग़ौर तो हैं सबसे सरअफ़राज़ कबूतर॥3॥

हैं बसरई और काबुली शीराज़ी निसावर।
चोया चन्दनो सब्जमुक्खी शस्तरो अक्कर।
ताऊसियो, कुल पोटिये, नीले, गुली थय्यड़।
तारों के यह अन्दाज़ नहीं बामे फ़लक पर।
जो करते हैं छतरी के ऊपर नाज़ कबूतर॥4॥

लक्के़ं हैं इधर अपनी कसावट को दिखाते।
चीते हैं उधर सीम बरी अपनी जताते।
हैं जोगिये भी रंग कई जोग के लाते।
परियों के परे देख के हैं चर्ख़ में आते।
जब हल्क़ा जनां करते हैं परवाज़ कबूतर॥5॥

खीरे व टपीतो, चुपो, नुफ़्ते व मुखेरे।
ज़रचे, व गुल आंख ललआंख, ऊदे व ज़र्दे।
कुछ कावरे तीरे मसी व तूसी व पल्के।
फिरते हैं ठुमक चाल सुनाते हैं खुशी से।
क्या क्या वह गु़टरगू़ं की खुश आवाज़ कबूतर॥6॥

सीमाबिये और घाघरे तम्बोलिये पान लाल।
कुछ अगरई और सुरमई और अम्बरी और ख़ाल।
भूरे मग़्सी तांबड़े बबरे भी खुश अहवाल।
फिर हस्तरे और कासनी लोटन भी सुबुक बाल।
खोले हैं गिरह दिल की गिरह बाज़ कबूतर॥7॥

‘कू’ करके जिधर के तई छीपी को हिलावें।
कुछ होवे ग़रज फिर वह उसी सिम्त को जावें।
कुट्टी को न फड़कावें तो फिर तह को न आवें।
छोड़ उनको ‘नज़ीर’ अपना दिल अब किससे लगावें।
अपने तो लड़कपन से है दम साज़ कबूतर॥8॥
(बाज़ी=खेल तमाशा, मुम्ताज़=ख़ास, ताइर=
उड़ने वाले पक्षी, अम्बाज़=मिले हुए, तन्नाज़=
इठलाकर चलने वाले, हमराज़=मित्र,दोस्त,
परीवार=अप्सरा जैसे सुन्दर, सीरत=स्वभाव,
बशर=आदमी, परवाज़=उड़ने में, अश़ग़ाल=
काम, सरअफ़राज़=सिर ऊंचा उठाने वाले,
चर्ख़=आसमान)

8. बुलबुलों की लड़ाई - नज़ीर अकबराबादी

कल बुलबुलें जो नौ दस क़ाबू में अपने आईं।
उसमें से दो पकड़ कर कुश्ती में धर भिड़ाईं।
यह शोर सुनके ख़ल्क़त, दौड़ आई दाईं बाईं।
कोई बोला ‘वाह हज़रत’ कोई बोला ‘वाह साईं।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥1॥

दस में तो दोनों कट कट लड़ती थीं करके गड्डा।
जब तीसरी को छोड़ा फिर तो हुआ तिगड्डा।
ख़ल्क़त भी आके टूटी, छोड़ अपना अपना अड्डा।
कड़की किसी की पसली टूटा किसी का हड्डा।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥2॥

थी तीन की यह कुश्ती चौथी को उसमें छोड़ा।
उसने तो ख़म बजाकर तीनों को धर झंझोड़ा।
फिर तो यह फटका आकर इन कुश्तियों का कोड़ा।
छूटा किसी का हाथी, भागा किसी का घोड़ा।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥3॥

एक कंकरी जो मारी पढ़ हमने फिर फ़ुसूं की।
कुश्ती में गठरी बंध गई उन चारों बुलबुलों की।
सुन सुन के चीखे़ उनकी लड़ने में ग़र्रगू़ं की।
सब बोले वाह हज़रत अच्छी यह पढ़के फूंकी।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥4॥

सुन सुनके चीखे़ं उनकी चिड़ियां जो चूं चूं आईं।
कौए पुकारे ग़ां ग़ां चीलें भी चिलचिलाईं।
सारद बटेर, मैना, चिमगादड़े भी आईं।
मुर्गों ने कुकडूं कूं की, गलगलियाँ फड़फड़ाईं।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥5॥

चिल्लाए मोर, सारस और फड़फड़ाए घग्गू।
गिद और चुग़द दहाड़े और फड़फड़ाए उल्लू।
कुत्ते भी भौंके भौं भौं, गीदड़ पुकारे हू-हू।
भड़वे गधे भी रेंके, कर अपनी ढेंचू-ढेूंचू।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥6॥

जब ले चले वहां से हम बुलबुलों का लश्कर।
सब लोग हंस के बोले उस दम दुआएं देकर।
सब में मियां "नज़ीर" अब तुम हो बड़े क़लन्दर।
यह खेल आगरे में अब ख़त्म है तुम्हीं पर।
सौ सौ तरह की धूमें एक दम में कर दिखाईं।
इस ढब से हमने यारो कल बुलबुलें लड़ाईं॥7॥

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