सुब्रह्मण्यम भारती : व्यक्तित्व और कृतित्व मंगला रामचंद्रन

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सुब्रह्मण्यम भारती : व्यक्तित्व और कृतित्व मंगला रामचंद्रन
Subramania Bharati Vyaktitva Aur Krititva: Mangala Ramachandran

21. भारती और नारी तथा उनका दांपत्य जीवन - सुब्रह्मण्य भारती

'हम अपनी दो आँखों में से एक को नुकसान पहुँचा कर अपनी दृष्टि को क्षीण नहीं कर सकते। उसी तरह हम अपनी आधी जनसंख्या को शिक्षा से दूर रख कर उन्नति नहीं कर सकते। विश्व भी तभी बुद्धिमान होगा जब हम पुत्रियों को शिक्षित करेंगे।

भारती के जीवन में आई प्रथम चार महिलाओं में उनकी माता, विमाता और बुआ तो उम्र और रिश्ते से बड़ी और वंदनीय थी ही। पत्नी चेल्लमा ही एक मात्र उनसे उम्र और रिश्ते के मान से छोटी थी। भारती को माता का सामीप्य पाँच वर्ष की उम्र में ही खोना पड़ा। विमाता का लाड़-प्यार भी मिला। बाद में मातृ-पितृ हीन बालक की तरह बुआ का स्नेह-प्यार मिला। तीनों महिलाओं के व्यवहार से भारती के मन में नारी जाति के प्रति स्नेहिल आदर पनपा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। उनके मन में नारी के प्रति समानधर्मी विचार अर्थात पुरुष-महिला में अंतर न करने वाली बात भगिनी निवेदिता से मिलने के बाद ही प्रभावशाली हुई। क्योंकि उनसे भेंट करने के बाद ही उन्होंने इस बात की महत्ता को समझा कि स्त्रियों को शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में समान अवसर न दिए जाएँ तो आने वाली पीढ़ी भी मानसिक रूप से कमजोर होगी। भारती कहते थे कि स्त्रियों को ज्ञान न दिला कर तो हम अपनी ही आँखें फोड़ रहे है। उनके लिए आधुनिक नारी का अर्थ है 'गर्व से सिर उठा कर चले और निडरता से किसी का भी सामना कर सके' भारतीय नारी के इसी रूप का स्वप्न देखते थे।

पाँचाली शपथम् (खंड काव्य) में उन्होंने जिस तरह द्रौपदी की व्यथा को उकेरा है वो काव्य-साहित्य में तो मील का पत्थर है ही। पर ये भी दर्शाता है कि उनके मन में महिला के प्रति करुणा, कोमल भावनाएँ भी भरी हुई हैं। द्रौपदी में वो भारत माता की प्रतिच्छाया देखते हैं और दुशासन तथा कौरवों को अँग्रेज मानते हैं। पाँचाली शपथम् में पाँचाली या द्रौपदी के विलाप के आगे उन्होंने कविता को खींचा नहीं। एक सती स्त्री के विलाप और त्रासदी के बाद कोई कुछ भी कहे या समझाए उसका कोई अर्थ नहीं होता। इस दृष्टांत को आज की इक्कीसवीं सदी में भी लोग नहीं समझ पाएँ और एक प्रताड़ित स्त्री की समाज, कोर्ट और कई अन्य तरीकों से प्रताड़ित करने में नहीं चूकते।

शकुंतला-दुष्यंत संदर्भ में भी उन्होंने जो रचना की, उसमें 'शकुंतला के वीर पुत्र भरत' का वर्णन है जो सिंह शावकों के साथ खेलता है। दुष्यंत का कहीं नामोनिशान नहीं है। ये दृष्टांत बताते हैं कि नारी के प्रति भारतीजी में कितनी श्रद्धा थी। कवि चंद्र को पुरुष व चाँदनी को नारी मान कर रचना करते हैं। पर भारतीजी ने चंद्र में मति जोड़कर उसे स्त्री लिंग चंद्रमति बना दिया।
Subramania-Bharati
उनका महिला के प्रति आदर का जज्बा प्राकृतिक था, चाहे वो जरा सी बच्ची हो, प्रौढ़ा या वृद्धा। अपनी किशोरावस्था में नारी के प्रति उनका मैत्री भाव ही था। जब उनका विवाह हुआ तब वे साढ़े चौदह (14) वर्ष के थे। उन दिनों बालक-बालिकाओं के विवाह छोटी उम्र में हो जाते थे। पर पति-पत्नी बड़ों के सामने आपस में बातें नहीं करते थे। संयुक्त परिवार होने से उम्र में बड़े लोग साथ में रहते ही थे। भारती चेल्लमा को छेड़ने के लिए उस पर कविताएँ बनाते और बातें भी करते थे। यह उनका पत्नी के साथ सखा भाव था।

जब भारती की बेटियाँ बड़ी हुईं तो उन पर बहुत पाबंदियाँ नहीं लगाईं। उनका कहना था कि किसी पर भी नियंत्रण कठोर हो जाएँ तब ही वो उससे छूटने को छटपटाता है। अगर प्राकृतिक रूप में पुरुष-स्त्री समाज में बिना भेदभाव के विचरण करें तो मन में एक दूसरे के लिए गलत विचार नहीं पनपते है। भारती स्त्री-पुरुष के लिए ऐसी समाज संरचना की कल्पना करते थे। प्राचीन भारतवर्ष की विदुषी नारियाँ जिस तरह वाद-विवाद, चर्चा आदि में हिस्सा लेती थी, पुरुषों की बराबरी में अपने बुद्धि चातुर्य का प्रदर्शन करती थी, वही वो बालिका और स्त्रियों के लिए चाहते थे। भारती अपनी बड़ी बेटी तंगम को सखी की तरह मान कर बालिकाओं के आचार-विचार, व्यवहार पर कविताएँ बना कर गाते जो सभी वर्ग की बालिकाओं के लिए उपयुक्त होता। छोटी बेटी शकुंतला को बच्ची के रूप में कविताएँ बना कर गाकर सुनाते। उनका मानना था कि नारी को कठोर नियंत्रण में या दबा-दबा कर रखने से सही तरह से उनका उचित विकास संभव नहीं होता है। यह उसी तरह है जैसे दबे-कुचले बीज अंकुरित नहीं होते।

माता-पिता में माँ को वो उच्च स्थान देते थे। पिता तो मात्र आर्थिक समस्या का प्रतिपादन कर के अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। बाकी समस्त जिम्मेदारी, सारे कर्म माँ ही पूरी करती है। स्त्रियों को वो अपने संदेशों में कहा करते थे कि आलसी मत बनो पर अपने सामर्थ्य से अधिक काम भी मत करो। नारी को शक्तिपुंज मान कर उन्होंने देवियों की शक्ति आराधना की है। विभिन्न देवियों पर ऐसे गीत लिखे हैं। पर इन सबके ऊपर माँ का स्थान ही मानते थे और अपनी रचना में उन्होंने इसी तथ्य को इंगित करते हुए लिखा है कि माँ से बढ़कर भी कोई देवी-देवता होता है क्या? माँ ही नहीं पत्नी के लिए भी उनकी धारणा कुछ ऐसी थी। पुरुषों से एक तरह से, आह्वान करते थे कि अपनी पत्नी को आदर दें, उन्हें भी स्वयं की तरह हाड़-मांस का मानव माने। उन्हें मात्र भोग के हेतु न रख कर अपने अन्य विचार विमर्श में भी सम्मिलित करे। शिक्षा और ज्ञानवृद्धि की उनकी चाह में अड़ंगे न लगाए।

हालाँकि अपनी युवावस्था में भारती अन्य पुरुषों की तरह अपनी पत्नी चेल्लमा के प्रति पुरुषोचित अकड़ प्रदर्शित करते थे। उन दिनों एटैयापुरम के राजा की सभा में अन्य विद्वानों के संग बहस, चर्चा आदि में रत रहते और रात को काफी विलंब से घर लौटते। भोर से कार्य में रत चेल्लमा इतनी थकी हुई रहती कि भारती की राह देखते-देखते वो थक कर नींद में चली जाती। एक बार इसी तरह की अवस्था में भारती ने जब लौट कर दरवाजा खटखटाया तो प्रतिदिन की तरह दरवाजा खुला नहीं। भारती शब्दों की बौछार के बीच में दरवाजे को इस तरह पीटने लगे कि पड़ोसी जाग गए और अपने-अपने किवाड़ खोल कर तमाशा देखने लगे। चेल्लमा की नींद बड़ी मुश्किल से खुली। चेल्लमा ने दरवाजा खोला और शर्म तथा डर से काँपने लगी। भारती ने पड़ोसियों को भी कोसा। उस समय भारती की उम्र 21-22 वर्ष की थी और चेल्लमा मात्र 14-15 वर्ष की। भले ही जवानी के जोश में, उन्हें अपना कुसमय या देर रात आना गलत नहीं लगा हो पर चेल्लमा को चाहते भी बहुत थे। उनके लिए शुचिता तथा पवित्रता के अर्थ पुरुष और स्त्री के लिए समान थे।

पुदुचैरी में म. श्रीनिवासचारी की पुत्री यदुगिरी से भारतीजी का वार्तालाप हुआ करता था। उम्र में दोनों पुत्रियों से यदुगिरी कुछ बड़ी थी। एक तरह से उनकी शिष्या और मानस पुत्री थी। किशोरियों के लिए जो भी रचना लिखते उसे पहले सुनाते थे। बाद में जब यदुगिरी कुछ बड़ी हुई तो अपनी रचनाओं के बारे में राय भी लेते थे। बाद में सुश्री यदुगिरी ने अपनी पुस्तक 'भारतीयिन निनैवूकल' अर्थात 'भारती के संस्मरण' में लिखा है - 'लगभग चालीस वर्ष पूर्व पुदुचैरी में भारतीजी की शिष्या तथा गर्वित पुत्री के रूप में रहना मेरे लिए कितना बड़ा सौभाग्य था। वो आज समझ पा रही हूँ।

यदुगिरी की यह पाँडुलिपि पंद्रह वर्षों तक प्रकाशक की तलाश में पड़ी रही। 2002 में इसके प्रकाशित होते-होते उनकी मृत्यु हो गई। प्रकाशन होने की प्रबल संभावना की तसल्ली लेकर इस जगत से विदा हो गई।

भारती महिलाओं के साथ भी उसी सहजता से व्यवहार करते जैसे पुरुषों के साथ। उनके लिए दोनों ही इनसान है, पुरुष-नारी वाला भेदभाव नहीं। नारी-पुरुष के बीच यह मैत्री भाव आज के आधुनिक युग में भी अत्यंत अल्प मात्रा में ही दिखता है। आज की शिक्षित, कामकाजी, अपनी सोच रखने वाली व सामाजिक सरोकारों से जुड़ी महिलाओं को वो देख पाते तो शायद अपनी कल्पना को साकार पाते। इतने वर्षों पूर्व नारी की इस रूप में कल्पना करना एक दूरदृष्टि, उदारमना, संवेदनशील व्यक्ति ही कर सकता है।

22. समूचा लेखन व व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम - सुब्रह्मण्य भारती

'बुद्धि को शक्ति और स्थिरता दो
बोली को मिठास दो। सोच को स्पष्टता दो
आवश्यकतानुसार हर वस्तु दो तथा सत्य को विजयी बनाओ।'

श्रेष्ठ कवि एवं गायक के रूप में - भारती एक स्वतःस्फूर्त कवि थे। उन्हें कागज-पेन या इस तरह के दूसरे तामझाम की जरूरत ही नहीं थी। शब्दों की और मिजाज (मूड) की तलाश की कोई दरकार नहीं थी। जहाँ उनका मन किया कविता गाने लगते। सृष्टि में समाए अनगिनत बातों, लोगों, घटनाओं पर काले मेघ से बरसती वृष्टि की तरह शुरू हो जाते। उन्हें नवरसों के नायकन कहा जाता है तो एक दम सही है। प्रकृति, ज्ञान, वीरता, भावनाओं को उड़ेल कर मन को छूने वाली देवी-देवताओं के ऊपर रचनाएँ खास कर देवियों पर (नारी रूप) उनकी अनगिनत रचनाएँ स्वस्फूर्त रूप से मूर्त हुई। इसके अलावा बच्चों, किशोर-किशोंरियों, छात्रों तथा बड़ों के लिए जा रचनाएँ उनके श्रीमुख से जब-तब झरी, इनकी भी संख्या अनगिनत है। भारती को स्मरण करते हैं तो गुलामी की जंजीर को तोड़ने और तंद्रा से जगाने का प्रयास करती ढेरों जोशभरी रचनाएँ भी हैं। सदा निर्धनता की मार सहते हुए भी श्रृंगार रस की कविताओं की रचनाएँ भी की तो हास्य-व्यंग्य की भी।

अब तक पुदुचैरी के अपने प्रवास में एक तरह के वातावरण और चेहरों से वे उकता चुके थे। स्वयं में जड़ता महसूस करने लगे थे। यायावरी तबीयत के भारती को चाहिए था खुले में, आसमान के नीचे, हरियाली के बीच घूमना-फिरना। उनके मित्र उनके इस तरह के स्वभाव को अच्छे से जानते थे। तभी उनके एक साथी कण्णन ने उन्हें एक तरह से निमंत्रण ही दिया। उनके आवास से काफी दूरी पर त्यागराज पिल्लै तालाब था। कण्णन ने प्रातःकाल वहाँ स्नान कर के आने का कार्यक्रम बनाया और भारती से कहा - 'तालाब दूर है इसलिए हमें सुबह चार बजे यहाँ से निकल पड़ना होगा।'

भारती जैसे उत्साही, जोखिम उठाने को सदा तैयार व्यक्ति को और क्या चाहिए। उन्होंने कण्णन से कहा - 'आप जब भी आकर आवाज देंगे मैं उठ जाऊँगा।'

तय हुए समय पर अगले दिन दोनों मित्र तालाब की ओर चल पड़े। रास्ते के दोनों ओर छोटे-बड़े खेत, नारियल के बाग-बगीचे, शीतल-मंद पवन के साथ ही पक्षियों का कलरव। समस्त वातावरण ने उन्हें सम्मोहित कर दिया। दो-तीन दिन बाद भारती स्वयं कण्णन के यहाँ भोर होते-होते चले गए। वहाँ द्वार खटखटाने पर मित्र की माँ ने दरवाजा खोला और उन्हें अंदर ले गई। कण्णन ने भारती का परिचय अपनी माँ से करवाया। माँ ने कहा - 'तुमने कहा था ना कि भारती बहुत अच्छा गाते हैं तो फिर उन्हें 'सुप्रभात' गाने को कहो।'

भारती ने पूछा - 'सुप्रभात का क्या मतलब है?'

उनके दोस्त की माँ ने अवहेलना से हँसते हुए कहा - 'यही हैं तुम्हारे भारती जिसे ये नहीं मालूम सुप्रभात क्या होता है।

दोनों तालाब की ओर निकल पड़े और रास्ते में मित्र ने भारती को समझाया कि 'दक्षिण भारतीय भाषाओं में भोर में ईश्वर को सुरों और शब्दों के योग से जगाने की परिपाटी को सुप्रभात गायन कहा जाता है।'

'बस इतनी सी बात' - भारती ने सरल मुस्कान के साथ कहा। कुछ ही दिनों में उन्होंने भारत माता को जगाने के लिए एक सुप्रभात तैयार किया। राग में तैयार कर मित्र की माँ को भी सुना दिया। इस गीत का शीर्षक है 'भारत माता सुप्रभातम्'। साथ ही 'प्रभात समय' पर एक मधुर गीत भी बनाया। जिसमें प्रातः का (शुभ) मंगल प्राकृतिक वातावरण व उसमें मिठास घोलते पक्षियों व अन्य बातों जैसे मंदिर के घंटियों, बहती हवा तथा पानी का नाद आदि का चित्रण है। भारती जैसे वाचाल महानुभाव ने गीतों की रचना के लिए चालीस दिन (40 दिन) का मौन व्रत रखा। उनकी इच्छा थी कि इन दिनों में वे बहुत बड़ी संख्या में गीत और कविता की रचना करें व उन्हें राग में बैठा कर तैयार कर दें। पर मात्र छयासठ (66) रचना ही तैयार हो पाई, जो वैसे देखा जाएँ तो अल्प मात्रा नहीं कही जा सकती। इसका बाद में 'भारती छयासठ' के नाम से प्रकाशन हुआ। भले ही भारती के हिसाब से ये रचनाएँ कम थी पर सभी उत्कृष्ट रचनाएँ थीं।

भारतीजी की अधिकांश पुस्तकें पुदुचैरी के प्रवास में ही लिखी गई थी। यहीं पर उन्होंने 'पाँचाली शपतम' अर्थात 'द्रौपदी की प्रतिज्ञा' का निर्माण किया था जो बहुत प्रसिद्ध हुई। पुदुचैरी के दस वर्ष के प्रवास में उन्होंने फ्रेंच सिखी। प्रसिद्ध संत त्यागराज अय्यर की रचनाओं को गाने के लिए तेलुगू सीखा। कोई गलत और अपस्वर में गाता तो उन्हें सहन नहीं होता था।

संगीत में जिस तरह संत त्यागराज राम भक्ति में लीन होकर राम कीर्तन की रचना करते थे, उसी तरह भारतीजी देश की स्वतंत्रता का आह्वान करते हुए, जनता में देशभक्ति का जज्बा एवं जोश पैदा करने वाले गीत रचते और लय और राग के सुनाते। उनकी एक रचना 'एंड्रू तणियुम इंद स्वतंत्र दाकम' अर्थात 'स्वतंत्रता की ये प्यास कब बुझेगी' लोगों की जुबान पर राग और लय के साथ तुरंत चढ़ गया था।

भारती के एक दूसरे साथी कृष्णस्वामी चेट्टियार का पुदुचैरी के पास मुत्तियाल पेठ में बहुत सुंदर बगीचा था। इस बगीचे में भारती अकेले घंटों टहलते रहते। कभी हरियाली को निहारते कभी पंछियों को उड़ान भरते देखते और कभी पक्षियों का गीत सुनते। अस्त होते सूर्य के वर्णजाल में डूबे, ईश्वर के विचित्र और मन को लुभाते इंद्रजाल को अनुभव करते हुए कह उठते - 'ओह ईश्वर, तुमने मनुष्य के लिए प्रकृति में कितनी खुशियाँ, कितना आनंद संजो कर रखा है।' इन सबके बीच वो अपने दुखों को एकदम ही भूल जाते।

जब उनके मन में प्रसव वेदना की तरह वेदना होती और मुँह ही मुँह में सा रे ग मा... गाने लगते तो पास वाला समझ जाता कि नवगीत की रचना हो रही है। ऐसे समय में उन्हें यह भय होता कि उनकी वेदना को ना समझ कर कोई उनका मजाक न बनाए। ऐसे में उनकी परेशानी को समझने वाले किसी दोस्त को लेकर कृष्णस्वामी चेट्टियार के बगीचे में चले जाते या किसी खेत खलिहान में। प्राकृतिक वातावरण के प्रति दीवानगी इस हद तक थी कि आस-पास का सब कुछ भूल कर ऊँचे स्वरों में खुल कर गाने लगते। मानो वाग्देवी उनकी जीभ की नोक पर ही विराजती हों।

कृष्णस्वामी के बागीचे में नारियल के पेड़ों का एक अच्छा खासा हिस्सा भी था। 22 नवंबर 1916 को पुदुचैरी में ऐसा चक्रवात आया कि पुदुचेरी और उसके आस-पास के सारे पेड़ धराशायी हो गए थे। पर इस तूफान और बवंडर में भी इस बागीचे के सारे नारियल के पेड़ वैसे ही खड़े रहे और उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। कहा जाने लगा कि भारती को उस इलाके से स्नेह था इसीलिए वो बच गया।

इस तूफान और झंझावात पर भारती ने उस दिन के हालात पर कविताओं की रचना की। वो जिस घर में रह रहे थे उस घर के पिछले कमरे की दीवार भी उस चक्रवात की बलि चढ़ गई। ईश कृपा से परिवार का कोई भी सदस्य इसमें घायल नहीं हुआ।

पुदुचेरी में समुद्र तट चेन्नै के समुद्र तट से छोटा जरूर है पर आकर्षक है। यहाँ बंदरगाह नहीं है और जो जहाज आते उनका सामान उतारने के लिए एक 'बियर' बना हुआ था। अर्थात पानी में ही कुछ दूरी पर लोहे का एक सेतु था। जहाज से नौकाओं में सामान लाद कर लाते और 'बियर' पर उतार देते। उन दिनों में इस सेतु पर लोग टहला करते थे। इस पुल से पुदुचेरी शहर बहुत सुंदर लगता था। भारती और उनके साथी अक्सर इस सेतु पर टहला करते थे और चर्चा चलती थी। उस पुल के सामने ही गांधीजी की प्रतिमा लगी हुई है और आस-पास पत्थर की बेंचें भी। भारती और उनके मित्रबंधु वही रेत पर बैठ कर अनेक प्रकार की चर्चा और योजना बनाने में रत रहते। इसी आधार पर उन्होंने अपने कुछ आलेख भी लिखे। अब यह सेतु जंग लग कर काल के प्रवाह में समाप्त हो गया।

समुद्र तट पर नहाना भारती का प्रिय शगल था। खास कर रविवार को भारती अपने साथी व.वे.सू. अय्यर, श्रीनिवासचारी आदि तथा इनके व अपने बच्चों के साथ नहाने जाते। अय्यर अच्छे तैराक भी थे पर भारती को तैरना नहीं आता था। एक दिन भारती अपनी दोनों बेटियों को स्नान करवा रहे थे, जैसे ही ऊँची लहर आती बच्चे डर कर किनारे की तरफ भागने लगते। भारती उनको पकड़ कर फिर समुद्र के पानी में ले जाते। भारती की आवाज उनके दुबले-पतले शरीर के मुकाबले में घंटा-नाद की तरह तेज थी। इन तमाशबीनों में से एक ने जाकर पुलिस को शिकायत की कि एक दाढ़ी मूँछ वाला व्यक्ति बच्चों को पानी में डुबाने की कोशिश कर रहा है। पुलिस का सिपाही आकर भारती को डाँटने लगा। उसे असलियत समझाने में भारती को कुछ तकलीफ अवश्य हुई। पर बात को समझने के बाद सिपाही ने भारती से क्षमा भी माँगी।

साधारणतया लोग समुद्र तट पर टहलने या बैठने सुबह या शाम आया करते हैं। पर भारती तो एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के स्वामी थे, वो समय बोध से अधिक 'मिजाज बोध' पर निर्भर थे और उसी पर चलते थे। कभी तपती दुपहरी में वहाँ चले जाते, कभी शाम को जाकर वहाँ बैठ जाते तो रात हो जाती। कभी-कभी तो रात भर वही रह जाते। अपनी सोच, अपनी कल्पना को विस्तार देने के अलावा अपनी निर्धनता को भुलाने की चेष्टा करना भी एक कारण था। गीत बना कर, राग में गाना बजाना और उसी में प्रसन्न रहने में समुद्र तट ने उनकी बहुत मदद की।

म. श्रीनिवासाचारी की बड़ी बेटी यदुगिरी ने अपनी पुस्तक 'भारती संस्मरण' में एक घटना का उल्लेख किया है। यदुगिरी भारती की पुत्री से कुछ वर्ष बड़ी थी और भारती ने उसे अपनी मानस पुत्री और शिष्या माना था। यदुगिरी अपनी छोटी बहन और पिता के साथ समुद्रतट पर सैर कर रही थी। प्रातःकाल की शीतल बयार के साथ रमणीय वातावरण था। ऐसे में प्रभात राग में, कहीं दूर से किसी की मधुर आवाज में, एक गीत सुनाई दिया। तीनों ही गीत के आवाज की दिशा में चलने लगे। थोड़ी दूर जाने पर देखा, एक कटे पेड़ के ठूँठ पर भारती हाथ जोड़े बैठे हुए थे। बाल भास्कर को निहारते हुए भाव विभोर होकर जिस तरह स्तुति गान कर रहे थे उससे सुनने वाले का दिल द्रवित हो जाता।

जब पता चला, भारती पहली शाम से समुद्र तट पर आए हुए थे तो उनसे पूछा गया कि 'रात भर अपने घर में सब परेशान नहीं हुए होंगे?' उन्हें क्या, बड़ी सादगी से बोले 'मैं तो कल्पित प्रदेश में उड़ रहा था और आनंद के सागर में गोते लगा रहा था।' उन्हें इसकी चिंता ही कहाँ थी कि उनके लिए कौन परेशान हुआ होगा या नहीं।

वैसे भारती को शास्त्रीय संगीत से अधिक आकर्षित करता था लोकगायन। धान रोपते, कूटते, काटते, कपड़े पटक कर धोते रजाक, सँपेरे की बीन का संगीत या इसी तरह का लयबद्ध गीत उन्हें अत्यंत प्रिय था। बाकी लोग उन अनगढ़ शब्दों को ठीक से पकड़ नहीं पाते पर भारती के कान उन शब्दों को सही ग्रहण करते, उनका अर्थ बताते हुए विश्लेषण भी करते।

वैसे तो घर की आर्थिक स्थिति हमेशा से ही डाँवाडोल ही रहा करती थी। देखने वालों को लगता कि भारती इससे बेखबर हैं। जबकि वास्तविकता ये होती थी कि वो वाग्देवी के ऐसे पूत थे जिन्हें निर्धनता और तंगी प्राकृतिक रूप से मिली हुई थी। पर उससे रचना कर्म में कोई बाधा नहीं आती थी। रचनाकर्म के मध्य वो एक तरह से अपने दुख दर्द, परेशानियाँ भूल जाते थे। उनके मन में वातावरण के अनुकूल गीत प्रस्फुटित होते और मानों स्वयंमेव श्रीमुख से राग और ताल के साथ झरते जाते। इसका एक सशक्त उदाहरण जिसकी पुनरावृत्ति भी अवश्य ही हुई होगी, प्रस्तुत है।

पत्नी चेल्लमा को खाना बनाना था, चूल्हे पर अदहन (भात पकाने का पानी) गरम हो रहा था। चेल्लमा चावल में से कंकर बीन रही थी। उन दिनों आज की तरह बिने-चुने साफ अनाज और दालें नहीं मिला करते थे। चावल बीनते हुए बीच में रसोई घर में किसी काम से गई और जब लौट कर आई तो देखती हैं कि सूपे में से एक बड़ा हिस्सा चावल का खाली हो गया। जमीन पर चावल बिखरा पड़ा है और ढेरों गोरैया चोंच में उन्हें भरते हुए फुदक रही हैं। उस दिन प्रातः ही दूधवाले ने दूध का बकाया चुकाने का तकाजा किया था और दूध बंद करने की धमकी दी थी। बच्चों के लिए खास कर, चेल्लमा चिंतित थी। ऐसे में भारती का गोरैया भोज करवाना उन्हें बहुत अखरा, नागवार लगा तो इसमें आश्चर्य की बात ही नहीं थी। चेल्लमा रोने-रोने को हो आई और भारती से उनके व्यवहार के लिए कैफियत माँगने लगी।

'बच्चों के खाने का समय होने वाला है, आप ही बताइए उन्हें भात खिलाना है या नहीं?'

चेल्लमा को एक ओर कारण से भी रोना आ रहा था। प्रतिदिन की तरह उसने भारती द्वारा 'स्वदेशमित्रन' पत्रिका में भेजे जाने वाले लेख को लिखने की सारी तैयारी कर रखी थी। दवात में स्याही, कलम व अन्य आवश्यक साजो सामान भी रख दिया था। पर समय निकला जा रहा था और भारती चिड़ियों का खेल देखने में व्यस्त थे, बल्कि मस्त थे। पत्रिका से जो थोड़ा-बहुत धन मिलता वही परिवार चलाने का जरिया था। जब उन्होंने अपने मन की बात भारती को बताई तो एक संतुष्ट फकीर की तरह बोले - 'देखो ये पक्षी कितने प्रसन्न हैं, लगता है नाच-गा रहे हों। हम मनुष्य ऐसे क्यों नहीं रह पाते।'

चेल्लमा कुछ बोली तो नहीं पर उदास ही थी। किसी तरह कुछ खाना पका कर बाहर के कमरे में आई तो देखा भारतीजी एक नई कविता गा रहे हैं और छोटी बच्ची शकुंतला नाच रही है। चिड़िया अभी तक चावल चुग रही है और बड़ी बेटी तंगम शांति से बैठी हुई है। चेल्लमा ने सोचा कि सभी इतने आनंदित हैं तो मैं क्यों इनकी प्रसन्नता में रुकावट बनूँ और वो भी शांति से बैठ गई। जब भारतीजी और शकुंतला का नाच गाना समाप्त हुआ तब जाकर बच्ची ने कहा - 'अप्पा, भूख लग रही है, खाना खा लेते हैं।' उस दिन पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए एक कविता (गीत) जा पाई जिसे भारतीजी ने पक्षियों को आजादी से फुदकते हुए भोज करने और आनंदित हो सामूहिक कलरव करने पर लिखा था।

गद्य के स्थान पर प्रकाशन के लिए पद्य के जाने पर चेल्लमा उतनी संतुष्ट नहीं थी। उसके लिए तो स्तंभ लेखन से हुई आमदनी से परिवार चलाना था। भारती उसकी असंतुष्टता को समझ गए और बोले - 'आज तुम्हें ये गीत और पद्य मामूली से लग रहे हैं, पर आने वाली पीढ़ी इन्हें हाथों-हाथ लेगी और गाएगी-गुनगुनाएगी।' वास्तव में यही हो रहा है।

भारती की पद्य रचना के संदर्भ में एक और बात भी याद आती है तो उन दिनों उनके साथ घटी। चेन्नै की किसी पत्रिका ने पद्य प्रतियोगिता आयोजित की थी और उसमें कुछ पुरस्कार राशि भी रखी थी। भारती के साथियों के उकसाने पर उन्होंने एक अर्थपूर्ण सुंदर रचना भेजी। सबको पूरा विश्वास था कि भारती को ही प्रथम पुरस्कार मिलेगा। पर उन्हें तृतीय पुरस्कार मिला, जबकि प्रथम दोनों पुरस्कार की रचनाएँ भारती की रचना के सामने कहीं नहीं ठहरती थी। बाद में उन दोनों रचनाओं का तो कोई अता पता ही नहीं रहा जबकि भारती की रचना कालजयी हो गई।

भारतीजी ने शास्त्रोक्त रूप से संगीत का अध्ययन नहीं किया था पर शारदा के वर प्रसाद की तरह उनके मन में पद्य रचना के साथ रागों का समन्वय भी हो जाता था। आवाज भी स्पष्ट, मधुर व गहराई लिए होता। उनके लिए हर वो संगीत जो कानों को अच्छा लगे मधुर होता। उसमें फिर भारतीय-पाश्चात्य का या किसी ओर तरह का भेद भाव नहीं होता। उन दिनों पुदुचेरी में समुद्र तट पर प्रत्येक बृहस्पति को एक खास स्थान पर फ्रेंच बैंड बजाया जाता था। खड़े-खड़े लगभग एक घंटे का कार्यक्रम होता था। फ्रेंच बच्चे वहीं आस-पास उछल-कूद करते हुए खेलते रहते। भारती को भीड़ या लोगों का जमावड़ा उतना पसंद नहीं था। सो वो कुछ दूरी पर रेत में अपने परिवार व यदुगिरी के साथ बैठ जाते। उनकी बेटियाँ उनसे पाश्चात्य संगीत की खासियत व देशीय संगीत से उसकी भिन्नता आदि पर प्रश्न पूछती रहती।

बच्चों ने कहा - 'कल सरस्वती-पूजा है, आप बैंड वाली धुन पर सरस्वती पर एक रचना तैयार करिए न!'

भारती ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा - 'करूँगा।'

बैंड में धुन बदली तो यदुगिरी बोली - 'इस धुन पर लक्ष्मी की स्तुति गाए तो अच्छा लगेगा।' इस पर भारतीजी ने कहा - 'ये भी तैयार हो जाएगा।'

कुछ देर बाद चेल्लमा बोली - 'सुना है कि काशी, कलकत्ता (आज का कोलकाता या प. बंग) में इन दिनों में काली या दुर्गा की पूजा होती है। हम भी, इन शक्ति की देवी की पूजा-स्तुति करें तो शायद सारे कष्टों से मुक्ति पा लें।

भारती प्रसन्न होकर बोले - 'ये बिल्कुल सही रहेगा। पहली धुन सरस्वती स्तुति, दूसरी लक्ष्मी और तीसरी दुर्गा के लिए होगी।'

अगले दिन उन्होंने तीनों स्तुतियाँ तीन धुनों में गाकर सुना दिया। यह दृष्टांत भारतीजी के स्वस्फूर्त पद्य कर्म के अलावा प्रकृति प्रदत्त संगीत के ज्ञान की ओर भी इंगित करता है।

संगीत का शौक तो इतना अधिक था कि सन 1918 में जब कडैयम (गाँव) में रहने गए तो कर्नाटक संगीत को संपूर्ण पद्धति के साथ सीखने के लिए गुरु तलाश कर लिया था। तामिलों में मारकझी महीने में (दिसंबर 15 से जनवरी 14 याने पोंगल तक) अलसुबह भजन मंडली भजन गाते बजाते मोहल्ले की हर गली में निकलती है। भारती इसमें सिर्फ गाते ही नहीं थे वरन बहुत से भजन उन्होंने स्वयं लिखे।

सन 1910 के बाद भारती का लेखन पत्रों में स्तंभ लेखन तक ही सीमित नहीं रह गया। खास कर सन 1912 का समय उनके लिए विशेष हो गया था। इस एक वर्ष में उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के हिसाब से कई पाँडुलिपियाँ लिख कर संपूर्ण की। ये सारी कृतियाँ प्रकाशन के पश्चात बहुत प्रसिद्ध हुई। भगवत गीता का तमिल अनुवाद, कण्णन पाटु (कृष्णगीत), कुयील पाटु (कोयल गीत) व कालजयी रचना पाँचाली शपथम का पहला भाग पुदुचेरी में 1912 में प्रकाशित हो गया था पर दूसरा भाग भारती के निधन के पश्चात सन 1924 में प्रकाशित हुई। 'कोयल वाला गीत' की प्रेरणा बागीचे के जिस हिस्से से उन्हें मिली और जो बाद में उनकी प्रमुख, प्रसिद्ध कृति बन गई, सन 1923 में ही प्रकाशित हो पाई। कृष्ण गीत भी सन 1917 में ही प्रकाशित हुई। इसे प्रकाशन में लाने वाले महानुभाव चू. नेलैयप्पर ने भूमिका में भारतीजी के बारे में लिखा - 'श्रीमान भारती महापंडित, मेधावी, जीवन मुक्तर, मेरे देश के तपस्वी और तमिलनाडु के रवींद्रनाथ... आदि-आदि।'

उसी समय नलैयप्पर ने एक तरह से भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरे बाद सैकड़ों वर्षों बाद भी भारती की रचनाओं को स्त्री-पुरुष और बच्चों द्वारा गाते बजाते देख पा रहा हूँ। साथ ही उनके सुंदर और स्पष्ट अक्षर तथा बिना काटा पीटी के लिखी कविता और लेखों से उनके विचारों की स्पष्टता भी दिखती है। उनके असंख्य लेखों के संग्रह में तत्व बोध, सामाजिक सरोकार, कला एवं साहित्य, मातृशक्ति आदि विविध आयामी पहलू हैं। उनकी नजरों से कोई पक्ष छूटा नहीं। सारे लेख उनकी प्रगतिशील, निष्पक्ष विचारधारा, जो समाज को जागरूक करते हुए प्रगतिगामी हैं। ये सारे आलेख इतने वर्षों बाद भी सामयिक लगते हैं। उस समय तो वो समय से बहुत आगे के लगते थे, जिस कारण उस समय का श्रेष्ठि वर्ग उनसे सहमत नहीं हो पाता था। निरंतर बनी रहने वाली निर्धनता के बावजूद उनके जोश खरोश में कभी कमी नहीं आई। बल्कि ये लगता था कि साधनहीनता ही शायद उनको लिखने की प्रेरणा देता था। ये इसलिए लिख रही हूँ कि उनका हास्य बोध और स्पष्ट सोचने-समझने का माद्दा इन बातों से कभी कम नहीं हुआ।

मात्र आलेख ही नहीं उन्होंने कहानियाँ भी लिखी। खास कर एक लंबी कहानी का उल्लेख सदा होता आ रहा है - 'चिन्न शंकरन कदै' अर्थात 'छोटे शंकर की कहानी', हास्य रस से सराबोर इस लंबी कथा को उन्होंने अपने मित्रों को सुनाया और सब पेट पकड़ कर हँसते रहे। पर दुर्भाग्यवश उसकी पाँडुलिपि गायब हो गई। दोस्तों के बहुत जोर देने पर उन्होंने दुबारा लिखना प्रारंभ किया। 'ज्ञान भानु' पत्रिका में किश्तों में प्रकाशित भी होने लगी थी। पर न जाने क्यों छ अध्याय लिखने के बाद उनका मन उससे उचट गया। असल में ये कथा काफी कुछ उनकी आत्मकथा सी लगती है। शायद इसीलिए पुलिस ने भारतीजी के घर काम करने वाले एक लड़के से मँगवा कर जब्त कर ली थी। 'ज्ञान भानु' में जब किश्तों में प्रकाशित होती रही तब भी किसी और उपनाम से लिखते रहे थे। कई उपनामों से विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही थी।

पुदुचेरी में रहते हुए ही उन्होंने पचास अध्याय की एक वृहत रचना 'भारत-जन सभा' नाम से लिखी। उक्त पुस्तक 'स्वदेशमित्रन' पत्रिका में किश्तों में प्रकाशित हुई।

वनस्पति शास्त्र के वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु की लिखी पुस्तक का तमिल में अनुवाद किया जो एक छोटी पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई।

कविवर रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों को अँग्रेजी से तमिल में अनुवाद किया। भारतीजी का उद्देश्य था कि दूसरी भाषा की श्रेष्ठ रचनाओं को तमिल भाषी पढ़ें और आनंद व ज्ञान अर्जित करें।

भारतीजी की हास्य शैली का एक सशक्त उदाहरण है उनकी कहानी जो तमिल और अँग्रेजी दोनों में लिखी गई। वो कहानी है 'ए फॉक्स विथ दी गोल्डन टेल'। उस समय अरविंद घोष अपने आश्रम में रहने लगे थे। भारतीजी नियमित रूप से उनसे मिलने तथा वार्तालाप व चर्चा के लिए जाया करते थे। उस दिन वो अपनी इसी कहानी को सुना रहे थे। अरविंदजी खुल कर हँस रहे थे साथ ही आश्रम के अन्य विद्वानों आदि को बुलवा कर सुनने को कहा। इस कहानी की पुस्तक की अँग्रेजी प्रति की पाँच सौ प्रतियों के लिए चेन्नै से तुरंत ऑर्डर आया। पर भारतीजी को खास प्रसन्नता नहीं हुई।

वो कहने लगे - 'अपना हृदय निचोड़ कर अपनी मातृभाषा में 'पाँचाली शपथम्' लिखा, उससे अधिक महिमा इस विदेशी भाषा की कहानी को क्यों मिल रही है? शायद ये भी हमारी गुलाम मानसिकता है!

अपनी मातृभाषा तमिल पर उन्हें एक माँ की तरह भक्ति एवं स्नेह था। तमिल की उन्नति के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। छोटे बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या देशीय भाष को चुनने का कहते। विदेशी भाषा अँग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के सख्त खिलाफ थे। उनकी दिली इच्छा थी कि बचपन से बच्चे अपने माता-पिता, परिवार, मातृभाषा, राष्ट्रभाषा के प्रति आदर और स्नेह करना सीख लें। तमिल काव्य की सुदीर्घ परंपराओं से परिचित थे तथा लोक साहित्य और लोकगीत परंपराओं के प्रति आकृष्ट भी थे। उसे आत्मसात करते हुए उन्होंने नए काव्य का सृजन किया था। भारती ने वचन कविता अर्थात गद्य कविता को प्रारंभ कर वर्तमान 'तमिल नई कविता' के लिए मार्ग प्रशस्त किया। भारती के पैदाइश के समय तमिल भाषा तथा तमिलजनों की अवस्था अच्छी नहीं कही जा सकती थी। तमिल भाषा को पुर्नजीवित कर एक तरह से उन्होंने तमिलजन को तंद्रा से जगा कर आत्मविश्वास और आस्था के पौधे को पल्लवित किया। हम सब पर उनका ये बहुत बड़ा उपकार है।

उन्हें मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से ही प्रेम था ऐसा नहीं है। उन्होंने संत त्यागराज के भजन गाने के लिए तेलुगू सीखा तो कभी फ्रेंच या जर्मन। किसी भी कार्य में उतरने से पहले उसकी प्रारंभिक आवश्यकताओं को पुख्ता करने को कहते।

अपनी व अन्य प्रसिद्ध तमिल रचनाओं का उन्होंन बहुत सुंदर अँग्रेजी अनुवाद किया था। अरविंद घोष की अँग्रेजी पत्रिका 'आर्य' में प्रकाशित हुई। 'आर्य' में ही 'ए फॉक्स विथ दी गोल्डन टेल' भी प्रकाशित हुई थी। इसके अलावा एनी बेसंट की 'न्यू इंडिया' तथा 'कॉमन वील' पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई। आगे चल कर सन 1937 में पुस्तकाकार रूप में इसका प्रकाशन हुआ। सन 1937 में ही उनके आलेखों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ।

प्रगतिशील व समाज सुधारक के रूप में - भारतीजी के व्यक्तित्व का सबसे प्रमुख गुण था उनके कथनी-करनी में समानता। समाज या लोगों को प्रभावित करने के लिए कुछ कहना और फिर स्वयं के लाभ या स्वार्थ के लिए उसका उल्टा करना जैसा कि साधारणतया लोग करते रहे हैं, उन्होंने कभी नहीं किया। दो टूक कहने-सुनने और घुमा फिरा कर बोलने की आदत न होने से वही बोलते थे जो उन्हें सही और सत्य लगता।

वर्तमान में भी हमारे देश में जाति-प्रथा की पैरवी करने वालों की कमी नहीं है। आज से सौ वर्षों पूर्व ब्राह्मण परिवार के भारतीजी ने इसका उल्लंघन किया। ये उनके विशाल और उदार मन ही नहीं साहस को भी बताता है। उन दिनों ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों की परछाई से भी दूर रहते थे। पर भारतीजी उनके घर भी जाते थे और उनके साथ खाना भी खाते थे और उनके साथ पूजा-पाठ में हिस्सा भी ले लेते थे। पुदुचेरी में रहते हुए घर के काम-काज में हाथ बाँटने वाली अम्मांकण्णु के घर में दत्तात्रेय की मूर्ति और कुछ शस्त्र बहुत अरसे तक पूजा के आले में रखे हुए थे। भारती ने इनकी पूजा की थी इसलिए।

नीची जाति के या हरिजन साथियों के साथ उठना-बैठना, खाना-पीना उनके लिए साधारण बात थी। जाति या धर्म से परे, ऐसे युवा लोगों में उनकी दोस्ती रा. कनकलिंगम (जिनका उपनयन संस्कार बाकायदा होम-हवन के साथ भारतीजी ने किया था), वेणु नायकर और भी अनेक ऐसे लोग और नाम हैं जिन्हें उनका स्नेह और साथ मिला था। इन लोगों के मंदिर की देवी पर उन्होंने गीत की रचना भी की। जब कोई उनका मित्र बन गया तो बस उससे मित्रता का ही व्यवहार करते थे। एक बार सन 1912 में 'जातिवाद' पर उन्हें किसी क्लब में बोलना था। इस भाषण का आयोजन रा. कनकलिंगम ने किया था। भारती ने वही कहा जो वो मानते थे। अर्थात, जिस तरह अँग्रेजों को भारत से भगाना है, उसी तरह जाति प्रथा जैसी कुप्रथा को समूल उखाड़ फेंकना है। उनका भाषण सदैव की तरह जोशीला, दिल से निकला हुआ और श्रवणकर्ताओं को प्रभावित करने वाला था। पर कनकलिंगम पर बिना अनुमति के भाषण की व्यवस्था करने पर तीन रुपये का दंड लगा।

भारतीजी का कहना था कि 'इन दो बातों के अलावा देश की प्रगति के लिए स्त्री-शिक्षा और उनकी स्वतंत्रता पर भी हमें ध्यान देना होगा।'

कनकलिंगम और उनके जैसे युवा तो भारती को गुरु मानने लगे। उन्होंने एक पुस्तक 'भारती एन गुरुनादर' (भारती मेरे गुरुवर) शीर्षक से लिखी जो सन 1947 में प्रकाशित हुई।

जाति प्रथा के विरोध में उन्होंने बच्चों की कविता में भी उल्लेख किया है। जिसका भावार्थ कुछ यूँ है। 'जाति प्रथा को मानना अभिमान की बात नहीं है। पशु-पक्षियों में ऐसा कोई भेदभाव नहीं है। मनुष्य क्यों ऊँची या नीची - जाति का भेदभाव पालता है। इन सब बातों से ऊपर उठ कर देखें तो हम सब मात्र भारतवासी हैं'

भारतीजी उदार और विशाल हृदय के ऐसे देशभक्त थे, जिनके लिए देश का हित सर्वोपरी था। भारत माँ की आजादी के लिए वो जूनून की हद तक भावुक थे। उनकी देश-भक्ति और आजादी की प्यास वाली रचनाओं ने बच्चों, जवान, प्रौढ़ और महिलाओं में भी जोश भर दिया था।

भारतीजी के बारे में बार-बार ये कहा जाता है कि कथनी-करनी एक समान। हर सुधार का प्रारंभ घर से ही करते। उनकी बड़ी पुत्री तंगम का विवाह उस समय के हिसाब से दस-बारह वर्ष की उम्र में करने की बात चली। पर भारतीजी ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया। वो बाल-विवाह ही नहीं अवयस्क बच्चों की शादी के भी खिलाफ थे। लड़कियों की शिक्षा के प्रश्न पर भी उनकी सटीक राय थी। वर्तमान में जो उक्ति कही जाती है वो उन्होंने उस समय कही थी जब लोग प्रचलन-रीति-रिवाज के नाम पर आँखें मूँद कर चलते थे। उन्होंने कहा था - 'बालिकाओं की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं देकर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं। उनको अँधेरे में और परदों में रख कर हम चाहते हैं शकुंतला के पुत्र वीर भरत की तरह हमारे भी वीर और प्रतापी संतान हों। नारी के स्वतंत्र सोचने-समझने की शक्ति को बचपन से निरुद्ध कर एक असंभव प्राप्ति की लालसा करना कतई सही नहीं है।'

अपनी छोटी बेटी शकुंतला की शिक्षा के लिए उन्हें भटकना पड़ा। उस समय अपने ससुराल के गाँव कडैयम में थे। आर्थिक स्थिति तो सदैव की तरह कंगाली ही थी, सो घर पर शिक्षक रख कर पढ़ा नहीं सकते थे। गाँव में लड़कियों की शिक्षा का कोई प्रावधान ही नहीं था। लड़कों के स्कूल में शकुंतला को भर्ती करने से मना कर दिया कि वो नियम विरुद्ध हो जाएगा। पर भारतीजी इस बात को आसानी से छोड़ने वाले तो थे नहीं। उन्होंने बाकायदा नारी के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देता एक छोटा-मोटा भाषण सुना दिया। यही नहीं एक अच्छी पहल करने की प्रेरणा देते हुए उन्हें राजी कर लिया। छात्रों के स्कूल में पहली छात्रा के रूप में शकुंतला को दाखिला मिल गया। शकुंतला अपनी बड़ी बहन तंगम की अपेक्षा पिताजी के साथ अधिक रही। उन्होंने 'मेरे पिताश्री भारती' नाम से एक पुस्तक लिखी जो भारतीजी की एक सौ पच्चीसवीं सालगिरह पर प्रकाशित हुई थी।

ईश्वर पर उनकी निष्ठा और आस्था अडिग थी। खास कर पराशक्ति देवी पर। निर्धनता और दुखों की पराकाष्ठा के समय वे देवी से कहते अवश्य थे कि इस तरह तकलीफों में लगातार झोंकने से तो मुझे नास्तिक बना दोगी। पर अंत तक देवी के परमभक्त ही बने रहे। भारती चाहते थे कि 'पराशक्ति ऐसी शक्ति दे कि मैं सदैव, सतत कविताएँ रचता रहूँ। उधारी चुका कर, परिवार को बिना परेशानी के शांति भरा जीवन जीने मिले। मैं सदैव उसकी प्रशंसा और स्तुति में नए और अद्भुत गीत बनाता रहूँ।

कई मौकों पर लोगों को आपस में कटु बातें करते या लड़ते झगड़ते देख कर उनका मन बहुत उदास हो जाता। वो स्वयं असुविधाजनक स्थितियों में भी संतुलित भाषा का ही प्रयोग करते थे। कटु या कड़वे बोलों से किसी का दिल नहीं दुखाते थे। वो कहते भी थे कि धनाभाव से भले ही पहने हुए वस्त्रों में आडंबर न हो। हो सकता है उनकी स्वच्छता में भी कुछ मलीनता महसूस की जा सकती हो। पर मीठे और समझदार व्यवहार से अपने अंतरतम को तो पवित्र और साफ रख सकते हैं।

भारतीजी को दानवीर कर्ण कह कर कुछ व्यंग्य, कुछ मजाक में कहा जाता था। ये भी कह सकते हैं - 'घर में नहीं है दाने, नानी चली भुनाने'। जैसा कि वो बीनते-चुनते चावल में से मुट्ठी भर-भर कर चिड़ियों को चुगा देते। वैसे तो उनका हाथ अधिकांश समय खाली ही रहता था, पर थोड़े पैसे हाथ में आ भी जाएँ तो उसे किसी को दान या जरूरत के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के दे देते। उनके साथी कुछ धन कठिनाई के दिनों के लिए बचा कर रखा करते थे। भारती ने उनसे कुछ नहीं सीखा, बस अपनी फक्कड़ मस्त मौला-मनमौजी लहजे में ही जीते रहे। एक बार उनको सम्मान में रेशमी धोती और अंगवस्त्रम ओढ़ाया गया। रिक्षे पर घर लौटते हुए, मात्र एक पतले तौलिए में लिपटे रिक्शेवाले को देख उन्हें दया आ गई। दुबला-पतला, हड्डी का ढाँचा बना हुआ उसे दीन-हीन तो कोई भी समझ जाता। पर भारती ने उससे बातें की, उसकी घर की अवस्था व अन्य कुछ पूछ-ताछ की। बस फिर क्या था सम्मान में मिले रेशमी धोती को उस पर ओढ़ा दिया। वो बेचारा डर कर बोला - एक तो रेशमी ऊपर से नया, लोग सोचेंगे मैं चोरी करके लाया हूँ। इससें तो अच्छा होगा कि आप घर के कुछ पुराने कपड़ों में से निकाल कर दे दें। कपड़ों की जरूरत तो मुझे भी है और घर के लोगों को भी है।'

'जब घर में होंगे तब ले जाना पर अभी तो ये तुम्हारा हो गया मैं वापिस नहीं लूँगा।' कह कर चल दिए। बाद में हँसते-मजाक करते हुए अपने मित्रों को किस्सा सुनाते हुए बोले - 'मैने एक गरीब रिक्शा चालक का सम्मान किया।'

उनके मन में ये भी खटका नहीं होता कि जिस किसी ने भी उनका सम्मान किया वो उसे गलत अर्थ में ले सकता है। बाद में तो सभी उनके स्वभाव को समझने लगे।

एक बार घर पर वो अकेले थे। एक भिखारिन चिंदियों में लिपटी, अपने बच्चे और स्वयं के ओढ़ने को वस्त्र माँग रही थी। उन्होंने वहीं रस्सी पर सूख रहे कपड़ों में से निकाल कर दे दिया। चेल्लमा उनकी ऐसी दरियादिली से कई बार संकट में पड़ चुकी थी और उनको समझा भी चुकी थी। चेल्लमाँ की बातों का उनके पास जवाब ये होता - 'इन पक्षियों को देख रही हो, कितनी प्रसन्नता से दाना भी चुगती है और दाने खत्म हो जाने पर चहचहाती हुई कलरव करती हुई आपस में खेलती रहती हैं। हम इनसान ऐसे क्यों नहीं रह पाते?'

इसके बाद चेल्लमाँ के पास कहने को कुछ बचता ही कहाँ था? सिवाय इस सोच में पड़ने के कि अगले दिन बच्चों का खाना कहाँ से आएगा।

झूठ से नफरत - भारतीजी को सबसे अधिक बुरा लगता था झूठ बोलने से। वो कहते थे झूठ बोलना कायरता की निशानी है। बचपन से ही बच्चों को साहसी बनाने की शिक्षा व प्रेरणा मिलनी चाहिए। जिससे वो अपनी गलती को स्वीकार करने का साहस रख सके। एक गलती को छुपाने के लिए बोला गया एक झूठ धीरे-धीरे आदत में बदल जाता है और अनेक झूठ बुलवाते जाता है। घर में अपनी बच्चियों को भी यह सिखाया। एक बार पुदुचेरी में दोनों बहनें शाम को समुद्र तट पर घूमने-खेलने जा रही थी। भारतीजी ने अपनी रचना डाक में डालने के लिए रखी थी और बच्चों से जाते-जाते ले जाने को कहा था। दोनों ही भूल गई। घर लौटते समय उन्हें याद आया। दोनों ने तय किया कि सुबह जल्दी उठ कर डाक निकलने से पहले डाल आएँगे, अभी तो पिताजी से कह देंगे कि डाल दिया। घर आने पर भारतीजी ने ही दरवाजा खोला। पिताजी को देखते ही उनके विचार बदल गए। बोलने लगी - 'पिताजी, हमें क्षमा कर दीजिए, हम आपका लिफाफा ले जाना भूल गए। पर कल भोर होते ही जाकर पोस्ट कर देंगे जिससे समय से निकल जाएँ। भारतीजी के घर एक अनबोला सा नियम था कि अपनी भूल स्वीकार कर जब कोई माफी माँगता हो तो बड़े-छोटे कोई भी हों, क्षमा स्वीकार हो जाती है। सो बच्चियों को माफी भी मिल गई और वे झूठ बोलने से भी बच गई। बच्चों पर बड़ों के व्यवहार व आदर्श का जो प्रभाव पड़ता है उसके लिए बड़ों का भी व्यवहार अच्छा होना उतना ही जरूरी है। इस बात को भारतीजी ने अपने आचरण से ही समझा दिया।

भारती को अपने सिर पर कम बाल होने का दुख था। बीच का सिर बालविहीन था, मात्र दोनों तरफ ही बाल थे। इसे छुपाने के लिए सदैव सिर पर पगड़ी रहा करती थी। साथ ही मूँछें रखने का भी शौक था, जबकि उन दिनों ब्राह्मण परिवार में दाढ़ी-मूँछ नहीं रखा जाता था। सन 1918 में जब प्रथम महायुद्ध अंत के दौर में था, भारती के साले अप्पादुरै पुदुचेरी आए। भारतीजी अब तक पुदुचेरी के वास से ऊब चुके थे और वहाँ से निकलने को तड़फड़ा रहे थे। इससे संबंधित बैठक में भाग लेने ही पहुँचे थे। डाकघर की अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर आए थे। उन्हें भारतीजी पर अपार श्रद्धा और स्नेह था। भारतीजी के मन में उस जगह को छोड़ कर जाने के लिए कई तरह के विचार और कल्पनाएँ आया करती थीं।

एक दिन बिना कुछ बताए वहाँ से मन्नारकुड़ी के पास एक गाँव नागै पहुँच गए। अपनी पगड़ी उतार ली और मूँछ साफ कर ली। सी.आई.डी. पुलिस भी उनको पहचान नहीं पाई। उनकी पत्नी चेल्लमा और अन्य लोग उनके अज्ञातवास से परेशान थे और समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या किया जा सकता है। करीब पंद्रह दिन बाद म. श्रीनिवासचार्य के घर अपने नए वेश में पहुँच गए। उनकी बेटी यदुगिरी जो भारतीजी की मानस पुत्री व शिष्या थी तथा करीबी भी थी, वो भी उन्हें पहचान नहीं सकी। भारतीजी यही चाहते भी थे, उनका परीक्षण सफल रहा।

23. (20 नवंबर 1918) को कडलूर में कैद - सुब्रह्मण्य भारती

हे भारत माता
हमें आजादी दो। माता
देश के महान लोग जेलों में कैद होकर मामूली कार्य कर रहे हैं। भले और अच्छे लोगों का दिल कितना उदास है
वे ऐसे लग रहे हैं मानों बिना नेत्रों के बच्चे हों। (भारत माता से स्वतंत्रता की प्रार्थना करते हुए)

अज्ञातवास की समाप्ति

पुदुचेरी के बँधे हुए और कम क्षेत्र में रहते हुए भारतीजी की यायावरी तबीयत घबरा उठी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनसे भी अधिक उनकी पत्नी चेल्लमा को तो ये लगा करता था कि वो अपना देश, बंधु-बांधवों को छोड़ दूसरे देश में निवास कर रही है। उनके भाई-बहन भी भारतीजी को उकसा रहे थे कि पुदुचेरी छोड़ कर अपने स्थान पर लौट आएँ। भारतीजी के ससुर का देहांत हुआ और चेल्लमा एक महीना कडैयम जाकर रह कर आई। ये सारी परिस्थितियाँ उन्हें एक तरह से अपने वतन लौटने को उकसा रही थी। इसी बीच पति-पत्नी में कुछ अनबन सी हुई और चेल्लमा दोनों बच्चों को लेकर कडैयम चली गई। पर एक सप्ताह बाद बच्चों को वहीं छोड़ कर अपने भाई अप्पादुरै के साथ लौट आई।

20 नवंबर 1918 को भारती, चेल्लमा तथा अप्पादुरै एक घोड़ागाड़ी में विल्लियनूर की तरफ को निकले। बीच में एक हेड कांस्टेबल ने उन्हें कैद करने की बात की। उन्हें कडलूर स्टेशनरी सब मजिस्ट्रेट आर. चक्रवर्ती अयंगार के सामने शेष किया गया। कडलूर सब जेल में दो दिन रखने का आदेश हुआ।

चेल्लमा व उनके भाई ने पुदुचेरी जाकर घर खाली किया, सबका बकाया चुकाया और सामान लेकर बच्चों के पास पहुँच गए। कडलूर जेल में करीब चौबीस दिन कैदी बन कर रहे भारती की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी, वे बीमार चल रहे थे। उनकी रिहाई दिसंबर 14 को हुई और 16 दिसंबर को स्वदेशमित्रन दैनिक में खबर आई कि 'श्रीमान सुब्रमण्यम भारती की रिहाई'। खबर में ये था कि अस्वस्थता के कारण वे पापनाशम अथवा कोडैकनाल में रुक कर कुछ आराम करेंगे। तिरूनेलवेल्ली स्टेशन पर जब ट्रेन रुकी तो उनके मित्र व प्रशंसकों के एक झुंड ने उनका स्वागत व जयनाद किया। पापनाशनम तथा कोडैकनाल स्वास्थ्यप्रद जगहें हैं जहाँ की प्राकृतिक संपदा से लोग स्वास्थ्य लाभ लेते हैं।

भारतीजी का पुदुचेरी में सवा दस वर्ष का अज्ञातवास समाप्त हुआ। अगर भारतीजी चंद महीने पुदुचेरी में रुक जाते तो अपने बाकी साथियों की तरह बिना किसी शर्त के वहाँ से कहीं भी जा सकते थे। क्योंकि युद्ध समाप्ति के बाद समझौता हो गया था।

24. निर्धनता की पराकाष्ठा में कडैयम में वास - सुब्रह्मण्य भारती

'ऋषियों द्वारा वैदिक ऋचाओं का पाठ पढ़ाकर भी क्या हम यूँ ही शोषित और पीड़ित रहेंगे
हमारे पास स्वयं पर विजय प्राप्त करने की कला भी नहीं है क्या'

भारती आखिर अपनी पत्नी के गाँव कडैयम पहुँच ही गए। एक ऐसा गाँव जो प्राकृतिक संपदा से जितना रईस था उतना ही प्रगति और नए विचार से गरीब। पहाड़ी श्रृंखला से घिरा हुआ, दोनों तरफ खेत व बगीचे व कल कल बहती नदियाँ, जहाँ दृष्टि जाती हरियाली नजर आती। पहाड़ी पर गणेश व मुरुगन (कार्तिकेय) के मंदिर, कुछ दूरी पर प्रसिद्ध नित्यकल्याणी देवी का मंदिर, उस गाँव की खूबसूरती में ये सब और वृद्धि कर देते थे। भारतीजी प्रकृति प्रेमी तो थे ही सो उनके लिए वातावरण एकदम मुफीद था। रामनदी (पहले इसका नाम तत्वसारा था। एक राक्षस को मार कर श्रीराम ने इस नदी में स्नान किया तब से यह नदी राम नदी कहलाने लगी) के किनारे बैठ कर देवी के भक्तिगीत, देवी के शौर्यगीत स्वतःस्फूर्त रूप से बनाते और गाते रहते। एक तरह से देवीमय या देवी के उपासक से हो गए। सारे समय प्राकृतिक वातावरण में विचरण करते हुए न उन्हें भूख-प्यास का आभास होता ना ही अन्य सांसारिक क्रियाओं का ध्यान रहता। लोग उन्हें विक्षिप्त कहने लगे।

भारतीजी की मनोदशा को बहुत कम लोगों ने समझा। हर युग में ही मेधावी, समय के आगे चलने और विचार रखने वालों को सनकी या इसके समानार्थी शब्दों से ही विभूषित किया गया है। एक तरफ तो भारतीजी के पद्यों की इतनी सराहना होती थी और यहाँ तक कहा जाता था कि उनके एक पद पर लाख लुटाया जा सकता है। पर फिर भी वो पत्नी और बच्चों को एक समृद्ध जीवन नहीं दे पाएँ। सदैव ही अगले दिन के खाने की चिंता भरा जीवन ही दे पाएँ।

कडैयम पहुँच कर दो ही दिन बाद उन्होंने 'स्वदेशमित्रन' के संपादक ए. रंगस्वामी अय्यंगार ने भारतीजी को कहा भी था कि वो जब चाहे चेन्नै आकर 'स्वदेशमित्रन' में कभी भी अपने पहले के पद पर कार्यभार ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ रहते हुए पत्रिका में अपने गद्य और पद्य भेज कर उन्हें कुछ आमदनी हो जाती थी। पर यह बहुत अल्प ही थी। अपने साले अप्पादुरै के घर पर रह रहे थे, जहाँ पहले ही दस लोग रहते थे। बड़ी मुश्किल में दिन कट रहे थे। ये सारे हालात उनके मन को चोट पहुँचा रहे थे और वो बेबस थे और अंदर ही अंदर घुट रहे थे। पर लोगों को उनका टूटना नजर नहीं आ रहा था, उनका फक्कड़पन और दीवानापन ही दिखता था।

कडैयम में जाति प्रथा का बोलबाला था। ब्राह्मण नीची जात की परछाई से भी दूर रहते थे। पर भारतीजी जाति प्रथा के प्रबल विरोधी थे। अनेक धर्म और अनेक जात के लोगों के साथ उनका उठना-बैठना, साथ खाना-खाना आदि चलता था। छोटे से उस गाँव में भारतीजी का यह व्यवहार बहुत बड़ा गुनाह माना गया और उन्हें अपनी जाति से बाहर कर दिया गया। अपने ही घर में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। उनको भोजन देने पर भी रोक लगने से अनिवार्य रूप से भूखे रहना पड़ा। बच्चे या पत्नी भी चाह कर भी उनको भोजन नहीं दे सके। साले के परिवार के लिए भी भारती का खुला और जाति च्युत होने का आचरण मुसीबत पैदा कर रहा था। तीन दिन अनिवार्य रूप से भूखे रहने के बाद दयावश किसी ने कुछ खाने को दिया तो वो भी उनके हलक से नीचे नहीं उतरा।

भारतीजी के लिए एक पुराना अत्यंत मामूली सा तथा छोटा घर, जिसका किराया भी अल्प था, तय किया गया। वो उसमें रहने लगे और भोजन अप्पदुरै के घर से जाता रहा। कुछ समय बाद चेल्लमा अपनी दोनों पुत्रियों के साथ पति के साथ रहने चली गई। भारतीजी की अल्पमात्रा में होती आमदनी से घर खर्च निकालना कठिन ही नहीं असंभव था। उस पर आए दिन कविराज की कुछ ऐसे बचकानी हरकतें हो जाती कि पूरे परिवार को ही परेशानी झेलनी पड़ती। दक्षिण भारत में गधे को स्पर्श करना अशुभ माना जाता है। वैसे भी कोई उसे छूना चाहेगा भी क्यों? पर भारतीजी जैसे व्यक्ति का कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता था कि अगले पल वे क्या कर सकते हैं। एक बार घर के सामने चर रहे गधे के शावक को देखते रहे और वो उन्हें इतना प्यारा लगा कि उसे अपने गले से लगा लिया। गाँव में उनकी ये सारी बेजा हरकतें सहन नहीं की जा सकती थीं। उनकी पत्नी और बेटियों को भी अन्य लोगों की अवहेलना का शिकार होना पड़ता था। आर्थिक संकट के साथ ही साथ समाज से बहिष्कार का संकट मिल कर कडैयम वास को जटिल बना रहे थे।

वैसे भी कडैयम पुरानी परिपाटी और लकीर के फकीर वाली सोच वाला गाँव था। नए विचार और नई सोच को तो मानों वो सोच में भी जगह नहीं देना चाहते थे। कूप-मंडूक की तरह जीवन शैली ही उन्हें रास आती थी। सौ वर्ष आगे की सोच रखने वाले भारतीजी ऐसे वातावरण में मन मसोस कर ही रह रहे थे।

सारे हालातों से ऊब चुके भारती ने मई महीने सन 1919 में एटैयापुरम के राजवंश को पत्र लिखा। राजवंश के इतिहास को 'वंशमणि दीपिका' नाम से एक पूर्व महान कवि केसरी द्वारा लिखा गया था। उस समय की प्राचीन तमिल भाषा में बाद में बहुत सुधार और नए वर्ण और अक्षर आ चुके थे। जिससे जन समुदाय भी पढ़ कर रस ले सकता था। भारती ने पत्र में इसी का हवाला देते हुए लिखा कि वे चाहें तो भारती नए सिरे से उस इतिहास की भाषा को प्रवाहमय और मनोरंजक कर देंगे। इसके लिए वो एटैयापुरम जाकर रहने को भी तैयार थे। पर राजवंश ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में होने से भारती के मेल-मिलाप से डरते थे। भारती के विचार से सहमत होते हुए भी उन्होंने पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। गाँव (कडैयम) के सुस्त-सोते से वातावरण में उनका दम घुटने लगा। उनकी मानसिक अवस्था पर भी इसका असर पड़ रहा था। आए दिन किसी से किसी भी बात पर बहस और वाद-विवाद करने लगते और रिश्ते बिगड़ जाते। आर्थिक कठिनाई भी यहाँ रहते हुए तो दूर हो ही नहीं सकती थी।

25. दिसंबर 1920 में 'स्वदेशमित्रन' में पुनः आगमन - सुब्रह्मण्य भारती

'सब एक जाति
एक वर्ग के ही हैं
सभी भारतीय हैं। सब एक इकाई हैं
सभी के एक ही सिद्धांत है। सभी और हर कोई इस देश का राजा है'
(संपादकीय में)

सन 1920 के नवंबर महीने में भारती चेन्नै पहुँच गए। आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने पर फैसले भी इच्छा से नहीं लिया जा सकता है। भारती अपने गद्य-पद्य की समस्त रचनाओं को पुस्तकाकार में प्रकाशन करवाना चाह रहे थे। उसके लिए कुछ योजना भी सोच रखी थी तथा उससे संबंधित कुछ पत्राचार भी किया था। पर अब परिवार को पालने के लिए व्यावहारिक होना भी आवश्यक था। धन कमाने का उनके पास एकमात्र जरिया था उनकी लेखनी। सो चेन्नै जाकर 'स्वदेशमित्रन' में अपने पुराने पद पर आसीन होने के अलावा कोई और राह कहाँ थी? सो पत्नी और छोटी बेटी शकुंतला को लेकर चल दिए अपने कार्यक्षेत्र की तरफ।

चेन्नै स्टेशन से पूर्व सैदापेठ पड़ता है, वहीं पर भारतीजी के सौतेले भाई आ गए। उन दिनों उनके भाई विश्वनाथन सैदापेठ (चेन्नै का ही एक सब स्टेशन) में रह कर किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। परिवार के साथ भारतीजी अपने भाई के घर चले गए जहाँ उनकी विमाता भी साथ थी। वही जिन्होंने भारती को बचपन से ही बहुत स्नेह और ममत्व दिया था, सौतेलेपन की भावना तो उनमें कहीं थी ही नहीं। भारती को देखते ही बोल पड़ी - 'सुबैया तुझे गाते हुए सुने कितना लंबा अर्सा हो गया। कुछ नए गीत सुनाओ ना।'

अपने बचपन के घर का नाम 'सुबैया' सुनकर उन्हें कैसा लगा होगा इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। दुखी, हताश और निराश हालातों के बाद अपनी विमाता के बोल, जख्मों पर रूई के कोमल फाए से लगे होंगे। उन्होंने कई गीत गाकर सुनाए और माता को प्रसन्न कर दिया। सैदापेठ से लोकल ट्रेन मे चेन्नै के जार्ज टाउन में उतर कर 'चेट्टी तेरू' (मंडी) में स्थित 'स्वदेशमित्रन' के दफ्तर जाते। शाम को भी इसी तरह ट्रेन से सैदापेठ लौट आते। इसमें समय और श्रम का अपव्यय हो रहा था और भारतीजी शारीरिक रूप से बहुत तंदुरुस्त नहीं थे।

भाई विश्वनाथन जार्ज टाउन में ही भारतीजी के लिए घर की तलाश करने लगे। सीमित धन में मनमाफिक किराए का घर खोजना भी बहुत कठिन होता है। भाई ने एक घर तय किया और भारतीजी परिवार सहित रहने आ भी गए। पर उन्हें यह घर तनिक भी अच्छा नहीं लगा। घर के बाहर निकलते ही घर से लगभग लगा हुआ गंदा नाला बदबू मारता रहता। घर भी अनेक असुविधाओं से युक्त था। बरसात के मौसम में तो जो परेशानियाँ होती उसका कोई हिसाब ही नहीं था। दूसरा सुविधायुक्त मकान चाहिए था वो भी कम किराए में। यह कार्य आकाश से चाँद सितारे तोड़ कर लाने जितना ही दुष्कर था।

ऐसे कठिन समय में भारतीजी के पुराने मित्र वकील दुरैस्वामी अय्यर से मुलाकात हुई। पर दुरैस्वामी स्वयं ही अपनी बहन के बड़े से घर के एक हिस्से में रहते थे सो कोई मदद नहीं कर पाए। ऐसे समय में एक दूसरे परिचित व मित्र सुरेंद्रनाथ आर्य ने उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाया। ये वही आर्य थे जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था और एक विदेशी बाला मार्था से विवाह कर लिया था। भारतीजी को उनके विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी पर उनका धर्म परिवर्तन उन्हें स्वीकार नहीं था। बहरहाल, आर्य मार्था के साथ चेन्नै के 'रनडाल्स रोड' पर एक विशाल बंगले में रहते थे। मार्था हिंदू महिलाओं की तरह साड़ी पहन कर बिंदी लगाया करती थी।

स्नेही मार्था का व्यवहार सभी के प्रति ममतापूर्ण होता था। भारती परिवार सहित उस बंगले के एक हिस्से में रहने आ गए। आर्य दंपत्ति तो अपने साथ परिवार की तरह उनको रखना चाहते थे। भारतीजी और पुत्री शकुंतला को कोई एतराज नहीं था, बल्कि उनके बटलर का बनाया शाकाहारी खाना खाने को भी वे दोनों तैयार थे। पत्नी चेल्लमा जो कई नियमों से बँधी थी, का मन उनके साथ और विधर्मी के हाथ का खा नहीं सकती थी। इसलिए बंगले का एक हिस्सा भारतीजी के परिवार के लिए खाली करके और खाना बनाने की जगह मिल गई। इसके अलावा भारती परिवार बंगले के किसी भी हिस्से में आने-जाने को स्वतंत्र थे। शकुंतला को उस समय अँग्रेजी नहीं आती थी, मार्था को अँग्रेजी के अलावा और कोई भाषा नहीं आती थी। दोनों इशारों से एक-दूसरे की बात को समझ लेते। मार्था शकुंतला को बहुत चाहने लगी और खाना खाते समय, कढ़ाई-बुनाई करते हुए या कोई खेल खेलने को उसे साथ रखती। शकुंतला को बंगले के सामने बगीचे में लगे रंग बिरंगे विभिन्न किस्म के फूलों को टहनी के साथ तोड़ना अच्छा लगता था। मार्था उन्हें काट-छाँट कर, तराश कर विभिन्न गुलदानों में यूरोपिय शैली में सजा कर रखती। शकुंतला बहुत खुश थी और उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जीवन का ये हिस्सा बिना चिंता के बहुत शांति से गुजरा।

श्री आर्य को शकुंतला मामा बुलाती थी, जैसा कि दक्षिण भारत में प्रचलन है। मार्था का आग्रह था कि वो उन्हें आंटी कह कर बुलाएँ। एक दिन भारतीजी से बातें करते हुए मार्था ने कहा कि उन्हें पापा (शकुंतला) से बहुत स्नेह हो गया, यदि भारतीजी बच्ची को दे दें तो अपनी बेटी की तरह बड़ा करेगी। भारतीजी का जवाब था कि 'पापा' के अलावा कुछ भी माँगे तो देने को तैयार हैं।

एक दिन पुत्री के साथ भारतीजी कहीं से लौट रहे थे। सड़क के दूसरी ओर उनका परिचित दिख गया तो ये उनसे बात करने लगे। वहीं सड़क किनारे बैठी कुछ बेच रही औरत ने शकुंतला से पूछा - 'तुम लोग ब्राह्मण हो क्या?' बच्ची ने हाँ में जवाब दिया। तब उस औरत ने दयाभाव दिखाते हुए कहा - 'गरीबी किसी से क्या-क्या करवा देती है! तुम लोगों ने भी इसीलिए अपना धर्म बदल लिया।'

शकुंतला को उस समय कुछ समझ नहीं आया। घर आकर जब माता-पिता से बात की तब उसका आशय समझ आया।

भारतीजी का चेन्नै आगमन और पत्रिका में उपसंपादक का पद ले लेना धीरे-धीरे उनके परिचितों को मालूम होता गया। इन लोगों में उनके एक भक्त परिचित तुरंत मिलने आ गए। वे चेन्नै के तिरूवल्लीकेनी (तिरूनलवेल्ली नहीं जो कि एक अलग जिला है) में पार्थसारथी मंदिर के पास रहते थे। इन कु. कृष्णन ने आग्रह किया कि अगर भारतीजी भी उसी क्षेत्र में आ जाएँ तो उनको कही भी जाने आने में सुविधा रहेगी। क्योंकि वहाँ से समुद्र तट, मंदिर, बाजार सब करीब होगा। इसके अलावा कृष्णन की एक भली मंशा और थी। पुदुचेरी में भारतीजी जब भी दोपहर को आराम करने लेटते तो वो उनके पैर दबाने या सहलाने आ जाते। लाख मना करने पर भी नहीं मानते थे। उन्हें लग रहा था कि भारतीजी उनके आवास के करीब रहें तो फिर से सेवा करने का मौका मिलेगा।

कृष्णन की इच्छा पूरी हुई और उसी क्षेत्र में एक मकान के सामने का हिस्सा किराए पर मिल गया। घर अच्छा और सुविधाजनक था। तीन किराएदार बाकी हिस्सों में थे और सभी प्रेमपूर्वक रह रहे थे। आर्थिक रूप से भारतीजी की अवस्था बस मामूली ही थी। लेकिन लिखने में जोश खरोश बाकी था। साथ ही मंदिरों के उत्सव में भी उत्साह से हिस्सा लिया करते थे। उत्सवमूर्ति की शोभायात्रा में अपनी डेढ़ पसली की काया के साथ, पूरी प्रदक्षिणा में कंधा लगाए रहते। उनका भक्तिभाव भी दिल की गहराई से सच्चा था। किसी भी कार्य को चाहे छोटा हो या बड़ा मन की तसल्ली से करते थे। ना कि दूसरों को दिखाने या नकली आवरण ओढ़ने के लिए।

भारतीजी अपने घर में प्रातः 7 बजे से 9 बजे तक ही रहते थे, फिर कार्यालय चले जाते थे। कभी-कभी दोपहर को घर आ जाया करते थे। पर फिर भी हिंदी प्रचार के लिए सदैव तत्पर रहा करते थे। यदुगिरी अम्माल ने अपनी पुस्तक 'भारती संस्मरण' में लिखा है कि उनके घर के ऊपर के हिस्से में हिंदी सिखाई जाती थी। महात्मा गांधी के सुपुत्र देवदास गांधी स्वयं सबको हिंदी भाषा का ज्ञान व देशभक्ति गान सिखाया करते थे। बच्चों के साथ भारती पूरे उत्साह और जोश के साथ सीखते और दोहराते। प्राचीनतम भाषा तमिल उन्हें जितनी प्रिय और अपनी लगती थी और तमिल से मोह था उसके बाद हिंदी भाषा का उनके लिए महत्व था।

भारतीजी की गली में रहने वाले एक सज्जन शद्गोपन की बहुत इच्छा थी उनसे बात करने की, उनके मुँह से गीत-कवित्त सुनने की। अपनी कामना को उन्होंने कृष्णन को बताया। कृष्णन बोले - 'इतनी सी बात, चलो मेरे साथ'।

'स्वदेशमित्रन' के कार्यालय ले गए और भारतीजी से उनका परिचय करवा कर उनकी इच्छा को भी जता दिया। उन्हें भारती पहली मंजिल के अपने कार्यालय से नीचे गोदाम में ले गए। वहाँ पत्रिका के कागजातों के विभिन्न बोरे रखे हुए थे। एक ढेर पर स्वयं बैठ गए बाकी पर उन दोनों को बैठाया। लय और सुर में तल्लीनता से गाने लगे। उन्हें अच्छा श्रोता मिल जाए तो छोटे-बड़े या अन्य किसी कारण से उससे परहेज नहीं करते। यह उनका अभिमान रहित बड़प्पन था।

चेन्नै के आस-पास के कई शहरों में कभी वाचनालय-पुस्तकालय के उद्घाटन में कभी किसी अन्य प्रसंग में अतिथि वक्ता के रूप में उन्हें बुलाया जाता था। हर बार एक अलग ही विषय पर भिन्न दृष्टिकोण से सोच रखते हुए ऐसा प्रभावपूर्ण वक्तव्य देते कि श्रोता चकित और प्रभावित हो जाता। पत्रिका में भी उनके आलेखों का प्रकाशन होता रहता और चर्चित होता ही था।

26. 1921 में मंदिर के एक हाथी ने उठा कर पटक दिया - सुब्रह्मण्य भारती

विश्व भले ही हमारी उपेक्षा करे
हम कदापि डरे नहीं। हमारे सिर पर आकाश भी गिर जाएँ तब भी भयभीत नहीं होंगे।

उनकी आमदनी बहुत अधिक नहीं हुई थी पर भारतीजी एक स्थिर और अपेक्षाकृत ठीक-ठाक जीवन बिता रहे थे। इस घर में रहते हुए वे सुबह कई बार पार्थसारथी मंदिर जाया करते थे। जिस तरह भक्त प्रसाद चढ़ाने के लिए केले-नारियल आदि ले जाते वो भी ले जाते। फर्क इतना ही होता कि उनकी टोकनी का केला नारीयल मंदिर के प्रांगण में बँधे बड़े से गजराज के लिए होता। भारती उस गजराज को सहोदरा (भाई) शब्द से संबोधित भी किया करते थे। अपनी कविता में पशु, पक्षी, मानव तीनों को एक जाति का ही बताया था। सो वो हाथी को जब खाने को देते और एकपक्षीय संवाद करते तो कोई आश्चर्य नहीं था।

सन 1921 के जून का महीना था। भारतीजी अपनी आदतानुसार प्रसाद लेकर गजराज के पास जा पहुँचे थे। वो अपनी धुन में तो रहा ही करते थे, सो शायद ध्यान नहीं दिया कि हाथी पर मद सवार है। वहाँ कोई उन्हें रोक पाए तब तक एकदम करीब चले गए। भारतीजी तो हाथी की सूँड़ से लिपट कर उससे बातें भी किया करते थे। इसलिए उनके मन में कोई संशय आने का सवाल भी पैदा नहीं होता। उनके बढ़े हुए हाथों में प्रसाद देख कर अपनी सूँड़ आगे बढ़ाकर कदम भी बढ़ा दिए। पर सूँड़ से उन पर वार कर उन्हें गिरा दिया, वो उसके पैरों के बीच बेहोश पड़े थे। अगर उस हाथी ने अपना एक पग भी उनके ऊपर रख दिया होता तो उसी क्षण उनके प्राण चले जाते। पर उस विशाल गजराज को न जाने क्या हुआ कि वो एक दम शांत, स्थिर खड़ा रहा। मानों अपने प्रतिदिन के मित्र की ये अवस्था कर के पछता रहा हो।

इस घटना की सूचना आग की तरह तिरूवल्लीकेनी में फैल गई। भीड़ भी काफी जमा हो गई थी। पर किसी को साहस नहीं हुआ कि हाथी के पैरों के बीच से भारती को सही सलामत निकाल लाए। तभी वहाँ भारतीजी को अत्यंत स्नेह करने वाले भक्त कृष्णन आए और आगा-पीछा सोचे बिना, अपनी जान की परवाह किए बिना छलाँग लगा दी। भारती को सावधानी से निकाल कर गोद में बच्चे की तरह उठा कर ले आए। पूर्व में भी इन्होंने एक बार पुदुचेरी में भारती की जान की रक्षा की थी। भारतीजी ने उनके निस्वार्थ सेवाभाव को जान कर उनकी प्रशंसा में कविता लिखी थी। उस कविता के लिए मानो धन्यवाद ज्ञापन की तरह इस घटना में भी तारकनाथ (बचानेवाला) कृष्णन ही रहे।

भारती को पूरे शरीर पर चोट लगी थी। कुछ अंदरूनी चोट भी थी और कही-कही से रक्त भी निकला था। ऊपर के होंठ पर हाथी के दाँत के निशान थे और सिर पर तेज वार हुआ था। अपने गंजेपन को छुपाने को सदैव बड़ी सी पगड़ी (साफा) पहना करते थे, उसी से घातक वार का असर कुछ कम हो गया था। तब तक म. श्रीनिवासचार्य व अन्य साथी व मित्र आ गए थे। गाड़ी में रायपेठ अस्पताल ले जाया गया। कुछ दिनों तक काफी तकलीफ रही, पूरे बदन में दर्द भी रहा। ठीक और स्वस्थ हो जाने पर अपने एक आलेख (स्वदेशमित्रन में) में उन्होंने लिखा 'गजराज भूल गए कि वो कौन हैं इसीलिए गिरा दिया। यदि पहचान लेता तो गिराता नहीं और उसका मकसद अगर कष्ट देने का होता तो नीचे गिरे व्यक्ति को उठा फेंकने या कुचलने में उसे वक्त ही कितना लगता। गलती हो गई उसके बाद शांत चित्त खड़ा रहा, जिसका अर्थ था उसका मेरे प्रति स्नेह।'

27. 11 सितंबर 1921 को कवि सम्राट का निधन - सुब्रह्मण्य भारती

'जीसस को क्रॉस पर चढ़ा कर मारा। श्रीकृष्ण की जहरीले बाण से हुई। श्रीराम नदी में गिर कर अदृश्य हुए पर मैं इस दुनिया में सदा जीवित रहूँगा तुम ये देखोगे।'

अगस्त में भारती इरोड में ही कई जगह गए और सभाओं में वक्ता की हैसियत से वक्तव्य देते रहे। पत्रिका में उनके वक्तव्य व सभाओं के समाचार प्रकाशित होते। इससे भारती और उनके साथी आश्वस्त हो गए कि हाथी वाले हादसे के बाद वो उबर गए हैं और उस हादसे से कोई खतरा शेष नहीं है। जून में हादसा हुआ था और जुलाई-अगस्त में स्वस्थ होकर कार्यालय गए। इसके अलावा भजन मंडली में शरीक हुए। पत्नी और बेटी को एक महिला सभा के कार्यक्रम में छोड़ने भी गए।

जिस समय यह दुर्घटना हुई अर्जुन (उस हाथी का नाम) की उम्र मात्र चालीस वर्ष थी। इसके बाद दो वर्षों बाद अर्थात 1923 में उसकी मृत्यु हो गई।

शायद यमराज ने हाथी द्वारा संकेत दे दिया था, और उनका कुछ समय स्वस्थ रहना मात्र छलावा था। सितंबर 1921 को उन्हें आँव के दस्त लगे, पेचिश हो गई जिसका जोर इतना अधिक था कि उनका कमजोर शरीर उसे सह नहीं पाया। कार्यालय से एक व्यक्ति उन्हें मिल कर स्वास्थ्य का पता लगाने आया था। उसने भारती से ये पूछा कि तबीयत सही होकर अंदाज से कब तक कार्यालय आ पाएँगे। भारतीजी ने ना जाने मन में क्या हिसाब लगाया, क्या सोचा बोल दिया कि 'सोमवार दि. 12 को पक्का आ जाऊँगा।' सितंबर 12 को उनका पार्थिव देह चिता पर रखा गया था।

भारती के अनेक साथियों को उनकी खराब तबीयत की सूचना कुछ देर से पहुँची थी। इनमें से एक व.वे.सू. अय्यर, जिनके नाम से किसी और के लिखे लेख के लिए हाथ में हथकड़ी के साथ पुलिस सिपाहियों की निगरानी में उनसे मिलने आए। उस दिन 11 सितंबर थी। भारती की बिगड़ी हालत देख कर चिंतित और गंभीर स्वर में कहा जिसमें स्नेह का पुट भी था - 'भारती, तुम दवाइयाँ खा नहीं रहे हो फिर ठीक कैसे होओगे?' उन्होंने काफी कुछ समझाया।

नेलैयप्पर, नीलकंठ ब्रम्हचारी, लक्ष्मण अय्यर आदि और कुछ रिश्तेदार भारती की देखभाल के लिए वहीं रहे। एक नामी होम्योपेथ चिकित्सक जानकीराम को बुला कर लाया गया। पर उनसे चिकित्सा करवाना तो दूर भारती चिकित्सक पर ही भड़क उठे - 'किसने कहा मेरी तबीयत ठीक नहीं है? मैं एकदम ठीक हूँ, पता नहीं कौन आपको बुला कर लाया! मुझे अकेला छोड़ दीजिए बस।'

इसी प्रकार पड़ोसी के यहाँ से एक बूढ़ी दादी भारत को देख कर बड़े स्नेह से समझाने लगी। बस कवि महाशय भड़क उठे - 'सबने मिल कर मुझे परेशान करने की साजिश रच रखी है। मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं ठीक हूँ।

वैद्य ने 11 सितंबर की तारीख को खतरे का निशान माना था। उनके बचने की उम्मीद तो एक तरह से खत्म हो चुकी थी। वैद्यजी के अनुसार दी तारीख की रात पूरी होने में भी संशय था। संध्या को दीपक जलाने के समय भारी मन से शकुंतला उनके कमरे के बाहर बैठ गई। मन में भय का तांडव मचा हुआ था। तभी उसकी माँ चेल्लमा उसको सहलाते हुए बोली - 'हम लोगों का कहना सुनते ही नहीं हैं न दवाई लेते हैं। ऐसा करो तुम जाकर दवाई दो, शायद तुम्हारे हाथ से ले लें।'

शकुंतला ने अपनी पुस्तक में लिखा है - 'कमरे में मद्धम सा एक बल्ब जल रहा था, जिससे प्रकाश नहीं के बराबर था। उनके पास एक गिलास में बारली का पानी (जौ का) रखा था। मुझे लगा वही दवाई है और मैंने वो गिलास उन्हें दिया। दवाई के लिए मना करते हुए उस गिलास का द्रव्य जरा सा मुँह में डाला। बोले - ये दवाई नहीं है, पापा। बस उसके बाद श्रांत होकर आँखें बंद कर लीं। थके हुए पिता को जगा कर दवाई देने की इच्छा नहीं हुई। कमरे से बाहर निकली और पास के कमरे में लेट गई। शायद मेरी नींद लग गई थी।'

11 सितंबर 1921 की रात को भारती के मित्र चिंता में डूबे हुए थे। अचानक भारती बोले - 'अमान उल्ला खान पर एक आलेख तैयार कर कार्यालय ले जाना है।' अमान उल्ला खान उस समय अफगानिस्तान के राजा थे। प्रथम महायुद्ध में उन्होंने जर्मनी का साथ दिया था, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनसे नाराज थी। खराब स्वास्थ्य के चलते पिछले कई दिनों से वो कार्यालय भी नहीं गए थे। अचेतावस्था में, मृत्यु के मात्र दो घंटे पूर्व, बोला गया यह वाक्य उनका अंतिम वाक्य था।

उनके मित्र लगातार उनको जाँच रहे थे और आश्चर्य कर रहे थे कि ये वही भारती महान कवि हैं जिन्होंने मनुष्य को अमरत्व पर भाषण दिया था। 'काल को तो वो घास के तिनके की तरह समझते थे और कहते कि मेरे पास आकर तो दिखा मैं पैर से दबा कर कुचल दूँगा।'

इनसान कितना भी चाहे या प्रयत्न कर ले पर काल से वो हारता ही है। भारती के साथ महानता के किस्म-किस्म के पदक लगे पर आखिर काल के सामने एक इनसान ही तो थे। रात के 1.30 बजे उनके प्राण ने उनके शरीर को छोड़ दिया और उनकी पवित्र-सच्ची आत्मा महाप्रयाण के लिए निकल पड़ी।

सुबह होने तक भारती के शेष मित्रों को दुखद समाचार दिया गया। बाकी के मित्र ए दुरैस्वामी अय्यर, हरीहर शर्मा, ईसाई पास्टर यदिराज, सुरेंद्रनाथ आर्य, म.श्रीनिवासचार्य, एस.तिरूमलाचार्य, कु. कृष्णन आदि रात से वही थे। इस परिवार की समय-समय पर मदद करने वाले दुरैस्वामी अय्यर ने इस समय भी बहुत मदद की। उनका वजन वैसे भी अधिक तो कभी नहीं था पर पिछले कुछ समय से अस्वस्थ रहने से उनका वजन बहुत ही कम हो गया था। उन सबको दुख इस बात का था कि एक महान देशभक्त, राष्ट्रकवि की अंतिम क्रिया में मात्र बीस व्यक्ति थे। अग्नि को सौंपने के पहले आर्य ने भारती से संबंधित एक वक्तव्य दिया और नलैयप्पर ने उनके आखिरी दिन का विवरण दिया।

भारतीजी की दोनों पुत्रियाँ ही थी, पुत्र संतान न होने से चिता में अग्नि देने का कार्य कौन करे, ये प्रश्न उठा। भारतीजी बोलने की स्थिति में होते तो बोल पड़ते कि मेरी सुपुत्रियाँ किसी बेटे से कम नहीं हैं, वहीं देंगी। एक शताब्दी पूर्व के भारत में वो ऐसा सोचने और कर के दिखाने वाले व्यक्ति थे। उन दिनों विधवा के बाल साफ कर दिए जाते थे पर भारती की पत्नी ने भी ऐसा नहीं होने दिया। बहरहाल उनकी चिता में उनके दूर के रिश्तेदार वी. हरीहर शर्मा ने आग दी और बाकी कर्मकांड भी पूरे किए।

कई सौ सालों में भारतीजी जैसी मेधा वाला व्यक्ति पैदा होता है। इस बात को उनके कुछ मित्रों ने ही समझा। तमिलनाडु का दुर्भाग्य था कि उन्होंने ना भारती को समझा ना उनके व्यक्तित्व को पहचाना। अगर पहचान लेते तो शायद, शायद उन्हें दरिद्रता, निराशा और कुंठाओं में जीकर अपनी जान इतनी शीघ्रता से नहीं गँवानी पड़ती। मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र 38 वर्ष 9 माह थी। जब स्वामी विवेकानंद का 39 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया था तब भारतीजी को बहुत बुरा लगा था। वो कहते थे कि स्वामी विवेकानंद जैसे महान आत्माओं से ही भारत का युवा वर्ग सही राह पर चलेगा और मानसिक तथा शारीरिक रूप से ताकतवर होगा। दोनों महान आत्माओं में ये समानता थी कि दोनों 39 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए। दूसरी समानता ये थी कि भारती भी अपनी लेखनी से युवा वर्ग में जोश, प्रगतिशील विचार, राष्ट्रभक्ति का जज्बा पैदा कर रहे थे।

28. भारतीजी के बाद - सुब्रह्मण्य भारती

'हमें गर्व है अपने देश भारत पर। हम मशीनरी बनाएँगे और अच्छे कागज भी। विद्यालय महाविद्यालय ही नहीं उद्योगों का निर्माण भी करेंगे।
हम विनाश की राह नहीं अपनाएँगे
सच्चाई से बँधे रह कर महान कार्य करेंगे।
हम अपने देश भारत पर गर्व करेंगे।'

जन्म से कोई श्रेष्ठ या महान नहीं होता। अपितु जीवन की राह में उनके किए गए कर्म उन्हें महान और श्रेष्ठ बनाते हैं। अपेक्षाकृत छोटे जीवन में जो व्यक्ति अपनी पहचान, ख्याति और श्रेष्ठता का दर्जा पा ले तो यह एक महत्वपूर्ण घटना है। भारतीजी ने अपने लघु जीवनकाल में ऐसा ही कुछ कर दिखाया। जब तबीयत बिगड़ी हुई तो उन्होंने सोचा था सुधर जाएगी। यहाँ तक कि 'स्वदेशमित्रन' कार्यालय में संदेशा भी पहुँचाया था कि दि. 12 सितंबर सोमवार को वो पहुँच जाएँगे। विधि ने काल का ऐसा खेल रचा कि उस दिन वो अपने सूक्ष्म रूप में परिवर्तित हो गए।

'स्वदेशमित्रन' दैनिक में, 'दक्षिण भारत के कविश्रेष्ठ श्री सुब्रमण्यम भारती का देहांत' शीर्षक से समाचार प्रकाशित हुआ। उसी दिन दैनिक का दूसरा अंक भी प्रकाशित हुआ, जिसमें भारतीजी का विस्तृत परिचय देते हुए समाचार भी विस्तार से प्रकाशित हुआ।

'हिंदू' दैनिक में उप संपादकीय में उनकी मृत्यु का हवाला देते हुए लिखा - ''वर कवि (अर्थात ईश्वर से कवित्व का वर प्राप्त किए हुए) श्री सुब्रमण्यम भारती के अकाल मृत्यु से देश ने एक स्वस्फूर्त पैदाइशी कवि एवं देशभक्त को खो दिया। इस हानि की पूर्ति होना लगभग असंभव है।''

कुछेक शोक सभाएँ हुई। कहीं उनके प्रशंसक शोक में डूबे हुए थे। उन्हें गुरु मानने वालों में से एक कनक लिंगम (हरिजन, जिन्हें भारती ने बाकायदा मंत्रोच्चार और होम-हवन के साथ जनेऊ धारण करवाया था) स्वयं को बिन गुरु के दीन-हीन मानने लगे। अनेक लोगों ने दैनिकों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।

दूरदृष्टि और दीर्घ दृष्टि और अपने समय से आगे की सोच रखने वाले महान लोगों के साथ अधिकांश यही होता है। उनके जीवित अवस्था में उनकी उतनी कद्र नहीं होती जितनी होनी चाहिए। भारतीजी के साथ भी यही हुआ। आलेखों व श्रद्धांजलि के रूप में अनन्य लोगों की भावनाएँ काफी समय तक पत्र-पत्रिकाओं में, पत्रों में प्रकाशित हुई। भारतीजी अपनी सारी रचनाओं को पुस्तकाकार में देखने को उत्सुक थे। इसके लिए एक योजना भी बनाई थी। पर उनके जीवन काल में बहुत कम प्रकाशन हुआ। अधिकांश पुस्तकें मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुईं। उनकी अँग्रेजी भाषा की पुस्तकें भी तभी प्रकाशित हुई।

प्रकाशन के कार्य में उनके कई साथी व परिवार के लोग आगे आए और अपनी-अपनी तरह से सहायता की। भारती ने छोटे से जीवन काल में ही अपने लेखन को चालीस (40) पुस्तकों में बाँट कर प्रकाशन करवाने का सोच रखा था। पर उनकी वो इच्छा उनकी मृत्यु के बाद भी पूरी नहीं हुई।

भारतीजी का 'देशीय गीतंगल' 1928 में जब प्रकाशित हुआ तो उसी साल पहले जब्त हुआ। कोर्ट में बहस चली। बहस के दौरान जब संग्रह के कुछ गीत, राग और लय के साथ गाए गए और शेक्सपीयर और भारती की समानता होने लगी। 1929 में जब्ती का आदेश वापिस लिया गया और हर प्रति पर इस बाबत स्टांप लगा आदेश छपा। भारती को कुछ ने महाकवि मानने से इनकार भी किया। पर एक अच्छा कवि जरूर कहा। बहरहाल वो जनप्रिय कवि अवश्य थे और जनता की माँग थी कि उनकी याद को चिरस्मरणीय बनाया जाए। जब जनता की भावना उफान पर हो तो सरकार झुक जाती है। सितंबर 1945, भारती की पुण्यतिथि को भारती के जन्मस्थान पर 'भारती-मंडपम्' के लिए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) ने नीव का पत्थर रखा। ये वही राजाजी थे जो भारती का परिचय तमिलनाडु के श्रेष्ठ कवि के रूप में महात्मा गांधी से करवा सकते थे। यदि उस दिन परिचय करवाते तो शायद भारती का बाद का जीवन तनिक आशाओं से भरा खुशहाल होता। जिससे तमिल जनता का आत्मविश्वास बढ़ जाता और भारती पर गर्व भी बढ़ जाता। 'भारती मंडपम्' के लिए 'कलकी' पत्रिका के रा. कृष्णमूर्ति ने अपनी पत्रिका में पहल की थी। 'कलकी' चेन्नै से निकलने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका है जो वर्तमान में भी प्रकाशित हो रही है। कृष्णमूर्ति एक उदार, सहृदय समाजसेवी भी थे।

तमिल जनता ने इस उद्देश्यों के लिए जी खोल कर धन दिया। 1948 में पश्चिमी बंगाल के गवर्नर के रूप में कार्य कर रहे राजाजी ने ही इसका उद्घाटन किया। इस उत्सवी कार्यक्रम में चेन्नै से प्रतिनिधि दल एक सजी हुई स्पेशल ट्रेन में भारती की फोटो के साथ शामिल होने के लिए गए। राजनीति के हर दल के आदमी वहाँ उपस्थित थे और आपस में घुल मिल रहे थे। बंगला कलाकार हरीपद राय का बनाया भारती का चित्र तथा भारती की कुछ कविताओं की उनकी हस्तलिपि प्रति की छायाप्रतियाँ तथा उनकी प्रतिमा का भी अनावरण हुआ। इसकी देख-रेख के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया और प्रति वर्ष उनकी पुण्यतिथि पर 'भारती संगम' यहाँ बड़ा कार्यक्रम आयोजित करता है।

भारती मात्र तमिलनाडु के लाड़ले बन कर ही नहीं रह गए। इनकी कीर्ति देश के अन्य भागों और विदेशों में भी फैली। उनके जीवन काल में भी अनेक विदेशी ज्ञानियों ने उनकी कविताओं की भरपूर प्रशंसा की। आंध्र प्रदेश में इनकी कविताओं और गीतों का तेलुगू अनुवाद गाया और सराहा जाता है। आयरलैंड के महाकवि एच. कसिंस, जापान की राजधानी टोकियो में 'इंपीरीयल यूनिवर्सिटी' में अँग्रेजी के प्राध्यापक थे। इन्होंने भारती के कुछ गीतों का अँग्रेजी अनुवाद कर विदेशियों को अचंभित और आकर्षित किया। फ्रेंच में भी कुछ अनुवाद हुए हैं। स्वयं राजाजी ने कुछ कविता और गीतों का अँग्रेजी अनुवाद कर 'यंग इंडिया' में प्रकाशित करवाया। संस्कृत व हिंदी में भी कुछेक अनुवाद हुए हैं।

बिहार के एक कवि महेश नारायण सिंह चेन्नै के 'हिंदी प्रचार सभा' में कार्यरत थे। 1950 में उन्होंने हिंदी में कुछ अनुवाद किए और 'दक्षिण भारत', 'हिंदी प्रचार पत्रिका' आदि में प्रकाशित किए। विद्वान तथा हिंदी प्रेमी दक्षिण भारतीय आर.शौरीराजन ने भारती के गीत-कविताओं का अनुवाद हिंदी की गरिमामयी पत्रिका 'नवनीत' में प्रकाशित करवाए। साथ ही भारती पर कुछ आलेख लिख उन्हें भी प्रकाशित करवाया।

पूर्णम सोमसुंदरम ने भारती पर आलेखों को रूस की जनता के लिए रूसी में अनुवाद किया।

साहित्य अकादमी ने भारती के गीतों के संग्रह को हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में निकाला। नेशनल बुक ट्रस्ट ने नेहरू बाल पुस्तकालय के लिए सचित्र भारती चरित्र का निर्माण अनेक भारतीय भाषाओं में किया। यह एक आवश्यक कदम था। जिस महान कवि की प्रशंसा विदेश में हो रही हो उससे देश के विभिन्न हिस्सों की जनता परिचित न हो तो अनुचित होगा।

कविकोकिला सुश्री सरोजिनी नायडू ने भारती के लिए बहुत सुंदर उक्ति कही है - 'भारती भाषा की हदों को पार कर चुके हैं, वे तो संपूर्ण मानव समाज के साझा जायदाद हैं।

1960 में भारती पर टिकट निकाले गए। कडैयम में अलग घर जहाँ रहते थे, उसे नगर निगम का पुस्तकालय व वाचनालय बना दिया गया है। लोग बड़ी तादाद में वहीं पढ़ने व किताबें घर ले जाने आते हैं।

इतना सब होने पर भी अगर हम उन्हें गहराई में, चौड़ाई में, विस्तार में या परिपूर्णता से नहीं समझ पाएँ तो शायद उनके विविध आयामों के साथ उनकी संपूर्णता को नहीं समझ पाएँगे। तब उनको सही पीढ़े पर बैठाकर गर्वित भी नहीं हो सकेंगे।

मात्र 39 वर्ष की आयु में भारती ने पार्थिव देह त्याग दिया था। इतनी सी कालावधि में उन्होंने नए शब्द गढ़े, नया रस पैदा किया और मठों और राजा-जमींदारों से एक तरह से छुड़ाकर क्लिष्ठ तमिल को सहज-सरल-सरस जनप्रिय और लोकप्रिय बनाया। तमिल को पुर्नजीवित करने में भारती का सहयोग तमिलभाषी और तमिल साहित्य प्रेमी कभी भुला नहीं सकते।

29. उपसंहार - एक प्रस्फुटन - सुब्रह्मण्य भारती

पुस्तक का प्रकाशन एक छोटा सा सपना होने की तरह होता है। एक लेखक के लिए लेखनी द्वारा अपने विचार, अपनी सोच, सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने का यही तो माध्यम होता है। एक गृहिणी के दायित्व के साथ-साथ इस दायित्व को पूरा करने में लंबे अरसे से लगी हुई थी।

स्त्री अपने उदर में गर्भ धारण नौ महीने तक करती है। इन नौ महीनों में वो खुशी, पीड़ा, व्यग्रता, चिंता और भी न जाने कितने एहसासों से गुजरती है। वही हाल एक लेखक का भी होता है। सुब्रमण्यम भारती के बारे में अधिक जानने की इच्छा मेरे मन में कई वर्षों पूर्व आ चुकी थी। जब केंद्रीय विद्यालय में बेटे अनिरुद्ध को दाखिला दिलाया था। वहाँ सर्वधर्म प्रार्थना में भारतीजी की 'ओडी विलैयाडु पापा' को पढ़कर मन की जिज्ञासा बढ़ती गई। एक ऐसे माहौल में जहाँ छात्र-छात्राओं को मशीनरी रोबोट की तरह स्कूल-कोचिंग कक्षाओं के बीच संचालित किया जाता है वहाँ तो भारतीजी की बच्चों के प्रति सोच बहुत मायने रखती है।

एक नन्हीं चिनगारी के रूप में मन में दबी यह इच्छा पिछले कुछ वर्षों पहले कुछ प्रस्फुटित हुई। जिसकी प्रतिक्रिया हुई भारती के जन्म-स्थान एटैयापुरम, चेन्नै, पांडिच्चेरी की अनेक बार यात्राएँ। अनेक लोगों से संभाषण, संदर्भ पुस्तकों का क्रय, वहाँ के पुस्तकालयों में जाकर कुछ अध्ययन। वास्तव में ये सारी क्रियाएँ इतनी भाने लगीं थीं कि अधिक से अधिक जानकारी लेने में ही दिली खुशी होने लगी। जब मन खुशी से या एक तंद्रा के तहत हो जाता है तो एकबारगी उसे जगाना पड़ा कि असली मकसद क्या था; किस कारण इन कार्यों की ओर रुख किया। तब जाकर लगभग तीन वर्ष पहले इसे प्रारंभ किया। कई रुकावटों, अड़चनों के बाद जब यह संपूर्ण हुआ तो दो एहसास एक साथ मन में आए। एक तो मकसद पूरा होने की प्रसन्नता, दूसरा भारतीजी से सतत संपर्क टूट जाएगा, इस बात का दुख। पर देर सबेर ये तो होना ही था। यदि इस समय इस कार्य की इतिश्री नहीं करती तो शायद यह कभी पूर्ण होता ही नहीं।

इस कार्य को संपूर्ण कटिबद्धता एवं चाह के साथ संपन्न करते हुए भी कई बातों की कमी खल सकती है। लिखते-लिखते मेरे मन कों कई बार लगा कि ओह, ये बात तो रह ही गई, या इसका उल्लेख करना था। ऐसे अवसरों पर निशान लगा कर कागज की पर्चियों पर लिख कर भेजती और मेरी गुणी टाइपिस्ट उन्हें सही तरह से टंकन कर देती। इसके बावजूद भी कहने को कुछ रह ही जाता होगा और इसी छूटे हुए की ओर पाठक की जिज्ञासा सिर उठाए तो आश्चर्य नहीं।

हिंदी भाषा ने मुझे साहित्यिक वातावरण देकर साहित्य के प्रति रुझान पैदा किया। हिंदी भाषी लोगों को दक्षिण भारत के कुछ पहलुओं से अपनी कहानियों द्वारा जानकारी देती रही हूँ। मेरी इसी भली मंशा के तहत एक महान चिंतक, प्रगतिशील राष्ट्रभक्त, कवि के जीवन से परिचित कराने जा रही हूँ।

इस समय मन में भावनाओं का उफान सा आया हुआ है। अपने पूर्वजों खास कर अपने स्वर्गीय माता-पिता का स्मरण करती हूँ तो लगता है कि मेरे इस प्रयास से बहुत प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रहे हों।

उपसंहार में अपने मन की संपूर्ण भावना और सोच को संक्षेप में कह कर धन्यवाद ज्ञापन भी कर रही हूँ।

सर्वप्रथम श्री एस.वी. सुब्रमण्यमन का जिन्होंने तीन वर्ष पूर्व एटैयापुरम, वहाँ का राज महल, पुस्तकालय आदि में मेरी सहायता के लिए अपने साथियों से बात कर ली थी। पिछले वर्ष चेन्नै, पांडिचेरी की यात्रा में विद्वान वक्ता एवं भारतीजी पर जिन्होंने बहुत कार्य किया था, आदरणीय श्रीमान मु. श्रीनिवासन जिन्होंने प्रसन्नता से इस शुभ कार्य के लिए मदद और आशीर्वाद दिया। अमेरीका में मेरे बड़े भाई साहब श्रीनिवास अय्यर के खास दोस्त श्री गोपाल सुंदरम का जिन्होंने पितृसम आदरणीय मु. श्रीनिवासन से भेंट करवाई।

इसके अलावा धन्यवाद ज्ञापन देना होगा, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली के श्री देवदत्त शर्मा (आर्य) का जिन्होंने सहर्ष प्रकाशन का जिम्मा निभाया। वरना सारी मेहनत धूल खाती पड़ी रहती।

इस पुस्तक के हर अध्याय के प्रारंभ में भारती की कविता का भावानुवाद दिया गया है। भारती जैसे महान कवि जिनकी रचनाओं का अथाह सागर है! हर मौके, हर व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ उक्ति इस सागर में समाई हुई है। मेरे लिए इनको ढूँढ़ना लगभग असंभव और भूसे के ढेर में सुई ढूँढ़ने के समान होगा।

मेरे मित्र श्री वी.एस. सुब्रमण्यमन पेशे से सी.ए. हैं और इंदौर शहर में जाना हुआ नाम है। तमिल साहित्य के शौकीन और जानकार। इन्होंने इस महती कार्य को पूरा किया। इन्हें धन्यवाद देकर एक पारिवारिक उदार मित्र को खोना नहीं चाहती। पर अपनी कृतज्ञता न दिखाकर कृतघ्न भी नहीं होना चाहती।

30. संदर्भ पुस्तकें - सुब्रह्मण्य भारती

लेखिका यदुगिरी अम्माल की 'भारतीयार निनैवुकल' (भारतीजी की यादें)
लेखक रा.अ. पद्मनाभन 'चित्रभारती' का 'एटैयापुरम तंगम' (एटैयापुरम का स्वर्ण)
श्रीमती शकुंतला भारती (भारतीजी की छोटी पुत्री) की 'एन तंदै' (मेरे जन्मदाता या पिताश्री)
व.रा. राघवन - महाकवि भारतीयार
मु. श्रीनिवासन की कुछ पुस्तकें - खास कर 'भारतीयीन पारवैयिल' (भारती की नजरों में) विश्व के कवि एवं नेता

31. विशेष परिशिष्ट - सुब्रह्मण्य भारती

11 दिसंबर 1882 में जन्म
सन 1887 में माँ का देहांत
सन 1889 में पिताश्री का दूसरा विवाह तथा विमाता का आगमन
सन 1893 में भारती की उपाधि
सन 1894 में नौंवी कक्षा की शिक्षा पूर्ण तथा विद्वानों से चर्चारत
सन 1897 में 14 वर्ष की आयु में विवाह
सन 1898 पिता की मृत्यु, बुआ के साथ काशी प्रस्थान
सन 1902 मैट्रिक की शिक्षा पूर्ण, हिंदी, संस्कृत विशेष योग्यता
1902-1903 एटैयापुरम जमींदार के बुलावे पर वहाँ जाकर दरबारी कवि की नौकरी
सन 1903 भारती की प्रथम कविता मदुरै की पत्रिका 'विवेक भानु' में प्रकाशित
सन 1904 (1 अगस्त से 10 नवंबर तक) मदुरै के सेतुपति हा.से. स्कूल में अध्यापन
सन 1904, 11 नवंबर चेन्नै में 'स्वदेशमित्रन' में सहायक संपादक तथा दूसरे मासिक 'चक्रवर्धिनी' में प्रभारी रहे।
1905-06 देश की राजनीति में जोशखरोश के साथ प्रवेश, बंग बँटवारे का विद्रोह, व.उ. चिदंबरम से संबंध, दादाभाई नौरोजी के सभापतित्व में कलकत्ता में हुए काँग्रेस अधिवेशन में जाना। लौटते हुए निवेदिता देवी से मिल कर आना।
1907 - 'इंडिया' पत्रिका का उदय, भारती संपादक। एक अँग्रेजी पत्रिका 'बाल भारतम्' का प्रभार भी।
सूरत अधिवेशन में जाना। बाल गंगाधर तिलक से मिलना और प्रभावित होना। अरविंद घोष, लाला लाजपत राय आदि से परिचय। श्री वी.कृष्णस्वामी द्वारा 'स्वदेश गीतंगल' नाम से भारती की तीन कविताओं का चार पृष्ठ की पुस्तिका में प्रकाशन और विनियोग।
सन 1908 'स्वदेश गीतंगल' का पुस्तकाकार में प्रकाशन। तिलक के अनुयायी के रूप में तीव्रवादी के रूप में कार्य संपादन। पूरे देश में स्वराज्य दिवस मनाया जाता है। चेन्नै में भारतीजी इसका नेतृत्व करते हैं।
'इंडिया' पत्रिका में वीर रस के गीत व आलेखों तथा कार्टून द्वारा ब्रिटिश राज्य के खिलाफ विद्रोह का डंका बजाते हैं। जिससे पुलिस की नजर में रहते हैं। साथियों की सलाह और उनकी बात मान कर पुदुचैरी को प्रयाण।
सन 1908 'इंडिया' का प्रकाशन पुदुचैरी से। पत्रिका की आग उगलती और उद्वेलित भाषा जनता को विद्रोह के लिए उकसाती है और उनमें नई जान भी डालती है।
सन 1909 भारती का दूसरा कविता संग्रह 'जन्मभूमि' प्रकाशित होता है।
सन 1910 'विजया' दैनिक, 'सूर्योदयम' साप्ताहिक, 'बाल-भारतम्' अँग्रेजी साप्ताहिक, 'कर्मयोगी' मासिक सभी के प्रकाशन में अनेक तरह की बाधाएँ आ रही थीं। इसी बीच 'चित्रावली' का तमिल-अँग्रेजी में प्रकाशन की सूचना दी गई थी। पर शायद वो प्रकाशित हो ही नहीं पाई।
सन 1910 अप्रैल - वेदांतवेत्ता ज्ञानी अरविंद घोष का पुदुचैरी में आगमन।
सन 1910 नवंबर - देव भक्ति तथा देशभक्ति से ओत-प्रोत 'मातामणि वाचकम' प्रकाशित होती है व वे सू अय्यर पुदुचैरी आते हैं।
सन 1911 कलेक्टर एश की वांछीनाथन नामक क्रांतिकारी युवक द्वारा हत्या। भारती, अय्यर, अरविंद आदि पर हत्या में शामिल होने के संदेह में चौकसी बढ़ी।
सन 1912 'भगवत गीता' का तमिल में अनुवाद किया। अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हुई जिनमें पाँचाली शपथम का पहला भाग भी है, जो कि एक अद्वितीय रचना मानी जाती है।
सन 1913-14 - सुब्रमण्यम शिवा की पत्रिका 'ज्ञान भानु' के लिए ऋग्वेद के सूक्त तथा अग्नि से संबंधित गीत लिखते रहे। दक्षिण अफ्रीका के नाटाल में रह रहे भारतीयों के बीच 'माता मणि वाचकम' प्रकाशित हुई। प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। पुदुचेरी में वास कर रहे नेताओं की मुसीबतें दुगुनी हो गई।
सन 1917 चू. नेल्लैअप्पर ने भारती की पुस्तक 'कण्णन् पाट्टु' (कृष्ण के गीत) की पहली प्रति चेन्नै में विमोचित करवाई।
सन 1918 चू. नैल्लैअप्पर ने देश भक्ति के गीतों को लोकगीत के नाम से प्रकाशित किया।
भारती पुदुचेरी से एक तरह से ऊब गए थे सो 20 नवंबर को वहाँ से निकल कर (फ्रेंच आधिपत्य से) ब्रिटिश आधिपत्य में पैर रखा। कडलूर के पास उन्हें कैद कर लिया गया। चौंतीस दिन रिमांड में रखने के बाद चेतावनी व कुछ प्रतिबंधों के साथ उन्हें छोड़ा जाता है।
सन 1918-20 गरीबी की पराकाष्ठा में कडैयम वास। इस बीच 1919 में चेन्नै आकर राजाजी के घर पर गांधीजी से मुलाकात।
सन 1920 'स्वदेशमित्रन' में सहायक संपादक के पद पर कार्यभार सँभाला।
सन 1921 तिरूवेल्लीकेनी के मंदिर में एक हाथी ने उन्हें उठा कर पटक दिया। इसी वर्ष सितंबर में इस चोट से उबर गए पर संग्रहणी रोग की चपेट में आ गए।
11 सितंबर 1921 को उनका रोग बढ़ जाता है। रात 1.30 बजे कवि सम्राट भारती अपना नश्वर शरीर त्याग कर आत्मा में विलीन हो गए।

सुब्रह्मण्यम भारती: अध्याय (1-10)
सुब्रह्मण्यम भारती: अध्याय (11-20)


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