सीपी और शंख रामधारी सिंह 'दिनकर' Seepee Aur Shankh Ramdhari Singh Dinkar

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

सीपी और शंख रामधारी सिंह 'दिनकर'
Seepee Aur Shankh Ramdhari Singh Dinkar

झील - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मत छुओ इस झील को।
कंकड़ी मारो नहीं,
पत्तियाँ डारो नहीं,
फूल मत बोरो।
और कागज की तरी इसमें नहीं छोड़ो।
 
खेल में तुमको पुलक-उन्मेष होता है,
लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है।

वातायन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं झरोखा हूँ
कि जिसकी टेक लेकर
विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।
 
पर, नहीं मुझ पर,
झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर
जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।
 
जो घटित होता है, यहाँ से दूर है।
जो घटित होता, यहाँ से पास है।
कौन है अज्ञात ? किसको जानता हूँ ?
 
और की क्या बात ?
कवि तो आप अपना भी नहीं है।

समुद्र का पानी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।
 
ऐसे में सुन्दरी! बेचने तू क्या निकली है,
अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर
सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?
 
सरकार!
और कुछ नहीं,
बेचती हूँ समुद्र का पानी।
 
तेरे तन की श्यामता नील दर्पण-सी है,
श्यामे! तूने शोणित में है क्या मिला लिया ?
 
सरकार!
और कुछ नहीं,
रक्त में है समुद्र का पानी।
 
माँ! ये तो खारे आँसू हैं,
ये तुझको मिले कहाँ से?
 
सरकार!
आँख से झरता है केवल समुद्र का पानी ।
 
यह हदय! और यह कड़वाहट ।
ये दोनों मिले कहाँ पर?
 
सरकार !
बहुत ही कड़वा होता है समुद्र का पानी ।
 
बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।
seepee-aur-shankh-ramdhari-singh-dinkar

 

नाम - रामधारी सिंह 'दिनकर'

तुम कहाँ से आ रहे हो?
नाम क्या है?
वह पुकारु शब्द मत मुझको बताओ,
जो तुम्हारा आवरण है ।
 
पर, कहो वह नाम
जिसको फूल औ’ नक्षत्र, ये कहते नहीं हैं ।
नाम जो असहाय मर जाता उसी दिन
जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं ।
 
तुम जवानी हो?
कि शैशव आप अपना पाठ फिर दुहरा रहा है?
जिन्दगी हो?
या सुनहला रुप धर कर मृत्यु विचरण कर रही है?

कवि और प्रेमी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

प्राप्त है इनको सखे! कुछ ज्ञान भी, अज्ञान भी।
वायु हैं ये,
विश्व के मन को बहा कर
सत्य-सुषमा की दिशा की ओर करते हैं।
मानवों में देवता जो सो रहे, उनको जगाते हैं ।
रात्रि के ये क्रोध हैं,
हुंकार भरते हैं तिमिर में
और हाहाकार करके भोर करते हैं ।
 
आंख के हैं अश्रु कोई भी न जिनको जानता है।
सिन्धु-तट की वह मधुरता हैं
न जो मिटती कभी है ।
 
बालुका पर मनुज के पद-चिन्ह जो पड़ते,
ये जुगा उनको भविष्यत के लिए धरते।

तुम सड़क पर जा रहे थे - रामधारी सिंह 'दिनकर'

तुम सड़क पर जा रहे थे,
मैं बगल की वीथि पर;
तुम बहुत थे तेज,
मेरी चाल अतिशय मन्द थी।
 
और तब मैंने तुम्हें देखा ।
मगर, यह क्या हुआ?
पड़ गये मेरे चरण किस व्यूह में?
पाश था वह कौन जिसमें पाँव मेरे फंस गये?
चेतना यह भी नहीं थी जानती,
मैं तुम्हारे पास हूँ या दूर हूँ?
 
आज भी है वीथि पर मेरे चरण,
आज भी तो तुम सड़क पर जा रहे।
वीथि, लेकिन मन्दतर है मन्द से;
तुम निकलते जा रहे, लेकिन, सुरीले छन्द-से।

काढ़ लो दोनों नयन मेरे - रामधारी सिंह 'दिनकर'

काढ़ लो दोनों नयन मेरे,
तुम्हारी और अपलक देखना तब भी न छोड़ूँगा ।
तुम्हारे पाँव की आहट इसी सुख से सुनूँगा,
श्रवण के द्वार चाहे बन्द कर दो।
चरण भी छीन लो यदि;
तुम्हारी ओर यों ही रात-दिन चलता रहूँगा।
कथा अपनी तुम्हारे सामने कहना न छोड़ूँगा,
भले ही काट तो तुम जीभ, मुझको मूक कर दो।
 
भुजाएँ तोड़ कर मेरी भले निर्भुज बना दो,
तुम्हें आलिंगनों के पाश में बाँधे रहूँगा।
ह्रदय यदि छीन लोगे,
उठेंगी धड़कनें कुछ और होकर तीव्र मानस में ।
 
जला कर आग यदि मस्तिष्क को भी क्षार का दोगे,
रुधिर की वीचियों पर मैं तुम्हें ढोता फिरूंगा ।
(राइनेर मारिया रिल्के-जर्मन कवि)

क्या करोगे देवा जिस दिन मैं मरूँगा? - रामधारी सिंह 'दिनकर'

क्या करोगे देवा जिस दिन मैं मरूँगा?
क्या करोगे जब क्लश यह टूट जाएगा ?
क्या करोगे जब तुम्हारा पेय मैं
नि:स्वाद हूँगा, सूख जाऊँगा ?
 
मैं तुम्हारा अनावरण हूँ
तुम मुझे ही ओढ़ कर सब कार्य करते हो ।
तो कहीं मैं खो गया यदि
अर्थ क्या सारा तुम्हारा शेष रहता है ?
 
मैं नहीं, तो तुम न क्या गृहहीन होगे?
मैं नहीं, तो कौन स्वागत के लिए बैठा रहेगा?
 
मैं तुम्हारी पादुका हूँ;
मैं अगर सोया, तुम्हारी पादुका खो जाएगी ।
पादुका की टोह में दोनों चरण वे श्रांत भटकेंगे,
मगर, तब कौन उन दोनों पदों से लिपट जाएगा ।
 
मैं परिच्छद हूँ तुम्हारे भव्य तन का ।
मैं अगर खोया, परिच्छद स्रस्त यह हो जाएगा ।

और करुणामय तुम्हारी दृष्टि
जो अभी मेरे कपोलों पर विरम विश्राम करती है,
क्या नहीं बेचैन होगी, क्लेश पाएगी
त्लप जब मेरे कपोलों का नहीं होगा?
 
मैं चक्ति हूँ हर घड़ी यह सोच कर
क्या करोगे देव: जिस दिन मैं मरूँगा ।
(राइनेर मारिया रिल्के-जर्मन कवि)

जान सकता हूँ अगर साहस करूं - रामधारी सिंह 'दिनकर'

जान सकता हूँ अगर साहस करूं
श्रृंखला वह जो पवन में, वह्नि में, तूफान में है
और चल उत्ताल सागर में ।
जान सकता हूँ अगर साहस करूं
चेतना का रुप वह जिसमें
वृक्ष से झर का मही पर पत्र गिरते हैं ।
 
वायु में सुराख है,
सर्वत्र ही कब्रें खुली हैं
हम मनुष्यों को गरसने के लिए ।
 
सातवें के बाद
और पहले रंग के पहले
अंधेरा ही अंधेरा है ।
 
शब्द के उपरान्त केवल स्तब्धता है ।
गूँज उसकी जतुक सुनते हैं
कि सुनते मीन सागर के हदय के ।
 
इन्द्रियों को स्पर्श-रेखा के परे
घूमते हैं चक्र अणुओं, तारकों, परमाणुओं के,
जिन्दगी जिनसे बुनी जाती।
 
जिन अगम गहराइयों से भागते हैं,
छोड़ कर उनको कहीं आश्रय नहीं मिलता ।
 
गूँजती शंका जभी जीवन-गुफा में,
गूँज उठता है अमरता के परे का व्योम भी ।
 
और निद्रा में
अमित अव्यक्त भावों के
सहस्रों स्वप्न चलते हैं ।
ये सहस्रों स्वप्न जो अपने नहीं हैं ।

समानांतर - रामधारी सिंह 'दिनकर'

याद आता है सतत वह दूसरा जलयान
एक प्रात:काल जिस पर दृष्टि भूली थी
चीर कर पौ के सुनहले आवरण को।
यों लगा, मानो, अँधेरे की हथेली पर
जगमगाता हो हमारा बिम्ब
अथवा अन्य युग कोई
कि कोई दूसरा जीवन समानांतर
जिसे निज में मिला लेना
कि जिसमें लीन हो जाना सुगम हो ।
 
एक दिन हम थे निकट इतने
कि अपनी डेक पर होकर खड़े
उनके मधुर अभिवादनों की गूँज सुनते थे;
देखते थे उन सहस्रों आननों की रूप-रेखाएँ
धुँधलके में
खड़े जो झिलमिलाते थे समानांतर हमारे
और तब हम मुड़ चले,
मानो, किसी अपराध ने हमको डंसा हो।
 
किन्तु, अब तो
सिन्धु है फैला हमारे बीच
भग्न आशा के अगम अम्बार-सा ।
मिल नहीं सकते कभी हम,
अब नहीं पूरी कभी होगी दरस की लालसा ।

समानांतरों के आनन सुन्दर होते हैं ।
उनमें स्मिति होती है, होता है सम्मोहन,
और निमन्त्रण-सा भी कुछ यह भाव
कि "तुम भी क्यों न हमारी रेखा पर आ जाते हो?"
 
निस्सहाय मैं किन्तु, नहीं जागे बढ़ पाता ।
सन्मुख से जा रहीं समानांतर आकृतियां;
मैं उनको देखता और, जानें, सुदूर में
कहाँ-कहाँ मन-ही-मन वायु-सदृश फिरता हूँ।

समाधान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

वे छोटे-छोटे समाधान, छोटे उत्तर
थे मुझे बहुत प्रिय, उन्हें निकट मैं रखता था ।
जब बड़े प्रश्न मन को खरोंच कर व्रण करते,
 
तब भी मैं लेकर आड़ इन्हीं नन्हे-नन्हे निष्कर्षों की
मानस की शान्ति बचा लेता, प्राणों का सर
ईषत् कंप का फिर अचल, शान्त हो जाता था।
 
ऊँची, अपार शंकाओं को भीतर के तम में दबा मग्न
मैं नन्हे भावों को दुलार कर बड़े पेम से जीता था ।
दिन में घेरे रहते अपार सुकुमार फूल छोटे-छोटे,
रजनी नन्हे-नन्हे तारों के कलरव में कट जाती थी ।
 
तब जगे एक दिन वे बलशाली समाधान,
अथ से इति का सम्पूर्ण ज्ञान रखनेवाले;
जीवन का मूल हिला बोले,
"हम से क्या भय?
हम दूत सत्य के हैं,
हमको जानो, मानो, स्वीकार करो ।"
 
जीवन का वन कंपायमान;
हिल रही वाटिका और महल भी हिलते हैं ।
मानस का यह मूडोल कहाँ पर दम लेगा?
हैं बाँध बना कर खड़े
 
आज भी मेरे वे छोटे उत्तर,
छोटे मनुष्यों के नन्हे-छोटे समाधान ।
 
पर, लगता है, यह बांध नहीं टिक पाएगा,
बलशाली व्यापक समाधान विजयी होंगे ।
 
सब महीयान निष्कर्ष दूर के निकट हुए-से जाते हैं ।

वेदना का रसायन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

दो, निरन्तर टीस दो, छोड़ो न मुझको,
मांस में यों ही शलाकाएँ चुभाओ,
देह को यों ही रहो धुनती, तपाती, ऐंठती
मेरी मनोरम वेदने!
 
हर टीस, हर ऐंठन नया कुछ स्वाद लाती है;
तोड़ कर पपड़ी हदय में ताजगी भरती,
और आत्मा को चुभन देकर जगाती है ।
 
तुम्हारे श्माम पंखों की कड़क-सी फड़फड़ाहट पर
उमंगों की उड़ानें और भी ऊपर पहुंचती हैं;
व्यथा से चीखता तन, किन्तु, आत्मा गीत है गाती,
जलाती आग जो तुम वह
किसी खरतर अनल का ताप पीकर शान्त हो जाती।
 
दिवस निस्तेज थे जो
अब नई कुछ रौशनी उनमें दमकती है,
भुवन जो शुष्क था उसमें, न जाने,
विभा यह किस अलभ सौन्दर्य की क्षण-क्षण चमकती है ।
सभी कुछ दिव्य है, नूतन प्रखर है,
चतुर्दिक् प्रेरणा निर्माण की लहरा रही है;
चुभन है, टीस है, अथवा मुझे तंत्री बना कर
रगों की ताँत पर कोई परी कुछ गा रही है ।
 
अभी तो वेदना के इस परम उन्नत शिखर से
भुवन यह तुच्छ, अतिशय तुच्छ लगता है,
जहाँ चिकने, मृदुल तनु इसलिए चिकने, मृदुल होते
कि पीड़ा की कसौटी पर न वे अब तक चढ़े हैं;
जहाँ नीरोग तन केवल पड़े विश्राम करते हैं,
जहाँ पर देह रोगों से अनुदूभासित जिया करती
अपरिचित सत्य से,
जाने बिना आलोक की उस छटपटाहट को
जिसे संसार में सब व्याधि, रुज, उपताप कहते हैं ।

नहीं, इस दिव्य सुख का भेद
मैं बतला नहीं सकता
कभी भी चींटियों के झुंड को ।
भला इस झुंड में है कौन जो इसको समझ सकता
कि कितनी दर्द की खा चोट यह आनन्द जन्मा है?
मगर, मैं जानता हूँ
घूँट जो जीवित मुझें रखता
बना है अस्थियों को चीरनेवाली भयानक ऐंठनों से
और मेरे मांस के उत्ताप से;
अस्थियां जिनको नरक की वेदनाएं तोड़ती थीं,
मांस जो नरकाग्नि में प्रत्येक पल था भुन रहा।
 
सबल हो काय, लेकिन, प्राण पीड़ा से विकल हों,
अधम उस आयु की इच्छा नहीं मुझको ।
न तो मैं चाहता वह देह जो दुर्बल नहीं होती,
मगर, जिसके तिमिर में बद्ध आत्मा हारती है;
मुझे तो काम्य केवल प्राण की वह रश्मि जो दुर्जय
न थकती वेदनाओं से,
न बुझती ऐंठनों से, टीस से, पीड़ा, चुभन से;
कलेवर-कोट पर चढ़ कर प्रलय जब नृत्य करता है:
अकेली यह किरण तब मृत्यु को ललकारती है ।
 
करें वे सृष्टि की निन्दा, चले थे फूल पर जो,
अचानक शूल कोई, किन्तु जिनको चुभ गया हे।
मगर, मैं शूल-शय्या के सिवा क्या जानता हूँ?
मनाता हूँ कि ये काँटे चुभन देते रहे मुझको;
रहे जीवित व्यथा वह जो कभी सोने नहीं देती,
रहे आबाद वह पीड़ा कि जिसकी प्रेरणा पाकर
उमंगें प्राण में उन्माद भरती हैं ।
 
किसी अज्ञात सुख में मग्न मैं इस शूल-शय्या पर
कभी दायीं, कभी बायीं तरफ करवट बदलता हूँ।
मुझे जो खा रहा वह दीप्त मेरा ही अनल है ।
मगर, मैं मर नहीं सकता कि मैं निद्रा-जयी हूँ
मगर, मैं मर नहीं सकता कि मैं दिन-रात जलता हूँ।

रूपान्तरण - रामधारी सिंह 'दिनकर'

पूछो कुछ मत और, मुझे सोने जाने दो।
उतर गया जब सम्मोहन, यह विश्व हो गया
अनजाना-सा । आयु लगी लगने कुछ ऐसी,
मानो, वह व्यर्थ ही बहुत लम्बी हो। जाने,
मैंने क्या खो दिया कि सब सूना लगता है ।
 
ऐसे में, बस, एक बात है, जो कहता हूँ
वाणी का पाषण्ड, इसे तुम वापस कर तो ।
मुझे छोड़ दो एक मौन, इस गलियारे से
मन चाहे जितने कक्षों तक जा सकता हे।
 
और मुझे एकान्त छोड़ कर अब तुम जाओ,
मृत्यु शीघ्र आएगी, उसका वरण करूँगा
सुगम्भीरता से मैं, जैसे नूतन उडु को
सुगम्भीर आकाश पौन रहकर वरता है ।

सुख - रामधारी सिंह 'दिनकर'

सुख क्या है? बतला सकते हो?
पंडुक की सुकुमार पाँख या लाल चोंच मैना की ?
चरवाहे की बंसी का स्वर?
याकि गूँज उस निर्झर की जिसके दोनों तट
हरे, सुगन्धित देवदारुओं से सेवित हैं?

सुख कोई सुकुमार हाथ है,
जिसे हाथ में लेकर हम कंटकित और पुलकित होते हैं ?
अथवा है वह आँख
बोलती जो रहस्य से भरी प्रेम की भाषा में?
 
या सुख है वह चीज स्पर्श से जिसके मन में
कम्पन-सा होता, आँखों से
मूक अश्रु ढल कर कपोल पर रुक जाते हैं?
 
सुख कहाँ पर वास करता है?
सुख ? अरे, यह ज्योतिरिंगन तो नहीं है
जो द्रुमों की पत्तियों की छाँह में दिन भर छिपा रहता?
 
याकि सौरभ पुष्प के उर का ?
कि कोई चीज ऐसी जो
हवा में नाचती है रात को नूपुर पहन कर ?
सुख ! तुम्हारा नाम केवल जानता हूँ।
मैं हदय का अन्ध;
मैंने कभी देखा नहीं तुमको।
इसलिए प्यारे ! तुम्हें अब तक नहीं पहचानता हूँ।
 
पर, कहो, तुम, सत्य ही, सुन्दर बहुत हो ?
पुष्प से, जल से, सुरभि से
और मेरी वेदना से भी मधुर हो?

आधा चाँद - रामधारी सिंह 'दिनकर'

सरसी में लो उतर गया अब चाँद,
व्योम अभी कितना निश्चल लगता है !
 
तारों की जो फसल ताल में लहराती है,
हँसिया बन कर चाँट काटने को आया है ।
 
किन्तु, एक मेढ़क उस पर यों झपट रहा है,
मानो, वह चन्द्रमा नहीं, दर्पण हो कोई ।

ज्योतिषी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

दूर-वीक्षण-यन्त्र से तुम व्योम को ही देखते हो?
एक ग्रह यह भूमि भी तो है ।
कभी देखो इसे भी यन्त्र के बल से ।
 
न समझो यह कि धरती तो
हमारी सेज है, उत्संग है, पथ है,
उसे क्या चीर कर पढ़ना?
यहाँ के पेड़-पौधे, फूल, नर-नारी
सभी हर रोज मिलते हैं ।
 
अरे, ये पेड़-पौधे, फूल, नर-नारी
किसी प्रच्छन्न लौ के आवरण हैं ।
जानते हो, बीज है वह कौन
ये किसकी त्वचाएँ हैँ?
ज्ञात है वह अर्थ जो इन अक्षरों के पार भूला है?
 
दूर पर बैठे ग्रहों की नाप, यह भी शक्ति ही है।
किन्तु, नापोगे नहीं गहराइयां
जो छिपी हैं पेड़-पौघे में, मनुज में, फूलों में?
ला सको तो ज्योतिषी । लाओ मुकुर कोई
(नहीं वह यन्त्र केवल क्षेत्रफल, आकार या घन नापनेवाला ।)
किन्तु, वह लोचन सुरभि से, रंग से नीचे उतर कर
पुष्प के अव्यक्त उर में झाँकनेवाला ।

वेनिस - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं न भूलूँगा कभी रमणीय उस अदभुत नगर को
पश्चिमी जा में सलिल पर जो अवस्थित है ।
यह नगर संकेत है मानव-मिलन का ।
संघटन है वह अमित एकान्तताओं का ।
 
एकान्तताएँ द्वीप हैं ।
प्रत्येक औरों से अलग;
प्रत्येक सबसे भिन्न;
चारों ओर से प्रत्येक संवेष्टित सलिल की धार से ।

द्वीप से ले द्वीप तक, पर, प्रेम का बन्धन जुड़ा है ।
जब मिलाते हो कभी तुम हाथ मुझसे,
वारि पर तुम सेतु का निर्माण करते हो ।
 
और जब हँसते हमारी ओर को तुम,
एक वातायन तुरत उन्मुक्त हो जाता
उस सदन में जो खडा है पासवाले द्वीप में ।
 
और ज्यों-ज्यों रात बढ़ती, भींगती है,
यह झरोखा बन्द हो जाता ।
अँधेरे में
सेतु पर कोई नहीं फिर दृष्टिगत होता ।

नामांकन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

सिंधुतट की बालुका पर जब लिखा मैंने तुम्हारा नाम
याद है, तुम हंस पड़ीं थीं, 'क्या तमाशा है !
लिख रहे हो इस तरह तन्मय
कि जैसे लिख रहे होओ शिला पर।
मानती हूं, यह मधुर अंकन अमरता पा सकेगा।
वायु की क्या बात? इसको सिंधु भी न मिटा सकेगा।'
 
और तबसे नाम मैंने है लिखा ऐसे
कि, सचमुच, सिंधु की लहरें न उसको पाएंगी।
फूल में सौरभ, तुम्हारा नाम मेरे गीत में है।
विश्व में यह गीत फैलेगा
अजन्मी पीढ़ियां सुख से
तुम्हारे नाम को दुहराएंगी।

मनुष्य की कृतियाँ - रामधारी सिंह 'दिनकर'

आदमी की उँगलियों में कल्पना जब दौड़ती है,
पत्थरों में जान पड़ जाती ।
मूर्तियाँ सप्राण होकर जगमगाती हैं ।
स्पर्श में संजीवनी है ।
आदमी का स्पर्श उँगली से उतर का
पत्थरों की मूर्तियों में वास करता है ।
मूर्तियाँ जीवित बनी रहतीं हजारों साल तक;
बस, यहीं लगता, किसी ने आज ही इनको छुआ है।

और इस कारण बहुत-सी वस्तुएँ प्राचीन युग की
खुशनुमाँ हैं, मोहिनी हैं ।
क्योंकि वे हैं आज भी
गर्मी लिये उन उँगलियों की
था जिन्होंने एक दिन उनको छुआ आवेश में ।
 

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