सप्तपर्णा महादेवी वर्मा Saptparna Mahadevi Verma

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

सप्तपर्णा महादेवी वर्मा
Saptparna Mahadevi Verma

सप्तपर्णा - mahadevi verma

सप्तपर्णा में mahadevi verma ने संस्कृत और पालि साहित्य के वेद,

रामायण, थेर गाथा, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की

चयनित कृतियों में से 39 अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद प्रस्तुत किया

है।

इसके सात सोपान हैं: आर्षवाणी, वाल्मीकि, थेरगाथा, अश्वघोष,

 

कालिदास, भवभूति और जयदेव ।

उषा mahadevi verma

दिवजाता शुभ्राम्बर-विलसित,

नूतन, आभा से उद्भासित,

भू-सुषमा की एक स्वामिनी

शोभन आलोकित विहान दे ।

अरुण किरण के वाजि चन्द्र-रथ-

ले करती जा पार क्रान्ति-पथ,

निशि-तम-हारिणि हे विभावरी

हमें यजन गौरव महान दे ।

 

सुगम तुझे गति है अचलों पर,

सुतर शान्त लहरों का सागर,

निश्चित क्रम विस्तृत पथ-चारिणि,

स्वत: दीप्त तू हमें मान दे।

 

दिन दिन नव नव छबि में आकर,

गृह गृह में आलोक बिछाकर,

ज्योतिष्मती प्रात की बेला,

ऐश्वर्यों में श्रेष्ठ दान दे ।

 

जन न ठहरते पथ में पग धर,

खग न रुके नीड़ों में पल भर,

जिसका उदय वलोक-वही

अरुणा अब हमको सजग प्राण दे ।

 

जागे द्विपद चतुष्पद आकुल,

दिग्दिगन्तचारी पुलकाकुल,

जिसका आगम देख उषा वह

कर्म-पन्थ सबको समान दे ।

(ऋग्वेद)

 

ज्योतिष्मती mahadevi verma

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

प्रज्जवलित अग्नि है लहराती आभा सित ।

 

सब द्विपद चतुष्पद प्राणि जगत है चंचल,

सविता ने सब को दिया कर्म का सम्बल,

नव रश्मिमाल से भूमण्डल-परिवेषित !

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

 

जो ऋत् की पालक मानव-युग-निर्मायक,

जो विगत उषायों के समान सुखदायक,

भावी अरुणायों में प्रथमा उदृभासित !

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

 

आलोकदुकूलिनि स्वर्ग-कन्याका नूतन,

पूर्वायन-शोभी उदित हुई उज्ज्वलतन,

व्रतवती निरन्तर दिग् दिगंत से परिचित !

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

 

उसके हित कोयी उन्नत है न अवर है,

आलोकदान में निज है और न पर है,

विस्तृत उज्ज्वलता सब की, सब से परिचित !

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

 

रक्ताभ श्वेत अश्वों को जोते रथ में,

प्राची की तन्वी आई नभ के पथ में,

गृह गृह पावक, पग पग किरणों से रंजित !

आ रही उषा ज्योति:स्मित !

 

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जागरण mahadevi verma

सज गया दक्षिणा का देखो वह महत यान,

सब जाग उठे हैं अमृत पुत्र भी कान्तिमान !

 

आर्या अरुणा आरूढ़ आ रही तिमिर पार,

गृह गृह पहुँचाने ज्योतिर्धन का अतुल भार ।

 

जेता संग्रामों की ऐश्वर्यों की रानी,

चेतन जग से पहले जागी वह कल्याणी;

 

यह युवति सनातन प्रतिदिन नूतन बन आती,

वह प्रातयज्ञ में प्रथम पुरोहित सी भाती ।

 

कर देवि ! सुजाते ! ऐश्वयों का सम वितरण,

सविता साक्षी, हैं हम सबके अकलुष तन मन;

 


 

आलोक बिछाती प्रियदर्शन छबिमय प्रतिदिन,

उजला कर जाती हर घर का तममय आँगन ।

 

ज्योतिर्वसना तू शनै: शनै: उतरी भू पर,

निधियों में तेरा दान रहा सबसे भास्वर;

 

यो सूर्य वरुण की स्वसा ! गूंजते तेरे स्वर,

हारे विद्वेषी, रथी रहें हम विजयी वर ।

 

हो ऊर्ध्वगामिनि सत्य पुरंध्री वाक् मधुर;

प्रज्ज्वलित पूत यह अग्निशिखा उठती ऊपर,

 

तम के परदे में जो निधियां थीं अन्तर्हित,

अब दीप्तिमतो बेला में होतीं उद्भासित ।

 

जाती रजनी, आती है अरुणा क्षिप्रचरण,

हैं रूप भिन्न पर एक संचरण का बन्धन;

 

वह अन्तरिक्ष में तिमिर-तोम फैला जाती,

जाज्वल्यमान स्पन्दन पर यह पथ में आती ।

 

जो रूप आज, कल भी उसका प्रत्यावर्तन,

करती अरुणायें वरुण-नियम गति में धारण ।

 

क्रम से नित करती पन्थ पार योजनत्रिविंशत्,

होता समीप प्रत्येक पहुँचती दोषरहित ।

 


 

परिचित है दिन के प्रथम चरण के आगम से,

उज्ज्वलवदना उद्भूत हुई है वह तम से;

 

वह कांतिमति युवती प्रकाश का कर वर्षण,

रखती अखण्ड वह नियम बंधा जिससे जीवन ।

 

रुपसि कन्या सी अवगुण्ठन से मुक्त वदन,

कामनाशील सविता का करती स्वयं वरण;

 

उसके समक्ष यह युवति विभा सस्मित आनन,

उर का आवरण हटा, देती छबि का दर्शन ।

 

ज्यों मातृ-प्रसाधित वधू-गात लोचन-रोचन,

विच्छुरित प्रभा से आज उषा का सुन्दर तन;

 

तम का वारण कर ज्योतियी भद्रे ! धन्या !

तेरी समानता कर न सके अरुणा अन्या ।

 

यह अश्ववती गोमती विश्व से वरणीया,

रवि-रश्मि-प्रेरिता आती है नित कमनीया;

 

यह नित्य लौटती दूर दिशायों में जाकर,

मंगलरुपों में संकेतित मंगल के वर ।

करती ध्रुव अनुसरण सूर्य-किरणों का तू नित,

भद्रे ! कर दे कर्म हमारे भद्र-निवेशित ।

 


 

तेरा यह आलोक करे अज्ञानों का क्षय,

प्राप्त हमें होताओं को, हो निधियों का चय ।

 

(ऋग्वेद)

बोध mahadevi verma

मुझको देखो, मुझको जानो !

 

मैं मनु था मैं कक्षिवान

मैं सूर्य दिवाकर,

अपनाता हूँ आर्जुनेय (विद्वज्जन) को

मैं ही ऋतपर ।

मुझको देखो, मुझको जानो !

 

आर्य (श्रेष्ठ) जनों के हित मैं

धरती का दाता हूँ,

दानशील के लिए वृष्टियाँ

मैं लाता हूँ !

मुझको देखो, मुझको जानो !

 

मेरे हो इंगित से जल

कर रहे संचरण,

मेरी प्रज्ञा का करते हैं

देव अनुसरण ! मुझको देखो, मुझको जानो !

 


 

मैं कवि हूँ, मैं क्रान्ति दृष्टियों

से संयुत हूँ,

मैं उशना हूँ अखिल विश्व-

मैं सबका हित हूँ !

मुझको देखो, मुझको जानो !

 

(ऋग्वेद)

अग्नि-गान mahadevi verma

हव्यवाह ! नित ज्वलनदीप्त तुम

यजनशील के दूत समान,

बल-जन्मा ! तुमसे यजनों में

होता देवोंका आह्वान !

 

रचते हो तुम आहुतियों से

नित्य दिव्य अर्चना-विधान,

करते हो तुम अन्तरिक्ष में

आलोकित पथ का निर्माण !

 

वेगवती लपटें लगती हैं

जैसे हों तुरंग चंचल,

नभ के मेघों के समान ही

उनका है सुमन्द्र गर्जन !

 


 

आयुध सी इन दीप्त शिखाओं-

से सज्जित समीर-प्रेरित,

बली बृषभ से अग्नि वनों में

बाधारहित तुम्हीं धावित !

 

व्यापक अन्तरिक्ष में रहते

प्रभा-पुत्र तुम अंतर्हित,

सभी चलाचल हो जाते हैं

वेग तुम्हारे से कम्पित !

 

दीप्त स्वर्ग के तुम मस्तक हो

तुम पृथिवी की नाभि अनूप,

दिव्य लोक, धरती दोनों में

तुम रहते हो अधिपति रूप !

 

एक सूर्य में ज्यों हो जाते

लीन किरण के जाल समस्त,

हे वैश्वानर ! वैसे ही हैं

तुम में सारी निधियां न्यस्त !

 

आज यज्ञशाला का खोलो द्वार !

 

द्वार वही जो यजन-विवर्द्धन,

द्वार वही आलोकित निर्जन

करो वहीं एकत्र यज्ञसम्भार !

 

हे त्वष्ट्रा ! हे अग्रज ॠतमय !

कामरूप हे अग्नि निरामय !

करो हमारे हेतु मंगलाचार !

 

देव वनस्पति ! करो हृष्टमन,

देवों को यह हव्य समर्पण,

होता को हो प्राप्त दिव्य उपहार ।

आज यज्ञशाला का खोलो द्वार !

हम मनुष्य अपनी रक्षा हित,

करते हैं आहूत,

हमें ओजमय करो अग्नि,

तुम दिव्य लोक के दूत !

 


 

छूट धनुष से फैल गये,

जैसे दिशि दिशि में बाण,

त्यों फैले स्फुलिंग तुम्हारे,

अहे अर्चि-सन्धान !

 

करते हो अपनी ऊष्मा से,

तुम मर्त्यों में वास,

आलोकित हों मंगलमय हों,

ये धरती आकाश !

(ऋग्वेद)

 

प्रश्न mahadevi verma

पूछ रहा हूँ आज स्वयं अपने से, उर में

हो सकता क्या एक कभी उससे अन्तर में?

 

अवहेला को भूल कभी वह स्नेह-तरल मन

कर लेगा स्वीकार गीत की भेंट अकिंचन ?

 

किस दिन मैं उज्जवल प्रसन्नचित्त कल्मष खोकर,

मिल पाऊँ आनन्दरूप से सम्मुख होकर ?

 

दर्शनयाचक मैं, कह दे क्या अवगुण मेरे,

जिनके कारण आज मुझे यह बन्धन घेरे ?

 

जो ज्ञानी हैं, पूछ चुका उनसे बहुतेरा,

सबका उत्तर एक वही : प्रभु रुठा तेरा !

 

अविनय ऐसा कौन आज तू भी जिसके हित,

स्नेह-सखा को किया चाहता इतना दण्डित ?

 

हे दुर्लभ ! दे बता और तब दोषविगत मैं,

पहुंचूँ तुझ तक त्वरित, भक्ति से नमित विनत मैं ।

(ऋग्वेद)

 

भू-वन्दना mahadevi verma

सत्य महत, संकल्प, यज्ञ, तप, ज्ञान, अचल ऋतु,

जिस पृथिवी को धारण करते रहते अविरत,

भूत और भवितव्य हमारा जिससे अधिकृत,

वह धरती दे हमें लोक-हित आंगन विस्तृत ।

 

जिसके हैं बहु भाग समुन्नत अवनत, समतल,

नहीं मानवों के समूह से बाधित, संकुल,

विविध शक्तिमय औषधियों की वृद्धि-विधायक,

यह पृथिवी नित रहे हमें स्थिति-मंगलदायक ।

 

आश्रित जिस पर सभी सरित-सर-सागर के जल,

लहराता है जहां शस्य का शोभन अंचल,

जिस पर यह चल प्राणि-जगत् है जीवित, स्पन्दित,

वही धरा दे हमें पूर्वजों का श्रेयस् नित ।

 

फैलीं चारों ओर दिशाएँ दूर अबाधित,

जिस पर होते विविध अन्न कृषियाँ उत्पादित,

जो सयत्न करती बहुधा जीवन का पोषण,

वही हमारी भूमि शस्य दे औ' दे गोधन ।

 


 

सृष्टि पूर्व जो रही सिन्धु में जलमय तन से,

ऋषियों ने की प्राप्त सिद्धि के अक्षय धन से,

परम व्योम वह अमर सत्य-तेजस्-आच्छादित

जिसका उर है वही धरा दे शक्ति अपरिमित ।

 

अप्रमाद, सेवारत्, औ' समभाव निरन्तर-

प्रवहमान हैं निशिदिन जलधारायें जिस पर,

वह बहु धारावती हमारी धरती प्लावित,

दे हमको वर्चस्व और कर दे आप्यायित ।

 

मापा करते जिसे दिवाकर - निशिकर - अश्विन,

रखकर जिस पर चरण विष्णु कर रहा संचरण ।

रहित शत्रु, जिसको करता है इन्द्र प्रबलतम,

दे हमको वह भूमि पयस्, सुत को माता सम ।

 

शोभित जिस पर अचल, हिमाचल, बन सुषमाकर,

अक्षत अमर अजेय खड़े हम उस वसुधा पर !

श्यामल गैरिक अखिल रूपमय मधवा-रक्षित,

उसी भूमि पर रहें सदा हम सुख से विचरित ।

 

जो तुझसे उत्पन्न शक्ति औ' बल का आकर,

हमें उसी के बीच प्रतिष्ठित कर दे सत्वर,

पूत हमें कर धरापुत्र हम तुझसे लालित,

रसदायक पर्जन्य पिता से भी हों पालित ।

 


 

हम सबके हित महत सदन बनकर तू रहती,

महत वेग, संचलन महत, कम्पन भी महती !

रहे महत निस्तन्द्र इन्द्र-छाया में ऐसी,

स्वर्णधरा तू, पर न हमें देना विद्वेषी ।

 

तेरा जो शुभ गन्ध मिला ओषधि, जल कण में,

अप्सरियां गन्धर्व जिसे रखते निज तन में,

उस सौरभ से गात हमारा तू सुरभित कर,

पड़े किसी की द्वेष-दृष्टि जो जननि न हम पर ।

 

जिस परिमल से नीलोत्पल के कोष रहें भर,

जिसे लगाते अमर, उषा के लग्न-पर्व पर,

उसी गन्ध से भूमि ! हमारा कर आलेपन,

हो न हमारी ओर किसी का द्वेष भरा मन ।

 


 

नारी में, नर में तेरा जो गन्ध समुज्जवल,

वीरों में, मृग-हस्ति-अश्व में जो बनता बल,

कन्या में जो कान्ति उसी सौरभ से चर्चित

कर दे हमको जननि ! न चाहे कोई अनहित !

 

भू ही तो पाषाण, शिला, औ' धूलि पटल में,

थामे सबको वही अंक अपने निश्चल में!

तेरा उर है हमें राशि सोने की अभिमत,

देते हैं हे भूमि तुझे हम आज नयन शत !

 

तेरे पावस औ' निदाघ तेरे मधु - पतझर,

तुझ पर रहतीं शरद, शिशिर सब, ऋतुयें निर्भर,

तुझसे होते सदा दिवस औ' रजनी निर्मित,

ओ पृथिवी यह रहें हमारे ही सुख के हित ।

 

जिसके उर पर विविध वनस्पतियां औ' तरुवर,

पाते ही रहते विकास ध्रुव और निरन्तर ।

धरा हुई जो धारण करके यह जग सारा,

उसका वन्दन आज कर रहा गान हमारा ।

(अथर्ववेद)

 

शान्ति-स्तवन mahadevi verma

शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !

 

फैला दिशि-दिशि

अन्तरिक्ष हो शान्त हमारा,

शान्त हमारे हित हो

सागर की जलधारा।

औषधियों में क्षेम हमारे हित बिखरा हो !

शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !

 

शममय हो भूकम्प

शान्त उल्का-निपतन हो,

शम, विदीर्ण धरती

का उर भी भीति शमन हो,

क्षेमकरी ही रहे धेनु लोहितक्षीरा हो।

शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !

 


 

उल्का - अभिहृत ग्रह

शम हों अभियान दु:खकर,

शम कृत्या छल कुहक

हिंस्र आचरण क्षेमकर,

संहारक विध्वंस हमें शम शान्ति भरा हो !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

 

विवस्वान सम, मित्र

वरुण अंतक भी शममय,

पृथिवी के नभ के सारे

उत्पात शान्तिमय,

 

नभचर नक्षत्रों की गति में शम उतरा हो !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

 

इन्द्रिय के गण पांच

षष्ठ मन से संयुत हो,

तेज-दीप्त जो रहते हैं

उर में संस्थित हो,

 

क्रूर कर्म-क्षम वही इन्द्रियाँ क्षेमकरा हों !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

 


 

दिव्य ज्ञान से दिव्य

उच्चता पाता जो मन,

क्रूर कर्म में भी जिससे

योजित होता जन,

 

वही हमारा सुमन शान्त शम में निखरा हो !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

 

परिवर्तन के पूर्व रूप

हों हमें शांतिमय,

शांत हमें हों कृत

अकृत सब कर्मों के चय,

 

शांत भूत भवितव्य सृष्टि कल्याणधरा हो !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

 

परम श्रेष्ठ यह दिव्य

ब्रह्म - शंसित कल्याणी,

कठिन कर्म का कारण

भी बनती जो वाणी,

 

वाग्देवता वही हमारी ऋतम्भरा हो !

शान्त गगन हो शान्त धरा हो !

(अथर्ववेद)

 

साम्य-मन्त्र mahadevi verma

स्नेह भावना युक्त द्वेष भावों से विरहित,

मैं करता हूँ, तुम सबको सम सौमनस्य-चित ।

 

वत्स ओर धावित होती ज्यों गो ममता से,

आकर्षित तुम रहो परस्पर त्यों समता से ।

 

माता के प्रति पुत्र रहे अनुकूल निरन्तर,

रहे सदा निज जनक अनुगमन में वह तत्पर ।

 

सुखद स्नेह-मधुमति शान्ति की दायक वाणी,

गृह में पति से कहे सदा जाया कल्याणी ।

 

कभी सहोदर का न सहोदर विद्वेषी हो,

भगिनी का उर भगिनी का हित अन्वेषी हो,

 

हों समान संकल्प और व्रत एक तुम्हारा,

हो कल्याण प्रसार कथन उपकथनों द्वारा ।

 

हुए देवगन द्वेषरहित मन जिसको पाकर,

रखते नहीं विरोध-बुद्धि एकान्त परस्पर ।

 


 

उसी ज्ञान से प्रति गृह को करता अभिमन्त्रित,

जन जन को वह करे एक चेतना-नियन्त्रित ।

 

एक दूसरे से चाहे हो श्रेष्ठ ज्येष्ठ जन,

एकचित हो रहो कार्यसाधन-संयत-मन ।

 

पृथक न हो तुम एक धुरी में बद्ध करो श्रम,

रहो प्रियंवद् करता हूँ मन चित्त एक सम ।

 

हो पानीय समान, अन्न भी एक रहे नित,

एक सूत्र में तुमको मैं करता संयोजित।

 

चक्रनाभि संलग्न अरे ज्यों रहते अनगिन,

वैसे ही तुम करो अग्नि का मिल अभिनन्दन ।

 

एक कार्यरत तुम, संस्थिति भी एक तुम्हारी,

करता हूँ तुमको समान निधि का अधिकारी ।

 

देवों के सम करो अमृत का तुम संरक्षण,

सायं प्रात समान तुम्हारे रहें शांत मन ।

(अथर्ववेद)

 

अभय mahadevi verma

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 

मैं अपने निर्दिष्ट

लक्ष्य तक पहुंचूँ निश्चित,

यह पृथ्वी आकाश,

सदा शिव हों मेरे हित;

हों प्रतिकूल न ये प्रदिशाएँ,

द्वेष भाव का मुझमें क्षय हो ।

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 

प्राप्त हमें हो इन्द्र !

तुम्हारा लोक असीमित,

जिसमें हो कल्याण,

ज्योति से जो आच्छादित;

स्थिर विशाल भुज की छाया में,

हमें भीति से मिली विजय हो ।

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 

भीति रहित यह अन्तरिक्ष,

मुझ को ही घेरे,

धरती दिव कल्याण-

विधायक हो नित मेरे;

ऊपर-नीचे, आगे-पीछे,

कहीं नहीं मुझको संशय हो ।

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 


 

नहीं मित्र से भीत,

शत्रु से हो निर्भय मन,

ज्ञात और अज्ञात,

न कोई भय का कारण;

शंका रहित रात मेरी हो,

दिन मुझको कल्याण निलय हो ।

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 

जिन कवचों से दिव्य-

वपुष, हो गये देवगण,

स्वयं इन्द्र करता है,

जिनका तेज-संगठन;

कर वर्म वे ही आच्छादित,

मेरे लिए सभी शममय हो !

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

 


 

धरती मेरा कवच,

कवच है नभ मेरे हित,

दिन भी मेरा कवच

कवच रवि है उद्भासित;

शंकायें छू मुझे न पायें,

विश्व कवच मेरा अक्षय हो।

दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।

(अथर्ववेद)

 

गृह-प्रवेश mahadevi verma

रचते हैं आवास यहीं हम अपना निश्चित्

रहे क्षेममय धाम सदा यह स्निग्ध, सुरक्षित !

 

हे गृह ! लेकर साथ वीर औ' अक्षत परिजन,

जाये तेरे निकट, शरण दे तेरा आंगन !

 

अचला हो यह नींव उसी पर रहे प्रतिष्ठित,

गो-अश्वों से भरा, रहे तुझमें सुख संचित !

 

हम सब के हित उन्नत रह सौभाग्यव्रती हो,

ऊर्जस्वति धृतवति शाले ! तू पयस्वती हो !

 

ध्रुव स्तम्भों पर रहे समुन्नत छाया तेरी,

लगी तुझी में रहे विमल धान्यों की ढेरी!

 

सदन ! लौट आने देना गोधूली बेला,

बाल, वत्स औ' गति-मंथर सुरभी का रेला !

 


 

सविता, मधवा, वायु, बृहस्पति पथ के ज्ञाता,

तेरे हित सब रहें सदा स्थिति-मंगल दाता !

 

इसे सिक्त करने आयें अनुकूल मरुतगण,

ऋद्धिदेव से शस्य-भूमि के हों उर्वर कण!

 

देवों ने की प्रथम प्रतिष्ठित गृहदेवी वर,

सानुकूल जो हुई शरण औ' छाया देकर !

 

दूर्वादल-वेष्टिता सदन की देवि सदय हो,

हमें मिले ऐश्वर्य वीरजन से परिचय हो!

 

वंशदण्ड ! आधार-स्तम्भ का अधिरोहण कर,

देख तुझे ध्रुव उग्र द्वेषिजन हों कम्पित उर !

 

तेरे नीचे क्षेमयुक्त रक्षित परिजन हो,

सब स्वजनों के साथ शरद शत का जीवन हो !

 

आये बालक और वत्स गोधन भी आये,

लाये हम पानीय पात्र दधि के भी लाये !

 


 

गृहिणी ! ले आ पूर्ण कलश तू अपना न्यारा,

इसमें बहती रहे सदा अमृत घृत-धारा !

 

अमृतरस से पात्र हमारा कर आपूरित,

इष्टपूर्ति से रहे धाम का मंगल रक्षित !

 

अक्षय जल अक्षय होने के हित लाये हम,

अमर अग्नि के साथ अजर गृह में आये हम !

(अथर्ववेद)

 

स्वस्ति mahadevi verma

रात्रि हमें शुभ हो औ' शुभ

दिन भी हो मनभाया !

 

दिव के तेज-शक्ति - आपूरित

जो था पार्थिव विश्व चराचर,

तमस्विनी रजनी ! छाई है

तेरी व्यापक छाया सब पर ।

 

यह तारों से खचित तिमिर

अब दिग्दिगन्त छाया ।

 

दृष्टि न जिसका पार पा सकी

उसमें यह समस्त जग गतिमय,

पृथक् न इसमें रहता कोई

सब पाते इसमें एकाश्रय,

 

हमें पार कर, दु:ख रहित,

सब कण्ठों ने गाया !

 

मूल्यवान जिन निधियों को हम

करते हैं निज श्रम से संचित,

जिन निधियों को हम रखते हैं

मंजूषायों में संगोपित,

 


 

उन सबके हित हमने तुझको

संरक्षक पाया ।

 

माता रात्रि ! सौंप जाना तू

हमें उषा के संरक्षण में,

उषा हमें फिर, तुझे सौंप दे

संध्या समय विदा के क्षण में!

 

रात्रि हमें शुभ हो औ' शुभ

दिन भी हो मनभाया !

(अथर्ववेद)

 

चयन mahadevi verma

परि प्रासिष्यदत् कवि:

सिन्धोरूर्मावधिश्रित:

कारूं विभ्रत पुरुस्पृहम् ।

-साम पूर्वाचिक ५-१०

 

लोक - हित - तंत्री संभाले

सिन्धु - लहरों पर अधिश्रित,

 

यह चला कवि क्रान्तिदर्शी

सब दिशाओं में अबाधित ।

 

अन्ति सन्तं न जहाति

अन्ति सन्तं न पश्यति।

 

देवस्य पश्य काव्यम

न ममार न जीर्यति ॥

-अथर्ववेद १०-८

 


 

जिस समीपवतीं से होते

दूर न क्षण भर,

जो समीप है किंतु

देखना जिसको दुष्कर,

 

देखो तुम उस सृजनशील का

काव्य मनोहर,

अमर और नित नूतन जो

रहता है निर्जर ।

यथा द्योश्पृथिवी च

न विभीतो न रिष्यत:

एवा मे प्रान मा विभे: ।।१।।

-अथर्ववेद : २१५

यह उन्नत आकाश

और यह धरती जैसे,

भीतिरहित हैं और

निरन्तर रहते अक्षय,

वैसे ही हे प्राण !

अबाधित गति तेरी हो,

नष्ट न होना और सदा तू रहना निर्भय ।

 

भद्रमिच्छंत ॠषय: स्वर्विदस्तपो

दीक्षामुपनिषेदुरग्रे ।

ततो राष्ट्र बलमोजश्च जातं

तदस्मै देवा उपसंनमंतु ॥

-अथर्ववेद : १९-४१

 

ज्ञाता औ' कल्याण चाहने वाले ॠषिवर

तपदीक्षित जब होते पहले, ज्ञानार्जनपर ,

तब होता है राष्ट्र ओजसंयुत बलनिर्भर,

तभी देवगण से उसको मिलता है आदर !

 

अयं कविरकविषु, प्रचेता

मत्येंष्वग्निरम्रतो निर्धाण्य

स मा नो अत्र जुहुर: सहस्व:

सदा त्वे सुमनस: स्याम ।।

ऋग्वेद : ७-४४

 


 

कवि होकर सर्वदा

अकवियों में रहता जो,

मरणधर्मियों में अमृत

बनकर बसता जो,

 

वही प्रचेतन अग्नि

हमारा करे न अनहित,

रहें उसी में हम सदैव

हो सौमनस्य चित ।

 

न पापासो मनामहे

नारायासो न जल्हव: ।

यदिन्न्विन्द्रं वृषणं सचा सुते

सखायं कृणवामहै ।।

ऋग्वेद : ८-६१

 


 

उसे मनाते नहीं

पाप से मलिन कभी हम,

दीन नहीं, हमको

न घेरता तेजरहित तम ।

 

इसीलिए उस सुखवर्षक

सामर्थ्यवान को

यज्ञकर्म में सखा

बना लेते अपना हम ।

 

उद्यानं ते पुरुष नावयानं

जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि ।

 

आ हि रोहेमममृतं सुखं रथम्

अथ जिविं विंदथमावदासि ॥

-अथर्ववेद : ८-१

 

तेरी गति हो ऊर्ध्व पुरुष !

हो कभी न अवनत

जीवन को तेरे करता हूँ

शक्ति समन्वित ।

 

ध्रुव तू हो आरुढ़ अमृत के,

सुख के रथ पर ।

हो चिरायु तू ज्ञानप्रसारण

में रह तत्पर ।

 

स्वस्तितं मे सुप्रात: सुखायं

सुदिवं सुमृगं सुशकुनं गे अस्तु ।

 

सुहवमग्ने स्वस्तयमर्त्य

गत्वा पुनरायाभिनन्दन ॥

-अथर्ववेद : १९-८

 

शुभ मुझको सूर्यास्त

प्रात सायं सुखकर हों

स्वस्ति मुझे हो दिवस

शकुन मृग शुभ शमकर हों ।

 

अग्नि ! होत्र मेरा हो

शुभशंसी सबके हित,

अमर भाव कर प्राप्त

लौट तू हो अभिनन्दित ।

 

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं,

यत्प्रेरत नामधेयं दधाना: ।

 

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेवा ,

तदेषां निहितं गुहावि : ॥

-ऋग्वेद : १०-७१

 


 

वाणी का थीं पूर्व रूप,

संज्ञायें केवल,

बुद्धिलीन वह रही,

श्रेष्ठ कल्याणी निर्मल ।

 

बृहस्पते ! जो आदि मनुज,

में भावों का चय,

प्रीत हृदय से व्यक्त हुआ,

बन गिरा अनामय ।

 

१०

आकूती देबी सुभगा पुरा दध,

चित्रस्य माता सुहवानो अस्तु ।

 

यामाशामेमि केवली सा,

मे अस्तु, विदेयमेनां मनसि

प्रविष्टाम ॥

-अथर्ववेद : १६-४

 

वाक अर्थ की शक्ति,

बोध का जो हो कारण,

जननि चित्र की सुभग,

करूँ मैं उसको धारण ।

 


 

आशा मेरी पूत,

सिद्धि से हो संयोजित,

जान सकूं प्रज्ञा को,

जो मन में है संस्थित ।

स्नान हित पहुंचे mahadevi verma

'पाद ॰ बद्ध, समान अक्षर

तन्त्र - गेय समर्थ,

श्लोक यह, शोकार्त उर का

हो न सकता व्यर्थ !'

 

मुनि वचन सुन शिष्य ने

उसको किया कंठस्थ,

देख गुरु का खिन्न मन भी

हो गया प्रकृतिस्थ !

 

चले आश्रम ओर कर विधि-,

विहित मज्जनचार,

मार्ग में करते उसी,

संकल्प का सुविचार !

 

भरद्वाज प्रशिष्य ले कर

कलश जल से पूर्ण,

पंथ में गुरु-अनुगमन,

करने लगा वह तूर्ण !

 

धर्मविद् पहुँचे निजाश्रम,

विनत शिष्य समेत,

ध्यान युत, सबसे कहा

संकल्प का संकेत !

 


 

अन्य वटु विस्मित प्रहर्षित

हो गए यह जान,

श्लोक का फिर लगे

करने मधुर स्वर गान !

 

चार चरण समान अक्षर-

रचित गुरु का गीत,

अन्यथा होगा न, दुख

जो बना श्लोक पुनीत !

 

पूत आत्मा गुरु हुए

संकल्प में संन्यस्त,

'श्लोक छन्दायित करूंगा

राम - चरित समस्त ।'

 

हेमन्त mahadevi verma

शस्य-मालिनी धरा

और नीहार-परुष है लोक,

जल अप्रिय हो गया

अग्नि करती है आज अशोक ।

 

दक्षिण दिशिचारी रवि से-

है उत्तर दिशा विहीन,

तिलकहीन बाला सी उसकी

हुई कान्ति छबिहीन ।

 

प्रकृतिदत्त हिमकोष, दूर

अब इससे है दिनमान,

सार्थक नाम हिमालय का

हो गया आज हिमवान ।

 

स्पर्शसुखद मध्याह्न, सुखद

इन दिवसों में संचार,

प्रिय लगता आदित्य, अप्रिय

छाया, जल का व्यवहार ।

 


 

व्याप्त शीत है रवि लगता

कोमल तुषार से न्यस्त,

सूने हैं आरण्य, कमल के

वृन्द हो गए ध्वस्त ।

 

नभ तल शयन वर्ज्य जिनमें

जो दीर्घ हुई पा शीत,

हिम से कुहराच्छन्न रहीं

ये पौष रात्रियां बीत ।

भरत-मिलन mahadevi verma

देख गजों को धावित

औ' सुन घोर महारव,

दीप्त तेजयुत लक्ष्मण से

बोले तब राघव ।

'देखो हे सौमित्र !

कहां से आता नि:स्वन,

(जिसको सुनकर आज

हो गया अस्थिर यह वन ।)'

 

तब लक्ष्मण ने चढ़कर

पुष्पित शाल वृक्ष पर,

राघव से यों कहा

सैन्य का अवलोकन कर ।

 


 

'होकर के अभिषिक्त

राज्य करने निर्बाधित,

आते हैं यह भरत

हमारे ही वध के हित ।

 

जिनके कारण आप-

राज्य शाश्वत से वंचित,

वध्य शत्रु वे, मेरे

सम्मुख भरत समागत ।

 

राघव करिए त्वरित

चाप अपने को शिंजित,

करिए शर संधान

कवच से होकर सज्जित ।'

 

तब लक्ष्मण को देख

क्रोध अस्थिर उद्वेजित,

राघव बोले वचन

उन्हें करने प्रशान्त चित ।

 


 

'चाप का क्या कार्य

कैसा चर्म कैसी खड़्ग,

जब समागत हैं सुधिवर

भरत सेना संग ।

 

पिता से प्रतिश्रुति, करूँ

यदि मैं भरत–वध आज,

क्या करूँगा ले उसे जो

है कलंकित राज्य?

 

बंधु मित्रों के निधन से

प्राप्त वैभव–सार

अन्न विषमय ज्यों मुझे

होगा नहीं स्वीकार।

 

बंधु हों मेरे सुखी हो

क्षेम–मंगल–योग

शपथ आयुध की यही

बस राज्य का उपभोग।

 

सिंधु-वेष्टित भूमि पर

मुझको सुलभ अधिकार

धर्म के बिन इंद्र–पद

मुझको न अंगीकार।

 


 

बिन तुम्हारे, भरत औ’

शत्रुघ्न बिन, सुखसार

दे मुझे जो वस्तु उसको

अग्नि कर दे क्षार।

 

भातृवत्सल भरत ने,

होता मुझे अनुमान,

आ अयोध्या में किया

कुलधर्म का जब ध्यान,

 

और सुन, मैंने बना कर

जटावल्कल–वेश,

अनुज सीता सह बसाया

है विपिन का देश,

 

स्नेह–आतुर चेतना में

विकलता दुख–जन्य,

देखने आये भरत हमको,

न कारण अन्य।

 


 

अप्रिय कटु, माँ को सुना,

कर तात को अनुकूल

राज्य लौटाने मुझे

आये न इसमें भूल।

 

'क्या कभी पहले भरत ने

किया कुछ प्रतिकूल?

जो तुम्हें इस भाँति हो

भय आज शंका मूल।

 

क्या किसी आपत्ति में

हो पुत्र से हत तात?

प्राण–सम निज बंधु का

ही बंधु कर दे घात?

 

कह रहे इस भाँति तुम

यदि राज्य हेतु विशेष,

‘राज्य दो इसको’ कहूँगा

मैं भरत को देख।

 

शाल से तब उतर लक्ष्मण

बद्ध - अंजलि - हाथ,

पार्श्वस्थित शोभित हुए

बैठे जहाँ रघुनाथ ।

 


 

भरत मानव-श्रेष्ठ देकर

सैन्य को आवास,

चले पैदल देखने

तापस - कुटीर - निवास ।

 

तापसालय में विलोका

भरत ने वह धाम,

जानकी लक्ष्मण सहित

जिसमें विराजित राम ।

 

भरत तब दौड़े रुदित

दुख - मोह से आक्रान्त,

चरण तक पहुंचे न भू पर

गिर पड़े दुख - भ्रान्त ।

 

'आर्य' ही बस कह सके वे

धर्म में निष्णात,

कष्ट गद्गद से न निकली

अन्य कोई बात

 


 

जटा वल्कल सहित उनका

कृश विवर्ण शरीर,

कष्ट से पहचान भेंटे

अंक भर रघुवीर ।

 

भरत को तब भेंटकर

शिर सूंघकर सप्रेम,

अंक में ले राम ने

पूछा कुशल औ' क्षेम ।

 

(रामायण)

 

श्याम घटा mahadevi verma

1

श्याम घटा जब घिर छा जाती !

 

घन से भीत बलाकों के दल,

निलय खोजते उड़ चलते जब,

खोल पंख अपने चल उज्ज्वल !

तब अजकरणी सरिता भाती !

 

कृष्ण मेघ से हो आतंकित,

शिला-कन्दरायों में आश्रय-

चले खोजने जब बगुले सित,

तब तरंगिणी शोभा पाती !

 

सरिता के युग कूलों वाली,

मेरे गुहा निलय के पीछे

जम्बू की यह सघन द्रुमाली,

किसके मन को नहीं लुभाती !

 

आज सभीत नहीं हैं दादुर,

करते हैं वन प्रान्त निनादित,

मन्द मन्द ध्वनियों पर तिर-तिर,

उनकी यही घोषणा आती !

 

पर्वत की सरिता को तजकर,

आज नहीं अवसर प्रवास का,

रम्य यहीं है वास क्षेमकर,

क्षेममयी यह नदी सुहाती !

(धम्मिको थेरो)

 

 

2

हे वीर श्रेष्ठ यह समय सुखद,

नूतन आशाओं से स्पन्दित ।

 

नव किसलय दल से युक्त द्रुमाली

लगती है अंगार-अरुण,

इन तरुओं ने अब त्याग दिये,

वे जीर्ण पत्र के शीर्ण वसन ।

 

कोंपलें लाल सी अगणित ले

ये अर्चिष्मान हुए भासित !

नूतन आशाओं से स्पन्दित !

 

द्रुम सुमन-भार से झुके हुए,

उच्छवसित सुरभि से दिग्दिगन्त,

पल्लव झर झर कर करते हैं

फल के हित अपना रिक्त वृन्त !

 

यह यात्रा का मंगल मुहूर्त है

आज हमारा शुभशंसित !

नूतन आशाओं से स्पन्दित !

 

अति शीत रहा अब असह नहीं,

अति नहीं उष्णता का पसार,

यह समय सुखद है आज वीर,

ॠतु आज हो गयी है उदार !

 


 

देखें कोलिय औ' शाक्य आप को

पश्चिममुख रोहिणी-तरित !

नूतन आशाओं से स्पन्दित !

 

(दसनिपात)

आभा-कण mahadevi verma

आवेग क्रोध का सके थाम

जो पथ विचलित रथ के समान,

सारथी कहाता वही सत्य

है अन्य रश्मि-ग्राहक अजान ।

 

यह नियम सनातन, एक वैर

करता न दूसरे का अभाव;

निर्वैर भावना से जग में

होता सब शांत विरोध भाव ।

 

संग्राम-भूमि में जय पाता

कोई कर लाखों को सभीत-,

पर सत्य समर-विजयी है वह

जो स्वयं आपको सका जीत ।

 

क्या हास और आनन्द कहाँ

जलता जाता जो कुछ समीप,

घन अंधकार से घिर कर भी

तुम क्यों न खोजते हो प्रदीप ?

 


 

जय उपजाती है द्वेष - द्रोह

औ' पराभूत में दु:ख - दाह,

जो हार जीत को तज प्रशान्त

उसका सुखमय जीवन-प्रवाह ।

 

मल्लिका - मलय - कलि-तगर-गन्ध

प्रतिवात कभी पाता न राह,

दिशि दिशि सज्जन - सौरभ फैला

विपरीत बहा जब गन्धवाह ।

 

(धम्मपद)

चित्त जिसका हो चुका हो द्वेषमुक्त महान,

सब कहीं सबके लिए हो सौमनस्य समान,

 

क्षेम से भर दिशि-विदिशि-भू-अन्तरिक्ष अछोर,

लोक को संस्पर्श कर जो विहरता सब ओर;

 

हो गया है सत्व जो सब वैर-द्रोह-विमुक्त,

मित्रता की भावना में एक रस संयुक्त,

 

एक सीमा में उसी से आचरित सविशेष,

आचरन त्यों हो न जाता है वहीं नि:शेष,

 

ज्यों न रुकता शंखवादक का तनिक आयास,

दूर तक प्रतिध्वनि जगा भरता विपुल आकाश !

 

-दीघनिकाय

 

विराग-गीत

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

स्निग्ध कुंचित अलकों के गुच्छ

कभी काले थे भ्रमर समान,

जरा के कारण हैं वे आज

विरस सन वल्कल के उपमान ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

मल्लिका के सौरभ से सिक्त

कभी था मेरा वेणी-बंध,

जरा के कारण उसमें आज

शशक रोमों सी आती गन्ध ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

प्रसाधित था यह केश-कलाप

सघन रोपित ज्यों हो उद्यान,

जरा से गलित पलित हैं केश

विरल सा अब पड़ता है जान ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

वहन करता था उन्नत शीश

स्वर्ण भूषित वेणी का साज,

जरा से जर्जर होकर भग्न

झुक रहा है वह मस्तक आज ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 


 

कुशल शिल्पी-कर ने दीं आंक

सुभ्रु मानों ये मंजु अनूप ।

जरा से जीर्ण झुर्रियों बीच

आज लगती हैं नमित विरूप ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

नीलमणियों की उज्ज्वल कान्ति

दीर्घ नयनों ने ली थी छीन,

जरा से अभिहत वे ही आज

हो गये धूमिल आभाहीन ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

नासिका मेरी कोमल दीर्घ

शिखर यौवन का पड़ती जान,

वही दब आज जरा के भार

नमित है गलित सभी अभिमान ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

कभी लगते थे श्रवण सुडौल

खरादे सुन्दर वलय समान,

हो गये वही झुर्रियों युक्त

लटकते से हैं आज निदान ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 


 

कदलि-कलिकावर्णी थी मंजु

कभी मेरे दशनों की पांति,

जरा से खण्डित होकर आज

पीत यव की देती है भ्रान्ति।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

विपिन-संचारी पिक की कूक,

सदृश जो था स्वर का संगीत ।

जरा से उसके अक्षर भग्न

पूर्व स्वर-लय है आज अतीत ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

खरादे श्वेत शंख की स्निग्ध

कभी ग्रीवा थी मंजु सुडौल,

वही वृद्धावस्था के भार

नमित भी आज रही है डोल ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

कभी थे मेरे बाहु सुगोल

गदा से सुगठित सुन्दर पीन,

जरा के कारण हैं वे आज

विटप पाडर-शाखा से क्षीण ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 


 

मुद्रिका स्वर्ण आभरण युक्त

कभी थे कोमल मेरे हाथ,

यही हैं गाँठ गठीले आज

जरा की दुर्बलता के साथ ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

पुष्ट उन्नत यह मेरा वक्ष

कभी था सुगठित और सुगोल,

जलरहित चर्म-थैलियों तुल्य

जरा से है अवनत बेडौल ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

कभी था सुन्दर और विशुद्ध

स्वर्ण के फलक सदृश यह गात,

जरा से आज हुई वह देह

झुर्रियों का विरूप संघात ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

कभी मेरा सुन्दर उरु देश

बना था करिकर का उपमान,

जरा के कारण अब वह, शून्य

वंश-नलिका सा पड़ता जान ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 


 

स्वर्ण आभरण नूपुरों युक्त

पिण्डलियां थीं मेरी अपरूप,

शुष्क तिल-डण्ठल सी वे आज

जरा के कारण क्षीण विरूप ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

चरण युग मेरे कोमल मंजु,

रहे हल्के ज्यों हल्की तूल,

जरा ने उन्हें बना कर रुक्ष

झुर्रियों से भर दिया समूल ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

गठित सुन्दर अंगों के साथ

कभी श्रीमय थी मेरी देह,

जरा के कारण ही वह आज

हो गयी जर्जर दुख का गेह ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

 

शीघ्र ही ढह कर होता ध्वस्त

जीर्ण गृह जैसे यत्नविहीन,

जरा का गृह भी थोड़े यत्न

बिना ढह जाएगा हो क्षीण ।

सत्यवादी के मृषा न बोल ।

(अम्बपाली)

 

बुद्ध-जन्म mahadevi verma

दीप्तिमय शोभित हुआ वह

धीर ज्योतिर्वेश,

भूमि पर उतरा यथा

बालार्क ले परिवेष ।

 

चकित करके दृष्टि को

उसने लिया यों खींच,

केन्द्र ज्यों बनता नयन का

इन्दु नभ के बीच ।

 

दिव्य अंगों से बरसती

स्वर्णदीप्ति अनन्त,

हो उठे भास्वर उसी से

दूर दूर दिगन्त ।

 

सप्त ऋषि मंडल सदृश वह

पुंज पुंज प्रकाश,

धीर दृढ़ ऋजु चरण से

कर सप्त पग का न्यास,

 

अभय सिंह समान उसने

फिर चतुर्दिक देख,

धीर उद्घोषित किया निज

सत्य का आलेख-

 

'बोध हित है जन्म

भव - कल्याण मेरा लक्ष्य,

लोकहित अन्तिम हुआ

है जन्म यह प्रत्यक्ष !'

 


 

गिरिराजों से कीलित धरती

हुई तरी सी झंझा-कम्पित,

नभ निरभ्र से वृष्टि हुई नव

पंकज - संकुल चन्दन - सुरभित ।

 

दिव्य वसन भू पर फैलाता

सुखद मनोरम बहा समीरण,

रवि ने अति भास्वरता पाई

सौम्य अग्नि जल उठी अनीन्धन ।

 

विहग और मृगदल दोनों ने

रोक दिया कलरव कोलाहल,

शान्त तरंगों में बहता था

शान्त भाव से सरिता का जल !,

 

शान्त दिशायें स्वच्छ हो गईं

नील गगन था स्वच्छ मेघ बिन,

पवन-लहरियों पर तिरता था

दिव्य लोक के तूर्यों का स्वन ।

 

-बुद्धचरित

 

वसन्त mahadevi verma

देव ! देखो मंजरित,

सहकार का तरु

गन्ध - मधु - सुरभित,

खिला जिसका सुमन - दल,

बैठ जिसमें मधु-

गिरा में बोलता यह

लग रहा है हेम--

पंजर - बद्ध कोकिल-

 

रक्त पल्लव युक्त,

आज अशोक देखो,

प्रेमियों के हित

सदा जो विरहवर्द्धन,

जान पड़ता दग्ध-

ज्वाला से विकल हो,

कर रहे उसमें भ्रमर-

के वृन्द कूजन ।

 


 

आज उज्जवल तिलक -

द्रुम को भेंट कर यह

पीतवर्ण रसाल-

शाखा यों सुशोभित,

शुभ्र वेशी पुरुष के

ज्यों संग नारी

पीत केसर - अंग-

रागों से प्रसाधित ।

 

सद्य ही जिसको

निचोड़ा राग के हित

यह अलक्तक कान्ति--

शोभा फुल्ल कुरवक,

नारियों की नख-

प्रभा से चकित होकर

आज लज्जा - भार

से मानो रहा झुक !

 

तीर पर जिसके उगे

हैं सिन्धुवारक

देख कर इस पुष्करिणि

को हो रहा भ्रम

धवल अंशक ओढ़ कर

मानो यहाँ हो,

अंगना लेटी हुई

कोई मनोरम ।

 


 

देव ! आज वसन्त

में हो राग - उन्मद

बोलता है पिक सुनो

टुक यह मधुर स्वर,

और प्रतिध्वनि सी

उसी की जान पड़ता,

दूसरे पिक का 'कुहू'

में दिया उत्तर ।

 

मोह से उन्मत्तचित

प्रमदा जनों ने

हाव - भावों के चलाये

अस्त्र अनगिन,

मृत्यु निश्चित सोचता

वह धीर संयत,

हो सका न प्रसन्न

और न खिन्न उन्मन ।

 

(बुद्धचरित)

 

रथ यात्रा mahadevi verma

सूत निपुण शुचि वली जहाँ था

सधे अश्व थे चार नियोजित,

स्वर्ण-घटित सज्जा युत रथ में

शाक्य कुमार हुए चढ़ शोभित ।

 

माला वन्दन वार बंधे थे

जहाँ ध्वजायें मारुत-चंचल,

उस सज्जित पथ पर बिखरी थी

राशि-राशि सुमनों की कोमल ।

 

नभ पर चढ़ता शनै: शनै: ज्यों,

तारक-दल से घिरा निशाकर,

घिरा सदृश अनुगामिजनों से

बढ़ता था कुमार उस पथ पर ।

 

दर्शक पौर जनों के दृग थे

विस्फारित औ' भरे कुतूहल ।

पथ उनसे शोभित था मानो

नीलोत्पल के बिछे अर्द्ध दल ।

 

पथ पर राज कुमार जा रहे

समाचार भृत्यों से पाकर,

गुरुजन - अनुज्ञात उत्कंडित

महिलायें आई छज्जों पर ।

 


 

पग - चापों से सोपानों पर

झंकृत कर रशना - नूपुर - स्वर,

करके भीत गृहों का खग-कुल

वे देती थीं दोष परस्पर ।

 

जिनमें, एक बाल का कुंडल

न्यस्त दूसरी के कपोल पर,

वे छोटे वातायन लगते

बाँधे कमल-गुच्छ ज्यों उनपर ।

 

तेजकान्ति से युक्त वपुष को

देख देख कर वे महिला जन,

'इसकी भार्या धन्य हुयी है'

कहती थीं, पर शुद्ध-भाव-मन ।

 

-बुद्धचरित

 

हिमालय mahadevi verma

पूर्व और पश्चिम सागर तक

भू के मानदण्ड सा विस्तृत,

उत्तर दिशि में दिव्य हिमालय

गिरियों का अधिपति है शोभित ।

 

पृथु - प्रेरित शैलों ने जिसको

पृथिवी - गो का वत्स बनाकर

मेरु-गोप से दुहा लिया सब

ओषधियों रत्नों का आकर ।

 

रत्नों के आकर हिमगिरि की

हिम से हुई न शोभा कुण्ठित,

किरणों में कलंक सा छिपता

गन - समूह में अवगुण किंचित् ।

 

गैरिक पीत धातु - शृंगों से

वह रंगता घन-खंडों को जब,

अप्सरियाँ मण्डन करती हैं

असमय संध्या के भ्रम से तब ।

 


 

उन्नत शृंगों की रशना सम

मेघों की छाया में रह कर,

जाते वर्षाभीत सिद्धजन

आतपमय शिखरों के ऊपर ।

 

गजघाती सिंहों के, जाते,

अंक जहाँ हिमधारा से धुल,

नख से बिखरी गजमुक्ता से

दिशि-इंगित पाता किरात-दल ।

 

गज-शुंडों पर लाल बिन्दु से

अंकित जिन पर लगते अक्षर,

विद्याधर - सुन्दरियां लिखतीं

प्रेम - पत्रिका भोजपत्र पर ।

 

गुहा-मुखों से उठकर मारुत

करता वेणु - रन्ध्र सब सस्वर,

साथ दे रहा ज्यों गीता का

गाते जिसे तार स्वर किन्नर ।

 


 

जब मस्तक - खुजलाते हैं गज,

देवदारु से संघर्षणरत,

उन से बहकर क्षीर सुरभिमय

कर देता शिखरों को सुरभित ।

 

रवि से दूर, गुहा में घन तम,

शरणागत, ..

तपोवन यात्रा mahadevi verma

गिरा अर्थ सम एक, जगत के

माता पिता उमा वृषकेतु,

वन्दन करता हूँ मैं उनका

गिरा अर्थ साधन के हेतु ।

 

कहाँ सूर्य-संभव सुवंश वह

कहाँ बुद्धि मेरी यह क्षुद्र,

तरने चला मोह के वश में

डोंगी लेकर महा समुद्र ।

 


 

मन्दबुद्धि कवियश - प्रार्थी मैं

मुझ पर आज हँसेगा लोक,

दीर्घकरोचित फल के हित ज्यों

बौने को उद्बाहु विलोक ।

 

अथवा रचा पूर्व कवियों ने

वाक् - द्वार जो यहाँ विशेष,

वज्रविध्द मनि में डोरे सम

पाया मैंने सहज प्रवेश ।

 

जो आजन्म शुध्द हैं जिनको

देता कर्म सिद्धि का दान,

आसमुद्र धरती के स्वामी

गया स्वर्ग तक जिनका यान;

 

यथाविहित आहुति देते जो,

यथाकाम याचक को दान,

यथादोष दण्डित करते जो

जिन्हें सतत अवसर का ज्ञान,

 

त्याग लक्ष्य जिनके संचय का

सत्य अर्थ ही मित भाषण,

यश के लिये विजय - कांक्षी जो

गृही बने सन्तति कारण;

 


 

शैशव में विद्या का अर्जन

यौवन में विलास - विभ्रम,

तपोवृत्ति वार्धक्य जहाँ था,

योग जन्म का अन्तिम क्रम;

 

ऐसे रघुकुल के गुण सुनकर

चपल बुद्धि से प्रेरित चित्त,

अल्प गिरा - वैभव लेकर भी

कहता हूँ रघुकुल का वृत्त ।

 

सुनें इसे वे विज्ञ सन्त जन

करते जो सत - असत - विभाग,

खरे और खोटे सुर्वण की

एक परीक्षक रहती आग ।

हुआ सूर्य कुल में अवतार, आदि नृपति वे हुए वेद ..

 

उसकी प्रजा न कर पाती थी

मनु का कोई नियम अलीक,

कुशल सारथी युक्त यान के

चक्र लांघते हैं कब लीक ।

 

ज्यों सहस्र गुण कर लौटता

धरती को जल सूर्य प्रखर,

प्रजा वर्ग के मंगल हित वह

संचित लौटाता था कर ।

 

सेना थी शोभा उसके हित

दो ही थे अमोघ साधन,

चढ़ी हुयी शिंजिनी और

शास्त्रज्ञ बुद्धी का पैनापन ।

 

इंगित से भी गुप्त मंत्रणा

फल में ही पड़ती थी जान,

प्राक्तन संस्कार का जैसे

वर्तमान में हो अनुमान ।

 

भीति रहित निज संरक्षण था

धीरज सहित धर्म में योग,

विगत लोभ धन का संचय था

अनासक्तिमय सुख का भोग ।

 


 

ज्ञान मौन था, क्षमा शक्तिमय,

त्याग प्रशंसा से विपरीत,

उसमें हो सहजात गए थे

भिन्न गुणों के द्वन्द्व सप्रीत ।

 

पंच महाभूतों का विधि ने

रचा उसे ही ध्रुव संघात,

तत्वों के सम उसके गुण भी

होते थे परार्थ ही ज्ञात ।

 

वेला का प्राचीर जिसे

घेरे था परिखा बन सागर,

एक छत्र उसके शासन से

पृथ्वी थी ज्यों एक नगर ।

 

मिली उसे पत्नी सुदक्षिणा

कुशला मगध वंश - संजात,

जैसे पाई है अघ्वर ने

संगिनि चतुर दक्षिणा ख्यात ।

 

अनुरूपा पत्नी से आत्मज

पाने की थी साध पुनीत,

इच्छित फल से दूर मनोरथ

ही में दिवस रहे थे बीत ।

 


 

'अब सन्तति है साध्य' सोचकर

सबल भुजा से सहज उतार,

गुर्वी जगत - धुरी का सौंपा

उसने निज सचिवों को भार ।

 

पुत्रैषी दम्पति ने पहले

विधि का कर अर्चना विधान,

तब अपने कुल गुरु वशिष्ट के

आश्रम ओर किया प्रस्थान ।

 

स्निग्ध - मन्द्र रव वाले रथ में

हुए युगल यों प्रतिभासित,

जाते हों पावस के घन पर

जैसे विद्युत् - ऐरावत ।

 

आश्रम में बाधा के भय से

लिये अल्प संख्यक परिजन,

महिमा-परिवेशित लगते थे

घेरे ज्यों सेना अनगिन ।

 

शाल रसों से सुरभित शीतल

करता तरुयों को कम्पित,

पुष्परेणु बिखराता पथ में

बहा पवन भी सेवा - रत ।

 


 

रथ-चक्रों का मन्द्र घोष सुन

हो जाते मयूर उन्मुख

षड्ज - वादिनी केका की ध्वनि

दुहरा कर देते श्रुति - सुख ।

 

रथ-निबद्ध - दृग खड़े हुए जो

मृग के जोड़े पंथ समीप,

उनमें दृग - सादृश्य परस्पर

देख रहे दक्षिणा - दिलीप ।

 

सतंभरहित वन्दनवारों से

पंक्तिबद्ध उड़ते नभ पर,

उन हंसों को, कलरव सुनकर

उन्मुख देख रहे ऊपर ।

 

सफल मनोरथ के इंगित सा

बहता था अनुकूल पवन,

अश्व-खुरों से उठी हुई रज

छूती नहीं अलक - वेष्टन ।

 

लहरों के सीकर से शीतल

लेकर कमलों का आमोद,

उनके निश्वासों सा सुरभित

मारुत देता उनको मोद ।

 

स्वयंदत्त औ' यज्ञ-यूप युत

पथ-ग्रामों में पहुंच क्षितीश,

अग्निहोत्रियों से पाते थे

अर्घ्योत्तर अमोघ आशीष ।

 


 

बुद्ध गोप मिलते थे लेकर

गो का सद्य मथित नवनीत,

उनसे पथ के वन्य द्रुमों के

नाम पूछते चले सप्रीत ।

 

पथ चलते शोभा पाते थे

वे परिहित उज्ज्वल परिधान,

हिम -निर्मुक्त योग में शोभित

चित्रा - संगी इन्दु मान ।

 

पत्नी को पथ में दिखलाता

वन के विविध दृश्य छविमान,

प्रियदर्शन विशोपम भूपति

कब पथ बीता, सका न जान ।

 

जिसके रथ के अश्व श्रांन्त थे

यश जिसका दुष्प्राप्य विशाल,

वह रानीयुत ॠषि-आश्रम में

पहुँचा जाकर सायंकाल ।

 

अलख अग्नि से अभिनन्दित से

वन से ले समिधा -कुश- फल,

जिस आश्रम में लौट रहे थे

वन से तपस्वियों के दल ।

 

पाला था अपत्य सम जिसको

ॠषि-वधुयों ने दे नीवार,

खड़ा हुआ था वही हरिण- दल

रुंधे पर्णकुटी के द्वार ।

 

थालों में जल पीने वाले

खग शंका से हों न अधीर,

हद जाती थीं मुनि-कन्याएं

दे कर त्वरित् द्रुमों में नीर ।

 


 

आतप स्राता देख किये

संचित, आंगन में जिसके कण,

बैठ उसी नीवार-राशि में

मृग करते थे रोमंथन ।

 

जिसमें आहुतियों से सुरक्षित

यज्ञ - अग्नियों से उद्भूत,

धूम, पवन लहरों पर उड़ उड़

अभ्यागत को करता पूत ।

 

'अश्वों को विश्राम मिले' कह

दिया सारथी को आदेश,

पत्नी को रथ से उतार

आश्रम में उतरा स्वयं नरेश ।

 

रक्षक नीतिविज्ञ राजा को

पत्नी सहित समागत जान,

शिष्ट संयमित मुनिवृन्दों ने

दिया उचित स्वागत सम्मान ।

 

गुरु औ' गुरुपत्नी को नृप ने

देखा संध्या विधि उपरान्त,

यज्ञ अग्नि के साथ यथा

शोभा पाती हो स्वाहा शान्त ।

-रघुवंश

 

उद्बोधन mahadevi verma

अब शयन त्यागो सुधीवर यामिनी बीती !

 

धुरी दुर्वह लोक की यह

बांट दी विधि ने द्विधा कर,

जनक करते हैं वहन नित

एक को निस्तन्द्र रह कर,

 

अपर जिसके छोर के

तुम हो स्वयं वाहक धुरन्धर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

ये तुम्हारे नयन जिनमें

स्निग्ध सुन्दर पुतलियाँ चल,

वे कमल जो कोष में

बन्दी बनाये भ्रमर चंचल,

 

साथ ही खुल जांय तो

उपमान बन जायें परस्पर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

वृंत - शिथिल प्रसून लेकर

भेंट नव विकसित कमल - वन,

अन्य के गुण की धरोहर

ले वही प्रात: समीरण ।

 

चाहती तब सहज सुरभित

सांस की समता सके कर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 


 

किशलयों के ताम्र उर में

हार का ज्यों शुभ्र मोती,

ओस - कणिका पा नया

उत्कर्ष, समता योग्य होती,

 

ज्यों तुम्हारी स्मित खिली है

दसन - ऊद्भासित अधर पर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

तरणि से पहले अरुण ने

दे दिया तम को पराभव,

तात संगर में तुम्हारे

लक्ष्य करते शत्रु को कब,

 

जब स्वयं रणभूमि में तुम

अग्रसर होते धनुर्धर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

जग उठे हैं करवटें ले

शृंखलायें खींचते गज,

रक्तिमाभा प्रात की यों

दन्त-कोरक पर रही सज,

 


 

आज गैरिक शैल के

आये कहीं ये तट गिरा कर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

दीर्घ पटमंडप - निवेशी

पारसीक तुरंग जागे,

हैं धरे जिन बाजियों के

लेह्य सैन्धव-खंड आगे,

 

अब मुखों की श्वास-ऊष्मा

से रहें उनको मलिन कर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

म्लान हैं अब सुमन के उपहार

लगती विरल रचना,

खो चुके हैं दीप जगमग

किरण का परिवेष अपना,

 

बद्धपंजर मंजुभाषी

कौर यह दुहरा रहा स्वर !

यामिनी बीती सुधीवर !

 

अज विलाप mahadevi verma

'सुमन के भी स्पर्श से जब

प्राण तन को छोड़ जाता,

मारने के हित न साधन

कौन सा पाता विधाता !

 

या मृदुल के अन्त हित विधि

खोजता साधन सुकोमल,

है मुझे अनुभव, न हिम का

भार सहते कमलिनी - दल !

 

प्राणहर माला न हरती

प्राण मेरा रह हृदय पर,

अमृत को विष, विष सुधा सम

दैव की इच्छा रही कर !

 

अशनिपात इसे किया या

दैव ने दुर्भाग्य के हित,

छाड़ जिसने द्रुम दिया लतिका

गिरा दी पर तदाश्रित !

 


 

सुमनमय, कुंचित भ्रमर सी

कृष्ण अलकें वातचंचल,

तुम उठोगी सोचते हैं

प्राण मेरे विरह - आकुल !

 

बन्द निशि में मौन अलियों-

युत अकेले कंज सा मुख,

लोल अलकों से घिरा नीरव

मुझे अब दे रहा दुख ।

 

विरह सहकर इन्दु निशि औ'

चक्रवाक मिथुन मिले फिर,

हन्त निरवधि, विरह मेरा

दग्ध इससे क्यों न हो उर !

 

किशलयों की सेज पर भी

सुतनु ! तुम पाती नहीं कल,

अब चितारोहण कहो कैसे

सहेंगे अंग कोमल !

 

शून्यगति तुम रहससंगी

मेखला अब है न मुखरित,

देख चिर निद्रा तुम्हारी

शोक के मानो हुई मृत !

 


 

पा गया तव मधु गिरा पिक

हंसियां गति मदिर अलसित,

लोल चितवन हरिणियां

विभ्रम लताएँ वात - कम्पित ।

 

चाह थी सुरलोक की,

मुझको न पर छोड़ा अकेला,

सत्य ही निज गुण यहाँ

तुम रख गई हो गगन - वेला !

 

पर विरह की गुरु व्यथा से

यह हृदय है भार - बोझिल,

दे नहीं पाते इसे ये आज

कुछ अवलम्ब सम्बल ।

 

आम्र और प्रियंगु का तुमने

किया था युग्म निश्चित,

बिना शुभ परिणय इन्हें

क्या छोड़ जाना आज समुचित ?

 


 

चरन से छूकर जिसे तुमने

किया था सफल दोहद,

फूल कर जब वह अशोक

नवल सुमन से जायगा लद;

 

केश - रचना में कभी जो

काम आते कुसुम नूतन,

किस तरह उनकी तिलांजलि

दे करूँगा सुमुखि! तर्पण !

 

धृति गई, आनन्द गत, संगीत

नीरव, ऋतु निरुत्सव,

निष्प्रयोजन आभरण,

शयनीय मेरा शून्य है अब !

 

स्वामिनी गृह की रही तुम

मन्त्रणा में सचिव तत्पर,

कक्ष के एकान्त में मेरी

तुम्हीं प्रिय संगिनी वर ।

 

तुम कलायों में ललित

मेरी रहीं शिष्या प्रवीणा,

निष्करुण यम ने तुम्हीं को

छीन क्या मेरा न छीना !'

 


 

प्रिय - विरह - व्याकुल नृपति के

मर्म करुण विलाप का स्वर,

सुन लगे रोने विटप रस-अश्रु

शाखा से गिरा कर ।

-रघुवंश

प्रत्यागमन mahadevi verma

देखो सुमुखि ! सेतु से मेरे

भिन्न मलय तक फेनिल सागर,

छायापथ से ज्यों विभक्त हो

शरद-प्रसन्न तारकित अम्बर ।

 

आदि वराह रसातल से जब

पृथ्वी को लाये थे ऊपर,

प्रलय-प्रवृध्द स्वच्छ जल इसका

बना धरा का घूंघट क्षण भर ।

 

तुंग तरंगों से भुजंग ये,

तट पर निकले वायुपान हित

ज्ञात हुये जब रवि किरणों ने

फण-मणियां कर दीं उद्भासित ।

 

मूंगों की श्रेणियाँ लाल हैं

देवि, तुम्हारे ज्यों अरुणाधर !

वेगवती लहरें जाती हैं

शख-दलों को गिरा इन्हीं पर !

 


 

तीक्ष्ण अनीवाले- शिखरों पर

निपतित, विद्धमुखों को लेकर,

कष्ट सहित ही शंखयूथ यह

जल में फिर संचरण रहा कर ।

 

घूम रहे आवर्त्त वेग से

जल लेने के लिए झुके घन,

लगता है मानो करता है

मन्दर फिर सागर का मंथन ।

 

लोह -चक्र- रेखा सी तन्वी

ताल - तमाल वनों से श्यामल,

जंग लगी ज्यों धार दीखती

दूर सिन्धु की वेला निश्चल ।

 


 

इस तट पर आने में हमको

यान - वेग से लगा निमिष भर,

फल - भारानत पूग, सीपियों

से बिखरे मुक्ता सैकत पर ।

 

मृगनयने ! करभोरु ! पंथ पर

अपने पीछे तो देखो टुक,

निकल रही दूरस्थ सिन्धु से

धरा वनों के साथ अचानक !

 

नभ-गंगा-तरंग-चल- शीतल

व्योमपवन, सुरगज-मद-सुरभित,

पीता, तब मुख-स्वेद-कणों को

जो मध्याह्न ताप से उत्यित ।

 

चंडि ! कुतूहल से छूती हो

वन को जब फैला अपना कर,

वलयाकार तडित् मिस मानो

कंकण नव पहनाता जलधर ।

 

चिर परित्यक्त आश्रमों में निज

सुख से लौट बसे तापस जन,

अब निर्विघ्न जान कर जनपद

उटजों में रच रहे तपोवन ।

-रघुवंश

 

संगम mahadevi verma

सुतनु ! देखो पुण्यसलिल-प्रवाहिनी अभिराम,

भिन्न जल को कर रहीं यमुना-तरंगें श्याम ।

 

दृष्टिगत मुक्तावली सी है कहीं अवदात,

अन्तरित नीलम जिसे करते प्रभा से स्नात ।

 

पुण्डरीकों से गुंथी ज्यों शुभ्र माला एक,

कर रहे चित्रित जिसे नीले सरोज अनेक ।

 

मानसर-प्रिय हंसकुल की दे रही है भ्रान्ति,

पंक्ति में जिनकी मिले कलहंस धूमिल कान्ति ।

 

श्वेत चन्दन-रचित भू-मुख का यथा श्रृंगार,

अगुरु-रेखा-चित्र करते श्यामता संचार ।

 


 

शबल जिसको कर रहा है तिमिर छायालीन,

विमल विधु की विहँसती हो ज्यों विभा विस्तीर्ण ।

 

शारदी सित मेघ का देती कहीं आभास,

झाँकता है रन्ध्र से जिसके सुनीलाकाश ।

 

हो यथा शिवगात रंजितभूति उज्ज्वल रंग,

कर रहे जिसको अलंकृत असितवर्ण भुजंग ।

(रघुवंश)

सरयू mahadevi verma

यह वही सरयू, सदा मेरे लिए जो मान्य,

धाय उत्तर कोशलों की एक जो सामान्य ।

 

पुष्ट होते थे इसी की खेल सिकता-गोद,

वृद्धि पाते हैं मधुर पय - पान से सामोद ।

 

स्वामि से विरहित हमारी जननि ही सी म्लान,

मान्य भूपति रहित सरयू आज पड़ती जान ।

 

पवनशीतल इन तरुंगों के उठा कर हाथ,

दूर ही से भेंटती है आज मेरा गात ।

 

कहते ही इस भांति, दाशरथि का उर-अभिमत,

जान गया पुष्पक - रथ का चालक अधिदैवत ।

 


 

देख रहे जब भरत प्रजा परिजन विस्मित से,

उतरा धरती पर विमान यह ज्योतिष्पथ से ।

-रघुवंश

सन्देश mahadevi verma

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

ज्यों गजेन्द्र क्रीड़ा में तन्मय

टकराता टीलों से निर्भय,

शैल शिखर - संलग्न मेघ

वैसे ही घिर छाया ।

 


 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

स्नेह जगा देने वाले के,

सम्मुख हो बादल काले के,

रोक आँसुयों को कुबेर का

अनुचर अकुलाया ।

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

करके सुमन कुटज के संचित

घन को किया अर्घ्य से अर्चित,

प्रीति - वचन से कह शुभागमन

विरही हर्षाया !

 


 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

धूम-ज्योति - जल - वायु -संवलित

कहाँ जलद का गात संघटित,

कहाँ संदेसा जिसे चतुर जन

ही पहुँचा पाया !

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

समझा यक्ष न बेसुधपन से,

करने लगा याचना घन से,

मोहमुग्ध ने जड़चेतन का

भेद नहीं पाया !

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

'संतप्तों के शरण वलाहक !

ले जायो सन्देश प्रिया तक

मेरा, जिसकी धनद - कोप से

विरह - तप्त काया ।

 


 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

मन्द मन्द गति से संचारण

करता है अनुकूल समीरण,

बाईं ओर व्रती चातक ने

मधु - स्वर में गाया !

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

गई धरा जिससे उर्वर बन,

हुए अंकुरित छत्रक अनगिन,

गर्जन तेरा सुखद आज

हंसों ने सुन पाया ।

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

सम्बल कमल-नाल का लेकर

आ कैलाश रहेंगे सहचर,

राजहंस ये उत्सुक जिनको

मानस सर भाया ।

 


 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

कभी मिलन के अवसर पाता

जो गिरि तुमसे स्नेह जताता,

तुमको जिसने मेघ, उष्ण

आँसू से नहलाया !

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

वंद्य राम-पद से चिह्नित जो,

पर्वत तुमसे आलिंगित जो,

उस संगी से आज विदा

लेने का क्षण आया ।

 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

 

इन्द्र धनुष से सज्जित श्यामल

वपु यों छबि पा लेगा बादल,

मोर मुकुट युत गोपालक ही

उतर यथा आया ।

 


 

आषाढ़ मास का

प्रथम दिवस आया ।

-मेघदूत

शरद mahadevi verma

मंजुल शरद वधू सी आयी !

 

फूले हुए कांस का अंशुक,

विकचित कमलों में मनोज्ञ मुख,

उन्मद हंस-स्वरों में नूपुर,

पके शालियों में नत उसकी

देह-यष्टि सब के मन भायी।

 

भू पर कांस निशा में शशघर,

नदी हंसमय, कुमुदोंमय सर,

सप्तपर्ण फूले हैं वन वन

उपवन में भर फुल्ल मालती

जग में उज्ज्वल दीप्ति बिछायी ।

 

रशना रम्य मछलियां चंचल,

हार हुआ तट का सित खगकुल,

अब पुलिनान्तनितम्बनि मनहर

नदियां भी बहती हैं मंथर

प्रमदा सी गति मन्द सुहायी ।

 


 

रजत मृणाल शंख से उज्ज्वल,

जो हल्के हो गये बिना जल,

पवन वेग से शतश: उड़कर

मेघों ने, ज्यों किसी नृपति पर

चल चंवरों की शोभा पायी ।

 

मेघों में सुरचाप न शोभित,

तड़ित्-पताका भी अन्तर्हित,

बगुले करते व्यजन न नभ पर,

अब न मयूर देखते उन्मुख

श्याम घटायों की सुघराई ।

 

शेफालिका-सुमनदल-सुरभित

पक्षिकुलों के कलरव-मुखरित,

उत्पल दृग मृगियों से संकुल,

उपवन भी करते हैं, पुलकित,

छू कर मानस की गहराई ।

 

लहराता है जहाँ शालिदल,

जहाँ स्वस्थ चरता है गो-कुल

सारस-हंस-युग्म कलरव-रत,

उस भूतल ने जनमन में नित

सुख की एक हिलोर उठायी ।

 


 

चन्द्र-तारिकायों से चित्रित,

व्योम हुआ मेघों से विरहित,

राजहंस औ' विकच कुमुदयुत

मरकत-जल से पूर्ण सरोवर

की अब नभ ने समता पायी ।

(ॠतुसंहार)

विदा mahadevi verma

आज विदा होगी शकुन्तला

सोच हृदय जाता है भर-भर,

दृष्टि हुई धुँधली चिंता से

रूद्ध अश्रु से कण्ठ रुद्ध स्वर ।

 

जब ममता से इतना विचलित

व्यथित हुआ वनवासी का मन,

तब दुहिता विछोह नूतन से

पाते कितनी व्यथा गृहीजन !

 

ग्रहण किया था कभी न जिसने

तुम्हें पिलाये बिना स्वयं जल,

मण्डनप्रिय होने पर भी जो

नहीं स्नेह से तोड़ सकी दल,

 


 

जन्म तुम्हारे नव मुकुलों का

जिसके हित होता था उत्सव,

वह शकुन्तला जाती पतिगृह

आज अनुज्ञा दो इसको सब ।

 

जिसका कुश से विद्ध देख मुख

इंगुदि-तेल लगाया क्षत-हर,

सावां कण दे पाला सुत सम

खड़ा हरिण वह राह रोककर !

 

जिनसे उत्पक्ष्मन तेरे दृग

देख न पाते पथ नत-उन्नत,

धीरज धरकर अश्रु पोंछ ले

विषम-भूमि, हों चरण न विचलित ।

 

कमल वनों से हरित सरोवर

मिले पन्थ में रम्यान्तर हों,

छाया सहित पन्थ के द्रुम भी

रवि-किरणों के आतपहर हों,

 

सरसिज के कोमल पराग सा

मृदुल पन्थ का धूलि-निचय हो,

शान्त और अनुकूल पवन से

यह तेरा पथ मंगलमय हो।

(अभिज्ञानशाकुन्तल)

 

राम mahadevi verma

1

दलित उर को कर रहा है घोर दुख का वेग,

पर नहीं दो खण्ड हो जाता हदय यह टूट ।

शोक-मूर्च्छित हो रही है विकल मेरी देह,

चेतना से, किन्तु यह पाती नहीं है छूट ।

 

दग्ध करता गात मेरा तीव्र अन्तर्दाह,

किन्तु उसको कर न पाता वह जलाकर क्षार ।

नियति मेरे मर्म पर करती कठिन आघात ।

काटती है, किन्तु यह मेरा न जीवन-तार ।

 

तोड़ संयम कष्टकर जो बह चली निर्बन्ध

क्षुब्ध होकर वेदना की यह सवेग तरंग,

फैलती है चेतना पर, ज्यों प्रचण्ड प्रवाह

वेग में दुर्वार करता सेतु सैकत भंग ।

 

2

यत्नों के कारण जिसमें थे

विविध विनोद भाव भी सम्भव,

वीरों के संघर्ष जगाते

जगती में अद्भुत रस अभिनव ।

 

मुग्धाक्षी का पूर्व विरह था

शत्रुनाश तक ही परिसीमित,

कैसे मूक विरह यह झेलूँ

जो निरुपाय, अवधि से विरहित ।

 

जहाँ व्यर्थ सुग्रीव सख्य है

कपियों का भी व्यर्थ पराक्रम,

जाम्बवान की प्रज्ञा निष्फल

मारुति की गति नहीं जहाँ पर,

 

जहाँ विश्वकर्मा सुत नल भी

मार्ग बनाने में है अक्षम,

प्रिये ! कहाँ हो, जहाँ पहुंचने

में अशक्त हैं लक्ष्मण के शर ?

 

एक करुण रस ही निमित्त वश

विविध भाव में जाता है ढल,

ज्यों आवर्त्त वीचि बुद्बुद मैं,

परिवर्तित हो एक रहा जल ।

(उत्तररामचरित)

 

मंगलाचरण mahadevi verma

तिमिराच्छन्न गगन को करते

घिरते आते हैं यह बादल,

घन तमाल वृक्षों की छाया-

से वन-भू लगती है श्यामल ।

 

रजनी के तम में होता है

यह गोपाल भोति से उन्मन,

राधे ! इसे धाम पहुँचा दे,

नन्द महर से पा निर्देशन;

 

यमुना-तट के कुंज-पथों पर

जो चल देते स्नेह-मुग्धमन,

उन दोनों राधा माधव की

जयति सदा मधु-क्रीड़ा पावन !

 

(गीत गोविन्द-जयदेव)

35. करते श्याम विहार (गीत)

छाया सरस वसन्त विपिन में

करते श्याम विहार !

युवति जनों के संग रास रच

करते श्याम विहार !

 


 

ललित लवंग लतायें छूकर

बहता मलय समीर;

अलि-संकुल पिक के कूजन से

मुखरित कुंज-कुटीर;

 

विरहि-जनों के हित दुरंत

इस ॠतुपति का संचार !

करते श्याम विहार !

 

जिनके उर में मदन जगाता

मदिर मनोरथ-भीर,

वे प्रोषित पतिकायें करतीं

करुण विलाप अधीर,

 

वकुल निराकुल ले सुमनों पर

अलिकुल का सम्भार !

करते श्याम विहार !


मृगमद के सौरभ सम सुरभित

नव पल्लवित तमाल;

तरुण जनों के मर्म विदारक

मनसिज नख से लाल-

 

किंशुक के तरुजाल कर रहे

फूलों से श्रृंगार !

करते श्याम विहार !

(गीत गोविन्द-जयदेव)

 

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