कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma

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कहानियाँ रेखाचित्र संस्मरण-महादेवी (भाग १)
Hindi Stories and Prose Mahadevi Verma (
Part 1)

गौरा गाय (रेखाचित्र) - mahadevi verma

गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों-जैसा विस्मय न होकर आत्मीय विश्वास रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परंतु उसकी आंखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक।

गौरा मेरी बहिन के घर पली हुई गाय की व:यसंधि तक पहुंची हुई बछिया थी। उसे इतने स्नेह और दुलार से पाला गया था कि वह अन्य गोवत्साओं से कुछ विशिष्ट हो गई थी।
 
बहिन ने एक दिन कहा, तुम इतने पशु-पक्षी पाला करती हो-एक गाय क्यों नहीं पाल लेती, जिसका कुछ उपयोग हो। वास्तव में मेरी छोटी बहिन श्यामा अपनी लौकिक बुद्धि में मुझसे बहुत बड़ी है और बचपन से ही उनकी कर्मनिष्ठा और व्यवहार-कुशलता की बहुत प्रशंसा होती रही है, विशेषत: मेरी तुलना में। यदि वे आत्मविश्वास के साथ कुछ कहती हैं तो उनका विचार संक्रामक रोग के समान सुननेवाले को तत्काल प्रभावित करता है। आश्चर्य नहीं, उस दिन उनके प्रतियोगितावाद संबंधी भाषण ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि तत्काल उस सुझाव का कार्यान्वयन आवश्यक हो गया।
Mahadevi-Verma

वैसे खाद्य की किसी भी समस्या के समाधान के लिए पशु-पक्षी पालना मुझे कभी नहीं रुचा। पर उस दिन मैंने ध्यानपूर्वक गौरा को देखा। पुष्ट लचीले पैर, चिकनी भरी पीठ, लंबी सुडौल गर्दन, निकलते हुए छोटे-छोटे सींग, भीतर की लालिमा की झलक देते हुए कमल की पंखड़ियों जैसे कान, सब सांचे में ढला हुआ-सा था।
मेरी गाय पालने के संबंध में दुविधा निश्चय में बदल गई। गाय जब मेरे बंगले पर पहुंची तब मेरे परिचितों और परिचारकों में श्रद्धा का ज्वार-सा उमड़ आया। उसे गुलाबों की माला पहनायी, केशर-रोली का बड़ा-सा टीका लगाया गया, घी का दिया जलाकर आरती उतारी गई और उसे दही-पेड़ा खिलाया गया। उसका नामकरण हुआ गौरांगिनी या गौरा। गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शनी थी, विशेषत: उसकी काली-बिल्लौरी आंखों का तरल सौंदर्य तो दृष्टि को बांधकर स्थिर कर देता था। गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों-जैसा चकित विस्मय न होकर एक आत्मीय विश्वास ही रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परंतु उसकी आंखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक। महात्मा गांधी ने 'गाय करुणा की कविता है', क्यों कहा, यह उसकी आंखें देखकर ही समझ आ सकता है।
 
कुछ ही दिनों में वह सबसे इतनी हिलमिल गई कि अन्य पशु-पक्षी अपनी लघुता और उसकी विशालता का अंतर भूल गए। पक्षी उसकी पीठ और माथे पर बैठकर उसके कान तथा आंखें खुजलाने लगे। वह भी स्थिर खड़ी रहकर और आंखें मूंदकर मानो उनके संपर्क-सुख की अनुभूति में खो जाती थी। हम सबको वह आवाज से नहीं, पैर की आहट से भी पहचानने लगी। समय का इतना अधिक बोध उसे हो गया था कि मोटर के फाटक में प्रवेश करते ही वह बां-बां की ध्वनि से हमें पुकारने लगती। चाय, नाश्ता तथा भोजन के समय से भी वह प्रतीक्षा करने के उपरांत रंभा-रंभाकर घर सिर पर उठा लेती थी। उसे हमसे साहचर्यजनित लगाव मानवीय स्नेह के समान ही निकटता चाहता था। निकट जाने पर वह सहलाने के लिए गर्दन बढ़ा देती, हाथ फेरने पर मुख आश्वस्त भाव से कंधे पर रखकर आंखें मूंद लेती। जब उससे आवश्यकता के लिए उसके पास एक ही ध्वनि थी। परंतु उल्लास, दु:ख, उदासीनता आदि की अनेक छाया उसकी बड़ी और काली आंखों में तैरा करती थीं।
 
एक वर्ष के उपरांत गौरा एक पुष्ट सुंदर वत्स की माता बनीं। वत्स अपने लाल रंग के कारण गेरु का पुतला-जान पड़ता था। माथे पर पान के आकार का श्वेत तिलक और चारों पैरों में खुरों के ऊपर सफेद वलय ऐसे लगते थे मानो गेरु की बनी वत्समूर्ति को चांदी के आभूषणों से अलंकृत किया हो। बछड़े का नाम रखा गया लालमणि, परंतु उसे सब लालू के संबोधन से पुकारने लगे। माता-पुत्र दोनों निकट रहने पर हिमराशि और जलते अंगारे का स्मरण कराते थे। अब हमारे घर में मानो दुग्ध-महोत्सव आरंभ हुआ। गौरा प्राय: बारह सेर के लगभग दूध देती थी, अत: लालमणि के लिए कई सेर छोड़ देने पर भी इतना अधिक शेष रहता था कि आस-पास के बालगोपाल से लेकर कुत्ते-बिल्ली तक सब पर मानो दूधो नहाओ का आशीर्वाद फलित होने लगा। कुत्ते-बिल्लियों ने तो एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर दिया था। दुग्ध-दोहन के समय वे सब गौरा के सामने एक पंक्ति में बैठ जाते और महादेव उनके खाने के लिए निश्चित बर्तन रख देता। किसी विशेष आयोजन पर आमंत्रित अतिथियों के समान वे परम शिष्टता का परिचय देते हुए प्रतीक्षा करते रहते। फिर नाप-नापकर सबके पात्रों में दूध डाल दिया जाता, जिसे पीने के उपरांत वे एक बार फिर अपने-अपने स्वर में कृतज्ञता ज्ञापन-सा करते हुए गौरा के चारों ओर उछलने-कूदने लगते। जब तक वे सब चले न जाते, गौरा प्रसन्न दृष्टि से उन्हें देखती रहती। जिस दिन उनके आने में विलम्ब होता, वह रंभा-रंभाकर मानो उन्हें पुकारने लगती। पर अब दुग्ध-दोहन की समस्या कोई स्थायी समाधान चाहती थी। गौरा के दूध देने के पूर्व जो ग्वाला हमारे यहां दूध देता था, जब उसने इस कार्य के लिए अपनी नियुक्ति के विषय में आग्रह किया, तब हमने अपनी समस्या का समाधान पा लिया। दो-तीन मास के उपरांत गौरा ने दाना-चारा खाना बहुत कम कर दिया और वह उत्तरोत्तर दुर्बल और शिथिल रहने लगी। चिंतित होकर मैंने-पशु चिकित्सकों को बुलाकर दिखाया। वे कई दिनों तक अनेक प्रकार के निरीक्षण, परीक्षण आदि द्वारा रोग का निदान खोजते रहे। अंत में उन्होंने निर्णय दिया कि गाय को सुई खिला दी गई है, जो उसके रक्त-संचार के साथ हृदय तक पहुंच गई है। जब सुई गाय के हृदय के पार हो जाएगी तब रक्त-संचार रुकने से उसकी मृत्यु निश्चित है। मुझे कष्ट और आश्चर्य दोनों की अनुभूति हुई। सुई खिलाने का क्या तात्पर्य हो सकता है? चारा तो हम स्वयं देखभाल कर देते हैं, परंतु संभव है, उसी में सुई चली गई हो। पर डॉक्टर के उत्तर से ज्ञात हुआ कि चारे के साथ सुई गाय के मुख में ही छिदकर रह जाती है, गुड़ की डली के भीतर रखी गई सुई ही गले के नीचे उतर जाती है और अंतत: रक्त-संचार में मिलकर हृदय में पहुंच सकती है। अंत में ऐसा निर्मम सत्य उद्घाटित हुआ जिसकी कल्पना भी मेरे लिए संभव नहीं थी। प्राय: कुछ ग्वाले ऐसे घरों में, जहां उनसे अधिक दूध लेते हैं, गाय का आना सह नहीं पाते। अवसर मिलते ही वे गुड़ में लपेटकर सुई उसे खिलाकर उसकी असमय मृत्यु निश्चित कर देते हैं। गाय के मर जाने पर उन घरों में वे पुन: दूध देने लगते हैं। सुई की बात ज्ञात होते ही ग्वाला एक प्रकार से अंतर्धान हो गया, अत: संदेह का विश्वास में बदल जाना स्वाभाविक था। वैसे उसकी उपस्थिति में भी किसी कानूनी कार्यवाही के लिए आवश्यक प्रमाण जुटाना असंभव था।
 
तब गौरा का मृत्यु से संघर्ष प्रारंभ हुआ, जिसकी स्मृति मात्र से आज भी मन सिहर उठता है। डॉक्टरों ने कहा, "गाय को सेब का रस पिलाया जाए, तो सुई पर कैल्शियम जम जाने और उसके न चुभने की संभावना है। अत: नित्य कई-कई सेर सेब का रस निकाला जाता और नली से गौरा को पिलाया जाता। शक्ति के लिए इंजेक्शन दिए जाते। पशुओं के इंजेक्शन के लिए सूजे के समान बहुत लंबी मोटी सिरिंज तथा बड़ी बोतल भर दवा की आवश्यकता होती है। अत: वह इंजेक्शन भी अपने आप में शल्यक्रिया जैसा यातनामय हो जाता था। पर गौरा अत्यंत शांति से बाहर और भीतर दोनों की चुभन और पीड़ा सहती थी। केवल कभी-कभी उसकी सुंदर पर उदास आंखों के कानों में पानी की दो बूंदें झलकने लगती थीं। अब वह उठ नहीं पाती थी, परंतु मेरे पास पहुंचते ही उसकी आंखों में प्रसन्नता की छाया-सी तैरने लगती थी। पास जाकर बैठने पर वह मेरे कंधे पर अपना मुख रख देती थी और अपनी खुरदरी जीभ से मेरी गर्दन चाटने लगती थी। लालमणि बेचारे को तो मां की व्याधि और आसन्न मृत्यु का बोध नहीं था। उसे दूसरी गाय का दूध पिलाया जाता था, जो उसे रुचता नहीं था। वह तो अपनी मां का दूध पीना और उससे खेलना चाहता था, अत: अवसर मिलते ही वह गौरा के पास पहुंचकर या अपना सिर मार-मार, उसे उठाना चाहता था या खेलने के लिए उसके चारों ओर उछल-कूदकर परिक्रमा ही देता रहता।
 
इतनी हष्ट-पुष्ट, सुंदर, दूध-सी उज्ज्वल पयस्विनी गाय अपने इतने सुंदर चंचल वत्स को छोड़कर किसी भी दिन निर्जीव निश्चेष्ट हो जाएगी,यह सोचकर ही आंसू आ जाते थे। लखनऊ, कानपुर आदि नगरों से भी पशु-विशेषज्ञों को बुलाया, स्थानीय पशु-चिकित्सक' तो दिन में दो-तीन बार आते रहे, परंतु किसी ने ऐसा उपचार नहीं बताया, जिससे आशा की कोई किरण मिलती। निरुपाय मृत्यु की प्रतीक्षा का मर्म वही जानता है, जिसे किसी असाध्य और मरणासन्न रोगी के पास बैठना पड़ता हो।
 
जब गौरा की सुंदर चमकीली आंखें निष्प्रभ हो चलीं और सेब का रस भी कंठ में रुकने लगा, तब मैंने अंत का अनुमान लगा लिया। अब मेरी एक ही इच्छा थी कि मैं उसके अंत समय उपस्थित रह सकूं। दिन में ही नहीं, रात में भी कई-कई बार उठकर मैं उसे देखने जाती रही।
 
अंत में एक दिन ब्रहामुहूर्त में चार बजे जब मैं गौरा को देखने गई, तब जैसे ही उसने अपना मुख सदा के समान मेरे कंधे पर रखा, वैसे ही एकदम पत्थर-जैसा भारी हो गया और मेरी बांह पर से सरककर धरती पर आ रहा। कदाचित सुई ने हृदय को बेधकर बंद कर दिया।

अपने पालित जीव जंतुओं के पार्थिव अवशेष मैं गंगा को समर्पित करती रही हूं। गौरांगिनी को ले जाते समय मानो करुणा का समुद्र उमड़ आया, परंतु लीलामणि इसे भी खेल समझ उछलता-कूदता रहा। यदि दीर्घ नि:श्वास का शब्दों में अनुवाद हो सकता, तो उसकी प्रतिध्वनि कहेगी, 'आह मेरा गोपालक देश।

बिबिया - mahadevi verma

अपने जीवनवृत्त के विषय में बिबिया की माई ने कभी कुछ बताया नहीं, किन्तु उसके मुख पर अंकित विवशता की भंगिमा, हाथों पर चोटों के निशान, पैर का अस्वाभाविक लंगड़ापन देखकर अनुमान होता था कि उसका जीवन-पथ सुगम नहीं रहा।
 
मद्यप और झगड़ालू पति के अत्याचार भी सम्भवतः उसके लिए इतने आवश्यक हो गए थे कि उनके अभाव में उसे इस लोक में रहना पसन्द न आया। माँ-बाप के न रहने पर बालिका की स्थिति कुछ अनिश्चित-सी हो गई। घर बड़ा भाई कन्हई, भौजाई और दादी थी। दादी बूढ़ी होने के कारण पोती की किसी भी त्रुटि को कभी अक्षम्य मानती थी, कभी नगण्य। ननद-भौजाई के संबंध में परम्परागत वैमनस्य था और बीच के कई भाई-बहिन मर जाने के कारण सबसे बड़े भाई और सबसे छोटी बहिन में अवस्था का इतना अन्तर था कि वे एक-दूसरे के साथी नहीं हो सकते थे।
 
सम्भवतः सहानुभूति के दो-चार शब्दों के लिए ही बिबिया जब-तब मेरे पास आ पहुँचती थी। उसकी माँ मुझे दिदिया कहती थी। बेटी मौसीजी कहकर उसी संबंध का निर्वाह करने लगी।

साधारणतः धोबियों का रंग साँवला पर मुख की गठन सुडौल होती है। बिबिया ने गेहुएँ रंग के साथ यह विशेषता पाई थी। उस पर उसका हँसमुख स्वभाव उसे विशेष आकर्षण दे देता था। छोटे-छोटे सफेद दाँतों की बत्तीसी निकली ही रहती थी। बड़ी आँखों की पुतलियाँ मानो संसार का कोना-कोना देख आने के लिए चंचल रहती थीं। सुडौल गठीले शरीर वाली बिबिया को धोबिन समझना कठिन था; पर थी वह धोबिनों में भी सबसे अभागी धोबिन।
 
ऐसी आकृति के साथ जिस आलस्य या सुकुमारता की कल्पना की जाती है, उसका बिबिया में सर्वथा अभाव था। वस्तुतः उसके समान परिश्रमी खोजना कठिन होगा। अपना ही नहीं, वह दूसरों का काम करके भी आनन्द का अनुभव करती थी। दादी की मुट्ठी से झाडू खींच कर वह घर-आँगन बुहार आती, भौजाई के हाथ से लोई छीनकर वह रोटी बनाने बैठ जाती और भाई की उंगलियों से भारी स्त्री छुड़ा कर वह स्वयं कपड़ों की तह पर स्त्री करने लगती। कपड़ों में सज्जी लगाना, भट्ठी चढ़ाना, लादी ले जाना, कपड़े धोना-सुखाना आदि कामों में वह सब से आगे रहती।
 
केवल उसके स्वभाव में अभिमान की मात्रा इतनी थी कि वह दोष की सीमा तक पहुँच जाती थी। अच्छे कपड़े पहनना उसे अच्छा लगता था और यह शौक ग्राहकों के कपड़ों से पूरा हो जाता था। गहने भी उसकी माँ ने कम नहीं छोड़े थे। विवाह-संबंध उसके जन्म से पहले ही निश्चित हो गया था। पाँचवे वर्ष में ब्याह भी हो गया; पर गौने से पहले ही वर की मृत्यु ने उस सम्बन्ध को तोड़ कर, जोड़ने वालों का प्रयत्न निष्फल कर दिया। ऐसी परिस्थिति में, जिस प्रकार उच्च वर्ग की स्त्री का गृहस्थी बसा लेना कलंक है, उसी प्रकार नीच वर्ग की स्त्री का अकेला रहना सामाजिक अपराध है।

कन्हई यमुना-पार देहात में रहता था; पर बहन के लिए उसने, इस पार शहर का धोबी ढूँढ़ा। एक शुभ दिन पुराने वर का स्थानापन्न अपने संबंधियों को लेकर भावी ससुराल पहुँचा। एक बड़े डेग में मांस बना और बड़े कड़ाह में पूरियाँ छनीं। कई बोतलें ठर्रा शराब आई और तब तक नाच-रंग होता रहा, जब तक बराती-घराती सब औंधे मुँह न लुढ़क पड़े।
 
नई ससुराल पहुँच जाने के बाद कई महीने तक बिबिया नहीं दिखाई दी। मैंने समझा कि नई गृहस्थी बसाने में व्यस्त होगी। कुछ महीने बाद अचानक एक दिन मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए बिबिया आ खड़ी हुई। उसके मुख पर झांई आ गई थी और शरीर दुर्बल जान पड़ता था; पर न आँखों में विषाद के आँसू थे, न ओठों पर सुख की हँसी। न उसकी भावभंगिमा में अपराध की स्वीकृति थी और न निरपराधी की न्याय-याचना। एक निर्विकार उपेक्षा ही उसके अंग-अंग से प्रकट हो रही थी।
 
जो कुछ उसने कहा उसका आशय था कि वह मेरे कपड़े धोयेगी और भाई के ओसारे में अलग रोटी बना लिया करेगी। धीरे-धीरे पता चला कि उसके घर वाले ने उसे निकाल दिया है। कहता है, ऐसी औरत के लिए मेरे घर में जगह नहीं चाहे भाई के यहाँ पड़ी रहे, चाहे दूसरा घर कर ले। चरित्र के लिए बिबिया को यह निर्वासन मिला होगा, यह सन्देह स्वाभाविक था; पर मेरा प्रश्न उसकी उदासीनता के कवच को भेदकर मर्म में इस तरह चुभ गया कि वह फफककर रो उठी "अब आपहु अस सोचे लागीं मौसीजी! मइया तो सरगै गई, अब हमार नइया कसत पार लगी!
 
उसका विषाद देख कर ग्लानि हुई; पर उसकी दादी से सब इतिवृत्त जानकर मुझे अपने ऊपर क्रोध हो आया। रमई के घर जाकर बिबिया ने गृहस्थी की व्यवस्था के लिए कम प्रयत्न नहीं किया; पर वह था पक्का जुआरी और शराबी। यह अवगुण तो सभी धोबियों में मिलते हैं; पर सीमातीत न होने पर उन्हें स्वाभाविक मान लिया जाता है।
 
रमई पहले ही दिन बहुत रात गए नशे में धुत घर लौटा। घर में दूसरी स्त्री न होने के कारण नवागत बिबिया को ही रोटी बनानी पड़ी। वह विशेष यत्न से दाल, तरकारी बनाकर रोटी सेंकने के लिए आटा साने उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। रमई लड़खड़ाता हुआ घुसा और उसे देख ऐसी घृणास्पद बातें बकने लगा कि वह धीरज खो बैठी। एक तो उसके मिजाज में वैसे ही तेजी अधिक थी, दूसरे यह तो अपने घर अपने पति से मिला अपमान था। बस वह जलकर कह उठी ‘‘चुल्लू भर पानी माँ डूब मरी। ब्याहता मेहरारू से अस बतियात हौ जानौ बसवा के आये होयँ छी-छी।’’
 
नशे में बेसुध होने पर भी पति ने अपने आपको अपमानित अनुभव किया दाँत निपोर और आँखें चढ़ाकर उसने अवज्ञा से कहा ‘‘ब्याहता! एक तो भच्छ लिहिन अब दूसर के घर आई हैं, सत्ती छीता बनै खातिर धन भाग परनाम पाँलागी।’’

क्रोध न रोक सकने के कारण बिबिया ने चिमटा उठा कर उस पर फेंक दिया। बचने के प्रयास में वह लटपटाकर औंधे मुँह गिर पड़ा और पत्नी ने भीतर की अँधेरी कोठरी में घुसकर द्वार बन्द कर लिया। सबेरे जब वह बाहर निकली, तब घर वाला बाहर जा चुका था।
 
फिर यह क्रम प्रतिदिन चलने लगा। शराब के अतिरिक्त उसे जुए का भी शौक था, जो शराब की लत से भी बुरा है। शराबी होश में आने पर मनुष्य बन जाता है; पर जुआरी कभी होश में आता ही नहीं, अतः उसके संबंध में मनुष्य बनने का प्रश्न उठता ही नहीं।
 
रमई के जुए के साथी अनेक वर्गों से आये थे। कोई काछी था, तो कोई मोची; कोई जुलाहा था, तो कोई तेली।
 
हार-जीत की वस्तुएँ भी विचित्र होती थीं। कपड़ा, जूता, रुपया-पैसा, बर्तन आदि में से जो हाथ में आया, वही दाँव पर रख दिया जाता था। कोई किसी की घरवाली की हँसुली जीत लेता और कोई किसी की पतोहू के झुमके। कोई अपनी बहन की पहुँची हार जाता था और कोई नातिन के कड़े। सारांश यह कि जुए के पहले चोरी-डकैती की आवश्यकता भी पड़ जाती थी।
 
एक बार रमई के जुए के साथी मियाँ करीम ने गुलाबी आँखें तरेर कर कहा ‘‘अरे दोस्त, तुम तो अच्छी छोकरी हथिया लाये हो। उसी को दाँव पर क्यों नहीं रखते? किस्मतवर होंगे, तो तुम्हारे सामने रुपये-पैसे का ढेर लग जायेगा, ढेर!’’ इस प्रस्ताव का सबने मुक्तकण्ठ से समर्थन किया। रमई बिबिया को रखने के लिए प्रस्तुत भी हो गया; पर न जाने उसे चिमटा स्मरण हो आया या लुआठी कि वह रुक गया। बहाना बनाया आज तो रुपया गाँठ में है, न होगा तो मेहरारू और किस दिन के लिए होती है।

बिबिया तक यह समाचार पहुँचते देर न लगी। उस जैसी अभिमानिनी स्त्री के लिए यह समचार पलीते में आग के समान हो गया। दुर्भाग्य से उसने एक दिन करीम मियाँ को अपने द्वार पर देख लिया। बस फिर क्या था भीतर से तरकारी काटने का बड़ा चाकू निकालकर और भौंहें टेढ़ी कर उसने उन्हें बता दिया कि रमई के ऐसी हरकत करने पर वह उन दोनों के पेट में यही चाकू भोंक देगी। फिर चाहे उसे कितना ही कठोर दण्ड क्यों न मिले; पर वह ऐसा करेगी अवश्य। वह ऐसी गाय-बछिया नहीं है, जिसे चाहे कसाई के हाथ बेच दिया जावे, चाहे वैतरणी पार उतरने के लिए महाब्राह्मण को दान कर दिया जावे।
 
करीम मियाँ तो सन्न रह गए; पर दूसरे दिन जुए के साथियों के सामने उन्होंने रमई से कहा ‘‘लाहौल बिला कूबत, शरीफ आदमी के घर ऐसी औरत! मुई बिलोचिन की तरह बात-बात पर छूरा-चाकू दिखाती है। किसी दिन वह तुम पर भी वार करेगी बच्चू! सँभले रहना। घर में कजा को बैठाकर चैन की नींद ले रहे हो!’’
 
लखना अहीर सिर हिला-हिलाकर गम्भीर भाव से बोला ‘‘मेहररुअन अब मनसेधुअन का मारै बरे घूमती हैं, राम राम। अब जानौ कलजुग परगट दिखाय लागा!’’ महँगू काछी शास्त्राज्ञान का परिचय देने लगा ‘‘ऊ देखौ छीता रानी कस रहीं। उइ निकार दिहिन तऊ न बोलीं। बिचारिउ बेटवन का लै के झारखंड माँ परी रहीं।’’ खिलावन तेली ने समर्थन किया ‘‘उहै तो सत्ती सतवन्ती कही गई हैं! उनके बरे तो धरती माता फाटि जाती रहीं। ई सब का खाय कै सत्ती हुई हैं!’’

रमई बेचारा कुछ बोल ही न सका। उसकी पत्नी की गणना सतियों में नहीं हो सकती, यह क्या कुछ कम लज्जा की बात थी। इस लज्जा और ग्लानि का भार वह उठा भी लेता, पर रात-दिन भय की छाया में रहना तो दुर्वह था। जो स्त्री चाकू निकालते हुए नहीं डरती, वह क्या उसके उपयोग में डरेगी। रमई बेचारा सचमुच इतना डर गया कि पत्नी की छाया से बचने लगा। इसी प्रकार कुछ दिन बीते; पर अन्त में रमई ने साफ-साफ कह दिया कि वह बिबिया को घर में नहीं रखेगा। पंच-परमेश्वर भी उसी के पक्ष में हो गए। क्योंकि वे सभी रमई के समानधर्मी थे। यदि उनके घर में ऐसी विकट स्त्री होती, जिसके सामने वे न शराब पीकर जा सकते थे, न जुआ खेलकर, तो उन्हें भी यही करना पड़ता।
 
निरुपाय बिबिया घर लौट आई और सदा के समान रहने लगी। भौजाई के व्यंग्य उसे चुभते नहीं थे, यह कहना मिथ्या होगा; पर दादी के आँचल में आँसू पोंछने भर के लिए स्थान था। वह पहले से चौगुना काम करती। सबसे पहले उठती और सबके सो जाने पर सोती। न अच्छे कपड़े पहनती, न गहने। न गाती-बजाती, न किसी नाच-रंग में शामिल होती। पति के अपमान ने उसे मर्माहत कर दिया था; पर जात-बिरादरी में फैली बदनामी उसका जीना ही मुश्किल किये दे रही थी। ऐसी सुन्दर और मेहनती स्त्री को छोड़ना सहज नहीं है, इसी से सबने अनुमान लगा लिया कि उसमें गुणों से भारी कोई दोष होगा।
 
कन्हई ने एक बार फिर उसका घर बसा देने का प्रयत्न किया।
 
इस बार उसने निकटवर्ती गाँव में रहने वाले एक विधुर अधेड़ और पाँच बच्चों के बाप को बहनोई-पद के लिए चुना।
 
पर बिबिया ने बड़ा कोलाहल मचाया। कई दिन अनशन किया। कई घंटे रोती रही। ‘दादा अब हम न जाब। चाहे मूड़ फोरि कै मर जाब, मुदा माई-बाबा कर देहरिया न छाँड़ब’ आदि-आदि कहकर उसने कन्हई को निश्चय से विचलित करना चाहा; पर उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गए। भाई के विचार में युवती बहिन को घर में रखना, आपत्ति मोल लेना था। कहीं उसका पैर ऊँचे-नीचे पड़ गया, तो भाई का हुक्का-पानी बन्द हो जाना स्वाभाविक था। उसके पास इतना रुपया भी नहीं कि जिससे पंचदेवताओं की पेट-पूजा करके जात-बिरादरी में मिल सके।
 
अन्त में में बिबिया की स्वीकृति उदासीनता के रूप में प्रकट हुई। किसी ने उसे गुलाबी धोती पहना दी, किसी ने आँखों में काजल की रेखा खींच दी और किसी ने परलोकवासिनी सपत्नी के कड़े-पछेली से हाथ-पाँव सजा दिये। इस प्रकार बिबिया ने फिर ससुराल की ओर प्रस्थान किया।
 
जब एक वर्ष तक मुझे उसका कोई समाचार न मिला, तब मैंने आश्वस्त होकर सोचा कि वह जंगली लड़की अब पालतू हो गई।

मैं ही नहीं, उसके भाई, भौजाई, दादी आदि सम्बन्धी भी जब कुछ निश्चत हो चुके, तब एक दिन अचानक सुना कि वह फिर नैहर लौट आई है। इतना ही नहीं, इस बार उसके कलंक की कालिमा और अधिक गहरी हो गई थी; पर मेरे पास वह कुछ कहने-सुनने नहीं आई। पता चला, वह न घर का ही कोई काम करती थी और न बाहर ही निकलती। घर की उसी अँधेरी कोठरी में, जिसके एक कोने में गधे के लिए घास भरी थी और दूसरे में ईंधन-कोयले का ढेर लगा था, वह मुँह लपेटे पड़ी रहती थी। बहुत कहने-सुनने पर दो कौर खा लेती, नहीं तो उसे खाने-पीने की भी चिन्ता नहीं रहती।
 
यह सब सुनकर चिंतित होना स्वाभाविक ही कहा जायेगा। मन के किसी अज्ञान कोने से बार-बार सन्देह का एक छोटा-सा मेघ-खण्ड उठता था। और धीरे- धीरे बढ़ते-बढ़ते विश्वास की सब रेखाओं पर फैल जाता था। बिबिया क्या वास्तव में चरित्रहीन है? यदि नहीं, तो वह किसी घर में आदर का स्थान क्यों नहीं बना पाती? उससे रूप-गुण में बहुत तुच्छ लड़कियाँ भी अपना-अपना संसार बसाये बैठी हैं। इस अभागी में ही ऐसा कौन-सा दोष है, जिसके कारण इसे कहीं हाथ-भर जगह तक नहीं मिल सकती?
 
इसी तर्क-वितर्क के बीच में बिबिया की दादी आ पहुँची और धुँधली आँखों को फटे आँचल के कोने से रगड़-रगड़ कर पोती के दुर्भाग्य की कथा सुना गई।
 
बिबिया के नवीन पति की दो पत्नियाँ मर चुकी थीं। पहली अपनी स्मृति के रूप में एक-एक पुत्र छोड़ गई थी, जो नई विमाता के बराबर या उससे चार-छः मास बड़ा ही होगा। दूसरी की धरोहर तीन लड़कियाँ हैं, जिनमें बड़ी नौ वर्ष की और सबसे छोटी तीन वर्ष की होगी।
 
झनकू ने छोटे बच्चों के लिए ही तीसरी बार घर बसाया था। वधू के प्रति भी उसका कोई विशेष अनुराग है, यह उसके व्यवहार से प्रकट नहीं होता था। वह सबेरे ही लादी लेकर और रोटी बाँधकर घाट चला जाता और सन्ध्या समय लौटता। फिर शाम को गठरी उतार कर और गधे को चरने के लिए छोड़ कर घर से निकलता तो ग्यारह बजे से पहले लौटने का नाम न लेता।
 
सुना जाता था कि उसका अधिकांश समय उसी पासी-परिवार में बीतता है, जिसके साथ उसकी घनिष्ठता के संबंध में विविध मत थे।
 
जाति-भेद के कारण वह उस परिवार के साथ किसी स्थायी संबंध में नहीं बँध सका था और अपनी अभियोगहीन पत्नियों और अपने अच्छे स्वभाव के कारण पंच-परमेश्वर के दण्ड-विधान की सीमा से बाहर रह गया था।

पासी शहर में किसी सम्पन्न गृहस्थ का साईस हो गया था; पर उसकी घरवाली के हृदय में सास-ससुर के घर के प्रति अचानक ऐसी ममता उमड़ आई कि वह उस देहरी को छोड़कर जाना अधर्म की पराकाष्ठा मानने लगी।
 
झनकू को अपने लिए न सही; पर अपनी संतान की देख-रेख के लिए तो एक सजातीय गृहिणी की आवश्यकता थी ही, किन्तु कोई धोबन उसकी संगिनी बनने का साहस न कर सकी। रजक-समाज में बिबिया की स्थिति कुछ भिन्न थी। वह बेचारी अपकीर्ति के समुद्र में इस तरह आकण्ठ मग्न थी कि झनकू का प्रस्ताव उसके लिए जहाज बन गया।
 
इस प्रकार अपने मन को मुक्त रख कर भी झनकू ने बिबिया को दाम्पत्य- बंधन में बाँध लिया। यह सत्य है कि वह नई पत्नी को कोई कष्ट नहीं देता था। उसे घाट ले जाना तक झनकू को पसन्द नहीं था, इसी से कूटना, पीसना, रोटी-पानी, बच्चों की देखभाल में ही गृहिणी के कौशल की परीक्षा होने लगी।
 
बिबिया पति के उदासीन आदर-भाव से प्रसन्न थी या अप्रसन्न, यह कोई कभी न जान सका, क्योंकि उसने घर और बच्चों में तन-मन से रम कर अन्य किसी भाव के आने का मार्ग ही बन्द कर दिया था। सवेरे से आधी रात तक वह काम में जुटी रहती। फिर छोटी बालिकाओं में से एक को दाहिनी और दूसरी को बाईं ओर लिटाकर टूटी खटिया पर पड़ते ही संसार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाती। सवेरा होने पर कर्तव्य की पुरानी पुस्तक का नया पृष्ठ खुला ही रहता था।
 
कच्चे घर में दो कोठरियाँ थीं, जिनके द्वार ओसारे में खुलते थे। इन कोठरियों को भीतर से मिलाने वाला द्वार कपाटहीन था। झनकू एक कोठरी में ताला लगा जाता था, जिससे रात में बिना किसी को जगाये भीतर आ सके।

पत्नी उसके लिए रोटियाँ रखकर सो जाती थी। भूखा लौटने पर वह खा लेता था, अन्यथा उन्हीं को बाँधकर सवेरे घाट की ओर चल देता था।
 
बिबिया के स्नेह के भूखे हृदय ने मानो अबोध बालकों की ममता से अपने-आपको भर लिया। नहलाना, चोटी करना, खिलाना, सुलाना आदि बच्चों के कार्य वह इतने स्नेह और यत्न से करती थी कि अपरिचित व्यक्ति उसे माता नहीं, परम ममतामयी माता समझ लेता था।
 
सन्तान के पालन की सुचारु व्यवस्था देखकर झनकू घर की ओर से और भी अधिक निश्चिन्त हो गया। नाज के घड़े खाली न होने देने की उसे जितनी चिन्ता थी, उतनी पत्नी के जीवन की रिक्तता भरने की नहीं।
 
यह क्रम भी बुरा नहीं था, यदि उसका बड़ा लड़का ननसार से लौट न आता। माँ के अभाव और पिता के उदासीन भाव के कारण वह एक प्रकार से आवारा हो गया था। तेल लगाना, कान में इत्र का फाहा खोंसना, तीतर लिये घूमना, कुश्ती लड़ना आदि उसके स्वभाव की ऐसी विचित्रताएँ थीं, जो रजक-समाज में नहीं मिलतीं।
 
धोबी जुआ खेलकर या शराब पीकर भी, न भले आदमी की परिभाषा के बाहर जाता है और न अकर्मण्यता या आलस्य को अपनाता है। उसे आजीविका के लिए जो कार्य करना पड़ता है, उसमें आलस्य या बेईमानी के लिए स्थान नहीं रहता। मजदूर, मजदूरी के समय में से कुछ क्षणों का अपव्यय करके या खराब काम करके बच सकता है; पर धोबी ऐसा नहीं कर पाता।
 
उसे ग्राहक को कपड़े ठीक संख्या में लौटाने होंगे, उजले धोने में पूरा परिश्रम करना पड़ेगा, कलफ-इस्त्री में औचित्य का प्रश्न न भूलना होगा। यदि वह इन सब कामों के लिए आवश्यक समय का अपव्यय करने लगे, तो महीने में चार खेप न दे सकेगा और परिणामतः जीविका की समस्या उग्र हो उठेगी। सम्भवतः इसी से कर्मतत्परता ऐसी सामान्य विशेषता है, जो सब प्रकार के भले-बुरे धोबियों में मिलती है। उसकी मात्रा में अन्तर हो सकता है; पर उसका नितान्त अभाव अपवाद है।
 
झनकू का लड़का भीखन ऐसा ही अपवाद था। पिता ने प्रयत्न करके एक गरीब धोबिन की बालिका से उसका गठबन्धन कर दिया था, किन्तु जामाता को सुधरते न देख उसने अपनी कन्या के लिए दूसरा कर्मठ पति खोजकर उसी के साथ गौने की प्रथा पूरी कर दी। इस प्रकार भीखन गृहस्थ भी न बन सका, सद्गृहस्थ बनने की बात तो दूर रही। पिता स्वयं इस स्थिति में नहीं था कि पुत्र को उपदेश दे सकता; पर अन्त में उसके व्यवहार से थककर उसने उसे निर्वासन का दण्ड दे डाला।

इस प्रकार विमाता के आने के समय वह नाना-नानी के घर रहकर तीतर लड़ाने और पतंग उड़ाने में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहा था। पिता ने उसे नहीं बुलाया; पर विमाता की उपस्थिति ने उसे लौटने के लिए आकुल कर दिया।
 
एक दिन उसने डोरिया का कुरता और नाखूनी किनारे की धोती पहनकर बड़े यत्न से बुलबुलीदार बाल संवारे। तब एक हाथ में तीतर का पिंजड़ा और दूसरे में, बहिनों के लिए खरीदी हुई लइया-करारी की पोटली लिये हुए वह द्वार पर आ खड़ा हुआ। पिता घर नहीं था; पर विमाता ने सौतेले बेटे के स्वागत-सत्कार में त्रुटि नहीं होने दी। लोटे भर पानी में खाँड़ घोलकर उसे शर्बत पिलाया, दाल के साथ बैंगन का भर्ता बनाकर रोटी खिलाई और दूसरी कोठरी में खटिया बिछाकर उसके विश्राम की व्यवस्था कर दी।
 
पिता-पुत्र का साक्षात स्नेह-मिलन नहीं हो सका, क्योंकि एक ओर अनिश्चित आशंका थी और दूसरी ओर निश्चित अवज्ञा।
 
झनकू ने उसे स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि भलेमानस के समान न रहने पर वह उसे तुरन्त निकाल बाहर करेगा। भीखन ने ओठ बिचका, आँख मिचका और अवज्ञा से मुख फेरकर पिता का आदेश सुन लिया; पर भलेमानस बनने के सम्बन्ध में अपनी कोई स्वीकृति नहीं दी।

चरित्रहीन व्यक्ति दूसरों पर जितना सन्देह करता है, उतना सच्चरित्र नहीं। झनकू भी इसका अपवाद नहीं था। अब तक जिस पत्नी के लिए उसने रत्ती भर चिन्ता कष्ट नहीं उठाया, उसी की पहरेदारी का पहाड़ सा भार वह सुख से ढोने लगा।
 
समय पर घर लौट आता, पुत्र पर कड़ी दृष्टि रखता और पत्नी के व्यवहार में परिवर्तन खोजता रहता; पर पिता की सतर्कता की अवज्ञा करके पुत्र विमाता के आसपास मंडराता रहता। जहाँ वह बर्तन मांजती, वहीं वह तीतर चुगाने बैठ जाता। जब वह कपड़े सुखाती, तभी बाहर नंगे बदन बैठकर मांसल हाथ-पैरों में तेल मलता। जिस समय वह पानी का घड़ा भरकर लौटती, उसी समय वह महुए के छतनार वृक्ष की ओट में छिपकर गाता ‘धीरै-चलौ गगरी छलक ना जाय।’

एक दिन रोटी खाते समय उसकी सरसता इस सीमा तक पहुँच गई कि विमाता जलती लुआठी चूल्हे से खींचकर बोली "हम तोहार बाप कर मेहरारू अही। अब भाखा-कुभाखा सुनब तो तोहार पिठिया के चमड़ी न बची।"
 
विमाता के इस अभूतपूर्व व्यवहार से पुत्र लज्जित न होकर क्रुद्ध हो उठा। इस प्रकार के पुरुषों को अपनी नारी-मोहिनी विद्या का बड़ा गर्व रहता है। किसी स्त्री पर उस विद्या का प्रभाव न देखकर उनके दम्भ को ऐसा आघात पहुँचता है कि वे कठोर प्रतिशोध लेने में भी नहीं हिचकते।
 
विमाता के उपदेश की प्रतिक्रिया ने एक अकारण द्वेष को अंकुरित करके उसे पनपने की सुविधा दे डाली।
 
जहाँ तक बिबिया का प्रश्न था, वह पति के व्यवहार से विशेष सन्तुष्ट न होने पर भी उससे रुष्ट नहीं थी। अभिमानी व्यक्ति अवज्ञा के साथ मिले हुए अधिक स्नेह का तिरस्कार कर वीतरागता के साथ आदर-भाव को स्वीकार कर लेता है। झनकू ने पत्नी में अनुराग न रखने पर भी अन्य धोबियों के समान उसका अनादर नहीं किया। यह विशेषता बिबिया जैसी स्त्रियों के लिए स्नेह से अधिक मूल्य रखती थी, इसी से वह रोम-रोम से कृतज्ञ हो उठी। उसके क्रूर अदृष्ट ने यदि परिहास में ‘यह सौतेला पुत्र’ न भेज दिया होता; तो वह उसी घर में सन्तोष के साथ शेष जीवन बिता देती; पर उसके लिए इतना सुख भी दुर्लभ हो गया।
 
भीखन के व्यवहार में अब विमाता के प्रति ऐसा कृत्रिम घनिष्ठ भाव व्यक्त होने लगा कि वह आतंकित हो उठी। घर की शान्ति न भंग करने के विचार से ही उसने गृहस्वामी के निकट कोई अभियोग नहीं उपस्थित किया; पर अपने मौन के कठोर परिणाम तक उसकी दृष्टि नहीं पहुँच सकी।

पुत्र दूसरों के सामने विमाता की चर्चा चलते ही एक विचित्र लज्जा और मुग्धता का अभिनय करने लगा और उसके साथी उन दोनों के सम्बन्ध में दन्तकथाएँ फैलाने लगे। घरों में धोबिनें, बिबिया के छल-छन्द की नीचता और अपने पतिव्रत की उच्चता पर टीका-टिप्पणी करके पतियों से हँसुली- कड़े के रूप में सदाचार के प्रमाण-पत्र माँगने लगीं। घाट पर झनकू की श्रवणसीमा में बैठकर धोबी अपने-आपको त्रियाचरित्र का ज्ञाता प्रमाणित करने लगे।
 
पत्नी के अनाचार और अपनी कायरता का ढिंढोरा पिटते देखकर झनकू का धैर्य सीमा तक पहुँच गया, तो आश्चर्य नहीं। एक दिन जब वह घाट से भरा हुआ लोटा ला रहा था, तब मार्ग में लड़का मिल गया। बस झनकू ने आव देखा न ताव गधा हाँकने की लकड़ी से ही वह उसकी मरम्मत करने लगा।
 
पुत्र ने सारा दोष विमाता पर डालकर अपनी विवशता का रोना रोया और अपने दुष्कृत्य पर लज्जित होने का स्वांग रचा। इस प्रकार भीखन का प्रतिशोध-अनुष्ठान पूरा हुआ।
 
झनकू यदि चाहता, तो पत्नी से उत्तर माँग सकता था; पर उसे उसके दोष इतने स्पष्ट दिखाई देने लगे कि उसने इस शिष्टाचार की आवश्यकता ही नहीं समझी। बिबिया ने एक बार भी गहने-कपड़े के लिए हठ नहीं किया, वह एक दिन भी पति की स्नेहपात्री को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारने नहीं गई और वह कभी पति की उदासीनता का विरोध करने के लिए कोप-भवन में नहीं बैठी। इन त्रुटियों से प्रमाणित हो जाता था कि वह पति में अनुराग नहीं रखती और जो अनुरक्त नहीं, वह विरक्त माना जायेगा। फिर जो एक ओर विरक्त है, उसके किसी दूसरे ओर अनुरक्त होने को लोग अनिवार्य समझ बैठते हैं। इस तर्क-क्रम से जो दोषी प्रमाणित हो चुका हो, उसे सफाई देने का अवसर देना पुरस्कृत करना है। उसके लिए सबसे उत्तम चेतावनी दण्ड- प्रयोग ही हो सकता है।

उस रात प्रथम बार बिबिया पीटी गई। लात, घूँसा, थप्पड़, लाठी आदि का सुविधानुसार प्रयोग किया गया; पर अपराधिनी ने न दोष स्वीकार किया, न क्षमा माँगी और न रोई-चिल्लाई। इच्छा होने पर बिबिया लात-घूँसे का उत्तर बेलन-चिमटे से देने का सामर्थ्य रखती थी; पर वह झनकू का इतना आदर करने लगी थी कि उसका हाथ न उठ सका।
 
पत्नी के मौन को भी झनकू ने अपराधों की सूची में रख लिया और मारते-मारते थक जाने पर उसे ओसारे में ढकेल और किवाड़ बन्द कर वह हाँफता हुआ खाट पर पड़ा रहा।
 
बिबिया के शरीर पर घूँसों के भारीपन के स्मारक गुम्मड़ उभर आये थे, लकड़ी के आघातों की संख्या बताने वाली नीली रेखाएँ खिंच गई थीं और लातों की सीमा नापने वाली पीड़ा जोड़ों में फैल रही थी। उस पर द्वार का बन्द हो जाना उसके लिए क्षमा की परिधि से निर्वासित हो जाना था। वह अन्धकार में अदृष्ट की रेखा जैसी पगडंडी पर गिरती-पड़ती, रोती- कराहती अपने नैहर की ओर चल पड़ी।
 
झनकू को पति का कर्तव्य सिखाने के लिए कभी एक पंच-देवता भी आविर्भूत नहीं हुए; पर बिबिया को कर्तव्यच्युत होने का दण्ड देने के लिए पंचायत बैठी।
 
भीखन ने विमाता के प्रलोभनों की शक्ति और अपनी अबोध दुर्बलता की कल्पित कहानी दोहरा कर क्षमा माँगी। इस क्षमा-याचना में जो कोर-कसर रह गई, उसे उसके मामा, नाना आदि के रुपयों ने पूरा कर दिया।
 
दूसरे की दुर्बलता के प्रति मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक आकर्षण है कि वह सच्चरित्र की त्रुटियों के लिए दुश्चरित्र को भी प्रमाण मान लेता है। चोर ईमानदारी का उपयोग नहीं जानता, झूठा सत्य के प्रयोग से अनभिज्ञ रहता है। किसी गुण से अनभिज्ञ या उसके संबंध में अनास्थावान मनुष्य यदि उस विशेषता से युक्त व्यक्ति का विश्वास न करे, तो स्वाभाविक ही है; पर उसकी भ्रान्त धारणा भी प्रायः समाज में प्रमाण मान ली जाती है; क्योंकि मनुष्य किसी को दोष-रहित नहीं स्वीकार करना चाहता और दोषों के अथक अन्वेषक दोषयुक्तों की श्रेणी में ही मिलते हैं।
 
बिबिया पर लांछन लगाने वाले भीखन के आचरण के संबंध में किसी को भ्रम नहीं था; पर बिबिया के आचरण में त्रुटि खोजने के लिए उसकी स्वीकारोक्ति को सत्य मानना अनिवार्य हो उठा। वह अपने अभियोग को सफाई देने के लिए नहीं पहुँच सकी। पहुँचने पर उस क्रुद्ध सिंहनी से पंचदेवताओं को कैसा पुजापा प्राप्त होता, इसका अनुमान सहज है।
 
बिबिया की दादी मर चुकी थी; पर भाई चिर दुःखिनी बहिन को घर से निकाल देने का साहस न कर सका, इसी से बिरादरी में उसका हुक्का-पानी बंद हो गया।

इसी बीच ज्वर के कारण मुझे पहाड़ जाना पड़ा। जब कुछ स्वस्थ होकर लौटी, तब बिबिया की खोज की। पता चला कि वह न जाने कहाँ चली गई और बहिन की कलंक-कालिमा से लज्जित भाई ने परताबगढ़ जिले में जाकर अपने ससुर के यहाँ आश्रय लिया। बहिन से छुटकारा पाकर कन्हई खिन्न हुआ या नहीं; इसे कोई नहीं बता सका; पर सरपंच ससुर की कृपा से वह बिरादरी में बैठने का सुख पा सका, इसे सब जानते थे।
 
गाँव का रजक-समाज बिबिया के संबंध में एकमत नहीं था। कुछ उसके आचरण में विश्वास रखने के कारण उसके प्रति कठोर थे और कुछ उसकी भूलों को भाग्य का अमिट विधान मानकर सहानुभूति के दान में उदार थे। एक वृद्धा ने बताया कि भाई का हुक्का-पानी बंद हो जाने पर वह बहुत खिन्न हुई। फिर बिरादरी में मिलने के लिए दो सौ रुपये खर्च करने पड़ते; पर इतना तो कन्हई जनम भर कमा कर भी नहीं जोड़ सकता था।
 
इन्हीं कष्ट के दिनों में भतीजे ने जन्म लिया। भौजाई वैसे ही ननद से प्रसन्न नहीं रहती थी। अब तो उसे सुना- सुनाकर अपने दुर्भाग्य और पति की मन्द बुद्धि पर खीजने लगी। ‘का हमरेउ फूटे कपार मा पहिल पहिलौठी सन्तान का उछाह लिखा है? हम कौन गहरी गंगा माँ जौ बोवा है जौन आज चार जात-बिरादर दुवारे मुँह जुठारैं? पराये पाप बरे हमार घर उजड़िगा। जिनकर न घर न दुवार उनका का दुसरन कै गिरिस्ती बिगारै का चही? सरमदारन के बरे तौ चिल्लू भर पानी बहुत है।’
 
इस प्रकार की सांकेतिक भाषा में छिपे व्यंग सुनते-सुनते एक दिन बिबिया गायब हो गई।
 
सबको उसके बुरे आचरण पर इतना अडिग विश्वास था कि उन्होंने उसके इस तरह अन्तर्धान हो जाने को भी कलंक मान लिया। वह अच्छी गृहस्थिन नहीं थी, अतः किसी के साथ कहीं चले जाने के अतिरिक्त वह कर ही क्या सकती थी। मरना होता तो पहले पति से परित्यक्त होने पर ही डूब मरती, नहीं तो दूसरे के घर ही फाँसी लगा लेती; पर निर्दोष भाई के घर आकर और उसकी गृहस्थी को उजाड़कर वह मर सकती हे, यह विचार तर्कपूर्ण नहीं था।

त्रिया-चरित्र जानना वैसे ही कठिन है, फिर जो उसमें विशेषज्ञ हो उसकी गतिविधि का रहस्य समझने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है! गाँव के किसी पुरुष से वह कोई सम्पर्क नहीं रखती, इसी एक प्रत्यक्ष ज्ञान के बल पर अनेक अप्रत्यक्ष अनुमानों को कैसे मिथ्या ठहराया जावे! निश्चय ही बिबिया ने किसी के बिना जाने ही अपनी अज्ञात यात्रा का साथी खोज लिया होगा।
 
बहुत दिनों के उपरान्त जब मैं एक वृद्ध और रोगी पासी को दवा देने गई, तब बिबिया के यात्रा-संबंधी रहस्य पर कुछ प्रकाश पड़ा। उसने बताया कि भागने के दो दिन पहले बिबिया ने उससे ठर्रे का एक अद्धा मँगवाया था। रुपया धेली गाँठ में न होने के कारण उसने माँ की दी हुई चाँदी की तरकी कान से उतार कर उसके हाथ पर रख दी।
 
धोबिनों में वही इस लत से अछूती थी, इसी से पासी आश्चर्य में पड़ गया; पर प्रश्न करने पर उसे उत्तर मिला कि भतीजे के नामकरण के दिन वह परिवार वालों की दावत करेगी। भाई को पता चल जाने पर वह पहले ही पी डालेगा, इसी से छिपाकर मँगाना आवश्यक है।
 
दूसरे दिन पासी ने छन्ने में लपेटा हुआ अद्धा देकर शेष रुपये लौटाये, तब उसने रुपयों को उसी की मुट्ठी में दबाकर अनुनय से कहा कि अभी वही रखे तो अच्छा हो। आवश्यकता पड़ने पर वह स्वयं माँग लेगी।
 
गाँव की सीमा पर खेलती हुई कई बालिकाओं को, उसका मैले कपड़ों की छोटी गठरी लेकर यमुना की ओर जाते-जाते ठिठकना, स्मरण है। एक गड़ेरिये के लड़के ने सन्ध्या समय उसे चुल्लू से कुछ पी-पीकर यमुना के मटमैले पानी से बार-बार कुल्ला करते और पागलों के समान हँसते देखा था।
 
तब मेरे मन में अज्ञातनामा संदेह उमड़ने लगा। यात्रा का प्रबंध करने के लिए तो कोई बेहोश करने वाले पेय को नहीं खरीदता। यदि इसकी आवश्यकता ही थी, तो क्या वह सहयात्री नहीं मँगा सकती थी, जिसके अस्तित्व के सम्बन्ध में गाँव भर को विश्वास है?

बिबिया को अपनी मृत माँ का अन्तिम स्मृति-चिद्द बेचकर इसे प्राप्त करने की कौन-सी नई आवश्यकता आ पड़ी? फिर बाहर जाने के लिए क्या उसके पास इतना अधिक धन था कि उसने तरकी बेचकर मिले रुपये भी छोड़ दिये।
 
कगार तोड़कर हिलोरें लेने वाली भदहीं यमुना मंे तो कोई धोबी कपड़े नहीं धोने जाता। वर्षा की उदारता जिन गड्ढों को भर कर पोखर-तलइया का नाम दे देती है, उन्हीं में धोबी कपड़े पछार लाते हैं। तब बिबिया ही क्यों वहाँ गई?
 
इस प्रकार तर्क की कड़ियाँ जोड़- तोड़कर मैं जिस निष्कर्ष पर पहुँची, उसने मुझे कँपा दिया।
 
आत्मघात, मनुष्य की जीवन से पराजित होने की स्वीकृति है। बिबिया-जैसे स्वभाव के व्यक्ति पराजित होने पर भी पराजय स्वीकार नहीं करते। कौन कह सकता है कि उसने सब ओर से निराश होकर अपनी अन्तिम पराजय को भूलने के लिए ही यह आयोजन नहीं किया? संसार ने उसे निर्वासित कर दिया, इसे स्वीकार करके और गरजती हुई तरंगों के सामने आँचल फैलाकर क्या वह अभिमानिनी स्थान की याचना कर सकती थी?
 
मैं ऐसी ही स्वभाववाली एक सम्भ्रान्त कुल की निःसन्तान, अतः उपेक्षित वधू को जानती हूँ, जो सारी रात द्रौपदीघाट पर घुटने भर पानी में खड़ी रहने पर भी डूब न सकी और ब्रह्म मुहूर्त में किसी स्नानार्थी वृद्ध के द्वारा घर पहुँचाई गई।
 
उसने भी बताया था कि जीवन के मोह ने उसके निश्चय को डाँवा डोल नहीं किया। ‘कुछ न कर सकी तो मर गई’ दूसरों के इसी विजयोद्गार की कल्पना ने उसके पैरों में पत्थर बाँध दिए और वह गहराई की ओर बढ़ न सकी।
 
फिर बिबिया तो विद्रोह की कभी राख न होने वाली ज्वाला थी। संसार ने उसे अकारण अपमानित किया और वह उसे युद्ध की चुनौती न देकर भाग खड़ी हुई, यह कल्पना-मात्र उसके आत्मघाती संकल्प को, बरसने से पहले आँधी में पड़े हुए बादल के समान कहीं-का-कहीं पहुँचा सकती थी। पर संघर्ष के लिए उसके सभी अस्त्र टूट चुके थे। मूर्छितावस्था में पहाड़-सा साहसी भी कायरता की उपाधि बिना पाये हुए ही संघर्ष से हट सकता है।

संसार ने बिबिया के अन्तर्धान होने का होने का जो कारण खोज लिया, वह संसार के ही अनुरूप है; पर मैं उसके निष्कर्ष को निष्कर्ष मानने के लिए बाध्य नहीं।
 
आज भी जब मेरी नाव, समुद्र का अभिनय करने में बेसुध वर्षा की हरहराती यमुना को पार करने का साहस करती है, तब मुझे वह रजक-बालिका याद आये बिना नहीं रहती। एक दिन वर्षा के श्याम मेघांचल की लहराती हुई छाया के नीचे, इसकी उन्मादिनी लहरों में उसने पतवार फेंक कर अपनी जीवन-नइया खोल दी थी।
 
उस एकाकिनी की वह जर्जर तरी किस अज्ञात तट पर जा लगी, वह कौन बता सकता है!

वह चीनी भाई/चीनी फेरी वाला - महादेवी वर्मा

मुझे चीनियों में पहचान कर स्मरण रखने योग्य विभिन्नता कम मिलती है। कुछ समतल मुख एक ही साँचे में ढले से जान पड़ते हैं और उनकी एकरसता दूर करने वाली, वस्त्र पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी नाक की गठन में भी विशेष अंतर नहीं दिखाई देता।
 
कुछ तिरछी अधखुली और विरल भूरी बरूनियों वाली आँखों की तरल रेखाकृति देख कर भ्रांति होती है कि वे सब एक नाप के अनुसार किसी तेज़ धार से चीर कर बनाई गई हैं। स्वाभाविक पीतवर्ण धूप के चरण चिह्नों पर पड़े हुए धूल के आवरण के कारण कुछ ललछौंहे सूखे पत्ते की समानता पर लेता है। आकार प्रकार वेशभूषा सब मिल कर इन दूर देशियों को यंत्र चालित पुतलों की भूमिका दे देते हैं, इसी से अनेक बार देखने पर भी एक फेरी वाले चीनी को दूसरे से भिन्न कर के पहचानना कठिन है।

पर आज उन मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे आर्द्र नीलिमामयी आँखों के साथ एक मुख स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है - "हम कार्बन की कापियाँ नहीं हैं। हमारी भी एक कथा है। यदि जीवन की वर्णमाला के संबंध में तुम्हारी आँखें निरक्षर नहीं तो तुम पढ़ कर देखो न!
 
कई वर्ष पहले की बात है मैं तांगे से उतर कर भीतर आ रही थी कि भूरे कपड़े का गठ्ठर बाएँ कंधे के सहारे पीठ पर लटकाए हुए और दाहिने हाथ में लोहे का गज घुमाता हुआ चीने फेरी वाला फाटक के बाहर आता हुआ दिखा। संभवत: मेरे घर को बंद पाकर वह लौटा जा रहा था। "कुछ लेगा मेमसाहब!" - दुर्भाग्य का मारा चीनी! उसे क्या पता कि वह संबोधन मेरे मन में रोष की सबसे तुंग तरंग उठा देता है। मइया, माता, जीजी, दिदिया, बिटिया आदि न जाने कितने संबोधनों से मेरा परिचय है और सब मुझे प्रिय हैं, पर यह विजातीय संबोधन मानो सारा परिचय छीन कर मुझे गाउन में खड़ा कर देता है। इस संबोधन के उपरांत मेरे पास से निराश होकर न लौटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
 
मैने अवज्ञा से उत्तर दिया-मैं फारन ( विदेशी) नहीं ख़रीदती।
 
"हम क्या फारन है? हम तो चाइना से आता है।" कहने वाले के कंठ में सरल विस्मय के साथ उपेक्षा की चोट से उत्पन्न क्षोभ भी था। इस बार रुक कर उत्तर देने वाले को ठीक से देखने की इच्छा हुई। धूल से मटमैले सफ़ेद किरमिच के जूते में छोटे पैर छिपाए, पतलून और पाजामे का सम्मिश्रित परिणाम जैसा पाजामा और कुर्ता तथा कोट की एकता के आधार पर सिला कोट पहने, उधड़े हुए किनारों से पुरानेपन की घोषणा करते हुए हैट से आधा माथा ढके दाढ़ी मूछ विहीन दुबली नाटी जो मूर्ति खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी है। उसे सबसे अलग कर के देखने का प्रश्न जीवन में पहली बार उठा।

मेरी उपेक्षा से उस विदेशी को चोट पहुँची, यह सोच कर मैंने अपनी नहीं को और अधिक कोमल बनाने का प्रयास किया, "मुझे कुछ नहीं चाहिए भाई।" चीनी भी विचित्र निकला, "हमको भाय बोला है, तुम ज़रूर लेगा, ज़रूर लेगा- हाँ?" 'होम करते हाथ जला' वाली कहावत हो गई - विवश कहना पड़ा, "देखूँ, तुम्हारे पास है क्या।" चीनी बरामदे में कपड़े का गठ्ठा उतारता हुआ कह चला, "भोत अच्छा सिल्क आता है सिस्तर! चाइना सिल्क क्रेप. . ." बहुत कहने सुनने के उपरांत दो मेज़पोश ख़रीदना आवश्यक हो गया। सोचा- चलो छुट्टी हुई, इतनी कम बिक्री होने के कारण चीनी अब कभी इस ओर आने की भूल न करेगा।
 
पर कोई पंद्रह दिन बाद वह बरामदे में अपनी गठरी पर बैठ कर गज को फ़र्श पर बजा-बजा कर गुनगुनाता हुआ मिला। मैंने उसे कुछ बोलने का अवसर न दे कर, व्यस्त भाव से कहा, ''अब तो मैं कुछ न लूँगी। समझे?'' चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से बोला, ''सिस्तर आपका वास्ते ही लाता है, भोत बेस्त सब सेल हो गया। हम इसको पाकेट में छिपा के लाता है।''
 
देखा- कुछ रूमाल थे ऊदी रंग के डोरे भरे हुए, किनारों का हर घुमाव और कोनों में उसी रंग से बने नन्हें फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी चीनी नारी की कोमल उँगलियों की कलात्मकता ही नहीं व्यक्त कर रही थी, जीवन के अभाव की करुण कहानी भी कह रही थी। मेरे मुख के निषेधात्मक भाव को लक्ष्य कर अपनी नीली रेखाकृत आँखों को जल्दी-जल्दी बंद करते और खोलते हुए वह एक साँस में "सिस्तर का वास्ते लाता है, सिस्तर का वास्ते लाता है!" दोहराने लगा।

मन में सोचा, अच्छा भाई मिला है! बचपन में मुझे लोग चीनी कह कर चिढ़ाया करते थे। संदेह होने लगा, उस चिढ़ाने में कोई तत्व भी रहा होगा। अन्यथा आज एक सचमुच का चीनी, सारे इलाहाबाद को छोड़ कर मुझसे बहन का संबंध क्यों जोड़ने आता! पर उस दिन से चीनी को मेरे यहाँ जब तब आने का विशेष अधिकार प्राप्त हो गया है। चीन का साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी कला के संबंध में विशेष अभिरुचि रखता है इसका पता भी उसी चीनी की परिष्कृत रुचि में मिला।
 
नीली दीवार पर किस रंग के चित्र सुंदर जान पड़ते हैं, हरे कुशन पर किस प्रकार के पक्षी अच्छे लगते हैं, सफ़ेद पर्दे के कोने में किस बनावट के फूल पत्ते खिलेंगे आदि के विषय में चीनी उतनी ही जानकारी रखता था, जितनी किसी अच्छे कलाकार से मिलेगी। रंग से उसका अति परिचय यह विश्वास उत्पन्न कर देता था कि वह आँखों पर पट्टी बाँध देने पर भी केवल स्पर्श से रंग पहचान लेगा।
 
चीन के वस्त्र, चीन के चित्र आदि की रंगमयता देखकर भ्रम होने लगता है कि वहाँ की मिट्टी का हर कण भी इन्हीं रंगों से रंगा हुआ न हो। चीन देखने की इच्छा प्रकट करते ही 'सिस्तर का वास्ते हम चलेगा' कहते-कहते चीनी की आँखों की नीली रेखा प्रसन्नता से उजली हो उठती थी।

अपनी कथा सुनाने के लिए वह विशेष उत्सुक रहा करता था। पर कहने सुनने वाले की बीच की खाई बहुत गहरी थी। उसे चीनी और बर्मी भाषाएँ आती थीं, जिनके संबंध में अपनी सारी विद्या बुद्धि के साथ मैं 'आँख के अंधे नाम नयनसुख' की कहावत चरितार्थ करती थी। अंग्रज़ी की क्रियाहीन संज्ञाओं और हिंदुस्तानी की संज्ञाहीन क्रियाओं के सम्मिश्रण से जो विचित्र भाषा बनती थी, उसमें कथा का सारा मर्म बँध नहीं पाता था। पर जो कथाएँ हृदय का बाँध तोड़ कर दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती हैं, प्राय: करुण होती हैं और करुणा की भाषा शब्दहीन रह कर भी बोलने में समर्थ है। चीनी फेरीवाले की कथा भी इसका अपवाद नहीं।
 
जब उनके माता पिता ने माडले (बर्मा) आकर चाय की छोटी दूकान खोली तब उसका जन्म नहीं हुआ था। उसे जन्म देकर और सात वर्ष की बहन के संरक्षण में छोड़ कर जो परलोक सिधारी उस अनदेखी माँ के प्रति चीनी की श्रद्धा अटूट थी।
 
संभवत: माँ ही ऐसी प्राणी है जिसे कभी न देख पाने पर भी मनुष्य ऐसे स्मरण करता है जैसे उसके संबंध में जानना बाकी नहीं। यह स्वाभाविक भी है।
 
मनुष्य को संसार में बाँधने वाला विधाता माता ही है इसी से उसे न मान कर संसार को न मानना सहज है। पर संसार को मानकर उसे मानना असंभव ही रहता है।
 
पिता ने जब दूसरी बर्मी चीनी स्त्री को गृहणी पद पर अभिषिक्त किया तब उन मातृहीनों की यातना की कठोर कहानी आरंभ हुई। दुर्भाग्य इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सका क्यों कि उसके पाँचवें वर्ष में पैर रखते-रखते एक दुर्घटना में पिता ने भी प्राण खोए।

अब अबोध बालकों के समान उसने सहज ही अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया पर बहन और विमाता में किसी प्रस्ताव को लेकर जो वैमनस्य बढ़ रहा था वह इस समझौते को उत्तरातर विषाक्त बनाने लगा। किशोरी बालिका की अवज्ञा का बदला उसको नहीं उसके अबोध भाई को कष्ट देकर भी चुकाया जाता था। अनेक बार उसने ठिठुरती हुई बहन की कंपित उँगलियों में अपना हाथ रख उसके मलिन वस्त्रों में अपने आँसुओं से धुला मुख किया और उसी की छोटी-सी गोद में सिमट कर भूख भुलाई थी। कितनी ही बार सवेरे आँख मूँद कर बंद द्वार के बाहर दिवार से टिकी हुई बहन को ओस से गीले बालों में अपनी ठिठुरती हुई उँगलियों को गर्म करने का व्यर्थ प्रयास करते हुए उसने पिता के पास जाने का रास्ता पूछा था। उत्तर में बहन के फीके गाल पर चुपचाप ढुलक आने वाले आँसू की बड़ी बूँद देख कर वह घबरा कर बोल उठा था - "उसे कहवा नहीं चाहिए, वह तो पिता को देखना भर चाहता है।
 
कई बार पड़ोसियों के यहाँ रकाबियाँ धोकर और काम के बदले भात माँग कर बहन ने भाई को खिलाया था। व्यथा की कौन-सी अंतिम मात्रा ने बहन के नन्हें हृदय का बाँध तोड़ डाला, इसे अबोध बालक क्या जाने पर एक रात उसने बिछौने पर लेट कर बहन की प्रतीक्षा करते-करते आधी आँख खोली और विमाता को कुशल बाज़ीगर की तरह मैली कुचैली बहन का काया पलट करते हुए देखा। उसके सूखे ओठों पर विमाता की मोटी उँगली ने दौड़-दौड़ कर लाली फेरी, उसके फीके गालों पर चौड़ी हथेली ने घूम-घूम कर सफ़ेद गुलाबी रंग भरा, उसके रुखे बालों को कठोर हाथों ने घेरे-घेर कर सँवारा और तब नए रंगीन वस्त्रों में सजी हुई उस मूर्ति को एक प्रकार से ठेलती हुई विमाता रात के अंधकार में बाहर अंतरनिहित हो गई।

बालक का विस्मय भय में बदल गया और भय ने रोने में शरण पायी। कब वह रोते-रोते सो गया इसका पता नहीं, पर जब वह किसी के स्पर्श से जागा तो बहन उस गठरी बने हुए भाई के मस्तक पर मुख रख कर सिसकियाँ रोक रही थी। उस दिन उसे अच्छा भोजन मिला दूसरे दिन कपड़े तीसरे दिन खिलौने - पर बहन के दिनों-दिन विवर्ण होने वाले होंठों पर अधिक गहरे रंग की आवश्यकता पड़ने लगी, उसके उत्तरोतर फीके पड़ने वाले गालों पर देर तक पाउडर मला जाने लगा।
 
बहन के छीजते शरीर और घटती शक्ति का अनुभव बालक करता था, पर वह किससे कहे, क्या करे, यह उसकी समझ के बाहर की बात थी। बार-बार सोचता था पिता का पता मिल जाता तो सब ठीक हो जाता। उसके स्मृति पट पर माँ की कोई रेखा नहीं परंतु पिता का जो अस्पष्ट चित्र अंकित था उनके स्नेहशील होने में संदेह नहीं रह जाता। प्रतिदिन निश्चित करता कि दुकान में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पिता का पता पूछेगा और एक दिन चुपचाप उनके पास पहुँचेगा और उसी तरह चुपचाप उन्हें घर लाकर खड़ा कर देगा- तब यह विमाता कितनी डर जाएगी और बहन कितनी प्रसन्न होगी।
 
चाय की दुकान का मालिक अब दूसरा था, परंतु पुराने मालिक के पुत्र के साथ उसके व्यवहार में सहृदयता कम नहीं रही, इसीसे बालक एक कोने में सिकुड़ कर खड़ा हो गया और आने वालों से हकला हकला कर पिता का पता पूछने लगा। कुछ ने उसे आश्चर्य से देखा, कुछ मुस्करा दिये, पर एक दो ने दुकानदार से कुछ ऐसी बात कही जिससे वह बालक को हाथ पकड़ कर बाहर ही छोड़ आया। इस भूल की पुनरावृत्ति होने पर विमाता से दंड दिलाने की धमकी भी दे गया। इस प्रकार उसकी खोज का अंत हो गया।
 
बहन का संध्या होते ही कायापलट, फिर उसका आधी रात बीत जाने पर भारी पैरों से लौटना, विशाल शरीर वाली विमाता का जंगली बिल्ली की तरह हल्के पैरों से बिछौने से उछल कर उतर आना, बहन के शिथिल हाथों से बटुए का छिन जाना और उसका भाई के मस्तक पर मुख रख कर स्तब्ध भाव से पड़े रहना आदि क्रम ज्यों के त्यों चलते रहे।
 
पर एक दिन बहन लौटी ही नहीं। सवेरे विमाता को कुछ चिंतित भाव से उसे खोजते देख बालक सहसा किसी अज्ञात भय से सिहर उठा। बहिन- उसकी एकमात्र आधार बहन! पिता का पता न पा सका और अब बहन भी खो गई। जैसा था वैसा ही बहन को खोजने के लिए गली-गली में मारा-मारा फिरने लगा। रात में वह जिस रूप में परिवर्तित हो जाती उसमें दिन को उसे पहचान सकना कठिन था इससे वह जिसे अच्छे कपड़े पहने हुए जाती देखता उसके पास पहुँचने के लिए सड़क के एक ओर से दूसरी ओर दौड़ पड़ता। कभी किसी से टकरा कर गिरते-गिरते बचता, कभी किसी से गाली खाता, कभी कोई दया से प्रश्न कर बैठता- ''क्या इतना ज़रा-सा लड़का भी पागल हो गया है?''

इसी प्रकार भटकता हुआ वह गिरहकटों के गिरोह के हाथ लगा और तब उसकी शिक्षा आरंभ हुई। जैसे लोग कुत्ते को दो पैरों से बैठना, गर्दन ऊँची कर खड़ा होना, मुँह पर पंजे रख कर सलाम करना आदि क़रतब सिखाते हैं उसी तरह वे सब उसे तंबाकू के धुएँ और दुर्गंध मांस से भरे और फटे चीथड़े, टूटे बर्तन और मैले शरीर से बसे हुए कमरे में बंद कर कुछ विशेष संकेतों और हँसने रोने के अभिनय में पारंगत बनाने लगे।
 
कुत्ते के पिल्ले के समान ही वह घुटनों के बल खड़ा रहता और हँसने रोने की विविध मुद्राओं का अभ्यास करता। हँसी का स्त्रोत इस प्रकार सूख चुका था कि अभिनय में भी वह बार-बार भूल करता और मार खाता। पर क्रंदन उसके भीतर इतना अधिक उमड़ा रहता था कि ज़रा मुँह के बनाते ही दोनों आँखों से दो गोल-गोल बूँदें नाक के दोनों ओर निकल आतीं और पतली समानांतर रेखा बनाती और मुँह के दोनों सिरों को छूती हुई ठुड्डी के नीचे तक चली जातीं। इसे अपनी दुर्लभ शिक्षा का फल समझ कर रोओं से काले उदर पर पीला-सा रंग बाँधने वाला उसका शिक्षक प्रसन्नता से उठ कर उसे लात जमा कर पुरस्कार देता।

वह दल बर्मी, चीनी, स्यामी आदि का सम्मिश्रण था। इसी से 'चोरों की बारात में अपनी अपनी होशियारी' के सिद्धांत का पालन बड़ी सतर्कता से हुआ करता। जो उसपर कृपा रखते थे उनके विरोधियों का स्नेहपात्र होकर पिटना भी उसका परम कर्तव्य हो जाता था। किसी की कोई वस्तु खोते ही उस पर संदेह की ऐसी दृष्टि आरंभ होती कि बिना चुराए ही वह चोर के समान काँपने लगता और तब उस 'चोर के घर छिछोर' की जो मरम्मत होती कि उसका स्मरण कर के चीनी की आँखें आज भी व्यथा और अपमान से भक भक जलने लगती थीं।
 
सबके खाने के पात्र में बचा उच्छिष्ट एक तामचीनी के टेढ़े बर्तन में सिगार से जगह जगह जले हुए कागज़ से ढक कर रख दिया जाता था जिसे वह हरी आँखों वाली बिल्ली के साथ खाता था।
 
बहुत रात गए तक उसके नरक के साथी एक-एक कर आते रहते और अंगीठी के पास सिकुड़ कर लेटे हुए बालक को ठुकराते हुए निकल जाते। उनके पैरों की आहट को पढ़ने का उसे अच्छा अभ्यास हो चला था। जो हल्के पैरों को जल्दी-जल्दी रखता आता है उसे बहुत कुछ मिल गया है। जो शिथिल पैरों को घसीटता हुआ लौटता वह खाली हाथ है। जो दीवार को टटोलता हुआ लड़खड़ाते पैरों से बढ़ता वह शराब में सब खोकर बेसुध आया है। जो दहली से ठोकर खाकर धम धम पैर रखता हुआ घुसता है उसने किसी से झगड़ा मोल ले लिया है आदि का ज्ञान उसे अनजान में ही प्राप्त हो गया था।
 
यदि दीक्षांत संस्कार के उपरांत विद्या के उपयोग का श्रीगणेश होते ही उसकी भेंट पिता के परिचित एक चीनी व्यापारी से नहीं हो जाती तो इस साधना से प्राप्त विद्वत्ता का अंत क्या होता यह बताना कठिन है। पर संयोग ने उसके जीवन की दिशा को इस प्रकार बदल दिया कि वह कपड़े की दूकान पर व्यापारी की विद्या सीखने लगा।
 
प्रशंसा का पुल बाँधते-बाँधते वर्षो पुराना कपड़ा सबसे पहले उठा लाना, गज़ से इस तरह नापना कि जो रत्ती बराबर भी आगे न बढे, चाहे अँगुल भर पीछे रह जाय। रुपए से ले के पाई तक को खूब देख भाल कर लेना और लौटाते समय पुराने, खोटे पैसे विशेष रूप से खनखा-खनका कर दे डालना आदि का ज्ञान कम रहस्यमय नहीं था। पर मालिक के साथ भोजन मिलने के कारण बिल्ली के उच्छिष्ट सहभोज की आवश्यकता नहीं रही और दुकान में सोने की व्यवस्था होने से अंगीठी के पास ठोकरों से पुरस्कृत होने की विशेषता जाती रही। चीनी छोटी अवस्था में ही समझ गया था कि धन संचय से संबंध रखने वाली सभी विद्याएँ एक-सी हैं, पर मनुष्य किसी का प्रयोग प्रतिष्ठापूर्वक कर सकता है और किसी का छिपा कर।

कुछ अधिक समझदार होने पर उसने अपनी अभागी बहन को ढूँढने का बहुत प्रयत्न किया पर उसका पता न पा सका। ऐसी बालिकाओं का जीवन खतरे से खाली नहीं रहता। कभी वे मूल्य देकर खरीदी जाती हैं और कभी बिना मूल्य के गायब कर दी जाती हैं। कभी वे निराश हो कर आत्महत्या कर लेती हैं और कभी शराबी ही नशे में उन्हें जीवन से मुक्त कर देते हैं। उस रहस्य की सूत्रधारिणी विमाता भी संभवत: पुर्नविवाह कर किसी और को सुखी बनाने के लिये कहीं दूर चली गयी थी। इस प्रकार उस दिशा में खोज का मार्ग ही बंद हो गया।

इसी बीच में मालिक के काम से चीनी रंगून आया फिर दो वर्ष कलकत्ता में रहा और अन्य साथियों के साथ उसे इसि ओर आने का आदेश मिला। यहां शहर में एक चीनी जूते वाले के घर ठहरा है और सवेरे आठ से बारह और दो से छे बजे तक फेरी लगा कर कपड़े बेचता रहता है।
 
चीनी की दो इच्छाएँ हैं, ईमानदार बनने की और बहन को ढूँढ लेने की- जिनमें से एक की पूर्ति तो स्वयं उसी के हाथ में है और दूसरी के लिए वह प्रतिदिन भगवान बुद्ध से प्रार्थना करता है।
 
बीच-बीच में वह महीनों के लिए बाहर चला जाता था, पर लौटते ही "सिस्तर का वास्ते ई लाता है" कहता हुआ कुछ लेकर उपस्थित हो जाता। इस प्रकार देखते-देखते मैं इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि जब एक दिन वह 'सिस्तर का वास्ते' कह कर और शब्दों की खोज करने लगा तब मैं उसकी कठिनाई न समझ कर हँस पड़ी। धीर-धीरे पता चला - बुलावा आया है, यह लड़ने के लिए चाइना जाएगा। इतनी जल्दी कपड़े कहाँ बेचे और न बेचने पर मालिक को हानि पहुँचा कर बेइमान कैसे बने? यदि मैं उसे आवश्यक रुपया देकर सब कपड़े ले लूँ, तो वह मालिक का हिसाब चुका कर तुरंत देश की ओर चल दे।

किसी दिन पिता का पता पूछे जाने पर वह हकलाया था- आज भी संकोच से हकला रहा था। मैंने सोचने का अवकाश पाने के लिए प्रश्न किया, "तुम्हारे तो कोई है ही नहीं, फिर बुलावा किसने भेजा?" चीनी की आँखें विस्मय से भर कर पूरी खुल गईं- "हम कब बोला हमारा चाइना नहीं है? हम कब ऐसा बोला सिस्तर?" मुझे स्वयं अपने प्रश्न पर लज्जा आई, उसका इतना बड़ा चीन रहते वह अकेला कैसे होगा!
 
मेरे पास रुपया रहना ही कठिन है, अधिक रुपए की चर्चा ही क्या! पर कुछ अपने पास खोज ढूँढ़ कर और कुछ दूसरों से उधार लेकर मैंने चीनी के जाने का प्रबंध किया। मुझे अंतिम अभिवादन कर जब वह चंचल पैरों से जाने लगा, तब मैंने पुकार कर कहा, ''यह गज तो लेते जाओ!'' चीनी सहज स्मित के साथ घूमकर "सिस्तर का वास्ते" ही कह सका। शेष शब्द उसके हकलाने में खो गए।
 
और आज कई वर्ष हो चुके हैं- चीनी को फिर देखने की संभावना नहीं। उसकी बहन से मेरा कोई परिचय नहीं, पर न जाने क्यों वे दोनों भाई बहन मेरे स्मृतिपट से हटते ही नहीं।

चीनी की गठरी में से कई थान मैं अपने ग्रामीण बालकों के कुर्ते बना-बना कर खर्च कर चुकी हूँ परंतु अब भी तीन थान मेरी अलमारी में रखे हैं और लोहे का गज दीवार के कोने में खड़ा है। एक बार जब इन थानों को देख कर एक खादी भक्त बहन ने आक्षेप किया था - जो लोग बाहर विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं वे भी विदेशी रेशम के थान ख़रीद कर रखते है, इसी से तो देश की उन्नति नहीं होती- तब मैं बड़े कष्ट से हँसी रोक सकी।
 
वह जन्म का दुखियारा मातृ पितृ हीन और बहन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह के एकमात्र आधार चीन में पहुँचने का आत्मतोष पा गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं- पर मेरा मन यही कहता है।

दुर्मुख-खरगोश - महादेवी वर्मा

किसी को विश्वास न होगा कि बोल-चाल के लड़ाकू विशेषण से लेकर शुद्ध संस्कृत की 'दुर्मुख', 'दुर्वासा' जैसी संज्ञाओं तक का भार संभालने वाला एक कोमल प्राण खरगोश था। परन्तु यथार्थ कभी-कभी कल्पना की सीमा नाप लेता है।
 
किसी सजातीय-विजातीय जीव से मेल न रखने के कारण माली ने उस खरगोश का लड़ाकू नाम रख दिया, मेरी शिष्याओं ने उसके कटखन्ने स्नभाव के कारण उसे दुर्मुख पुकारना आरम्भ किया और मैंने, उसकी अकारण क्रोधी प्रकृति के कारण उसे दुर्वासा की संज्ञा से विभूषित किया ।
 
लड़ाकू नाम के लिए तो किसी से क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, परन्तु दुर्मुख और दुर्वासा जैसे पौराणिक नामों का ऐसा दुरुपयोग अवश्य ही चिन्तनीय कहा जायगा ।
 
दुर्मुख से तो मैं स्वयं भी रुष्ट हूँ । यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम का गुप्तचर था और रजक द्वारा सीता सम्बन्धी अपवाद की बात राम से कहकर उसने सीता-निर्वासन की भूमिका घटित की थी। राजा अपने शत्रु राजायों के क्रिया-कलाप की जानकारी के लिए गुप्तचर रखता है, प्रजा के प्रत्येक घर में दम्पत्ति की रहस्य वार्ता जानने के लिये नहीं और यह तो सर्वविदित है कि पति-पत्नी क्रोध में एक-दूसरे से न जाने क्या-क्या कह डालते हैं । फिर क्रोध का आवेश समाप्त हो जाने पर "अजी जाने दो, वह तो क्रोध में बिना सोचे-समझे मुँह से निकल गया था"--कह कर परस्पर क्षामा माँग लेते हैं। प्रत्येक गृहस्वामी अपने गृह का राजा और उसकी पत्नी रानी है। कोई गुप्तचर, चाहे वह देश के राजा का ही क्‍यों न हो यदि उनकी निजी वार्ता को सार्वजनिक घटना के रूप में प्रचारित कर दे, तो उसे गुप्तचर का अनधिकार, दुष्टाचरण ही कहा जायगा ।

इससे स्पष्ट है कि पैने दाँतों के दुरुपयोग में पटु, खरगोश का दुर्मुख नाम रखकर भी हमने राम के दुष्ट गुप्तचर का कोई अप- मान नहीं किया । परन्तु महर्षि दुर्वासा के नाम का ऐसा धृष्टता- पूर्ण उपयोग करने के लिए मुझे उनकी रुद्र स्मृति से बराबर क्षमा याचना करनी पड़ी । वे महर्षि निर्वाण को प्राप्त होकर निर्विकार ब्रह्म में क्रोध की तरंगें उठा रहे हैं, या किसी अन्य लोकवासियों को शाप से कम्पायमान कर रहे हैं, यह जान लेने का कोई साधन नहीं है। सम्भवतः अन्तर्दृष्टि से यह जान लेने के उपरान्त कि उस शशक की क्रोधी प्रकृति को व्यक्त करने का सामर्थ्य केवल उन्हीं के नाम में निहित है, उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया है, अन्यथा मेरी धृष्टता अब तक शापमुक्त न रहती ।
 
उस शशक दुर्वासा की प्राप्ति एक दुर्योग ही कही जायगी ।
 
पड़ोस के एक सज्जन दम्पत्ति ने खरगोश का एक जोड़ा पाल रखा था, जिसने उसके आँगन में मिट्टी के भीतर सुरंग जैसा अपना निवास बना लिया था| सन्ध्या होते ही गृहिणी उस सुरंग के द्वार पर डलिया ढककर उस पर सिल रख देती थी । एक रात वह सुरंग का द्वार मुंदना भूल गई और निरन्तर ताक-झाँक में रहनेवाली मार्जारी ने बिल में घुसकर दोनों खरगोशों और उनके तीन बच्चों को क्षत-विक्षत कर डाला, केवल एक शशक-शिशु मां के पैरों के बीच छिपा रहने के कारण जीवित बच गया ।
 
इतने छोटे जीव को पालने की जो समस्या थी, उसका समा- धान हमारे माली ने उसे मेरे घर लाकर कर दिया। खरगोश स्तनपायी जीव है, अत: बच्चे को रुई की बत्ती से दूध पिला- पिलाकर बड़ा करने का यत्न किया जाने लगा। रहता वह मेरे कमरे में ही था। उसके बैठने और सोने के लिए एक मचिया पर रुईदार गद्दी बिछा दी गई थी, पर वह प्रायः मेरे तकिये के पास ही सो जाता था। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होने लगा, त्यों-त्यों उसका क्रोधी स्वभाव हमारे विस्मय और चिंता का कारण बनने लगा।
 
वस्तुतः खरगोश बहुत निरीह जीव है । दाँत होने पर भी वह किसी को काटता नहीं, पंजे होने पर भी वह किसी को नोंचता- खरोंचता नहीं । भय उसका स्थायी भाव है। नवपालित शशक हमारी धारणायों के सर्वथा विपरीत था। दूध-भात देर से मिलने पर वह पंजों से कटोरी उलट देता, देनेवाले के हाथ में या हाथ पहुँच से बाहर होने पर पैर में अपने नन्‍हें पर पैने दांत चुभा देता और कमरे भर में दौड़-दौड़कर जो कुछ उसकी पहुँच में होता, उसे फेंकता-उलटता हुआ घूमता । उसके भय से छिपकली क्या अन्य कीट-पतंग तक मेरे कमरे से दूर रहते थे ।
 
ऐसे वह अन्य खरगोशों के समान प्रियदर्शन था, परन्तु एक विशेषता के साथ । कुछ बड़े-बड़े सघन कोमल और चमकीले फर के रोमों से उसका शरीर आच्छादित था, पूंछ छोटी और सुन्दर और पंजे स्वच्छ थे, जिनसे वह हर समय अपना मुख साफ करता रहता था । कान विलायती खरगोशों के कानों के समान कुछ कम लम्बे थे, परन्तु उनकी सुडौलता और सीधे जड़े रहने में विशेष मोहक सौंदर्य था। विशेषता यह थी कि एक कान काला था और एक सफेद । काले कान के ओर की आँख काली थी और सफेद कान के ओर की लाल। सामान्यतः सफेद खरगोशों की आंखें लाल और काले या चितकबरों की काली होती हैं। परन्तु इस खरगोश की दोनों आँखों ने अपने दो भिन्न रंगों से उस नियम का अपवाद उपस्थित कर दिया था। कभी-कभी लगता, मानो दो भिन्न खरगोशों का आधा-आधा शरीर जोड़ कर एक बना दिया गया हो और आँखों में एक ओर नीलम और दूसरी ओर रूबी का चमकीला मनका जड़ दिया हो । स्वजाति की सतर्कता और आतंकित मुद्रा का उसमें सर्वथा अभाव था।

मेरे कमरे में स्प्रिंगदार जाली के दरवाजे लगे हैं और खिड़कियों में भी जाली है। अचानक किसी कुत्ते-बिल्ली के भीतर आ जाने की सम्भावना नहीं रहती थी, परन्तु जाली के बाहर तो वे प्रायः आकर मेरी प्रतीक्षा में खड़े हो ही जाते थे । खरगोश न भागता, न कहीं छिपने का प्रयत्न करता, वरन्‌ जाली के पास आकर क्रोधित मुद्रा में अपनी दोनों काली लाल आँखों से उन्हें घूरता रहता । बिल्ली यदि जाली के पार खिड़की पर आकर बैठ जाती, तो वह अपने पिछले दोनों पैरों पर खड़े होकर उसे देखता और मुख से विचित्र क्रोध भरा स्वर निकालता। मेरे कमरे में दुर्मुख के रहने से शेष पशु-पक्षियों को निर्वासन ही मिल गया था, इसी से जब वह कुछ बड़ा, हृष्ट-पुष्ट और चिकना हो गया, तब मैंने उसे अपने पशु-पक्षियों के रहने के लिए बने जाली के घर में पहुँचाना उचित समझा। वहाँ आधा फर्श सीमेण्ट का है और आधा कच्चा मिट्टी का क्योंकि खरगोश जैसे जीव मिट्टी खोद- कर अपने लिए निवास बनाकर ही प्रसन्न रहते हैं। पिंजड़े या पक्के फर्शवाले घर में उनके जीवन का स्वाभाविक विकास और उल्लास रुक जाता है ।
 
दुर्मुख ने पहले तो मिट्टी खोदकर अपने रहने के लिए सुरंग जैसा घर बनाया और उस निर्माण कार्य से अवकाश मिलते ही जालीघर के अन्य निवासियों से "युद्धं देहि" कहना आरम्भ किया । उसके झपटने और काटने के कारण कबूतर, मोर आदि का दाना चुगने के लिए नीचे उतरना कठिन हो गया । वे तब तक अपने अड्डों और झूलों पर बैठे रहते, जब तक दुर्मुख अपने भोजन से तृप्त होकर सुरंग-घर में विश्राम के लिए न चला जाता। कभी- कभी सुरंग में भी उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों के नीचे उतरने की आहट मिल जाती । तब वह अचानक उन पर आक्रमण कर किसी को गर्दन और किसी के पैरों में अपने पैने दाँत गड़ा देता और वे आर्त्त स्वर से कोलाहल करते हुए ऊपर उड़ जाते ।

अन्त में यह सोचकर कि दुर्मुख के क्रोधी स्वभाव के कारण संभवत: उसका स्वजातिशून्य अकेलापन हैं, मैं नखासकोने में बड़े मियाँ से एक शशक वधू खरीद लाई। वह हिम-खण्ड जैसी चम- कीली, शुभ्र और लाल विद्रुम जैसी सुन्दर आँखों वाली थी, इसी से उसे हम हिमानी कहने लगे । पर मेरी यह धारणा कि दुर्मुख उसके साथ शिष्ट खरगोश के समान व्यवहार करेगा, भ्रान्त सिद्ध हुई अपनी काली-लाल आँखों में मानो, धूम और ज्वाला मिला- कर आग्नेय दृष्टि से उसने नवागता को देखा और फिर आक्रमण कर दिया। बड़ी कठिनाई से हम उस बेचारी की रक्षा कर सके। अपने बिल में तो दुर्मुख ने उसे घुसने ही नहीं दिया और जब एक बार उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर हिमानी ने उसके सुरंग-भवन में प्रवेश का साहस किया, तब सुरंग के स्वामी ने अचानक लौटकर उसे कानों से खींचते हुए बाहर ही नहीं निकाल दिया, उसके सुन्दर, कोमल और हिम शुभ्र कानों को कुतरकर लोहू-लुहान भी कर डाला। निरुपाय हिमानी ने जब दूसरा बिल खोदकर और उसमें कोमल हरी दूब बिछाकर अपना विश्राम कक्ष तैयार किया, तब दुर्मुख उस पर भी अपना अधिकार जमाने के लिए लड़ने लगा । फिर शीत के कुछ मास बीत जाने पर और वासंती ग्रीष्म के लम्बे दिन लौट आने पर दुर्मुख़ की कलह-प्रियता में कुछ थोड़ा-सा अन्तर दिखाई पड़ा।
 
एक दिन जब हिमानी अपने बिल से छ: शावकों की सेना लेकर निकली, तो जालीघर में ही नहीं, मेरे घर में भी उल्ला- सोत्सव की लहर बह गई, पर इस नवीन सृष्टि के आने के साथ ही दुर्मुख की अकारण क्रोधी प्रकृति भी अपने सम्पूर्ण ध्वंसात्मक आवेश के साथ लौट आई ।
 
वह किसी बच्चे का पाँव चबा डालता, किसी का कान कुतर डालता और किसी की पीठ में घाव कर देता । कदम्ब के फूल से फूले वे कोमल बच्चे रक्त से रंग-बिरंगे हो उठते। हिमानी भी अपनी संतान की रक्षा के प्रयत्न में नित्य ही घायल होने लगी । लोरैक्सेन मरहम, नेबासल्फ पाउडर, रुई आदि की गन्ध से, अशोक वृक्ष की छाया में मालती लता से छाया चिड़ियाघर भी अस्पताल का स्मरण दिलाने लगा।

फिर एक दिन क्रोध में दुर्मुख ने दो शशक-शावकों की कोमल गर्दन अपने तीखे दाँत से इतनी क्षत-विक्षत कर डाली कि वे बचाए न जा सके । स्थिति इतनी चिंतनीय हो जाने पर मैंने उसे अलग रखने का निश्चय किया। बड़े जालीघर के पास एक छोटा जालीघर बनाकर उसमें दुर्मुख को स्थानान्तरित कर दिया गया जहाँ से वह देख सबको सकता था, परन्तु उन पर आक्रमण करने में असमर्थ था। अपने निर्वासन में वह कुछ दिनों तक निष्फल क्रोध से छटपटाता रहा, फिर धरती खोदकर बिल बनाने में व्यस्त हो गया। बड़े जालीघर में जाने के लिए उसने ऐसा अव्यर्थ उपाय खोज निकाला था, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सके थे। धरती के नीचे-नीचे उसने एक इतनी लम्बी सुरंग खोद डाली जो बड़े जालीघर के भीतर पहुँच गई और इसी से वह बड़े जाली- घर में बिना रोकटोक आने लगा। माली ने बड़े जालीघर में खुलनेवाली सुरंग के द्वार को पत्थर से बन्द तो कर दिया, परन्तु इससे दुर्मुख का आक्रमण रोकना कठिन था। वह नये-नये द्वार बना लेता ओर जालीघर को जब तब रणक्षेत्र में परिवर्तित करता रहता । उसके बच्चे बड़े हो गए, फिर उनके भी बच्चे होने लगे, पर उनमें से न कोई दुर्मुख से लड़कर बल में जीत सका और न अपत्य-स्नेह से उसका हृदय जीत सका। यदि मृत्यु उसे न जीत लेती, तो यह क्रम निरन्तर चलता रहता।
 
फिर एक दिन जाकर देखा कि दुर्मुख निश्चेष्ट और ठंडा पड़ा है और एक संपोले के पूँछ की ओर का भाग उसके दांतों में दबा है। संपोले के मुख की ओर का भाग उसके पंजों के नीचे था।

प्रायः खरगोश की गंध से साँप आ जाते हैं; क्योंकि वह उसके प्रिय खाद्यों में से एक है। सम्भवतः साँप का बच्चा सन्ध से जाली के भीतर घुस आया हो, क्योंकि बड़े साँप का तो उस जाली में प्रवेश कठिन था । दुर्मुख अपने स्वभाव के कारण ही उस पर झपट पड़ा होगा। वह जालीघर में बने चबूतरे पर भी चढ़ सकता था। जिस पर साँप न चढ़ पाता ओर सुरंग से बड़े जाली घर में भी जा सकता था, जहाँ मोर के कारण साँप न प्रवेश कर पाता, परन्तु उसकी चिर लड़ाकू प्रकृति ने बचाव का कोई साधन स्वीकार नहीं किया । क्रोधी प्रकृति में भी पार्थिव रूप से मारक विष नहीं रहता, इसी से बेचारा दुर्मुख सँपोले का भी दंशन-विष नहीं सह सका, परन्तु मृत्यु से पहले उसने शत्रु के दो खण्ड करके अपना प्रतिशोध तो ले ही लिया ।
 
हमने बड़े जालीघर में उसकी समाधि बना दी है। मेरे सौ के लग- भग खरगोश दुर्मुख की ही प्रजा हैं, इसे कम लोग जानते हैं। उसकी संतति तो अपने पूर्वज का इतिहास जानने की शक्ति नहीं रखती, परन्तु मेरे घर में उसकी विशेषतायों की चर्चा प्रायः हो जाती है ।
 
मेरे माली का आज भी निश्चित मत है कि उस खरगोश पर पहलवान जी की छाया थी, नहीं तो भला कोई खरगोश साँप से लड़कर उसके टुकड़े कर सकता है! पहलवान की समाधि कहीं पास ही है और उनकी शक्ति की इतनी ख्याति है कि दूर-दूर से ग्रामवासी मनौतियाँ मनाने आते हैं ।
 
पर मुझे आज भी वह छोटा, मैगनोलिया के फूल-सा कोमल श्वेत शशक-शावक स्मरण हो आता है, जिसके जीवन के आरम्भ में ही उस पर दुर्योग से मार्जारी की निष्ठुर छाया आ पड़ी थी । यदि वह अन्य शावक के समान खेलता-खाता माँ की स्नेह-छाया में बड़ा होता, तो पता नहीं कैसा होता ।

निक्की, रोजी और रानी - महादेवी वर्मा

बाल्यकाल की स्मृतियों में अनुभूति की वैसी ही स्थिति रहती है, जैसी भीगे वस्त्र में जल की । वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, किन्तु वस्त्र के शीतल स्पर्श में उसकी उपस्थिति व्यक्त होती रहती है । इन स्मृतियों में और भी विचित्रता है। समय के माप से वे जितनी दूर होती जाती हैं, अत्मीयता के परिमाण में उतनी ही निकट आती जाती हैं ।
 
मेरे अतीत बचपन के कोहरे में जो रेखाएँ अपने संपूर्ण ममत्व के विविध रंगों में उदय होने लगती हैं, उनके आधारों में तीन ऐसे भी जीव हैं, जो मानव समष्टि के सदस्य न होने पर भी मेरी स्मृति में छपे से हैं। निक्‍की नेवला, रोजी कुत्ती और रानी घोड़ी ।
 
रोजी की जैसे ही आंखें खुलीं, वैसे ही वह, मेरे पाँचवें जन्म- दिन पर, पिताजी के किसी राजकुमार विद्यार्थी द्वारा मुझे उपहार रूप भेंट कर दी गई | स्वाभाविक ही था कि हम दोनों साथ ही बढ़ते । रोजी मेरे साथ दूध पीती, मेरे खटोले पर सोती, मेरे लकड़ी के घोड़े पर चढ़कर घूमती और मेरे खेल-कूद में साथ देती, वस्तुतः मेरे पशु-प्रेम का आरम्भ रोजी के साहचर्य से माना जा सकता है, जो तेरह वर्ष की लम्बी अवधि तक अविच्छिन्न रहा ।
 
रोजी सफेद थी, किन्तु उसके छोटे सुडौल कानों के कोने, पूंछ का सिरा, माथे का मध्य भाग और पंजों का अग्रांश कत्थई रंग का होने के कारण उसमें कत्थई किनारीवालो सफेद साड़ी की शबल रंगीनी का आभास मिलता है। वह छोटी पर तेज टैरियर जाति की कुत्ती थी, और कुछ प्रकृति से और कुछ हमारे साहचर्य से श्वान-दुर्लभ विशेषताएं उत्पन्न हो जाने के कारण घर में उसे बच्चों के समान ही वात्सल्य मिलता था । हम सबने तो उसे ऐसा साथी मान लिया था, जिसके बिना न कहीं जा सकते थे, ओर न कुछ खा सकते थे ।
 
उस समय पिताजी इन्दौर के डेलीकालेज (जो राजकुमारों का विद्यालय था) के वाइस प्रिन्सिपल थे और हम सब छावनी में रहते थे, जहां दूर तक कोई बस्ती ही नहीं थी । हमें पढ़ानेवाले शिक्षक प्रातः और संध्या समय आते थे । इस प्रकार दोपहर का समय हमारे लिए अवकाश का समय था, जिसे हम अति व्यस्तता में बिताते थे ।
 
सबसे छोटा भाई तो हमारी व्यस्तता में साथ देने के लिए बहुत छोटा था, परन्तु मैं, मुझसे छोटी बहिन और उससे छोटा भाई दोपहर भर बया चिड़ियों के घोंसले तोड़ते, बबूल की सूखी और बीजों के कारण बजनेवाली छीमियाँ बीनते घूमते रहते । ग्रीष्म में जब हवा ठहर-सी जाती थी, वर्षा से जब वातावरण गलकर बरसने-सा लगता था और शीत में जब समय जम-सा जाता था, हमारी व्यस्तता एक-सी क्रियाशील रहती थी ।

घूमते-घूमते थक जाने पर हमारा प्रिय विश्रामालय एक आम के वृक्ष से घिरा सूखा पोखर था, जिसका ऊँचा कगार पेड़ों की छाया में ८-८ फुट और खुली धूप में ४-५ फुट के लगभग गहरा था। कई आम के पेड़ों की शाखाएँ लम्बी-नीची और सूखे पोखर पर झूलती-सी थीं। सूखी पत्तियों ने झड़-झड़कर सूखी गहराई को कई फुट भर भी डाला था। हम तीनों डाल पर बैठकर झूलते रहते या रॉबिन्सन क्रूसो के समान अपने समतल समुद्र के गहरे टापू की सीमाएँ नापते रहते। घूमने के क्रम में यदि हमें कोई मकोइ का पौधा या करौंदे की झड़ी फूली-फली मिल जाती, तो नन्‍दनवन की प्रतीति होने लगती।
 
हमारे इस भ्रमण में रोजी निरंतर साथ देती । जब हम डाल पर बैठकर झूलते रहते, वह कगार के सिरे पर हमारे पैरों के नीचे बैठी कूदने के आदेश की आतुर प्रतीक्षा करती रहती । जब हम पोखर की परिक्रमा करते, वह हमारे आगे-आगे मानो राह दिखाने के लिए दौड़ती और जब हम मकोई और करौंदे एकत्र करने लगते, तब वह किसी झाड़ी की छाया में बड़े विरक्त भाव से बैठी रहती। गर्मी के दिनों में आम के पेड़ों से छोटी-बड़ी अंबिया हवा के झोंके से नीचे गिरती रहतीं और उनके गिरने के स्वर के साथ रोजी सूखे पोखर में कूदती और पत्तियों के सर- सराहट भरे समुद्र में से उसे खोज लाती । कच्ची कैरी की चेपी लग जाने से बेचारी का गुलाबी छोटा मुँह धबीला हो जाता, परन्तु वह इस खोज कार्य से विरत न होती ।

दोपहर को पिताजी कालेज में रहते और माँ घर के कार्य वा छोटे भाई की देखभाल में व्यस्त रहतीं । रामा बाजार चला जाता और कल्‍लू की माँ या तो सोती या माँज-माँजकर बर्तन चमकाने में दत्तचित्त रहती । वे सब समझते कि हम लोग या तो अपने कमरे में सो रहे हैँ या पढ़-लिख रहे हैं । पर हम कुछ ऊँची खिड़की की राह से पहले रोजी को उत्तार देते और फिर एक-एक करके तीनों बाहर बगीचे में उतरकर करोंदे की झाड़ियों में छिपते-छिपते अपने उसी सूने मुक्तिलोक में पहुँच जाते । तीन में से किसी को भी कमरे में छोड़ना शंका से रहित नहीं था, क्‍योंकि वह बिस्कुट, पेड़ा, बर्फी आदि किसी उत्कोच के लोभ में मुखबिर बन सकता था । परिणामतः तीनों का जाना अनिवार्य था। रोजी भी हमारे निर्बन्ध-सम्प्रदाय में दीक्षित हो चुकी थी, अतः वह भी साथ आती थी । हमारे अभियान के रहस्य को वह इतना अधिक समझ गई थी कि दोपहर होते ही खिड़की से कूदने को आकुल होने लगती और खिड़की से उतार दिये जाने पर नीचे बैठकर - मनोयोगपूर्वक हमारा उतरना देखती रहती । कभी खिड़की से कूदते समय हममें से कोई उसी के ऊपर गिर पड़ता था, पर वह चीं करना भी नियम-विरुद्ध मानती थी।
 
ऐसे ही एक स्वच्छन्द विचरण के उपरान्त जब हम आम की डाल पर झूल-झूलकर अपने संग्रहालय का निरीक्षण कर रहे थे, तब एक आम गिरने का शब्द हुआ और रोजी नीचे कूदी । कुछ देर तक वह पत्तियों में न जाने क्‍या खोजती रही, फिर हमने आश्चर्य से देखा कि वह मुँह में किसी जीव को दबाये हुए ऊपर आ रही है। वस्तुत: उस सूखे पोखर के नीचे कगार में बिल बना- कर किसी नकुल दम्पत्ति ने प्रजापति के कार्य में सक्रिय सहयोग देना आरम्भ किया था। उनकी नकुल-सृष्टि का कोई लघु, परन्तु हमारे ही समान अराजकतावादी सदस्य, अपने सृजनकर्त्ताओं की दृष्टि बचाकर सूखी पत्तियों के समुद्र में ऊपर तैर आया था। पत्तियों से छोटा मुँह निकालकर उसने जैसे ही बाहर के संसार पर विस्मित दृष्टि डाली, वैसे ही अपने-आपको रोजी के छोटे और अंधेर मुख-विवर में पाया ! निरन्तर बिना दाँत चुभाये कच्ची अंबिया लाते-लाते रोज़ी इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि उस कुलबुलाते जीव को भी सुरक्षित हम तक ले आई ।

आकार में वह गिलहरी से बड़ा न था, पर आकृति में स्पष्ट अन्तर था। भूरा चमकीला रंग, काली कत्थई-आँखें, नर्म-नर्म पंजे, गुलाबी नन्‍हा मुँह, रोओं में छिपे हुए नन्‍हीं सीपियों से कान, सब कुछ देखकर हमें वह जीवित नन्‍हा खिलौना-सा जान पड़ा । रोजी ने उसे हौले से पकड़ा था, परन्तु बचने के संघर्ष में उसके कुछ खरोंच लग ही गई थी | चोट से अधिक भय से वह निश्चेष्ट था । उसे पाकर हम सब इतने प्रसन्न हुए कि अपना घोंसले, चिकने पत्थर, जंगली कनेर के फूल आदि का विचित्र संग्रहालय छोड़कर उसे लिए हुए घर की ओर भागे । उस समय की उत्तेजना में हम अपने अज्ञात भ्रमण की बात भी भूल गए, परन्तु माँ ने यह नहीं पूछा कि वह छोटा जीव हमें कहाँ और कैसे मिला । उन्होंने जीव- जन्तुओं को न सताने के सम्बन्ध में लम्बा उपदेश देने के उपरान्त, उसे उसके नकुल माता-पिता के पास बिल में रख आने का आदेश दिया।
 
हमें बेचारे नकुल शिशु से बड़ी सहानुभूति हुई । छोटे-से बिल में रात-दिन पड़े माता-पिता के सामने बैठे रहने में जो कष्ट बच्चे को हो सकता है, उसका हम अनुमान कर सकते थे । यदि एक छोटे कमरे में हमें सामने बैठाकर बाबूजी रात-दिन पढ़ाते रहें और माँ सिलाई-बुनाई में लगी रहें, तो हमारा क्या हाल होगा । ऐसी ही कोई अप्रिय स्थिति बिल में रही होगी, नहीं तो यह इतना छोटा बच्चा भागता ही क्‍यों ! अतः नकुल शिशु के बिल और बिल-निवासी माता-पिता की खोज में हम अनिच्छापूर्वक गये और खोज में असफल होकर निराश से अधिक प्रसन्न लौटे ।
 
अब तो उस लघु प्राणी का हमारे अतिरिक्त कोई आश्रय ही नहीं रहा । प्रसन्नतापूर्वक हमने अपने खिलौनों के छोटे बक्स को खाली कर उसमें रुई और रेशमी रूमाल बिछाया। फिर बहुत अनुनय-विनय कर और उसके सब आदेश मानने का वचन देकर रामा को, उसे रुई की बत्ती से दूध पिलाने के लिए राजी किया । इस प्रकार हमारे लघु परिवार में एक लघुतम सदस्य सम्मिलित हुआ ।
 
जब रामा की सतर्क देख-रेख में वह कुछ दिनों में स्वस्थ और पुष्ट होकर हमारा समझदार साथी हो गया, तब हम रामा को दिये वचन भूलकर फिर पूर्ववत्‌ अराजकतावादी बन गये ।
 
माँ ने उसका नाम रखा नकुल, जो उसकी जातिवाचक संज्ञा का तत्सम रूप था, किन्तु न जाने संक्षिप्तीकरण की किस प्रवृत्ति के कारण हम उसे निक्‍की पुकारने लगे।

पालने की दृष्टि से नेवला बहुत स्नेही और अनुशासित जीव है गिलहरी के खाने योग्य कीट, पतंग, फल, फूल आदि कोई भी खाद्य खाकर वह अपने पालनेवाले के साथ चौबीसों घण्टे रह सकता है। जेब में, कन्धे पर, आस्तीन में, बालों में, जहाँ कहीं उसे बैठा दिया जावे, वह शान्‍त स्थिर भाव से बैठकर अपनी छोटी पर सतर्क आँखों से चारों ओर की स्थिति देखता परखता रहता था ।
 
निक्‍की मेरे पास ही रहता था ।
 
उस समय हमारे परिवार में छोटी लड़कियों की वेशभूषा में गोटे-पट्टे से सजा गरारा, कुर्त्ता और दुपट्टा विशेष महत्त्व रखता था । जिसमें वे मध्यकालीन बेगमों के लघु संस्करण जान पड़ती थीं । कभी-कभी प्रगतिशीलता का प्रमाण देने के लिए उन्हें फ्रॉक पहनाए जाते थे, जिसके कॉलर, लेस, झालर आदि के घटाटोप में वे क्वीन विक्टोरिया की संगिनियों का भ्रम उत्पन्न करके मानो पूर्व-पश्चिम दोनों का प्रतिनिधित्व करती थीं। हमारे जूते तक पूर्व-पश्चिम में विभाजित थे। पूर्व के वेश के साथ छोटी, हल्की और जरी के काम वाली जूतियाँ पहनकर हम घिसटते हुए चलते थे। पश्चिमीय वेश के साथ घुटने के ऊपर तक काले या सफेद मोजे चढ़ाकर ऊँची एड़ीवाले और तस्में से कसे-बंधे जूते पहनकर डगमगाते हुए चलते थे । हमारे मन और पैर दोनों ही इस संचरण- पद्धति से विद्रोह करते थे, क्योंकि वह न हमें करोंदे की झांडियां लाँघने देती और न दौड़ने । अतः हम आल्मारी में दोनों प्रकार के पदत्राणों को छिपाकर खिड़की से कूदते और नंगे पैर कंकड़-पत्थरों पर दौड़ लगाते थे ।
 
निक्‍की या तो मेरे दुपट्टे की चुन्नट में छिपा हुआ झूलता रहता या गर्दन के पीछे चोटी में छिपकर बैठता और कान के पास नन्‍हा मुंह निकालकर चारों ओर की गतिविधि देखता । रोजी का कार्य तो हमारे साथ दौड़ना ही था, परन्तु निक्‍की इच्छा होने पर ही अपने सुरक्षित स्थान से कूदकर दौड़ता । एक दिन जैसे ही हम खिड़की से नीचे उतरे, वैसे ही निक्‍की की सतर्क आँखों ने गुलाब की क्यारी के पास घास में एक लम्बे काले साँप को देख लिया और वह कूदकर उसके पास पहुँच गया । हमने आश्चर्य से देखा कि निक्‍की दो पिछले पैरों पर खड़ा होकर साँप को मानो चुनौती दे रहा है और साँप भी हवा में आधा उठकर फुफकार रहा था।
 
निक्‍की ने साँप को मार डाला, समझकर हम सब चीखने- पुकारने और साँप को पत्थर मारने लगे। यदि हमारा कोलाहल सुनकर रामा न आ जाता, तो परिणाम कुछ दुःखद भी हो सकता था।
 
उस दिन प्रथम बार हमें ज्ञात हुआ कि हमारा बालिश्त भर का निक्‍की कई फुट लम्बे साँप से लड़ सकता है। उन दोनों की लड़ाई मानो पेड़ की हिलती डाल से बिजली का खेल थी । निक्‍की साँप के सब ओर इतनी तेजी से घूम रहा था कि वह एक भूरे और घूमते हुए धब्बे की तरह लग रहा था। साँस फन पटक रहा था, फुफकार रहा था, उसे अपनी कुण्डली में लपेट लेने के लिए आगे-पीछे हट-बढ़ रहा था, परन्तु बिजली की तरह तड़प उठने- वाले निक्‍की को पकड़ने में असमर्थ था । वह तेजी से उछल-उछल कर साँप के फन के नीचे पैने दाँतों से आघात कर रहा था।
 
रामा के कारण इस असमय युद्ध का अन्त देखने के लिए तो हम बाहर खड़े न रह सके, परन्तु जब निक्‍की खिड़की पर आकर बैठा, तब हमने झाँककर साँप को कई खंडों में कटा देखा। निक्‍की के मुंह में विष न लगा हो, इस भय से रामा ने उसके मुंह को पानी में डुबा-डुबा कर धोया और फिर दूध दिया ।
 
साँप जैसे विषधर को खण्ड-खण्ड करने की शक्ति रखने पर भी नेवला नितान्‍त निर्विष है । जीव-जगत में जो निर्विष है, वह विष से मर जाता है और जिसमें अधिक मारक विष है, वह कम मारक वाले की परास्त कर देता है। पर नेवला इसका अपवाद है। वह विष रहित होने पर भी न सर्प के विष से मरता है और न संघर्ष में विषधर से परास्त होता है ।
 
नेवला सर्प की तुलना में बहुत कोमल और हल्का है। यदि साँप चाहे तो उसे अपनी कुण्डली में लपेटकर चूर-चूर कर डाले। फण के फूत्कार से मूर्छित कर दे, परन्तु वह नेवले के फूल से हल्केपन और बिजली जैसी गति से परास्त हो जाता है। नेवला न उसे दंशन का अवसर देता है, न व्यूह रचना का अवकाश । और अपनी लाघवता के कारण नेवले को न विशेष अवसर चाहिए न सुयोग ।

इसी बीच में बाबूजी ने मुझे शहर के मिशन स्कूल में भर्ती करने का निश्चय किया। इस योजना से तो हमारा समस्त कार्यक्रम ध्वस्त होने की सम्भावना थी, अतः हम सब अत्यंत दुखी और चिन्तित हुए, परन्तु विवशता थी ।
 
अन्त में एक दिन पुस्तक लेकर और शिकरम ( बन्द गाड़ी जो उन दिनों नागरिक प्रतिष्ठा की सूचक थी ) में बैठकर मुझे जाना पड़ा ।
 
निक्‍की सदा के समान मेरे साथ था, परन्तु बाबूजी के आदेश से उसे घर पर ही छोड़ देना आवश्यक हो गया। मिशन स्कूल पहुँच कर देखा कि वह शिकरम की छत पर बैठकर वहाँ पहुँच गया है। फिर तो उसे कपड़ों में छिपाकर भीतर ले जाने में मुझे सफलता मिल गई। परन्तु कक्षा में उसे मेरे पास देखकर जो कोहराम मचा, उसने मुझे स्तम्भित और अवाक्‌ कर दिया। She has brought a reptile, throw it away आदि कहकर सिस्टर्स तथा सहपाठिनियाँ चिल्लाने-पुकारने लगीं, तब reptile का अर्थ न जानने पर भी मैंने समझ लिया कि वह निक्‍की के लिए अपमानजनक सम्बोधन है। मैंने कुछ अप्रसन्न मुद्रा में बार-बार कहा कि यह मेरा निक्‍की है, किसी को काटता नहीं, परन्तु कोई उसके साथ बैठने को राजी नहीं हुआ । निरुपाय मैंने उसे फाटक से चहारदीवारी तक फैली लता में बैठा तो दिया, परन्तु उसके खो जाने की शंका से मेरा मन पढ़ाई-लिखाई से विरक्त ही रहा।
 
आने के समय जब निक्‍की कूदकर मेरे कन्धे पर आ बैठा तब आनन्द के मारे मेरे आँसू आ गए । तब से नित्य यही क्रम चलने लगा।
 
प्रतिदिन मुझे पहुँचाने और लेने रामा आता था और वह पालक के नाते निक्‍की के प्रति बहुत सदय था, अतः मार्ग भर निक्‍की मेरी गोद में बैठकर आता था और मिशन के फाटक की लता में या बाग में घूम-घूमकर मेरी पढ़ाई के घंटे बिताता था। छुट्टी होने पर मेरे फाटक पर पहुँचते ही उसका कूदकर मेरे कंधे पर बैठ जाना इतना नियमित और निश्चित था कि उसमें कुछ मिनटों का हेर-फेर भी कभी नहीं हुआ ।

मिशन का वातावरण मेरे लिए घर के वातावरण से भिन्न था। वहाँ की वेशभूषा भिन्न थी, प्रार्थना भिन्न थी, चित्र, मूर्ति आदि भिन्न थे, ईश्वर नाम भी भिन्न था, और इन सबसे बड़ी भिन्नता यह थी कि निक्‍की का वहाँ प्रवेश निषिद्ध था ।
 
इसके उपरान्त हमारे परिवार में एक सबसे बड़ा जीव सम्मिलित हुआ ।
 
रियासत होने के कारण इंदौर में शानदार घोड़ों और सवारों का आधिक्य था। इसके अतिरिक्त हम अंग्रेजों के बच्चों को छोटे टट्टुओं या सफेद गधों ( जिनकी जाति के सम्बन्ध में रामा ने हमारा ज्ञानवद्धर्न किया था) में घूमते देखते थे । रामा की कहानियों में तो राजा, अपराधियों की गधे पर चढ़ाकर देश निकाला देता था। इन्हें गधों पर बैठकर प्रसन्नता से घूमते देखकर विश्वास करना कठिन था कि इन्हें दण्ड मिला है। रामा के पास हमारी जिज्ञासा का समाधान था। इन्हें विलायत में गधे पर बैठने का दण्ड देकर भारत भेजा गया है, क्योंकि वहाँ यह वाहन नहीं है ।
 
एक दिन हम तीनों ने बाबूजी को मौखिक स्मृतिपत्र (मेमो- रेण्डम) दिया कि हमारे पास छोटा घोड़ा न रहना अन्याय की बात है। यदि अन्य बच्चों को घोड़े पर बैठने का अधिकार है, तो हमें भी यह अधिकार मिलना चाहिए ।

बाबूजी ने हँसते हुए पूछा, सफेद टट्टू पर बैठोगे ? 'तुम कहो” तुम कहो' के साथ ठेलमठाल के उपरान्त मैंने अगुआ होकर गम्भीर मुद्रा में उत्तर दिया, 'सफेद टट्टू तो गधा होता है, जिस पर बैठाकर सजा दी जाती है ।'
 
पता नहीं, हमारे ज्ञान के अजस्र स्रोत रामा को बाबूजी ने डाँटा या नहीं, परन्तु कुछ दिन बाद हमने देखा कि एक छोटा-सा चाकलेट रंग का टट्टू आँगन के पश्चिम वाले बरामदे में बाँधा गया है। बरामदा तो घोड़े बाँधने के लिए बनाया नहीं गया था अतः बाहर से टट्टू को लाने, ले जाने के लिए दीवाल में एक नया दरवाजा लगाया गया और उसकी मालिश करने तथा खाने, पीने, घूमने आदि की देखरेख के लिए छुटुन नाम का साईस रखा गया।
 
अब तो हम उस छोटे टट्टू से बहुत प्रभावित और आतंकित हुए । हमारे तथा हमारे अन्य साथी जीवों के लिए न मकान में कोई परिवतर्न हुआ, न कोई विशेष नौकर रखा गया । रामा को तो नौकर कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह तो डाटने-फटकारने के अतिरिक्त हमारे कान भी खींचता था। और हमारी खिड़क़ी तक दरवाजे में परिवर्तित न हो सकी, जिससे हम रोजी और निक्‍की के साथ कूदने के कष्ट से मुक्त हो सकते । बाबूजी से यह सुनकर भी कि वह टट्टू हमारी सवारी के लिए आया है, हम सब चार-पाँच दिन उससे रुष्ट और अप्रसन्न ही घूमते रहे, परन्तु अन्त में उसने हमारी मित्रता प्राप्त कर ही ली। रामा से उसका नाम पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसे ताज रानी कहकर पुकारा जाता है । ताजमहल का चित्र हमने देखा था और रामा और कल्लू को माँ की सभी कहानियों में रानी के सुख-दुख की गाथा सुनते-सुनते हम उसके प्रति बड़े सदय हो गए थे। ताजमहल जैसे भवन की रानी होने पर भी यह यहाँ से कहानी की रानी की तरह निकाल दी गई है, यह कल्पना करते ही हमारी सारी ईर्ष्या और सारा रोष करुणा से पिघल गया और हम उसे और अधिक आराम देने के उपाय सोचने लगे ।

वह इतनी सुन्दर थी कि अब तक उसकी छवि आंखों में बसी जैसी है। हल्का चाकलेटी चमकदार रंग, जिस पर दृष्टि फिसल जाती थी । खड़े छोटे कानों के बीच में माथे पर झूलता अयाल का गुच्छा, बड़ी, काली, स्वचछ और पारदर्शी जैसी आँखें, लाल नथुने जिन्हें फुला-फुलाकर वह चारों ओर की गन्ध लेती रहती, उजले दाँत और लाल जीभ की झलक देते हुए गुलाबी ओठोंवाला लम्बा मुंह, जो लोहा चबाते रहने पर भी क्षत-विक्षत नहीं होता था। ऊँचाई के अनुपात से पीठ की चौड़ाई अधिक थी । सुडौल, मजबूत पैर और सघन पूँछ, जो मक्खियाँ उड़ाने के क्रम में मोरछल के समान उठती-गिरती रहती थी । उस समय यह सब समझने की बुद्धि नहीं थी, परन्तु इतने दीर्घ काल के उपरान्त भी स्मृतिपट पर वे रेखाएं ऐसे उभर आती हैं, जैसे किसी अदृश्य स्याही में लिखे अक्षर अग्नि के ताप से प्रत्यक्ष होने लगते हैं ।
 
हम बारबार सोचते हैं कि वह कुछ और छोटी क्‍यों न हुई । होती तो हम रोजी और निक्‍की के समान उसे भी अपने कमरे में रख लेते ।
 
रानी को अपने कमरे में ले जाना संभव नहीं था, अतः अस्तबल बना हुआ बरामदा ही हमारी अराजकता का कार्यालय बना ।
 
बरामदा घोड़े बाँधने के लिए तो बना नहीं था, अतः: उसकी दीवार में एक खुली आल्मारी और कई आले-ताख थे । उन्हीं में हमारा स्वेच्छया विस्थापित और शरणार्थी खिलौनों का परिवार स्थापित होने लगा ।

रानी की गर्दन में झूल-झूलकर, उसके कान और अयाल में फूल खोंस-खोंसकर और उसको बिस्कुट मिठाई आदि खिला- खिला कर थोड़े ही दिनों में हमने उससे ऐसी मैत्री स्थापित कर ली कि हमें न देखने पर वह अस्थिर होकर पैर पटकने और हिनहिनाने लगती ।
 
फिर हमारी घुड़सवारी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ । मेरे और बहिन के लिए सामान्य, छोटी पर सुन्दर जीन खरीदी गई और भाई के लिए चमड़े के घेरेवाली ऐसी जीन बनवाई गई, जिससे संतुलन खोने पर भी गिरने का भय नहीं था ।
 
बाहर के चबूतरे पर खड़े होकर हम बारी-बारी से रानी पर आरूढ़ होते और छुट्टन साथ दौड़ता हुआ हमें घुमाता | सबेरे भाई-बहिन घूमते और स्कूल से लौटने पर तीसरे पहर या संध्या समय मेरे साथ वह कार्यक्रम दोहराया जाता।
 
परन्तु ऐसी सवारी से हमारी विद्रोही प्रकृति कैसे सन्तुष्ट हो सकती थी। अस्तबल में रानी की गर्दन में झूलकर तथा स्‍्टूल के सहारे उसकी पीठ पर चढ़कर भी हमें सन्‍तोष न होता था।
 
अन्त में एक छुट्टी के दिन दोपहर में सबके सो जाने पर हम रानी को खोलकर बाहर ले आये और चबूतरे पर खड़े होकर उसकी नंगी पीठ पर सवारी करके बारो-बारी से अपनी अधूरी शिक्षा की पूरी परीक्षा देने लगे ।
 
यह स्वाभाविक ही था कि ताजरानी हमारी अराजक प्रवृत्तियों से प्रभावित हो जाती। वास्तव में बालकों में चेतना के विभिन्न स्तरों का बोध न होकर सामान्य चेतना का ही बोध रहता है। अतः उनके लिए पशु-पक्षी, वनस्पति सब एक परिवार के हो जाते हैं ।
 
निक्‍की रानी की पूँछ से झूलने लगता था, रोजी इच्छानुसार उसकी गर्दन पर उछलकर चढ़ती और नीचे कूदती थी और हम सब उसकी पीठ पर ऐसे गर्व से बैठते थे, मानो मयूर सिंहासन पर आसीन हैं |
 
रानी हम सबकी शक्ति और दुर्बलता जानती थी। उसकी नंगी पीठ पर अयाल पकड़कर बैठनेवालों को वह दुल्की चाल से इधर-उधर घुमाकर संतुष्ट कर देती थी। परन्तु एक बार मेरे बैठ जाने पर भाई ने अपने हाथ की पतली संटी उसके पैरों में मार दी । चोट लगने की तो सम्भावना ही नहीं थी, परन्तु इससे न जाने उसका स्वाभिमान आहत हो गया या कोई दुःखद स्मृति उभर आई। वह ऐसे वेग से भागी, मानो सड़क, पेड़, नदी, नाले सब उसे पकड़ बाँध रखने का संकल्प किये हों ।

कुछ दूर मैंने अपने आपको उस उड़न खटोले पर संभाला परन्तु गिरना तो निश्चित था। मेरे गिरते ही रानी मानो अतीत से वर्तमान में लौट आई और इस प्रकार निश्चल खड़ी रह गई, जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो ।
 
साथियों की चीख-पुकार से सब दौड़े और फिर बहुत दिनों तक मुझे बिछौने पर पड़ा रहना पड़ा । स्वस्थ होकर रानी के पास जाने पर वह ऐसी करुण पश्वात्ताप भरी दृष्टि से मुझे देखकर हिनहिनाने लगी कि मेरे आँसू आ गये। एक बार भाई के जन्म-दिन पर नानी ने उसके लिए सोने के कड़े भेजे । सामान्यतः हम कोई भी नया कपड़ा या आभूषण पहन कर रानी को दिखाने अवश्य जाते थे। सुन्दर छोटे-छोटे शेर मुंहवाले कड़े पहनकर भाई भी रानी को दिखाने गया और न जाने किस प्रेरणा से वह दोनों कड़े उतारकर रानी के खड़े सतर्क कानों में वलय की तरह पहना आया।
 
फिर हम सब खेल में कड़ों की बात भूल गये । सन्ध्या समय भाई के कड़े रहित हाथ देखकर जब माँ ने पूछताछ की, तब खोज आरम्भ हुई । पर कहीं भी कड़ों का पता नहीं चला ।
 
रानी अपने कोने को खुरों से खोदती और हिनहिनाती रही। अन्त में बाबूजी का ध्यान उसकी ओर गया और उन्होंने छुट्टन को कोने की मिट्टी हटाने का आदेश दिया । किसी ने कुछ गहरा गड्ढा खोदकर दोनों कड़े गाड़ दिये थे । दण्ड तो किसी को नहीं मिला, परन्तु रानी सारे घर के हृदय में स्थान पा गई।

एक घटना अपनी विचित्रता में स्मरणीय है। एक सवेरे उठने पर हमने रानी के पास एक छोटे-से घोड़े के बच्चे को देखा। “यह कहाँ था ?” कह-कहकर हमने रामा को इतना थका दिया कि उसने निरुपाय घोषणा की कि वह नया जीव रानी के पेट में दाना-चारा खाकर सो रहा था। भाई ने उत्साह से पूछा, और भी है' रामा ने स्वीकृति में सिर हिलाया ।
 
अब तो हम विस्मित भी हुए और क्रोधित भी। यह छोटे जीव कोई काम-धाम नहीं करते और हमको पीठ पर बैठाकर दौड़नेवाली रानी का दाना-चारा स्वयं खाकर उसके पेट में लेटे रहते हैं।
 
भाई ने कहा, रानी का पेट चीरकर हम कम से कम एक और बच्चा घोड़ा निकाल लें--तब बच्चे घोड़ों पर वे छोटे बहिन-भाई बैठेंगे और रानी मेरी सेवा में रहेगी। प्रस्ताव मुझे भी उचित जान पड़ा, पर जब एक दोपहर को वह कहीं से शाक काटने का चाकू ले आया, तब मेरे साहस ने उत्तर दे दिया । एक और था। समस्या की ओर हमारा ध्यान गया । आखिर हम रानी का पेट सियेंगे कैसे । माँ की महीन-सी सुई से तो सीना संभव नहीं था । टाट सीने का बड़ा सूजा रामा अपनी कोठरी में रखता था, जहाँ हमारी पहुँच नहीं थी । कुछ दिनों के उपरान्त जब रानी का अश्व शिशु कुछ बड़ा होकर दौड़ने लगा, तब हमें न अपना क्रोध-स्मरण रहा और न प्रस्ताव ।
 
फिर अचानक हमारे अराजक राज्य पर क्रान्ति का बवंडर बह गया और हमें समझदारों के देश में निर्वासित होना पड़ा । अवकाश के दिनों में जब हम घर लौटे, तब निक्‍की मर चुका था, रानी और उसका बच्चा पवन किसी को दे दिये गये थे। केवल दुर्बल, अकेली और खोई-सी रोज़ी हमारे पैरों से लिपटकर कूँ-कूँ करके रोने लगी। 
 

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