Shaheed Ashfaqulla Khan-Hindi Poetry शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ-हिन्दी कविता

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

हिन्दी कविता शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ
Hindi Poetry Shaheed Ashfaqulla Khan

1. बहार आई शोरिश जुनूने फ़ितना सामाँ की-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

बहार आई शोरिश जुनूने फ़ितना सामाँ की,
इलाही खैर करना तू मेरे जेबो-गिरेबाँ की ।
 
सही जज़बाते हुर्रियत कहीं मेटे से मिटते हैं,
अबस हैं धमकियाँ दारो-रसन की और जिंदां की ।
 
वह गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाख-ए-खुश्क हूँ हाँ-हाँ उसी उजड़े गुलिसतां की ।
 
नहीं तुमसे शिकायत हमसफीराने चमन मुझको,
मेरी तकदीर ही में था कफस और कैद जिंदां की ।
 
करो जब्ते-मुहब्बत गर तुम्हें दावाए-उल्फत है,
खामोशी साफ बतलाती है ये तसवीरे-जाना की ।
 
यूं ही लिखा था किस्मत में चमन पैराए आलम ने,
कि फसले-गुल में गुलशन छूट कर है कैद जिंदां की ।
 
जमीं दुश्मन जमां दुश्मन जो अपने थे पराये हैं,
सुनोगे दास्तां क्या तुम मेरे हाले-परीशां की ।
 
ये झगड़े और बखेड़े मेटकर आपस में मिल जाओ,
ये तफ़रीके-अबस है तुममे हिन्दू और मुसलमाँ की ।
 
सभी सामाने-इशरत थी मज़े से अपनी कटती थी,
वतन के इश्क़ ने मुझको हवा खिलवाई जिंदां की ।
 
(शोरिश=शोरगुल, फ़ितना=मस्ती, हुर्रियत=
स्वाधीनता के उद्गार, अबस=व्यर्थ,
दारो-रसन=सूली और फांसी का तख़्ता,
जिंदां=जेल, हमसफीराने=साथी, कफस=
पिंजड़ा, तस्वीरे-जाना=प्रेमी की तस्वीर,
तफ़रीके-अबस=भेदभाव निरर्थक है,
सामाने-इशरत=सुख के साधन)

2. खुदाया देख ले हम, कैसे निसार हो के चले-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

खुदाया देख ले हम, कैसे निसार हो के चले ।
तिरे ही नाम पे प्यारे, निसार हो के चले ।
 
खराबो खस्ताओ, जारो-नजार हो के चले,
वतन में आह, गरीबुद्दियार हो के चले ।
निशानाए सितमे सदहज़ार हो के चले ।
 
जनाब माफ हो ये गुफ्तगुए बेतासीर,
मुकद्दरात में चलती नही कोई तदवीर ।
Hindi-Poetry-Shaheed-Ashfaqulla-Khan
 
हमारी तरह से हैं, और भी कई दिलगीर,
फिराये देखिए हमको कहाँ–कहाँ तक़दीर ।
असीरे-गर्दिशे-लैलो-निहार हो के चले ।
 
तिरे ही वास्ते आलम में, हो गये बदनाम,
तिरे सिवा नहीं रखते, किसी से हम कुछ काम ।
 
तिरे ही नाम को जपते हैं, हम सुबहो-शाम,
वतन न दे हमें तर्के-वफ़ा का तू इल्ज़ाम ।
कि आबरू पे तेरी हम निसार हो के चले ।
 
(जारो-नजार=रोते, कलपते हुए, गरीबुद्दियार=
देशरहित,बेवतन, लैलो-निहार=रात-दिन)

3. सुनायें गम की किसे कहानी-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

सुनायें गम की किसे कहानी हमें तो अपने सता रहे हैं ।
हमेशा सुबहो-शाम दिल पर सितम के खंजर चला रहे हैं ।
 
न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं ।
 
कहाँ गया कोहिनूर हीरा किधर गयी हाय मेरी दौलत,
वह सबका सब लूट करके उल्टा हमीं को डाकू बता रहे हैं ।
 
जिसे फना वह समझ रहे हैं बका का है राज उसी में मुजमर,
नही मिटाये से मिट सकेंगे वह लाख हमको मिटा रहे हैं ।
 
जो है हुकूमत वह मुदद्ई जो अपने भाई हैं हैं वही दुश्मन,
गज़ब में जान अपनी आ गयी है क़ज़ा के पहलू में जा रहे हैं ।
 
चलो-चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएँ तुमको वहाँ पे लिबरल,
जो चन्द टुकडों पे सीमोज़र के नया तमाशा दिखा रहे हैं।
 
खमोश हसरत खमोश हसरत अगर है जज़्बा वतन का दिल में,
सजा को पहुंचेंगे अपनी बेशक जो आज हमको फंसा रहे हैं ।
 
(बका=बचा हुआ, मुजमर=छिपा हुआ)

4. कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
 
हटने के नहीं पीछे, डरकर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
 
बेशस्त्र नहीं हैं हम, बल है हमें चरख़े का,
चरख़े से ज़मीं को हम, ता चर्ख़ गुंजा देंगे।
 
परवा नहीं कुछ दम की, ग़म की नहीं, मातम की,
है जान हथेली पर, एक दम में गंवा देंगे।
 
उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज़ न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
 
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।
 
दिलवाओ हमें फांसी, ऐलान से कहते हैं,
ख़ूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
 
मुसाफ़िर जो अंडमान के, तूने बनाए, ज़ालिम,
आज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे।

5. वह रंग अब कहाँ है, नसरीनो नसरतन में-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

वह रंग अब कहाँ है, नसरीनो नसरतन में ।
उजड़ा पड़ा हुआ है, क्या खाक है वतन में ।
 
कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू तो यह है,
रख दे कोई जरा-सी, खाके-वतन कफन में ।
 
ए पुखतारे-उलफत, होशियार डिग न जाना,
मेराजे आशकां है, इस दार और रसन में ।
 
था नाराये अनल हक़, और द्वाए-मुहब्बत,
रखा हुआ था और क्या, मंसूरों को हकन में ।
 
मौत और ज़िंदगी है, दुनिया का एक तमाशा,
फरमान कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन मे ।
 
जिसने हिला दिया था, दुनिया को एक पल में,
अफ़सोस क्यों नहीं है, वह रूह अब वतन में ।
 
ऐ ख़ायनीने मिल्लत, ये खूब याद रखना,
हैं बोस और कन्हाई, अब भी बहुत वतन में ।
 
सैयाद ज़ुल्मपेशा आया है जब से हसरत,
हैं बुलबुलें कफस में जागो जगन चमन में ।
 
(जागो=कौवा, जगन=चील, पुखतारे उलफत=
सफल प्रेमी, मेराजे आशकां=प्रेम की चरम
सीमा, दार और रसन=सूली की रस्सी और
तख्ता, ख़ायनीने=ख़ायनत करने वाला)

6. वह असीरे-दामे-बला हूँ मैं, जिसे सांस तक भी न आ सके-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

वह असीरे-दामे-बला हूँ मैं, जिसे सांस तक भी न आ सके ।
वह कतीले-खंजरे जुल्म हूँ, जो न आँख अपनी फिरा सके ।
 
मिरा हिन्दुकुश हुआ हिन्दुकश, ये हिमालिया है दिवालिया,
मेरी गंगा-जनुमा उतर गयी हैं, बस इतनी हैं की नहा सके ।
 
मेरे बच्चे भीख मांगते हैं, उन्हें टुकड़ा रोटी का कौन दे,
जहां जावें कहें परे-परे, कोई पास तक न बिठा सके ।
 
मेरे कोहेनूर को क्या हुआ, उसे टुकड़े-टुकड़े ही कर दिया,
उसे खाक में ही मिला दिया, नहीं ऐसा कोई कि ला सके ।
 
(असीरे-दामे-बला=मुसीबतों में फंसा हुआ, कतीले-खंजरे
जुल्म=अत्याचार की तलवार से घायल,)

7. नहीं अपनी हालत बताने के काबिल-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

नहीं अपनी हालत बताने के काबिल,
नहीं माजरा ये सुनाने के काबिल ।
जुबां तक नहीं हिलाने के काबिल ।
बुजुर्गों का किस मुंह से हम राग गाएँ ।
जब इक गुन भी उनका न अपने में पाएँ ।
किसी को नहीं मुंह दिखाने के काबिल ।
 
चमन में ख़िज़ाँ अपने इठला रही है ।
कयामत गुलो-गुंचो पर आ रही है ।
जमीं चर्ख बनकर सितम ढा रही है,
सुनो रोके बुलबुल ये क्या गा रही है ।
कभी खार था इसका बागे-अदन को,
नज़र हाय किसकी लगी इस चमन को ?
 
शरद अपनी फुलवाड़ी पर आ रही है,
दो पल्लव लता-पुष्प पर ला रही है,
स्व-उपजों को भू भी स्वयं खा रही है।
सुनो रोके कोकिल यह क्या गा रही है,
कभी कांटा था इसका चन्दन के बन को,
नजर खा गई किसकी हा ? इस सुबन को ? 
 
कभी यों न उजड़ा था मसकन किसी का,
न यों जल गया होगा ख़िरमन किसी का।
हरदयाल आता है यूरोप से न पाल आता है,
दिल में रह-रहके बस इतना ख़याल आता है ।
भरने जाते हैं कहीं उम्र के पैमाने को,
हिन्द को छोड़ते हैं रंजोअलम ख़ाने को।
 
बांसासिजीर्णानि यथाविहा,
नवानि ग्रहणाति नरा परानि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्ण,
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।
 
ये सब कुछ सही है, मगर जान तन में,
शरारे हैं कुछ अपने ठंडे अगन में।
लिटे भी तो हाथी लिटेगा कहाँ तक,
समन्दर घटे भी घटेगा कहाँ तक।
बहुत फ़र्क है मुर्दा, मुर्दा-दिलों में,
तफ़ावक है बेजान और बिस्मिलों में ।

8. उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।
 
चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को,
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा।
 
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल,
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा।
 
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़,
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा।
 
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है,
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा।
 
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।
 
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
 
(यह रचना शहीद राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से भी मिलती है)

9. खयाल आता है जिस दम दिल में चुभता है सिनां होकर-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

खयाल आता है जिस दम दिल में चुभता है सिनां होकर,
रहे क्यों कब्जाए अगियार में हिंदोस्तां होकर।
 
शहीदाने-वतन का खून एक दिन रंग लाएगा,
चमन में फूट निकलेगा यह बरगे-अर्गवां होकर।
 
फकत दारो-रसन ही कामयाबी का जरिया है,
मकासिद तक यह पहुंचाएगी हमको निर्दबाँ होकर।
 
नहीं वाकिफ थे मादर और पिदर इस अमरेशुदनी से,
कि आफत में पड़ेंगे उनके बच्चे नौजवां होकर।
 
सता ले ऐ फलक मुझको जहाँ तक तेरा जी चाहे,
सितम परवर सितम झेलूँगा शेरे-नेसतां होकर।
 
करूं मैं इंकलाबे दहर का शिकवा मआज-अल्लाह,
है कुफ्र मुझ पर डरूँ गर जेल में नौजवां होकर।
 
दहलता है कलेजा दुश्मनों का देखकर हसरत,
चला करते हो जब बेड़ी पहनकर शादमाँ होकर।

10. नहीं गरचे अब वे हसरत दिलों में-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

नहीं गरचे अब वे हसरत दिलों में,
वही खून बाकी है लेकिन रगों में।
 
जुनूँ गरचे बाकी नहीं अब सरों में,
मगर आबोगिल है वही हड्डियों में।
 
नहीं गरचे रौनक वे अपने चमन में,
न वो रंग-बू हैं गुले-यासमन में?
 
है मुद्दत से गो अपना सूरज गहन में?
मगर खूं तो है वो भी अपने बदन में ?
 
है अर्ज आज मादर-ए-नाशाद के हुजूर,
मायूस क्यों हैं आप आलम का हैं क्यों वफूर।
 
सदमा यह शाक आलम-ए-पीरी में है जरूर,
लेकिन न दिल से कीजिए सब्रो-करार दूर।
 
शायद खिजां जो शक्ल अयां हो बहार की,
कुछ मसलहत इसी में हो परवरदिगार की।
 
ये जाल ये फरेब ये साजिश यह शोरो-शर,
होना जो है सब उसके बहाने हैं सर बसर।
 
असबाब जाहिरी हैं न उन पर करो नजर,
क्या जाने क्या हो परदये कुदरत से जलवागर।
 
खास उसकी मसलहत कोई पहचानता नहीं,
मंजूर क्या उसे है, कोई जानता नहीं।
 
राहत हो रंज हो कि खुशी हो कि इंतशार,
वाजिब हर रंग में है शुकर-ए-मिर्दबार।
 
तुम ही नहीं हो कुश्तए नेरंगे-रोजगार,
मातमकदे में दहर के लाखों हैं सोगवार।
 
सख्ती सही नहीं कि उठाई कड़ी नहीं,
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं।
 
देखे हैं इससे बढ़के जमाने के इंकलाब,
जिनसे कि बेगुनाहो उमरें हुईं खराब।
 
सोजे दरूं से कलबो जिगर हो गए कबाब,
पीरी मिटी किसी की किसी का मिटा शबाब।
 
कुछ बन नहीं पड़ा जो नसीबे बिगड़ गए,
वे बिजलियाँ गिरीं कि भरे घर उजड़ गए।
 
पड़ता है जिस गरीब पे रंजो-महन का वार,
करता है इनको सब्र अता आप किर्दगार।
 
मायूस होके होते हैं इंसाँ गुनहगार,
यह जानते नहीं वह हैं दाना-ए-रोजगार।
 
इनसान उसकी राह में साबित कदम रहे,
गरदन वही है अमरीरजा में जो खम रहे।

11. किए थे काम हमने भी जो कुछ हमसे बन आए-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

किए थे काम हमने भी जो कुछ हमसे बन आए,
ये बातें जब की हैं आजाद थे और था शबाब अपना।
मगर अब तो जो कुछ भी है उम्मीदें बस वह तुमसे हैं,
जवां तुम हो लब-ए-बाम आ चुका है आफ़ताब अपना।
 
(फांसी से तीन दिन पहले लिखे खत में अपने
भतीजों को लिखा)

12. जमाना बना यूँ न दुश्मन किसी का-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

जमाना बना यूँ न दुश्मन किसी का ?
ख़िज़ाँ से लुटा यूँ न गुलशन किसी का ?
रही एक बुलबुल भी जिसमें न बाकी,
फ़साना जो उजड़े चमन का सुनाती ?
 
हमें खाक में वो मिलाए हुए हैं,
जमाने के रौंदे सताए हुए हैं ।
तनज्जुल के चक्कर में आए हुए हैं,
कि अपने ही घर में पराए हुए हैं।
 
ये सब कुछ सही है, मगर जान तन में,
शरारा है ये अपने ठंडे अगन में ।
(तनज्जुल=पतन)

13. बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा।
 
मौत से वीर को, हमने नहीं डरते देखा,
तख्ता-ए-मौत पै भी खेल ही करते देखा।
 
मौत को एक बार जब आना है, तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है।
 
वतन हमेशा रहे शादकाम, औ' आजाद,
हमारा क्या है अगर हम रहे रहे न रहे।

14. चुनिंदा अशआर-शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

आनी थी हमको मौत सो आई वतन से दूर,
अब देखना ये है कि ये मिट्टी कहाँ की है।
 
... 
बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्तां होगा।
जिंदगी बादे-फना तुझको मिलेगी हसरत,
तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।
 
... 
कौन वाकिफ था कि यूं सर पे बला आएगी,
बैठे बिठलाए हुकूमत यह गजब ढाएगी।
 
... 
तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेबाद से,
चल दिए सूये-अदम जिन्दाने फैजाबाद से।
 
जबकि गैरों से उन्हें इकदम की भी फुरसत नहीं,
फिर वह क्यों मिलने लगे अब हसरते नाशाद से।
 
बाइसे नाज जो थे अब वह फ़साने न रहे,
जिन तरानों में मजा था, वह तराने न रहे।
 
घर छूटा बार छूटा अहले-वतन छूट गए,
माँ छूटी बाप छूटा भाई-बहन छूट गए।
 
अपना यह अहद सदा से कि मर जाएंगे,
नाम माता तेरे उश्शाक में कर जाएंगे।
 

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